(शंका) संशय-संदेह (न धार) धारण न करवो ते [निःशंकित
अंग छे]. २ – (वृष) धर्मने (धार) धारण करीने (भव-सुख-
वांछा) संसारना सुखनी इच्छा (भानै) करे नहि [ते निःकांक्षित
गुण छे]. ३ – (मुनि-तन) मुनिओनां शरीर वगेरे (मलिन)
मलिन (देख) देखीने (न घिनावै) घृणा न करवी [ते
निर्विचिकित्सा अंग छे.] ४ – (तत्त्व - कुतत्त्व) साचां अने जूठां
तत्त्वोनी (पिछानै) ओळखाण राखे [ते अमूढद्रष्टि अंग छे].
५ – (निजगुण) पोताना गुणोने (अरु) अने (पर औगुण)
बीजाना अवगुणोने (ढांके) छुपावे (वा) अने (निजधर्म) पोताना
आत्मधर्मने (बढावै) वधारे अर्थात् निर्मळ बनावे [ते उपगूहन
अंग छे]. ६ – (कामादिक कर) काम-विकार आदि कारणोथी
(वृषतैं) धर्मथी (चिगते) डगी जतां (निज-परको) पोताने अने
परने (सु दिढावै) फरीने एमां द्रढ करे [ते स्थितिकरण अंग छे].
७ – (धर्मीसों) पोताना सहधर्मी जनोथी (गौ-वच्छ-प्रीतिसम)
वाछरडां उपरनी गायनी प्रीतिनी माफक (कर) प्रेम राखवो
[ते वात्सल्य अंग छे]; अने ८ – (जिनधर्म) जैनधर्मनी (दिपावै)
शोभा वधारवी ते [प्रभावना अंग छे]. (इन गुणतैं) आ
[आठ] गुणथी (विपरीत) ऊलटा (वसु) आठ (दोष) दोष छे,
(तिनको) ते दोषोने (सतत) हंमेशां (खिपावै) दूर करवा जोईए.
भावार्थः — [१] तत्त्व आ ज छे, आम ज छे, बीजुं नथी
अने बीजा प्रकारे पण नथी, आ प्रमाणे यथार्थ
तत्त्वोमां अटल श्रद्धा थवी ते निःशंकित अंग
कहेवाय छे.
त्रीजी ढाळ ][ ७९