धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया ।
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।।२७।।
[६]काम, क्रोध, लोभ वगेरे कोई पण कारणे (सम्यक्त्व
अने चारित्रथी) भ्रष्ट थती वखते पोताने अने बीजाने
फरीथी तेमां स्थिर करवो ते स्थितिकरण अंग छे.
[७]पोताना सहधर्मी प्राणी उपर, वाछरडां उपर हेत
राखती गायनी माफक, निरपेक्ष प्रेम करवो ते वात्सल्य
अंग छे.
[८]अज्ञान-अंधकारने हठावीने विद्या, बळ वगेरेथी
शास्त्रोमां कहेल यथायोग्य रीति प्रमाणे, पोताना सामर्थ्य
प्रमाणे जैनधर्मनो प्रभाव प्रगट करवो ते प्रभावना
अंग कहेवाय छे.
आ गुणो (अंगो)थी ऊलटा १-शंका, २-कांक्षा,
३-विचिकित्सा, ४-मूढद्रष्टि, ५-अनुपगूहन, ६-अस्थितिकरण,
७-अवात्सल्य, ८-अप्रभावना — आ सम्यक्त्वना आठ दोष छे;
तेने हंमेशां दूर करवा जोईए. (१२-१३ पूर्वार्ध.)
गाथा १३ (±उत्तरार्धा≤)
मद नामना आL दोष
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै,
मद न रूपकौ, मद न ज्ञानकौ, धन-बलकौ मद भानै.१३.
त्रीजी ढाळ ][ ८१