ज्ञान ते निश्चयसम्यग्ज्ञान छे. परद्रव्योनुं आलंबन छोडीने आत्म-
स्वरूपमां लीन थवुं ते निश्चय सम्यक्चारित्र छे. तथा साते तत्त्वोनुं
जेम छे तेम भेदरूप अटळ श्रद्धान करवुं ते व्यवहार सम्यग्दर्शन
कहेवाय छे. जोके सात तत्त्वोना भेदनी अटळ श्रद्धा शुभराग छे
तेथी ते खरेखर सम्यग्दर्शन नथी पण नीचली दशामां चोथा-
पांचमा-छठ्ठा गुणस्थानमां निश्चयसमकितनी साथे सहचर होवाथी
ते व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवाय छे.
अंग (गुण) छे, एने सारी रीते जाणीने दोषोनो त्याग अने
गुणोनुं ग्रहण करवुं जोईए.
संयम होतो नथी, तोपण ते इन्द्रादिक द्वारा पूजाय छे. त्रणलोक
अने त्रणकाळमां निश्चयसम्यक्त्व समान सुखकारी बीजी कोई
वस्तु नथी. बधां धर्मोनुं मूळ, सार अने मोक्षमार्गनुं पहेलुं
पगथियुं आ सम्यक्त्व ज छे, तेना विना ज्ञान अने चारित्र
सम्यक्पणुं पामतां नथी पण मिथ्या कहेवाय छे.
भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग,
नीचकुळवाळो, अल्पायु अने दरिद्री थतो नथी; मनुष्य अने