तथापि अपने सच्चे स्वरूपको समझनेका प्रयास नहीं करता,
इसलिए पुनः पुनः संसार-सागरमें भटककर अपना अधिक काल
निगोदगति — एकेन्द्रिय पर्यायमें व्यतीत करता है।
मिथ्यात्वका महापाप
उपरोक्त भूलोंका मुख्य कारण अपने स्वरूपकी भ्रमणा है।
मैं पर (शरीर) हूँ, पर (स्त्री-पुत्रादि) मेरे हैं, परका मैं कर
सकता हूँ, पर मेरा कर सकता है, परसे मुझे लाभ या हानि
होते हैं — ऐसी मिथ्या मान्यताका नित्य अपरिमित महापाप जीव
प्रतिक्षण सेया करता है; उस महापापको शास्त्रीय परिभाषामें
मिथ्यादर्शन कहा जाता है। मिथ्यादर्शनके फलस्वरूप जीव क्रोध,
मान, माया, लोभ – जो कि परिमित पाप हैं — उनका तीव्र या
मन्दरूपसे सेवन करता है। जीव क्रोधादिकको पाप मानते हैं,
किन्तु उनका मूल मिथ्यादर्शनरूप महापाप है, उसे वे नहीं
जानते; तो फि र उसका निवारण कैसे करें ?
वस्तुका स्वरूप
वस्तुस्वरूप कहो या जैनधर्म — दोनों एक ही हैं। उनकी
विधि ऐसी है कि — पहले बड़ा पाप छुड़वाकर फि र छोटा पाप
छुड़वाते हैं; इसलिए बड़ा पाप क्या और छोटा पाप क्या – उसे
प्रथम समझनेकी आवश्यकता है।
जगतमें सात व्यसन पापबन्धके कारण माने जाते हैं —
जुआ, मांसभक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार, परस्त्रीसेवन
तथा चोरी, किन्तु इन व्यसनोंसे भी बढ़कर महापाप मिथ्यात्वका
सेवन है, इसलिए जैनधर्म सर्वप्रथम मिथ्यात्वको छोड़नेका उपदेश
देता है, किन्तु अधिकांश उपदेशक, प्रचारक और अगुरु
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