सुख मानते हैं, किन्तु वह भ्रमणा है
प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट नहीं है तथा संयोगसे किसीको सुख-दुःख
हो ऐसा नहीं है। किन्तु विपरीत श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं
पुरुषार्थसे जीव भूल करता है और उसके कारण दुःखी होता
है। सच्चे पुरुषार्थसे भूलको हटाकर सम्यक्श्रद्धा
अवस्थाको टालकर दो इन्द्रियसे पंचेन्द्रियकी पर्याय प्राप्त करना
दुर्लभ है और उसमें भी मनुष्यभवकी प्राप्ति तो अति-दीर्घकालमें
होती है अर्थात् जीव मनुष्यभव नहिंवत् प्राप्त कर पाता है।
कर सकता है; किन्तु मनुष्य पर्यायमें भी या तो धर्मका यथार्थ
विचार नहीं करता, या फि र धर्मके नाम पर चलनेवाली अनेक
मिथ्या-मान्यताओंमेंसे किसी न किसी मिथ्या-मान्यताको ग्रहण
करके कुदेव, कुगुरु तथा कुशास्त्रके चक्रमें फँस जाता है, अथवा
तो ‘‘सर्व धर्म समान हैं’’
विशालबुद्धि मानकर और अभिमानका सेवन करता है। कभी वह
जीव सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रका बाह्यस्वरूप समझता है,