Chha Dhala (Hindi).

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है । ] ५. (राग-द्वेष-करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करनेवाली
(कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना [सो
दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहा जाता है । ] (और हु) तथा अन्य भी
(अघहेतु) पापके कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हैं) उन्हें
भी (न कीजै) नहीं करना चाहिये ।
भावार्थ :किसीके धनका नाश, पराजय अथवा विजय
आदिका विचार न करना सो पहला अपध्यान-अनर्थदंडव्रत
कहलाता है ।
(१) हिंसारूप पापजनक व्यापार तथा खेती आदिका
उपदेश न देना वह पापोपदेश-अनर्थदंडव्रत है ।
(२) प्रमादवश होकर पानी ढोलना, जमीन खोदना, वृक्ष
काटना, आग लगाना–इत्यादिका त्याग करना अर्थात् पाँच
स्थावरकायके जीवोंकी हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं ।
(३) यश प्राप्तिके लिये, किसीके माँगने पर हिंसाके कारण-
भूत हथियार न देना सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है ।
(४) राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाली विकथा और उपन्यास या
अनर्थदंड दूसरे भी बहुतसे हैं पाँच तो स्थूलताकी अपेक्षासे
अथवा दिग्दर्शनमात्र हैं वे सब पापजनक हैं; इसलिये उनका
त्याग करना चाहिये पापजनक निष्प्रयोजन कार्य अनर्थदंड
कहलाता है
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक, पहले दो कषायोंका अभाव हुआ
हो उस जीवको सच्चे अणुव्रत होते हैं, निश्चयसम्यग्दर्शन न हो उसके
व्रतको तो सर्वज्ञदेवने बालव्रत कहा है
चौथी ढाल ][ ११५