किसीकी हारका (न चिन्तै) विचार न करना [ उसे अपध्यान-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं । ] २. (बनज) व्यापार और (कृषी तैं)
खेतीसे (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका
(उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [उसे पापोपदेश-अनर्थदंडव्रत
कहा जाता है । ] ३. (प्रमाद कर) प्रमादसे [बिना प्रयोजन ]
(जल) जलकायिक, (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक,
(पावक) अग्निकायिक [और वायुकायिक ] जीवोंका (न विराधै)
घात न करना [सो प्रमादचर्या-अनर्थदंडव्रत कहलाता है । ] ४.
(असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल [आदि ]
(हिंसोपकरण) हिंसा होनेमें कारणभूत पदार्थोंको (दे) देकर (यश)
यश (नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता