(दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव)
राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावोंको (निवारतैं)
दूर करनेसे (भावित हिंसा) भावहिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती,
(जिनके) उन मुनियोंको (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं
होती, (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये
बिना (न गहैं) ग्रहण नहीं करते तथा (अठदशसहस) अठारह
हजार (विध) प्रकारके (शील) शीलको-ब्रह्मचर्यको (धर) धारण
करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्ममें) चैतन्यस्वरूप आत्मामें (रमि रहैं)
लीन रहते हैं ।
निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातवाँ गुणस्थान बारम्बार आता ही है ।
छठवें गुणस्थानके समय उन्हें पंच महाव्रत, नग्नता, समिति आदि
अट्ठाईस मूलगुणके शुद्धभाव होते हैं; किन्तु उसे वे धर्म नहीं मानते