परिणति निरन्तर वर्तती ही है ।
काम, क्रोध, मान इत्यादि भावोंकी उत्पत्ति होना सो भावहिंसा है ।
वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकारकी हिंसा नहीं करते; इसलिये
उनको (१) अहिंसा महाव्रत
होता है । अन्य किसी वस्तुकी तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी और
पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते; इसलिये उनको (३)
अचौर्यमहाव्रत होता है । शीलके अठारह हजार भेदोंका सदा पालन
करते हैं और चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमें लीन रहते हैं; इसलिये
उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्म-स्थिरतारूप) महाव्रत होता है
प्रकारकी हिंसा न करना सो अहिंसा महाव्रत है–इत्यादि
इसलिये प्रमाद न होने पर भी मुनिराज नदी तथा झरने आदिका
प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल
के फल और तुम्बीफल आदिका ग्रहण कर सकते हैं –ऐसा
‘‘श्लोकवार्तिकालंकार’’ का अभिमत है