Chha Dhala (Hindi). Gatha: 2: parigrahtyAg mahAvrat, iryA samiti aur bhAsA samiti (Dhal 6).

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तथा उस काल भी उन्हें तीन कषाय चौकड़ीके अभावरूप शुद्ध
परिणति निरन्तर वर्तती ही है ।
छह काय (पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर काय तथा एक
त्रस काय)के जीवोंका घात करना सो द्रव्यहिंसा है और राग, द्वेष,
काम, क्रोध, मान इत्यादि भावोंकी उत्पत्ति होना सो भावहिंसा है ।
वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकारकी हिंसा नहीं करते; इसलिये
उनको (१) अहिंसा महाव्रत
होता है । स्थूल या सूक्ष्म–ऐसे दोनों
प्रकारकी झूठ वे नहीं बोलते; इसलिये उनको (२) सत्य महाव्रत
होता है । अन्य किसी वस्तुकी तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी और
पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते; इसलिये उनको (३)
अचौर्यमहाव्रत होता है । शीलके अठारह हजार भेदोंका सदा पालन
करते हैं और चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमें लीन रहते हैं; इसलिये
उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्म-स्थिरतारूप) महाव्रत होता है
।।।।
परिग्रहत्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति
अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधातैं टलैं
परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्यातैं चलैं ।।
छठवीं ढाल ][ १५५
यहाँ वाक्य बदलनेसे महाव्रतोंके लक्षण बनते हैं, जैसे कि–दोनों
प्रकारकी हिंसा न करना सो अहिंसा महाव्रत है–इत्यादि
अदत्त वस्तुओंका प्रमादसे ग्रहण करना ही चोरी कहलाती है;
इसलिये प्रमाद न होने पर भी मुनिराज नदी तथा झरने आदिका
प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल
के फल और तुम्बीफल आदिका ग्रहण कर सकते हैं –ऐसा
‘‘श्लोकवार्तिकालंकार’’ का अभिमत है
(पृ. ४६३)