अन्वयार्थ : – (त्रिभुवनमें) तीनों लोकमें (जे ) जो
(अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी [हैं वे ] (सुख) सुखकी (चाहैं) इच्छा
करते हैं और (दुखतैं) दुःखसे (भयवन्त) डरते हैं, (तातैं) इसलिये
(गुरु) आचार्य (करुणा) दया (धार) करके (दुखहारी) दुःखका
नाश करनेवाली और (सुखकार) सुखको देनेवाली (सीख) शिक्षा
(कहैं) कहते हैं ।
भावार्थ : – तीन लोकमें जो अनन्त जीव (प्राणी) हैं, वे
दुःखसे डरते हैं और सुखको चाहते हैं, इसलिये आचार्य दुःखका
नाश करनेवाली तथा सुख देनेवाली शिक्षा देते हैं ।।१।।
है; इसलिये मैं (दौलतराम) अपने त्रियोग अर्थात् मन-वचन-काय
द्वारा सावधानी पूर्वक उस वीतराग (१८ दोषरहित ) स्वरूप
केवलज्ञानको नमस्कार करता हूँ ।।
ग्रन्थ-रचनाका उद्देश्य और जीवोंकी इच्छा
जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतैं भयवन्त ।
तातैं दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ।।१।।
पहली ढाल ][ ३