अन्वयार्थ : – (भवि) हे भव्य जीवो ! (जो) यदि
(अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो )चाहते हो [तो ] (ताहि)
गुरुकी वह शिक्षा (मन) मनको (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो)
सुनो [कि इस संसारमें प्रत्येक प्राणी ] (अनादि) अनादिकालसे
(मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर, (आपको)
अपने आत्माको (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा
है ।
भावार्थ : – हे भद्र प्राणियों ! यदि अपना हित चाहते हो
तो, अपने मनको स्थिर करके यह शिक्षा सुनो । जिस प्रकार कोई
शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशेमें चकचूर होकर, इधर-उधर
डगमगाकर गिरता है; उसीप्रकार यह जीव अनादि-कालसे मोहमें
गुरुशिक्षा सुननेका आदेश तथा संसार-परिभ्रमणका कारण
ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान ।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।२।।
४ ][ छहढाला