कारण नहीं हैं; तथापि परमें एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट-अनिष्टपना
मानकर जीव स्वयं दुःखी होता है; और वहाँ भ्रमवश होकर कैसे
संयोगके आश्रयसे विकार करता है, यह संक्षेपमें कहा है ।
धारण करके अकथनीय वेदना सहन करता है । वहाँसे निकलकर
अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है । त्रसपर्याय तो चिन्तामणि-
रत्नके समान अति दुर्लभतासे प्राप्त होती है । वहाँ भी विकलत्रय
शरीर धारण करके अत्यन्त दुःख सहन करता है । कदाचित्
असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मनके बिना दुःख प्राप्त करता है । संज्ञी
हो तो वहाँ भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता
है । बलवान जीव दूसरोंको दुःख देकर महान पापका बंध करते
हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदिके
अकथनीय दुःखोंको प्राप्त होते हैं ।
मिट्टीका एक कण भी इस लोकमें आ जाये तो उसकी दुर्गंधसे
कई कोसोंके संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें । उस धरतीको छूनेसे
भी असह्य वेदना होती है । वहाँ वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत,
उष्णता तथा अन्न-जलके अभावसे स्वतः महान दुःख होता है ।
जब बिलोंमें औंधे मुँह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है ।
फि र दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्तेकी भाँति उस पर टूट
पड़ते हैं और मारपीट करते हैं । तीसरे नरक तक अम्ब और