अन्वयार्थ : – (जो) यदि (विमानवासी) वैमानिक देव
(हू) भी (थाय) हुआ [तो वहाँ ] (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (बिन)
बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया [और ] (तहँतैं) वहाँसे (चय)
मरकर (थावर तन) स्थावर जीवका शरीर (धरै) धारण करता है;
(यों) इस प्रकार [यह जीव ] (परिवर्तन) पाँच परावर्तन (पूरे करै)
पूर्ण करता रहता है ।
भावार्थ : – यह जीव वैमानिक देवोंमें भी उत्पन्न हुआ;
किन्तु वहाँ इसने सम्यग्दर्शनके बिना दुःख उठाये और वहाँसे भी
मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों✽के शरीर धारण किये; अर्थात्
पुनः तिर्यंचगतिमें जा गिरा । इस प्रकार यह जीव अनादिकालसे
संसारमें भटक रहा है और पाँच परावर्तन कर रहा है ।।१६।।
सार
संसारकी कोई भी गति सुखदायक नहीं है ।
निश्चयसम्यग्दर्शनसे ही पंच परावर्तनरूप संसार समाप्त होता है ।
अन्य किसी कारणसे–दया, दानादिके शुभरागसे भी संसार नहीं
टूटता । संयोग सुख-दुःखका कारण नहीं है, किन्तु मिथ्यात्व
(परके साथ एकत्वबुद्धि-कर्ताबुद्धि, शुभरागसे धर्म होता है, शुभराग
हितकर है ऐसी मान्यता) ही दुःखका कारण है । सम्यग्दर्शन
सुखका कारण है ।
पहली ढालका सारांश
तीन लोक में जो अनंत जीव हैं, वे सब सुख चाहते हैं
और दुःखसे डरते हैं; किन्तु अपना यथार्थ स्वरूप समझें, तभी
✽मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं ।
२० ][ छहढाला