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हस्ते श्री रसिकलाल जगजीवनदास शाह-परिवार
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ने हैयुं आ फरी फरी प्रभु! ध्यान तेनुं धरे छे;
आत्मा मारो प्रभु! तुज कने आववा उल्लसे छे,
आपो एवुं बळ हृदयमां माहरी आश ए छे.
अज्ञान-अंश बळी भस्मरूपे थयो ज्यां;
आनंद, ज्ञान, निज वीर्य अनंत छे ज्यां,
त्यां स्थान मागुं — जिननां चरणांबुजोमां.
भले इन्द्राणीना रतनमय स्वस्तिक बनता;
नथी ए ज्ञेयोमां तुज परिणति सन्मुख जरा,
स्वरूपे डूबेला, नमन तुजने, ओ जिनवरा!
प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्री महावीरने.
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‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ नामनुं आ लघु संकलन अध्यात्म- युगस्रष्टा, वीर-कुंद-अमृतप्रणीत शुद्धात्ममार्गप्रकाशक, स्वानुभव- विभूषित, परमोपकारी परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां, श्री समयसार वगेरे अनेक दिगंबर जैन शास्त्रो पर आपेलां अध्यात्मरस-भरपूर प्रवचनोमांथी, पूज्य गुरुदेवश्रीनी पवित्र साधनाभूमि सुवर्णपुरी मध्ये ‘पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी स्मारक-योजना’ अंतर्गत नवनिर्मित ‘श्री दिगंबर जैन पंचमेरु- नंदीश्वर-जिनालय * गुरुदेवश्री कानजीस्वामी वचनामृतभवन * बहेनश्री चंपाबेन वचनामृतभवन’ — ए त्रिपटा अभिधानयुक्त अति भव्य जिनमंदिरनी दिवालोना आरसशिलापट पर उत्कीर्ण कराववा माटे चूंटेला २८७ बोलनो संग्रह छे.
भारतवर्षनी धन्य धरा पर विक्रमनी वीसमी-एकवीसमी शताब्दीमां समयसारना महिमानो जे आ अद्भुत उदय थयो छे ते, खरेखर अध्यात्मयुगप्रवर्तक परम कृपाळु पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनो कोई असाधारण परम प्रताप छे.
समयसार एटले द्रव्यकर्म, भावकर्म ने नोकर्म रहित त्रिकाळी शुद्ध आत्मा. शुद्ध आत्माना स्वरूपनुं सुंदर ने सचोट प्रतिपादन
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करनार, श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत परमागम श्री समयसार नामनो महान ग्रंथ वि. सं. १९७८मां, विधिनी कोई धन्य पळे, पूज्य गुरुदेवश्रीनां करकमळमां आव्यो. ते वांचतां ज तेमना हर्षोल्लासनो पार न रह्यो, केम के जे दुःखमुक्तिना यथार्थ मार्गनी शोधमां तेओ हता ते तेमने समयसारमांथी मळी गयो. समयसारनुं ऊंडाणथी अध्ययन करतां तेमणे तेमां अमृतनां सरोवर छलकातां जोयां; एक पछी एक गाथा वांचतां तेमणे खोबा भरी भरीने ते अमृत पीधुं. ग्रंथाधिराज समयसारे पूज्य गुरुदेवश्री पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार कर्यो अने तेमना आत्मानंदनो पार न रह्यो. समयसारना तलस्पर्शी अध्ययनथी तेमना अन्तर्जीवनमां परम पवित्र परिवर्तन थयुं. भूली पडेली परिणति निज घर तरफ वळी — परिणतिनो प्रवाह सुखसिंधु ज्ञायकदेव तरफ वळ्यो. तेमनी ज्ञानकळा अपूर्व रीते ने असाधारणरूपे खीली ऊठी.
ग्रंथधिराज समयसार जेमना शुद्धात्मसाधनामय जीवननो जनक थयो ने आजीवन साथी रह्यो ते परमकृपाळु पूज्य गुरुदेवनी पावन परिणतिमां समयसारना गहन अवगाहनथी समुत्पन्न जे स्वानुभूतिजनित अतीन्द्रिय आनंदना ऊभरा ते, विकल्पकाळे भव्यजनभाग्ययोगे शब्ददेह धारण करीने प्रवचनरूपे वहेवा लाग्या. गुरुदेवे पोतानी साधनापूत उज्ज्वळ ज्ञानधारामांथी पोताना जीवनकाळ दरमियान समयसार उपर ओगणीस वार शुद्धात्मतत्त्व - प्रतिपादनप्रधान, अनेकान्तसुसंगत ने निश्चय-व्यवहारना सुमेळ युक्त अध्यात्मरसझरतां अनुपम प्रवचनो आप्यां. तदुपरांत प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह, नियमसार वगेरे कुंदकुंदभारती पर तेम ज अन्य दिगंबर जैन आचार्योना परमात्मप्रकाश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा वगेरे अनेक ग्रंथो उपर पण अनेक वार तळस्पर्शी व्याख्यानो आप्यां. ए रीते व्याख्यानो द्वारा
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वीतरागसर्वज्ञदेवप्रणीत शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप साचो मोक्षमार्ग मुमुक्षुजगतने बतावीने कृपाळु कहानगुरुदेवे खरेखर वचनातीत असाधारण महान उपकार कर्यो छे. आ शताब्दीमां स्वानुभूतिप्रधान मोक्षमार्गनो जे महिमा प्रवर्ते छे तेनुं पूरुं श्रेय पूज्य गुरुदेवने छे.
पूज्य गुरुदेवनी अध्यात्मरसझरती, स्वानुभवमार्गप्रकाशिनी आ कल्याणी प्रवचनगंगा जगतना जीवोने पावन करती जे वही जाय छे तेने जो लेखनबद्ध करीने स्थायी करवामां आवे तो मुमुक्षुजगतने महान लाभनुं कारण थाय — ए पुनित भावनाना बळे श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट (सोनगढ) द्वारा, समयसार वगेरे अनेक शास्त्रो उपर पूज्य गुरुदेवे आपेलां प्रवचनो लिपिबद्ध करावी, ते मिथ्यात्वतमोभेदिनी समन्तभद्रा अनुपम वाणी ‘आत्मधर्म’ मासिक पत्र तेम ज अनेक प्रवचनग्रंथोमां प्रकाशित करवामां आवी. ए रीते पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनसाहित्य द्वारा निजहितार्थी मुमुक्षुजगत उपर महान उपकार थयो.
अहो! आवा असाधारण परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्रीनो तेम ज तेमनी लोकोत्तर अनुभववाणीनो महिमा शो थाय! ते विषे पोतानी गुरुभक्तिभीनी हृदयोर्मिओ व्यक्त करतां प्रशममूर्ति भगवतीमाता पूज्य बहेनश्री चंपाबेन कहे छे के —
‘‘गुरुदेवनुं द्रव्य ज अलौकिक हतुं. तेमनी वाणी पण एवी अलौकिक हती के अंदर आत्मानी रुचि जगाडे. तेमनी वाणीनां ऊंडाण ने रणकार कंईक जुदां ज हतां. सांभळतां अपूर्वता लागे ने ‘जड – चैतन्य जुदां छे’ तेवो भास थई जाय — एवी वाणी हती. ‘अरे जीवो! तमे देहमां बिराजमान भगवान आत्मा छो के जे अनंत गुणोनो महासागर छे. ते प्रत्यक्ष अनुभवगोचर भगवानने तमे अनुभवो; तमने परमानंद थशे.’ — आवी गुरुदेवनी
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अनुभवयुक्त जोरदार वाणी श्रोताओने आश्चर्यचकित करती. घणी प्रबळ वाणी! शुद्ध परिणतिनी ने शुद्ध ज्ञायक आत्मानी लगनी लगाडे — एवी मंगळमय वाणी गुरुदेवनी हती.
अहो! देव-शास्त्र-गुरु मंगळ छे, उपकारी छे. आपणने तो देव-शास्त्र-गुरुनुं दासत्व जोईए छे.
पूज्य कहानगुरुदेवथी तो मुक्तिनो मार्ग मळ्यो छे. तेओश्रीए चारे बाजुथी मुक्तिनो मार्ग प्रकाश्यो छे. गुरुदेवनो अपार उपकार छे. ते उपकार केम भुलाय! पूज्य गुरुदेवनां चरणकमळनी भक्ति अने तेमनुं दासत्व निरंतर हो.’’
पूज्य गुरुदेवश्रीना ते विशाळ प्रवचनसाहित्यमांथी चूंटीने आ ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पुस्तकनो उद्भव कई रीते थयो ते आपणे जोईएः —
पूज्य गुरुदेवनी साधनाभूमिमां — सुवर्णपुरीमां — प्रशममूर्ति धन्यावतार पूज्य बहेनश्री चंपाबेननी — रात्रे महिलाशास्त्रसभामां उच्चारेली — स्वानुभवरसझरती ने देवगुरुभक्तिभीनी अध्यात्म- वाणी पूज्य गुरुदेवश्रीनी मंगल उपस्थितिमां ‘बहेनश्रीनां वचनामृत’रूपे वि. सं. २०३३ मां प्रकाशित थई. तेमां समायेल अध्यात्मनां तलस्पर्शी ऊंडां रहस्योथी पूज्य गुरुदेव खूब ज प्रसन्न तेम ज प्रभावित थया. तेमणे पोतानी प्रसन्न भावना व्यक्त करतां ट्रस्टना प्रमुख श्री रामजीभाई दोशीने कह्युंः ‘‘भाई! आ ‘वचनामृत’ पुस्तक एवुं सरस छे के तेनी एक लाख प्रत छपाववी जोईए.’’ ‘बहेनश्रीनां वचनामृत’ पुस्तक विषे पूज्य गुरुदेवनी आवी असाधारण प्रसन्नता तेम ज अहोभाव जोईने – सांभळीने केटलाक मुमुक्षुओने तेने संगेमरमरना शिलापट पर उत्कीर्ण कराववानी भावना जागी. ए वात प्रस्तुत थतां पूज्य गुरुदेवे एवी
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भावना व्यक्त करी के ‘वचनामृत कोतरावीने बहेनना (पूज्य बहेनश्री चंपाबेनना) नामनुं एक नवुं स्वतंत्र मकान थवुं जोईए.’ मुरब्बी श्री रामजीभाईए पूज्य गुरुदेवश्रीनी भावना शिरोधार्य करीने नक्की कर्युं के — ‘बहेनश्री चंपाबेन वचनामृतभवन’नुं निर्माण करवुं; जेनी शिलान्यासविधि वि. सं. २०३७ना कारतक सुद पांचमना शुभ दिने पूज्य गुरुदेवनी मंगळ उपस्थितिमां थई हती.
शिलान्यासविधि संपन्न थया पछी थोडा दिवसोमां (गुरुदेवश्रीनी अनुपस्थितिमां) ट्रस्टीओए ने मुख्य कार्यकर्ताओए, ‘वचनामृतभवन’नुं विस्तृतीकरण करीने तेमां पंचमेरु-नंदीश्वरनी प्रतिष्ठित रचना करवी अने ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पण कोतराववां, — एवो निर्णय कर्यो. तदनुसार पूज्य गुरुदेवश्रीना साहित्यसमुद्रमांथी वीतराग मार्गने स्पष्ट करनारा केटलाक बोल वीणीने ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’नुं आ संकलन श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्टे तैयार कराव्युं, अने तेनुं आरसशिलापट पर कोतरकाम पण थयुं; तथा पूज्य बहेनश्रीनी मंगल उपस्थितिमां वि. सं. २०४१ना फागण सुद सातमना शुभ दिने पंचमेरु – नंदीश्वरजिनालयनी पंचकल्याणकपुरस्सर भव्य प्रतिष्ठा पण थई.
श्री पंचमेरु-नंदीश्वरजिनालयमां उत्कीर्ण ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पुस्तकाकारे प्रकाशित थाय तो सौ कोईने तेना अध्ययननो लाभ मळे — ए हेतुथी ते छपाववानुं ‘ट्रस्ट’नी योजनातळे हतुं, अने पूज्य बहेनश्री पण, आ पुस्तक शीघ्र बहार पडे तो सारुं — एवी अंतरमां गुरुवाणी प्रत्ये तेमने भक्तिभीनी तीव्र भावना होवाथी, अवारनवार पूछतां के — ‘‘ ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पुस्तक क्यारे बहार पडशे?’’ परंतु ते कार्य वगर – प्रयोजने ढीलमां पडयुं हतुं. तेवामां, जेमणे पोतानी देव-गुरु प्रत्येनी अपार भक्ति वडे पंचमेरु –
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नंदीश्वरजिनालय वगेरे सुवर्णपुरी – तीर्थधामनां बधां जिनायतनोनां तथा बहारगामनां अनेक जिनायतनोनां निर्माणकार्यमां तेम ज संस्थानी गतिविधिमां विविध प्रकारे अनुपम सेवा आपी छे ते, (पूज्य बहेनश्री अने पं. श्री हिंमतलालभाईना मोटा भाई) आत्मार्थी मुमुक्षु भाईश्री व्रजलालभाई जेठालाल शाह (इजनेर)नो स्वर्गवास थतां आदरणीय पंडितजी श्री हिंमतभाईए तथा मुरब्बी श्री व्रजलालभाईना परिवारे, जो ट्रस्ट ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पुस्तक प्रकाशित करवानी योजना शीघ्र कार्यान्वित करे तो, पोताना पूज्य मुरब्बी श्री व्रजलालभाईए स्वयं दर्शावेली भावना अनुसार धर्मादामां जाहेर करेली एक लाख रूपियानी रकममांथी रूपिया दस हजार तेना प्रकाशन खाते फाळववानी पोतानी भावना व्यक्त करी. ट्रस्टे तेमनी भावनाने संमति आपी. ए रीते ट्रस्टने ढीलमां पडेला आ पुस्तकना प्रकाशनकार्यमां वेग मळ्यो अने आ ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ पुस्तकाकारे साकार थयां, जे मुमुक्षुजगतना हाथमां प्रस्तुत करतां अमे अति हर्षानंद अनुभवीए छीए.
आ पुस्तकनी पडतर किंमत रूा. ८=०० थाय छे. जिज्ञासुओवधु लाभ लई शके ते माटे तेनी वेचाणकिंमत रूा. ४=०० राखवामां आवी छे.
अंतमां, अमने आशा छे के तत्त्वरसिक जिज्ञासु जीवो गुरुदेवश्रीनी स्वानुभवरसभीनी ज्ञानधारामांथी प्रवहेलां आ शुद्धात्मतत्त्वस्पर्शी ‘वचनामृत’ द्वारा आत्मार्थने पुष्ट करी, साधनानी साची दिशा प्राप्त करी, पोताना साधनामार्गने उज्ज्वळ तेम ज सुधास्यंदी बनावशे.
फागण वद १०, वि. सं. २०४४ (पू० बहेनश्री चंपाबेननी
५६मी सम्यक्त्वजयंती)
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आ गुजराती ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ ग्रंथनी बीजी आवृत्ति खपी जवाथी तेनी त्रीजी आवृत्ति फरी छपाववामां आवेल छे. आगळनी आवृत्तिमां जे मुद्रण-अशुद्धिओ हती ते सुधारीने आ आवृत्ति मुद्रित करवामां आवी छे.
मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’ना मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैने काळजीपूर्वक सारुं करी आप्युं छे, ते बदल तेमनो ट्रस्ट आभार माने छे.
आ ग्रंथना पठन-पाठनथी मुमुक्षु जीव आत्मलक्षी तत्त्वज्ञान प्राप्त करी आत्मार्थने विशेष पुष्ट करे ए ज भावना.
वि. सं. २०५८, कारतक सुदी-१५, ता. ३०-११-२००१
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आ भारतवर्षनी पुण्य भूमिमां अवतार लईने जे महापुरुषे प्रवर्तमान चोवीसीना चरम तीर्थंकर देवाधिदेव परमपूज्य १००८ श्री महावीरस्वामी द्वारा प्ररूपित तथा तदाम्नायानुवर्ती आचार्यशिरोमणि श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव द्वारा समयसार आदि परमागमोमां सुसंचित शुद्धात्मद्रव्यप्रधान अध्यात्मतत्त्वामृतनुं पोते पान करीने विक्रमनी आ वीस-एकवीसमी शताब्दीमां आत्मसाधनाना पावन पंथनो पुनः समुद्योत कर्यो छे, रूढिग्रस्त सांप्रदायिकतामां फसायेला जैनजगत उपर जेमणे, जिनागम, सम्यक् प्रबळ युक्ति अने स्वानुभवथी द्रव्यद्रष्टिप्रधान स्वात्मानुभूतिमूलक वीतराग जैनधर्मने प्रकाशमां लावीने, अनुपम, अद्भुत अने अनंत-अनंत उपकारो कर्या छे, पिस्ताळीस- पिस्ताळीस वर्षना सुदीर्घ काळ सुधी जेमनो निवास, दिव्य देशना तेम ज पुनित प्रभावनायोगे सोनगढ (सौराष्ट्र)ने एक अनुपम
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‘अध्यात्मतीर्थ’ बनावी दीधुं छे अने जेमनी अनेकान्तमुद्रित निश्चय-व्यवहार-सुमेळसमन्वित शुद्धात्मतत्त्वप्रधान अध्यात्मरस- निर्भर चमत्कारी वाणीमांथी ‘गुरुदेवश्रीनां वचनामृत’ संकलित करवामां आव्यां छे — एवा सौराष्ट्रना आध्यात्मिक युगपुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनो पवित्र जन्म सौराष्ट्रना (भावनगर जिल्लाना) उमराळा गाममां वि. सं. १९४६, वैशाख सुद बीज, रविवारना शुभ दिने थयो हतो. पिता श्री मोतीचंदभाई अने माता श्री उजमबा जातिए दशा-श्रीमाळी वणिक तथा धर्मे स्थानकवासी जैन हतां.
शिशुवयथी ज बाळक ‘कानजी’ना मुख पर वैराग्यनी सौम्यता अने आंखोमां बुद्धि ने वीर्यनी असाधारण प्रतिभा तरी आवती हती. ते निशाळमां तेम ज जैनशाळामां प्रायः पहेलो नंबर राखता हता. निशाळना लौकिक ज्ञानथी तेमना चित्तने संतोष थतो नहि; तेमने ऊंडे ऊंडे रह्या करतुं के ‘जेनी शोधमां हुं छुं ते आ नथी’. कोई कोई वार आ दुःख तीव्रता धारण करतुं; अने एक वार तो, माताथी विखूटा पडेला बाळकनी जेम, ते बाळमहात्मा सत्ना वियोगे खूब रड्या हता.
युवावयमां दुकान उपर पण तेओ वैराग्यप्रेरक अने तत्त्वबोधक धार्मिक पुस्तको वांचता हता. तेमनुं मन वेपारमय के संसारमय थयुं नहोतुं. तेमना अंतरनो झोक सदा धर्म ने सत्यनी शोध प्रति ज रहेतो. तेमनो धार्मिक अभ्यास, उदासीन जीवन अने सरळ अंतःकरण जोईने सगांसंबंधीओ तेमने ‘भगत’ कहेतां. तेमणे बावीस वर्षनी कुमारावस्थामां आजीवन ब्रह्मचर्य- पालननी प्रतिज्ञा लई लीधी हती. वि. सं. १९७०ना मागशर सुद ९ ने रविवारना दिवसे उमराळामां गृहस्थजीवननो त्याग
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करी मोटा उत्सवपूर्वक स्थानकवासी जैन संप्रदायनुं दीक्षाजीवन अंगीकृत कर्युं हतुं.
दीक्षा लईने तुरत ज गुरुदेवश्रीए श्वेतांबर आगमोनो सखत अभ्यास करवा मांड्यो. तेओ संप्रदायनी शैलीनुं चारित्र पण घणुं कडक पाळता. थोडा ज वखतमां तेमनी आत्मार्थितानी, ज्ञानपिपासानी ने उग्र चारित्रनी सुवास स्थानकवासी संप्रदायमां एटली बधी फेलाई गई के समाज तेमने ‘काठियावाडना कोहिनूर’ — ए नामथी बिरदावतो थयो.
गुरुदेवश्री प्रथमथी ज तीव्र पुरुषार्थी हता. ‘गमे तेवुं आकरुं चारित्र पाळीए तोपण केवळी भगवाने जो अनंत भव दीठा हशे तो तेमांथी एक पण भव घटवानो नथी’ — एवी काळलब्धि ने भवितव्यतानी पुरुषार्थहीनताभरी वातो कोई करे तो तेओ ते सांखी शकता नहि अने द्रढपणे कहेता के ‘जे पुरुषार्थी छे तेने अनंत भव होय ज नहि, केवळी भगवाने पण तेना अनंत भव दीठा ज नथी, पुरुषार्थीने भवस्थिति आदि कांई नडतुं नथी’. ‘पुरुषार्थ, पुरुषार्थ ने पुरुषार्थ’ ए गुरुदेवनो जीवनमंत्र हतो.
दीक्षापर्याय दरम्यान तेमणे श्वेतांबर शास्त्रोनो ऊंडा मननपूर्वक घणो अभ्यास कर्यो. छतां जेनी शोधमां तेओ हता ते तेमने हजु मळ्युं नहोतुं.
वि. सं. १९७८मां विधिनी कोई धन्य पळे दिगंबर जैनाचार्य श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार नामनो महान ग्रंथ पूर्वभवना प्रबळ संस्कारी एवा आ महापुरुषना करकमळमां आव्यो. ते वांचतां ज तेमना हर्षनो पार न रह्यो. जेनी शोधमां तेओ हता ते तेमने मळी गयुं. गुरुदेवश्रीना
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अंतरनयने समयसारमां अमृतनां सरोवर छलकातां जोया; एक पछी एक गाथा वांचतां तेमणे घूंटडा भरी भरीने ते अमृत पीधुं. गुरुदेवे ग्रंथाधिराज समयसारमां कहेला भावोनुं ऊंडुं मंथन कर्युं अने क्रमे समयसार द्वारा गुरुदेव पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार थयो. गुरुदेवना आत्मानंदनो पार न रह्यो. तेमना अंतर्जीवनमां परम पवित्र परिवर्तन थयुं. भूली पडेली परिणतिए निज घर देख्युं. उपयोगनो प्रवाह सुधासिंधु ज्ञायकदेव तरफ वळ्यो. तेमनी ज्ञानकळा अपूर्व रीते खीलवा लागी.
वि. सं. १९९१ सुधी स्थानकवासी संप्रदायमां रही पूज्य गुरुदेवे सौराष्ट्रनां अनेक प्रमुख शहेरोमां चातुर्मास तेम ज शेष काळमां सेंकडो नानांमोटां गामोमां विहार करी लुप्तप्राय अध्यात्मधर्मनो घणो उद्योत कर्यो. तेमनां प्रवचनोमां एवा अलौकिक आध्यात्मिक न्यायो आवता के जे बीजे क्यांय सांभळवा न मळ्या होय. प्रत्येक प्रवचनमां तेओ भवान्तकारी कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन पर अत्यंत अत्यंत भार मूकता. तेओश्री कहेताः ‘‘शरीरनां चामडां ऊतरडीने खार छांटनार उपर पण क्रोध न कर्यो — एवां व्यवहारचारित्रो आ जीवे अनंत वार पाळ्यां छे, पण सम्यग्दर्शन एक वार पण प्राप्त कर्युं नथी. ...लाखो जीवोनी हिंसानां पाप करतां मिथ्यादर्शननुं पाप अनंतगणुं छे. ...समकित सहेलुं नथी, लाखो करोडोमां कोईक विरल जीवने ज ते होय छे. समकिती जीव पोताना सम्यक्त्वनो निर्णय पोते ज करी शके छे. समकिती आखा ब्रह्मांडना भावोने पी गयो होय छे. समकित ए कोई जुदी ज वस्तु छे. समकित विनानी क्रियाओ एकडा विनानां मींडां छे. ...जाणपणुं ते ज्ञान नथी; समकित सहित जाणपणुं ते ज ज्ञान छे. अगियार अंग कंठाग्रे होय पण समकित न होय तो ते अज्ञान छे. ...समकितीने
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तो मोक्षना अनंत अतीन्द्रिय सुखनी वानगी प्राप्त थई होय छे. ते वानगी मोक्षना सुखना अनंतमा भागे होवा छतां अनंत छे.’’ आ रीते सम्यग्दर्शननुं अद्भुत माहात्म्य अनेक सम्यक् युक्तिओथी, अनेक प्रमाणोथी अने अनेक सचोट द्रष्टांतोथी तेओश्री लोकोने ठसावता. तेमनो प्रिय अने मुख्य विषय सम्यग्दर्शन हतो.
गुरुदेवने समयसारप्ररूपित वास्तविक वस्तुस्वभाव अने स्वानुभूतिप्रधान वास्तविक दिगंबर निर्ग्रंथमार्ग घणा वखतथी अंदरमां सत्य लागतो हतो, अने बहारमां वेष तथा आचार जुदा हता, — ए विषम स्थिति तेमने खटकती हती; तेथी तेओश्रीए सोनगढमां योग्य समये — वि. सं. १९९१नी चैत्र सुद १३ (महावीरजयंती)ना दिने — ‘परिवर्तन’ कर्युं, स्थानकवासी संप्रदायनो त्याग कर्यो, ‘हवेथी हुं आत्मसाधक दिगंबर जैनमार्गानुयायी ब्रह्मचारी छुं’ एम घोषित कर्युं. ‘परिवर्तन’ना कारणे प्रचंड विरोध थयो, तोपण आ नीडर ने निस्पृह महात्माए तेनी कांई परवा करी नहि. हजारोनी मानवमेदनीमां गर्जतो आ अध्यात्मकेसरी सत्ने खातर जगतथी तद्न निरपेक्षपणे सोनगढना एकांत स्थळमां जईने बेठो. शरूआतमां खळभळाट तो थयो; परंतु गुरुदेवश्री काठियावाडना स्थानकवासी जैनोनां हृदयमां पेसी गया हता, गुरुदेवश्री प्रत्ये तेओ मुग्ध बन्या हता, तेथी ‘गुरुदेवे जे कर्युं हशे ते समजीने ज कर्युं हशे’ एम विचारीने धीमे धीमे लोकोनो प्रवाह सोनगढ तरफ वहेवा लाग्यो. सोनगढ तरफ वहेतां सत्संगार्थी जनोनां पूर दिनप्रतिदिन वेगपूर्वक वधतां ज गयां.
समयसार, प्रवचनसार, नियमसार वगेरे शास्त्रो पर प्रवचन
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आपतां गुरुदेवना शब्दे शब्दे घणी गहनता, सूक्ष्मता अने नवीनता नीकळती. जे अनंत ज्ञान ने आनंदमय पूर्ण दशा प्राप्त करीने तीर्थंकरदेवे दिव्यध्वनि द्वारा वस्तुस्वरूप निरूप्युं, ते परम पवित्र दशानो सुधास्यंदी स्वानुभूतिस्वरूप पवित्र अंश पोताना आत्मामां प्रगट करीने सद्गुरुदेवे पोतानी विकसित ज्ञानपर्याय द्वारा शास्त्रमां रहेलां गूढ रहस्यो समजावीने मुमुक्षुओ पर महान महान उपकार कर्यो.
गुरुदेवनी वाणी सांभळी सेंकडो शास्त्रोना अभ्यासी विद्वानो पण आश्चर्यचकित थई जता अने उल्लासमां आवीने कहेताः ‘गुरुदेव! आपनां प्रवचनो अपूर्व छे; तेमनुं श्रवण करतां अमने तृप्ति ज थती नथी. आप गमे ते वात समजावो तेमांथी अमने नवुं नवुं ज जाणवानुं मळे छे. नव तत्त्वनुं स्वरूप के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनुं स्वरूप, स्याद्वादनुं स्वरूप के सम्यक्त्वनुं स्वरूप, निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप के व्रत-तप-नियमनुं स्वरूप, उपादान-निमित्तनुं स्वरूप के साध्य-साधननुं स्वरूप, द्रव्यानुयोगनुं स्वरूप के चरणानुयोगनुं स्वरूप, गुणस्थाननुं स्वरूप के बाधक- साधकभावनुं स्वरूप, मुनिदशानुं स्वरूप के केवळज्ञाननुं स्वरूप — जे जे विषयनुं स्पष्टीकरण आपना श्रीमुखे अमे सांभळीए छीए तेमां अमने अपूर्व भावो द्रष्टिगोचर थाय छे. आपना शब्दे शब्दे वीतरागदेवनुं हृदय प्रगट थाय छे.’
गुरुदेव वारंवार कहेताः ‘समयसार सर्वोत्तम शास्त्र छे.’ समयसारनी वात करतां पण तेमने अति उल्लास आवी जतो. समयसारनी प्रत्येक गाथा मोक्ष आपे एवी छे एम तेओश्री कहेता. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनां बधां शास्त्रो पर तेमने अपार प्रेम हतो. ‘भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनो अमारा पर घणो उपकार
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छे, अमे तेमना दासानुदास छीए’ – एम तेओश्री घणा वार भक्तिभीना अंतरथी कहेता. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव महा- विदेहक्षेत्रमां सर्वज्ञवीतराग श्री सीमंधरभगवानना समवसरणमां गया हता अने त्यां आठ दिवस रह्या हता, ते विषे पूज्य गुरुदेवने अणुमात्र पण शंका नहोती. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवना विदेहगमन विषे तेओ अत्यंत द्रढतापूर्वक घणी वार भक्तिभीना हृदयथी पोकार करीने कहेता के — ‘कल्पना करशो नहि, ना कहेशो नहि, ए वात एम ज छे; मानो तोपण एम ज छे, न मानो तोपण एम ज छे; यथातथ छे, अक्षरशः सत्य छे, प्रमाणसिद्ध छे.’ श्री सीमंधरप्रभु प्रत्ये गुरुदेवने अतिशय भक्तिभाव हतो. कोई कोई वखत सीमंधरनाथना विरहे परम भक्तिवंत गुरुदेवनां नेत्रोमांथी अश्रुनी धारा वही जती.
पूज्य गुरुदेवे अंतरथी शोधेलो स्वानुभवप्रधान अध्यात्ममार्ग — दिगंबर जैनधर्म जेम जेम प्रसिद्ध थतो गयो तेम तेम वधु ने वधु जिज्ञासुओ आकर्षाया. गामोगाम ‘दिगंबर जैन मुमुक्षुमंडळ’ स्थपायां. संप्रदायत्यागथी जागेलो विरोधवंटोळ शमी गयो. हजारो स्थानकवासी श्वेतांबर जैनो अने सेंकडो जैनोतरो स्वानुभूतिप्रधान वीतराग दिगंबर जैनधर्मना श्रद्धाळु थया. हजारो दिगंबर जैनो रूढिगत बहिर्लक्षी प्रथा छोडीने पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रवाहित शुद्धात्मतत्त्वप्रधान अनेकांतसुसंगत अध्यात्मप्रवाहमां श्रद्धाभक्ति सह जोडाया. पूज्य गुरुदेवनो प्रभावना-उदय दिन-प्रतिदिन वधु ने वधु खीलतो गयो.
गुरुदेवना मंगळ प्रतापे सोनगढ धीमे धीमे अध्यात्मविद्यानुं एक अनुपम केन्द्र — तीर्थधाम बनी गयुं. बहारथी हजारो मुमुक्षुओ तेम ज अनेक दिगंबर जैनो, पंडितो, त्यागीओ,