Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 1-25.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 2 of 11

 

Page -6 of 181
PDF/HTML Page 21 of 208
single page version

ब्रह्मचारीओ पूज्य गुरुदेवश्रीना उपदेशनो लाभ लेवा माटे आववा लाग्या. तदुपरांत, सोनगढमां बहुमुखी धर्मप्रभावनानां अनेकविध साधनो यथावसर अस्तित्वमां आवतां गयांः वि. सं १९९४मां श्री जैन स्वाध्यायमंदिर, १९९७मां श्री सीमंधरस्वामीनुं दिगंबर जिनमंदिर, १९९८मां श्री समवसरण- मंदिर, २००३मां श्री कुंदकुंदप्रवचनमंडप, २००९मां श्री मानस्तंभ, २०३०मां श्री महावीर-कुंदकुंद दिगंबर जैन परमागममंदिर वगेरे भव्य धर्मायतनो निर्मित थयां. देश- विदेशमां वसनारा जिज्ञासुओ पूज्य गुरुदेवश्रीना अध्यात्म- तत्त्वोपदेशथी नियमित लाभान्वित थाय ते माटे गुजराती तेम ज हिन्दी ‘आत्मधर्म’ मासिक पत्रनुं प्रकाशन शरू थयुं. वच्चे थोडां वर्षो सुधी ‘सद्गुरुप्रवचनप्रसाद’ नामनुं दैनिक प्रवचनपत्र पण प्रकाशित थतुं हतुं. तदुपरांत समयसार, प्रवचनसार वगेरे अनेक मूळ शास्त्रो तथा विविध प्रवचनग्रंथो इत्यादि अध्यात्मसाहित्यनुं विपुल प्रमाणमां

लाखोनी संख्यामांप्रकाशन

थयुं. हजारो प्रवचनो टेइप-रेकोर्ड करवामां आव्यां. आम पूज्य गुरुदेवनो अध्यात्म-उपदेश मुमुक्षुओना घरे घरे गुंजतो थयो. दर वर्षे उनाळानी रजाओमां विद्यार्थीओ माटे अने श्रावणमासमां प्रौढ गृहस्थो माटे धार्मिक शिक्षणवर्ग चलाववामां आवतो हतो अने हजु पण चलाववामां आवे छे. आ रीते सोनगढ पूज्य गुरुदेवना परम प्रतापे बहुमुखी धर्मप्रभावनानुं पवित्र केन्द्र बनी गयुं.

पूज्य गुरुदेवना पुनित प्रभावथी सौराष्ट्रगुजरात तेम ज भारतवर्षना अन्य प्रान्तोमां स्वानुभूतिप्रधान वीतराग दिगंबर जैनधर्मना प्रचारनुं एक अद्भुत अमिट आंदोलन प्रसरी गयुं. जे मंगळ कार्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे गिरनार पर वाद प्रसंगे


Page -5 of 181
PDF/HTML Page 22 of 208
single page version

कर्युं हतुं ते प्रकारनुं, स्वानुभवप्रधान दिगंबर जैनधर्मनी सनातन सत्यतानी प्रसिद्धिनुं गौरवपूर्ण महान कार्य अहा! पूज्य गुरुदेवे श्वेतांबरबहुल प्रदेशमां रही, पोताना स्वानुभवमुद्रित सम्यक्त्वप्रधान सदुपदेश द्वारा हजारो स्थानकवासी श्वेतांबरोमां श्रद्धानुं परिवर्तन लावीने, सहजपणे छतां चमत्कारिक रीते कर्युं. सौराष्ट्रमां नामशेष थई गयेला आत्मानुभूतिमूलक दिगंबर जैन धर्मनापूज्य गुरुदेवना प्रभावनायोगे ठेरठेर थयेलां दिगंबर जैन मंदिरो, तेमनी मंगल प्रतिष्ठाओ तथा आध्यात्मिक प्रवचनो द्वारा थयेलापुनरुद्धारनो युग आचार्यवर श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त- चक्रवर्तीना मंदिरनिर्माण-युगनी याद आपे छे. अहा! केवो अद्भुत आचार्यतुल्य उत्तम प्रभावनायोग! खरेखर, पूज्य गुरुदेव द्वारा आ युगमां एक समर्थ प्रभावक आचार्य जेवां जिनशासनोन्नतिकर अद्भुत अनुपम कार्यो थयां छे.

पूज्य गुरुदेवे बब्बे वार सहस्राधिक विशाळ मुमुक्षुसंघ सहित पूर्व, उत्तर, मध्य अने दक्षिण भारतनां जैन तीर्थोनी पावन यात्रा करी, भारतनां अनेक नानांमोटां नगरोमां प्रवचनो आप्यां अने नाइरोबी (आफ्रिका)नो, नवनिर्मित दिगंबर जिनमंदिरनी प्रतिष्ठा निमित्ते, प्रवास कर्योजे द्वारा समग्र भारतमां तेम ज विदेशोमां शुद्धात्मद्रष्टिप्रधान अध्यात्मविद्यानो खूब प्रचार थयो.

आ असाधारण धर्मोद्योत स्वयमेव विना-प्रयत्ने साहजिक रीते थयो. गुरुदेवे धर्मप्रभावना माटे कदी कोई योजना विचारी नहोती. ते तेमनी प्रकृतिमां ज नहोतुं. तेमनुं समग्र जीवन निजकल्याणसाधनाने समर्पित हतुं. तेओश्रीए जे सुधाझरती आत्मानुभूति प्राप्त करी हती, जे कल्याणकारी तथ्योने आत्मसात


Page -4 of 181
PDF/HTML Page 23 of 208
single page version

कर्यां हतां, तेनी अभिव्यक्ति ‘वाह! आवी वस्तुस्थिति!’ एम विविध प्रकारे सहजभावे उल्लासपूर्वक तेमनाथी थई जती, जेनी ऊंडी आत्मार्थप्रेरक असर श्रोताओनां हृदय पर पडती. मुख्यत्वे आवा प्रकारे तेमना द्वारा सहजपणे धर्मोद्योत थई गयो हतो. आवी प्रबळ बाह्य प्रभावना थवा छतां, पूज्य गुरुदेवने बहारनो जरा पण रस नहोतो; तेमनुं जीवन तो आत्माभिमुख हतुं.

पूज्य गुरुदेवनुं अंतर सदा ‘ज्ञायक...ज्ञायक...ज्ञायक, भगवान आत्मा, ध्रुव...ध्रुव...ध्रुव, शुद्ध...शुद्ध...शुद्ध, परम पारिणामिकभाव’ एम त्रिकाळिक ज्ञायकना आलंबनभावे निरंतरजाग्रतिमां के निद्रामांपरिणमी रह्युं हतुं. प्रवचनोमां ने तत्त्वचर्चामां तेओ ज्ञायकना स्वरूपनुं अने तेना अनुपम महिमानुं मधुरुं संगीत गाया ज करता हता. अहो! ए स्वतंत्रताना ने ज्ञायकना उपासक गुरुदेव! तेमणे मोक्षार्थीओने मुक्तिनो साचो मार्ग बताव्यो!

अहा! गुरुदेवनो महिमा शुं कथी शकाय! गुरुदेवनुं द्रव्य ज अलौकिक हतुं. आ पंचम काळमां आ महापुरुषनो आश्चर्यकारी अद्भुत आत्मानोअहीं अवतार थयो ते कोई महाभाग्यनी वात छे. तेओश्रीए स्वानुभूतिनी अपूर्व वात प्रगट करीने आखा भारतना जीवोने जगाड्या छे. गुरुदेवनुं द्रव्य ‘तीर्थंकरनुं द्रव्य’ हतुं. आ भरतक्षेत्रमां पधारीने तेमणे महान महान उपकार कर्यो छे.

आजे पण पूज्य गुरुदेवना सातिशय प्रतापे सोनगढनुं सौम्य शीतळ वातावरण आत्मार्थीओनी आत्मसाधनालक्षी आध्यात्मिक प्रवृत्तिओनी मधुर सुगंधथी मघमघी रह्युं छे. आवुं,


Page -3 of 181
PDF/HTML Page 24 of 208
single page version

पूज्य गुरुदेवनां चरणकमळना स्पर्शथी अनेक वर्षो सुधी पावन थयेलुं आ अध्यात्मतीर्थधाम सोनगढआत्मसाधनानुं तथा बहुमुखी धर्मप्रभावनानुं पवित्र निकेतनसदैव आत्मार्थीओना जीवनपंथने उजाळतुं रहेशे.

हे परमपूज्य परमोपकारी कहानगुरुदेव! आपश्रीनां पुनित चरणोमांआपनी मांगलिक पवित्रताने, पुरुषार्थप्रेरक ध्येयनिष्ठ जीवनने, स्वानुभूतिमूलक सन्मार्गदर्शक उपदेशोने अने तथाविध अनेकानेक उपकारोने हृदयमां राखीनेअत्यंत भक्तिपूर्वक भावभीनां वंदन हो. आपना द्वारा प्रकाशित वीर-कुंदप्ररूपित स्वानुभूतिनो पावन पंथ जगतमां सदा जयवंत वर्तो! जयवंत वर्तो!!

अहो! उपकार जिनवरनो, कुंदनो, ध्वनि दिव्यनो;
जिन-कुंद-ध्वनि आप्या, अहो! ते गुरुक्हाननो.

फागण सुद ७ वि. सं २०४१ ता. २७१९८५

श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)


Page -2 of 181
PDF/HTML Page 25 of 208
single page version

कहानगुरु-महिमा
द्रव्य सकळनी स्वतंत्रता जग मांहि गजावनहारा,
वीरकथित स्वात्मानुभूतिनो पंथ प्रकाशनहारा;
गुरुजी जन्म तमारो रे,
जगतने आनंद करनारो.
पावन-मधुर-अद्भुत अहो! गुरुवदनथी अमृत झर्यां,
श्रवणो मळ्यां सद्भाग्यथी, नित्ये अहो! चिद्रसभर्यां;
गुरुदेव तारणहारथी आत्मार्थी भवसागर तर्या,
गुणमूर्तिना गुणगण तणां स्मरणो हृदयमां रमी रह्यां.
स्वर्णपुरे धर्मायतनो सौ गुरुगुणकीर्तन गातां,
स्थळ-स्थळमां ‘भगवान आत्म’ना भणकारा संभळाता;
कण कण पुरुषारथ प्रेरे,
गुरुजी आतम अजवाळे.
(बहेनश्री चंपाबेन)


Page -1 of 181
PDF/HTML Page 26 of 208
single page version

नमः श्री सद्गुरवे

अहो! देव-शास्त्र-गुरु मंगळ छे, उपकारी छे.

आपणने तो देव-शास्त्र-गुरुनुं दासत्व जोईए छे.

पूज्य कहानगुरुदेवथी तो मुक्तिनो मार्ग मळ्यो

छे. तेओश्रीए चारे बाजुथी मुक्तिनो मार्ग प्रकाश्यो
छे. गुरुदेवनो अपार उपकार छे. ते उपकार केम
भुलाय?

गुरुदेवनुं द्रव्य तो अलौकिक छे. तेमनुं श्रुतज्ञान

अने वाणी आश्चर्यकारी छे.

परम-उपकारी गुरुदेवनुं द्रव्य मंगळ छे, तेमनी

अमृतमय वाणी मंगळ छे. तेओश्री मंगळमूर्ति छे,
भवोदधितारणहार छे, महिमावंत गुणोथी भरेला छे.

पूज्य गुरुदेवनां चरणकमळनी भक्ति अने तेमनुं

दासत्व निरंतर हो.
बहेनश्री चंपाबेन



Page 1 of 181
PDF/HTML Page 28 of 208
single page version

नमः परमात्मने।
गुरुदेवश्रीनां वचनामृत
[पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनां प्रवचनोमांथी वीणेलां]
(नंदीश्वर-जिनालयमां कोतरायेलां)
ॐ सहज चिदानंद. १.

निश्चयद्रष्टिथी दरेक जीव परमात्मस्वरूप ज छे. जिनवर ने जीवमां फेर नथी. भले ते एकेन्द्रियनो जीव होय के स्वर्गनो जीव होय. ए बधुं तो पर्यायमां छे. आत्मवस्तु स्वरूपे तो परमात्मा ज छे. पर्याय उपरथी जेनी द्रष्टि खसीने स्वरूप उपर द्रष्टि थई छे ते तो पोताने पण परमात्मस्वरूप देखे छे ने दरेक जीवने पण परमात्मस्वरूप देखे छे. सम्यग्द्रष्टि बधा जीवोने जिनवर


Page 2 of 181
PDF/HTML Page 29 of 208
single page version

जाणे छे अने जिनवरने जीव जाणे छे. अहा! केटली विशाळ द्रष्टि! अरे, आ वात बेसे तो कल्याण थई जाय; पण आवी कबूलातने रोकनारा खोटी मान्यतारूपी गढना पार न मळे! अहीं तो कहे छे के बार अंगनो सार ए छे के आत्माने जिनवर समान द्रष्टिमां लेवो, केम के आत्मानुं स्वरूप परमात्मा जेवुं ज छे. २.

हुं एक अखंड ज्ञायकमूर्ति छुं, विकल्पनो एक अंश पण मारो नथीएवो स्वाश्रयभाव रहे ते मुक्तिनुं कारण छे; अने विकल्पनो एक अंश पण मने आश्रयरूप छेएवो पराश्रयभाव रहे ते बंधनुं कारण छे. ३.

दर्शनशुद्धिथी ज आत्मसिद्धि. ४.

भवभ्रमणनो अंत लाववानो साचो उपाय शो? द्रव्यसंयमसे ग्रीवेक पायो, फिर पीछो पटक्यो,’ त्यां शुं करवुं बाकी रह्युं?मार्ग कोई जुदो ज छे; हालमां तो ऊंधेथी ज शरूआत करवामां आवे छे. आ क्रियाकांड मोक्षमार्ग नथी, परंतु पारमार्थिक आत्मा तथा सम्यग्दर्शन वगेरेनुं स्वरूप नक्की करी स्वानुभव करवो ते मार्ग छे; अनुभवमां विशेष


Page 3 of 181
PDF/HTML Page 30 of 208
single page version

लीनता ते श्रावकमार्ग छे अने तेनाथी पण विशेष स्वरूप- रमणता ते मुनिमार्ग छे. साथे वर्ततां बाह्य व्रत-नियमो तो अधूराशनीकचाशनी प्रगटता छे. अरेरे! मोक्षमार्गनी मूळ वातमां आटलो बधो फेर पडी गयो छे. ५.

पूर्णताने लक्षे शरूआत ते ज वास्तविक शरूआत छे. ६.

आखा सिद्धांतनो सारमां सार तो बहिर्मुखता छोडी अंतर्मुख थवुं ते छे. श्रीमदे कह्युं छे ने!ऊपजे मोहविकल्पथी समस्त आ संसार, अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.’ ज्ञानीना एक वचनमां अनंती गंभीरता भरी छे. अहो! भाग्यशाळी हशे तेने आ तत्त्वनो रस आवशे अने तत्त्वना संस्कार ऊंडा ऊतरशे. ७.

निमित्तनी अपेक्षा लेवामां आवे तो बंध-मोक्ष बे पडखां पडे छे अने तेनी अपेक्षा न लेतां एकलुं निरपेक्ष तत्त्व ज लक्षमां लेवामां आवे तो स्वपर्याय प्रगटे छे. ८.


Page 4 of 181
PDF/HTML Page 31 of 208
single page version

चामडां उतारीने जोडा करीए तोपण उपकार न वाळी शकाय एवो उपकार गुरु आदिनो होय छे. एने बदले तेमना उपकारने ओळवे ते तो अनंत संसारी छे. कोनी पासे सांभळवुं एनो पण जेने विवेक नथी ते आत्माने समजवा माटे लायक नथीपात्र नथी. जेने लौकिक न्याय-नीतिनां पण ठेकाणां नथी एवा जीवो शास्त्रोनुं वांचन करे अने एने जे सांभळवा जाय ते सांभळनार पण पात्र नथी. ९.

भगवान आत्मा केवळज्ञाननी मूर्ति छे अने आ देह छे ते तो जड धूळमाटी छे; तेने आत्मानो स्पर्श ज क्यां छे?केम के सर्व पदार्थो पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चुंबे छे स्पर्शे छे तोपण तेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी. अहा! भगवान आत्मा पोतानी शक्तिओने तथा पर्यायोने स्पर्शे छे पण परमाणु आदिने के तेनी पर्यायोने स्पर्शतो नथी. ज्ञायक आत्मा पोताना अनंत गुणस्वभावने अने तेमनी निर्मळ पर्यायोने चुंबे छे, स्पर्शे छे, पण ते सिवाय शरीर, मन, वाणी, कर्म के स्त्री-पुत्र-परिवार इत्यादि बहारना कोई पदार्थोने कोई दी स्पर्श्यो नथी, स्पर्शतोय नथी. परथी तद्दन भिन्न एवा


Page 5 of 181
PDF/HTML Page 32 of 208
single page version

आ भगवान आत्मामां जेणे पोतानी द्रष्टि स्थापी छे ते धर्मात्मा पुरुष निरंतर निःशंक वर्ततो थको एक ज्ञान- स्वरूप निज आत्माने ज अनुभवे छे. १०.

अखंड द्रव्य अने अवस्था बंनेनुं ज्ञान होवा छतां अखंडस्वभाव तरफ लक्ष राखवुं, उपयोगनो दोर अखंड द्रव्य तरफ लई जवो, ते अंतरमां समभावने प्रगट करे छे. स्वाश्रय वडे बंधनो नाश करतो जे निर्मळ पर्याय प्रगट्यो तेने भगवान मोक्षमार्ग अर्थात् धर्म कहे छे. ११.

भक्ति एटले भजवुं. कोने भजवुं? पोताना स्वरूपने भजवुं. मारुं स्वरूप निर्मळ अने निर्विकारी सिद्ध जेवुंछे तेनुं यथार्थ भान करीने तेने भजवुं ते ज निश्चय भक्ति छे, ने ते ज परमार्थ स्तुति छे. नीचली भूमिकामां देव-शास्त्र-गुरुनी भक्तिनो भाव आवे ते व्यवहार छे, शुभ राग छे. कोई कहेशे के आ वात अघरी पडे छे. पण भाई! अनंता धर्मात्मा क्षणमां भिन्न तत्त्वोनुं भान करी, स्वरूपमां ठरीस्वरूपनी निश्चय भक्ति करीमोक्ष गया छे, वर्तमानमां केटलाक जाय छे अने भविष्यमां अनंता जीवो तेवी ज रीते जशे. १२.


Page 6 of 181
PDF/HTML Page 33 of 208
single page version

जेना ध्येयमां, रुचिमां ने प्रेममां ज्ञायकभाव ज पड्यो छे तेने शुभ विकल्पमां के बीजे क्यांय अटकवुं गोठतुं नथी. अहा! अंतर ज्ञायकस्वभावमां जवा माटेनी तालावेली छे. बहारनोआत्मस्वभावमां नथी एवा जे पुण्य-पापना भाव अने तेनां फळनोजेने रस ने प्रेम छे तेने ज्ञायकस्वभावनो प्रेम नथी, अने जेने आत्माना ज्ञायकभावनो प्रेम लाग्यो तेने पुण्यना परिणामथी मांडीने आखुं जगत प्रेमनो विषय नथी. अहा! एवा ज्ञायकभावनो जेने रस छे तेने तेनी प्राप्ति माटे निरंतर रुचि ने भावना रहे. जेने बहारनो प्रेम छे के दुनिया मने केम माने, दुनियामां मारी केम प्रसिद्धि थाय, मने आवडे तो दुनिया मने मोटो माने, तेने ज्ञायकस्वभाव प्रत्ये रुचि अने प्रेम नथी. १३.

बे द्रव्योनी क्रिया भिन्न ज छे. जडनी क्रिया चेतन करतुं नथी, चेतननी क्रिया जड करतुं नथी. जे पुरुष एक द्रव्यने बे क्रिया करतुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, कारण के बे द्रव्यनी क्रिया एक द्रव्य करे छे एम मानवुं ते जिननो मत नथी. आ जगतमां वस्तु छे ते पोताना स्वभावमात्र ज छे. दरेक वस्तु द्रव्ये, गुणे ने पर्याये परिपूर्ण स्वतंत्र छे. आम होवाथी आत्मा ज्ञानस्वरूप छे तेथी ते स्वभावदशामां ज्ञाननो


Page 7 of 181
PDF/HTML Page 34 of 208
single page version

ज कर्ता छे ने विभावदशामां अज्ञान, रागद्वेषनो कर्ता छे; पण परनो तो कर्ता क्यारेय पण थतो नथी. परभाव (रागादि विकारी भाव) पण कोई अन्य द्रव्य करावतुं नथी, कारण के एक द्रव्यनी बीजा द्रव्यमां नास्ति छे; छतां पर्यायमां विकार थाय छे ते पुरुषार्थनी विपरीतता अथवा नबळाईथी थाय छे, पण स्वभावमां ते नथी एवुं ज्ञान थतां (क्रमे) विकारनो नाश थाय छे. १४.

भगवाने कह्युं छे के पर्यायद्रष्टिनुं फळ संसार छे अने द्रव्यद्रष्टिनुं फळ वीतरागतामोक्ष छे. १५.

* साधक जीवनी द्रष्टि *

अध्यात्ममां हंमेशां निश्चयनय ज मुख्य छे; तेना ज आश्रये धर्म थाय छे. शास्त्रोमां ज्यां विकारी पर्यायोनुं व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे त्यां पण निश्चयनयने ज मुख्य अने व्यवहारनयने गौण करवानो आशय छेएम समजवुं; कारण के पुरुषार्थ वडे पोतामां शुद्धपर्याय प्रगट करवा अर्थात् विकारी पर्याय टाळवा माटे हंमेशां निश्चयनय ज आदरणीय छे; ते वखते बन्ने नयोनुं ज्ञान होय छे पण धर्म प्रगटाववा माटे बन्ने


Page 8 of 181
PDF/HTML Page 35 of 208
single page version

नयो कदी आदरणीय नथी. व्यवहारनयना आश्रये कदी धर्म अंशे पण थतो नथी, परंतु तेना आश्रये तो रागद्वेषना विकल्पो ज ऊठे छे.

छये द्रव्यो, तेना गुणो अने तेना पर्यायोना स्वरूपनुं ज्ञान कराववा माटे कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने व्यवहारनयनी गौणता राखीने कथन करवामां आवे, अने कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य करीने तथा निश्चयनयने गौण राखीने कथन करवामां आवे; पोते विचार करे तेमां पण कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने कोई वखते व्यवहारनयनी मुख्यता करवामां आवे; अध्यात्मशास्त्रमां पण जीवनो विकारी पर्याय जीव स्वयं करे छे तेथी थाय छे अने ते जीवनो अनन्य परिणाम छेएम व्यवहारनये कहेवामांसमजाववामां आवे; पण ते दरेक वखते निश्चयनय एक ज मुख्य अने आदरणीय छे एम ज्ञानीओनुं कथन छे. शुद्धता प्रगट करवा माटे कोई वखते निश्चयनय आदरणीय छे अने कोई वखते व्यवहारनय आदरणीय छेएम मानवुं ते भूल छे. त्रणे काळे एकला निश्चयनयना आश्रये ज धर्म प्रगटे छे एम समजवुं.

साधक जीवो शरूआतथी अंत सुधी निश्चयनी ज मुख्यता राखीने व्यवहारने गौण ज करता जाय छे,


Page 9 of 181
PDF/HTML Page 36 of 208
single page version

तेथी साधकदशामां निश्चयनी मुख्यताना जोरे साधकने शुद्धतानी वृद्धि ज थती जाय छे अने अशुद्धता टळती ज जाय छे. ए रीते निश्चयनी मुख्यताना जोरे पूर्ण केवळज्ञान थतां त्यां मुख्यगौणपणुं होतुं नथी अने नय पण होता नथी. १६.

अनंत गुणस्वरूप आत्मा, तेना एकरूप स्वरूपने द्रष्टिमां लई, तेने (आत्माने) एकने ध्येय बनावी तेमां एकाग्रतानो प्रयत्न करवो ए ज पहेलामां पहेलो शान्ति सुखनो उपाय छे. १७.

समयसारमां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे एकलो अध्यात्मरस भर्यो छे. तेमनी ज परंपराथी आ योगसार ने परमात्मप्रकाश वगेरे अध्यात्मशास्त्रो रचायां छे. समयसार वगेरेनी टीका द्वारा अध्यात्मनां रहस्यो खोलीने अमृतना धोध वहेवडावनार श्री अमृतचंद्रसूरि पुरुषार्थसिद्ध्युपायमां कहे छे के आत्मानो निश्चय ते सम्यग्दर्शन, आत्मानुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान अने आत्मामां निश्चलस्थिति ते सम्यक्चारित्र;

आवां रत्नत्रय ते

मोक्षमार्ग छे अने ते आत्मानो स्वभाव ज छे, तेनाथी बंधन थतुं नथी. बंधन तो रागथी थाय; रत्नत्रय तो


Page 10 of 181
PDF/HTML Page 37 of 208
single page version

राग रहित छे, तेनाथी कर्म बंधातां नथी, ते तो मोक्षनां ज कारण छे. माटे मुमुक्षुओ अंतर्मुख थईने आवा मोक्षमार्गने सेवो ने परमानंदरूप परिणमो. आजे ज आत्मा अनंतगुणधाम एवा पोतानो अनुभव करो. १८.

सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटेआत्मानो अनुभव करवा माटे प्रथम शुं करवुं? प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभाव निज आत्मानो निर्णय करवो.

दरेक जीव सुखने इच्छे छे, तो पूर्ण सुख कोणे प्रगट कर्युं छे, तेवा पुरुष कोण छे, तेनी ओळखाण करवी अने ते पूर्ण पुरुषे सुखनुं स्वरूप शुं कह्युं छे तेने जाणवुं. ते सर्वज्ञपुरुषे कहेली वाणी ते आगम छे. माटे प्रथम आगममां आत्माना सुखनुं स्वरूप शुं कह्युं छे ते गुरुगमे बराबर जाणीने, तेनुं अवलंबन करी, ज्ञानस्वभाव आत्मानो निर्णय करवो. निर्णय ते पात्रता छे अने आत्मानो अनुभव ते तेनुं फळ छे. आवो निर्णय करवानी ज्यां रुचि थई त्यां अंतरमां कषायनो रस मंद पडी ज जाय. कषायनो रस मंद पड्या विना आ निर्णयमां पहोंची शकाय नहि.

प्रथम श्रुतज्ञाननुं अवलंबन करवुंएमां साचां


Page 11 of 181
PDF/HTML Page 38 of 208
single page version

आगम कयां छे? तेना कहेनार पुरुष कोण छे? वगेरे बधो निर्णय करवानुं आवी जाय छे. ज्ञानस्वरूप आत्मानो निर्णय करवामां साचां देव-शास्त्र-गुरुनो निर्णय करवानुं वगेरे बधुं भेगुं आवी जाय छे. १९.

भरत चक्रवर्ती जेवा धर्मात्मा पण भोजनसमये रस्ता उपर आवी कोई मुनिराजना आगमननी प्रतीक्षा करता, ने मुनिराज पधारतां परम भक्तिथी आहारदान देता. अहा! जाणे आंगणे कल्पवृक्ष फळ्युं होय, एथी पण विशेष आनंद धर्मात्माने मोक्षमार्गसाधक मुनिराजने पोताना आंगणे देखीने थाय छे. पोताने राग रहित चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि छे ने सर्वसंगत्यागनी भावना छे त्यां साधक गृहस्थने आवा शुभभाव आवे छे. ते शुभरागनी जेटली मर्यादा छे तेटली ते जाणे छे. अंतरनो मोक्षमार्ग तो रागथी पार चैतन्यस्वभावना आश्रये परिणमे छे. श्रावकनां व्रतमां एकला शुभरागनी वात नथी. जे शुभराग छे तेने तो जैनशासनमां पुण्य कह्युं छे ने ते वखते श्रावकने स्वभावना आश्रये जेटली शुद्धता वर्ते छे तेटलो धर्म छे; ते परमार्थव्रत छे ने ते मोक्षनुं साधन छेएम जाणवुं. २०.


Page 12 of 181
PDF/HTML Page 39 of 208
single page version

वस्तुस्थितिनी अचलित मर्यादाने तोडवी अशक्य होवाथी वस्तु द्रव्यान्तर के गुणान्तररूपे संक्रमण पामती नथी; गुणान्तरमां पर्याय पण आवी गयो. वस्तु एनी मेळाए स्वतंत्र फरे, एनी ताकाते फरे त्यारे स्वतंत्रपणे एनो पर्याय ऊघडे. कोई पराणे फेरवी शकतुं नथी के कोई पराणे समजावीने एनो पर्याय उघाडी शकतुं नथी. जो कोईने पराणे समजावी शकातुं होय तो त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव बधाने मोक्षमां लई जाय ने! पण तीर्थंकरदेव कोईने मोक्षमां लई जता नथी. पोते समजे त्यारे पोतानो मोक्षपर्याय ऊघडे छे. २१.

स्वरूपमां लीनता वखते पर्यायमां पण शान्ति अने वस्तुमां पण शान्ति, आत्माना आनंदरसमां शान्ति, शान्ति ने शान्ति; वस्तु अने पर्यायमां ओतप्रोत शान्ति. रागमिश्रित विचार हतो ते खेद छूटीने पर्यायमां अने वस्तुमां समता, समता अने समता; वर्तमान अवस्थामां पण समता अने त्रिकाळी वस्तुमां पण समता. आत्मानो आनंदरस बहार अने अंदर बधी रीते फाटी नीकळे छे; आत्मा विकल्पनी जाळने ओळंगीने आनंदरसरूप एवा पोताना स्वरूपने पामे छे. २२.


Page 13 of 181
PDF/HTML Page 40 of 208
single page version

पैसो रहेवो के टळवो ते पोताना हाथनी वात नथी. ज्यारे पुण्य फरे त्यारे दुकान बळे, विमावाळो भांगे, दीकरी रांडे, दाटेला पैसा कोयला थाय वगेरे एकीसाथे बधी सरखाईनी फरी वळे. कोई कहे के एवुं तो कोईक वार थाय ने? अरे! पुण्य फरे तो बधा प्रसंगो फरतां वार लागे नहि. परद्रव्यने केम रहेवुं ते तारा हाथनी वात ज नथी ने. माटे सदाअफर सुखनिधान निज आत्मानी ओळखाण करीने तेमां ठरी जा. २३.

अहा! आत्मानुं सुंदर एकत्व-विभक्त स्वरूप संतो बतावे छे. अपूर्व प्रीति लावीने ते श्रवण करवा जेवुं छे. जगतनो परिचय छोडी, प्रेमथी आत्मानो परिचय करी अंदर तेनो अनुभव करवा जेवो छे. आवा अनुभवमां परम शान्ति प्रगटे छे, ने अनादिनी अशान्ति मटे छे. आत्माना आवा स्वभावनुं श्रवण-परिचय-अनुभव दुर्लभ छे, पण अत्यारे तेनी प्राप्तिनो सुलभ अवसर आव्यो छे. माटे हे जीव! बीजुं बधुं भूलीने तुं तारा शुद्धस्वरूपने लक्षमां ले, ने तेमां वस. ए ज करवा जेवुं छे. २४.

श्री कुंदकुंदाचार्यदेव जेवा वीतरागी संतना स्वानुभवनी