Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 26-50.

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आनंदमय प्रसादीरूप आ ‘समयसार’ शास्त्र छे; तेनो महिमा अद्भुत, अचिंत्य अने अलौकिक छे. अहो! आ समयसार तो अशरीरीभाव बतावनारुं शास्त्र छे; तेना भावो समजतां अशरीरी सिद्धपद पमाय छे. कुंदकुंदप्रभुनी तो शी वात! पण अमृतचंद्र-आचार्यदेवे पण टीकामां आत्मानी अनुभूतिना गंभीर ऊंडा भावो खोलीने जगत उपर महान उपकार कर्यो छे. मोक्षनो मूळ मार्ग आ संतोए जगतसमक्ष प्रसिद्ध कर्यो छे. ....चैतन्यना कपाट खोली नाख्या छे. २५.

दयाधर्म एटले शुं? आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी, त्रिकाळ वीतरागस्वभावीदयास्वभावी प्रभु छे. तेमां अन्तर्दष्टि करतां, पर्यायमां रागादिनी उत्पत्ति न थतां, चैतन्यनी निर्मळ परिणतिवीतराग परिणतिऊपजवी ते दयाधर्म छे. ते आत्मरूप छे, आत्माना स्वभावरूप छे. आवो दयाधर्म सम्यग्द्रष्टिने होय छे, अज्ञानीने होतो नथी.

विकल्पना काळमां सम्यग्द्रष्टिने परनी रक्षा करवानो विकल्प कदाचित् होय छे, तोपण ते विकल्पमां, ‘हुं परनी रक्षा करनारो छुंएवो आत्मभाव नथी, अहंभाव नथी. ते तो जाणे छे के पर जीवनुं जीवन


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तो तेनी योग्यताथी तेना आयुना कारणे छे, तेमां मारुं कांई कर्तव्य नथी; हुं तो निमित्तमात्र छुं. अहा! धर्मी पुरुष तो परना जीवनसमये पोताने जे परदयानो विकल्प थयो ने योगनी क्रिया थई तेनो पण मात्र जाणनार रहे छे, कर्ता थतो नथी, तो पछी परना जीवननो कर्ता ते केम थाय? बापु! परनी दया हुं पाळी शकुं छुंएवी मान्यता मिथ्यात्व ने अज्ञानभाव छे, ए दीर्घ संसारनुं कारण छे. भाई! वीतराग मारगनी आवी वात सर्वज्ञ परमेश्वरना शासन सिवाय बीजे क्यांय नथी. २६.

जगतमां जे कोई सुंदरता होय, जे कोई पवित्रता होय, ते बधी आत्मामां भरी छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारमां कह्युं छेः एकत्व-निश्चयगत समय सर्वत्र सुंदर लोकमां;

तेथी बने विखवादिनी बंधनकथा एकत्वमां.

आवा सुंदर आत्माने अनुभवमां लेतां तेना सर्व गुणोनी सुंदरता ने पवित्रता एकसाथे प्रगटे छे. एकेक समयनी पर्यायमां अनंत गुणोनो स्वाद भेगो छे; ते अनुभवमां एकसाथे समाय छे; पण विकल्प करीने एकेक गुणनी गणतरीथी आत्माना अनंत गुणोने पकडवा मागे तो अनंत काळेय पकडाय नहि. एक आत्मामां उपयोग


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मूकतां तेमां तेना अनंत गुणोनी पर्यायो निर्मळपणे अवश्य अनुभवाय छे. हे भाई! आवा अनुभवनी होंश ने उत्साह कर. बहारनी के विकल्पनी होंश छोडी दे, केम के तेनाथी चैतन्यना गुणो पकडाता नथी. उपयोगनेरुचिने बहारथी समेटी लई निश्चळपणे अंतरमां लगाव, जेथी तने तत्क्षण विकल्प तूटीने अतीन्द्रिय आनंद सहित अनंतगुणस्वरूप निज आत्मानो अनुभव थशे. २७.

रागना विकल्पथी खंडित थतो हतो ते जीव स्वरूपनो निर्णय करीने अंदर स्वरूपमां ठर्यो त्यां जे खंड थतो हतो ते अटकी गयो अने एकलो आत्मा अनंत गुणोथी भरपूर आनंदस्वरूप रही गयो. हुं शुद्ध छुं, हुं अशुद्ध छुं, हुं बद्ध छुं, हुं अबद्ध छुंएवा विकल्पो हता ते छूटी गया अने जे एकलुं आत्मतत्त्व रही गयुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने ते ज समयसार छे. समयसार ते आ पानां नहि, अक्षरो नहि; ए तो जड छे. आत्माना आनंदमां लीनता ते ज समयसार छे. आत्मस्वरूपनो बराबर निर्णय करीने विकल्प छूटी जाय, पछी अनंतगुणसामर्थ्यथी भरपूर एकलुं रह्युं जे निज शुद्धात्मतत्त्व ते ज समयसार छे. २८.


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संसारमां पुण्यनी प्रधानता छे अने धर्ममां गुणनी प्रधानता छे. तेथी ज्ञानी पुण्यथी दूर रहीने तेमां स्वामीपणे न भळतां निस्पृहपणे जाणे छे, अने अज्ञानी तेमां तल्लीन थाय छे. पुण्य एक तत्त्व छे, पण तेनाथी ज्ञानी न थवाय, तेनाथी आत्मानुं हित न थाय. जे जीव पुण्यवैभव, यशःकीर्ति उपर जुए छे ते, जीव-अजीवनां लक्षणनी जुदाई नहि समजनारो होवाथी अज्ञानी छे.

प्रवचनसारमां कह्युं छे के पुण्य अने पाप बन्ने, आत्माना धर्म नहि होवाथी, निश्चयथी समान ज छे

नहि मानतो ए रीत पुण्ये पापमां न विशेष छे,
ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार संसारे भमे
.

जेम सुवर्णनी बेडी अने लोखंडनी बेडी बन्ने अविशेषपणे बांधवानुं ज काम करे छे, तेम पुण्य अने पाप बन्ने अविशेषपणे बंधन ज छे. जे जीव पुण्य अने पापनुं अविशेषपणुं (समानपणुं) कदी मानतो नथी, तेने आ भयंकर संसारमां रझळवानो कदी अंत आवतो नथी.

ज्ञानीने हित-अहितनो यथार्थ विवेक होई, जे कंई पुण्य-पापना संयोग छे तेनो ते मात्र ज्ञाता रहे छे.


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गमे तेवा संयोग होय पण ज्ञानी निर्दोषपणे तेने जाण्या करे. २९.

शुद्ध चैतन्य ज्ञायकप्रभुनी द्रष्टि, ज्ञान अने अनुभव ते साधकदशा छे. तेनाथी पूर्ण साध्यदशा प्रगट थशे. साधकदशा छे तो निर्मळ ज्ञानधारा, परंतु ते पण आत्मानो मूळ स्वभाव नथी; केम के ते साधनामय अपूर्ण पर्याय छे. प्रभु! तुं पूर्णानंदनो नाथसच्चिदानंद प्रभुआत्मा छो ने. पर्यायमां रागादि भले हो, पण वस्तु मूळस्वरूपे एवी छे नहि. ते निज पूर्णानंद प्रभुनी साधनापरमानंदस्वरूपमां एकाग्रतारूप साधकदशानी साधनाएवी कर के जेनाथी तारुं साध्यमोक्षपूर्ण थई जाय. ३०.

इच्छानो निरोध करी स्वरूपस्वभावनी स्थिरताने भगवान ‘तप’ कहे छे. स्वरूपमां विश्रान्तिरूप चैतन्यनुंज्ञायकनुं निस्तरंग प्रतपन थवुं, देदीप्यमान थवुं ते तप छे. सम्यग्दर्शन थया पछी अकषाय स्वभावना जोरे आहारादिनी इच्छा तूटी स्वरूपमां स्थिरता थाय ते तप छे. अंदर ज्यां आवी स्थिति होय त्यां, वच्चे अशुभमां न जवा माटे, अनशन वगेरे बार प्रकारना


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शुभ भावने तप कहेल छे ते उपचारथी छे. तेमां शुभ राग रह्यो छे ते गुणकरनिर्जरानुं कारणनथी. पुण्य-पाप रहित स्वभावना जोरे शुद्धतानी वृद्धि अने अंशे अंशे रागनुं टळवुं थाय ते निर्जरा छे. तपसा निर्जरा च एम श्री उमास्वामी-आचार्यदेवे तत्त्वार्थसूत्रमां कह्युं छे; तेनो अर्थ रोटला छोडवा ते तपश्चर्या नथी, पण स्वभावमां रमणता थतां रोटला सहज छूटी जाय ते तप छे. एवुं तप जीवे अनादि काळमां पूर्वे कदी कर्युं नथी.

हुं अखंडानंद परिपूर्ण ज्ञायकतत्त्व छुं’ एम स्वभावना लक्षे ठर्यो त्यां राग छूटतां, रागमां निमित्त जे शरीर तेना उपरनुं लक्ष सहेजे छूटी जाय छे अने शरीर उपरनुं लक्ष छूटतां आहारादि पण छूटी जाय छे. आ रीते स्वभावना भान सहित अंदर शान्तिपूर्वक ठर्यो ते ज तपश्चर्या छे. स्वभावना भान वगर ‘इच्छाने रोकुं, त्याग करुं’ एम कहे, पण भान वगर ते कोना जोरे त्याग करशे? शेमां जईने ठरशे? वस्तुस्वरूप तो यथार्थपणे समज्यो नथी.

आत्मामां रोटला वगेरे कोई पण जड पदार्थनां ग्रहण-त्याग नथी, परनुं कोई प्रकारे लेवुं-मूकवुं नथी. हुं निरालंबी ज्ञायकस्वभावी छुं एवी श्रद्धाना जोरे अंदर स्वरूपमां एकाग्र थतां आहारादिनो विकल्प छूटी जाय ते तप छे अने अंतरनी लीनतामां जे


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आनंद ते तपश्चर्यानुं फळ छे. ३१.

प्रवचनसार अने समयसारमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव तथा श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनो अन्तर्नाद छे के अमे जेम कहीए छीए तेम ज वस्तुनुं स्वरूप छे अने ते सर्वज्ञना घरनी वात अमे जात-अनुभवथी कहीए छीए. आ स्वरूप समज्ये, श्रद्ध्ये एक-बे भवे अवश्य मोक्ष थाय छेएम अप्रतिहत भावनी वात करी छे; पाछा पडी जवानी वात नथी. जे स्वरूप बेहद छे, अनंत छे, स्वाधीन छे, तेनो अंदरथी यथार्थ निर्णय थया पछी पाछो केम पडे? जे भावे पूर्णनी श्रद्धा करी छे ते ज भाव (स्वानुभव) आखुं निर्मळ आत्मपद पूरुं पाडे छे. ३२.

जगतमां मोटे भागे एवी भ्रामक मान्यताओ प्रचलित छे के कर्ता वगर आ जगत बनी शके नहि, एक आत्मा बीजानां जीवन-मरण, सुख-दुःख, उपकार- अपकार करी शके, आत्मानी प्रेरणाथी शरीर हाली- चाली, बोली शके, कर्म आत्माने हेरान करे, कोईना आशीर्वादथी बीजानुं कल्याण थाय ने शापथी अकल्याण थाय, देव-गुरुनी कृपाथी मोक्षनी प्राप्ति थई जाय, आपणे बराबर संभाळ राखीए तो शरीर सारुं रही


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शके ने बराबर ध्यान न राखीए तो शरीर बगडी जाय, कुंभार घडो बनावी शके, सोनी दागीना घडी शके वगेरे. पण ‘अन्य जीवनुं हिताहित हुं ज करुं छुं’ एम जे माने छे ते पोताने अन्य जीवरूप माने छे तेम ज ‘पौद्गलिक पदार्थोनी क्रियाने हुं ज करुं छुं’ एम जे माने छे ते पोताने पुद्गलद्रव्यस्वरूप माने छे. तेथी आवा प्रकारनी भ्रामक मान्यताओ छोडवायोग्य छे. ‘कर्ता एक द्रव्य होय अने तेनुं कर्म बीजा द्रव्यनो पर्याय होय एवुं कदी पण बनी शके ज नहि, कारण के ‘जे परिणमे ते कर्ता, परिणाम ते कर्म अने परिणति ते क्रिया त्रणेय एक ज द्रव्यनी अभिन्न अवस्थाओ छे.’ वळी ‘एक द्रव्यनो कर्ता अन्य द्रव्य थाय तो बन्ने द्रव्यो एक थई जाय कारण के कर्ताकर्मपणुं अथवा परिणाम- परिणामीपणुं एक द्रव्यमां ज होय शके. जो एक द्रव्य बीजा द्रव्यरूप थई जाय तो ते द्रव्यनो ज नाश थाय ए मोटो दोष आवे. माटे एक द्रव्यने अन्य द्रव्यनो कर्ता कहेवो उचित नथी.’ वळी ‘वस्तुनी शक्तिओ परनी अपेक्षा राखती नथी.’ वस्तुनी ते ते समयनी जे जे अवस्था (अव = निश्चय + स्था = स्थिति अर्थात् निश्चये पोतानी पोतामां स्थिति) ते ज तेनी व्यवस्था छे. तेथी तेनी व्यवस्था करवा माटे कोई पण परपदार्थनी जरूर पडती नथी. आम जेनी मान्यता थाय छे ते दरेक वस्तुने


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स्वतंत्र तथा परिपूर्ण स्वीकारे छे. परद्रव्यना परिणमनमां मारो हाथ नथी ने मारा परिणमनमां कोई अन्य द्रव्यनो हाथ नथी. आम मानतां परना कर्तापणानुं अभिमान सहेजे टळी जाय छे तेथी अज्ञानभावे जे अनंतुं वीर्य परमां रोकातुं हतुं ते स्वमां वळ्युं ते ज अनंतो पुरुषार्थ छे ने तेमां ज अनंती शांति छे.आ द्रष्टि ते ज द्रव्यद्रष्टि थई ने ते ज सम्यग्द्रष्टि थई. ३३.

जे जीव पापकार्योमां तो धन उत्साहथी वापरे छे ने धर्मकार्योमां कंजूसाई करे छे तेने धर्मनो साचो प्रेम नथी. धर्मना प्रेमवाळो गृहस्थ संसार करतां धर्मकार्योमां वधारे उत्साहथी वर्ते छे. ३४.

ज्ञान ने आनंद वगेरे अनंत पूर्ण शक्तिना भंडार एवा सत्स्वरूप भगवान निज ज्ञायक आत्माना आश्रये जतां निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थाय त्यारे तेना अनंत गुणोनो अंशआंशिक शुद्ध परिणमनप्रगट थाय छे अने बधा गुणोनी पर्यायोनुं वेदन थाय छे. तेने श्रीमद् राजचंद्र ‘सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व’ ने पं टोडरमलजी रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां ‘चोथा गुणस्थाने आत्माना ज्ञानादिक गुणो एकदेश प्रगट थया छे.’एम कहे छे. ते वात


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बेनना बोलमां (बहेनश्री चंपाबेननां वचनामृतमां) आ प्रमाणे आवी छेः

‘‘निर्विकल्प स्वानुभूतिनी दशामां आनंदगुणनी आश्चर्यकारी पर्याय प्रगट थतां आत्माना बधा गुणोनुं (यथासंभव) आंशिक शुद्ध परिणमन प्रगट थाय छे अने बधा गुणोनी पर्यायोनुं वेदन थाय छे.’’

अंदर आत्मा पूर्णानंदनो नाथ छे तेनी जेने द्रष्टि थई छे तेने ‘वस्तु अंतरमां परिपूर्ण छे’ एवो अनुभव वेदन थतुं होवाथी, अनंत गुणोनुं अंशे यथासंभव व्यक्तपणुं थयुं होवाथी, ते समकिती छे. ३५.

भगवान सर्वज्ञना मुखारविंदथी नीकळेली वीतराग वाणी परंपराए गणधरो अने मुनिओथी चाली आवी छे. ए वीतरागी वाणीमां कहेलां तत्त्वोनुं स्वरूप विपरीताभिनिवेश रहित जेने बेठुं छे ते भव्य जीवना भव नष्ट थई जाय छे. एने भव रहे ज नहि. भगवाननी वाणी भवनो घात करनारी छे; ए जेने बेसे ते जीवनी काळलब्धि पण पाकी गई छे. ३६.

भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयप्राभृतमां कहे छे के, हुं जे आ भाव कहेवा मागुं छुं ते अंतरना


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आत्मसाक्षीना प्रमाण वडे प्रमाण करजो; कारण के आ अनुभवप्रधान शास्त्र छे, तेमां मारा वर्तता स्व- आत्मवैभव वडे कहेवाय छे. आम कहीने छठ्ठी गाथा शरू करतां आचार्यभगवान कहे छे के, ‘आत्मद्रव्य अप्रमत्त नथी अने प्रमत्त नथी एटले के ए बे अवस्थानो निषेध करतो हुं एक जाणनार अखंड छुंए मारी वर्तमान वर्तती दशाथी कहुं छुं’. मुनिपणानी दशा अप्रमत्त अने प्रमत्त ए बे भूमिकामां हजारो वार आव-जा करे छे, ते भूमिकामां वर्तता महामुनिनुं आ कथन छे.

समयप्राभृत एटले समयसाररूपी भेटणुं. जेम राजाने मळवा भेटणुं आपवुं पडे छे तेम पोतानी परम उत्कृष्ट आत्मदशास्वरूप परमात्मदशा प्रगट करवा समयसार जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा तेनी परिणतिरूप भेटणुं आप्ये परमात्मदशासिद्धदशा प्रगट थाय छे.

आ शब्दब्रह्मरूप परमागमथी दर्शावेला एकत्व- विभक्त आत्माने प्रमाण करजो, हा ज पाडजो, कल्पना करशो नहि. आनुं बहुमान करनार पण महाभाग्यशाळी छे. ३७.

सत्समागमे आत्मानी ओळखाण करी आत्मानुभव


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कर. आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य छे के परिषह आव्ये पण जीवनी ज्ञानधारा डगे नहि. त्रण काळ ने त्रण लोकनी प्रतिकूळताना गंज एकसाथे सामे आवीने ऊभा रहे तोपण मात्र ज्ञातापणे रहीने ते बधुं सहन करवानी शक्ति आत्माना ज्ञायकस्वभावनी एक समयनी पर्यायमां रहेली छे. शरीरादि ने रागादिथी भिन्नपणे जेणे आत्माने जाण्यो तेने ए परिषहोना गंज जरा पण असर करी शके नहिचैतन्य पोतानी ज्ञातृधाराथी जरा पण डगे नहि ने स्वरूपस्थिरतापूर्वक बे घडी स्वरूपमां लीनता थाय तो पूर्ण केवळज्ञान प्रगट करे, जीवन्मुक्तदशा थाय अने मोक्षदशा थाय. ३८.

अज्ञानी माने छे के भगवान मने तारी देशे उगारी देशे; एनो अर्थ एवो थयो के मारामां कांई माल नथी, हुं तो साव नमालो छुं. एम पराधीन थईने, साक्षात् भगवान सामे के तेमनी वीतराग प्रतिमा सामे रांको थईने, कहे के भगवान! मने मुक्त करजो. दीन भयो प्रभुपद जपै, मुक्ति क हाँसे होय? रांको थईने कहे के हे प्रभु! मने मुक्ति आपो; पण भगवान पासे तारी मुक्ति क्यां छे? तारी मुक्ति तारामां ज छे. भगवान तने कहे छे के दरेक आत्मा


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स्वतंत्र छे, हुं पण स्वतंत्र छुं ने तुं पण स्वतंत्र छो, तारी मुक्ति तारामां ज छे;एम ओळखाण कर. ओळखाण वडे तरवानो उपाय पोतामां जाण्यो त्यारे भगवानने आरोप आपीने विनयथी कहेवाय छे के ‘भगवाने मने तार्यो,’ ते शुभ भाव छे ने ते व्यवहारे स्तुति छे.

शरीरादि ते हुं छुं, पुण्य-पापभाव ते पण हुं छुंएवा मिथ्या भाव छूटीने ‘हुं एक चैतन्यस्वभावे अनंत गुणनी मूर्ति छुं’ आवा भानपूर्वक भगवान तरफनो जे शुभभाव थाय ते व्यवहारे स्तुति छे अने आवा भानपूर्वक साथे वर्तती शुभभावथी जुदी जे स्वरूपावलंबी शुद्धि छे ते परमार्थे स्तुति छे. ३९.

शास्त्रमां व्यवहार ने परमार्थ बन्ने रीते वात आवे छे. शास्त्रमां एक ठेकाणे एम कह्युं होय के आत्मामां कदी क्यांय रागद्वेष नथी; त्यां एम समजवुं के ते कथन स्वभावनी अपेक्षाए द्रव्यद्रष्टिथी कह्युं छे. वळी ते ज शास्त्रमां बीजे ठेकाणे एम कह्युं होय के रागद्वेष आत्मामां थाय छे; त्यां एम समजवुं के ते कथन वर्तमान अशुद्ध अवस्थानी अपेक्षाए पर्यायद्रष्टिथी कहेवायुं छे. ए रीते ते कथन जेम छे तेम समजवुं,


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पण बन्नेनो खीचडो करी समजवुं नहि.

वळी शास्त्रमां ‘आत्मा नित्य छे’ एम जे कह्युं छे ते द्रव्यद्रष्टिनी अपेक्षानुं कथन छे अने ‘आत्मा अनित्य छे’ एवुं जे कथन छे ते पर्याय-अपेक्षाए अवस्था- द्रष्टिथी कह्युं छे. ते बन्ने कथन जे अपेक्षापूर्वक छे ते न जाणे अने आत्माने सर्वथा नित्य के सर्वथा अनित्य मानी ले तो ते अज्ञानी छे, एकान्तद्रष्टि छे. बन्ने पडखांने जेम छे तेम बराबर समजी, चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा पर ने विभावथी जुदो शुद्ध ज्ञायक छे एवी जे द्रष्टि ते परमार्थद्रष्टिध्रौव्यद्रष्टि छे. क्षणे क्षणे बदलती जे अवस्था तेना उपर जे द्रष्टि ते व्यवहार-द्रष्टिभंगद्रष्टिभेदद्रष्टि छे. ४०.

आ समयसार शास्त्र आगमोनुं पण आगम छे; लाखो शास्त्रोनो निचोड एमां रहेलो छे; जैन शासननो ए स्तंभ छे; साधकनी ए कामधेनु छे; कल्पवृक्ष छे; चौद पूर्वनुं रहस्य एमां समायेलुं छे. एनी दरेक गाथा छठ्ठासातमा गुणस्थाने झूलता महामुनिना आत्म- अनुभवमांथी नीकळेली छे. ४१.


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आत्मा कर्ता अने जड कर्मनी अवस्था एनुं कार्यएम केम होई शके? वळी जड कर्म कर्ता अने जीवना विकारी परिणाम एनुं कार्यएम पण केम होई शके? न होई शके. घणाने मोटो भ्रम छे के कर्मने लईने विकार थाय, पण एम छे ज नहि. निमित्तथी विकार थाय एम शास्त्रमां जे कथन आवे छे तेनो अर्थ ‘निमित्तथी विकार थाय’ एम नहि पण ‘निमित्तनो आश्रय करवाथी विकार थाय’ एम छे. जो जीव पुद्गलमां नथी अने पुद्गल जीवमां नथी, तो पछी तेमने कर्ताकर्मभाव केम होई शके? माटे जीव तो ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी; अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आम प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’ एवो अज्ञानीओनो आ मोह (अज्ञान) केम नाचे छे? ४२.

मने बहारनुं कांईक जोईए’ एम माननार भिखारी छे. ‘मने मारो एक आत्मा ज जोईए, बीजुं कांई न जोईए’ एम माननार बादशाह छे. आत्मा अचिन्त्य शक्तिओनो धणी छे. जे क्षणे जागे ते ज क्षणे आनंदस्वरूप जागती ज्योत अनुभवमां


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आवी शके छे. ४३.

अंतरना भावमांथीऊंडाणमांथी भावना ऊठे तो मार्ग सरळ थाय. आत्मा अंदर शुद्धचैतन्य छे. अंदरनी रुचिथी एनी भावना ऊठे अने वस्तुना लक्ष सहित वांचन-विचार करे तो मार्ग मळे. श्री मोक्षमार्ग- प्रकाशकमां आवे छे के, वांचन साचुं होय छतां जे मान ने पूजा माटे वांचे छे तेनुं ज्ञान खोटुं छे. तेनो हेतु जगतने राजी राखवानो ने पोतानी विशेषता मोटप पोषवानो होय तो तेनुं बधुं वांचवुं-विचारवुं अज्ञान छे. ४४.

स्याद्वाद ए तो सनातन जैनदर्शन छे; तेने जेम छे तेम समजवुं जोईए. वस्तु त्रिकाळी ध्रुव छे; तेनी अपेक्षाए एक समयनी शुद्ध पर्यायने पण भले हेय कहे छे; पण बीजी बाजु, शुभ राग आवे छेहोय छे; एनां निमित्तो देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो शुभ राग होय छे. भगवाननी प्रतिमा होय छे; तेने जे न माने ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. भले तेनाथी धर्म थतो नथी, पण तेने उथापे तो मिथ्याद्रष्टि छे. शुभ राग हेय छे, दुःखरूप छे, पण ए भाव होय छे; तेनां निमित्तो भगवाननी


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प्रतिमा आदि होय छे. तेनो निषेध करे तो ते जैनदर्शनने समज्यो नथी, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. ४५.

परमात्मानी प्रतिमाने पूजवानो भाव आवे, पण ए धर्म नथी. भूमिकामां हजु साधकपणुं छे एटले एवा भाव आवे ने? सिद्धपणुं नथी एटलुं बाधकपणुंएवा शुभ भावआवे. आवे, पण ते हेय तरीके आवे, जाणवा माटे आवे; ज्ञानी तो तेनो मात्र ज्ञाता ज छे. समयसार-नाटकमां आवे छे ने

‘क हत बनारसी अलप भवथिति जाकी,
सोई जिनप्रतिमा प्रवाँनै जिन सारखी
।।

जिनेन्द्रनी मूर्ति साक्षात् जिनेन्द्र तुल्य वीतराग- भाववाही होय छे. जे अपेक्षाए कह्युं होय ते अपेक्षा जाणवी जोईए. जिनप्रतिमा छे, तेनी पूजा, भक्ति बधुं छे. स्वरूपमां ज्यारे ठरी शके नहि त्यारे, अशुभथी बचवा, एवो शुभ भाव आव्या विना रहे नहि. ‘एवो भाव न ज आवेएम माने तेने वस्तुस्वरूपनी खबर नथी; अने आवे माटे ‘तेनाथी धर्म छेएम माने तोपण ते बराबर नथी; ए शुभ राग बंधनुं कारण छे.

ज्यां सुधी अबंध परिणाम पूरा प्रगट थया नथी, त्यां सुधी अधूरी दशामां एवा बंधना परिणाम


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होय छे. होय छे माटे ते आदरणीय छेएम पण नथी.

निज परमात्मतत्त्वने ज ग्रहण कर, तेमां ज लीन था, एक परमाणुमात्रनी पण आसक्ति छोडी दे. जेने निज परमात्मस्वभावनो आश्रय करवो छे तेणे रजकणने तेम ज रागना अंशने पण छोडी देवो पडशे. तेमां मारापणानो अभिप्राय छोडी दीधो माटे सम्यग्दर्शन थयुं, छतां एवो शुभ भाव आवे. आवे ते जाणवालायक छे, ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. ४६.

क्रोधादि थवा काळे, कोई पण जीव पोतानी हयाती विना ‘आ क्रोधादि छे’ एम जाणी शके ज नहि. पोतानी विद्यमानतामां ज ते क्रोधादि जणाय छे. रागादिने जाणतां पण ‘ज्ञान....ज्ञान....ज्ञान’ एम मुख्यपणे जणावा छतां ‘ज्ञान ते हुं’ एम न मानतां, ज्ञानमां जणाता ‘रागादि ते हुं’ एम, रागमां एकताबुद्धिथी, जाणे छेमाने छे; तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. ४७.

चैतन्यपरिणतिनो वेग बहारनिमित्त तरफढळे ते बंधनभाव छे, चैतन्यपरिणतिनो वेग अंदरस्व


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तरफवळे ते अबंधभाव छे. स्वाश्रयभावथी बंधन अने पराश्रयभावथी मुक्ति त्रण काळमां नथी.

विकल्पनो एक अंश पण मारो नथी, हुं तो निर्विकल्प चिदानंदमूर्ति छुं एवो स्वाश्रयभाव रहे ते मुक्तिनुं कारण छे; विकल्पनो एक अंश पण मने आश्रयरूप छे एवो पराश्रयभाव रहे ते बंधनुं कारण छे.

पराश्रयभावमांभले देव-शास्त्र-गुरुनी भक्तिनो के व्रत-तप-दया-दान वगेरेनो जे शुभ भाव होय तेमां बंधनो अंश पण अभाव करवानी ताकात नथी अने हुं अखंड ज्ञायकमूर्ति छुं तेवी स्वसन्मुख प्रतीतिना जोरमां बंधनो एक अंश पण थवानी ताकात नथी.

पराश्रयभावमां मोक्षमार्गनी अने मोक्षपर्यायनी उत्पत्ति थती नथी अने स्वाश्रयभावमां मोक्षमार्ग तेम ज मोक्षपर्याय बंनेनी उत्पत्ति थाय छे. ध्रौव्य तो एकरूप परिपूर्ण छे; मोक्षपर्यायनो उत्पाद ने संसारपर्यायनो व्यय थाय छे.

स्वभावनी शुद्धिने रोकनारो ते बंधनभाव छे; स्वभावनो विकास अटकी जवो अने विकारमां रोकाई जवुं ते बंधभाव छे. ४८.


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भगवान आत्मा आनंदस्वरूप अने राग आकुळता- स्वरूपएम ज्ञानीने बन्ने भिन्न भासे छे. त्रिकाळी नित्यानंद चैतन्यप्रभु उपर द्रष्टि प्रसरतां साथे जे ज्ञान थाय ते, चैतन्य अने रागने अत्यंत भिन्न जाणे छे. जेने तत्त्वनी द्रष्टि थई छे तेने सम्यग्ज्ञान होय; जेने द्रष्टि थई नथी तेने चैतन्य अने रागने भिन्न जाणवानी ताकात नथी. ४९.

सहज ज्ञान ने आनंद आदि अनंत गुणसमृद्धिथी भरपूर जे निज ज्ञायक तत्त्व छे तेने अधूरा, विकारी ने पूरा पर्यायनी अपेक्षा वगर लक्षमां लेवुं ते द्रव्यद्रष्टि छे, ते ज यथार्थ द्रष्टि छे. श्रुतज्ञानना बळ वडे प्रथम ज्ञानस्वभाव आत्मानो बराबर निर्णय करीने मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानना व्यापारने आत्मसन्मुख कर्यो ते व्यवहार छे,प्रयत्न करवो ते व्यवहार छे. इन्द्रियो ने मन तरफ रोकातुं तथा ओछा उघाडवाळुं जे ज्ञान तेना व्यापारने स्व तरफ वाळवो ते व्यवहार छे. सहज शुद्धपारिणामिकभाव तो परिपूर्ण एकरूप छे; पर्यायमां अधूराश छे, विकार छे, माटे प्रयास करवानुं रहे छे. पर्यायद्रष्टिए साध्यसाधकना भेद पडे छे. पर्यायद्रष्टिए विकार ने अधूराश छे; तेने तत्त्वद्रष्टिना जोरपूर्वक टाळीने साधक जीव अनुक्रमे पूर्ण