Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 51-83.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 4 of 11

 

Page 34 of 181
PDF/HTML Page 61 of 208
single page version

निर्मळता प्रगट करे छे. यथार्थ द्रष्टि थया पछी साधक- अवस्था वच्चे आव्या विना रहेती नथी. आत्मानुं भान करीने स्वभावमां एकाग्र थाय छे त्यारे ज परमात्मारूप समयसारने अनुभवे छे, आत्माना अपूर्व ने अनुपम आनंदने अनुभवे छे, आनंदनां झरणां झरे छे. ५०.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनो अमारा पर घणो उपकार छे, अमे तेमना दासानुदास छीए....श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदा- चार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमां सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधर भगवानना समवसरणमां गया हता अने त्यां तेओश्री आठ दिवस रह्या हता ए विषे अणुमात्र शंका नथी. ए वात एम ज छे; कल्पना करशो नहि, ना कहेशो नहि; मानो तोपण एम ज छे, न मानो तोपण एम ज छे. यथातथ वात छे, अक्षरशः सत्य छे, प्रमाणसिद्ध छे. ५१.

जेने पुण्यनी रुचि छे तेने जडनी रुचि छे, तेने आत्माना धर्मनी रुचि नथी. ५२.

जाणवामां अटकवुं होय नहि, पण जे जीवो


Page 35 of 181
PDF/HTML Page 62 of 208
single page version

निमित्ताश्रित बुद्धि करीने अटक्या छे ते जीवो मात्र वातो करे छे, अंतर्मुख ज्ञायकस्वभावनो पुरुषार्थ करवानी बुद्धि करता नथी. ‘भगवाने दीठुं हशे तेम थशे, तेमना ज्ञानमां जेटला भव दीठा हशे तेटलां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव ने भवभ्रमण थया विना मोक्ष नहि थाय, जे वखते काळलब्धि पाकशे ते वखते सम्यग्दर्शन थशेएम भावमां अने कथनमां निःसत्त्व बनी, निमित्ताधीनता राखी पुरुषार्थ उडाडे छे. पुरुषार्थ रहित थई द्रव्यानुयोगनी वातो करे तो ते निश्चयाभासी छे. जेने केवळज्ञानीनो विश्वास थयो तेने चारे पडखे समान अविरोध प्रतीति जोईए, अने तेणे ज ‘केवळज्ञानीए दीठुं’ एनो साचो स्वीकार कर्यो छे. जेणे केवळज्ञानीने मान्या तेने रागनी रुचि, कर्तापणारूप अज्ञान होय नहि; तेने एवी ऊंधी श्रद्धा पण न होय के ‘केवळी भगवाने मारा भव दीठा छे माटे हवे, हुं पुरुषार्थ न करुं नहि करी शकुं, पुरुषार्थ एनी मेळे जागशे.’ एम माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने अंदरमां केवळीनी श्रद्धा बेठी ज नथी. श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे ने!जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ; भवस्थिति आदि नाम लई छेदो नहि आत्मार्थ.’ ५३.

आत्मद्रव्य सर्वज्ञस्वभावी छे. सर्वज्ञने जेणे पोतानी


Page 36 of 181
PDF/HTML Page 63 of 208
single page version

पर्यायमां स्थाप्या तेने सर्वज्ञ थवानो निर्णय आवी गयो. बस, ए ‘ज्ञस्वभावमां विशेष ठरतां ठरतां पर्यायमां सर्वज्ञ थई जशे. ५४.

प्रश्नःमोक्षने माटे पुण्य ते पहेलुं पगथियुं तो छे ने?

उत्तरःना; पुण्य तो विभाव छेपरभाव छे, मोक्षथी विरुद्ध भाव छे, तेमां कांई आत्मानो आनंद के ज्ञान नथी. तेथी ते मोक्षनुं प्रथम पगथियुं नथी. अनंत वार पुण्य करी चूक्यो छतां मोक्ष तो हाथमां न आव्यो, मोक्ष तरफ एक पगलुंय मंडायुं नहि; मोक्षनुं पहेलुं पगथियुं तो सम्यग्दर्शन छे अने ते तो पुण्य-पाप बंनेथी पार छे. भेदज्ञान वडे आत्माने पुण्य- पाप बंनेथी भिन्न जाणे त्यारे निज शुद्ध आत्मानुं सम्यग्दर्शन अने अनुभव थाय. निज शुद्ध आत्माना अनुभव वडे ज तीर्थंकर भगवानना मार्गनी मोक्षमार्गनी मंगल शरूआत थाय छे; माटे ते मोक्षमहेलनुं पहेलुं पगथियुं छे. पं दोलतरामजीए छ ढाळामां कह्युं छे

मोक्षमहलकी परथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा,
सम्यक् ता न लहै सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा


Page 37 of 181
PDF/HTML Page 64 of 208
single page version

दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै,
यह नरभव फि र मिलन क ठिन है, जो सम्यक् नहीं होवै ।।

मोक्षमार्गनी वृद्धि अने पूर्णता पण ते ज रीते थाय छे, पुण्य वडे नथी थती. पुण्य छोडवाथी मोक्ष थाय, राखवाथी नहि, पुण्य वडे लक्ष्मी वगेरे धूळना ढगला मळे, परमात्मपणुं न मळे. परमात्मपणुं तो संपूर्ण वीतराग भावथी ज मळे. आ रीते वीतरागता ते ज धर्म छे, ते ज भगवाननो मार्ग छे अने ते ज बधां शास्त्रोनो सार छे. ५५.

ज्ञान अने रागने लक्षणभेदे सर्वथा जुदा पाडो तो ज सर्वज्ञस्वभावी शुद्ध जीव लक्षमां आवी शके. जेम जे संपूर्ण वीतराग थाय ते ज सर्वज्ञ थई शके, तेम जे सर्व प्रकारना रागथी ज्ञायकनी भिन्नता समजे ते ज सर्वज्ञस्वभावी आत्माने ओळखीअनुभवी शके. एवी सानुभव ओळखाण करनार जीवो विरला ज छे. जेम पापभावो शुद्धात्मानी स्वानुभूतिथी बहार छे, तेम पुण्यभावो पण बहार ज रहे छे, स्वानुभूतिमां नथी प्रवेशता; अने तेथी ज तेमने ‘अभूतार्थ’ कह्या छे. पुण्य-पाप रहित निज शुद्ध आत्मानीभूतार्थ ज्ञायकस्वभावनीअंतरमां द्रष्टि थतां स्वानुभूति प्रगट


Page 38 of 181
PDF/HTML Page 65 of 208
single page version

थाय छे, अने ते ज सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे. ५६.

रागमां शुभ अने अशुभ एवा बे भेद भले पाडो, तेनो विवेक भले करो, पण ते बंने भाव आस्रव छे ने बंधमार्गमां समाय छे, संवर-निर्जरामां नहि; ते एके भेद मोक्षमां के मोक्षना कारणमां नथी आवतो. मोक्षनो मार्ग ने मोक्षसंवर, निर्जरा ने मोक्षतो ए बंनेथी जुदी ज जातना छे. शुभ अने अशुभ बन्ने प्रकारना रागमां कषायनो स्वाद छे, आकुळता छे, चैतन्यनी शांतिनो स्वाद, निराकुळता ते बेमांथी एकेमां नथी. पंचास्तिकायसंग्रहमां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छेः

तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुए,
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे.

आ जाणीने शुं करवुं?के सर्व प्रकारना राग रहित पोताना चिदानंदतत्त्वने बराबर लक्षमां लई तेने ज ध्यावुं. शुभाशुभ रागने एटले के पुण्य-पापने मोक्ष के मोक्षमार्गमां सहायकारी न जाणवा पण विघ्नकारी लुटारा समजवा. अहा, वीतराग थवानी वीतराग परमात्मानी आ वात कायर जीवो झीली शकता नथी; पुण्यथी धर्म थाय नहिए वात सांभळतां ज चोंकी


Page 39 of 181
PDF/HTML Page 66 of 208
single page version

ऊठे छेतेमनां काळजां कंपी ऊठे छे. ज्ञानीओ तो मोक्षने अर्थे एक शुद्धोपयोगने ज मान्य करे छे, रागना कोई कणियाने तेमां भेळवता नथी; शुभ अने अशुभ बन्नेथी विरक्त थईने वीतरागी शुद्धोपयोगने ज मोक्षना साधन तरीके स्वीकारे छे. ५७.

हाथीना दांत देखाडवाना जुदा ने चाववाना जुदा. देखाडवाना दांत मोटा होय अने ते रंगवामां ने शोभा करवामां काम आवे; चाववाना दांत झीणा होय अने ते खावाना काममां आवे. शास्त्र तो ‘भाना कागळ छे, तेने ऊकेलतां शीखवुं जोईए. शास्त्रमां व्यवहारनां कथन घणां होय छे परंतु जेटलां व्यवहारनां ने निमित्तनां कथन छे ते पोताना गुणमां काम न आवे पण परमार्थने समजाववामां काम आवे. आत्मा परमार्थे परथी जुदो छे तेनी श्रद्धा करी, तेमां लीन थाय तो आत्माने मीणो चडे. जे परमार्थ छे ते व्यवहारमां समजाववामां काम न आवे पण तेना वडे आत्माने शांति थाय. आवो आ प्रगट नयविभाग छे. ५८.

राग-द्वेष ने पुण्य-पापथी पार आत्मानुभूतिस्वरूप शुद्ध मार्गने ज्ञानीओ ज ओळखे छे, अज्ञानीओ तो


Page 40 of 181
PDF/HTML Page 67 of 208
single page version

पुण्यने ज धर्म मानीने रागमां ज अटकी जाय छे. पाप ते अधर्म ने पुण्य ते धर्मएटलुं ज लौकिक जनो समजे छे, पण पुण्य ने पाप ए बन्ने अधर्म छे, ने धर्म तो ते बंनेथी पार एवा वीतरागी चैतन्यभावरूप छे. आ वात मात्र जैनधर्ममां ज छे ने विरला ज्ञानीजनो ज ते समजे छे अने कहे छे.

जेम लोढानी के सोनानी बेडी बांधे ज छे तेम, पुण्यने भले सोनानी कहो तोपण ते बेडी जीवने संसारमां बांधे छे, मोक्ष थवा देती नथी; ते पुण्यनी बेडी पण तोडीने मोक्ष थाय छे. अज्ञानीने पुण्यनी वात मीठी लागे छे, पण राग वगरनी चैतन्यनी मीठाशने ते जाणतो नथी. चैतन्यनो मीठो वीतरागी स्वाद चाखनारने पुण्यनो कषाय पण कडवो लागे छे.एवा ज्ञानीओ ज मोक्षने साधे छे. ५९.

ज्ञानीनी द्रष्टि अखंड ध्रुवस्वभाव उपर छे, अज्ञानीनी द्रष्टि निमित्त उपर छे. निमित्त तरफ द्रष्टि ते पराश्रयद्रष्टि छे. ‘निमित्त’ एवी वस्तु नथीएम नथी, निमित्त वस्तु छे खरी; जो निमित्त कोई चीज न होय तो बंध अने मोक्ष एवी बे अवस्था होई शके नहि. निमित्त छे एम जाणवुं, बंधनी अवस्था


Page 41 of 181
PDF/HTML Page 68 of 208
single page version

थाय छे तेम जाणवुं, ते बधो व्यवहारनय छे. व्यवहारने जाणतां अधूरी अवस्थानो ख्याल रहे छे, व्यवहारने जाणतां कांई व्यवहारनो आश्रय आवी जाय छेएम नथी. निश्चयनयनो विषय जे अखंड ज्ञायक- वस्तु छे तेनो आश्रय करवाथी मुनिवरो मुक्तिने प्राप्त करे छे. ६०.

पोतानी पाछळ विकराळ वाघ झपटुं मारतो दोडतो आवतो होय तो पोते केवी दोट मूके? ए विसामो खावा ऊभो रहेतो हशे? एवी रीते अरे! आ काळ झपटुं मारतो चाल्यो आवे छे ने अंदर काम करवानां घणां छे एम पोताने अंदरमां लागवुं जोईए. ६१.

सम्यग्दर्शन ए कोई अपूर्व चीज छे. शरीरनां चामडां ऊतरडीने खार छांटनार उपर पण क्रोध न कर्योएवां व्यवहारचारित्रो आ जीवे अनंत वार पाळ्यां छे, पण सम्यग्दर्शन एक वार पण प्राप्त कर्युं नथी. लाखो जीवोनी हिंसाना पाप करतां मिथ्यादर्शननुं पाप अनंतगणुं छे. समकित सहेलुं नथी, लाखो करोडोमां कोईक विरल जीवने ज ते होय छे. समकिती जीव पोतानो निर्णय पोते ज करी शके छे. समकिती


Page 42 of 181
PDF/HTML Page 69 of 208
single page version

आखा ब्रह्मांडना भावोने पी गयो होय छे...समकित ए कोई जुदी ज वस्तु छे. समकित विनानी क्रियाओ एकडा विनानां मींडां छे. समकितनुं स्वरूप घणुं ज सूक्ष्म छे....हीरानी किंमत हजारो रूपिया होय छे, तेना पासा पडतां खरेली रजनी किंमत पण सेंकडो रूपिया होय छे; तेम समकित-हीरानी किंमत तो अमूल्य छे, ते मळ्यो तो तो कल्याण थई जशे पण ते न मळ्यो तोपण ‘समकित ए कांईक जुदी ज वस्तु छे एम तेनुं माहात्म्य समजाई ते मेळववानी तालावेलीरूप रजो पण घणो लाभ आपे छे.

जाणपणुं ते ज्ञान नथी. समकित सहित जाणपणुं ते ज ज्ञान छे. अगियार अंग कंठाग्रे होय पण समकित न होय तो ते अज्ञान छे. आजकाल तो सौ पोतपोताना घरनुं समकित मानी बेठा छे. समकितीने तो मोक्षना अनंत अतीन्द्रिय सुखनी वानगी प्राप्त थई होय छे. ते वानगी मोक्षना सुखना अनंतमा भागे होवा छतां अनंत छे. ६२.

जैनदर्शनमां मात्र बाह्य क्रियानुं ज प्रतिपादन नथी पण तेमां सूक्ष्म तत्त्वज्ञान भरपूर भरेलुं छे. आ मोंघा मनुष्यभवमां जो जीवे देह, वाणी अने मनथी पर


Page 43 of 181
PDF/HTML Page 70 of 208
single page version

एवा परम तत्त्वनुं भान न कर्युं, तेनी रुचि पण न करी तो आ मनुष्यभव निष्फळ छे. ६३.

मुनिदशा थतां सहेजे निर्ग्रंथ दिगंबर दशा थई जाय छे. मुनिनी दशा त्रणे काळे नग्न दिगंबर होय छे. आ कोई पक्ष के वाडो नथी पण अनादि सत्य वस्तुस्थिति छे.

शंकामुनिदशामां वस्त्र होय तो वांधो शो छे? वस्त्र तो परवस्तु छे, ते क्यां आत्माने नडे छे?

समाधानवस्त्र तो परवस्तु छे अने ते आत्माने कांई नडतां नथी ए वात पण खरी छे; परंतु वस्त्र ग्रहण करवानी जे बुद्धि छे ते रागमय बुद्धि ज मुनिदशाने रोकनार छे. मुनिओने अंतरनी रमणता करतां करतां एटली उदासीन दशा सहेजे थई गई होय छे के वस्त्रना ग्रहणनो विकल्प ज ऊठतो नथी. ६४.

परना निमित्ते ने पोतानी योग्यताना कारणे जीव पर्यायमां भूल करे तो जे राग-द्वेषरूप धुमाडो ऊठे छे ते अशुद्ध उपादानथी थयेली जीवनीजीवना वीतराग- स्वभाव नामना चारित्रगुणनीअरूपी विकाररूप ऊंधी


Page 44 of 181
PDF/HTML Page 71 of 208
single page version

अवस्था छे. आ क्षणिक विकारी अवस्थानो चैतन्य- स्वभावमां प्रवेश नथी. जो कर्म वगेरे परनिमित्त विना ज विकार थाय तो ते स्वभाव थई जाय, अने स्वभाव तो कदी टळे नहि. परंतु आ भूल तो क्षणिक अवस्था पूरती छे अने ते त्रिकाळी परिपूर्ण स्वभावना भान वडे टळे छे. जे टळे ते स्वभावना घरनुं केम कहेवाय? जे त्रिकाळ साथे रहे ते ज पोतानुं गणाय. ६५.

स्त्री-पुत्र-परिवार ए कांई संसार नथी. संसार तो पोतानी पर्यायमां जे मोह-राग-द्वेषरूप विभाव भाव छे ते ज छे. जो स्त्री-पुत्र वगेरे संसार होय तो मृत्यु थतां आ देह, स्त्री, पुत्र वगेरे बधुं अहीं पड्युं रहेशे, तो शुं तारो संसार मटी जशे अने मोक्ष थई जशे? भाई! स्त्री-पुत्रादि तो संसार छे ज नहि. पोताना ज्ञानस्वरूपनो महिमा चूकीने जे परना कर्तृत्वनो भाव तथा मिथ्यात्व सहित अथवा अस्थिरता सहित रागद्वेषरूप भाव ते ज संसार छे. ६६.

सफेद लूगडुं परना निमित्ते मेलुं देखाय छे, पण तेने वर्तमानमां स्वभावे स्वच्छ जोई शकाय छे.


Page 45 of 181
PDF/HTML Page 72 of 208
single page version

द्रष्टान्तमां तो जोनार बीजो छे पण आत्मामां तो पोते ज जोनार छे. आत्मामां जे वर्तमान मलिन अवस्था छे ते तेनो मूळ स्वभाव नथी; तेथी वर्तमानमां मलिन अवस्थावाळो जीव पण पोतानो निर्मळ स्वभाव जोई शके छे, तेनी प्रतीति करी शके छे. ६७.

अनंत ज्ञानीओनो एक ज आशय होय छे. सर्वज्ञ वीतराग भगवंतोए कहेलो जे आत्माने पहोंची वळवानो मार्गमोक्षमार्ग ते त्रणे काळे एक ज छे. जेने ते पामवानी रुचि छे, सद्गुरुना समागमनी झंखना छे, तेने ते मळ्या विना रहे नहि. कदापि सद्गुरुनो योग न बन्यो तो अंतरथी, पूर्वना संस्कारथी जाते आत्मज्ञान थाय, अथवा तो प्रत्यक्ष गुरुनो योग मळे अने अंतरमां ए ज पूर्ण परमार्थनी खटक होय तेने आवो मार्ग मळे ज. ६८.

जे सहज आत्मस्वरूपमां गुप्त थईने रहे छे, स्वसन्मुख थईने स्वरूपमां ठरे छे ते बद्ध-अबद्धना पक्षना रागमां ऊभो रहेतो नथी; रागनां जाळां छोडीने जेनुं चित्त शांत थयु छे ते निज आत्माना


Page 46 of 181
PDF/HTML Page 73 of 208
single page version

आनंदामृत-स्वभावनो स्वाद ले छे, आकुळतानो अभाव थईने निराकुळ निज शांतरसनो स्वाद ले छे, नय- पक्षना त्यागनी भावनाने नचावीने आत्माना अमृतने पीए छे. ६९.

तळावनी उपली सपाटी बहारथी सरखी लागे, पण अंदर ऊतरीने तेना ऊंडाणनुं माप करतां कांठे ने मध्यमां ऊंडाईनुं केटलुं अंतर छे ते जणाय; तेम ज्ञानी अने अज्ञानीनां वचनो उपरटपके जोतां सरखां लागे, पण अंतरनुं ऊंडुं रहस्य जोतां तेमना आशयमां केटलो आंतरो छे ते समजाय. ७०.

परिणाम परिणामीथी (द्रव्यथी) भिन्न नथी, कारण के परिणाम अने परिणामी अभिन्न वस्तु छेजुदी जुदी बे नथी. अवस्था जेमांथी थाय तेनाथी ते जुदी वस्तु होय नहि. सोनुं अने सोनानो दागीनो ते बे जुदां होय? न ज होय. सोनामांथी वींटीनी अवस्था थई, पण वींटीरूप अवस्था क्यांय रही गई अने सोनुं बीजे क्यांय रही गयुं तेम बने? न ज बने. कोई कहे वींटी तो सोनीए करी छे, परंतु सोनीए वींटी करी नथी पण वींटी करवानी इच्छा सोनीए करी छे.


Page 47 of 181
PDF/HTML Page 74 of 208
single page version

इच्छानो कर्ता सोनी छे पण वींटीनो कर्ता सोनी नथी, सोनी तो मात्र निमित्त छे, सोनीए वींटी करी नथी. वींटीनो कर्ता सोनुं छे, सोनामांथी ज वींटी थई छे; ते रीते जे कोई अवस्था चैतन्यनी होय ते चैतन्यद्रव्यथी अभिन्न होवाथी तेनो कर्ता चैतन्य छे अने जे कोई अवस्था जडनी होय ते जड द्रव्यथी अभिन्न होवाथी तेनो कर्ता जड छे. माटे एम सिद्ध थयुं के जे कोई क्रिया छे ते बधीये क्रियावानथी एटले के द्रव्यथी भिन्न नथी. वस्तु वगरनी अवस्था न होय ने अवस्था वगरनी वस्तु होई शके नहि. ७१.

जे क्षणे विकारी भावने कर्यो ते ज क्षणे जीव तेनो भोक्ता छे, कर्म पछी उदयमां आवशे अने पछी भोगवाशे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. अज्ञानी परद्रव्यने करी-भोगवी शकतो नथी पण माने छे के ‘हुं परद्रव्यने करुं-भोगवुं छुं’. ज्ञानी परद्रव्यनी जे अवस्था थाय तेनो जाणनार रहे छे, तेथी तेनो ज्ञानपर्याय वधतो जाय छे. ज्ञानी ज्ञाननो कर्ता थाय छे, परंतु परद्रव्यनी अवस्थानो कर्ता थतो नथी. अज्ञानी परद्रव्यनी अवस्था करी शकतो नथी पण कर्तापणुं मानी ले छे. अज्ञानी पोताना शुभाशुभ भावने करे छे पण जडकर्मनो कर्ता कदी पण


Page 48 of 181
PDF/HTML Page 75 of 208
single page version

नथी, एटले के अज्ञानी भावकर्मनो कर्ता छे पण पुद्गलद्रव्यस्वरूप द्रव्यकर्म अने नोकर्मनो कर्ता तो कदी पण नथी. ७२.

जे घरे न जवुं होय तेने पण जाणवुं जोईए. ए घर पोतानुं नथी पण बीजानुं छे तेम जाणवुं जोईए. तेम पर्यायनो आश्रय करवानो नथी तेथी तेनुं ज्ञान पण नहि करे तो एकान्त थई जशे, प्रमाणज्ञान नहि थाय. पर्यायनो आश्रय छोडवायोग्य होवा छतां तेनुं जेम छे तेम ज्ञान तो करवुं पडशे, तो ज निश्चयनयनुं ज्ञान साचुं थशे. ७३.

हे भव्य! तुं भावश्रुतज्ञानरूपी अमृतनुं पान कर. सम्यक् श्रुतज्ञान वडे आत्मानो अनुभव करीने निर्विकल्प आनंदरसने पी, जेथी तारी अनादि मोहतृषानो दाह मटी जाय. चैतन्यरसना प्याला तें कदी पीधा नथी, अज्ञानथी तें मोह-राग-द्वेष-रूप झेरना प्याला पीधा छे. भाई! हवे तो वीतरागनां वचनामृत पामीने तारा आत्माना चैतन्यरसनुं पान कर; जेथी तारी आकुळता मटीने सिद्धपदनी प्राप्ति थाय. आत्माने भूलीने बाह्य भावोनो अनुभव ते तो झेरना पान जेवो छे; भले


Page 49 of 181
PDF/HTML Page 76 of 208
single page version

शुभराग हो, तेना स्वादमां पण कांई अमृत नथी पण झेर छे. माटे तेनाथी पण भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने श्रद्धामां लईने तेना स्वानुभवरूपी अमृतनुं पान कर. अहा! श्रीगुरु वत्सलताथी चैतन्यना प्रेमरसनो प्यालो पिवडावे छे. वीतरागनी वाणी आत्मानो परमशांतरस देखाडनारी छे. आवा वीतरागी शांत चैतन्यरसनो अनुभव ते भावशुद्धि छे. तेना वडे ज त्रण लोकमां सौथी उत्तम परम-आनंदस्वरूप सिद्धपद पमाय छे. ७४.

अहो धन्य ए मुनिदशा! मुनिराज कहे छे के अमे तो चिदानंदस्वभावमां झूलनारा छीए; अमे आ संसारना भोग खातर अवतर्या नथी. अमे हवे अमारा आत्मस्वभावमां वळीए छीए. हवे अमारे स्वरूपमां ठरवानां टाणां आव्यां छे. अंतरना आनंदकंदस्वभावनी श्रद्धा सहित तेमां रमणता करवा जाग्या ते भावमां हवे भंग पडवानो नथी. अनंता तीर्थंकरो जे पंथे विचर्या ते ज पंथना अमे चालनारा छीए. ७५.

ज्ञानीनुं आंतरिक जीवन समजवा अंतरनी पात्रता जोईए. पूर्वप्रारब्धना योगे बाह्य संयोगमां ऊभा होवा छतां धर्मात्मानी परिणति अंदर कंईक जुदुं ज काम


Page 50 of 181
PDF/HTML Page 77 of 208
single page version

करती होय छे. संयोगद्रष्टिथी जुए तेने स्वभाव न समजाय. धर्मीनी द्रष्टि संयोग उपर नहि पण आत्मानो स्वपर-प्रकाशक स्वभाव शुं छे तेना उपर होय छे. एवी द्रष्टिवाळा धर्मात्मानुं आंतरिक जीवन अंतरनी द्रष्टिथी समजाय एवुं छे, बाह्य संयोग उपरथी तेनुं माप थतुं नथी. ७६.

ज्ञायकस्वभाव लक्षमां आवे त्यारे क्रमबद्ध पर्याय यथार्थ समजमां आवी शके छे. जे जीव पात्र थईने पोताना आत्महित माटे समजवा मागे छे तेने आ वात यथार्थ समजमां आवी रहे छे. जेने ज्ञायकनी श्रद्धा नथी, सर्वज्ञनी श्रद्धा नथी, सर्वज्ञनी प्रतीत नथी, अंदरमां वैराग्य नथी अने कषायनी मंदता पण नथी एवो जीव तो ज्ञायकस्वभावना निर्णयनो पुरुषार्थ छोडीने क्रमबद्धना नामे स्वछंदतानुं पोषण करे छे. जे जीव क्रमबद्ध पर्यायने यथार्थरूपे समजे छे तेने स्वछंदता थई शके ज नहि. क्रमबद्धने यथार्थ समजे ते जीव तो ज्ञायक थई जाय छे, तेने कर्तृत्वना उछाळा शमी जाय छे ने परद्रव्यनो अने रागनो अकर्ता थई ज्ञायकमां एकाग्र थतो जाय छे. ७७.

मरणनो समय आवशे ते कांई पूछीने नहि आवे


Page 51 of 181
PDF/HTML Page 78 of 208
single page version

के लो हवे तमारे मरवानो काळ आव्यो छे. अरे! स्वप्ना जेवो संसार छे; कोनुं कुटुंब ने कोनां मकान- मिल्कत! आ देह पण एकदम फू थईने क्षणमां छूटी जशे. कुटुंब, कीर्ति ने मकान बधुं अहीं पड्युं रहेशे. अंदरथी ज्ञायक भगवानने छूटो पाड्यो हशे तो मरणसमये ते छूटो रहेशे. जो देहथी भिन्नता नहि करी होय तो मरणसमये भींसमां भिंसाई जशे. माटे टाणां छे त्यां देहथी भिन्नता करी लेवा जेवी छे. ७८.

देव, मनुष्य, तिर्यंच अने नरकए चारेय गति सदाय छे, जीवोना परिणामनुं फळ छे, कल्पित नथी. जेने, पोतानी सगवडता साधवामां वच्चे अगवडता करनारा केटला जीवोने मारी नाखवा अने केटला काळ सुधी एवी क्रूरता करवी एनी कोई हद नथी तेने ते अतिशय क्रूर परिणामोना फळरूपे ज्यां बेहद दुःख भोगववानुं होय छे एवुं स्थान ते नरक छे. लाखो खून करनारने लाख वार फांसी मळे एवुं तो आ लोकमां बनतुं नथी. तेने तेना क्रूर भावोनुं ज्यां पूरुं फळ मळे छे ते अनंत दुःख भोगववाना क्षेत्रने नरक कहेवाय छे. ते नरकगतिनां स्थान मध्यलोकनी नीचे छे अने शाश्वत छे. तेनी साबिती युक्ति अने न्यायथी


Page 52 of 181
PDF/HTML Page 79 of 208
single page version

बराबर करी शकाय छे. ७९.

जो चैतन्यसामर्थ्यनो विश्वास करे तो तेना आश्रये रत्नत्रयधर्मनी अनेक शाखा-उपशाखा प्रगटीने मोक्षफळ सहित मोटुं वृक्ष ऊगे. भविष्यमां थनार मोक्षवृक्षनी ताकात अत्यारे ज तारा चैतन्यबीजमां विद्यमान पडी छे. सूक्ष्म द्रष्टिथी एने विचारमां लईने अनुभव करतां तारुं अपूर्व कल्याण थशे. ८०.

ज्ञानी धर्मात्माने भगवाननी पूजा-भक्ति वगेरेना भाव आवे पण तेनी द्रष्टि राग रहित ज्ञायक आत्मा उपर पडी छे. तेने आत्मानुं भान छे; ते भानमां तेने सतत धर्म वर्ती रह्यो छे. साचुं समजे तेने वीतराग देव-शास्त्र-गुरु उपर भक्तिनो प्रशस्त राग आव्या विना रहेशे नहि. मुनिराजने पण एवा भक्तिना भाव आवे छे, जिनेन्द्रप्रभुना नामस्मरणथी पण चित्त भक्ति- भावथी ऊछळी जाय छे. अंतरमां वीतरागी आत्मानुं लक्ष थाय अने बहारना आकरा राग न टळे ए केम बने? भगवाननी भक्तिना भावनो निषेध करी जे खावा-पीवा वगेरेना भूंडा रागमां जोडाय ते तो मरीने दुर्गतिमां जशे. मारुं स्वरूप ज्ञान छे, राग मारुं स्वरूप


Page 53 of 181
PDF/HTML Page 80 of 208
single page version

नथीएम जे सत्यने जाणे छे तेने लक्ष्मी वगेरे परपदार्थनी ममता उपर सहेजे काप मुकाई जाय छे, ने भगवाननी भक्ति, प्रभावना वगेरेना भाव ऊछळे छे. छतां त्यां ते जाणे छे के आ राग छे, आ कांई धर्म नथी. अंतरमां शुद्ध चिदानंदस्वरूपने जाणीने ते प्रगट कर्या विना जन्म-मरण टळशे नहि. ८१.

धर्म पण ज्ञानीने थाय छे अने ऊंचां पुण्य पण ज्ञानीने ज बंधाय छे. अज्ञानीने आत्माना स्वभावनी खबर नथी, तेथी तेने धर्म पण नथी ने ऊंचां पुण्य पण नथी. तीर्थंकरपद, चक्रवर्तीपद, बळदेवपद ते बधां पद सम्यग्द्रष्टि जीवोने ज बंधाय छे; कारण के ज्ञानीने एम भान छे केएक मारो निर्मळ आत्मस्वभाव ज आदरणीय छे, ते सिवाय रागनो एक अंश के पुद्गलनो एक रजकण पण आदरणीय नथी.आवी प्रतीति थतां हजु संपूर्ण वीतराग थयो नथी तेथी रागनो भाग आवे छे. तेमां ऊंची जातनो प्रशस्त राग आवतां तीर्थंकर, चक्रवर्ती वगेरे ऊंची पदवीओ बंधाय छे. ८२.

अंतरना ऊंडाणमांथी रुचि ने लगनी लागवी