Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 84-126.

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जोईए. जो आत्माना लक्षे छ मास यथार्थ धून लागे तो आत्मानो अनुभव थया विना रहे ज नहि. ८३.

शरीर शरीरनुं काम करे छे ने आत्मा आत्मानुं. बन्ने भिन्न-भिन्न स्वतंत्र छे. शरीरनुं परिणमन जे वखते जे रीते थवानुं होय ते तेना पोताथी ज थाय छे, एमां माणसना हाथनी वात क्यां छे? आत्मामां पण राग ने ज्ञानना परिणाम थाय छे ते, आत्मा पोते करे छे. त्यां पोतपोतानुं कार्य करवामां बन्ने पदार्थ स्वतंत्र छे, त्यां बहारनां काम केटलां सरेडे चडाव्यां, आटलां कर्यां ने आटलां छेए वातने स्थान ज क्यां छे? ८४.

हिंसा, जूठुं, चोरी आदि तो पापभाव छे, पण दया-दान-पूजा-भक्ति वगेरेनो शुभ राग पण परमार्थे पाप छे; केम के स्वरूपमांथी पतित करे छे. अरे! पापने तो पाप सहु कहे छे पण अनुभवी ज्ञानी जीव तो पुण्यने पण पाप कहे छे. श्री योगीन्दुदेवे कह्युं छे ने

जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेइ
जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ ।।


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बहु झीणी वात छे, अंतरथी समजे तो समजाय तेवी छे. ८५.

ज्ञानदर्शनस्वभावमात्र अभेद निज तत्त्वनी द्रष्टि करतां तेमां नवतत्त्वरूप परिणमन तो छे नहि. चेतना- स्वभावमात्र ज्ञायकवस्तुमां गुणभेद पण नथी. तेथी गुणभेद के पर्यायभेदने अभूतार्थजूठा कही दीधा. पर्याय पर्याय तरीके सत्य छे, पण लक्षआश्रय करवा माटे जूठी छे. दया-दान वगेरे भाव तो राग छे, ते लक्ष करवा लायक नथी, पण संवर-निर्जरारूप वीतराग निर्मळ पर्याय पण लक्षआश्रय करवा लायक नथी; आश्रय करवा लायकआलंबन लेवा लायक तो एकमात्र त्रिकाळशुद्ध ज्ञायक भाव छे. ८६.

लोको कुळदेवने हाजराहजूर रक्षण करनार माने छे, पण तुं अंदर मालवाळो छो के नहि? त्रिकाळी स्वाधीन स्वभावना लक्षे अंदर तो जो! त्रिकाळ स्वतंत्रपणे टकनार भगवान ज्ञायक आत्मा के जे ज्ञातास्वरूपे सळंग जाग्रत छे ते ज हाजराहजूर देव छे. तेनी ज श्रद्धा कर, परनो आश्रय छोड, परथी जुदापणुं बतावनार निर्मळ ज्ञाननो विवेक कर, स्वभावना जोरे एकाग्रता कर; श्रद्धा, ज्ञान


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अने स्थिरताने एकरूप स्वभावमां जोड. ए ज मोक्षमार्ग छे. ८७.

भाई! तुं पंचम काळे भरतक्षेत्रे ने गरीब घरे जन्म्यो छो तेथी ‘अमारे आजीविका आदिनुं शुं करवुं एम न जो! तुं अत्यारे अने ज्यारे जो त्यारे सिद्ध समान ज छो, जे क्षेत्रे ने जे काळे ज्यारे जो त्यारे तुं सिद्ध समान ज छो. मुनिराजने खबर नहि होय के बधा जीवो संसारी छे? भाई! संसारी अने सिद्ध ए तो पर्यायनी अपेक्षाथी छे. स्वभावे तो ए संसारी जीवो पण सिद्ध समान शुद्ध ज छे. ८८.

हुं ज्ञायक छुं....ज्ञायक छुं....ज्ञायक छुंएम अंदरमां रटण राख्या करवुं, ज्ञायक सन्मुख ढळवुं, ज्ञायक सन्मुख एकाग्रता करवी. अहाहा! पर्यायने ज्ञायक सन्मुख वाळवी बहु कठण छे, अनंतो पुरुषार्थ मागे छे. ज्ञायकतळमां पर्याय पहोंची, अहाहा! एनी शी वात! एवो पूर्णानंदनाथ प्रभु एनी प्रतीतिमां, एना विश्वासमां भरोसामां आववो जोईए के अहो! एक समयनी पर्याय पाछळ आवडो मोटो भगवान ते हुं ज. ८९.


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शरीरनी एक एक तसुमां ९६९६ रोग छे; ए शरीर क्षणमां दगो देशे, क्षणमां छूटी जशे. कांईक सगवडता होय त्यां घुसी जाय छे, पण भाई! तारे क्यांक जवुं छे त्यां कोनो महेमान थईश? कोण तारुं ओळखीतुं हशे? एनो विचार करीने तारुं तो कांईक करी ले! शरीर सारुं होय त्यां सुधी आंख ऊघडे नहि ने क्षणमां देह छूटतां अजाण्या स्थाने हाल्यो जईश! नानी नानी उंमरना पण चाल्या जाय छे, माटे तारुं कांईक करी ले! शास्त्रमां कह्युं छे के वृद्धावस्था ज्यां सुधी न आवे, शरीरमां व्याधि ज्यां सुधी न आवे अने ईन्द्रियो ज्यां सुधी ढीली न पडे त्यां सुधीमां आत्महित करी लेजे. ९०.

धर्म एटले शुं? धर्मी जीव कोने कहेवो? लोको कहे छे के अमारे धर्म करवो छे. तो धर्म क्यांथी थाय? धर्म शरीर, वाणी, पैसा वगेरेथी थाय नहि; केम के ते तो बधां आत्माथी भिन्न अचेतन परद्रव्यो छे, तेमां आत्मानो धर्म रहेलो नथी. वळी मिथ्यात्व, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य वगेरे पापभाव के दया, दान, पूजा, भक्ति वगेरे पुण्यभावथी पण धर्म थतो नथी; केम के ते बन्ने विकारी भाव छे. आत्मानी निर्विकारी शुद्ध दशा ते ज धर्म छे. तेनो करनार आत्मा


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पोते ज छे. ते धर्म वीतराग देव-शास्त्र-गुरु के जिनप्रतिमा वगेरे क्यांय बहारथी आवतो नथी पण निज शुद्ध ज्ञायक आत्माना ज आश्रये प्रगटे छे. आत्मा ज्ञान ने आनंद आदि निर्मळ गुणोनी शाश्वत खाण छे; सत्समागमे श्रवण-मनन द्वारा तेनी यथार्थ ओळखाण करतां आत्मामांथी जे अतीन्द्रिय आनंदयुक्त निर्मळ अंश प्रगटे ते धर्म छे. अनादि-अनंत एकरूप चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा ते अंशी छे, धर्मी छे अने तेना आश्रये जे निर्मळता प्रगटे छे ते अंश छे, धर्म छे. साधक जीवने आश्रय अंशीनो होय छे, अंशनो नहि, अने वेदन अंशनुं होय छे पण तेनुं आलंबन होतुं नथी

तेना उपर वजन होतुं नथी. आलंबन तो सदाय शुद्ध अखंड एक परमपारिणामिकभावस्वरूप निज आत्मद्रव्यनुं ज होय छे. तेना ज आधारे धर्म कहो के शान्ति कहो बधुं थाय छे. ९१.

जेने भवनो थाक लाग्यो होय, जेने आत्मा केवो छे ते समजवानी साची जिज्ञासा अंतरमां जागी होय, तेने साचा गुरु मळे ज. ९२.


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जे जमीनमां क्षार होय तेमां अनाज वावे तो ऊगे नहि. अनाज उगाडवा माटे जेम उत्तम भूमि जोईए, तेम निर्मळ तत्त्वनो स्पष्ट उपदेश जीरववा माटे उत्तम पात्रता जोईए. ९३.

प्रत्येक जीव पोताना भावने करेभोगवे छे, परवस्तुने करतोभोगवतो नथी. मोढामां लाडवानुं बटकुं पडे, ते वखते ते जड-लाडवाने भोगवतो नथी पण तेना लक्षे थनारा रागने भोगवे छे. शरीरमां तीव्र रोग थयो होय ते वखते जीव जड-रोगने भोगवतो नथी पण तेना लक्षे थनारा द्वेषने भोगवे छे. शुद्धात्माना अनुभवमां धर्मी जीव मुख्यपणे रागद्वेषना कर्ता के भोक्ता नथी, पण स्वभावद्रष्टिमां निर्मळ पर्यायने करे छे ने तेना आनंदने भोगवे छे. ९४.

कोई आकरी प्रतिकूळता आवी पडे, कोई आकरां कठोर मर्मच्छेदक वचन कहे, तो शीघ्र देहमां स्थित परमानंदस्वरूप परमात्मानुं ध्यान करीने देहनुं लक्ष छोडी देवुं, समताभाव करवो. ९५.


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प्रश्नःद्रव्यमां पर्याय नथी तो पछी पर्यायने केम गौण कराववामां आवे छे?

उत्तरःद्रव्यमां अर्थात् तेना ध्रौव्यांशमां पर्याय नथी, पण तेनो जे वर्तमान प्रगट परिणमतो अंश ते अपेक्षाए तो तेमां पर्याय छे. पर्याय सर्वथा नथी ज एम नथी. पर्याय छे, पण तेनी उपेक्षा करीने, गौण करीने, ‘नथी’ एम कहीने, तेनुं लक्ष छोडावी, द्रव्यनुं ध्रुव स्वभावनुंलक्ष ने द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे. तेथी द्रव्यनेध्रुव स्वभावने मुख्य करी, भूतार्थ कही, तेनी द्रष्टि करावी छे; ने पर्यायनी उपेक्षा करी, गौण करी, पर्याय नथी, असत्यार्थ छे’ एम कही, तेनुं लक्ष छोडाव्युं छे. जो पर्याय सर्वथा ज न होय तो गौण करवानुं पण क्यां रहे छे? द्रव्य (ध्रौव्य) अने पर्याय बे थईने आखुं द्रव्य (वस्तु) ते प्रमाणज्ञाननो विषय छे. ९६.

भाई! एक वार हरख तो लाव के अहो! मारो आत्मा आवो परमात्मस्वरूप छे, ज्ञानानंदनी शक्तिथी भरेलो छे; मारा आत्मानी ताकात हणाई गई नथी. अरेरे! हुं हीणो थई गयो, विकारी थई गयो, हवे मारुं शुं थशे?’ एम डर नहि, मूंझा नहि, हताश था नहि. एक वार स्वभावनो उत्साह लाव. स्वभावनो


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महिमा लावीने तारी ताकातने उछाळ. ९७.

देह तो तने छोडशे ज पण तुं देहने (द्रष्टिमां) छोड एनी बलिहारी छे. आ तो शूरवीरना खेल छे. ९८.

अहाहा! आखी दुनिया भुलाई जाय एवुं तारुं परमात्मतत्त्व छे. अरेरे! त्रण लोकनो नाथ थईने रागमां रोळाई गयो! रागमां तो दुःखनी ज्वाळा सळगे छे, त्यांथी द्रष्टिने छोडी दे! अने ज्यां सुखनो सागर भर्यो छे त्यां तारी द्रष्टिने जोडी दे! रागने तुं भूली जा! तारा परमात्मतत्त्वने पर्याय स्वीकारे छे, पण ए पर्यायरूप हुं छुं ए पण भूली जा! अविनाशी भगवान पासे क्षणिक पर्यायनां मूल्य शां? पर्यायने भूलवानी वात छे त्यां राग ने देहनी वात क्यां रही? अहाहा! एक वार तो मडदां ऊभां थई जाय एवी वात छे, एटले के सांभळतां ज ऊछळीने अंतरमां जाय एवी वात छे. ९९.

खरेखर तो एक पोते ज छे ने बीजी वस्तु छे ज नहि. हुं ज एक छुं, मारे हिसाबे बीजी वस्तु छे ज


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नहि. केवळी हो, सिद्ध हो, ते तेमना हिसाबे भले हो, पण मारा हिसाबे ते नथी. स्वभावनी अपेक्षाए राग पण पोतानो नथी. देह-धन-स्त्री-पुत्र आदि तो मारां छे ज नहि पण राग पण मारो नथी. ज्ञानस्वरूप एकलो हुं ज छुंएम जोर आववुं जोईए.

प्रश्नःहुं जाणनार ज छुं एवुं जोर आवतुं नथी ते केम आवे?

उत्तरःजोर पोते करतो नथी तेथी आवतुं नथी. बहारना संसारना प्रसंगोमां केटली होंश ने उत्साह आवे छे? एम अंदरमां पोताना स्वभावनी होंश ने उत्साह आववो जोईए. १००.

जे जीव धर्म करवा मागे छे तेने धर्म करीने पोतामां टकावी राखवो छे, पोते ज्यां रहे त्यां धर्म साथे ज रहे एवो धर्म करवो छे. धर्म जो बहारना पदार्थोथी थतो होय तो तो ते बाह्य पदार्थ खसी जतां धर्म पण खसी जाय. माटे धर्म एवो न होय. धर्म तो अंतरमां आत्माना ज आश्रये थाय छे, आत्मा सिवाय बहारना कोई पदार्थना आश्रये आत्मानो धर्म थतो नथी. लोको भगवाननां दर्शन करवा जाय त्यां एम मानी ले छे के ‘अमे धर्म करी आव्या’; केम जाणे


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भगवान पासे एनो धर्म होय! अरे भाई! जो बहारमां भगवाननां दर्शनथी ज तारो धर्म होय तो ते भगवाननां दर्शन करे एटलो वखत धर्म रहे ने त्यांथी खसी जतां तारो धर्म पण खसी जाय, एटले के मंदिर सिवाय घरमां तो कोईने धर्म थाय ज नहि! जेवा भगवान वीतराग छे तेवो ज स्वभावे हुं भगवान छुं एम भान करीने अंतरमां चैतन्यमूर्ति निज भगवाननुं सम्यग्दर्शन करे तो ते पोताना भगवाननां दर्शनथी धर्म थाय छे, ने ए भगवान तो पोते ज्यां ज्यां जाय त्यां साथे ज छे एटले ते धर्म पण सदाय रह्या ज करे छे. जो एक वार पण एवां भगवाननां दर्शन करे तो जन्म-मरण टळी जाय. १०१.

सम्यग्दर्शन कोईना कहेवाथी के आपवाथी मळतुं नथी. आत्मा पोते अनंत गुणोनो पिंडसर्वज्ञ भगवाने जेवो कह्यो तेवोछे तेने सर्वज्ञना न्याय अनुसार सत्समागम वडे बराबर ओळखे अने अंदर अखंड ध्रुव ज्ञायकस्वभावनो अभेद निश्चय करे ते ज सम्यग्दर्शनआत्मसाक्षात्कार छे. तेमां कोई परवस्तुनी जरूर पडती नथी. आटलां पुण्य करुं, शुभराग करुं, तेनाथी धीमे धीमे सम्यग्दर्शन थशेए वात खोटी छे.


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कोई बाह्य क्रिया करे, जाप करे, हठयोग करे, तो तेनाथी तेने कदी पण सहज चैतन्यमय शुद्धात्मस्वभाव प्रगटे नहि, धर्म थाय नहि; धर्म तो आत्मानो सहज सुखदायक स्वभाव छे. १०२.

अहो! अडोल दिगंबरवृत्तिने धारण करनारा, वनमां वसनारा अने चिदानंदस्वरूप आत्मामां डोलनारा मुनिवरो के जेओ छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने आत्माना अमृतकुंडमां मग्न थया थका झूले छे, तेमनो अवतार सफळ छे. एवा संत मुनिवरो पण वैराग्यनी बार भावना भावीने वस्तुस्वरूप चिंतवे छे. अहा! तीर्थंकरो पण दीक्षा पहेलां जेमनुं चिंतवन करे छे एवी वैराग्यरसथी रसबसती आ बार भावनाओ भावतां कया भव्यने आनंद न थाय? अने कया भव्यने मोक्षमार्गनो उत्साह न जागे? १०३.

श्री अरिहंतदेव अने तेमनां शास्त्र एम कहे छे केप्रभु! तुं ज्ञानमात्र छो, त्यां प्रीति कर ने अमारा प्रत्ये पण प्रीति छोडी दे. तारो भगवान तो अंदर शीतळशीतळ चैतन्यचंद्र, जिनचंद्र छे; त्यां प्रीति कर. गगनमां जे चंद्र छे ते शीतळ होय छे पण ए तो


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जडनी शीतळता जडरूप छे. आ शांत-शांत-शांत चैतन्यचंद्रनी शीतळता तो अतीन्द्रिय शांतिमय छे, एकलुं शांतिनुं ढीम छे. तेने शांतिनुं ढीम कहो के ज्ञाननुं ढीम कहोबन्ने एक ज छे. माटे जेटलुं आ ज्ञान छे तेटलो ज परमार्थ आत्मा छे एम निश्चय करीने तेमां ज प्रीतिवंत बन. १०४.

अहो! आ तो वीतरागशासन छे. रागथी धर्म थाय ने व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटे ए बधो वीतरागमार्ग नथी. भगवान आत्मा वीतरागस्वरूप छे, ने तेना आश्रये जे वीतराग दशा थाय ए ज धर्म छे. शुभराग हो के अशुभबन्ने परना आश्रये थाय छे, स्वयं अपवित्र छे अने दुःखरूप छे; माटे ते धर्म नथी. रागथी भिन्न पडतां तो अंदर आत्मामां जवाय छे, तो पछी एनाथी लाभ थाय ए केम बने? बापु! मार्ग आकरो छे. व्यवहारथी निश्चय कदीय न थाय अने निमित्तथी उपादानमां कदीय कार्य न थाय. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे. १०५.

द्रष्टिनो विषय द्रव्यस्वभाव छे, तेमां तो


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अशुद्धतानी उत्पत्ति छे ज नहि. समकितीने एकेय अपेक्षाए अनंत संसारनुं कारण एवां मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधी कषायनो बंध नथी; पण एना उपरथी कोई एम ज मानी ले के एने जरीये विभाव तेम ज बंध नथी ज, तो ते एकान्त छे. अंदरमां शुद्ध स्वरूपनी द्रष्टि अने अनुभव होवा छतां हजु आसक्ति छे ते दुःखरूप लागे छे. रुचि ने द्रष्टि अपेक्षाए भगवान आत्मा तो अमृतस्वरूप आनंदनो सागर छे, एना नमूनाना वेदन आगळ शुभ ने अशुभ बन्ने राग दुःखरूप लागे छे, अभिप्रायमां झेर ने काळो सर्प लागे छे. १०६.

जीव एकलो आव्यो, एकलो रहे छे अने एकलो जाय छे; ते एकलो ज छे, तेने जगत साथे शो संबंध छे? भाई! आ शरीरना रजकण अहीं पड्या रहेशे अने आ मकानमहेल पण बधां पड्यां रहेशे. एमांनी कोई चीज तारा स्वरूपमां नथी, ए बधी जीवस्वरूपथी भिन्न छे. प्रभु! तुं तेमना मोहपाशमांथी नीकळी जा. हवे लुंटावानुं रहेवा दे. तुं तारा एकत्वविभक्तपणाने पामी एकलो निजानंदने भोगव. १०७.


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जैनधर्मनी महत्ता ए छे के मोक्षना कारणभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वगेरे शुद्ध भावनी प्राप्ति तेमां ज थाय छे. एनाथी ज जैनधर्मनी श्रेष्ठता छे. माटे हे जीव! आवा शुद्धभाव वडे ज जैनधर्मनो महिमा जाणीने तुं तेने अंगीकार कर, अने रागनेपुण्यने धर्म न मान. जैनधर्ममां तो सर्वज्ञ भगवाने एम कह्युं छे के पुण्यने जे धर्म माने छे ते केवळ भोगने ज इच्छे छे, केम के पुण्यना फळमां तो स्वर्गादिना भोगनी ज प्राप्ति थाय छे; तेथी जेने पुण्यनी भावना छे तेने भोगनी ज एटले के संसारनी ज भावना छे, पण मोक्षनी भावना नथी. १०८.

पर्यायद्रष्टि काढी नाखी ने द्रव्यद्रष्टि प्रगट करी ते बीजाने पण द्रव्यद्रष्टिए पूर्णानंद प्रभु ज जुए छे. पर्यायनुं ज्ञान करे, पण आदरणीय तरीकेद्रष्टिना आश्रयरूपेतो तेने त्रिकाळी ध्रुव शुद्ध द्रव्य ज छे. १०९.

परमपारिणामिक भाव छुं, कारणपरमात्मा छुं, कारणजीव छुं, शुद्धोपयोगोऽहं, निर्विकल्पोऽहं. ११०.


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एक तरफ विकारनी धारा अनादिथी छे ने बीजी तरफ स्वभावसामर्थ्यनी धारा पण अनादिथी साथे ने साथे ज चाली रही छे; विकारनी धारा वखते स्वभावसामर्थ्यनी धारा कांई तूटी नथी गई, स्वभावसामर्थ्यनो कांई अभाव नथी थयो. परिणति ज्यां स्वभावसामर्थ्य तरफ वळी त्यां ज विकारनी परंपरानो प्रवाह तूट्यो ने अध्यात्म- परिणतिनी परंपरा शरू थई, जे पूरी थईने सादि-अनंत काळ रहेशे. १११.

एक वार परने माटे तो मृतकवत् थई जवुं जोईए. परमां तारो कांई अधिकार ज नथी. अरे भाई! तुं रागने तथा रजकणने करी शकतो नथी एवो ज्ञाताद्रष्टा पदार्थ छो. एवा ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी द्रष्टि कर. चारे बाजुथी उपयोगने संकेलीने एक आत्मामां ज जा. ११२.

कर्मनो विपाक ते कारण ने रागादि भाव थवा ते कार्यएम नथी, पण अज्ञानभावे आत्मा पोते शुभाशुभ रागनो कर्ता थयो ने शुभाशुभ राग कार्य थयुं. ए रीते जडकर्मनो अभाव थयो तेथी मोक्षदशारूप कार्य प्रगट थयुंएम नथी, परंतु ज्ञानभावे मोक्षनी निर्मळ पर्यायनो कर्ता आत्मा छे अने मोक्षनी निर्मळ


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पर्याय प्रगट थई ते आत्मानुं कार्य छे. ११३.

ध्रुवनी किंमत वधु छे. आनंदनी पर्याय तो एक समयनी छे ने ध्रुवमां तो आनंदना ढगला भर्या छे. ११४.

अहो! आ मनुष्यपणामां आवा परमात्मस्वरूपनो आदर करवो ए जीवननी कोई धन्य पळ छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ज्ञायक ज छे, ते एने ख्यालमां आवे, गमे तेवा प्रसंगमां पण हुं ज्ञायक छुं....ज्ञायक छुं एम भासमां आवे, ज्ञायकनुं लक्ष रहे तो ते तरफ ढळ्या ज करे. ११५.

सर्वज्ञ भगवाने कहेलुं सत्य सांभळवा मागतो हो तो जेवा परमात्मा पूर्ण पवित्र छे तेवो तुं पण छो तेनी ‘हा’ पाड; ‘ना’ पाडीश नहि. ‘हा’ मांथी ‘हा आवशे; पूर्णनो आदर करनार पूर्ण थई जशे. ११६.

देवाधिदेव सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवाननुं प्रवचन निर्दोष होय छे. सहज वाणी ऊठे छे, ‘उपदेश आपुं’ एवी


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पण इच्छा होती नथी. मेघनी गर्जना जेम सहज ऊठे छे तेम ‘’ ध्वनि पण सहज ऊठे छे. ते गणधरदेव द्वारा द्वादशांग सूत्ररूपे रचाय छे. तेने जिनागम अर्थात जिनप्रवचन कहेवाय छे. ११७.

अध्यात्मशास्त्रना भाव कोई गमे तेनी पासेथी सांभळी ले अथवा तो पोतानी मेळे वांची ले तो स्वच्छंदे अपूर्व आत्मबोध प्रगटे नहि. गुरुगमरूपे एक वार ज्ञानी पासे साक्षात् सीधुं सांभळवुं जोईए. ‘दीवे दीवो प्रगटे.’ सत् झीलवा माटे पोतानुं उपादान तैयार होय त्यां ज्ञानीना निमित्तपणानो योग सहज होय ज. श्रीमदे कह्युं छेः बूझी चहत जो प्यासको, है बूझनकी रीत;

पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित.
११८.

घणा जीवोने सत् समजवानी अंतरथी तालावेली थाय, त्यारे संसारमांथी उन्नतिक्रममां आगळ वधेला कोई ज्ञानी तीर्थंकरपणे जन्मे. तेमना निमित्ते जे लायक जीवो होय ते सत्यने समजी लेएवो मेळ सहज थई ज जाय छे. तीर्थंकर कोई अन्य माटे


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अवतार लेता नथी. ११९.

शुद्धता ने अशुद्धता बंने होवा छतां जो शुद्धस्वभाव उपर द्रष्टि नहि करे तो अशुद्धताने जाणशे कोण? उपादान ने निमित्त बन्ने होवा छतां, उपादान तरफ वळ्या वगर निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान करशे कोण? शुद्धस्वभाव ने राग, अथवा निश्चय अने व्यवहार बन्ने होवा छतां, निश्चय द्रव्यस्वभाव तरफ द्रष्टि कर्या वगर व्यवहार कहेशे कोण? निर्मळ ज्ञायकस्वभाव तरफना वलण वगर स्व-परने जाणवानो विवेक ऊघडशे नहि. अभेद स्वभाव तरफ ढळवुं ते ज अनेकान्तनुं प्रयोजन छे. १२०.

घणा एम माने छे के आत्मा तो बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ

करे पण कर्म नाश थाय के न पण थाय; परंतु एम नथी. आत्मा पुरुषार्थ करे अने कर्मनो नाश न थाय एम बने ज नहि; अने आत्माए पुरुषार्थ कर्यो छे माटे पुरुषार्थथी कर्मनो नाश थयो छेएम पण नथी. आत्मानो सम्यग्दर्शननो काळ छे ते वखते दर्शन- मोहनीयना नाश वगेरेनो काळ छे, ज्ञानना उघाडनो काळ छे ते वखते ज्ञानावरणीयना क्षयोपशमनो काळ छे अने


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रागादिना अभावनो काळ छे ते वखते चारित्रमोहनीयना नाशनो काळ छे; पण कर्मना कारणे ते सम्यग्दर्शन वगेरे नथी अने आत्माना पुरुषार्थना कारणे कर्मनो नाश नथीएम समजवुं. १२१.

कारणपरमात्मा ए ज खरेखर नित्य आत्मा छे. नित्यनो निर्णय करे छे अनित्य पर्याय, पण तेनो विषय छे कारणपरमात्मा; तेथी ते ज खरेखर आत्मा छे. पर्यायने अभूतार्थ कहीने, व्यवहार कहीने, अनात्मा कह्यो छे. १२२.

अरे जीवो! ठरी जाओ, उपशमरसमां डूबी जाओ एम जाणे के भगवाननी प्रतिमा उपदेशती होय! माटे स्थापना पण परमपूज्य छे. त्रण लोकमां वीतराग- मुद्रायुक्त शाश्वत जिनप्रतिमा छे. जेम लोक अनादि अकृत्रिम छे, लोकमां सर्वज्ञ पण अनादिथी छे, तेम लोकमां सर्वज्ञनी वीतराग प्रतिमा पण अनादिथी अकृत्रिम शाश्वत छे. जेमणे आवी प्रतिमानी स्थापनाने उडाडी छे ते धर्मने समज्या नथी. धर्मी जीवने पण भगवानना जिनबिंब प्रत्ये भक्तिनो भाव आवे छे. १२३.


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ज्ञानस्वभाव स्व-परप्रकाशक छे. ते परने जाणे ते कांई आस्रव-बंधनुं कारण नथी, छतां अज्ञानी ‘परनो विचार करशुं तो आस्रव-बंध थशे’ एम मानीने परना विचारथी दूर रहेवा मागे छे; तेनी ते मान्यता जूठी छे. हा, चैतन्यना ध्यानमां एकाग्र थई गयो होय तो परद्रव्यनुं चिंतवन छूटी जाय; पण अज्ञानी तो ‘परने जाणनार ज्ञाननो उपयोग ज बंधनुं कारण छे’ एम माने छे. जेटलो अकषाय वीतरागभाव थयो तेटलां संवर-निर्जरा छे, अने जेटला रागादिभाव छे तेटला आस्रव-बंध छे. जो परनुं ज्ञान बंधनुं कारण होय तो केवळीभगवान तो समस्त पदार्थोने जाणे छे, छतां तेमने बंधन जरा पण थतुं नथी. तेमने रागद्वेष नथी माटे बंधन नथी. ते ज प्रमाणे बधा जीवोने ज्ञान बंधनुं कारण नथी. १२४.

तत्त्वज्ञान थतां आत्मानी द्रष्टि थई, ‘संयोगमां अनुकूळता-प्रतिकूळता छे’ एवी द्रष्टि छूटी गई, अने आस्रवनी भावना छूटी गई, तेने आत्मामां लीनता थतां इच्छाओनो जे निरोध थाय छे, ते तप छे. १२५.

आत्मा पामवा माटे (गुरुगमे) शास्त्रनो अभ्यास