Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 127-166.

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करवो, विचार-मनन करीने तत्त्वनो निर्णय करवो अने शरीरादिथी ने रागथी भेदज्ञान करवानो अभ्यास करवो. रागादिथी भिन्नतानो अभ्यास करतां करतां आत्मानो अनुभव थाय छे. १२६.

प्रश्नःआत्मानो महिमा केवी रीते आवे?

उत्तरःआत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु छे, अनंत गुणोनो पिंड छे. ते पूर्ण ज्ञायकतत्त्व त्रिकाळ अस्तिरूप छे; तेनुं स्वरूप तेम ज सामर्थ्य अगाध ने आश्चर्यकारी छे. आत्मवस्तु केवा अस्तित्ववाळी ने केवा सामर्थ्यवाळी छे तेनुं स्वरूप रुचिपूर्वक ख्यालमां ले, समजे तो तेनुं माहात्म्य आवे, रागनुं ने अल्पज्ञतानुं माहात्म्य छूटी जाय. क्षणे क्षणे जे नवी नवी थाय छे एवी एक समयनी केवळज्ञाननी पर्याय पण त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणवाना सामर्थ्यवाळी छे तो पछी तेने धरनार त्रिकाळी द्रव्यनुं सामर्थ्य केटलुं?एम आत्माना आश्चर्यकारी स्वभावने ख्यालमां बराबर ले तो आत्मानो महिमा आवे. १२७.

जेने ज्ञानधारामां ज्ञायकनुं ज्ञान थयुं छे तेने रागादि परज्ञेयोनुं जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञेयने लईने


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थाय एवी पराधीनता ज्ञानने नथी. शुभाशुभ भावोथी भिन्न पडीने जेने चैतन्यनी द्रष्टि थई छे तेने ज्ञाननी पर्यायमां स्व-परनुं जे ज्ञान थयुं ते, परज्ञेय छे माटे पर संबंधी ज्ञान थयुं छेएम नथी; ज्ञानना स्वपर- प्रकाशकपणाने लईने ज्ञान थयुं छे. तेथी रागनेज्ञेयने जाणतां ज्ञेयकृत ज्ञान छे एम नथी, पण ज्ञानकृत ज्ञान छे. १२८.

स्वपर-प्रकाशक ज्ञानपुंजज्ञायक प्रभुतो ‘शुद्ध ज छे, पण रागथी भिन्न पडीने उपासवामां आवे तेने ते ‘शुद्ध’ छे. समस्त परद्रव्यथी भिन्न पडीने स्वमां एकाग्रता करतां जेने शुद्धता प्रगटे छे तेने ते ‘शुद्ध’ छे. रागना विकल्पपणे थयो नथी माटे रागादिथी भिन्न पडीने ज्ञायकने सेववामां आवतां जेने पर्यायमां शुद्धतानो नमूनो आव्यो तेने ते ‘शुद्ध’ छे एम प्रतीतिमां आवे छे; रागना प्रेमीने ते ‘शुद्ध’ छे एम प्रतीतिमां आवतो नथी. १२९.

बहु बोलवाथी शुं इष्ट छे? माटे चूप रहेवुं ज भलुं छे. जेटलुं प्रयोजन होय एटलां ज उत्तम वचन बोलवां. शास्त्र तरफना अभ्यासमां पण जे अनेक विकल्पो छे तेमनाथी कार्यसिद्धि थती नथी. माटे वचननो बकवाद


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ने विकल्पोनी जाळ छोडीने, विकल्पथी जुदी एवी ज्ञानचेतना वडे शुद्ध परमात्माना अनुभवनो अभ्यास करवो ते ज इष्ट छे, ते ज मोक्षनो पंथ छे, ते ज परमार्थ छे. आत्मानो जेटलो अनुभव छे तेटलो ज परमार्थ छे, बीजुं कांई परमार्थ नथी एटले के मोक्षनुं कारण नथी. पं० बनारसीदासजीए कह्युं छे ने! शुद्धातम अनुभौ क्रि या, शुद्ध ज्ञान दृग दौर

मुक ति-पंथ साधन यहै, वागजाल सब और ।।

शुद्धात्माना अनुभवरूप जे क्रिया छे ते ज शुद्ध ज्ञान, दर्शन अने चारित्र छे, ते ज मोक्षपंथ छे, ते ज मोक्षनुं साधन छे. ए सिवाय बधी विकल्पजाळ छे. जेने आवा आत्मानो अनुभव करतां आवड्युं तेने बधुं आवडी गयुं. १३०.

निज स्वरूपनो उपयोग ते सुख छे; ते आबाल- गोपाल करी शके छे. ए विना शान्तिनो बीजो कोई उपाय नथी. १३१.

तत्त्वना आदरमां सिद्धगति छे ने तत्त्वना अनादरमां निगोदगति छे. सिद्धगतिमां जतां वच्चे एकाद बे भव थाय तेनी गणतरी नथी; अने निगोदमां जतां वच्चे अमुक


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भव थाय तेनी गणतरी नथी, कारण के त्रसनो काळ थोडो छे ने निगोदनो काळ अनंत छे. तत्त्वना अनादरनुं फळ निगोदगति अने आदरनुं फळ सिद्धगति छे. १३२.

परलक्ष विना शुभाशुभ राग थई शके नहि. जेटला शुभाशुभ राग छे ते अशुद्ध भाव छे. शुभाशुभ भावने पोतानुं स्वरूप मानवुं, तेने गुणकर मानवा, करवा जेवा मानवा, ते निश्चय मिथ्यात्वअगृहीत मिथ्यात्व छे. विकारने कर्तव्य मान्युं तेणे अविकारी स्वभाव मान्यो नहि. पोताना स्वभावने पूर्ण अविकारीपणे मानवो ते साची द्रष्टि छे. तेना जोर विना त्रण काळमां कोईनुं हित थतुं नथी. १३३.

आत्मा अचिन्त्य सामर्थ्यवाळो छे. तेमां अनंत गुणस्वभाव छे. तेनी रुचि थया विना उपयोग परमांथी पलटीने स्वमां आवी शकतो नथी. पापभावोनी रुचिमां जे पड्या छे तेमनी तो वात ज शी? पण पुण्यनी रुचिवाळा बाह्य त्याग करे, तप करे, द्रव्यलिंग धारे तोपण ज्यां सुधी शुभनी रुचि छे त्यां सुधी उपयोग पर तरफथी पलटीने स्वमां आवी शकतो नथी. माटे पहेलां परनी रुचि पलटाववाथी उपयोग पर तरफथी


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पलटीने स्वमां आवी शके छे. मार्गनी यथार्थ विधिनो आ क्रम छे. १३४.

ज्ञायकस्वभाव साथे एकता करीने जे ज्ञायकभावरूप परिणमन थयुं ते मोक्षनो मार्ग छे. माटे, ज्ञानी कहे छे के हे वत्स! तुं तारा ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करीने, तारी परिणतिने तेमां ज वाळ; तारी परिणतिने पर तरफथी पाछी वाळीने स्व तरफ वाळ; स्वभावना महिमामां ज तेने एकाग्र कर. समयसारमां आवे छे ने

आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.

योगसारमां पण कह्युं छे के

जेम रमतुं मन विषयमां, तेम जो आत्मे लीन;
शीघ्र लहे निर्वाणपद, धरे न देह नवीन.
१३५.

पोताना चिदानंदस्वभावना अभिमुख थईने तेना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करवो ते ज आत्मानुं साचुं अभिनंदन छे. आ सिवाय जगतना लोको भेगा थईने प्रशंसा करे के अभिनंदनपत्र आपे तेमां आत्मानुं कांई हित नथी. अरे प्रभु! तने तारा आत्मानुं साचुं


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बहुमान ज कदी आव्युं नथी. तारा चैतन्यस्वरूपनी महत्ता भूलीने तुं संसारमां रखड्यो. सर्वज्ञपरमात्मा जेवी ताकात तारा स्वभावमां पडी छे, तेनुं बहुमान करीने स्वभावसन्मुख था, अने स्वभावना आनंदनुं वेदन करीने तुं पोते तारा आत्मानुं अभिनंदन कर; तेमां ज तारुं हित छे. १३६.

अंदर शुद्ध चैतन्यवस्तुनुं भानसम्यग्दर्शन, ज्ञान ने स्वरूपस्थिरताचारित्र थयां छे; त्यां विशेष स्वरूप- स्थिरताशुद्धोपयोग न थाय तो ते काळे आग्रह न करवो जोईए केअरे! शुभ भाव आवशे तो हुं भ्रष्ट थई जईश. वच्चे शुभ भाव आवे ते अपवादमार्ग छे. अपवाद आव्यो एटले शुद्धिथी भ्रष्ट थई गयो एम ज्ञानी न माने. शुद्धिमां वधु टकी शकतो नथी तेथी अपवाद आव्या विना रहे नहि एम पण ए जाणे. अपवाद आवे, छतां उत्सर्गमां जवानीशुद्धोपयोगरूप थवानीभावना ते काळे पण होय. अपवादमां ज रहेवुं एवो तेने आग्रह न होय. १३७.

ज्ञानीने यथार्थ द्रव्यद्रष्टि प्रगटी छे; द्रव्यना


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आलंबने ते अंदर स्वरूपस्थिरता वधारतो जाय छे; पण ज्यां सुधी अधूरो छे, पुरुषार्थ मंद छे, शुद्ध- स्वरूपमां पूर्णपणे ठरी शकतो नथी, त्यां सुधी शुभ परिणाममां जोडाय छे, परंतु तेने ते आदरणीय मानतो नथी; स्वभावमां तेनी ‘नास्ति’ छे तेथी द्रष्टि तेनो निषेध करे छे. ज्ञानीने क्षणे क्षणे ए भावना होय छे के आ क्षणे पूर्ण वीतराग थवातुं होय तो आ शुभ परिणाम पण जोईता नथी, पण अधूराशने कारणे ते भावो आव्या वगर रहेता नथी. १३८.

शुभ परिणाम पण धर्मीने आफतरूप अने बोजारूप लागे छे; तेनाथी पण ते छूटवा ज मागे छे, परंतु ते आव्या वगर रहेता नथी. ते भावो आवे छे तोपण ते स्वरूपमां ठरवानो ज उद्यमी रहे छे. कोई कोई वार बुद्धिपूर्वकना बधा विकल्पो छूटी जाय छे अने स्वरूपमां सहज ठरी जाय छे ते वखते सिद्धभगवान जेवो अंशे अनुभव करे छे; परंतु त्यां कायम ठरी शकतो नथी तेथी शुभ परिणाममां जोडाय छे. १३९.

एक नयनो सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो ते मिथ्यात्व साथे मळेलो राग छे ने प्रयोजनना वशे एक नयने


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प्रधान करी तेनुं ग्रहण करे तो ते मिथ्यात्व सिवाय मात्र अस्थिरतानो राग छे. १४०.

ज्ञानी तत्त्वज्ञान थया पछी पोतानी शक्ति तेम ज बहारनां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव जोईने प्रतिमा के मुनिपणुं ले छे, देखादेखीथी प्रतिमा लेता नथी. ते बधी दशा सहज होय छे. १४१.

अहो! मुनिवरो तो आत्माना परम आनंदमां झूलतां झूलतां मोक्षने साधी रह्या छे. आत्माना अनुभवपूर्वक दिगंबर चारित्रदशा वडे मोक्ष सधाय छे. दिगंबर साधु एटले साक्षात् मोक्षनो मार्ग. ए तो नाना सिद्ध छे, अंतरना चिदानंदस्वरूपमां झूलतां झूलतां वारंवार शुद्धोपयोग वडे निर्विकल्प आनंदने अनुभवे छे. पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां जेमनुं स्थान छे एवा मुनिराजना महिमानी शी वात! एवा मुनिराजनां दर्शन मळे ते पण महान आनंदनी वात छे. एवा मुनिवरोना तो अमे दासानुदास छीए. तेमनां चरणोमां अमे नमीए छीए. धन्य ए मुनिदशा! अमे पण एनी भावना भावीए छीए. १४२.


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शुद्ध चिदानंदस्वरूप निज आत्मानी समीप वसवुं तेने उपवास कहे छे. ज्यां आहारत्यागनीये इच्छा नथी, पुण्य-पापनी इच्छा नथी ने आहारपाणी वगेरे परपदार्थ तरफना वलणनो सहज त्याग छे, तेने उपवास कहे छे. अज्ञानीने कांई भान नथी तेथी पुण्य-पापनी वृत्ति रोकाय कई रीते? न ज रोकाय. अकषाय स्वभावना भान विना कदी उपवास थई शकतो नथी. आत्माना भान विना आहारत्यागस्वरूप जे उपवास छे तेने लांघण कही छे.

क षायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।।
१४३.

अरेरे! देह तो क्षणे क्षणे मृत्युनी सन्मुख जई रह्यो छे. अवसर तो चाल्यो जाय छे. अंतरमां सन्मुखता कर्या विना क्यांय शान्ति नहि थाय. ज्ञानी तो अंतरमां निज स्वभावने ग्रहीने शिवचाल चाले छे; पोते पोतामां मोक्षमार्गने साधे छे. १४४.

आत्मा पोते विकार करे अने दोष नाखे कर्म उपर, तो ते प्रमादी थईने मिथ्याद्रष्टि रहे छे. पं बनारसीदासजीए कह्युं छेः ‘बे द्रव्य भेगां थईने एक


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परिणाम करे नहि अने बे परिणाम एक द्रव्यथी थाय नहि’. माटे कर्मना कारणे दोष थाय छे एम मानवुं नहि. १४५.

संसार ने पुण्य-पाप आत्मा विना थतां नथी; जडकर्म के शरीरमां ए भावो नथी, माटे आत्मामां ए भावो थाय छे एम मानवुं. पण रागादि भावोनुं निमित्त कर्मोने ज मानी पोताने रागादिनो अकर्ता माने छे, ते पोते कर्ता होवा छतां पोताने अकर्ता मानी, निरुद्यमी बनी, प्रमादी रहेवुं छे तेथी ज कर्मोनो दोष ठरावे छे. परंतु ए तेनो दुःखदायक भ्रम छे. १४६.

आ मनुष्य-अवतार पामीने जो भवना अंतना भणकार अंदरमां न जगाड्या तो जीवन शा कामनुं? जेणे जीवनमां भवथी छूटवानो उपाय न कर्यो तेना जीवनमां ने कीडा-कागडाना जीवनमां शो फेर छे? सत्समागमे अंतरना उल्लासपूर्वक चिदानंदस्वभावनुं श्रवण करीने, तेनी प्रतीति करतां ज तारा आत्मामां भव-अंतना भणकारा आवी जशे. माटे भाई! भव-भ्रमणना अंतनो आ उपाय सत्समागमे शीघ्र कर. १४७.


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दिगंबर मुनिराज एटले पंच परमेष्ठीमां भळेला भगवान. अहा! श्री कुंदकुंदाचार्यभगवाने कह्युं छे ने! अरिहंतभगवंतथी मांडीने अमारा गुरुपर्यंत बधा विज्ञानघनमां निमग्न हता, राग ने निमित्तमां तो नहोता पण भेदमांय नहोता; ए बधा विज्ञानघनमां निमग्न हता. १४८.

कोईए कोईने त्रण काळमां छेतर्यो नथी, कपटना भाव करी जीव पोते ज पोताने छेतरे छे. कोई एम माने के ‘में फलाणाने केवो छेतर्यो?’ पण भाई! तेमां ते छेतराणो नथी, पण तुं ज छेतराणो छो. सामानां पुण्य एटलां ओछां के तारा जेवो कपटी एने मळ्यो, परंतु कपटना, दगाप्रपंचना भाव करीने तने पोताने ज तें छेतर्यो छे, बाकी त्रण काळमां कोई कोईने छेतरी शकतुं नथी. १४९.

विकारी अवस्था आत्मानी पर्यायमां थाय छे ते वात स्वभावद्रष्टिए गौण छे. स्वभावद्रष्टिए तो जेटला पर- वलणवाळा भाव थाय ते बधा पौद्गलिक छे. पर्याय- द्रष्टिए ते विकारी पर्याय आत्मानी छे पण स्वभावद्रष्टिए ते आत्मानो स्वभाव नथी माटे पौद्गलिक छे. १५०.


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आवो उत्तम योग फरी क्यारे मळशे? निगोदमांथी नीकळीने त्रसपणुं पामवुं ए चिंतामणि तुल्य दुर्लभ छे, तो मनुष्यपणुं पामवुं, जैनधर्म मळवो ए तो महा दुर्लभ छे. पैसो ने आबरू मळवां ए दुर्लभ नथी. आवो उत्तम योग मळ्यो छे ते लांबो काळ नहि रहे, माटे विजळीना झबकारे मोती परोवी लेवा जेवुं छे. आवो योग फरीने क्यारे मळशे? माटे तुं दुनियानां मान-सन्मान ने पैसानो महिमा छोडीने, दुनिया शुं कहेशे तेनुं लक्ष छोडीने, मिथ्यात्वने छोडवा एक वार मरणियो प्रयत्न कर. १५१.

जेम लौकिकमां मोसाळना गामना कोई मोटा माणसने ‘मामो’ कहे छे पण ते साचो मामो नथी, कहेवामात्रकहेणो मामोछे; तेम जेने आत्मानी श्रद्धा, ज्ञान ने रमणतारूप निश्चय ‘धर्म’ प्रगट्यो होय ते जीवना दयादानादिना शुभरागने ‘कहेणा मामानी जेम व्यवहारे ‘धर्म’ कहेवाय छे. एम ‘धर्मना कथननां निश्चय-व्यवहार ए बन्ने पडखां जाणवां तेनुं नाम बन्ने नयोनुं ‘ग्रहण करवुं’ कह्युं छे. त्यां व्यवहारने अंगीकार करवानी वात नथी. ‘घीनो घडो कहेतां घडो घीनो नथी पण माटीनो छे; तेम व्रतादिने


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धर्म कहेतां व्रतादिना शुभ रागपरिणाम धर्म नथी पण आस्रव छे, कहेवामात्र ‘धर्म’ छे.आम जाणवुं तेने ग्रहण करवुं’ कह्युं छे. ज्यां व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान होय त्यां ‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचार कर्यो छेएम जाणवुं. बन्ने नयोनां व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी भ्रमरूप न प्रवर्तवुं. पं टोडरमलजीए मोक्षमार्ग- प्रकाशकमां कह्युं छे ने!

‘‘प्रश्नःजो एम छे, तो जिनमार्गमां बन्ने नयोने ग्रहण करवानुं कह्युं छेए केवी रीते?

उत्तरःजिनमार्गमां क्यांक तो निश्चयनयनी मुख्यताथी व्याख्यान छे, तेने तो ‘सत्यार्थ आम ज छे’ एम जाणवुं; तथा क्यांक व्यवहारनयनी मुख्यताथी व्याख्यान छे, तेने ‘आम छे नहि, निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचार कर्यो छे’ एम जाणवुं. आ प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं ग्रहण छे. परंतु बन्ने नयोनां व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी ‘आम पण छे अने आम पण छे’ एम भ्रमरूप प्रवर्तवा वडे तो बन्ने नयोने ग्रहण करवानुं कह्युं नथी.’’ १५२.


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प्रत्येक द्रव्य पोतानां द्रव्य-गुण-पर्यायथी छे. जीव जीवनां द्रव्य-गुण-पर्यायथी छे अने अजीव अजीवनां द्रव्य-गुण-पर्यायथी छे. आ रीते बधांय द्रव्यो परस्पर असहाय छे; दरेक द्रव्य स्वसहायी छे तथा परथी असहायी छे. दरेक द्रव्य कोई पण परद्रव्यनी सहाय लेतुं पण नथी तथा कोई पण परद्रव्यने सहाय देतुं पण नथी. शास्त्रमां परस्परोपग्रहो जीवानाम्कथन आवे छे, परंतु ते कथन उपचारथी छे. ते तो ते-ते प्रकारना निमित्त-नैमित्तिक संबंधनुं ज्ञान कराववा माटे छे. ते उपचारनुं साचुं ज्ञान वस्तुस्वरूपनी मर्यादा समजवामां आवे तो ज थाय छे, अन्यथा नहि. १५३.

एक जीव निगोदथी नीकळीने मोक्षमार्गमां आव्यो ते पोताना चारित्रादिगुणनी उपादानशक्तिथी ज आव्यो छे तथा ए ज रीते पोताना भावकलंकनी प्रचुरताना कारणे निगोदमां रह्यो छे. बन्ने दशामां पोतानुं ज स्वतंत्र उपादान छे; तेमां निमित्तकर्म वगेरे अकिंचित्कर छे. १५४.

निमित्तनी प्रधानताथी कथन तो थाय, परंतु कार्य कदी पण निमित्तथी थतुं नथी. जो निमित्त ज


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उपादाननुं कार्य करवा मांडे तो निमित्त ज स्वयं उपादान बनी जाय, एटले के निमित्त निमित्तरूपे नहि रहे अने उपादाननुं स्थान निमित्ते लई लीधुं तेथी निमित्तथी जुदुं उपादान पण नहि रहे. ए रीते निमित्तथी उपादाननुं कार्य मानवा जतां उपादान अने निमित्त बन्ने कारणोनो लोप थई जशे. १५५.

पहेलां स्वरूपसन्मुख थईने निर्विकल्प अनुभूति थायआनंदनुं वेदन थाय, त्यारे ज यथार्थ सम्यग्दर्शन थयुं कहेवाय. ते सिवाय प्रतीति यथार्थ कहेवाय नहि. पहेलां तत्त्वविचार करीने द्रढ निर्णय करे, पछी अनुभूति थाय. तत्त्वनिर्णयमां ज जेनी भूल होय तेने तो यथार्थ अनुभूति क्यांथी थाय? न ज थाय. एकला विकल्पथी तत्त्वविचार कर्या करे ते जीव पण सम्यक्त्व पामतो नथी. अंतरमां चैतन्यस्वभावनो महिमा लावीने तेनी निर्विकल्प अनुभूति करवी ते ज सम्यग्दर्शन छे. १५६.

तत्त्वविचारना अभ्यासथी जीव सम्यग्दर्शन पामे छे. जेने तत्त्वनो विचार नथी ते, देव-शास्त्र-गुरु ने धर्मनी प्रतीति करे छे, घणां शास्त्रोनो अभ्यास करे छे,


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व्रत-तप वगेरे करे छे, तोपण सम्यक्त्वनी सन्मुख नथीसम्यक्त्वनो अधिकारी नथी; अने तत्त्वविचारवाळो ए विना पण सम्यक्त्वनो अधिकारी थाय छे. सम्यग्दर्शन माटे मूळ तो तत्त्वविचारनो उद्यम ज छे; माटे तत्त्वविचारनी मुख्यता छे. १५७.

स्वभाव सिवाय बीजे क्यांय मीठाश रही गई हशे तो तने ए चैतन्यनी मीठाशमां नहि आववा दे. परनी मीठाश तने चैतन्यनी मीठाशमां विघ्न करशे. माटे हे भाई! समजीने परनी मीठाश छोड. १५८.

आत्मा समजवा माटे जेने अंतरमां खरेखरी धगश अने तालावेली जागे तेने अंतरमां समजणनो मार्ग थया विना रहे ज नहि. पोतानी धगशना बळे अंतरमां मार्ग करीने ते निज शुद्धात्मस्वरूपने पामे ज. १५९.

व्रत-तप-जपथी आत्मप्राप्ति थशेए मान्यता जेम शल्य छे, तेम शास्त्राभ्यासथी आत्मा प्राप्त थशे एवी जे मान्यता छे ते पण शल्य छे. आत्मवस्तु


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तरफ द्रष्टि करतां ज आत्मप्राप्ति थाय छे. १६०.

जीव जे वखते राग-द्वेषना भाव करे ते वखते ज तेने तेना फळनुंआकुळतानुंवेदन होय छे. माटे कर्तापणुं अने भोक्तापणुं बन्ने एकसाथे ज छे. लोको बाह्य द्रष्टिथी जुए छे के आणे पाप कर्यां तो ते नरकमां क्यारे जशे? आ जूठुं बोले छे तो एनी जीभ केम तरत कपाती नथी? पण भाई! जे वखते ते हिंसा अने जूठा वगेरेना भाव करे छे ते वखते ज तेना भावमां आकुळतानुं वेदन होय छे; आकुळतानुं वेदन छे ते अवगुणनुं ज वेदन छे. पोताना सुखादि स्वभावनो घात कर्यो तेथी ते वखते ज तेना भावमां फळ मळी गयुं; ते वखते ज गुणनी शक्तिनुं परिणमन जे घटी गयुं ते ज तेने ऊंधुं फळ मळी गयुं; जे अंतरमां फळ आवे छे ते जोतो नथी अने बहारथी फळ आवे छे तेने ज जुए छे ते पराश्रयद्रष्टिवाळो छे. बहारथी फळ मळवुं ते व्यवहार छे. बहारथी फळ कोई वार लांबा काळे अने कोई वार टूंका काळे मळे छे, पण अंतरनुं फळ तो तरत जते क्षणे ज मळी जाय छे. १६१.


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आत्मा त्रिकाळ छे तो तेनो धर्म पण त्रिकाळ एकरूप वर्ते छे. धर्मनुं स्वरूप त्रणे काळे एक ज छे. जैनधर्म ए वस्तुस्वरूप छे अर्थात् आत्मानी साधनामय शुद्धता ते जैनधर्म छे. तेने काळनी मर्यादामां केद करी शकाय नहि; वस्तुस्वरूपनो नियम काळभेदे फेरवी शकाय नहि. कोई काळे वस्तुस्वरूप विपरीत थतुं नथी. जेम चेतनवस्तु जड, के जडवस्तु चेतन थई जाय एम कोई काळे पण बनतुं नथी, तेम जे विकारी भाव छे तेनाथी धर्म थई जायएम पण कोई काळे बनतुं नथी. माटे वस्तुस्वभावरूप जैनधर्मने काळनी मर्यादामां केद करी शकातो नथी. १६२.

सम्यग्द्रष्टिने जे अव्रतादि भावो छे ते कांई कर्मनी बळजोरीथी नथी थया, पण आत्माए पोते स्वयं तेने कर्या छे. विकार करवामां ने विकार टाळवामां आत्मानी ज प्रभुता छे, बंनेमां आत्मा पोते स्वतंत्रपणे कर्ता छे.

जुओ, ‘रागादिरूपे परिणमवामां पण आत्मा पोते स्वतंत्र प्रभु छे’ एम कह्युं, तेनो अर्थ एवो नथी के राग क्रमबद्ध-पर्यायमां भले थया करे. रे भाई! शुं एकला विकारमां ज परिणमवानी आत्मानी प्रभुता


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कही छे, के विकार ने अविकार बंनेमां परिणमवानी आत्मानी प्रभुता कीधी छे? विकार ने अविकार बंनेमां स्वतंत्रपणे परिणमवानी मारा आत्मानी प्रभुता छेआम जे निर्णय करे ते ‘प्रभु’ थईने निर्मळरूपे परिणमे, विकाररूप अल्प परिणमन होय तेनी तेने रुचि न होय. एकान्त आस्रव-बंधरूप मलिन भावे परिणमे तेणे खरेखर आत्मानी प्रभुता जाणी ज नथी. १६३.

मोक्षमार्गमां व्यवहारनुं अस्तित्व छे पण तेनो आश्रय नथी. साधकनी पर्यायमां राग होय छे पण साधकपणुं तेना आश्रये नथी. धर्मीने भूमिकानुसार राग होय छे पण राग पोते धर्म नथी. धर्मीने शुभ रागरूप व्यवहार होय छे पण तेना आश्रये तेओ लाभ मानता नथी. जेने साचो व्यवहार छे तेने व्यवहारनी रुचि होती नथी अने जेने व्यवहारनी रुचि छे तेने साचो व्यवहार होतो नथी. जेने दुःखनुं यथार्थ ज्ञान होय तेने एकलुं दुःख होतुं नथी अने जेने एकलुं दुःख छे तेने तेनुं यथार्थ ज्ञान होतुं नथी. साचा पुरुषार्थीने अनंत भवनी शंका होती नथी अने अनंत भवनी शंकावाळाने साचो पुरुषार्थ होतो नथी. सर्वज्ञने जे ओळखे छे तेने अनंत भव होता नथी


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तथा सर्वज्ञे तेना अनंत भव देख्या नथी. १६४.

रे जीव! तुं बाह्य विषयोमां सुख मानीने त्यां ज आसक्त थाय छे, परंतु ‘आत्मा’ पण एक विषय छे तेने तुं केम भूली जाय छे? जेने लक्षमां लेतां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय एवा परमशांत आनंदस्वरूप स्वविषयने छोडीने दुःखदायी एवा परविषयोमां ज तुं कां राची रह्यो छे? रे भाई! हवे तारा स्वविषयनी सामे जो. आवा महान विषयने भूली न जा. मंगल, उत्तम अने सुखदायी एवा स्वविषयने छोडीने अध्रुव, अशरण अने दुःखदायी एवा परविषयने कोण आदरे? आ स्वविषयमां एकाकार थतां ज तने एम थशे के ‘अहो, आवो मारो आत्मा!’ अने पछी आ स्वविषयना अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद पासे जगतना बधा विषयो तने अत्यन्त तुच्छ लागशे. १६५.

क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय करतां द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे त्यारे क्रमबद्ध पर्यायनो साचो निर्णय थाय छे. पर्यायना क्रम सामुं जोतां क्रमबद्धनो साचो निर्णय थई शके नहि, ज्ञायक तरफ ढळे छे त्यारे ज्ञायकनो साचो