Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 167-205.

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निर्णय थाय छे, ए निर्णयमां अनंतो पुरुषार्थ आवे छे. ज्ञान साथे आनंदनो स्वाद आवे त्यारे तेने सम्यग्दर्शन थयुं छे. सर्वज्ञे देख्युं छे तेम थाय, पर्याय क्रमबद्ध थाय, एना निर्णयनुं तात्पर्य ज्ञानस्वभाव उपर द्रष्टि करवी ए छे. आत्मा कर्ता नथी पण ज्ञाता ज छे. १६६.

मारुं स्वरूप निर्विकारी छे, वीतराग परमात्मा जेवा छे तेवो हुं छुंएवुं निज शुद्ध स्वरूपनुं भान कर्युं नहि, तेथी परिभ्रमण टळ्युं नहि. व्रतना परिणामथी पुण्य बंधाय, अव्रतना परिणामथी पाप बंधाय ने आत्मानो स्वभावपर्याय प्रगटावे तो मोक्षपर्याय प्रगटे. दया, सत्य वगेरे भाव पाप टाळवा माटे बराबर छे, पण एनाथी हळवे हळवे धर्म थशेचारित्र प्रगटशे एम माने तो ते मान्यता खोटी छे. आत्मानी समजण वगर एके भव घटे एम नथी. १६७.

परालंबनद्रष्टि ते बंधभाव छे ने स्वाश्रयद्रष्टि ते ज मुक्तिनो भाव छे. स्वसन्मुख द्रष्टि रहेवी तेमां ज मुक्ति छे अने बहिर्मुख द्रष्टि थतां जे व्रत-दान-भक्तिना भाव आवे ते बधा पराश्रित होवाथी बंधभावो छे. ते


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बधा शुभ परिणाम आवे ते जुदी वात छे, पण तेने राखवा जेवा के लाभरूप मानवा ते पराश्रयद्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे. १६८.

मोही मनुष्य ज्यां एम मनोरथ सेवे छे के ‘हुं कुटुंब ने नातमां आगळ आवुं, धन, घर ने छोकरांमां खूब वधुं अने लीली वाडी मूकीने मरुं,’ त्यां गृहस्थाश्रममां रहेला धर्मात्माओ आत्मानी प्रतीति सहित पूर्णताना लक्षे आ त्रण प्रकारना मनोरथ सेवे छेः (१) हुं सर्व संबंधथी निवर्तुं, (२) स्त्री आदि बाह्य परिग्रह तथा विषय-कषायरूप अभ्यंतर परिग्रहनो स्वसन्मुखताना पुरुषार्थ वडे त्याग करीने निर्ग्रंथ मुनि थाउं, (३) हुं अपूर्व समाधिमरण प्राप्त करुं. १६९.

एक-एक गुणनुं परिणमन स्वतंत्र सीधुं थतुं नथी पण अनंतगुणमय अभेद द्रव्यनुं परिणमन थतां साथे गुणोनुं परिणमन थाय छे. एक-एक गुण उपर द्रष्टि मूकतां गुण शुद्ध परिणमतो नथी पण द्रव्य उपर द्रष्टि मूकतां अनंत गुणोनुं निर्मळ परिणमन थाय छे. गुणभेद उपरनी द्रष्टि छोडीने अनंत गुणमय द्रव्य उपर द्रष्टि


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करतां द्रव्य पर्यायमां शुद्धरूपे परिणमे छे. १७०.

जिनवाणीमां मोक्षमार्गनुं कथन बे प्रकारे छेः अखंड आत्मस्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगट्यो ते साचो मोक्षमार्ग छे, अने ते भूमिकामां जे महाव्रतादिना राग-विकल्प छे ते मोक्षमार्ग नथी पण तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेल छे. आत्मामां वीतराग शुद्धिरूप जे निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट थयो ते साचो, अनुपचार, शुद्ध, उपादान अने यथार्थ मोक्षमार्ग छे, अने ते वखते वर्तता अठ्यावीस मूळगुण वगेरेना शुभ रागनेते सहचर तेम ज निमित्त होवाथी मोक्षमार्ग कहेवो ते उपचार छे, व्यवहार छे. पं श्री टोडरमलजीए कह्युं छे ने!

मोक्षमार्ग तो कांई बे नथी, मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने ‘मोक्षमार्ग’ निरूपित कर्यो छे ते ‘निश्चयमोक्षमार्ग’ छे, अने ज्यां मोक्षमार्ग तो छे नहि, परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते ‘व्यवहार- मोक्षमार्ग’ छे; कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. साचुं निरूपण ते निश्चय, उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे


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प्रकारे मोक्षमार्ग जाणवो. परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग छेएम बे मोक्षमार्ग मानवा मिथ्या छे. १७१.

सम्यग्द्रष्टि एटले जेने आत्माना पूर्ण स्वभावनो अंदरमां विश्वास लावीने आत्मानुं साचुं श्रद्धान सम्यग्दर्शनथयुं होय ते. हुं ज्ञान-आनंद आदि अनंत शक्तिओथी भरपूर पदार्थ छुंएम पहेलां भरोसो आव्यो त्यारे अंदर आत्मानो अनुभव थयो. पूर्ण स्वभावने ग्रहण करवाथी अंदर विश्वास थाय छे. अनादिथी जीवनो विश्वास वर्तमान पर्यायमां छे; पण ए पर्याय ज्यां छे त्यां ज पाछळ ऊंडे, एना तळिये आखी पूर्ण वस्तु छे; अनंत अनंत अपरिमित शक्तिओनो ते सागर छे. एनो जेने अंदर विश्वास आवे अने जे अंतर अनुभवमां जाय तेने सम्यग्द्रष्टि कहेवाय छे. १७२.

हुं शुद्ध छुंशुद्ध छुं’ एवी धारणाथी के एवा विकल्पथी पर्यायमां आनंद झरतो नथी. पर्यायमां आनंद न झरे त्यां सुधी ज्ञान साचुं नथी. आत्मानो परमार्थ


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स्वभाव लक्षमां लईने पर्याय तेमां अभेद थतां ज पर्यायमां परम आनंदनां मोती झरे छे. ‘द्रव्यस्वभाव शुद्ध छे’ एम ज्यां द्रष्टिमां लीधुं त्यां पर्यायमां पण शुद्धता थई गई. १७३.

त्रिकाळी सत् चैतन्यप्रभुतारुं ध्रुव तत्त्वएनी द्रष्टि तें कदी करी नथी. वर्तमान रागादिनी के ओछा जाणपणा वगेरेनी जे हालत छे, दशा छे, ते क्षणिक अवस्था उपर तारी द्रष्टि छे. परने पोतानुं माने ते तो मोटी भ्रमणा छे ज; परंतु जाणवा-देखवानी वर्तमान दशा जे तारी करेली छे, तारी छे, तारामां छे, तारा द्रव्यनो वर्तमान अंशअवस्था छे, तेना उपर द्रष्टि पर्यायद्रष्टिते पण मिथ्यात्व छे. ए पर्यायद्रष्टि अनादिनी छे. पर्याय परनी द्रष्टि छोडी त्रिकाळी द्रव्य- स्वभाव उपर तारी द्रष्टि कदी आवी नथी. मिथ्यात्व ने रागादिना दुःखथी छूटवानोविकल्प तोडवानोबीजो कोई उपाय नथी; अंतर त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभावनी शुद्ध ज्ञायक परमभावनीद्रष्टि करवी ते एक ज उपाय छे. १७४.

जेम दूधपाकना स्वाद आगळ लाल जुवारना


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रोटलानो स्वाद न आवे, तेम जेणे आनंदस्वरूप निज ज्ञायक प्रभुना स्वाद लीधा छे तेने जगतनी कोई चीजमां प्रेम लागतो नथी, रस आवतो नथी, एकाकारपणुं थतुं नथी. स्व-स्वभाव सिवाय जेटला विकल्प अने बाह्य ज्ञेयो ते बधांनो रस तूटी गयो छे. १७५.

कोईने एम लागे के जंगलमां मुनिराजने एकला- एकला केम गमतुं हशे? अरे भाई! जंगल वच्चे निजानंदमां झूलता मुनिराजो तो परम सुखी छे; जगतना रागद्वेषनो घोंघाट त्यां नथी. कोई परवस्तु साथे आत्मानुं मिलन ज नथी, एटले परना संबंध वगर आत्मा स्वयमेव एकलो पोते पोतामां परम सुखी छे. परना संबंधथी आत्माने सुख थायएवुं तेनुं स्वरूप नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवो पोताना आवा आत्माने अनुभवे छे अने तेने ज उपादेय जाणे छे. १७६.

ज्ञानस्वरूप आत्मा छे’ एवा गुणगुणीना भेदनो विकल्प, आत्मानो अनुभव करवा जतां वच्चे आवशे खरो, पण तेनो आश्रय सम्यग्दर्शनमां नथी. सम्यग्द्रष्टि ते विकल्परूप व्यवहारनुं शरण लईने अटकता नथी, पण तेनेय छोडवा जेवो समजीने अंतरमां शुद्धात्माने ते


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विकल्पथी जुदो अनुभवे छे. आवो अनुभव ते ज वीतरागनो मार्ग छे. मोक्षमहेल माटे आत्मामां सम्य- ग्दर्शनरूपी शिलान्यास करवानी आ वात छे. समयसारमां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे जैनधर्मनुं रहस्य बतावतां कह्युं छे ने! व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;

भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे.

निश्चय-व्यवहार संबंधी बधा झघडा ऊकली जाय ने आत्माने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय एवा भावो आ गाथामां भर्या छे. १७७.

स्वस्वभाव सन्मुखनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे. एकला पर सन्मुखनुं ज्ञान ते अज्ञान छे; कारण के स्व- स्वभावनी संपूर्णताना भान विना, एक समयनी पर्यायनी अपूर्णतामां पूर्णता मानी छे. तेथी पूर्ण स्वभावने लक्षमां लई पूर्ण साध्यने साधवुं. १७८.

आत्माने यथार्थ समजवा माटे प्रमाण, नय, निक्षेपरूप शुभ विकल्पनो व्यवहार वच्चे आव्या विना रहेतो नथी, पण आत्माना एकपणाना अनुभव वखते ते


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विकल्प छूटी जाय छे तेथी ते अभूतार्थ छे, आत्माने मददगार नथी. वस्तुनो अभेदपणे निर्णय करवा जतां अने तेमां एकाग्रपणे ठरवा जतां वच्चे नव तत्त्व तथा नय, प्रमाण वगेरेना रागमिश्रित विचारो आव्या विना रहेता नथी; पण तेनाथी अभेदमां जवातुं नथी. आंगणुं छोडे त्यारे घरमां जवाय छे, तेम व्यवहाररूप आंगणुं छोडे त्यारे स्वभावरूप घरमां जवाय छे. १७९.

पांच इन्द्रियो संबंधी कोई पण विषयोमां आत्मानुं सुख नथी, सुख तो आत्मामां ज छे.आम जाणीने सर्व विषयोमांथी सुखबुद्धि टळे ने असंगी आत्मस्वरूपनी रुचि थाय, त्यारे ज वास्तविक ब्रह्मचर्यजीवन होय. ब्रह्मस्वरूप आत्मामां जेटले अंशे परिणमनआत्मिक सुखनो अनुभवथाय तेटले अंशे ब्रह्मचर्यजीवन छे. जेटली ब्रह्ममां चर्या तेटलो परविषयोनो त्याग होय छे.

जे जीव परविषयोथी ने परभावोथी सुख मानतो होय ते जीवने ब्रह्मचर्यजीवन होय नहि, केम के तेने विषयोना संगनी भावना पडी छे.

खरेखर आत्मस्वभावनी रुचिनी साथे ज ब्रह्मचर्य वगेरे सर्व गुणोनां बीजडां पडेलां छे. माटे साचुं ब्रह्मजीवन जीववाना अभिलाषी जीवोनुं पहेलुं कर्तव्य ए


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छे केअतीन्द्रिय आनंदथी भरपूर अने सर्व परविषयोथी खाली एवा पोताना आत्मस्वभावनी रुचि करवी, तेनुं लक्ष करवुं, तेनो अनुभव करीने तेमां तन्मय थवानो प्रयत्न करवो. १८०.

हे मोक्षना अभिलाषी! मोक्षनो मार्ग तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप छे. ते सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध भावरूप मोक्षमार्ग अंतर्मुख प्रयत्न वडे सधाय छे एम भगवाने उपदेश्युं छे. भगवाने पोते प्रयत्न वडे मोक्षमार्गने साध्यो छे ने उपदेशमां पण एम ज कह्युं छे के ‘मोक्षनो मार्ग प्रयत्नसाध्य छे’. माटे तुं सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोने ज मोक्षनो पंथ जाणीने सर्व उद्यम वडे तेने अंगीकार कर. हे भाई! सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोथी रहित एवा द्रव्यलिंगथी तारे शुं साध्य छे? मोक्ष तो सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध भावोथी ज साध्य छे माटे तेनो प्रयत्न कर. १८१.

तत्त्वविचारमां चतुर ने निर्मळ चित्तवाळो जीव गुणोमां महान एवा सद्गुरुनां चरणकमळनी सेवाना प्रसादथी अंतरमां चैतन्य परमतत्त्वनो अनुभव करे छे. रत्नत्रय आदि गुणोथी महान एवा गुरु शिष्यने कहे छे


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केपरमभावने जाण, परथी भलुं-बूरुं मानवुं छोडीने, देहमां रहेलुं होवा छतां पण देह अने शुभाशुभ रागथी भिन्न निज असंग चैतन्य परमतत्त्वने अंतरमां देख. आ ज हुं छुंएवा भावभासन द्वारा चैतन्यनो अनुभव थाय छे. श्रीगुरुनां आवां वचनो द्रढताथी सांभळीने निर्मळ चित्तवाळो शिष्य अंतरमां तद्रूप परिणमी जाय छे. आवी सेवाउपासनाना प्रसादथी पात्र जीव आत्मानुभूति प्राप्त करे छे. १८२.

द्रव्यमां ऊंडो ऊतरी जा, द्रव्यना पाताळमां जा. द्रव्य ते चैतन्य-वस्तु छे, ऊंडुं ऊंडुं गंभीर गंभीर तत्त्व छे, ज्ञान-आनंद आदि अनंत अनंत गुणोना पिंडरूप अभेद एक पदार्थ छे; तेमां द्रष्टि लगावी अंदर घूसी जा. ‘घूसी जा’ नो अर्थ एम नथी के पर्याय द्रव्य थई जाय छे; परंतु पर्यायनी जाति, द्रव्यनो आश्रय करवाथी, द्रव्य जेवी निर्मळ थई जाय छे; तेने, पर्याय द्रव्यमां ऊंडी ऊतरीअभेद थई एम कहेवाय छे. १८३.

दुनियामां मारुं ज्ञान प्रसिद्ध थाओ, दुनिया मारी प्रशंसा करे अने हुं जे कहुं छुं तेनाथी दुनिया राजी


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थायएम अंदर अभिमाननुं जेने प्रयोजन होय तेनुं धारणारूप ज्ञान, भले साचुं होय तोपण, खरेखर अज्ञान छेमिथ्याज्ञान छे. भाषा बहु मलावे तो अंदर वस्तु हाथ आवी जाय एम नथी. अंदर स्वभावनी द्रष्टि करे, तेनुं लक्ष करे, तेनो आश्रय करे, तेनी सन्मुख जाय, त्यारे अतीन्द्रिय शान्ति अने आनंद मळे छे. १८४.

जेम सिद्धभगवंतो कोईना आलंबन वगर स्वयमेव पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञानानंदरूपे परिणमनारा दिव्य सामर्थ्यवाळा देव छे, तेम बधाय आत्मानो स्वभाव पण एवो ज छे. अहा! आवो निरालंबी ज्ञान ने सुख- स्वभावरूप हुं छुं!एम लक्षमां लेतां ज जीवनो उपयोग अतीन्द्रिय थईने तेनी पर्यायमां ज्ञान ने आनंद खीली जाय छे, पूर्वे कदी नहि अनुभवायेली चैतन्यशांति वेदनमां आवे छे;आम आनंदनो अगाध समुद्र तेने प्रतीतिमां, ज्ञानमां ने अनुभूतिमां आवी जाय छे; पोतानुं परम इष्ट एवुं सुख तेने प्राप्त थाय छे, ने अनिष्ट एवुं दुःख दूर थाय छे. १८५.

अंतरमां स्वसंवेदनज्ञान खील्युं त्यां पोताने तेनुं


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वेदन थयुं, पछी तेने कोई बीजो जाणे के न जाणे तेनी कांई ज्ञानीने अपेक्षा नथी. जेम सुगंधी फूल खीले छे तेनी सुगंध बीजा कोई ले के न ले तेनी अपेक्षा फूलने नथी, ते तो पोते पोतामां ज सुगंधथी खील्युं छे, तेम धर्मात्माने पोतानुं आनंदमय स्वसंवेदन थयुं छे ते कोई बीजाने देखाडवा माटे नथी; बीजा जाणे तो पोताने शांति थायएवुं कांई धर्मीने नथी; ते तो पोते अंदर एकलो-एकलो पोताना एकत्वमां आनंदरूपे परिणमी ज रह्यो छे. १८६.

जड शरीरना अंगभूत इन्द्रियो ते कांई आत्माना ज्ञाननी उत्पत्तिनुं साधन नथी. अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावने साधन बनावीने जे ज्ञान थाय, ते ज आत्माने जाणनारुं छे. आवा ज्ञाननी अनुभूतिथी सम्यग्दर्शन थया पछी मुमुक्षुने आत्मा सदाय उपयोगस्वरूप ज जणाय छे. १८७.

अनादि-अनंत एवुं जे एक निज शुद्ध चैतन्यस्वरूप तेनुं, स्वसन्मुख थई आराधन करवुं ते ज परमात्मा थवानो साचो उपाय छे. १८८.


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अहा! आठ वर्षनो ए नानकडो राजकुमार ज्यारे दीक्षा लईने मुनि थाय त्यारे वैराग्यनो ए अबधूत देखाव! आनंदमां लीनता! जाणे नानकडा सिद्धभगवान उपरथी ऊतर्या! वाह रे वाह! धन्य ए मुनिदशा!

ज्यारे ए नानकडा मुनिराज बे-त्रण दिवसे आहार माटे नीकळे त्यारे आनंदमां झूलतां झूलतां धीमे धीमे चाल्या आवता होय, योग्य विधिनो मेळ खातां आहारग्रहण माटे नानकडा बे हाथनी अंजलि जोडीने ऊभा होय, अहा! ए देखाव केवो हशे!

पछी तो ए आठ वर्षना मुनिराज आत्माना ध्यानमां लीन थईने केवळज्ञान प्रगटावीने सिद्ध थई जाय.आवी आत्मानी ताकात छे. अत्यारे पण विदेहक्षेत्रमां श्री सीमंधरादि भगवान पासे आठ आठ वर्षना राजकुमारोनी दीक्षाना आवा प्रसंग बने छे. १८९.

शास्त्रमां बे नयनी वात होय छे. एक नय तो जेवुं स्वरूप छे तेवुं ज कहे छे अने बीजो नय जेवुं स्वरूप होय तेवुं कहेतो नथी, पण निमित्तादिनी अपेक्षाए कथन करे छे. आत्मानुं शरीर छे, आत्मानां कर्म छे, कर्मथी विकार थाय छेते कथन व्यवहारनुं


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छे; तेथी तेने सत्य मानी लेवुं नहि. मोक्षमार्ग- प्रकाशकमां पं टोडरमलजीए कह्युं छे के

व्यवहारनयनुं श्रद्धान छोडी निश्चयनयनुं श्रद्धान करवुं योग्य छे. व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेमना भावोने वा कारण-कार्यादिकने कोईने कोईमां मेळवी निरूपण करे छे, माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे, तेथी तेनो त्याग करवो. तथा निश्चयनय तेमने ज यथावत् निरूपण करे छे, कोईने कोईमां मेळवतो नथी, माटे एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे, तेथी तेनुं श्रद्धान करवुं. १९०.

बहु ज अल्प काळमां जेने संसारपरिभ्रमणथी मुक्त थवुं छे एवा अति-आसन्नभव्य जीवने निज परमात्मा सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी. जेनामां कर्मनी कोई अपेक्षा नथी एवुं जे पोतानुं शुद्धपरमात्मतत्त्व तेनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे, तेनो ज आश्रय करवाथी सम्यक्चारित्र थाय छे, ने तेनो ज आश्रय करवाथी अल्प काळमां मुक्ति थाय छे; माटे मोक्षना अभिलाषी एवा अति-निकटभव्य जीवे पोताना शुद्धात्म- तत्त्वनो ज आश्रय करवा जेवो छे, एनाथी बीजुं कांई आश्रय करवा जेवुं नथी. तेथी हे मोक्षार्थी जीव! तारा


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शुद्धात्मतत्त्वने ज तुं उपादेय कर;ते ज उपादेय छे एम श्रद्धा कर, तेने ज उपादेय तरीके जाण, ने तेने ज उपादेय करीने तेमां ठर. आम करवाथी अल्प काळमां तारी मुक्ति थशे. १९१.

देव-शास्त्र-गुरुनो पोतानी रुचिपूर्वक समागम थया पछी, तेओ जे निराळी वस्तु कहेवा मागे छे ते पोताना रुचिपूर्वकना पुरुषार्थथी समजे त्यारे पराश्रयद्रष्टि छूटीने स्वाश्रयद्रष्टि थाय छे ने त्यारे अगृहीत मिथ्यात्व छूटे छे. प्रथम तो देव-शास्त्र-गुरु प्रत्ये भक्ति होय त्यारे मिथ्यात्व मंद थाय छे ने तेथी गृहीत मिथ्यात्व छूटे छे; माटे प्रथम सत् देव-शास्त्र-गुरु प्रत्ये भक्ति-विनयनो भाव होय पण व्रत-तप प्रथम न होय. साचुं समजे त्यारे देव-शास्त्र-गुरु निमित्त कहेवाय छे, परंतु व्रतादि साचुं समजवामां निमित्तरूप पण नथी.

प्रथम सत्नी रुचि थाय, भक्ति थाय, बहुमान थाय, पछी स्वरूप समजे ने पछी व्रत आवे; प्रथम मिथ्यात्व जाय, पछी व्रत आवे, ते क्रम छे; पण मिथ्यात्व छूट्या पहेलां व्रत-समितिनो उपदेश ते क्रम-भंग उपदेश छे. १९२.


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साची तत्त्वद्रष्टि थया पछी पण देव-शास्त्र-गुरुनी भक्ति वगेरेना शुभ भावमां ज्ञानी जोडाय, पण तेनाथी धर्म थशे एम ते माने नहि. सम्यग्दर्शन थया पछी स्थिरतामां आगळ वधतां व्रतादिना परिणाम आवे, परंतु तेनाथी धर्म न माने. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो निर्मळ शुद्ध पर्याय जेटले जेटले अंशे प्रगटे तेने ज धर्म माने. दया-पूजा-भक्ति वगेरेना शुभ परिणाम तो विकारी भाव छे; तेनाथी पुण्यबंध थाय पण धर्म न थाय. १९३.

ज्ञातापणाने लीधे निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि विरागी उदयमां आवेलां कर्मने मात्र जाणी ज ले छे. भोगोप- भोगमां होवा छतां ज्ञानी रागनी अने शरीरादिनी क्रिया बधी पर छे एम जाणे छे, पोते ज्ञातापणे परिणमी रह्यो छे ने! १९४.

देव-शास्त्र-गुरुनी भक्ति, पूजा, प्रभावना वगेरेना शुभभाव जेवा ज्ञानीने थाय एवा अज्ञानीने थाय ज नहि. १९५.

शुभभाव पोतामां थाय छे माटे तेने ‘अभूतार्थ’ न


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कहेवायएम नथी. शुभभाव पोतानी पर्यायमां थतो होवा छतां तेना आश्रये हितनी प्राप्ति थती नथी, तेथी तेने ‘अभूतार्थ’ कहेवामां आवे छे. पोतानी पर्यायमां तेनुं अस्तित्व ज नथीएम कांई ‘अभूतार्थनुं तात्पर्य नथी; पण तेना आश्रयथी कल्याणनी प्राप्ति थती नथी, केम के स्वभावभूत नथी,एम बतावीने तेनो आश्रय छोडाववा माटे तेने ‘अभूतार्थ’ कह्यो छे. त्रिकाळी एकरूप रहेनार द्रव्यस्वभाव भूतार्थ छे, तेना आश्रये कल्याण थाय छे. ते भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी भेदरूप के रागरूप समस्त व्यवहार अभूतार्थ छे. अभूतार्थ कहो के परिहरवायोग्य कहो. तेनो परिहार करीने सहज स्वभावने अंगीकार करवाथी घोर संसारनुं मूळमिथ्यात्वछेदाई जाय छे, ने जीव शाश्वत परम सुखनो मार्ग पामे छे. १९६.

सम्यग्द्रष्टि मनुष्यने अशुभ राग आवे छे, पण अशुभ रागना काळे आयुष्यनो बंध न थाय; केम के सम्यग्द्रष्टि मनुष्य मरीने वैमानिक देवमां उत्पन्न थाय छे, तेथी शुभ रागमां ज आयुष्य बंधाय. १९७.

प्रश्नःजेम स्वद्रव्य आदरणीय छे तेम तेनी भावनारूप निर्मळ पर्याय आदरणीय कहेवाय?


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उत्तरःहा. राग हेय छे तेनी अपेक्षाए निर्मळ पर्यायने आदरणीय कहेवाय; अने द्रव्यनी अपेक्षाए पर्याय ते व्यवहार छे, ते आश्रययोग्य नहि होवाथी हेय कहेवाय. क्षायिक पर्याय पण द्रव्यनी अपेक्षाए हेय कहेवाय, पण रागनी अपेक्षाए क्षायिक भावने आदरणीय कहेवाय. १९८.

जिज्ञासु विचारे छे केअरेरे! पूर्वे में अनंती वार मोटां मोटां शास्त्रो वांच्यां, सत्समागमे सांभळ्यां अने तेनां उपर व्याख्यानो कर्यां; पण शुद्ध चिद्रूप आत्माने में कदी जाण्यो नहि, तेथी मारुं भवपरिभ्रमण दूर न थयुं. बहारमां में आत्माने शोध्यो पण अंतर्मुख थईने कदी में मारा आत्माने शोध्यो नहि. आत्मामां ज पोतानी स्वभावसाधनानुं साधन थवानी ताकात छे. ए सिवाय बहारनां शास्त्रोमां पण एवी ताकात नथी के आत्म- साधनानुं साधन थाय. १९९.

आत्मामां अकर्तृत्वस्वभाव तो अनादि-अनंत छे; ते सदाय विकारथी उपरमस्वरूप ज छे; ते स्वरूपनी अपेक्षाए आत्मा विकारनो कर्ता छे ज नहि. जेणे आवा स्वभावने स्वीकार्यो तेने पर्यायमां पण मिथ्या-


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त्वादिनुं अकर्तापणुं थई जाय छे. मिथ्यात्वभाव थाय छे ने तेनो अकर्ता छेएम नहि, परंतु मिथ्यात्वभाव तेने थतो ज नथी; अने अस्थिरतानो जे अल्प राग रहे छे तेनो श्रद्धामां स्वीकार नथी, माटे तेनो पण अकर्ता छे. २००

सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मानी द्रष्टि अंतरना ज्ञानानंदस्वभाव उपर छे, क्षणिक रागादि उपर नहि. तेनी द्रष्टिमां रागादिनो अभाव होवाथी तेने (द्रष्टि-अपेक्षाए) संसार क्यां रह्यो? राग रहित ज्ञानानंदस्वभाव उपर द्रष्टि होवाथी ते मुक्त ज छे, तेनी द्रष्टिमां मुक्ति ज छे; मुक्तस्वभाव उपरनी द्रष्टिमां बंधननो अभाव छे. स्वभाव उपरनी द्रष्टि बंधभावने पोतामां स्वीकारती नथी, माटे स्वभावद्रष्टिवंत समकिती मुक्त ज छे. शुद्ध- स्वभावनियतः स हि मुक्त एवशुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो ज्ञानी खरेखर मुक्त ज छे. २०१.

रागादि विकार थाय छे ते पोतामां थाय के परमां? पोतामां ज थाय. चैतन्यनी पर्यायमां विकार कांई परवस्तु करावी देती नथी. विकार थवामां निमित्त बीजी चीज छे खरी, पण ते कांई विकार करावी देती नथी.


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एकलो कोई बगडे नहि, बे थाय एटले बगडे. बे बंगडी भेगी थाय तो खखडे, तेम आत्मा परवस्तु उपर द्रष्टि मूके छे त्यारे भूल थाय छे, एकलो होय तो भूल थाय नहि. जेम कोई पुरुष परस्त्री उपर द्रष्टि मूके तो भूल थाय छे, तेम आत्मा पर उपर द्रष्टि मूके तो भूल थाय छे, पण पोताना स्वभाव उपर द्रष्टि मूके तो भूल थती नथी. माटे आत्माने विकार थवामां परचीज निमित्त छे, परंतु परचीज विकार करावी देती नथी. २०२.

दर्शनमोह मंद कर्या विना वस्तुस्वभाव ख्यालमां आवे नहि अने दर्शनमोहनो अभाव कर्या विना आत्मा अनुभवमां आवे एवो नथी. २०३.

बहारनी विपदा ए खरेखर विपदा नथी अने बहारनी संपदा ए संपदा नथी. चैतन्यनुं विस्मरण ए ज मोटी विपदा छे अने चैतन्यनुं स्मरण ए ज खरेखर साची संपदा छे. २०४.

सिंह चारे कोर फरता होय ने जेम ऊंघ न आवे, हथियारबंध पोलीस पोताने मारवा फरतो