Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 206-247.

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होय ने जेम ऊंघ न आवे, तेम ज्यां सुधी तत्त्व - निर्णय न करे, त्यां सुधी आत्मार्थीने सुखेथी ऊंघ न आवे. २०५.

अंतरमां चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने चूकीने बाह्य इन्द्रियविषयोमां मूर्छाई गयेला बहिरात्माओ निरंतर दुःखी छे, अने ‘मारुं सुख मारा आत्मामां ज छे, बाह्य इन्द्रियविषयोमां मारुं सुख नथी’ एवी द्रढ प्रतीति करी अंतर्मुख थईने जे आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो स्वाद ले छे ते धर्मात्मा निरंतर सुखी छे. निज चैतन्यविषयने चूकीने बाह्य विषयोमां सुखदुःखनी बुद्धिथी अज्ञानी जीवो दिनरात बळी रह्या छे. अरे जीवो! परम आनंदथी भरेला तमारा आत्माने संभाळो ने आत्माना शांतरसमां मग्न थाओ. २०६.

कोई जीव नग्न दिगंबर मुनि थई गयो होय, लूगडानो एक ताणोवाणो पण न होय, परंतु परवस्तु मने लाभ करे छे एवो अभिप्राय छे, त्यां सुधी तेना अभिप्रायमांथी त्रण काळनी एक पण वस्तु छूटी नथी. पर साथे एकत्वबुद्धि ऊभी छे, परवस्तु मने लाभ करे छे एवो अभिप्राय ऊभो छे, त्यां सुधी त्रण काळ त्रण


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लोकना अनंत पदार्थो एना भावमांथी छूट्या नथी.२०७.

अरे जीव! एक क्षण विचार तो कर, के संयोगो वधवाथी तारा आत्मामां शुं वध्युं? अरे! संयोगो वधवाथी आत्मानुं वधवापणुं मानवुं ते तो मनुष्यदेहने हारी जवा जेवुं छे. भाई! तारा ज्ञानस्वरूप आत्मा साथे आ संयोगो एकमेक नथी; माटे तेनाथी भिन्नतानुं भान कर. २०८.

जेने मोक्ष प्रिय होय तेने मोक्षनुं कारण प्रिय होय, ने बंधनुं कारण तेने प्रिय न होय. मोक्षनुं कारण तो आत्मस्वभावमां अंतर्मुख वलण करवुं ते ज छे, ने बहिर्मुख वलण तो बंधनुं ज कारण छे; माटे जेने मोक्ष प्रिय छे एवा मोक्षार्थी जीवने अंतर्मुख वलणनी ज रुचि होय छे, बहिर्मुख एवा व्यवहारभावोनी तेने रुचि होती नथी.

पहेलां अंतर्मुख वलणनी बराबर रुचि जामवी जोईए; पछी भले भूमिकानुसार व्यवहार पण होय, पण धर्मीनेमोक्षार्थीने ते आदरवारूपे नथी, पण ते ज्ञेयरूपे ने हेयरूपे छे. आदर अने रुचि तो अंतर्मुख वलणनी ज होवाथी, जेम जेम ते अंतर्मुख थतो जाय


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छे तेम तेम बहिर्मुख भावो छूटता जाय छे. आ रीते निश्चय-स्वभावमां अंतर्मुख थतां बहिर्मुख एवा व्यवहार- भावोनो निषेध थई जाय छे.आ ज मोक्षनी रीत छे. २०९.

पहेलां नक्की करो के आ जगतमां सर्वज्ञताने पामेला कोई आत्मा छे के नहि? जो सर्वज्ञ छे, तो तेमने ते सर्वज्ञतारूपी कार्य कई खाणमांथी आव्युं? चैतन्यशक्तिनी खाणमां सर्वज्ञतारूपी कार्यनुं कारण थवानी ताकात पडी छे. आवी चैतन्यशक्तिनी सन्मुख थईने सर्वज्ञतानो स्वीकार करतां तेमां अपूर्व पुरुषार्थ आवे छे. ‘सर्वज्ञतानो स्वीकार करतां पुरुषार्थ ऊडी जाय छे’ ए मान्यता तो घणी मोटी भूल छे. केवळज्ञान ने तेना कारणनी प्रतीति करतां जेने स्वसन्मुखतानो अपूर्व पुरुषार्थ ऊपडे छे ते जीव निःशंक थई जाय छे के मारा आत्माना आधारे सर्वज्ञनी प्रतीति करीने मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ में शरू कर्यो छे, ने सर्वज्ञना ज्ञानमां पण ए ज रीते आव्युं छे;हुं अल्प काळमां मोक्ष पामवानो छुं ने भगवानना ज्ञानमां पण एम ज आव्युं छे. २१०.

जेम घोर निद्रामां सूतेलाने आसपासना जगतनुं


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भान नथी रहेतुं, तेम चैतन्यनी अत्यंत शान्तिमां ठरी गयेला मुनिवरोने जगतना बाह्य विषयोमां जरा पण आसक्ति थती नथी; अंदर स्वरूपनी लीनतामांथी बहार नीकळवुं जराय गोठतुं नथी; आसपास वनना वाघ ने सिंह त्राड पाडता होय तोपण तेनाथी जराय डरता नथी के स्वरूपनी स्थिरताथी जराय डगता नथी. अहा! धन्य ए अद्भुत दशा! २११.

अहा! जुओ, आ परम सत्य मार्ग. भगवान सीमंधर परमात्मा पूर्वविदेहक्षेत्रे अत्यारे बिराजी रह्या छे, त्यां जईने श्री कुंदकुंदाचार्यदेव भगवान पासेथी दिव्य ध्वनि सांभळी आव्या, ने पछी तेमणे आ शास्त्रोमां परम सत्य मार्गनी चोखवट करी. अहा, केवो सत्य मार्ग! केवो चोख्खो मार्ग! केवो प्रसिद्ध मार्ग! पण अत्यारे लोको शास्त्रोना नामे पण मार्गमां मोटी गरबड ऊभी करी रह्या छे. शुं थाय? एवो ज काळ! पण सत्य मार्ग तो जे छे ते ज रहेवानो छे. शुद्धोपयोगरूप साक्षात् मोक्षमार्ग त्रणे काळे जयवंत छे, ते ज अभिनंदनीय छे. २१२.

कर्मपणे आत्मा ज परिणमे छे, कर्तापणे पण आत्मा


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पोते ज परिणमे छे, साधनपणे पण पोते ज परिणमे छे. कर्ता, कर्म, करण वगेरे छ कारको भिन्नभिन्न नथी पण अभेद छे. आत्मा पोते एकलो ज कर्ता-कर्म-करण- संप्रदान-अपादान-अधिकरणरूप थाय छे; छ कारकरूप अने एवी अनंत शक्तिओरूप आत्मा पोते ज परिणमे छे. ए रीते एकसाथे अनंत शक्तिओ ज्ञानमूर्ति आत्मामां ऊछळी रही छे, तेथी ते भगवान अनेकान्त- मूर्ति छे. २१३.

अहा! मुनिदशा केवी होय तेनो विचार तो करो! छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने झूलता ए मुनिओ स्वरूपमां गुप्त थई गया होय छे. प्रचुर स्वसंवेदन ए ज मुनिनुं भावलिंग छे, अने देहनुं नग्नपणुंवस्त्रपात्र रहित निर्ग्रंथ दशाते तेमनुं द्रव्यलिंग छे. तेमने अपवाद व्रतादिनो शुभ राग आवे, पण वस्त्रग्रहणनो के अधःकर्म तेम ज उद्देशिक आहार लेवानो भाव होय नहि. अहा! श्री ॠषभदेव भगवानने मुनिदशामां प्रथम छ महिनाना उपवास हता, पछी आहारनो विकल्प ऊठतो हतो, पण मुनिनी विधिपूर्वक आहार मळतो नहोतो; तेथी विकल्प तोडीने अंदर आनंदमां रहेता हता. आनंदमां रहेवुं ए ज आत्मानुं कर्तव्य छे. २१४.


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अहो! सम्यग्दर्शन महारत्न छे. शुद्ध आत्मानी निर्विकल्प प्रतीति ते ज सर्व रत्नोमां महारत्न छे. लौकिक रत्नो तो जड छे, पण देहथी भिन्न केवळ शुद्ध चैतन्यनुं भान करीने जे स्वानुभवयुक्त द्रढ श्रद्धा प्रगटे छे ते ज सम्यग्दर्शन महारत्न छे. २१५.

धर्मात्माने पोतानो रत्नत्रयस्वरूप आत्मा ज परमप्रिय छे, संसार संबंधी बीजुं कांई प्रिय नथी. जेम गायने पोताना वाछरडा प्रत्ये अने बाळकने पोतानी माता प्रत्ये केवो प्रेम होय छे, तेम धर्मीने पोताना रत्नत्रयस्वभावरूप मोक्षमार्ग प्रत्ये अभेदबुद्धिथी परम वात्सल्य होय छे. पोताने रत्नत्रयधर्ममां परम वात्सल्य होवाथी बीजा रत्नत्रयधर्मधारक जीवो प्रत्ये पण तेने वात्सल्यनो ऊभरो आव्या विना रहेतो नथी. २१६.

स्वर्गमां रत्नोना ढगला मळे तेमां जीवनुं कांई कल्याण नथी. सम्यग्दर्शनरत्न अपूर्व कल्याणकारी छे, सर्व कल्याणनुं मूळ छे. तेना विना जे करे ते तो बधुंय ‘राख उपर लीपण’ जेवुं व्यर्थ छे. सम्यग्द्रष्टि जीव लक्ष्मी-पुत्र वगेरे माटे कोई शीतळा वगेरे देवी-


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देवलानी मान्यता करे नहि. लोकमां मंत्र-तंत्र-औषध वगेरे छे ते तो पुण्य होय तो फळे. पण आ सम्यग्दर्शन सर्व रत्नोमां एवुं अनुपम श्रेष्ठ रत्न छे के जेनो देवो पण महिमा करे छे. २१७.

एकला विकल्पथी तत्त्वविचार कर्या करे तो ते जीव पण सम्यक्त्व पामतो नथी. अंतरमां चैतन्य- स्वभावनो महिमा करीने तेनी निर्विकल्प अनुभूति करवी ते ज सम्यग्दर्शन छे. २१८.

आत्मानो स्वभाव त्रिकाळी परमपारिणामिकभावरूप छे; ते स्वभावने पकडवाथी ज मुक्ति थाय छे. ते स्वभाव कई रीते पकडाय? रागादि औदयिक भाव वडे ते स्वभाव पकडातो नथी; औदयिक भावो तो बहिर्मुख छे ने पारिणामिक स्वभाव तो अंतर्मुख छे. बहिर्मुख भाव वडे अन्तर्मुख भाव पकडाय नहि. वळी जे अंतर्मुखी औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक भाव छे तेना वडे ते पारिणामिक भाव जो के पकडाय छे, तोपण ते औपशमिकादि भावोना लक्षे ते पकडातो नथी. अंतर्मुख थईने ए परम स्वभावने पकडतां औपशमिकादि निर्मळ भावो प्रगटे छे. ते भावो पोते


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कार्यरूप छे, ने परम पारिणामिक स्वभाव कारणरूप परमात्मा छे. २१९.

रागादिथी भिन्न चिदानंदस्वभावनुं भान अने अनुभव थयो त्यां धर्मीने तेनी निःसंदेह खबर पडे छे के अहो! आत्माना कोई अपूर्व आनंदनुं मने वेदन थयुं, सम्यग्दर्शन थयुं, आत्मामांथी मिथ्यात्वनो नाश थई गयो. ‘हुं समकिती हईश के मिथ्याद्रष्टि? एवो जेने संदेह छे ते नियमथी मिथ्याद्रष्टि छे. २२०.

आत्मा व्यवहारथी बगड्यो कहो तो सुधारी शकाय, पण परमार्थे बगड्यो कहो तो सुधारी शकाय नहि. वास्तविक रीते आत्मा बगड्यो नथी पण मात्र वर्तमान पर्यायमां विकार थयो छे माटे सुधारी शकाय छे, विकार टाळी शकाय छे. विकारी परिणाम बधा कर्माधीन थाय छे तेने पोताना माने, पोतानो स्वभाव माने, तेनो हुं उत्पादक छुंतेनो हुं कर्ता छुं एम माने ते अज्ञानी छे; पण अवगुणनो हुं कर्ता नथी, ते मारुं कर्म नथी, तेनो हुं उत्पादक नथी, ते मारो नथी, ते मारो स्वभाव


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नथी, एम माने ते सम्यग्ज्ञानी छे. २२१.

जे कोई आत्मा जड-कर्मनी अवस्थाने अने शरीरादिनी अवस्थाने करतो नथी, तेने पोतानुं कर्तव्य मानतो नथी, तन्मयबुद्धिए परिणमतो नथी परंतु मात्र जाणे छे एटले के तटस्थ रह्यो थकोसाक्षीपणे जाणे छे, ते आत्मा ज्ञानी छे. २२२.

विकार जीवनी ज पर्यायमां थाय छे ते अपेक्षाए तो तेने जीवनो जाणवो; पण जीवनो स्वभाव विकारमय नथी, जीवनो स्वभाव तो विकार रहित छे. ए रीते स्वभावद्रष्टिथी विकार जीवनो नथी, पण पुद्गलना लक्षे थतो होवाथी ते पुद्गलनो छे एम जाणवुं. एम बंने पडखां जाणीने शुद्धस्वभावमां ढळतां पर्यायमांथी पण विकार टळी जाय छे, अने ए रीते जीव विकारनो साक्षात् अकर्ता थई जाय छे. माटे परमार्थे जीव विकारनो कर्ता नथी. २२३.

गमे ते संयोगमां, क्षेत्रमां के काळमां जे जीव पोते निश्चय-स्वभावनो आश्रय करीने परिणमे छे ते ज जीव


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मोक्षमार्ग ने मोक्षने पामे छे; अने जे जीव शुद्ध स्वभावनो आश्रय करतो नथी ने पराश्रित एवा व्यवहारनो आश्रय करे छे ते जीव कोई संयोगमां, क्षेत्रमां के काळमां सम्यग्दर्शनादि पामतो नथी. तात्पर्य ए छे के शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी, कारण के तेना अत्यागथी बंध थतो नथी अने तेना त्यागथी बंध ज थाय छे. २२४.

वक्ताने शास्त्र वांची आजीविकादि लौकिक कार्य साधवानी इच्छा न होवी जोईए; कारण के आशावान होय तो यथार्थ उपदेश आपी शके नहि; तेने तो कंईक श्रोताना अभिप्राय अनुसार व्याख्यान करी पोतानुं प्रयोजन साधवानो ज अभिप्राय रहे. तेथी लोभी वक्ता साचो उपदेश आपी शके नहि. २२५.

स्फटिकमां राती ने काळी झांय पडे छे ते वखते पण तेनो जे मूळ निर्मळ स्वभाव छे तेनो अभाव थयो नथी; जो निर्मळपणानी शक्ति न होय तो राता-काळां फूल दूर थतां जे निर्मळपणुं प्रगट थाय छे ते क्यांथी आव्युं? तेम आत्मामां पुण्य-पापना भाव थाय छे ते वखते पण आत्माना मूळ शुद्ध स्वभावनो अभाव थयो


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नथी. जो अंदर शुद्धतारूपे थवानी शक्ति न होय तो, पुण्य-पापना परिणाम वखते शक्तिरूप शुद्धतानो नाश थयो होय तो, पर्यायमां शुद्धता आवे क्यांथी? द्रव्यमां शक्तिपणे शुद्धता भरी छे तो पर्यायमां शुद्धता प्राप्त थाय छे; प्राप्तमांथी प्राप्ति थाय छे; जेमां होय तेमांथी प्रगटे, जेमां न होय एमांथी शुं प्रगटे? २२६.

परलक्षे थनारा रागादि भाव तो परवश थवानुं कारण छे; तेनाथी तो कर्मबंधन थाय छे ने शरीर मळे छे; तेनाथी कांई अशरीरी थवातुं नथी. स्ववश एवो जे शुद्धरत्नत्रयभाव छे ते ज कर्मबंधन तोडीने अशरीरी सिद्ध थवानो उपाय छे. जेने मोक्ष पामवो होय, सिद्ध थवुं होय तेने तो आ ज जरूर करवा जेवुं कार्य छे, एटले के अंतर्मुख थईने आत्माना आश्रये सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान ने एकाग्रता करवायोग्य छे; तेना वडे नियमथी मुक्ति थाय छे. २२७.

बहारना क्रियाकांडमां लोकोने रस लागी गयो छे, ने अंदरनी आ ज्ञायकवस्तु रही गई छे. वस्तु शी छे? तेनुं स्वरूप केवुं छे? वगेरे प्रकारे एनुं घोलन थवुं जोईए. वस्तुस्वरूपने समज्या विना जीवने पाधरो


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धर्म करवो छे! पडिमा लई ले, बहु तो साधु थई जाय; बस, थई गयो धर्म! पण भाई! सम्यग्दर्शन विना पडिमा के साधुपणुं केवुं? आत्मार्थीनुं श्रवण- वांचन-मनन बधुं मूळ आत्मा माटे छे, सम्यग्दर्शन पामवा माटे छे. २२८.

आ देह तो काची माटीना घडा जेवो छे. जेम काची माटीना घडाने गमे तेटलो धोवामां आवे तोपण तेमांथी कादव ज ऊखळे छे, तेम स्नानादि वडे देहनुं गमे तेटलुं लालन-पालन करवामां आवे तोपण ए तो अशुचिनुं ज घर छे. देह तो स्वभावथी ज अशुचिनो पिंड छे. आवा देहने पवित्र एक ज प्रकारे गणवामां आव्यो छे. कया प्रकारे?के जे देहमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयधर्मनी आराधना करवामां आवे ते देहने रत्नत्रयना प्रभावथी पवित्र गणवामां आवे छे; जोके निश्चयथी तो रत्नत्रयनी ज पवित्रता छे, पण तेना निमित्ते देहने पण व्यवहारे पवित्र कहेवाय छे. २२९.

जेने रागनो रस छेते राग भले भगवाननी भक्तिनो हो के जात्रानो होते भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदरसथी रिक्त छे, रहित छे अने


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मिथ्याद्रष्टि छे; अने जे चोथे गुणस्थाने समकिती छे, के जेणे निज रसआत्माना आनंदनो रसचाख्यो छे, ते निजरसथी ज रागथी विरक्त छे. असंख्य प्रकारे शुभ राग हो, पण धर्मीने रागनो रस होतो नथी. शुद्ध चैतन्यना अमृतमय स्वाद आगळ धर्मीने रागनो रस झेर जेवो भासे छे. २३०.

पर तरफ उपयोग वखते पण, धर्मीने सम्यग्दर्शन- ज्ञानपूर्वक जेटलो वीतराग भाव थयो छे तेटलो धर्म तो सतत वर्ते ज छे; एवुं नथी के ज्यारे स्वमां उपयोग होय त्यारे ज धर्म होय ने ज्यारे परमां उपयोग होय त्यारे धर्म होय ज नहि. २३१.

शिष्य गुरुने कहे के अहो प्रभु! आपे मारा उपर परम उपकार कर्यो छे, मने पामरने आपे न्याल कर्यो छे, आपे मने तारी दीधो छे वगेरे. पोताना गुणनी पर्याय उघाडवा माटे व्यवहारमां गुरु प्रत्ये विनय अने नम्रता करे छे, गुरुना गुणोनुं बहुमान करे छे; अने निश्चयथी पोताना पूर्ण स्वभाव प्रत्ये विनय, नम्रता अने बहुमान करे छे. निश्चयमां पोताने पूर्ण स्वभावनुं बहुमान छे तेथी व्यवहारमां देव-शास्त्र-गुरुनुं बहुमान


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आव्या वगर रहेतुं नथी. देव-गुरु गुणमां विशेष छे तेथी अंदर समजीने निमित्त उपर आरोप करी बोले के ‘आपे मने तारी दीधो’ ते जुदी वात छे, पण जो तेम मानी बेसे तो ते खोटुं छे. २३२.

शुद्ध परिणाम ते आत्मानो धर्म छे. तेमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे आवी जाय छे, पण व्रतादिनो राग तेमां आवतो नथी. आ शुद्ध रत्नत्रयरूप जे वीतराग भाव ते ज बधां शास्त्रोनुं तात्पर्य छे, ते ज जिनशासन छे, ते सर्वज्ञ जिननाथनी आज्ञा छे ने ते ज वीतरागी संतोनुं फरमान छे. माटे तेने ज श्रेयरूप जाणीने आराधना करो. २३३.

हे जीव! एक वार हरख तो लाव के ‘अहो, मारो आत्मा आवो!’ केवो?के सिद्धभगवान जेवो. सिद्धभगवान जेवी ज्ञान-आनंदनी परिपूर्ण ताकात मारा आत्मामां भरी पडी ज छे, मारा आत्मानी ताकात हणाई गई नथी. ‘अरेरे! हुं दबाई गयो, विकारी थई गयो, हवे मारुं शुं थशे?एम डर नहि, हताश न था. एक वार स्वभावनो हरख लाव, स्वरूपनो उत्साह कर, तेनो महिमा लावीने तारा


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पुरुषार्थने उछाळ, तो तने तारा अपूर्व आह्लादनो अनुभव थशे, अने तुं सिद्धपदने पामीश. २३४.

जेणे निज शुद्धात्मद्रव्यनो स्वीकार करीने परिणति ते तरफ वाळी छे एवा धर्मात्माने हवे क्षणे क्षणे मुक्ति तरफ ज प्रयाण चाली रह्युं छे, ते मुक्तिपुरीनो प्रवासी थयो छे. हवे ‘मारे अनंत संसार हशे?’ एवी शंका तेने ऊठती ज नथी; स्वभावना जोरे तेने एवी निःशंकता छे के ‘हवे अल्प ज काळमां मारी मुक्तदशा खीली जशे’. २३५

जेने जेनी रुचि होय ते तेनी वारंवार भावना भावे छे, अने भावनाने अनुसार भवन थाय छे. जेवी भावना तेवुं भवन. शुद्धात्मस्वभावनी वारंवार भावना करवाथी तेवुं भवनपरिणमन थई जाय छे. माटे ज्यां सुधी आत्मानी यथार्थ श्रद्धा, ज्ञान ने अनुभव न थाय त्यां सुधी सत्समागमे वारंवार प्रीतिपूर्वक तेनुं श्रवण, मनन अने भावना कर्या ज करवी. ए भावनाथी ज भवनो नाश थाय छे. २३६.


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अरे! एक गामथी बीजे गाम जवुं होय त्यारे लोको रस्तामां खावा भातुं भेगुं लई जाय छे; तो पछी आ भव छोडीने परलोकमां जवा माटे आत्मानी ओळखाणनुं कांई भातुं लीधुं? आत्मा कांई आ भव जेटलो नथी; आ भव पूरो करीने पछी पण आत्मा तो अनंत काळ अविनाशी रहेवानो छे; तो ते अनंत काळ तेने सुख मळे ते माटे कांई उपाय तो कर. आवो मनुष्य-अवतार ने सत्संगनो आवो अवसर मळवो बहु मोंघो छे. आत्मानी दरकार वगर आवो अवसर चूकी जईश तो भवभ्रमणनां दुःखथी तारो छूटकारो क्यारे थशे? अरे, तुं तो चैतन्यराजा! तुं पोते आनंदनो नाथ! भाई, तने आवां दुःख शोभतां नथी. जेम अज्ञानथी राजा पोताने भूलीने ऊकरडामां आळोटे, तेम तुं तारा चैतन्यस्वरूपने भूलीने रागना ऊकरडामां आळोटी रह्यो छे, पण ए तारुं पद नथी; तारुं पद तो चैतन्यथी शोभतुं छे, चैतन्यहीरा जडेलुं तारुं पद छे, तेमां राग नथी. आवा स्वरूपने जाणतां तने महा आनंद थशे. २३७.

योगीन्द्रदेव कहे छे के अरे जीव! हवे तारे क्यां सुधी संसारमां भटकवुं छे? हजु तुं थाक्यो नथी? हवे


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तो आत्मामां आवीने आत्मिक आनंदने भोगव! अहाहा! जेम पाणीना धोरिया वहेता होय तेम आ धर्मना धोरिया वहे छे. पीतां आवडे तो पी. भाई! सारा काळे तो कालनो कठियारो होय ते आजे केवळज्ञान पामे, एवो ते काळ हतो. जेम पुण्यशाळीने पगले पगले निधान नीकळे तेम आत्मपिपासुने पर्याये पर्याये आत्मामांथी आनंदनां निधान मळे छे. २३८.

आत्मानी वात पूर्वे अनंत वार सांभळी छतां, चैतन्यवस्तु जेवी महान छे तेवी लक्षमां न लीधी, तेनो प्रेम न कर्यो, तेथी श्रवणनुं फळ न आव्युं. माटे तेणे आत्मानी वात सांभळी ज नथी. खरेखर सांभळ्युं तेने कहेवाय के जेवी चैतन्यवस्तु छे तेवी अनुभवमां आवी जाय. २३९.

धर्मात्माओ प्रत्ये दान तेम ज बहुमाननो भाव आवे तेमां पोतानी धर्मभावना घुंटाय छे. जेने पोताने धर्मनो प्रेम छे तेने बीजा धर्मात्मा प्रत्ये प्रमोद, प्रेम ने बहुमान आवे छे. धर्म धर्मीजीवना आधारे छे, तेथी जेने धर्मीजीवो प्रत्ये प्रेम नथी तेने धर्मनो ज प्रेम नथी. भव्य जीवोए साधर्मी सज्जनो साथे


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अवश्य प्रीति करवी जोईए. २४०.

नरकादिनां दुःखोनुं वर्णन ए कांई जीवोने भयभीत करवा खोटुं कल्पित वर्णन नथी. पण तीव्र पापनां फळने भोगववानां स्थान जगतमां विद्यमान छे. जेम धर्मनुं फळ मोक्ष छे, पुण्यनुं फळ स्वर्ग छे, तेम पापनुं फळ जे नरक ते स्थान पण छे. अज्ञानपूर्वक तीव्र हिंसादि पाप करनारा जीवो ज त्यां जाय छे, ने त्यां ऊपजतां वेंत महादुःख पामे छे. तेनी वेदनानो चित्कार त्यां कोण सांभळे? पूर्वे पाप करतां पाछुं वाळीने जोयुं होय, के धर्मनी दरकार करी होय, तो शरण मळे ने? माटे हे जीव! तुं एवां पापो करतां चेती जजे! आ भव पछी जीव बीजे क्यांक जवानो छे

ए लक्षमां

राखजे. आत्मानुं वीतरागविज्ञान ज एक एवी चीज छे के जे तने अहीं तेम ज परभवमां पण सुख आपे. २४१.

जे वीतराग देव अने निर्ग्रंथ गुरुओने मानतो नथी, तेमनी साची ओळखाण तेम ज उपासना करतो नथी, तेने तो सूर्य ऊगवा छतां अंधकार छे. वळी,


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जे वीतराग गुरुओ द्वारा प्रणीत सत्शास्त्रोनो अभ्यास करतो नथी, ते आंख होवा छतां पण आंधळो छे. विकथा वांच्या करे ने शास्त्रस्वाध्याय न करे तेनी आंखो शा कामनी? ज्ञानीगुरु पासे रहीने जे शास्त्रश्रवण करतो नथी अने हृदयमां तेना भाव अवधारतो नथी, ते मनुष्य खरेखर कान अने मनथी रहित छे एम कह्युं छे. जे घरमां देव-शास्त्र-गुरुनी उपासना थती नथी ते खरेखर घर ज नथी, केदखानुं छे. २४२.

अहो! आवा चमत्कारी स्वभावनी वात स्वभावना लक्षे सांभळे तो मिथ्यात्वना हांजा गगडी जाय. २४३.

पोताना आत्मस्वरूपनी भ्रान्ति ए ज सौथी मोटुं पाप छे, ने ए ज जन्ममरणना हेतुभूत भयंकर भावरोग छे. ते मिथ्या भ्रान्ति केम छेदाय? श्रीगुरुए जेवो आत्मस्वभाव कह्यो तेवो समजवो तथा तेनो विचार ने ध्यान करवुं ते ज भावरोग टाळवानो उपाय छे. पहेलां शुभाशुभ विभाव रहित चैतन्यस्वरूप आत्मस्वभावनुं भान करवुं ते ज आत्मभ्रान्तिथी छूटवानो उपाय छे. २४४.


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ज्ञानीने दुःख जणाय छे ने वेदाय पण छे. जेम आनंदनुं वेदन छे, तेम जेटलुं दुःख छे एटलुं दुःखनुं पण वेदन छे. २४५.

चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा ज्ञायकस्वरूपे आखो नीरोगी छे. वर्तमानमां थता पुण्य-पापादि क्षणिक विकार जेवडो ज हुं छुं एम जे जीव माने छे तेनो विकार- रोग मटतो नथी. वर्तमान क्षणिक अवस्था ज मलिन छे, ऊंडाणमां एटले के शक्तिरूपे वर्तमानमां त्रिकाळी आखो निर्मळ छुंएम पूर्ण नीरोग स्वभाव उपर जेनी द्रष्टि छे तेना क्षणिक रागरूपी रोगनो नाश थई जाय छे. २४६.

सम्यक् मतिज्ञान, सम्यक् श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान वगेरे बधी अवस्था थाय खरी, परंतु ते मति-श्रुत वगेरे अवस्था उपर द्रष्टि मूकवाथी ते मति-श्रुत के केवळ वगेरे कोई अवस्था प्रगटे नहि, पण परिपूर्ण ऐश्वर्यवाळी जे आखी वस्तु ध्रुव निश्चय पडी छे तेनी द्रष्टिना जोरे सम्यक् मति-श्रुत अने (लीनता वधतां) पूर्ण केवळज्ञान- अवस्था प्रगटे छे. २४७.