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अप्रमत्तध्यान थई जाय छे, सहजपणे स्वरूपमां लीन थई जाय छे. — एम वारंवार मुनिराज प्रमत्त-अप्रमत्त दशामां झूलता होय छे. आवी मुनिराजनी निद्रा छे; तेओ सामान्य माणसनी जेम कलाकोना कलाको सुधी निद्रामां घोर्या न करे. अंतर्मुहूर्त सिवाय वधारे काळ छठ्ठे गुणस्थाने मुनिराज रहेता ज नथी. मुनिराजने पाछली राते क्षणवार झोलुं आवे, ते सिवाय तेमने झाझी निद्रा ज न आवे एवी तेमनी सहज अंतरदशा छे. २८३.
सवारमां जेने राजसिंहासन उपर देख्यो होय ते ज सांजे स्मशानमां राख थतो देखाय छे. आवा प्रसंगो तो संसारमां अनेक देखाय छे, छतां मोहमूढ जीवोने वैराग्य आवतो नथी. बापु! संसारने अनित्य जाणीने तुं आत्मा तरफ वळ. एक वार तारा आत्मा तरफ जो. बहारना भावो अनंत काळ कर्या छतां शान्ति न मळी, माटे हवे तो अंतर्मुख था. आ संसार के संसारना संयोगो स्वप्ने पण इच्छवा जेवा नथी. अंतरनुं एक चिदानंद तत्त्व ज भावना करवा जेवुं छे. २८४.
स्वभावने रस्ते सत्य आवे अने अज्ञानने रस्ते
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असत्य आवे. अज्ञानी गमे त्यां जाय के गमे त्यां ऊभो होय पण ‘हुं जाणुं छु’, ‘हुं समजुं छु’, ‘आना करतां हुं वधारे छुं’, आनां ‘करतां मने वधारे आवडे छे’ वगेरे भाव तेने आव्या वगर रहेता नथी. अज्ञानीमां साक्षीपणे रहेवानी ताकात नथी.
ज्ञानीने गमे ते भावमां, गमे ते प्रसंगमां साक्षीपणे रहेवानी ताकात छे; बधा भावोनी वच्चे पोते साक्षीपणे रही शके छे. अज्ञानीने ज्यां होय त्यां ‘हुं’ अने ‘मारुं कर्युं थाय छे’ एवो भाव आव्या वगर रहेतो नथी. ज्ञानी बधेथी ऊठी गयो छे अने अज्ञानी बधे चोंट्यो छे. २८५.
आत्मानुं प्रयोजन सुख छे. दरेक जीव सुख इच्छे छे ने सुखने ज माटे झावां नाखे छे. हे जीव! तारा आत्मामां सुख नामनी शक्ति होवाथी आत्मा ज स्वयं सुखरूप थाय छे. आत्मानुं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र — ए त्रणे सुखरूप छे. आत्मानो धर्म सुखरूप छे, दुःखरूप नथी. हे जीव! तारी सुख- शक्तिमांथी ज तने सुख मळशे, बीजे क्यांयथी तने सुख नहि मळे; केम के तुं ज्यां छो त्यां ज तारुं सुख छे. तारी सुखशक्ति एवी छे के ज्यां दुःख कदी
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प्रवेशी शकतुं नथी; माटे आत्मामां डूबकी मारीने तारी सुखशक्तिने उछाळ – उछाळ!! एटले के पर्यायमां परिणमाव, जेथी तने तारा सुखनो प्रगट अनुभव थशे. २८६.
आजे श्री महावीर भगवानना निर्वाणकल्याणकनो मंगळ दिवस छे. महावीर परमात्मा पण, जेवा आ बधा आत्मा छे तेवा आत्मा हता; तेमने सत्समागमे आत्मानुं भान थयुं अने अनुक्रमे साधनाना उन्नतिक्रममां चडतां चडतां तीर्थंकर थया. जेम चोसठपहोरी पीपर पीसतां पीसतां तीखी तीखी थती जाय छे, तेम आत्मामां जे परमानंद शक्तिरूपे भर्यो छे ते (स्वसन्मुखताना अंतर्मुख) प्रयास वडे बहार आवे छे. महावीर भगवाने, पोताना आत्मामां जे पूर्ण परमानंद भर्यो हतो तेने पोते अनुक्रमे प्रयास करीने प्रगट करी लीधो, मन, वाणी अने देहथी छूटुं पूर्ण ज्ञानानंदमय जे निज तत्त्व तेने पूर्णपणे साधी लीधुं.
जेमने पूर्ण परमानंद प्रगट थई गयो छे एवा परमात्मा फरीने अवतार लेता नथी, परंतु जगतना जीवोमांथी कोई जीव उन्नतिक्रमे चडतां चडतां जगद्गुरु ‘तीर्थंकर’ थाय छे. जगतना जीवोने धर्म पामवानी
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लायकात तैयार थाय छे त्यारे एवुं उत्कृष्ट निमित्त पण तैयार थाय छे.
जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते शुभ भाव पण आत्माने (वीतरागतानो) लाभ करतो नथी. ते शुभ राग तूटशे त्यारे भविष्यमां वीतरागता ने केवळज्ञान थशे. महावीर भगवाननो जीव पूर्वे त्रीजा भवमां नग्न दिगंबर भावलिंगी मुनि हतो. त्यां मुनिपणे स्वरूपरमणतामां रमता हता त्यारे, स्वरूप- रमणतामांथी बहार आवतां, एवो विकल्प ऊठ्यो के — अहा! आवो चैतन्यस्वभाव! ते बधा जीवो केम पामे? बधा जीवो आवो स्वभाव पामो. वास्तविक रीते एनो अर्थ एम छे के — अहा! आवो मारो चैतन्य- स्वभाव पूरो क्यारे प्रगट थाय? हुं पूरो क्यारे थाउं? अंतरमां एवी भावनानुं जोर छे, अने बहारथी एवो विकल्प आवे छे के ‘अहा’ आवो स्वभाव बधा जीवो केम पामे?’ एवा उत्कृष्ट शुभ भावथी तेमने तीर्थंकर नामकर्म बंधाई गयुं.
महावीर भगवानने केवळज्ञान थयुं पण वाणी छासठ दिवस पछी छूटी. केवळज्ञान त्रण काळ, त्रण लोक, स्व-पर समस्त द्रव्यो तेम ज तेमना अनंत भावोने युगपद एक समयमां हस्तामलकवत् अत्यंत स्पष्टपणे जाणे छे. भगवाने दिव्यध्वनिमां कह्युं छे
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के — आत्मामां अखंड आनंदस्वभाव भर्यो छे; जेमां ज्ञानादि अनंत स्वभाव भर्यो छे एवा चैतन्यमूर्ति निज आत्मानी श्रद्धा करे, तेमां लीनता करे, तो तेमांथी केवळज्ञाननो आखो प्रकाश अवश्य प्रगट थाय.
महावीर भगवाननां जे आ गाणां गवाय छे ते तेमना जेवा पोताना स्वरूपने प्रगट करवा माटे छे. तेवा स्वरूपने समजे तो अत्यारे पण एकावतारीपणुं प्रगट करी शकाय छे. तेवा स्वरूपने जे प्रगट करशे ते अवश्य मुक्तिने पामशे. २८७.
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके, परद्रव्य नातो तूटे; —
रागद्वेष रुचे न, जंपे न वळे भावेंद्रिमां — अंशमां,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर – अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
खोयेलुं रत्न पामुं, — मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
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ए गाम – पुरने धन्य छे, ए मात कुळ ज वन्द्य छे. १.
तुज पादथी स्पर्शाई एवी धूलिने पण धन्य छे. २.
तारी मति, तारी गति, चारित्र लोकातीत छे;
आदर्श साधक तुं थयो, वैराग्य वचनातीत छे. ३.
वैराग्यमूर्ति, शांतमुद्रा, ज्ञाननो अवतार तुं;
ओ देवना देवेन्द्र वहाला! गुण तारा शुं कथुं? ४.
अनुभव महीं आनंदतो सापेक्ष द्रष्टि तुं धरे;
दुनिया बिचारी बावरी तुज दिल देखे क्यां अरे? ५.
तारा हृदयना तारमां रणकार प्रभुना नामना;
ए नाम ‘सोहं’ नामनुं, भाषा परा ज्यां काम ना. ६.
अध्यात्मनी वार्ता करे, अध्यात्मनी द्रष्टि धरे;
निजदेह – अणुअणुमां अहो! अध्यात्मरस भावे भरे. ७.
अध्यात्ममां तन्मय बनी अध्यात्मने फेलावतो;
काया अने वाणी – हृदय अध्यात्ममां रेलावतो. ८.
छाया छवाये शांतिनी, तुं शांतमूर्ते! ज्यां रहे. ९.
पावन-मधुर-अद्भुत अहो! तुज वदनथी अमृत झर्यां;
श्रवणो मळ्यां सद्भाग्यथी, नित्ये अहो! चिद्रसभर्यां. १०.
गुरुक्हान तारणहारथी आत्मार्थी भवसागर तर्या;
भव भव रहो अम आत्मने सांनिध्य आवा संतनां. ११.
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तुज दिव्य मूर्ति झळहळे, अध्यात्मरसना राजवी.१.
तुं शुद्धरससाधक बन्यो, अंतर तणी सृष्टि लह्यो.२.
परमात्मनुं ध्यान ज धरी, तुज आत्मने स्वच्छ ज कर्यो.३.
तें शुद्ध चेतनधर्मनो अनुभव हृदयमांही लह्यो.४.
शुभ द्रव्यभावे तप तप्येथी शुद्धि करी शुभ नेमथी.५.
शुद्धात्मरस – भोगी भ्रमर, शुभद्रष्टि तारामां रही.६.
आचारमां मूकी घणुं जोयुं अनुभव – तोलथी.७.
जे आत्मयोगी होय ते जाणे खरे तव शुद्धता.८.
अध्यात्मरसिया जे थया, बेठा खरे शुद्ध नावमां.९.
ज्यां हुं वसुं त्यां तुं नहीं — ए भावना विलसे खरी.१०.
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साचा हृदयनो संत छे, परवा नथी, जयकार छे.११.
लोको मने ए शुं कहे त्यां लक्षने देतो नथी.१२.
लागी लगनवा आत्मनी, बीजुं कशुं जोतो नथी.१३.
भवपथ-उदधि तरवा विषे तें लक्ष अंतरमां धर्युं.१४.
अध्यात्मरसरसिया जनोथी तुज हृदय परखाय छे.१५.
चाबुक तेने मारीने व्यवहारमांही वाळतो.१६.
जे हृदय तारुं जाणता ते भाव तारो खेंचता.१७.
अध्यात्म – अमृत – पानथी वारी जता कोटी जनो.१८.
वंदन करुं, स्तवना करुं, तुज चरणसेवाने चहुं.१९.
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कहानगुरु! तुज पुनित चरण वंदन करुं. उन्नत गिरिशृंगोना वसनारा तमे, (सीमंधर – गणधरना सत्संगी तमे,) आव्या रंकघरे शो पुण्यप्रभाव जो; अर्पणता पूरी कव अमने आवडे, क्यारे लईशुं उर – करुणानो लाभ जो.....कहानगुरु० सत्यामृत वरसाव्यां आ काळे तमे, आशय अतिशय ऊंडा ने गंभीर जो; नंदनवन सम शीतळ छांय प्रसारता, ज्ञानप्रभाकर प्रगटी ज्योत अपार जो.....कहानगुरु० अणमूला सुतनु ओ! शासनदेवीना, आत्मार्थीनी एक अनुपम आंख जो; संत सलूणा! कल्पवृक्ष! चिंतामणि!
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ज्यां जोउं त्यां श्रवण पडती पुण्य ने पापगाथा;
जिज्ञासुने शरणस्थळ क्यां? तत्त्वनी वात क्यां छे?
पूछे कोने पथ पथिक ज्यां आंधळा सर्व पासे?
जिज्ञासु हृदयो हतां तलसतां सद्वस्तुने भेटवा;
एवा कंईक प्रभावथी, गगनथी ओ क्हान! तुं ऊतरे,
अंधारे डूबता अखंड सतने तुं प्राणवंतुं करे.
जेनो जन्म थतां सहु जगतनां पाखंड पाछां पडे,
जेनो जन्म थतां मुमुक्षुहृदयो उल्लासथी विकसे;
जेना ज्ञानकटाक्षथी उदय ने चैतन्य जुदां पडे,
इन्द्रो ए जिनसुतना जनमने आनंदथी ऊजवे.
फरी ए वीरवाक्योमां प्राण ने चेतना वहे.
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स्वाध्यायमंदिर स्थपायां अम आंगणिये.
मेरा मनडा मांही गुरुदेव रमे;
जगना तारणहाराने मारुं दिल नमे.
अद्भुत योगीराज अमारां धाम दीपाव्यां;
पुण्योदयनां मीठां फळ फळियां आज.मेरा०१.
ज्ञानामृते भरपूर छे, ब्रह्मचारी ए भडवीर छे;
जिनवर धर्मना साचा आराधनहार.मेरा०३.
अक्षर तणो संग्रह घणो, पण ज्ञान पेले पार छे;
सम्यक् श्रुतना साचा सेवनहार,
कुंदकुंद – नंदनने वंदन वारंवार.
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सुवर्णपुरीमां नित्ये चैतन्यरस वरस्या रे;
उजमबाना नंद अहो! आंगणे पधार्या रे;
अम अंतरियामां हर्ष ऊभराया रे.
आवो पधारो मारा सद्गुरुदेवा; शी शी करुं तुज चरणोनी सेवा.
विधविध भक्तिथी गुरुने वधावुं रे.....विदेह० १.
दिव्य अचरजकारी गुरु अहो! जाग्या; प्रभावशाळी संत अजोड पधार्या.
गुरु – गुणगीतो गगनमांही गाजे रे.....विदेह० २.
श्रुतावतारी अहो! गुरुजी अमारा; अगणित जीवोनां अंतर उजाळ्यां.
सातिशय गुणधारी गुरु गुणवंता रे.....विदेह० ३.
कामधेनु कल्पवृक्ष अहो! फळियां; भावि तणा भगवंत मुज मळिया.
निशदिन होजो तुज चरणोनी सेवा रे.....विदेह० ४.
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मारा अंतरिये आनंद अहो! ऊभराय,
शासन-उद्धारक गुरु जन्मदिवस छे आजनो रे;
गुरुवर-गुणमहिमाने गगने देवो गाय,
विधविध रत्नोथी वधावुं हुं गुरुराजने रे. आजे० १.
उमराळामां जनमिया ऊजमबा-कूख-नंद; क्हान तारुं नाम छे, जग-उपकारी संत.
जेने आंगण जन्म्या परमप्रतापी क्हान,
जेने पारणियेथी लगनी निज कल्याणनी रे. आजे० २.
‘शिवरमणी रमनार तुं, तुं ही देवनो देव;
जाग्या आतमशक्तिना भणकारा स्वयमेव. परमप्रतापी गुरुए अपूर्व सतने शोधियुं रे; भगवंत्कुंदॠषीश्वर चरण-उपासक सन्त,
वैरागी धीरवीर ने अंतरमांही उदास; त्याग ग्रह्यो निर्वेदथी, तजी तनडानी आश.
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जेने अंतर उलस्यां आत्म तणां निधान,
अनुपम ज्ञान तणा अवतार पधार्या आंगणे रे. आजे० ४.
ज्ञानभानु प्रकाशियो, झळक्यो भरत मोझार; सागर अनुभवज्ञाननो रेलाव्यो गुरुराज.
दुःषमकाळे वरस्यो अमृतनो वरसाद,
जयजयकार जगतमां क्हानगुरुनो गाजतो रे. आजे० ५.
अध्यातमना राजवी, तारणतरण जहाज; शिवमारगने साधीने कीधां आतमकाज.
पंचमकाळे तारो अजोड छे अवतार,
सारा भरते महिमा अखंड तुज व्यापी रह्यो रे. आजे० ६.
सद्द्रष्टि, स्वानुभूति, परिणति मंगलकार; सत्यपंथ प्रकाशता, वाणी अमीरसधार.
जेमां छाई रह्या छे मुक्ति केरा मार्ग,
एवी दिव्य विभूति गुरुजी अहो! अम आंगणे रे. आजे० ७.
शासननायक वीरना नंदन रूडा क्हान; ऊछळ्या सागर श्रुतना, गुरु-आतम मोझार.
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भरते ज्ञानी अलौकिक गुणधारी भडवीर,
शासन-संतशिरोमणि स्वर्णपुरे बिराजता रे. आजे० ८.
सेवा पदपंकज तणी नित्य चहुं गुरुराज! तारी शीतळ छांयमां करीए आतमकाज.
तारा गुणगणनो महिमा छे अपरंपार,
गुरुजी रत्नचिंतामणि शिवसुखना दातार छो रे;
तारां पुनित चरणथी अवनी आजे शोभती रे. आजे० ९.
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