दिव्यविभूति ‘कहानगुरुजी’ सिंहकेसरी हैं जागे,
धर्मचक्रीकी अमर पताका देशोदेशमें फहराये;
वाणी अमृत घोली है, सारी दुनिया डोली है,
वीतरागके गुप्तहृदयकी अंतर ग्रंथि खोली है;
— यह संतोका० ३.
चैतन्यप्रभुका अजब-गजबका रंग गुरुमें छाया है,
और उसे ही भक्तोंके अंतस्तलमें फैलाया है;
कल्पवृक्ष चिंतामणि सम गुरु वांछित-फल-दातार हैं,
कहानगुरु! तव चरणोंमें मम वंदन अगणित वार है;
— यह संतोका० ४.
शाश्वत शरण तुम्हारा हो, चाहें जगत किनारा हो,
भवभवमें तव दास रहें, बस तू आदर्श हमारा हो;
यह संतोका धाम है, साधकका विश्राम है,
स्वर्णपुरीमें मस्त विचरते, गुरुवर आतमराम हैं;
— यह संतोका० ५.
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५५. कोना पगले पगले
(रागः कोईना लाडकवाया)
कोना पगले पगले चाले मुक्तिनी वणझार,
कोना सादे जागे सर्वे आत्मार्थी नरनार;
अपार मुक्तिगामी जीवोनो तुं साचो सरदार,
ओ कहानगुरु! तुज चरणकमळमां वंदन वारंवार. १.
स्वतंत्रतानो शंख फूंकीने कर्यो असत्-संहार,
साचो मुक्तिपंथ बतावी दूर कर्यो अंधार;
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