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सम्यक् ज्ञान होवुं जोईए. ‘पोताने कथंचित् विभावपर्यायो विद्यमान
छे’ एवो स्वीकार ज जेना ज्ञानमां न होय तेने शुद्धात्मद्रव्यनुं पण
साचुं ज्ञान होई शके नहि. माटे ‘व्यवहारना विषयोनुं पण ज्ञान तो
ग्रहण करवा योग्य छे’ एवी विवक्षाथी ज शास्त्रमां व्यवहारनयने
उपादेय कह्यो छे, ‘तेमनो आश्रय ग्रहण करवा योग्य छे’ एवी
विवक्षाथी नहि. व्यवहारनयना विषयोनो आश्रय (आलंबन, वलण,
संमुखता, भावना) तो छोडवायोग्य ज छे. जे जीवने अभिप्रायमां
शुद्धात्मद्रव्यना आश्रयनुं ग्रहण अने पर्यायोना आश्रयनो त्याग
होय, ते ज जीवने द्रव्यनुं तेम ज पर्यायोनुं ज्ञान सम्यक् छे एम
समजवुं, अन्यने नहि.
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
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संत परमकृपाळु पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए सरळ तेम ज सुगम प्रवचनो द्वारा
तेमनां अमूलां रहस्यो मुमुक्षु समाजने समजाव्यां; अने ए रीते आ काळे
अध्यात्मरुचिनो नवयुग प्रवर्तावी तेओश्रीए असाधारण महान उपकार कर्यो छे. आ
विषम भौतिक युगमां समग्र भारतवर्षने विषे तेम ज विदेशोमां पण ज्ञान, वैराग्य ने
भक्तिभीनी अध्यात्मविद्याना प्रचारनुं जे आंदोलन प्रवर्ते छे ते पूज्य गुरुदेवश्रीना
चमत्कारी प्रभावनायोगनुं सुंदर फळ छे.
तदनुसार वीतराग दिगंबर मुनिवर श्री योगीन्दुदेव प्रणीत ‘योगसार’ उपर पूज्य
गुरुदेवश्रीनां प्रवचनोनुं संकलन ‘हुं परमात्मा’ रूपे प्रकाशित करतां कल्याणी गुरुवाणी
प्रत्ये अति भक्तिभीनी प्रसन्नता अनुभवीए छीए.
उपकारमहिमा प्रकाशनार स्वानुभवविभूषित प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री चंपाबेननी
ज्ञानवैराग्यरसभीनी मंगल आशिषछायामां, पूर्ववत् प्रवर्तती अनेकविध गतिविधिना
अंगभूत प्रकाशनविभाग द्वारा प्रकाशित थता आर्षप्रणीत मूळ, तेम ज प्रवचनग्रंथो
पैकीना ‘हुं परमात्मा’ नामना संकलननुं आ द्वितीय संस्करण छे. गुजराती
‘आत्मधर्म’ पत्रमां प्रकाशित थयेल ‘योगसार’ उपर पूज्य गुरुदेवश्रीनां प्रवचनो आ
संकलनमां प्रस्तुत करवामां आव्यां छे.
मुद्रण करी आपनार कहान मुद्रणालयनो आभार मानीए छीए.
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नमः श्रीकहानगुरुदेवाय।
मोह–महाचल भेद चली, जगकी जडतातप दूर करी है।।
जिनशासनना बीजभूत अध्यात्मज्ञानगंगानो पुनित प्रवाह प्रधान गणधर श्री
गौतमस्वामी द्वारा सूत्रबद्ध थयो, अने गुरुपरंपरा द्वारा ते प्रवाह भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवने प्राप्त थयो. मिथ्यात्वने रागद्वेषरूप मोटा पहाडोने भेदीने जगतना भव्य
जीवोनी जडता अर्थात् अज्ञान तेम ज आतपने दूर करनार ते पावन प्रवाहने श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवे, समयसार वगेरे प्राभृतभाजनोमां भरीने, चिरंजीवी कर्यो. उत्तरवर्ती
आचार्यो के विद्वानोए जे अध्यात्मप्रमुख ग्रंथरचनाओ करी छे तेमां प्रायः सर्वत्र
कुंदकुंदाचार्यदेवनी कृतिओनी तेजस्वी आभानां पुनित दर्शन थाय छे. अध्यात्मविषयना
उत्तरवर्ती ग्रंथकारो पैकीना एक, महान अध्यात्मयोगी श्री योगीन्दुदेव द्वारा प्रणीत
‘परमात्मप्रकाश’ ने ‘योगसार’ वगेरे ग्रंथोमां पण भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत
अध्यात्मरचनानी कल्याणी छाया ज द्रष्टिगत थाय छे.
तेम ज भाववाही प्रवचनोनुं संकलन प्रस्तुत करवामां आव्युं छे. ‘योगसार’ मां
‘योग’ नो अर्थ ‘जोडाण’ छे. आत्मानुं पोताना त्रिकाळ शुद्ध ज्ञायकस्वरूप साथे
पोतानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ परिणति वडे ‘जोडाण’ थवुं तेनुं नाम
‘योग’ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ परिणति वडे ‘जोडाण’ थवुं तेनुं नाम
‘योग’ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकतारूप आ योग, विपरीतता तेम ज
रागादिना विकल्प रहित होवाथी, स्वयमेव ‘सार’ अर्थात् उत्तम छे. ‘योगसार’ मां
गं्रथकारे १०८ दोहरामां बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मारूपे आत्माना वर्णननो
प्रारंभ करीने अपभ्रंशभाषामां सरळ अने सादी शैलीथी अध्यात्मतत्त्वनो सुंदर प्रकाश
कर्यो छे. अध्यात्मसागरने ‘योगसार’ रूप गागरमां संक्षेपनार ग्रंथप्रणेता जेवा महान
छे तेवा ज विशिष्ट, ते गागरने प्रवचनसागरमां विस्तारनार तेना प्रवचनकार छे.
‘योगसार’ ना प्रवचनकार परमोपकारी परमपूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी
शुद्धात्मद्रष्टिवंत, स्वरूपानुभवी, वीतराग
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अध्यात्मशास्त्रोना पारगामी, चतुरनुयोग-रहस्यवेत्ता, स्वानुभवस्यंदी भावश्रुतलब्धिना
धणी, सततज्ञानोपयोगी, वैराग्यमूर्ति, नयाधिराज शुद्धनयनी प्रमुखता सह सम्यक्
अनेकान्तरूप अध्यात्मतत्त्वना असाधारण उत्तम व्याख्यानकार अने आश्चर्यकारी
प्रभावना-उदयना धारक अध्यात्मयुगस्रष्टा महापुरुष छे. तेमनां आ प्रवचनोनुं
अवगाहन करतां ज अध्येताने तेमनो गाढ अध्यात्मप्रेम, शुद्धात्म-अनुभव, स्वरूप
तरफ ढळी रहेली परिणति, वीतराग-भक्तिना रंगे रंगायेलुं चित्त, ज्ञायकदेवना तळने
स्पर्शनारुं अगाध श्रुतज्ञान अने सातिशय परम कल्याणकारी अद्भुत वचनयोगनो
ख्याल आवी जाय छे.
अनुभवमां आव्या होय एवा घरगथ्थु प्रसंगोना अनेक उदाहरणो वडे, अतिशय सचोट
छतां सुगम एवा अनेक न्यायो वडे अने प्रकृत-विषयसंगत अनेक यथोचित द्रष्टान्तो
वडे पूज्य गुरुदेवे ‘योगसार’ ना अर्थगंभीर सूक्ष्म भावोने अतिशय स्पष्ट अने
सरळ बनाव्या छे. जीवने केवा भाव सहज रहे त्यारे जीव-पुद्गलनुं स्वतंत्र परिणमन
समजायुं कहेवाय, केवा भाव रहे त्यारे आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समजायुं गणाय, भूतार्थ
ज्ञायक निज ध्रुव तत्त्वनो (अनेकान्त-सुसंगत) केवो आश्रय होय तो द्रव्यद्रष्टि यथार्थ
परिणमी मनाय, केवा केवा भाव रहे त्यारे स्वावलंबी पुरुषार्थनो आदर, सम्यग्दर्शन-
ज्ञान-चारित्र-तप-वीर्यादिकनी प्राप्ति थई कहेवाय-वगेरे मोक्षमार्गनी प्रयोजनभूत
बाबतो, मनुष्यजीवनमां बनता अनेक प्रसंगोना सचोट दाखला आपीने, एवी स्पष्ट
करवामां आवी छे के आत्मार्थीने ते ने विषयनुं स्पष्ट भावभासन थई अपूर्व गंभीर
अर्थो द्रष्टिगोचर थाय अने ते, शुभभावरूप बंधमार्गने विषे मोक्षमार्गनी मिथ्या
कल्पना छोडी, शुद्धभावरूप यथार्थ मोक्षमार्गने समजी, सम्यक् पुरुषार्थमां जोडाय. आ
रीते ‘योगसार’ ना स्वानुभूतिदायक ऊंडा भावोने, सोंसरा ऊतरी जाय एवी
असरकारक भाषामां अने अतिशय मधुर, नित्य-नवीन, वैविध्यपूर्ण शैलीथी अत्यंत
स्पष्टपणे समजावी गुरुदेवे आत्मार्थी जगत पर अनहद उपकार कर्यो छे. ‘योगसार’
ना अपभृंश-दोहरामां छुपायेलां अणमूल तत्त्वरत्नोनां मूल्य स्वानुभवविभूषित
कहानगुरुदेवे जगतविदित कर्यां छे.
पुरुषार्थ जाग्रत करी, कंईक अंशे सत्पुरुषना प्रत्यक्ष उपदेश जेवुं चमत्कारिक कार्य करे छे.
आवी अपूर्व चमत्कारिक शक्ति पुस्तकारूढ प्रवचनवाणीमां जवल्ले ज जोवामां आवे छे.
प्रत्यक्ष सत्समागमनी झांखी
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मुमुक्षुओने आ प्रवचनो अनन्य आधारभूत छे. निरालंबन पुरुषार्थ समजाववो अने
प्रेरवो ते ज उदे्श होवा साथे ‘योगसार’ ना सर्वांग स्पष्टीकरणस्वरूप आ प्रवचनोमां
समस्त शास्त्रोनां सर्व प्रयोजनभूत तत्त्वोनुं तळस्पर्शी दर्शन आवी गयुं छे. श्रुतामृतनो
सुखसिंधु जाणे आ प्रवचनोमां हिलोळी रह्यो छे. आ प्रवचनग्रंथ शुद्धात्मतत्त्वनी रुचि
उत्पन्न करी पर प्रत्येनी रुचि नष्ट करवानुं परम औषध छे, स्वानुभूतिनो सुगम पंथ
छे अने भिन्न भिन्न कोटिना सर्व आत्मार्थीओने अत्यंत उपकारक छे. परम पूज्य
गुरुदेवे आ अमृतसागर समा प्रवचनोनी भेट आपी देशविदेशमां वसता मुमुक्षुओने
न्याल कर्यां छे.
वळग्या विना ते मूळ पर ज घा करे छे. आ अल्पायुषी मनुष्यभवमां जीवनुं प्रथममां
प्रथम कर्तव्य एक निज शुद्धात्मानुं बहुमान, प्रतीति अने अनुभव छे. ते बहुमानादि
कराववामां आ प्रवचनो परम निमित्तभूत छे.
उतारी, निज शुद्धात्मानी रुचि, प्रतीति तथा अनुभव करी, शाश्वत परमानंदने पामो.
(बहेनश्री चंपाबेन-७४मी जन्मजयंती)
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रच्यां छे. तेमां आ योगसार एटले निज शुद्ध आत्मस्वरूपमां योग नाम जोडाण
करीने, सार एटले तेनी निर्विकल्प श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करवी तेनुं नाम योगसार छे.
कहे छे.
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अप्पा लद्धउ जेण परु ते परमप्प णवेवि।। १।।
थया सिद्ध परमातमा, वंदुं ते जिनराय. १.
सिद्धदशा प्रगट करवी एनुं नाम योगसार कहेवामां आवे छे. योगीन्द्रदेवे १४०० वर्ष
पहेलां परमात्मप्रकाश अने योगसार कर्या छे. योगीन्द्रदेव महा संत थया, तेओ
आत्मा ए रीते शुद्धस्वरूपना निर्मळ ध्यान वडे एकाग्र थाय छे ते सिद्ध थाय छे.
ज्ञानावरणीनो क्षय थाय त्यारे ज्ञान थाय तेम नथी कह्युं हो! पण निर्मळ ध्यान वडे
समस्त प्रकारे स्वरूपमां स्थिर थया त्यारे सिद्ध थाय छे.
पूरणतानी प्राप्तिना काळ वखते शुं कर्युं ए वात अहीं चाले छे. जेमां अतीन्द्रिय आनंद
भर्यो पडयो छे एवी निज सत्ताना होवापणामां तारुं सुख छे, बीजाना होवापणामां
पण तारुं सुख नथी, परमात्मा सिद्धना होवापणामां पण तारुं सुख नथी. सर्वज्ञ
परमेश्वरे त्रिकाळी निज आत्मामां एकलो आनंद ज भाळ्यो छे, ए अतीन्द्रिय
आनंदनी नजर करीने विशेषपणे ध्यानमां स्थित थया, बहारथी तद्न उपेक्षा करीने
अंदरमां ठर्या, शुद्ध ध्यानमां स्थित थया-आ रीते सिद्ध परमात्मा थया; वर्तमानमां थाय
छे ने भविष्यमां पण आ रीते सिद्ध परमात्मा थशे. मोक्षने प्राप्त करवानी, मोक्षना
मार्गनी आ क्रिया छे. वचमां कोई दया-दाननो विकल्प आवे ए कोई मोक्षना मार्गनी
क्रिया नथी. आ योगसार छे ने! योग एटले आत्मामां उपयोगनुं जोडाण करवुं ए ज
मोक्षनो मार्ग छे. परमां जोडाण थाय-रागादि हो पण ए कांई मोक्षनो मार्ग नथी, ए
तो बंधना मार्गना बधा विकल्पो छे.
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त्यारे कर्मना कलंकने बाळी मूकया छे. कर्म बळ्या माटे ध्यान थयुं छे एम नथी. कर्म
बिचारे कौन?-ए तो जड छे, निमित्त छे, तुं विकार कर तो कर्मनुं आवरण निमित्त
थाय अने ध्यान कर तो कर्मो टळी जाय. कर्मो कांई कांडु पकडीने ऊभा नथी के तने
ध्यान नहीं थवा दउं.
थई गई-ए बाळी मूकयानो अर्थ छे. सिद्ध भगवाननो आत्मा परमात्मपणे थयो
त्यारे तेणे कर्मना कलंकने बाळ्या एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. कर्म तो अकर्मरूप
थवानी लायकातथी ज थया छे, आत्मा तेने बाळे-टाळे एम कोई दी बने नहीं, केम के
ए तो जड छे, जडनो कर्ता-हर्ता आत्मा नथी. अहीं तो एम कह्युं के विकारनो संग
हतो त्यारे कर्मनुं निमित्तपणे आवरण हतुं, ए विकारनो संग छूटयो त्यारे कर्मनुं
आवरण बीजी दशारूपे थई गयुं तेने अहीं कर्म-कलंक बाळ्या एम कहेवामां आवे छे.
एनी दशामां परमात्मदशा ए आत्माए प्राप्त करी. एवा परमात्माने ओळखीने मारा
लक्षमां लईने एवा सिद्ध परमात्माने हुं नमस्कार करुं छुं. श्री समयसारमां लीधुं छे के
भाई! सिद्ध परमात्माने नमस्कार कोण करी शके?-के जे हृदयमां-ज्ञाननी दशामां
सिद्धपदने स्थापी शके अने विकार आदि मारामां नथी, हुं पूर्णानंद सिद्ध समान
शक्तिए छुं-एम जे श्रद्धा-ज्ञानमां सिद्धने स्थापे ए सिद्धने खरो नमस्कार करी शके.
ऊर्ध्व रह्यां छतां सिद्धोने हेठे उतारुं छुं के प्रभु! पधारो, पधारो, मारे आंगणे पधारो.
सिद्धने आदर देनारना आंगणा केटला उजळा होय! राजा आवे तोय आंगणुं केटलुं
साफ करे छे! अनंत अनंत सिद्धोने हुं वंदन करुं छुं, आदर करुं छुं एटले के ए सिवाय
रागनो, अल्पज्ञतानो, निमित्तनो आदर द्रष्टिमांथी हुं छोडी दउं छुं. अमारा आंगणां
उजळा कर्यां छे प्रभु! आप पधारोने! पोतानी ज्ञानकळानी प्रगट दशामां अनंत
सिद्धोने स्थापे छे के आवो प्रभु! निर्विकल्प पर्यायमां प्रगट थाओ, आवो, पधारो!-
एवी जेनी द्रष्टि थई छे ते अनंता सिद्धोने पोतानी पर्यायना आंगणे पधरावे छे अने
तेणे भगवानने नमस्कार कर्यां कहेवामां आवे छे. आम ने आम नमो अरिहंताणम्
कर्या करे पण जेने नमे ए चीज ज शुं छे, तुं नमनार एमने केवा भावथी आदर
आपे छो, तारा भावमां शुं शुद्धता आवी छे-एनी खबर विना नमो अरिहंताणम्-ना
गडीया तो अनंतकाळ हांकया पण तेमां कांई वळ्युं नहि.
नमवा लायक
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तह जिणइन्दहं पय णविवि अक्खमि कव्वु सु–इट्ठु।। २।।
ते जिनवर चरणे नमी, कहुं काव्य सुइष्ट. र.
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सत्तानो अमने स्वीकार छे. आवा अरिहंतो होय एनुं अमने ज्ञान छे, भान छे अने
तेथी अमे नमस्कार करीए छीए. अंधश्रद्धाए नमस्कार करीए छीए एम नथी-एम
कहे छे.
कर्या करे! अहीं कहे छे के अरिहंत परमात्मा आत्मा हता ने तेने अनादिनो आठ
कर्मोनो संबंध हतो, तेणे चार घातिकर्मने टाळ्या ने तेओ अनंत चतुष्टयने पाम्या.-एवा
जिनेन्द्रदेवना चरणकमळमां हुं नमस्कार करुं छुं, नमस्कार करीने हवे हुं प्रियकारी,
आत्माना हितना मार्गने कहेनार सुंदर काव्य-श्लोकोने कहुं छुं.
अप्पा–संबोहण–कयइ कय दोहा एक्वमणाह।। ३।।
ते भवी जीव संबोधवा, दोहा रच्या एकचित्त. ३.
चार गतिमां रहेवुं छे ने मजा करवी छे तेने माटे नहि हो! जेने स्वर्गना सुखथी पण
भय लागे छे, केम के स्वर्गना सुखनी कल्पना ते पण दुःख छे, चक्रवर्तीना राज्य होय
के एक दिवसना अबजो रूपियानी पेदाशो होय-ए बधी कल्पनाओ दुःख छे, ए
दुःखथी जेने त्रास थयो छे के हवे आ दुःख नहि, आ दुःख न जोईए-एने माटे आ
माटे आ काव्य कहुं छुं-एम कहे छे.
चारगतिनी प्राप्ति, इन्द्रपदनी प्राप्ति पण दुःखरूप छे. केम के इन्द्रपदनी प्राप्तिमां जे लक्ष
जाय छे ए बधां राग दुःखरूप छे. धर्मात्माने अधूरुं रह्युं ने स्वर्गमां जाय छे ने जुए
छे ने कहे के अरेरे! अमारे राग बाकी रही गयो एमां आ मळ्युं? अरेरे! अमारा
काम ओछां-अधूरां रह्यां. स्वरूपमां स्थिरता करवी जोईए तेटली अमे न करी शक्या
तेना आ फळ आव्या-एम खेद करे छे. धर्मात्मा इन्द्रपदने देखीने खेद करे छे के अरे!
आ फळ आव्या! अरे! अमारो आत्मा सच्चिदानंद प्रभु, पूरणज्ञान ने आनंदनी प्राप्ति
करे एवी शक्तिवाळो तेने आ संयोगना फळ मळ्या! अरे! अमे काम बाकी राख्याता!
अमारा काम अधूरां रही गया-एम खेद करे छे.
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चारगतिना दुःखनो त्रास लाग्यो होय एवा जीवोने माटे आ मारो योगसारनो उपदेश
छे एम कहे छे. हजी अमारे एकाद भव करवो छे, स्वर्गमां जवुं छे.....जेने जनम-
मरणनो त्रास नथी एने अमारो उपदेश लागशे नहि.
मोक्षनी लालसा, मोक्षनी अभिलाषा धारण करवावाळा माटे आ मारुं योगसार छे--
एम आचार्य महाराज योगीन्द्रदेव कहे छे. छेल्ले एम कहेशे के मारा माटे आ योगसार
कह्युं छे.
आदिनी चाहनावाळा जीवोने माटे अमारो उपदेश नथी. चारगतिनो त्रास अने मोक्षनी
तालावेलीवाळा जीवोने मारे एक ज वात कहेवी छे, शुं कहेवी छे?-के आत्मानुं स्वरूप
समजाववा माटे, तारी अंदर जात शुं छे भाई!-ए समजाववा माटे आत्मानुं संबोधन
करवुं छे. तारा स्वरूपमां शुं भर्युं छे ने आ विकार-फिकार ए तारी जात नथी-एवा
आत्माना स्वरूपने समजाववा माटे एकाग्र मनथी हुं अत्यारे दोहानी रचना करीश.
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कह्युं छे? के जे चार गतिना भवना भयथी दुःखी थयो होय, चार गतिना दुःखनो डर
लाग्यो होय अने जेने मोक्षनी अभिलाषा होय तेने माटे आ योगसार कहे छे-एम
पहेली शरत मूकी छे.
मिच्छा–दंसण–मोहियउ णवि सुह दुख्ख जि पत्तु ।। ४।।
मिथ्यामति मोहे दुःखी, कदी न सुख लहंत. ४.
मांडीने नवमी गै्रवेयकना-चार गतिमां रखडनारा दुःखी-दुःखी जीवो अनादिथी छे. एक
जरीक प्रतिकूळता आवे त्यां दुःखी दुःखी थई जाय ने जरीक अनुकूळता आवे त्यां
हरखना सडका माने!-ए बधा दुःखी-दुःखी छे. काळ पण अनादिनो ने जीव पण
अनादिथी छे. संसारी जीवनी अशुद्धता पण अनादिनी छे. आत्मा अनादिनो छे अने
तेनी मलिन पर्याय पण अनादिनी छे. शेरडीमां रस ने कूचो भेगा ज छे, पहेला-पछी
नथी; खाणमां सोनुं ने पथ्थर पहेलेथी ज बन्ने साथे छे. पहेलां सोनुं हतुं ने पछी
पथ्थर भेगो थयो-एम नथी; दूधमां दूधने पाणी दोवामां साथे ज होय छे; तलमां
तेलने खोळ बन्ने पहेलेथी ज भेगा छे अने जुदा पाडे तो पाडी शके एम छे. चकमकमां
अग्नि अने चकमक अनादिना छे. तेम आत्मा शुद्ध द्रव्य तरीके अनादि छे ने संसार
अशुद्ध दशा अनादिथी छे.
ज छे. एम आत्मा वस्तुए तो शुद्ध चिदानंदस्वरूप छे छतां तेने पर्यायमां मलिनता
केम आवी?-
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ने तेनी संसारी मलिनदशा पण अनादिनी छे. जो मलिनता न होय तो तेने आनंदनो
साची श्रद्धा करवी इत्यादि कांई रहेतुं ज नथी! साचुं समजवुं ए कांई रहेतुं नथी!
तेथी संसारी जीव अनादि छे ने मलिनता पण अनादिनी छे.
अनंतवार गयो, निगोदमां अनंता भव कर्या, ढोरमां अनंतवार गयो, माणस
भूलेलो अनादि ने भवसागर अनादि छे.
खबर नथी, एनुं माहात्म्य नथी एटले कर्मजन्य उपाधिना लक्षे तेना अस्तित्वमां
पोतानुं अस्तित्व स्वीकार्युं छे. स्वयं अखंड आनंदकंद स्वसत्तानी अंतर्मुख द्रष्टि नथी ने
रखडवुं छे केम?-ए सिद्धांत सिद्ध करे छे. मिथ्या श्रद्धाने लईने मोहित थयो थको
भवसागरमां रखडे छे, कर्मने लईने रखडे छे एम नहीं-ए सिद्धांत छे. भगवान
एनुं अस्तित्व भाळे छे ने अंदरमां पूरण अस्तित्व छे तेनी तेने खबर नथी, खबर
नथी एनुं नाम ज अज्ञान मिथ्यात्व छे. एवा मिथ्यात्वथी अनादि काळथी मोह्यो छे,
मोहना कारणे जगतना कर्मजन्य संयोगमां एनी लगनी लागी छे. जेमां सुख नथी तेने
सुख माने छे, जेमां दुःख छे तेने सुख माने छे. आ भाव तेने केम छे?-के
मिथ्यादर्शन छे. पण भगवान आत्मा शुद्ध आनंदकंद प्रभु छे, सच्चिदानंद प्रभु छे-एम
अंतर अवलोकतां संसारनो व्यय थईने मोक्ष थतां एने वार लागे नहीं. परंतु
मिथ्यादर्शनने लईने अनादिथी मोह्यो छे.
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गुनो थयो ने पांच घटे त्यां हाय हाय! मोहने लईने मफतमां वध्यो ने घटयो-एम
चाले त्यां हवे आपणे वध्या हो! पण बापु! श्रीमद् राजचंद्र तो १६ मे वर्षे पोकार करे
छे के ‘लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो? शुं कुटुंब के परिवारथी
वध्यो! पहेलां तो साधारण वेपार करता हतां पण हमणां बहु बादशाही छे! मूढ छे
ने? कषायनी होळी सळगी रही छे, पण मिथ्यात्व ने मोहथी आ मान्यताए संसार
अज्ञानी परमां अगवडता-सगवडता मानी रह्यो छे.
कारण कह्युं छे. सात व्यसन करतां पण आ पाप मोटुं छे. बहारना इन्द्रिय संयम अने
त्याग करे पण अंदरमां जेने दया-दानना भाव धर्म छे. तेनाथी मने धर्म थशे-ए
छे तेनुं तो भान नथी ने दया-दान-व्रत-भक्ति ने क्रियाकांड ए तो बधो राग छे. ए
रागनो विवेक सम्यग्दर्शनमां थाय छे. मिथ्यादर्शनमां ए रागनो अविवेक रहे छे. ऊंधी
व्रतादिना रागने लाभदायक माने छे. एक समयनो राग विकल्प स्वभावमां नथी, तेने
पोतानो मान्यो-तेने लाभदायक मान्यो ते महा मिथ्यात्वथी मोहेलो प्राणी छे.
आदि रागभाव-पुण्यभाव तेना वडे निश्चय प्राप्त थशे एम माननार मिथ्यादर्शनथी
प्राप्त करतो नथी. मिथ्या श्रद्धाने लईने आत्माना स्वभावनी खबर विना, दया-दान-
व्रत-भक्तिना जे भाव छे ते विकार छे, तेमां मोहेलो प्राणी स्वभावमां सावधान नथी
राग ने विकल्पमां मोहेलो प्राणी तेमां सावधान रहेतो थको अंशे पण सुखने न प्राप्त
करतो थको दुःखने ज प्राप्त करे छे. संसारना सुख-दुःख बन्नेने दुःख कहेवामां आवे छे.
रागभावने पोतानुं स्वरूप मानीने ते छोडवा योग्य नथी एटले के ते माराथी छूटो
पडवा लायक नथी एम माननार मिथ्यादर्शनथी एकलो दुःखी दुःखी ने दुःखी थई रह्यो
छे, ते जरीये आत्माना आनंदना सम्यग्दर्शनना सुखने पामतो नथी.