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मूळ गुण पाळे, पण ए तो राग छे, तेमां हित माने ए मिथ्याश्रद्धाथी मोहेलो प्राणी छे.
तेने आत्माना ज्ञान ने आनंदनी खबर नथी तेथी ते मरीने चार गतिमां रखडवाना
छे. मिथ्याश्रद्धावाळाने जरीये सुख नथी एम कह्युं. मिथ्याश्रद्धा एटले शुं? आपणे कुदेव-
कुशास्त्र-कुगुरुने मानता नथी, आपणे पंचमहाव्रत पाळीए छीए, माटे आपणने
मिथ्याश्रद्धा नथी; पण ए पंचमहाव्रत राग छे, एने पाळुं ने ए मारा छे ए मान्यता
पोते ज मिथ्याश्रद्धा छे, तेथी ते जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे, भले ते जीव दिगंबर साधु
थईने पंचमहाव्रत पाळतो होय पण ए भाव मने हितकर छे एम माने छे तेने
मिथ्यादर्शननुं झेर चढेलुं छे, तेने आत्माना अमृतनो जरीये स्वाद होतो नथी. ४.
अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव–सुक्ख लहेहि।। ५।।
शुद्धातम चिंतन करी, ले शिवसुखनो लाभ. प.
अत्यारे तो आत्मानो अनादर करे छे, भगवाने कह्युं के दया-दान-व्रतादि आत्माना
हितनुं कारण नथी एने तो तुं मानतो नथी. भगवाननो तो तुं अनादर करे छे तो
स्वर्गमांथी भगवान आगळ सांभळवा जईशुं ए खोटी भ्रमणा छे.
होय! लुहार कहे के भाई! ए बळद अहीं ते पाछो आवतो हशे? खस्सी कराववामां
तो बहु त्रास थाय ने ते अहीं पाछो डोकातो हशे?-एम वात आवे छे. तेम अहीं कहे
छे के जेने ८४ लाख योनिना त्रास लाग्या छे ने फरी हवे मारे आ गतिमां नथी
आववुं-तेने माटे आ वात छे.
टूंकी ने टच वात करी छे के भवभ्रमणनो त्रास लाग्यो होय तो परभावने छोडी दे. तेनो
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तरफ छे तेनो पलटो मारीने अंदर स्व तरफ करजे; तेनाथी शांति ने शिवसुख पामीश,
ए सिवाय मोक्षना सुखनी प्राप्तिनो बीजो उपाय वीतराग परमेश्वरना मार्गमां नथी
अने बीजे तो छे ज नहीं. हवे छठ्ठी गाथा कहे छेः-
मलिन ज आत्मा कहे छे ते पण खोटुं; त्रण प्रकारे आत्मा छे, ते कहे छेः-
पर झायहि अंतर सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ।। ६।।
थई तुं अंतर आतमा, ध्या परमात्मस्वरूप. ६.
पर्यायमां छे. बहिरात्मापणुं एटले के पुण्य-पापना रागने पोताना मानवो ए एनी
पर्यायमां छे, अंतरात्मापणुं एटले के आत्मा शुद्ध छे एम मानवुं ते एनी पर्यायमां छे
अने पूरण परमात्मपणे परिणमव्रुं ए पण एनी पर्यायमां छे.
तो प्रगट पूरण पर्यायनी अपेक्षाए परमात्मानी वात करे छे.
निर्मळतानी -अपूर्ण निर्मळ दशानी अपेक्षाए अंतरात्मा कहेवामां आवे छे.
नहीं मानी शकनारो आत्मा बहिरात्मा छे. रागादिना परिणाम जे आस्रवतत्त्व छे, ते
बर्हितत्त्व छे, तेने आत्माना हितरूप माननारो बहिरात्मा छे. कर्मजन्य उपाधिना
संसर्गमां आवीने क्यांय पण उल्लसित वीर्यथी होंश करवी ए बहिरात्मा छे. भगवान
आत्मानो उल्लसित वीर्यथी आदर छोडीने बहारना कोई पण उपाधिभाव के कर्मजन्य
संयोगना संसर्गमां आवतां तेमां वीर्य उल्लसित थई जाय के “आहाहा! आहाहा!”-
एम परमां विस्मयता थई जाय तेने बहिरात्मा कहे छे. अंतरना आनंदथी राजी न
थयो ने बहारना शुभाशुभभाव ने एना फळ के जे आत्माना स्वभावथी बाह्य वर्ते छे
तेमां खुशी थयो, तेमां आत्मापणुं मान्युं एने बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि कहे छे.
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एटले के रागनी भिन्नता अने आत्मानी एकतामां रागनो त्याग वर्ते छे. बहिरात्मा
नग्न दिगंबर थईने अठ्ठावीस मूळगुण पाळे, चामडा उतरडीने खार छांटे तोय क्रोध न
करे पण अंतरमां रागनो अत्याग ने रागनी साथे एकत्वबुद्धि पडी छे ते बहिरात्मा
बाह्यबुद्धिमां राजी थनार मिथ्याद्रष्टि छे. शरीरमां नीरोगता मारा आत्माने साधन थशे,
रोग वखते शरीरमां प्रतिकूळता हती हवे शरीरमां नीरोगता थई, पैसादिनी सगवडता
थई, हवे हुं नीरांते धर्मध्यान करी शकीश-एम आत्मा सिवाय रजकणथी मांडी
बाह्यऋद्धिमां क्यांय अनुकूळता कल्पी जवाय ने प्रतिकूळताना गंजमां एना कारणे
क्यांय अणगमो थाय एनी बुद्धि बाह्यमां रोकायेली होवाथी ते बहिरात्मा छे.
हरखना सडके चढेलो तारो भाव ए बहिरात्मा छे, तथा प्रतिकूळतामां खेदे चढेलो तारो
भाव ए पण बहिरात्मा छे. ए भ्रांति-शंका रहित थईने बहिरात्मपणुं छोडी दे.
मोक्षनो मार्ग कहेवामां आवे छे.
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भूतनैगमनयथी अंतरात्मा ने बहिरात्मा तो छे पण आ तो प्रगट पर्यायनी वात छे.
परमात्मानुं स्वरूप जाणीने अंतरात्मा थईने बहिरात्मपणुं छोडीने परमात्मानुं ध्यान
करवुं ए गाथानो सार छे. त्रण प्रकारनी पर्याय बतावीने हेतुं शुं?-के दरेक जीवमां
त्रण प्रकारनी शक्ति पडी छे. तेमांथी परमात्मानुं स्वरूप जाणी अंतरात्मा थई
बहिरात्मपणुं छोडी परमात्मानुं ध्यान करवुं ते हेतु छे, ते सार छे. हवे सातमी गाथा
कहे छे;
सो बहिरप्पा जिण–भणिउ पुण संसार भमेइ ।। ७।।
ते बहिरातम जिन कहे, ते भमतो संसार. ७.
थयो त्यां हुं पंडित छुं एम माने-ए बधा मिथ्यादर्शनथी मोहित थयेला जीवो छे. मारु
स्वरूप एक समयमां त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यद्रव्य छे-एनो आश्रय करतो नथी ने कर्मना
उदयथी मळेली बाह्य ने अभ्यंतर सामग्रीमां, मिथ्याश्रद्धा द्वारा हुंपणुं स्वीकारतो, एमां
हुं छुं, ए मारा छे एम मानतो थको मिथ्यात्वथी मोहित थयेलो परमात्माने नथी
जाणतो. पोतानुं स्वरूप जे अनंत ज्ञान, दर्शन ने आनंद आदिनी समृद्धिवाळुं छे तेने
ते जाणतो नथी. फक्त बहारनी अल्पज्ञ अवस्था, रागनी अवस्था अने बहारना
अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोगना अस्तित्वना स्वीकारवामां तेनी द्रष्टि पडी छे.
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सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारु मुएइ ।। ८।।
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. ८.
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पोषा, प्रतिक्रमणमां सामायिकना नाम धरावीने बेठो पण पूरण शुद्ध स्वरूप अखंड
आत्मानो अंदर श्रद्धामां आदर नथी त्यां तेने दया-दान आदि विकल्प ऊठे ए परनो
ज एकलो आदर वर्ते छे तेथी तेने एकलो परमात्मानो ज त्याग वर्ते छे, तेने परम
स्वभावनो त्याग वर्ते छे.
द्रष्टिमां त्याग छे. तेथी ते तीर्थंकरगोत्र बंधाय ए भावथी लाभ मानतो नथी. जे
भावनो द्रष्टिमां त्याग वर्ते छे तेनाथी लाभ माने शी रीते? स्वरूपमां एकाग्र थईश
तो लाभ थशे एम माने छे.
एक कणनो आदर छे तेने आखा चौद ब्रह्मांडनो भोग छे.-आवी वस्तुस्थिति छे
बापु!
सामग्रीने पोतानी माने छे ते संसारमां रखडशे कारण के तेनी द्रष्टिमांथी स्वभावनी
अधिकता छूटी गई छे, ने बहारनी अधिकता द्रष्टिमांथी जती नथी तेथी ते नवा कर्मो
बांधशे ने चार गतिमां रखडशे. अंतरात्मा तो शुभाशुभ रागना अभावस्वभाव
स्वरूप पूरण ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करतो थको-चोथा गुणस्थानथी आत्मानो
अनुभव करतो थको ‘प्रगट लहे भवपार’ शुद्ध चैतन्यवस्तुनो अनुभव करनार,
परभावनो त्याग करनार क्रमे क्रमे संसारने मूकी देशे, तेने संसार रहेशे नहीं-एवा
जीवने पंडित, ज्ञानी, वीर ने शूरवीर कहेवामां आवे छे. ८.
सो परमप्पा जिण–भणिउ एहउ जाणि णिमंतु ।। ९।।
ते परमात्मा जिन कहे, जाणो थई निर्भ्रान्त.
न हता, द्रष्टिमांथी एकत्वबुद्धिमांथी राग-द्वेष छूटया हता पण स्थिरता द्वारा पूरण
छूटया न हता, ए रागादि परमात्माने पूरण छूटी गया छे, आठ कर्मना रजकणने ने
पुण्य-पापना मलिनभावने परमात्माए छोडया छे.
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परमात्मा तो एने कहीये के जेने शरीर नथी, राग नथी, जे शुद्ध अभेद एक छे, तेमने
अशुद्धता नथी, बेपणुं नथी. पहेलां कर्मरूपी शत्रु हता तेने जीत्या माटे जिनेन्द्र छे.
आवा सिद्ध भगवानने विष्णु कहीये. जगतने रचे ते विष्णु नथी. भगवान परमात्मा
एक समयना ज्ञानमां त्रण काळ त्रण लोकने ज्ञाता तरीके जाणे, एक समयमां युगपत्
जाणे, एक समयमां पूरुं जाणे माटे तेने विष्णु कहे छे.
नहीं थाय. भगवाननो एक समयनो एक पर्याय आवडो के त्रणकाळ त्रणलोकने
युगपत्पणे जाणे-एवा ज्ञाननो स्वीकार शुं रागथी करी शके? रागना आश्रये स्वीकार
थाय? पर्यायथी स्वीकार थाय पण ए पर्यायना आश्रये शुं स्वीकार थाय? सर्वज्ञ
स्वरूपी प्रभु तेनो आश्रय लीधा विना पर्यायमां सर्वज्ञपणानो निर्णय न थाय.
सर्वज्ञस्वभावी आत्मस्वरूपनो निर्णय थतां तेने क्रमबद्धनो निर्णय थई जशे ने वीतराग
पर्याय पण थई जशे. एनुं नाम ज पुरुषार्थ छे, पुरुषार्थ एटले कांई खोदवुं छे?
अंतरनी दशा कर्तृत्वमां हती ते अंतरमां अकर्तृत्वमां गई ए पुरुषार्थ छे.
विष्णु कहेवामां आवे छे, ए सिवाय जगतनो कर्ता-हर्ता बीजो कोई विष्णु छे नहीं.
स्व-पर तत्त्वनो भेद पाडीने जाणे तेने बुद्ध कहीये. सर्वज्ञ परमात्मा पोताना स्वरूपने
पूरण जाणे ने लोकालोकने पण जाणे-ए स्वपरने जाणनारा सर्वज्ञदेवने बुद्ध कहेवाय
छे. एकला क्षणिकने जाणे ते बुद्ध नथी.
परिणमी गई छे माटे तेने शिव कहे छे. अकषाय स्वभावे परिणमीने वीतराग दशाए
परिणमी गया तेने शांत कहीये, तेने परमात्मा कहीये.-एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे, माटे तुं
भ्रांति रहितपणे परमात्मस्वरूपने जाण ने राग-द्वेषने छोड. परमात्मस्वरूप तो तारी
शक्तिमां पडयुं ज छे तेने जाण ने राग-द्वेषने छोड.
परमात्मा होई शके नहीं.
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सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु भमेइ।। १०।।
ते बहिरातम जिन कहे, भमतो बहु भवकूप. १०
बधां मारा छे एम माने छे ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. ज्ञान आनंद आदि
त्रिकाळी शुद्ध स्वरूपमां ज नथी एवा शुभाशुभ विकल्पो, चार गति, लेश्या, छकाय,
कषाय आदि भावो परभाव छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी. शरीरथी मांडीने रागनी
मंदता तीव्रताना शुभाशुभभाव ए बधा आत्माथी बाह्य छे.
मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा मूढ कह्यो छे. अखंड ज्ञानानंदमूर्ति आत्मा सिवायना जे कोई
बर्हिभावो मारा छे, श्रावकना छ प्रकारना व्यवहार कर्तव्यना भावो ए शुभ राग छे
ने पंचमहाव्रतादिनुं आचरण ए मुनिनो शुभ राग छे. ए आचरण मारुं छे, ए
आचरणथी मारुं हित थाय एम माननार बहिर्दष्टि छे, मिथ्याद्रष्टि छे, अन्तर्दष्टि
नथी.-एम सर्वज्ञ परमेश्वर कहे छे.
भावथी जे लाभ माने ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि छे. शुभ आचरण मारुं स्वरूप छे
अथवा ते मारा कल्याणनुं साधन छे एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. परमार्थे व्यवहार
आवश्यक, शुभ विकल्प वृत्ति ए बधा पर छे, विभाव छे, विकार छे, सदोष छे.
वाणी,
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हित थशे एम माननार ए विभावने ज-ए बहिरभावने ज आत्मा माने छे.
स्वभावनुं साधन माने, स्वभावने ने विकारने एक माने ते विकारने ज-देहादिने ज
आत्मा माने छे. तेनी द्रष्टि चिदानंद ज्ञायक उपर नथी पण तेनी द्रष्टि खंडखंड आदि
भाव उपर पडी छे. ते अपंडित कह्यो छे. आत्मा जेवो छे तेवो जेणे जाण्यो ने मान्यो
तेने पंडित कह्यो छे. तो तेनाथी विरुद्ध जे विकल्प राग आदिने पोतानुं स्वरूप माने
तेने अपंडित कहीये, मूरख कहीये, बहिरात्मा कहीये.
अल्प अवस्था, पुण्य-पापना विकल्पो के संयोगी बाह्य चीज मने हितकर छे, साधन
छे, मारा छे, एवी मान्यतावाळाने बहिरात्मा कहे छे.
व्यवहार तरीके आव्या विना रहेतो नथी. जेम एकरूप अखंड चैतन्यवस्तु आत्मा छे ने
जेम शरीर आदि जडरूप पदार्थ पण छे अने शुद्ध चैतन्यवस्तुनुं भान थतां जेम शरीर
आदि बीजी चीज कांई वई जती नथी तेम अंदरमां पूरणदशा ज्यां सुधी प्राप्त न थाय
त्यां सुधी व्यवहारना भाव होय छे, पण ते पर तरीके होय छे, स्व तरीके खतववा
माटे होता नथी.
ए आत्मानुं कर्तव्य नथी. कमजोरीना काळमां ए भाव आवे छतां ए हितकारी नथी.
हितकारी नथी तो ए भाव लावे छे शुं काम?-भाई! बापु! ए भावने ते लावतो
नथी पण आवे छे. परंतु ए विकल्पो आत्माने कल्याण करनार छे के आत्मानुं स्वरूप
छे एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे. मारा स्वरूपमां हुं छुं ने ते भावो मारामां नथी तेनुं
नाम अनेकान्त कहेवामां आवे छे.
विकृतरूपने पोतानुं स्वरूप माने छे तेथी विकृतरूपने केम छोडे? तेथी ते विकृतिमां ज
फरी फरी भ्रमण करशे. संसारमां ज फरी फरी भ्रमण करशे. १०
अंतरात्मानी विशेष वात कहे छेः-
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इउ जाणेविणु जीव तुहुं अप्पा अप्प मुणेहि ।। ११।।
एम जाणीने जीव तुं, निजरूपने निज जाण. ११
थई शकता नथी. ज्ञानमूर्ति प्रभुथी भिन्न्न जे पदार्थ कह्यां ते आत्मा थई शकता नथी,
शकता नथी, ते पदार्थो आत्मापणे थई शकता नथी. शुद्ध ज्ञाननी मूर्ति चैतन्यसूर्य
प्रभुरूपे पुण्य-पापना भाव के शरीर थई शकता नथी. देहादि जे बाह्य कह्यां ते आत्मा
आत्मा थई जता नथी.
स्फटिकनी साथे राता-पीळा फूल पडयां होय तो ए फूल कांई स्फटिक थई जाय? अने
स्फटिकमां राती-पीळी झांय देखाय ए झांय कांई स्फटिकरूपे थई जाय?
श्री जिन वीरे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे...
अने जे लाल-पीळी झांय पडी ते स्फटिकपणे थाय? तेम भगवान आत्माथी बाह्य जे
पदार्थ ते आत्मा थई शकता नथी. पुण्या-पापना विकल्पो ने शरीरादि बाह्य पदार्थ
कोण थई शकता नथी?-के विभाव शरीर ने वाणी आत्मारूपे थई शकता नथी.
पोते पोताने भूली गयो...कहे छे के सच्चिदानंद प्रभु आत्मा शुं कांई विभावरूपे थाय?
ए आत्मा शुं कांई शरीररूपे थाय? ए आत्मा शुं कांई वाणीरूपे थाय? विभावना
वाणीमां कांई आत्मा आवे? शुभभावना विकल्पमां जो आत्मा आवे तो आत्मा
शुभभावरूपे थई जाय. पण आत्मा एमां आवे नहीं. केम के विभाव ए तो बाह्यचीज
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पर अप्पा जइ मुणहि तुहुं तो संसार भमेहि ।। १२।।
पररूप माने आत्मने, तो भवभ्रमण न जाय. १२.
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एकाकार थई ते पूर्णानंदरूपी निर्वाण ने मुक्ति पामशे.
एमां ने एमां घोलन करतां निर्वाणने पामशे, आत्मा चैतन्यज्योत ज्ञायक छे एम
जाण्युं ने एमां ने एमां स्थिर थशे एटले वितरागताने पामशे; वच्चे व्यवहार आवशे
एनी अहीं वात पण करी नथी.
प्रभु, चैतन्यप्रकाशनी मूर्ति! प्रकाशनो प्रकाशक; रागनो, जडनो प्रकाशक आत्मा अने
पोताना स्वरूपनो पण प्रकाशक एवो प्रकाशक स्वरूप भगवान आत्मा जाण्यो के हुं तो
स्वपरनो प्रकाशक प्रकाशनो पुंज आत्मा छुं-एम जाणीने तेमां ज स्थिरता करतां करतां
निर्वाणने पामशे.
एटले संसारमां रखडशे. आत्माने आत्मा जाणे तो मुक्ति ने आत्माने पररूपे जाणे तो
संसारभ्रमण, विकार ते संसार छे, विकारने पोतारूपे मानशे तो एमां ने एमां रहेशे,
विकारमां ने विकारमां रहेशे, संसारमां ने संसारमां रहेशे.
मुक्ति अने संसारनी बन्ने वात एक गाथामां समावी दीधी.
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योगसारशास्त्रमां वर्णव्यो छे. तेमां बार गाथा थई गई छे. हवे १३ मी गाथा कहे छेः-
तो लहु पावहि परम–गई फुडु संसारु ण एहि ।।१३।।
सत्वर पामे परमपद, तपे न फरी भवताप. १३.
आवे छे. पुण्य-पापना राग रहित शुद्ध आत्मस्वभावनुं ज्ञान करीने पुण्य-पापना
भावने रोकीने स्वरूपमां लीन थाय तेने तप कहेवामां आवे छे अने ते तपथी मुक्ति
थाय छे.
ईच्छा नथी एवा ज्ञान-दर्शन ने आनंदमय आत्माना श्रद्धा-ज्ञान ने लीनता वडे-शुद्ध
स्वरूपमां शुद्ध उपयोगनी लीनता वडे संवर ने निर्जरा थाय छे.
उपवास आदि करे ने तेमां रागनी मंदता होय तो मिथ्यात्व सहित पुण्य बांधे पण
तेने धर्मनुं स्वरूप कहेवामां आवतुं नथी के तेनाथी जन्म-मरणना अंत आवता नथी.
भगवान आत्मा पोताना वीतरागी निर्दोष अकषाय स्वरूपने जाणीने तेमां लीन थाय
तेनुं नाम ईच्छारहित कहेवामां आवे छे ने तेनाथी जन्म-मरणना अंत आवे छे.
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ठीकपणुं लागतुं होय ते त्यांथी खसे केम? माटे भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन-आनंद
स्वरूप छे तेने जाण, केम के ते ईच्छा विनानी चीज छे. तेथी ईच्छा विनानी जे चीज
छे तेना लक्षे ईच्छाने टाळीने वीतरागस्वरूपमां ठरे तेने ईच्छारहित तप कहे छे.
पवित्र आनंदस्वरूपमां ठरे ने लीन थाय एटले ईच्छा रोकाई गई ने स्वरूपमां लीन
थयो तेने मुक्तिनो मार्ग कहेवामां आवे छे.
थाय छे तेने परमात्मा तप अने धर्म कहे छे. आहार न लेवो के अमुक रस न लेवो-
ए तो बधी लांघण छे, चारित्रनी रमणता ते तप छे. अनादिथी रागमां रमे छे,
पुण्य-पापना रागना विकल्पमां रमे छे ते संसार छे. ए पुण्य-पापना रागथी खसीने
जेमां ए पुण्य-पाप नथी एवा भगवान आत्माना स्वभावमां ठरवुं ते तप ने
मुक्तिनो उपाय छे.
जाणवुं होय तो केटला उपवास करे त्यारे नाम जणाय? मारे तमारुं नाम पूछवुं नथी,
उपवास करीने तमारुं नाम जाणवुं छे, तो केटला उपवास करवाथी नाम जणाय?
भाई! पूछवुं पडे ने?-के तमारुं नाम-ठाम शुं? ज्ञान द्वारा ज अज्ञाननो नाश थई शके
छे. तेथी आत्मा पोताना आत्मानुं प्रथम ज्ञान करे के जाणनार देखनार ते आत्मा-एम
आत्मानो विश्वास ने श्रद्धा-ज्ञान करीने, रागथी खसीने स्वरूपमां ठरे त्यारे तप थाय
छे ने तेने धर्म कहेवामां आवे छे.
पडतुं नथी. जेणे भगवान आत्माना शुद्ध स्वभावनो विश्वास करीने, विश्वासे तेमां
रमीने ते द्वारा जेणे परम गतिने प्राप्त करी ते फरीथी संसार पामतो नथी. अतीन्द्रिय
आनंदमां जे लीन थयो, पूरण लीनता पाम्यो ते हवे त्यांथी पाछो खसे-एम
त्रणकाळमां बनतुं नथी. माखी जेवुं प्राणी पण साकरनी मीठासमां लीन थया पछी तेनी
पांख चोंटी जाय के बाळकना आंगळाथी थोडी दबाय तोपण माखी ते मीठासने छोडती
नथी, उडती नथी. तेम आनंदस्वरूप आत्मानो जेने विश्वास आव्यो छे, आत्मानुं ज्ञान
करीने तेनो विश्वास आव्यो ने तेमां ठरे छे, तपे छे, लीनता करे छे ते अल्पकाळमां
पर्यायमां मुक्तदशाने पामे छे ने पछी ते संसारमां फरी अवतरतो नथी. १३.
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इउ जाणेविणु जीव तुहुं तहभाव हुं परियाणि ।। १४।।
नियम खरो ए जाणीने, यथार्थ भावो जाण. १४.
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मोक्षनुं कारण छे, देहनी क्रिया मोक्षनुं कारण नथी एम कहे छे! मोक्ष पण आत्माना
परिणामथी थाय, देहनी क्रियाना निमित्तथी थाय नहीं. स्वभावनी महिमानुं ज्ञान,
स्वभावनी महिमानो विश्वास, स्वभावनी महिमामां लीनतारूप स्व-अभिमुखना
परिणाम ए ज भगवान आत्माने मुक्तिनुं कारण छे, पण बे-पांच लाख रूपिया दान
देवाथी कांई मुक्ति के धर्म थई जतो नथी. अरे! दानना शुभरागना परिणाम तो बंधनुं
कारण छे-एम अहीं वात चाले छे, केम के ए तो परसन्मुखताना परिणाम छे. धर्मीने
दया-दान आदिना परिणाम होय खरा, आवे खरा, पण ए जाणे छे के आ
बंधपरिणाम मारा अबंधस्वरूपी भगवान आत्माने बंधनुं कारण छे, ने स्वसन्मुखताना
अबंधपरिणाम मारा अबंधस्वरूपी भगवान आत्माने छूटवानुं कारण छे.
मिथ्याद्रष्टि हो जे अशुद्ध परिणाम थया ते बंधनुं ज कारण छे. सम्यग्द्रष्टिने पण
व्रतादिना जेटला परिणाम आवे ते परसन्मुखताना परिणाम छे ने जेटला
परसन्मुखताना परिणाम छे तेटलुं बंधनुं कारण छे तथा जेटला स्वसन्मुखताना
परिणाम छे ते ज परिणाम पूरण शुद्ध परिणामरूपी मुक्तिनुं कारण छे.
परिणामनुं ज्ञान कर. पूर्णानंदना नाथनी सन्मुखना परिणामने तुं जाण अने तेनी
विमुखना परिणामने तुं जाण. आ तो सम्यग्द्रष्टिने कहे छे के ज्ञान तो बन्नेनुं करवानुं
छे. समकितीने पण विषय-कषायना काम-क्रोधना परिणाम आवे छे, दया-दान-व्रत-
भक्तिना परिणाम आवे छे पण एने तुं बंधना कारण जाण.
समयनी पर्यायमां समाई जाय छे-एवो भगवान आत्मा साधकपणामां स्वसन्मुखना
परिणामने अने परसन्मुखना परिणामने बराबर जाणी शके छे.
चार-छ कलाक बोलाय नहीं के पडखुं फरी शकाय नहीं त्यां हाय हाय! क्यांय सख
पडतुं नथी! अकळामण अकळामण थाय छे! पण अकळामण शेनी छे? अकळामण तो
तारा रागनी छे, पडखुं न फरवानी नथी. परनुं करे कोण? अहीं तो कहे छे के जडनी
अवस्थाना अभिमानना परिणाम बंधना कारण छे. तने खबर नथी बापु! भगवान
आत्मा चिदानंदनी मूर्ति प्रभु छे तेनी सन्मुखना परिणाम ते एक ज तने हितकर अने
कल्याणनुं कारण छे, ए सिवाय कोई तने हितकर के कल्याणनुं कारण छे नहीं.
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रागए-ए सर्वे बंधनुं ज कारण छे. मोक्षनुं कारण एक वीतराग भाव छे. भगवान
आत्माना अंतर शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने रमणता, निर्विकल्पता, वीतरागता,
शुद्ध स्वरूपने अवलंबीने थयेला शुद्धताना परिणाम ए एक ज संवर-निर्जरारूप छे ने
ते एक ज मुक्तिनो उपाय छे. १४.
तो वि ण पावहि सिद्धि–सुहु पुणु संसारु भमेस ।। १५।।
भमे तो य संसारमां, शिवसुख कदी न थाय.
शुभभाव साधक छे नहीं. पंच महाव्रतना परिणाम अठ्ठावीस मूळगुणना परिणाम,
जावजीव ब्रह्मचर्य पाळवाना परिणाम, एक लंगोटी मात्र पण न राखवाना परिणाम,
नवमी ग्रैवयेक जाय एवा शुभ परिणाम-ए बधाय बंधना कारण छे. आत्माना भाव
विनानुं ए पुण्य मुक्तिनुं कारण नथी. आत्माना भान सहित ए होय तो तेने तेमां
निमित्त कहेवामां आवे छे एटले के ते मुक्तिनुं कारण तो छे ज नहीं.
तोपण ते मुक्तिना सुखने पामतो नथी एटले के तेने संवर-निर्जरा थती नथी.
पोताना पूर्णानंदनी श्रद्धा-ज्ञान ने स्थिरताना भाव शुद्ध उपादानथी प्रगट कर्या त्यारे
व्रतादिना परिणाम के जे बंधना कारण छे तेने निमित्त तरीके कहेवाय. निमित्त देखीने
वात करी त्यां तेने वळग्यो!
थशे एम माने छे ते जीवो चार गतिमां रखडशे. तेने जन्म-मरणना अंतनो कांई पण
लाभ नहीं थाय. देह ने रागथी भिन्न एवो जे परमात्मानो निजस्वभाव तेने जे
जाणतो नथी ते भले अशेष शुभभाव करे पण एनाथी जरीए धर्म थतो नथी. आटलुं
करवा छतां-ऊंचामां ऊंचा शुभभावो ने तेनी क्रियाओ करवा छतां ते सिद्धना सुखने
पामतो नथी. भगवान आत्मामां आनंद भर्यो छे पण तेनो विश्वास करतो नथी ने
शुभभावमां विश्वास करे के आनाथी मुक्ति थशे ते चार गतिमां रखडशे एटले के तेने
आत्माना आनंदनी प्राप्ति थशे नहीं ने चार गतिमां फरी फरीने रखडशे.