Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 3-5.

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१०] [ हुं
मिथ्यादर्शनथी मोहेलो ८४ लाख योनिमां रखडे छे, ‘मुनिव्रत धार अनंत बार
ग्रैवयेक उपजायो, पण आतमज्ञान बिन न लेश सुख पायो.’ दिगंबर साधु थाय, २८
मूळ गुण पाळे, पण ए तो राग छे, तेमां हित माने ए मिथ्याश्रद्धाथी मोहेलो प्राणी छे.
तेने आत्माना ज्ञान ने आनंदनी खबर नथी तेथी ते मरीने चार गतिमां रखडवाना
छे. मिथ्याश्रद्धावाळाने जरीये सुख नथी एम कह्युं. मिथ्याश्रद्धा एटले शुं? आपणे कुदेव-
कुशास्त्र-कुगुरुने मानता नथी, आपणे पंचमहाव्रत पाळीए छीए, माटे आपणने
मिथ्याश्रद्धा नथी; पण ए पंचमहाव्रत राग छे, एने पाळुं ने ए मारा छे ए मान्यता
पोते ज मिथ्याश्रद्धा छे, तेथी ते जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे, भले ते जीव दिगंबर साधु
थईने पंचमहाव्रत पाळतो होय पण ए भाव मने हितकर छे एम माने छे तेने
मिथ्यादर्शननुं झेर चढेलुं छे, तेने आत्माना अमृतनो जरीये स्वाद होतो नथी. ४.
जई वीहउ चउ–गई गमणा पर–भाव चएहि ।
अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव–सुक्ख लहेहि।। ५।।
चार गति दुःखथी डरे, तो तज सौ परभाव;
शुद्धातम चिंतन करी, ले शिवसुखनो लाभ. प.
शुभ ने अशुभ राग ए स्वरूपमां नथी, एने हितकर मानवो ए ज
मिथ्यादर्शनमां मोहेलो जीव छे, तेथी आत्माना धर्मनुं कारण कोण ते कहे छे.
* चार गतिनो भय लाग्यो होय तो परभावने छोड *
चार गतिनो भय लागे, स्वर्गमां अवतरवुं ए पण दुःख माने. केटलाक कहे छे
के आपणे अत्यारे व्रतादि पाळो, स्वर्गमां जईशुं ने त्यांथी भगवान पासे जईशुं. पण
अत्यारे तो आत्मानो अनादर करे छे, भगवाने कह्युं के दया-दान-व्रतादि आत्माना
हितनुं कारण नथी एने तो तुं मानतो नथी. भगवाननो तो तुं अनादर करे छे तो
स्वर्गमांथी भगवान आगळ सांभळवा जईशुं ए खोटी भ्रमणा छे.
एक बळद हतो ते खोवाई गयो. तेनो मालिक बळद शोधवा माटे लुहारने त्यां
आव्यो के तमारी पासे बळदने खस्सी करवा एकवार लावेल तेथी कदाच अहीं आव्यो
होय! लुहार कहे के भाई! ए बळद अहीं ते पाछो आवतो हशे? खस्सी कराववामां
तो बहु त्रास थाय ने ते अहीं पाछो डोकातो हशे?-एम वात आवे छे. तेम अहीं कहे
छे के जेने ८४ लाख योनिना त्रास लाग्या छे ने फरी हवे मारे आ गतिमां नथी
आववुं-तेने माटे आ वात छे.
टूंको सिद्धांत कहे छे के जो तने भवभ्रमणनो त्रास लाग्यो होय तो, भगवान
सच्चिदानंद प्रभु सिवाय पुण्य-पापनो राग परभाव छे, ए परभावने तुं छोडी दे. बहु
टूंकी ने टच वात करी छे के भवभ्रमणनो त्रास लाग्यो होय तो परभावने छोडी दे. तेनो

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परमात्मा] [११
अर्थ के व्यवहार छे ते परभाव छे, ते परभावने छोड! तो निश्चय पमाशे. व्यवहार
करतां करतां निश्चय थशे ए वात रहेती नथी. पहेलां व्यवहार पाळो! व्यवहार पाळो!
दया-दान-व्रत-संयम पहेलां पाळो! व्यवहार पाळो! एटले के विभावने पाळो एम
ने! अहीं तो कहे छे के ए परभावने छोडी दे! रागनी मंदता होय, कषायनी मंदता
होय तो तेमांथी शुद्धता थशे-ए मिथ्यात्व छे. शुभमांथी शुद्धता नहीं थाय, शुभने छोड
तो शुद्धता थशे.
भगवान आत्मा ज्ञातानो भंडार, तेनाथी भिन्न जेटलो भाव-जे भावे तीर्थंकर
गोत्र बांधे ते भाव पण-परभाव परभाव परभाव छे. जो तने चारगतिना दुःखनो
भय लाग्यो होय तो ई परभाव छोड. राग मने लाभदायक छे एम जे माने छे ते
शरीरने जीव माने छे. भगवान आत्मा सच्चिादानंद प्रभु छे ने शरीर, कर्म राग
शुभाशुभभाव ते बधुं शरीर छे. रागना कणने पोताना माने छे ते बहिरात्मा शरीरने
ज आत्मा माने छे.
बापु! भाई! जो तने चार गतिनो डर लाग्यो होय तो परभावने छोड. शेनो
त्याग करवो? शुभाशुभ भावनो त्याग कर; घरबार के दी एनामां हतां ते एनो
त्याग करे! एनी पर्यायमां पर्यायपणे पकडेलो परभाव तेने द्रव्यद्रष्टिए तुं छोड,
व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प पण परभाव छे, दया-दान-व्रत-भक्तिना भाव पण
परभाव छे, तेने छोड! ते गतिनुं कारण छे, मोक्षनुं कारण नथी.
* मोक्षनो उपायः शुद्धात्मानुं ध्यान *
आ तो नास्तिथी वात करी. त्यारे हवे शुं?-के निर्मळ भगवान आत्मानुं ध्यान
कर. केवो आत्मा?-के अनादि अनंत सच्चिदानंद स्वसत्ताए बिराजमान पूर्णानंदनो नाथ
केवळज्ञान सत्ताथी भरेलुं तत्त्व आत्मा छे तेनुं ध्यान कर. जेमां अनंता निर्मळ गुणो
भर्या छे तेनुं ध्यान पर्यायमां कर. आत्मा वस्तु छे ने ध्यान ए पर्याय छे. मोक्षना
सुखनो उपाय शुं? मोक्षनो मार्ग शुं?-के आत्मा अखंडानंद ज्ञाननी मूर्ति छे तेनुं ध्यान
करवुं ते मोक्षनो मार्ग छे, ते मोक्षनो उपाय छे. ध्यानमां दर्शन-ज्ञान ने चारित्र त्रणेय
आवी जाय छे. पोतानी शुद्ध सत्तानो आदर करवो ते ध्यान ने मोक्षनो मार्ग छे. आत्मा
तरफनुं ध्यान ते एक ज संवर-निर्जरानो मार्ग छे.
आत्माने ओळख. बहुं टूंकी वात करी दीधी छे. आत्मा एटले एक समयनी
पर्याय-पुण्य-पाप जेवडो नहीं पण भगवान पूर्णानंद प्रभु के जेना अंतर्मुखना
अवलोकने संसारनी गंध पण रहेती नथी. एवा निर्मळ आत्मानुं-त्रिकाळीनुं ध्यान
कर-ए मोक्षनुं कारण छे. आत्मा अखंडानंद प्रभुनी सामुं जोईने एकाग्र थवुं एनुं
नाम समायिक छे.
तत्त्वार्थसूत्रनुं सूत्र छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः- ए त्रणे अहीं
आत्माना ध्यानमां समाडी दीधा छे. अठयावीस मूळगुण ए आत्मध्यान नहीं, ए
परभाव हतां, परध्यान हतुं, आत्मध्यान न हतुं. अहीं योगीन्द्रदेव फरमावे छे के
आत्मा कोण छे

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१२] [हुं
एने पहेलां जाणजे ने पछी तेनुं ध्यान करजे. एटले के जे द्रष्टि बहार तरफ छे. पर
तरफ छे तेनो पलटो मारीने अंदर स्व तरफ करजे; तेनाथी शांति ने शिवसुख पामीश,
ए सिवाय मोक्षना सुखनी प्राप्तिनो बीजो उपाय वीतराग परमेश्वरना मार्गमां नथी
अने बीजे तो छे ज नहीं. हवे छठ्ठी गाथा कहे छेः-
आत्माना त्रण प्रकार छे. आत्मा आत्मा करे छे ने! तेने आत्मानी पर्यायना
त्रण प्रकार कहे छे. एकलो निर्मळ आत्मा अनादिथी छे एम कहे छे ते खोटुं, एकलो
मलिन ज आत्मा कहे छे ते पण खोटुं; त्रण प्रकारे आत्मा छे, ते कहे छेः-
ति–पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु ।
पर झायहि अंतर सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ।। ६।।
त्रिविध आत्मानी जाणीने, तज बहिरातम रूप;
थई तुं अंतर आतमा, ध्या परमात्मस्वरूप. ६.
आत्माने पर्याय अवस्थाथी त्रण प्रकारे जाणो; द्रव्य अपेक्षाए तो त्रिकाळी
एकरूप आत्मा छे. पर्यायमां भूल, भूलनुं टळवुं ने निर्भूलनी पूरण प्राप्ति-ए बधुं
पर्यायमां छे. बहिरात्मापणुं एटले के पुण्य-पापना रागने पोताना मानवो ए एनी
पर्यायमां छे, अंतरात्मापणुं एटले के आत्मा शुद्ध छे एम मानवुं ते एनी पर्यायमां छे
अने पूरण परमात्मपणे परिणमव्रुं ए पण एनी पर्यायमां छे.
शक्तिरूपे तो दरेक आत्मा परमात्मा छे. परमात्मानी बधी अवस्था जे सादि-
अनंत प्रगट थवानी छे ते बधी शक्ति तो वर्तमानमां आत्मामां पडी छे, परंतु अहीं
तो प्रगट पूरण पर्यायनी अपेक्षाए परमात्मानी वात करे छे.
निर्विकल्प शुद्ध परमात्मानुं स्वरूप हजु पर्यायमां प्रगट थयुं नथी पण वस्तुए
आवो छुं एम जेणे श्रद्धा-ज्ञानथी-ध्यानथी नक्की कर्युं छे तेने वर्तमान दशानी
निर्मळतानी -अपूर्ण निर्मळ दशानी अपेक्षाए अंतरात्मा कहेवामां आवे छे.
भगवान पूरण शुद्ध निर्मळानंद छे अने ए सिवायना दया-दान-व्रत-भक्तिना
परिणाम ने देहनी क्रिया तेने पोतानी माननारो, तेनाथी हित माननारो, तेने भिन्न
नहीं मानी शकनारो आत्मा बहिरात्मा छे. रागादिना परिणाम जे आस्रवतत्त्व छे, ते
बर्हितत्त्व छे, तेने आत्माना हितरूप माननारो बहिरात्मा छे. कर्मजन्य उपाधिना
संसर्गमां आवीने क्यांय पण उल्लसित वीर्यथी होंश करवी ए बहिरात्मा छे. भगवान
आत्मानो उल्लसित वीर्यथी आदर छोडीने बहारना कोई पण उपाधिभाव के कर्मजन्य
संयोगना संसर्गमां आवतां तेमां वीर्य उल्लसित थई जाय के “आहाहा! आहाहा!”-
एम परमां विस्मयता थई जाय तेने बहिरात्मा कहे छे. अंतरना आनंदथी राजी न
थयो ने बहारना शुभाशुभभाव ने एना फळ के जे आत्माना स्वभावथी बाह्य वर्ते छे
तेमां खुशी थयो, तेमां आत्मापणुं मान्युं एने बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि कहे छे.

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परमात्मा] [१३
समकिती चक्रवर्ती छ खंडनो राजा छन्नु हजार राणीओना वृंदमां पडेलो होय
तेने बाह्यत्याग न देखावा छतां अंतरंगमां रागनो विवेक अने रागनो त्याग वर्ते छे
एटले के रागनी भिन्नता अने आत्मानी एकतामां रागनो त्याग वर्ते छे. बहिरात्मा
नग्न दिगंबर थईने अठ्ठावीस मूळगुण पाळे, चामडा उतरडीने खार छांटे तोय क्रोध न
करे पण अंतरमां रागनो अत्याग ने रागनी साथे एकत्वबुद्धि पडी छे ते बहिरात्मा
बाह्यबुद्धिमां राजी थनार मिथ्याद्रष्टि छे. शरीरमां नीरोगता मारा आत्माने साधन थशे,
रोग वखते शरीरमां प्रतिकूळता हती हवे शरीरमां नीरोगता थई, पैसादिनी सगवडता
थई, हवे हुं नीरांते धर्मध्यान करी शकीश-एम आत्मा सिवाय रजकणथी मांडी
बाह्यऋद्धिमां क्यांय अनुकूळता कल्पी जवाय ने प्रतिकूळताना गंजमां एना कारणे
क्यांय अणगमो थाय एनी बुद्धि बाह्यमां रोकायेली होवाथी ते बहिरात्मा छे.
ए भ्रांति ने शंका रहित थईने बहिरात्मपणुं छोडी दे. शुभाशुभभावथी मांडीने
जगतनी समस्त सामग्रीमां अनुकूळता ने प्रतिकूळतामां उल्लासीत वीर्यने छोडी दे.
हरखना सडके चढेलो तारो भाव ए बहिरात्मा छे, तथा प्रतिकूळतामां खेदे चढेलो तारो
भाव ए पण बहिरात्मा छे. ए भ्रांति-शंका रहित थईने बहिरात्मपणुं छोडी दे.
श्रद्धा-ज्ञानमां बहिरात्मबुद्धिनो त्याग करीने अंतरात्माने ग्रहण करी परमात्मानुं
ध्यान कर. अंतरात्मानुं ध्यान करवानुं नथी पण परमात्मानुं ध्यान कर-एनुं नाम
मोक्षनो मार्ग कहेवामां आवे छे.

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१४] [हुं
[प्रवचन नं. ३]
श्री गुरुनो कोलकरारः
परमात्मस्वरूपनी द्रष्टि कर, जरूर परमात्मा थई जईश.
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ८-६-६६]
आ योगसार चाले छे, तेमां छठ्ठी गाथा चाली. त्रण प्रकारना आत्मानुं वर्णन
चाल्युं; परमात्मा, अंतरात्मा ने बहिरात्मा. जोके परमात्मामां अंदर शक्तिमां
भूतनैगमनयथी अंतरात्मा ने बहिरात्मा तो छे पण आ तो प्रगट पर्यायनी वात छे.
परमात्मानुं स्वरूप जाणीने अंतरात्मा थईने बहिरात्मपणुं छोडीने परमात्मानुं ध्यान
करवुं ए गाथानो सार छे. त्रण प्रकारनी पर्याय बतावीने हेतुं शुं?-के दरेक जीवमां
त्रण प्रकारनी शक्ति पडी छे. तेमांथी परमात्मानुं स्वरूप जाणी अंतरात्मा थई
बहिरात्मपणुं छोडी परमात्मानुं ध्यान करवुं ते हेतु छे, ते सार छे. हवे सातमी गाथा
कहे छे;
मिच्छा–दंसण–मोहियउ परु अप्पा ण मुणेइ ।
सो बहिरप्पा जिण–भणिउ पुण संसार भमेइ ।। ७।।
मिथ्या मतिथी मोहीजन, जाणे नहीं परमात्म;
ते बहिरातम जिन कहे, ते भमतो संसार. ७.
* बहिरात्मानुं स्वरूप *
मिथ्यादर्शनथी मोही थयेलो जीव, रागने पोतानुं स्वरूप माने, पापना फळने
पोतानुं माने, पापना फळमां दुःखी छुं एम माने, ज्ञानना क्षयोपशमथी थोडो विकास
थयो त्यां हुं पंडित छुं एम माने-ए बधा मिथ्यादर्शनथी मोहित थयेला जीवो छे. मारु
स्वरूप एक समयमां त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यद्रव्य छे-एनो आश्रय करतो नथी ने कर्मना
उदयथी मळेली बाह्य ने अभ्यंतर सामग्रीमां, मिथ्याश्रद्धा द्वारा हुंपणुं स्वीकारतो, एमां
हुं छुं, ए मारा छे एम मानतो थको मिथ्यात्वथी मोहित थयेलो परमात्माने नथी
जाणतो. पोतानुं स्वरूप जे अनंत ज्ञान, दर्शन ने आनंद आदिनी समृद्धिवाळुं छे तेने
ते जाणतो नथी. फक्त बहारनी अल्पज्ञ अवस्था, रागनी अवस्था अने बहारना
अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोगना अस्तित्वना स्वीकारवामां तेनी द्रष्टि पडी छे.
पोते अनंत लक्ष्मीवाळो छे तेने भूलीने, थोडा पैसावाळो थाय त्यां हुं पैसावाळो

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परमात्मा] [१प
एम मूढ थईने मफतनो माने छे. कर्मना लईने मोह्यो छे एम नथी, पण पोतानुं स्वरूप
जे अनाकुळ आनंद एने स्पर्श्या विना अडया विना, कर्मजन्य सामग्री छे तेमां-अनंत
प्रकारनी बाह्य चीजो तथा असंख्य प्रकारना शुभाशुभ राग ए बधा कर्मना फळनुं
साम्राज्य छे तेमां-हुं पणानी द्रष्टि छे ते मिथ्यादर्शनथी मोहेलो प्राणी छे.
परीक्षामां पास थाय त्यां हुं पास थयो! पण ए तो कर्मनी सामग्रीनुं फळ छे,
ए कांई आत्मानो स्वभाव नथी. पण मिथ्यादर्शनथी मोहेलो प्राणी एमां खुशी थाय
छे, एने ज पोतानुं स्वरूप माने छे. भगवान पूर्णानंद, एक समयमां अनंत समृद्धिनुं
पूरण स्वरूप भगवान आत्मा छे, तेने न मानता, अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीव एक
समयनी अल्पज्ञताने, विकारने ने बाह्य संयोगने पोताना माने छे. परमात्माने जाणतो
नथी ने बाह्य चीजने पोतानी माने छे ते बहिरात्मा छे.
जेम दारू पीवाथी जे बधी चेष्टाओ थाय तेने ते पोतानी माने, तेम कर्मना
संयोगथी थयेल चेष्टाओ-विकार अने पर ते बधाने मिथ्यात्वना दारूने लईने ते
पोतानी माने छे. भगवान आत्मा तो ज्ञान-दर्शन-आनंदनुं धाम छे. पूरण ज्ञान,
दर्शन आनंदनुं धाम छे-एवा आत्माने न श्रद्धतो, एवडी मोटी सत्ताने न स्वीकारतो
अल्प अवस्थाने ने बाह्यचीजने मानतो थको मिथ्यादर्शनथी मोहित थईने त्यां पडयो
छे ते बहिरात्मा छे. अंर्तस्वभावनी प्रतीत नथी ने बाह्यनी प्रतीत छे तेने बहिरात्मा
कहे छे.
अंर्तस्वभाव महान परमात्मस्वरूप छे, एनी श्रद्धा ने ज्ञान करतो नथी,
पोताना परमात्मा-ध्रुवस्वरूपने जाणतो नथी ने मिथ्यादर्शनथी बाह्यमां मोहित थयो छे
तेने भगवाने बहिरात्मा कह्यो छे. पुण्यनी ने पापनी सामग्री ओछी-वधती मळे,
अंदर शुभाशुभभाव ओछा-वधता थाय, परना पक्षे ज्ञाननो ओछा वधतो उघाड थाय,
एने ज आत्मा माने छे पण अंदरमां पोताना परिपूर्ण परमेश्वर परमात्मस्वरूपने
स्वीकारतो नथी, आदर करतो नथी, वलण करतो नथी ते बहिरात्मा छे. ते बहिरात्मा
वारंवार फरीने संसारमां भमशे. अनंत काळथी तो भम्यो छे ने ए बर्हिबुद्धिथी फरी
फरीने संसारमां रखडशे.
आत्मामां एककोर परमात्मानो पिंडलो द्रव्यवस्तु छे पोते, ने एककोर एनी
वर्तमान दशामां अल्पज्ञता, अल्पदर्शन, अल्पवीर्य, विपरीतता, संयोगनी अनुकूळता-
प्रतिकूळता छे; पोताने मानतो नथी तेथी आ बधाने पोताना माने छे तेनुं नाम
मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा कहेवामां आवे छे ए बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि फरी फरीने चार
गतिमां रखडवाना भाववाळो छे. ७.
जो परियाणइ अप्पु परु जो परभाव चएइ ।
सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारु मुएइ ।। ८।।
परमात्माने जाणीने, त्याग करे परभाव;
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. ८.

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१६] [हुं
* अंतरात्मानुं स्वरूप *
जे कोई पूर्णानंद, पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणे ने तेनाथी भिन्न अल्प
ज्ञानने, रागद्वेषने, परने जाणे-भली रीते जाणे, पोताथी भिन्नपणे जाणे ते परभावने
त्याग छे, अने तेने पंडित कहे छे, शूरवीर कहे छे जेणे आत्माना पूरण अखंडानंद
स्वरूपने जाण्युं ने तेनाथी भिन्न विकारने ने परचीजने ‘आ छे’ एम जाणीने बेनी
वच्चे भेदविज्ञान थयुं छे ते पोताना शुद्धस्वभावना आश्रयथी परभावनो आश्रय
करतो नथी एटले के ते परभावने छोडे छे. व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पने पण छोडे छे
तेम कह्युं!
ओछुं ज्ञान होय के वधारे ज्ञान होय तेनी साथे संबंध नथी, अंतर परमात्माना
स्वरूपने जाणतो, पर आदिना स्वरूपने जाणतो, स्वभावनो आश्रय करे छे ने विकारने
छोडे छे तेने पंडित कहेवामां आवे छे. अगियार अंग भण्यो होय के न भण्यो होय,
प्रश्नोत्तर देतां आवडे के न आवडे तेनी साथे कांई संबंध नथी, फकत चैतन्यानंद प्रभु
पूर्णानंदनो नाथ मारो आत्मा तेने जाण्यो ने तेनाथी विपरीत जेटला पुण्य-पापना
भावो कर्मनी सामग्री आदिने जाण्या के ते पर छे, ते स्वभावनो आदर करे छे अने
परनो आदर करतो नथी माटे तेणे द्रष्टिमां परभावोने छोडया छे. आनुं नाम त्याग छे.
आ त्याग विना त्याग आगळ वधे नहीं. अंर्तस्वभावना आश्रय ने आलंबन विना
रागनो त्याग थाय नहीं ने ए रागना त्याग विना बीजो त्याग साचो होय नहीं.
अंतरात्माने पंडित, शूरवीर, वीर, भेदज्ञानी, लघुनंदन-परमात्मानो लघुनंदन
कहेवाय छे. ए लघुनंदन शुं करे छे?-के पोताना पूरण शुद्ध स्वरूपने जाण्युं ने
अनुभव्युं के आज आत्मा अने एना सिवाय शुभाशुभ परिणाम ते परभाव छे एम
द्रष्टिमांथी छूटी गया छे. द्रष्टिमां त्रिकाळ स्वभावनो आदर वर्ते छे ने परभावोनो
त्याग वर्ते छे. आने परभावनो त्याग ने खरेखरो त्यागी कहेवामां आवे छे.
अंदरमां जतां रागादिनो आदर वर्ते छे तेने तो बधुं-आखो संसार ग्रहणपणे
पडयो छे, तेने अंशे पण रागनो त्याग नथी. पूर्णानंद प्रभु अनंतगुणनी गंठडी एवा
आत्मानो श्रद्धामां आदर छे ने वेदन छे के आ आत्मा ते ज हुं एम जेने स्वभावनुं
ग्रहण वर्ते छे तेने पंडित, ज्ञानी ने अंतरात्मा कहेवाय छे. भले पछी तेने बहारमां छ
खंडना राज्य होय, ९६ हजार स्त्री होय, ४८ हजार पाटण, ७२ हजार नगरी आदि
सामग्री होय-पण ए सामग्री ज्यां पर तरीके द्रष्टिमां आवी, तेना तरफना वलणनो
राग पण पर छे, मारा स्वभावमां ते नथी-एम ज्यां द्रष्टिमां आव्युं तेने तो द्रष्टिमां
बधो त्याग ज छे. छ खंडना रागनो द्रष्टिमां त्याग छे. सम्यद्रष्टिने ईन्द्रना इन्द्रासननो
द्रष्टिमां त्याग वर्ते छे अने आखो आत्मा पूरण स्वरूप छे तेने जाणतो थको तेनो
आदर वर्ते छे.
बहिरात्माने एक लंगोटी पण बहारमां न होय, नग्न दशा होय पण अंदरमां
पूर्णानंदना नाथनो आदर नथी ने रागना कणनो आदर छे तेने श्रद्धामां आखा चौद
ब्रह्मांडनो आदर छे, तेने बाह्यत्याग देखावा छतां जरीये त्याग नथी, केम के तेने
परभाव छूटया ज

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परमात्मा] [१७
नथी, स्वभावने जाण्या विना आ परभाव भिन्न छे एम परभाव शी रीते छूटे?
पोषा, प्रतिक्रमणमां सामायिकना नाम धरावीने बेठो पण पूरण शुद्ध स्वरूप अखंड
आत्मानो अंदर श्रद्धामां आदर नथी त्यां तेने दया-दान आदि विकल्प ऊठे ए परनो
ज एकलो आदर वर्ते छे तेथी तेने एकलो परमात्मानो ज त्याग वर्ते छे, तेने परम
स्वभावनो त्याग वर्ते छे.
ज्ञानीने चक्रवर्तीनुं राज्य हो के इन्द्रना इन्द्रासन हो, पण अंतरमां स्वभावनी
अधिकतानी महिमामां बहारना पदार्थो ने तेना कारणो शुभाशुभभाव ते बधानो
द्रष्टिमां त्याग छे. तेथी ते तीर्थंकरगोत्र बंधाय ए भावथी लाभ मानतो नथी. जे
भावनो द्रष्टिमां त्याग वर्ते छे तेनाथी लाभ माने शी रीते? स्वरूपमां एकाग्र थईश
तो लाभ थशे एम माने छे.
द्रव्यलिंगी नग्न मुनि थईने बेठो होय छतां एक अंशनो त्याग नथी तेने त्याग
होय तो अंदर एक मात्र परमात्मानो त्याग छे, तेने चौद ब्रह्मांडनो भोग छे. रागना
एक कणनो आदर छे तेने आखा चौद ब्रह्मांडनो भोग छे.-आवी वस्तुस्थिति छे
बापु!
परभावने जे द्रष्टिमांथी छोडे छे, श्रद्धामां आत्मस्वरूप पकडीने ज्ञानमां आत्माने
प्रत्यक्ष कर्यो छे ते अंतरात्मा संसारथी छूटी जशे. बहिरात्मा बाह्य चीजने-कर्मनी
सामग्रीने पोतानी माने छे ते संसारमां रखडशे कारण के तेनी द्रष्टिमांथी स्वभावनी
अधिकता छूटी गई छे, ने बहारनी अधिकता द्रष्टिमांथी जती नथी तेथी ते नवा कर्मो
बांधशे ने चार गतिमां रखडशे. अंतरात्मा तो शुभाशुभ रागना अभावस्वभाव
स्वरूप पूरण ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करतो थको-चोथा गुणस्थानथी आत्मानो
अनुभव करतो थको ‘प्रगट लहे भवपार’ शुद्ध चैतन्यवस्तुनो अनुभव करनार,
परभावनो त्याग करनार क्रमे क्रमे संसारने मूकी देशे, तेने संसार रहेशे नहीं-एवा
जीवने पंडित, ज्ञानी, वीर ने शूरवीर कहेवामां आवे छे. ८.
णिम्मलु णिक्कलु सुद्धु जिणु विण्हु बुद्धु सिव संतु ।
सो परमप्पा जिण–भणिउ एहउ जाणि णिमंतु ।। ९।।
निर्मळ, निकल, जिनेन्द्र, शिव, सिद्ध, विष्णु, बुद्ध, शांत;
ते परमात्मा जिन कहे, जाणो थई निर्भ्रान्त.
९.
बहिरात्मा ने अंतरात्मानुं स्वरूप कहीने हवे परमात्मानुं स्वरूप कहे छे. राग-
द्वेषना भाव रहित परमात्मा छे. अंतरात्माने राग-द्वेष भिन्न पडया हता पण छूटया
न हता, द्रष्टिमांथी एकत्वबुद्धिमांथी राग-द्वेष छूटया हता पण स्थिरता द्वारा पूरण
छूटया न हता, ए रागादि परमात्माने पूरण छूटी गया छे, आठ कर्मना रजकणने ने
पुण्य-पापना मलिनभावने परमात्माए छोडया छे.

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१८] [हुं
निकल जेने कल-शरीर नथी तेने परमात्मा कहेवाय छे. वैकुंठमां जईने
भगवाननी सेवा-चाकरी करे एम कहे छे ने? पण भगवानने शरीर ज होतुं नथी.
परमात्मा तो एने कहीये के जेने शरीर नथी, राग नथी, जे शुद्ध अभेद एक छे, तेमने
अशुद्धता नथी, बेपणुं नथी. पहेलां कर्मरूपी शत्रु हता तेने जीत्या माटे जिनेन्द्र छे.
आवा सिद्ध भगवानने विष्णु कहीये. जगतने रचे ते विष्णु नथी. भगवान परमात्मा
एक समयना ज्ञानमां त्रण काळ त्रण लोकने ज्ञाता तरीके जाणे, एक समयमां युगपत्
जाणे, एक समयमां पूरुं जाणे माटे तेने विष्णु कहे छे.
भगवानना ज्ञानमां भूत-भविष्य ने वर्तमान त्रण काळ जणाया छे. आवडी
सर्वज्ञदशा!-एम स्वीकारवा जाय त्यारे द्रव्यस्वभावमां द्रष्टि पडया विना एनो स्वीकार
नहीं थाय. भगवाननो एक समयनो एक पर्याय आवडो के त्रणकाळ त्रणलोकने
युगपत्पणे जाणे-एवा ज्ञाननो स्वीकार शुं रागथी करी शके? रागना आश्रये स्वीकार
थाय? पर्यायथी स्वीकार थाय पण ए पर्यायना आश्रये शुं स्वीकार थाय? सर्वज्ञ
स्वरूपी प्रभु तेनो आश्रय लीधा विना पर्यायमां सर्वज्ञपणानो निर्णय न थाय.
सर्वज्ञस्वभावी आत्मस्वरूपनो निर्णय थतां तेने क्रमबद्धनो निर्णय थई जशे ने वीतराग
पर्याय पण थई जशे. एनुं नाम ज पुरुषार्थ छे, पुरुषार्थ एटले कांई खोदवुं छे?
अंतरनी दशा कर्तृत्वमां हती ते अंतरमां अकर्तृत्वमां गई ए पुरुषार्थ छे.
भगवानने विष्णु कहेवामां आवे छे. विष्णु एटले परमात्मा एम नहीं पण
परमात्माने विष्णु कहेवामां आवे छे. एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे तेने
विष्णु कहेवामां आवे छे, ए सिवाय जगतनो कर्ता-हर्ता बीजो कोई विष्णु छे नहीं.
स्व-पर तत्त्वनो भेद पाडीने जाणे तेने बुद्ध कहीये. सर्वज्ञ परमात्मा पोताना स्वरूपने
पूरण जाणे ने लोकालोकने पण जाणे-ए स्वपरने जाणनारा सर्वज्ञदेवने बुद्ध कहेवाय
छे. एकला क्षणिकने जाणे ते बुद्ध नथी.
आवा परमेश्वरने शिव कहेवाय. पोतानुं पूरण कल्याण स्वरूप प्रगट कर्युं छे
माटे तेने कल्याण करनारा शिव कहेवाय छे. शांत वीतराग, परमशांतधारा परमात्माने
परिणमी गई छे माटे तेने शिव कहे छे. अकषाय स्वभावे परिणमीने वीतराग दशाए
परिणमी गया तेने शांत कहीये, तेने परमात्मा कहीये.-एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे, माटे तुं
भ्रांति रहितपणे परमात्मस्वरूपने जाण ने राग-द्वेषने छोड. परमात्मस्वरूप तो तारी
शक्तिमां पडयुं ज छे तेने जाण ने राग-द्वेषने छोड.
आवा परमात्मा छे एम भगवाने कह्युं छे माटे तुं भ्रांति रहितपणे जाण तुं
निभ्रांति थई जा, निःसंदेह थई जा, निःशंक थई जा के आ सिवाय कोई साचा
परमात्मा होई शके नहीं.

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परमात्मा] [१९
[प्रवचन नं. ४]
मुक्तिनो उपायः पोताने परमात्मरूप जाण
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. ९-६-६६]
श्री योगीन्द्रदेव कृत योगसार छे. जेमणे परमात्मप्रकाश बनाव्युं छे तेमणे ज आ
योगसार बनाव्युं छे. बहिरात्मानी व्याख्या थोडी आवी गई, हवे अहीं विस्तारथी कहे छे.
बहिरात्मा परने पोतारूप माने छेः-
देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु मुणेइ ।
सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु भमेइ।। १०।।
देहादिक जे पर कह्यां, ते माने निजरूप;
ते बहिरातम जिन कहे, भमतो बहु भवकूप. १०
आ आत्मा शुद्ध चैतन्य अखंड अभेद वस्तु-पदार्थ छे. तेने छोडीने शरीर, घर,
धन, धान्य, मकान, आबरू, कीर्ति, शरीरनी क्रिया के अंदरमां पुण्य-पापना भाव ए
बधां मारा छे एम माने छे ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. ज्ञान आनंद आदि
त्रिकाळी शुद्ध स्वरूपमां ज नथी एवा शुभाशुभ विकल्पो, चार गति, लेश्या, छकाय,
कषाय आदि भावो परभाव छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी. शरीरथी मांडीने रागनी
मंदता तीव्रताना शुभाशुभभाव ए बधा आत्माथी बाह्य छे.
शास्त्रमां आनंदस्वरूप अभेद आत्माथी दया-दान-व्रत के हिंसा-कषाय-गति
आदि भावोने बाह्यभावो कह्यां छे. एवा बाह्यभावोने जे आत्मा माने तेने अहीं
मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा मूढ कह्यो छे. अखंड ज्ञानानंदमूर्ति आत्मा सिवायना जे कोई
बर्हिभावो मारा छे, श्रावकना छ प्रकारना व्यवहार कर्तव्यना भावो ए शुभ राग छे
ने पंचमहाव्रतादिनुं आचरण ए मुनिनो शुभ राग छे. ए आचरण मारुं छे, ए
आचरणथी मारुं हित थाय एम माननार बहिर्दष्टि छे, मिथ्याद्रष्टि छे, अन्तर्दष्टि
नथी.-एम सर्वज्ञ परमेश्वर कहे छे.
ज्ञानीने शुभ आचरणना एवा भाव तो होय छे ने?-के होय छतां तेने पोतानुं
स्वरूप जाणतो नथी, तेनाथी हित मानतो नथी. श्रावक अने मुनिना आचरणना
भावथी जे लाभ माने ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि छे. शुभ आचरण मारुं स्वरूप छे
अथवा ते मारा कल्याणनुं साधन छे एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. परमार्थे व्यवहार
आवश्यक, शुभ विकल्प वृत्ति ए बधा पर छे, विभाव छे, विकार छे, सदोष छे.
उदयना २१ बोलमांथी कोई बोल आत्मानो माने ते बहिरबुद्धि मिथ्याद्रष्टि छे.
वस्तुस्वरूपनी द्रष्टिए ए बधा बर्हिभाव छे. योगीन्दुदेव एम कहे छे के देह, शरीर,
वाणी,

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२०] [हुं
मन, कर्म, धन, धान्य, लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र ए बधा भगवान आत्माथी जुदी चीज छे.
अंदरमां जे शुभ परिणाम ऊठे छे, जेने शास्त्रमां व्यवहार आचरण कह्युं एवा जे
शुभआचरणना भाव ते पण खरेखर बहिरभाव छे. केम के ते अंर्तस्वभाव छे नहीं
ने अंतरस्वभावमां रहेता नथी. ज्ञानाचार, दर्शनाचार आदिना विकल्प ते शुभ
आचरणना भाव विभाव छे. ते ज्ञानानंद स्वरूपमां नथी ने पूरण ज्ञानानंदनी प्राप्ति
थाय त्यारे रहेता नथी माटे ते बर्हिभावो छे.
एक समयमां अखंड आनंदकंद अभेद चिदानंदनी मूर्तिने आत्मा तरीके जाणे
त्यारे सम्यग्ज्ञान ने सम्यग्दर्शन थाय. जेवो एनो स्वभाव छे तेवो एनो स्वीकार
करवो ए तो सम्यग्दर्शन छे. पण एवो आत्मा न मानता, आत्माथी बाह्य चीज
विकल्प आदि के जे एनामां नथी, उत्पन्न थाय छतां तेना स्वभावमां रहेता नथी ने
तेना स्वभावने साधनरूपे मदद करता नथी-एवा-दया-दान-व्रत-भक्ति-पूजाना शुभ
विकल्प छे, तेने स्वभाव माने के विभावने स्वभावनुं साधन माने के मारी चीजमां ए
छे एम माने ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि छे.
शुभभाव, तेनाथी बंधायुं पुण्य ने तेनुं फळ आ रूपिया बे-पांच हजारनो
पगार-ए त्रणे मने मळे के ए मारा छे-एम मानवुं ते मूढता छे. पुण्यना परमाणुओ,
पुण्यना भाव अने एना फळनी बहारनी विचित्रताना भभके पोते वध्यो एम
माननारो मूढ छे एम अहीं कहे छे.
‘लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो?
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो !’
एक शेठने आखा शरीरे सोपारी जेवा गूमडां हतां, मरतां सुधी रह्यां; पण ए
मने थयुं छे एम मानवुं ते बहिरात्मबुद्धि छे. ए गूमडां आत्मामां थया नथी, ए तो
जडमां थया छे. एवी रीते सुंदरता, कोमळता, नरमाई विगेरे जडनी दशामां थतां मने
थयुं, हुं रूपाळो छुं, हुं नमणो छुं, हुं सुंदर छुं,-ए बुद्धि शरीरादि परने पोताना
माननारनी मिथ्याबुद्धि छे.
निज परमात्मस्वरूप सच्चिदानंद स्वरूप ज्ञायकमूर्ति अखंडानंद ध्रुव अनादि
अनंत स्वभावथी जेटला बाह्यभावो तेने पोताना माने, तेनाथी पोताने लाभ माने, ते
मारुं कर्तव्य छे एम माने, तेनाथी जुदो केम पडे? दया-दान-व्रत-भक्ति आदिना
शुभभावो ते मारुं कर्तव्य छे अने हुं खरेखर तेनो रचनारो छुं एम जे माने ते एवा
कर्तव्यने केम छोडे? एवा कर्तव्यने पोताना माननार बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे
एम परमेश्वरे कह्युं छे.
चौदमा गुर्णस्थान सुधी असिद्धभाव छे, ए बधा असिद्धभाव, अपूरणभाव,
मलिनभाव, विपरीतभाव, खंडखंडभाव एने पोतानी वस्तु माने तेने बहिरात्मा मूढ
जीव कहे छे. भगवान आत्मा ज्ञायकनी मूर्ति चैतन्यसूर्य आनंदनो कंद एवुं स्वयंसिद्ध
स्वतत्त्व एने पोतानुं न मानता एनाथी बाह्य कोई पण विकल्प-व्यवहार आचार,
व्यवहार क्रिया, व्यवहार महाव्रत,

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परमात्मा] [२१
व्यवहार श्रद्धा आदिना विकल्प ए बधा विभावो मारी चीज छे अथवा तेनाथी मारुं
हित थशे एम माननार ए विभावने ज-ए बहिरभावने ज आत्मा माने छे.
आ तो महान सिद्धांत छे. एक स्व रही गयो ने तेनाथी भिन्न जे देहादि तेने
आत्मा माने अर्थात् तेनाथी हित माने अर्थात् ई व्यवहार आचारने पोताना
स्वभावनुं साधन माने, स्वभावने ने विकारने एक माने ते विकारने ज-देहादिने ज
आत्मा माने छे. तेनी द्रष्टि चिदानंद ज्ञायक उपर नथी पण तेनी द्रष्टि खंडखंड आदि
भाव उपर पडी छे. ते अपंडित कह्यो छे. आत्मा जेवो छे तेवो जेणे जाण्यो ने मान्यो
तेने पंडित कह्यो छे. तो तेनाथी विरुद्ध जे विकल्प राग आदिने पोतानुं स्वरूप माने
तेने अपंडित कहीये, मूरख कहीये, बहिरात्मा कहीये.
एककोर शुद्ध ध्रुव चैतन्यस्वरूप परमात्मस्वरूप छे, तेने पोतानो मानवो ए तो
धर्मदशा थई पण एवुं एणे अनादिथी मान्युं नथी, परंतु तेनाथी विरुद्ध जे अल्पज्ञता,
अल्प अवस्था, पुण्य-पापना विकल्पो के संयोगी बाह्य चीज मने हितकर छे, साधन
छे, मारा छे, एवी मान्यतावाळाने बहिरात्मा कहे छे.
मंदिर, पूजा ने यात्राना जे विकल्पो छे ए बधा हो भले पण विभाव तरीके
होय छे. एना काळे हो भले पण मने कांई लाभ करे छे एम नथी, छतां ए भाव
व्यवहार तरीके आव्या विना रहेतो नथी. जेम एकरूप अखंड चैतन्यवस्तु आत्मा छे ने
जेम शरीर आदि जडरूप पदार्थ पण छे अने शुद्ध चैतन्यवस्तुनुं भान थतां जेम शरीर
आदि बीजी चीज कांई वई जती नथी तेम अंदरमां पूरणदशा ज्यां सुधी प्राप्त न थाय
त्यां सुधी व्यवहारना भाव होय छे, पण ते पर तरीके होय छे, स्व तरीके खतववा
माटे होता नथी.
श्रावकना व्यवहार-आचार ने मुनिना व्यवहार-आचरण मने हितकर छे एम
माननारा बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि छे एम अहीं कहे छे. ए भाव होय छे, आवे छे पण
ए आत्मानुं कर्तव्य नथी. कमजोरीना काळमां ए भाव आवे छतां ए हितकारी नथी.
हितकारी नथी तो ए भाव लावे छे शुं काम?-भाई! बापु! ए भावने ते लावतो
नथी पण आवे छे. परंतु ए विकल्पो आत्माने कल्याण करनार छे के आत्मानुं स्वरूप
छे एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे. मारा स्वरूपमां हुं छुं ने ते भावो मारामां नथी तेनुं
नाम अनेकान्त कहेवामां आवे छे.
अनादिकाळथी परने पोताना मानतो आवे छे ने परने छोडतो नथी एटले
परमां-संसारमां वारंवार भ्रमण करतो रहे छे. आत्माना असली स्वरूपने जाण्या विना
विकृतरूपने पोतानुं स्वरूप माने छे तेथी विकृतरूपने केम छोडे? तेथी ते विकृतिमां ज
फरी फरी भ्रमण करशे. संसारमां ज फरी फरी भ्रमण करशे. १०
ज्ञानीए परने आत्मा नहीं मानवो जोईए. सत् स्वरूपनो स्वीकार करनार
धर्मीए असत्मां पोतापणुं मानवुं न जोईए.-एम हवे बहिरात्मानी सामे
अंतरात्मानी विशेष वात कहे छेः-

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२२] [हुं
देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणुं ण होहिं।
इउ जाणेविणु जीव तुहुं अप्पा अप्प मुणेहि ।। ११।।
देहादिक जे पर कह्यां, ते निजरूप न थाय;
एम जाणीने जीव तुं, निजरूपने निज जाण. ११
बहु टूंका शब्दोमां एकलो माल भरी दीधो छे. आ तो एकलुं माखण तारवीने
मूक्युं छे. शुभाशुभभाव, व्यवहार आचरण, क्रिया, देह-वाणी-मन ए बधा आत्मा
थई शकता नथी. ज्ञानमूर्ति प्रभुथी भिन्न्न जे पदार्थ कह्यां ते आत्मा थई शकता नथी,
ते अणात्मापणे बहार रहे छे. आत्मा जे स्वभाव स्वरूपे छे तेमां ते पदार्थो आवी
शकता नथी, ते पदार्थो आत्मापणे थई शकता नथी. शुद्ध ज्ञाननी मूर्ति चैतन्यसूर्य
प्रभुरूपे पुण्य-पापना भाव के शरीर थई शकता नथी. देहादि जे बाह्य कह्यां ते आत्मा
थई शकता नथी; माने तो ए मान्यता बहिरात्मानी थई, परंतु ए बाह्य पदार्थो
आत्मा थई जता नथी.
एक रागनो कण-शुभरागनो सूक्ष्म कण ने रजकण ए आत्मा थई शकता नथी.
दया-दाननो विकल्प हो के परमाणु रजकण हो, ए पर पदार्थ कांई आत्मा थई शकता
नथी. राग विभाव ए स्वभाव थई शके? रजकण अजीव ए जीव थई शके?
स्फटिकनी साथे राता-पीळा फूल पडयां होय तो ए फूल कांई स्फटिक थई जाय? अने
स्फटिकमां राती-पीळी झांय देखाय ए झांय कांई स्फटिकरूपे थई जाय?
जेम निर्मळता रे स्फटिक तणी, तेम ज जीव स्वभाव रे...
श्री जिन वीरे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे...
जेम स्फटिक निर्मळ पिंड छे, तेम भगवान आत्मा निर्मळ ज्ञान ने आनंदनो
पिंड छे. जेम स्फटिकनी जोडे लाल-पीळा फूल होय ए फूल कांई स्फटिक थई जतां हशे?
अने जे लाल-पीळी झांय पडी ते स्फटिकपणे थाय? तेम भगवान आत्माथी बाह्य जे
पदार्थ ते आत्मा थई शकता नथी. पुण्या-पापना विकल्पो ने शरीरादि बाह्य पदार्थ
स्फटिक जेवा निर्मळानंद भगवान आत्मारूपे थई शकता नथी. भगवान आत्मारूपे
कोण थई शकता नथी?-के विभाव शरीर ने वाणी आत्मारूपे थई शकता नथी.
वळी ते पदार्थो रूपे आत्मा थई शकतो नथी. आ देहादि तो रजकण माटी छे,
अंदर शुभाशुभ भाव छे ते राग छे; ते राग आत्मारूपे थई शके? अने आत्मा
रागादिरूपे थई शके? आहाहा! परभावे भूल्यो रे आत्मा...परभावना मोहमां भगवान
पोते पोताने भूली गयो...कहे छे के सच्चिदानंद प्रभु आत्मा शुं कांई विभावरूपे थाय?
ए आत्मा शुं कांई शरीररूपे थाय? ए आत्मा शुं कांई वाणीरूपे थाय? विभावना
विकल्पमां आत्मा आवे तो ए रूपे थाय ने? विभावना विकल्पमां कांई आत्मा आवे?
वाणीमां कांई आत्मा आवे? शुभभावना विकल्पमां जो आत्मा आवे तो आत्मा
शुभभावरूपे थई जाय. पण आत्मा एमां आवे नहीं. केम के विभाव ए तो बाह्यचीज
छे, तेथी विभाव ते स्वभाव न थाय ने स्वभाव ते विभाव न थाय.

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परमात्मा] [२३
उदयभाव, पंच तप-आचारना जे व्यवहारना विकल्पो तेना रूपे प्रभु थाय
छे?-के ए विकल्पो प्रभुरूपे थाय छे? न थाय भाई, न थाय. अरे प्रभु! तुं क्यां
छो?-ए जरीक जो तो खरो! ज्यां तुं छो त्यां विकार नथी ने विकार छे त्यां तुं नथी.
पुण्य-पापना विकल्पोनी विभावदशामां सच्चिदानंद प्रभु नथी अने ए विभावो
स्वभावरूपे त्रणकाळमां थई शकता नथी.
पुण्य-पापना आस्रवना भाव अने कर्म शरीर अजीवभाव, ए आस्रवभाव ने
अजीवभाव स्वभावरूपे थतां नथी अने चैतन्यगोळो ध्रुव अनादि अनंत सत्त्व
भगवान आत्मा पोते आस्रवरूपे-अजीवरूपे थतो नथी. अजीव, आस्रव ने आत्मा-
त्रण तत्त्व निराळा छे ने! तेथी कर्म शरीर ने वाणी ए अजीव अने अंदर जे
शुभाशुभभाव ऊठे ते आस्रव, तेमां कांई आत्मा न आवे. दया-दान-व्रत-भक्तिना
परिणाममां आत्मा न आवे ने ए आस्रवभावो आत्मारूपे थाय नहीं. तेथी आत्मारूपे
थया विना ए आस्रवभावो आत्माने लाभ केम करी शके?
एम जाणीने, एवुं ज ज्यां स्वरूप छे के ज्ञानसूर्य प्रभु कदी अजीवरूपे थतो
नथी ने आस्रवरूपे थतो नथी तथा अजीव अने आस्रवो जीवरूपे थतां नथी-एम सत्य
समजीने हे जीव! तुं अपनको पहिचान. भगवान चैतन्यसूर्य प्रभु तरफ तुं जो. तुं
यथार्थ आत्मानो बोध कर. शुद्ध स्वरूप भगवान तरफनो झूकाव करीने तुं जो के आ
आत्मा एकलो ज्ञाननो सागर आनंदनी मूर्ति छे.-एम आत्माने जाण.
परनी दया पाळी शकुं छुं, परना काम करी शकुं छुं-एम कहेनारने पोताना
सिवायनी पर चीज जुदी नथी; ए अने हुं बन्ने एक छीए माटे हुं परना काम करी
शकुं छुं, पण बापु! तुं जुदो ने ए जुदा. त्यां एनी दया कोण पाळे? जे जुदा पदार्थ छे
एनी जुदी अवस्थाने बीजो शी रीते करे? शरीर, कर्म, कुटुंब, देश-ए तो परवस्तु छे;
तो ए परना काम तुं करी शके छो? जो तुं परना काम करी शकतो हो तो बे एक थई
गया, तेथी पोतानुं सत्त्व नाश थईने तुं पररूपे थई गयो-एम ते मान्युं!
तेथी हे जीव! आम समजीने तुं अपने आत्माको पहिचान, यथार्थ आत्मानो
बोध कर. ११.
आत्मज्ञानी ज निर्वाण पामे छे. आत्माना भानवाळानी ज मुक्ति थाय छे.
आत्माना भान विनानाने संसारमां रखडवुं थाय छे. एम बन्ने वात अहीं कहे छेः-
अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तो णिव्वाणु लहेहि ।
पर अप्पा जइ मुणहि तुहुं तो संसार भमेहि ।। १२।।
निजने जाणे निजरूप, तो पोते शिव थाय;
पररूप माने आत्मने, तो भवभ्रमण न जाय. १२.
जो आत्माने आत्मा समजशे एटले के भगवान आत्मा ज्ञान ने आनंदनो पिंड
प्रभु ज्ञाताद्रष्टा छे ते ज मारुं स्वरूप छे ने ते ज हुं आत्मा छुं-एम आत्माने पोताना
शुद्ध

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२४] [हुं
स्वभाववाळो समजशे ते निर्वाणने पामशे. जेणे आत्मा जाण्यो, तेमां द्रष्टि मांडी ने
एकाकार थई ते पूर्णानंदरूपी निर्वाण ने मुक्ति पामशे.
जो तुं भगवान आत्माने अंदर ज्ञानानंद चैतन्यसूर्य आत्मा तरीके जाण ने
समज, तो छूटा तत्त्वने छूटुं जाणतां अल्पकाळमां तद्न छूटुं जे निर्वाणपद तेने पामशे.
एमां ने एमां घोलन करतां निर्वाणने पामशे, आत्मा चैतन्यज्योत ज्ञायक छे एम
जाण्युं ने एमां ने एमां स्थिर थशे एटले वितरागताने पामशे; वच्चे व्यवहार आवशे
एनी अहीं वात पण करी नथी.
पुण्य-पापना विकल्प विनानी चीज ते भगवान आत्मा एम जाण्युं एटले
बस! पछी एमां ने एमां द्रष्टि ने स्थिरता करतां निर्वाणने पामशे. आहाहा! चैतन्य
प्रभु, चैतन्यप्रकाशनी मूर्ति! प्रकाशनो प्रकाशक; रागनो, जडनो प्रकाशक आत्मा अने
पोताना स्वरूपनो पण प्रकाशक एवो प्रकाशक स्वरूप भगवान आत्मा जाण्यो के हुं तो
स्वपरनो प्रकाशक प्रकाशनो पुंज आत्मा छुं-एम जाणीने तेमां ज स्थिरता करतां करतां
निर्वाणने पामशे.
हवे तेनाथी ऊलटी वात कहे छेः
‘पररूप माने आत्माने, तो भवभ्रमण न जाय.’
आत्मा सिवाय कर्म, शरीर, उदयभाव आदि परभावने मलिनभावने, क्षणिक
विकारी भावने जे आत्मा मानशे के आ अस्तित्वमां हुं छुं-ते तेनाथी छूटशे नहीं
एटले संसारमां रखडशे. आत्माने आत्मा जाणे तो मुक्ति ने आत्माने पररूपे जाणे तो
संसारभ्रमण, विकार ते संसार छे, विकारने पोतारूपे मानशे तो एमां ने एमां रहेशे,
विकारमां ने विकारमां रहेशे, संसारमां ने संसारमां रहेशे.
विकारने शरीरने, कर्मने-जे तारा स्वरूपमां नथी तेना अस्तित्वमां जो तारुं
अस्तित्व मान्युं तो बस! ए छूटशे नहीं. छूटशे नहीं एनुं नाम ज संसार!-एम
मुक्ति अने संसारनी बन्ने वात एक गाथामां समावी दीधी.

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परमात्मा] [२प
[प्रवचन नं. प]
जिन-वचनः
परमात्म–विमुखताथी बंध
परमात्म–सन्मुखताथी मोक्ष
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ११-६-६६]
श्री योगीन्दुदेव एक दिगंबर संत थया छे. एमणे आत्मानो अंतर योग एटले
के वेपारनो सार के जे आत्म-वेपारथी आत्मानुं कल्याण ने मुक्ति थाय ते आ
योगसारशास्त्रमां वर्णव्यो छे. तेमां बार गाथा थई गई छे. हवे १३ मी गाथा कहे छेः-
ईच्छारहित तप निर्वाणनुं कारण छेः-
इच्छा–रहियउ तव करहि अप्पा अप्पु मुणेहि ।
तो लहु पावहि परम–गई फुडु संसारु ण एहि ।।१३।।
विण ईच्छा शुचि तप करे, जाणे निजरूप आप;
सत्वर पामे परमपद, तपे न फरी भवताप. १३.
पोताना पवित्र शुद्ध आनंद स्वरूपने जाणीने, शुभाशुभ ईच्छारूप रागने रोकीने
पोताना शुद्ध पवित्र स्वरूपमां तपवुं एटले लीन थवुं तेने ईच्छारहित तप कहेवामां
आवे छे. पुण्य-पापना राग रहित शुद्ध आत्मस्वभावनुं ज्ञान करीने पुण्य-पापना
भावने रोकीने स्वरूपमां लीन थाय तेने तप कहेवामां आवे छे अने ते तपथी मुक्ति
थाय छे.
आत्मा वस्तुस्वरूपे ईच्छारहित छे. आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूपी अनंत आनंदनी
मूर्ति छे, एमां ईच्छा ज नथी. तेथी जे ईच्छा छे तेनो आश्रय-लक्ष छोडीने जेमां
ईच्छा नथी एवा ज्ञान-दर्शन ने आनंदमय आत्माना श्रद्धा-ज्ञान ने लीनता वडे-शुद्ध
स्वरूपमां शुद्ध उपयोगनी लीनता वडे संवर ने निर्जरा थाय छे.
अशुभ भाव हो तो पाप थाय, दया-दान आदि शुभ भाव हो तो पुण्य थाय
पण धर्म न थाय. चिदानंद स्वरूप आनंदमूर्ति भगवान आत्माना भान विना एकला
उपवास आदि करे ने तेमां रागनी मंदता होय तो मिथ्यात्व सहित पुण्य बांधे पण
तेने धर्मनुं स्वरूप कहेवामां आवतुं नथी के तेनाथी जन्म-मरणना अंत आवता नथी.
भगवान आत्मा पोताना वीतरागी निर्दोष अकषाय स्वरूपने जाणीने तेमां लीन थाय
तेनुं नाम ईच्छारहित कहेवामां आवे छे ने तेनाथी जन्म-मरणना अंत आवे छे.
हुं अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप छुं-एवुं जेने ज्ञान नथी ते तेमां ठरे केम?
पोतानामां

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२६] [हुं
जेने अतीन्द्रिय आनंद न भासे ते तेमां ललचाय केम? जेने पुण्यपापना परिणाममां
ठीकपणुं लागतुं होय ते त्यांथी खसे केम? माटे भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन-आनंद
स्वरूप छे तेने जाण, केम के ते ईच्छा विनानी चीज छे. तेथी ईच्छा विनानी जे चीज
छे तेना लक्षे ईच्छाने टाळीने वीतरागस्वरूपमां ठरे तेने ईच्छारहित तप कहे छे.
पवित्र आनंदस्वरूपमां ठरे ने लीन थाय एटले ईच्छा रोकाई गई ने स्वरूपमां लीन
थयो तेने मुक्तिनो मार्ग कहेवामां आवे छे.
ईच्छाने-रोकीने एम कहेवुं ए पण नास्तिथी एक वात छे. ज्ञायकनी सत्तानुं
भान करीने तेमां द्रष्टि ने स्थिरता करतां ईच्छा रोकाई जाय छे ने स्वरूपमां लीनता
थाय छे तेने परमात्मा तप अने धर्म कहे छे. आहार न लेवो के अमुक रस न लेवो-
ए तो बधी लांघण छे, चारित्रनी रमणता ते तप छे. अनादिथी रागमां रमे छे,
पुण्य-पापना रागना विकल्पमां रमे छे ते संसार छे. ए पुण्य-पापना रागथी खसीने
जेमां ए पुण्य-पाप नथी एवा भगवान आत्माना स्वभावमां ठरवुं ते तप ने
मुक्तिनो उपाय छे.
आत्माने जाण्या पछी तप थाय एम कह्युं, पण अमे तो आत्माने जाणवा माटे
तप करीए छीए! बापु! आत्माने जाण्या विना तप शी रीते होय? तमारुं नाम
जाणवुं होय तो केटला उपवास करे त्यारे नाम जणाय? मारे तमारुं नाम पूछवुं नथी,
उपवास करीने तमारुं नाम जाणवुं छे, तो केटला उपवास करवाथी नाम जणाय?
भाई! पूछवुं पडे ने?-के तमारुं नाम-ठाम शुं? ज्ञान द्वारा ज अज्ञाननो नाश थई शके
छे. तेथी आत्मा पोताना आत्मानुं प्रथम ज्ञान करे के जाणनार देखनार ते आत्मा-एम
आत्मानो विश्वास ने श्रद्धा-ज्ञान करीने, रागथी खसीने स्वरूपमां ठरे त्यारे तप थाय
छे ने तेने धर्म कहेवामां आवे छे.
मोक्षस्वरूप भगवान आत्मामां लीन थवाथी अल्पकाळमां मोक्ष दशाने पामे छे,
तेने पछी चार गति होती नथी. पंचम परम गति पाम्या पछी तेने फरीथी अवतरवुं
पडतुं नथी. जेणे भगवान आत्माना शुद्ध स्वभावनो विश्वास करीने, विश्वासे तेमां
रमीने ते द्वारा जेणे परम गतिने प्राप्त करी ते फरीथी संसार पामतो नथी. अतीन्द्रिय
आनंदमां जे लीन थयो, पूरण लीनता पाम्यो ते हवे त्यांथी पाछो खसे-एम
त्रणकाळमां बनतुं नथी. माखी जेवुं प्राणी पण साकरनी मीठासमां लीन थया पछी तेनी
पांख चोंटी जाय के बाळकना आंगळाथी थोडी दबाय तोपण माखी ते मीठासने छोडती
नथी, उडती नथी. तेम आनंदस्वरूप आत्मानो जेने विश्वास आव्यो छे, आत्मानुं ज्ञान
करीने तेनो विश्वास आव्यो ने तेमां ठरे छे, तपे छे, लीनता करे छे ते अल्पकाळमां
पर्यायमां मुक्तदशाने पामे छे ने पछी ते संसारमां फरी अवतरतो नथी. १३.
हवे चौदमी गाथा छे, आ गाथा बहु समजवा जेवी छे. कहे छे के परिणामोथी
ज बंध ने परिणामोथी ज मोक्ष थाय छे.

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परमात्मा] [२७
परिणामें बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि ।
इउ जाणेविणु जीव तुहुं तहभाव हुं परियाणि ।। १४।।
बंध-मोक्ष परिणामथी, कर जिनवचन प्रमाण;
नियम खरो ए जाणीने, यथार्थ भावो जाण. १४.
भगवान सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ तीर्थंकर परमात्माए परिणामोथी ज कर्मबंध
कह्यो छे. तारा जे परिणाम छे तेनाथी ज बंध थाय छे. कोई जीवनी हिंसा के दयाथी
बंधन थतुं नथी पण तारा परिणामथी भगवाने बंध कह्यो छे. श्री समयसारमां पण
भगवान पोते एम कहे छे के कोई वस्तुना आश्रये बंध थतो नथी, पर जीव मरे के
बचे तेना आश्रये बंध थतो नथी. तारा जेवा शुभ ने अशुभभाव-मिथ्याभाव तेनाथी
बंध थाय छे. शुद्धस्वभावनी सन्मुखता छोडी दईने परसन्मुखताना तारा परिणाम ते
एक ज बंधनुं कारण छे.
आत्मा शुद्धस्वरूपी छे, तेनी सन्मुखताना परिणाम ते मोक्षनुं कारण छे अने
तेनी विमुखताना तारा जे परिणाम ते बंधनुं कारण छे. कर्मना लईने बंध थाय के
सामो जीव जीवे-मरे ते बंधनुं कारण छे ज नहीं. भले ए परिणाममां पर चीज
निमित्त हो, पण ए चीज बंधनुं कारण नथी. तारा स्वस्वभावनी विमुखता ने
परचीजनी सन्मुखताना तारा मिथ्यात्व परिणाम ने पुण्य-पापना परिणाम ते एक ज
बंधननुं कारण छे.
जेम पोताना अशुद्ध परिणाम-मिथ्यात्वना परिणाम, शुभाशुभभावना,
अव्रतना, प्रमादना, कषायना तारा जे परिणाम ते परसन्मुखताना परिणाम ज बंधने
उत्पन्न करावनारा छे. तेम तारा परिणामथी ज-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना
परिणामथी ज मोक्ष छे. स्वसन्मुखताना परिणाम ज मोक्षनुं कारण छे ने तेने छोडीने
मिथ्यात्वना अव्रत आदिना परसन्मुखताना परिणाम ज बंधनुं कारण छे-एम
तीर्थंकरदेव सो इन्द्रो ने गणधरोनी उपस्थितिमां कहेता हता.
पोताना शुद्ध स्वभावनी सन्मुखतारूप निश्चयरत्नत्रयना परिणाम ज मोक्षनुं
कारण छे-एम तुं जाण-एम भगवान फरमावे छे. पोतानी शुद्ध संपदाने छोडीने एना
माहात्म्यने मूकीने पोताथी अधिकपणे पर वस्तुनी किंमत करवारूप मिथ्यात्वना
परिणाम अने तेनी साथे जे शुभ ने अशुभ परिणाम ते एक ज बंधनुं कारण छे.
चार गतिमां रखडवानुं आ एक ज कारण छे. नवा कर्मो जे बंधाय ते तारा
परिणामथी बंधाय छे, परचीजथी बंधाता नथी. पर जीव मरे के पर जीव बचे, लक्ष्मी
जाय के रहे, लक्ष्मी आववानी जे क्रिया थाय अथवा कंजुसाईनी जे क्रिया थाय ते कांई
तने बंधनुं कारण नथी. परंतु तेना तरफनी रुचि ने आसक्तिपूर्वकना तारा जे
परिणाम ते एक ज बंधनुं कारण छे, बीजुं बंधनुं कारण नथी, पोताना परिणाम
बंधनुं कारण ने कर्म पण बंधनुं कारण-एम बे कारण छे ज नहीं. बीजुं निमित्त भले
हो पण बंधनुं कारण तो एक ज जीवना पोताना परिणाम ज छे.
भगवान आत्माना शुद्ध आनंदस्वभावने भूलीने परमां के पुण्य-पापना
भावमां क्यांय पण सुख छे एवी मान्यताना परिणाम ते तेने संसारना बंधनुं कारण
छे अने ते ज परिणामथी

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२८] [हुं
गुलांट खाईने शुद्ध स्वरूपी भगवान आत्मानी श्रद्धा-ज्ञान ने स्थिरताना परिणाम ज
मोक्षनुं कारण छे, देहनी क्रिया मोक्षनुं कारण नथी एम कहे छे! मोक्ष पण आत्माना
परिणामथी थाय, देहनी क्रियाना निमित्तथी थाय नहीं. स्वभावनी महिमानुं ज्ञान,
स्वभावनी महिमानो विश्वास, स्वभावनी महिमामां लीनतारूप स्व-अभिमुखना
परिणाम ए ज भगवान आत्माने मुक्तिनुं कारण छे, पण बे-पांच लाख रूपिया दान
देवाथी कांई मुक्ति के धर्म थई जतो नथी. अरे! दानना शुभरागना परिणाम तो बंधनुं
कारण छे-एम अहीं वात चाले छे, केम के ए तो परसन्मुखताना परिणाम छे. धर्मीने
दया-दान आदिना परिणाम होय खरा, आवे खरा, पण ए जाणे छे के आ
बंधपरिणाम मारा अबंधस्वरूपी भगवान आत्माने बंधनुं कारण छे, ने स्वसन्मुखताना
अबंधपरिणाम मारा अबंधस्वरूपी भगवान आत्माने छूटवानुं कारण छे.
आ तो योगसार छे ने! कहे छे के स्वरूपनी सन्मुखतानो वेपार ए परिणाम
मुक्तिनुं कारण ने स्वरूपथी विमुख परिणाम ते बंधनुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टि हो के
मिथ्याद्रष्टि हो जे अशुद्ध परिणाम थया ते बंधनुं ज कारण छे. सम्यग्द्रष्टिने पण
व्रतादिना जेटला परिणाम आवे ते परसन्मुखताना परिणाम छे ने जेटला
परसन्मुखताना परिणाम छे तेटलुं बंधनुं कारण छे तथा जेटला स्वसन्मुखताना
परिणाम छे ते ज परिणाम पूरण शुद्ध परिणामरूपी मुक्तिनुं कारण छे.
परिणामथी ज मुक्ति ने परिणामथी ज संसार छे एम तुं जाण. एम जाणीने
ए बन्ने भावने तुं ओळख. परसन्मुखताना परिणामनुं ज्ञान कर अने स्वसन्मुखताना
परिणामनुं ज्ञान कर. पूर्णानंदना नाथनी सन्मुखना परिणामने तुं जाण अने तेनी
विमुखना परिणामने तुं जाण. आ तो सम्यग्द्रष्टिने कहे छे के ज्ञान तो बन्नेनुं करवानुं
छे. समकितीने पण विषय-कषायना काम-क्रोधना परिणाम आवे छे, दया-दान-व्रत-
भक्तिना परिणाम आवे छे पण एने तुं बंधना कारण जाण.
अरे! ज्ञान शुं न जाणे! त्रण काळ त्रण लोकने जाणवावाळुं चैतन्यतत्त्व
साधक स्वभावने ने बाधकपरिणामने केम न जाणे? जेने त्रण काळ ने त्रण लोक एक
समयनी पर्यायमां समाई जाय छे-एवो भगवान आत्मा साधकपणामां स्वसन्मुखना
परिणामने अने परसन्मुखना परिणामने बराबर जाणी शके छे.
भाई! तारे जन्म-मरण रहित थवुं होय तो आ वात छे. बाकी तो आ चार
गतिमां धोका (-मार) तो अनादिथी खाई रह्यो छे. हेरान हेरान थई गयो. एक
चार-छ कलाक बोलाय नहीं के पडखुं फरी शकाय नहीं त्यां हाय हाय! क्यांय सख
पडतुं नथी! अकळामण अकळामण थाय छे! पण अकळामण शेनी छे? अकळामण तो
तारा रागनी छे, पडखुं न फरवानी नथी. परनुं करे कोण? अहीं तो कहे छे के जडनी
अवस्थाना अभिमानना परिणाम बंधना कारण छे. तने खबर नथी बापु! भगवान
आत्मा चिदानंदनी मूर्ति प्रभु छे तेनी सन्मुखना परिणाम ते एक ज तने हितकर अने
कल्याणनुं कारण छे, ए सिवाय कोई तने हितकर के कल्याणनुं कारण छे नहीं.

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परमात्मा] [२९
मुनिव्रत, श्रावकना व्रत, तप, भक्ति, पठन-पाठन-इत्यादिनो राग, मंत्र-जापनो
रागए-ए सर्वे बंधनुं ज कारण छे. मोक्षनुं कारण एक वीतराग भाव छे. भगवान
आत्माना अंतर शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने रमणता, निर्विकल्पता, वीतरागता,
शुद्ध स्वरूपने अवलंबीने थयेला शुद्धताना परिणाम ए एक ज संवर-निर्जरारूप छे ने
ते एक ज मुक्तिनो उपाय छे. १४.
हवे १पमी गाथा द्वारा कहे छे के पुण्य-कर्म मोक्षसुख आपी शकतुं नथी.
अह पुणु अप्पा णवि मुणहि पुण्णु जि करहि असेस ।
तो वि ण पावहि सिद्धि–सुहु पुणु संसारु भमेस ।। १५।।
निजरूप जो नथी जाणतो, करे पुण्य बस पुण्य;
भमे तो य संसारमां, शिवसुख कदी न थाय.
१प.
पोताना शुद्ध आनंद स्वरूपनुं ज्ञान ने विश्वास सिवाय बधा प्रकारना ऊंचामां
ऊंचा शुभभाव-दया, दान, व्रत, भक्ति, साधुना पांच महाव्रत, बार तप आदि
शुभभाव साधक छे नहीं. पंच महाव्रतना परिणाम अठ्ठावीस मूळगुणना परिणाम,
जावजीव ब्रह्मचर्य पाळवाना परिणाम, एक लंगोटी मात्र पण न राखवाना परिणाम,
नवमी ग्रैवयेक जाय एवा शुभ परिणाम-ए बधाय बंधना कारण छे. आत्माना भाव
विनानुं ए पुण्य मुक्तिनुं कारण नथी. आत्माना भान सहित ए होय तो तेने तेमां
निमित्त कहेवामां आवे छे एटले के ते मुक्तिनुं कारण तो छे ज नहीं.
निज शुद्ध स्वभावनो भंडार अंतरमां ऊंडो पडयो छे एने जेणे ज्ञेय बनाव्यो
नथी, एनो विश्वास ने ज्ञान कर्या नथी ने गमे ते जातना ऊंचा शुभ परिणाम करे
तोपण ते मुक्तिना सुखने पामतो नथी एटले के तेने संवर-निर्जरा थती नथी.
पोताना पूर्णानंदनी श्रद्धा-ज्ञान ने स्थिरताना भाव शुद्ध उपादानथी प्रगट कर्या त्यारे
व्रतादिना परिणाम के जे बंधना कारण छे तेने निमित्त तरीके कहेवाय. निमित्त देखीने
वात करी त्यां तेने वळग्यो!
जेणे भगवान आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनी किंमत करी नथी ते जीवो पुण्यना
परिणामनी किंमत करीने दया, दान, व्रत, भक्तिना भाव करीने तेनाथी अमारुं कल्याण
थशे एम माने छे ते जीवो चार गतिमां रखडशे. तेने जन्म-मरणना अंतनो कांई पण
लाभ नहीं थाय. देह ने रागथी भिन्न एवो जे परमात्मानो निजस्वभाव तेने जे
जाणतो नथी ते भले अशेष शुभभाव करे पण एनाथी जरीए धर्म थतो नथी. आटलुं
करवा छतां-ऊंचामां ऊंचा शुभभावो ने तेनी क्रियाओ करवा छतां ते सिद्धना सुखने
पामतो नथी. भगवान आत्मामां आनंद भर्यो छे पण तेनो विश्वास करतो नथी ने
शुभभावमां विश्वास करे के आनाथी मुक्ति थशे ते चार गतिमां रखडशे एटले के तेने
आत्माना आनंदनी प्राप्ति थशे नहीं ने चार गतिमां फरी फरीने रखडशे.