Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 6-8.

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३०] [हुं
आत्माना शुद्ध स्वरूपना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना प्रगटपणा विना छेल्लामां
छेल्ला शुभ परिणाम कर तोपण ते आत्माने संवर-निर्जरानुं कारण नथी, ते बंधनुं ज
कारण छे. चोथेकाळे पण आ ज वात छे ने पंचमकाळे पण आ ज वात छे. पांचमो
आरो छे माटे शुभभाव कांईक लाभनुं कारण हशे एम नथी, शुभभाव बंधनुं ज
कारण छे.
बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलिंगीना आचरण पाळे छे. शास्त्रोक्त व्रत, समिति,
गुप्ति पाळे छे, तप करे छे पण आत्मज्ञान नथी तेथी महान पुण्य बांधे छे ने नवमी
गै्रवेयक जाय छे. परंतु शुद्ध चिदानंद आत्मानो अंतर विश्वास आव्या विना पुण्यना
विश्वासे चढी गयो-खोटा विश्वासे चढी गयो, खोटे रस्ते चढी गयो, तेथी ते मोक्षसुखने
पामतो नथी ने चार गतिमां फरी फरी भ्रमण करे छे.
माटे अहीं तो कहे छे के अशेष पुण्यना जेटला भाव हो तेटला करवामां आवे
छतां तेनाथी भिन्न भगवान आत्मानुं भान न करे तो तेने परिभ्रमण कदी मटे नहीं,
चार गतिमां रखडवानुं थाय ने तेने अवतार कोई दी घटे नहीं.
* ईस संसारमें देहादि समस्त सामग्री अविनाशी नहीं है,
जैसा शुद्ध बुद्ध परमात्मा अकृत्रिम है, वैसा देहादिमेंसे कोई भी
नहीं हैं. सब क्षणभंगुर है, शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित जो
मिथ्यात्व विषय-कषाय हैं, उनसे आसक्त होके जीवने जो कर्म
उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता
है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता. ईसलिये ईस लोकमें ईन
देहादिक सबको विनश्वर जानकर देहादिकी ममता छोडना चाहिये,
और सकल विभाव रहित निज शुद्धात्म पदार्थकी भावना करनी
चाहिये.
-श्री परमात्मप्रकाश

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परमात्मा] [३१
[प्रवचन नं. ६]
जिन आदेशः
एक ज मोक्षमार्गः परमात्मदर्शन
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १र-६-६६]
आ योगीन्दुदेवकृत योगसार छे. योगसारनो खरो अर्थ तो ए छे के योग
एटले आत्मस्वभावनो वेपार ने तेनो सार; योग एटले जोडावुं-चैतन्य पूरण
द्रव्यस्वभाव साथे जोडाण करवुं, तेमां एकाग्रता करवी ने तेनो सार एटले के परमार्थ
मोक्षमार्ग; तेनी व्याख्या अहीं करी छे. तेमां आ १६मी गाथामां तो बहु ऊंची वात
करी छे.
अप्पा–दंसणु एक्कु परु अण्णु ण किं पि वियाणि ।
मोक्खह कारण जोइया णिच्छंइं एहउ जाणि ।। १६।।
निज दर्शन बस श्रेष्ठ छे, अन्य न किंचित्त मान;
हे योगी! शिव हेतु ए, निश्चयथी तुं जाण.
१६
* आत्मदर्शन ए ज मोक्षनुं कारण छे *
हे धर्मात्मा! आ आत्मानुं दर्शन ते एक ज दर्शन मोक्षनो मार्ग छे. आत्मा एक
समयमां अनंतगुण सम्पन्न प्रभु छे, तेना दर्शन एटले के पहेलां शास्त्र पद्धतिथी एवा
आत्माने जाणीने-सर्वज्ञना कथन द्वारा बतावेली रीत वडे आत्माने पहेलां जाणीने
मन-वचन ने कायाथी भिन्न, पुण्य-पापना रागथी जुदो ने गुणी अने गुणना भेदथी
रहित एवा आत्माना दर्शन ते एक ज मोक्षनो मार्ग छे.
आत्माना दर्शन एटले के ज्यां मननुं पहोंचवुं नथी, वाणीनी गति नथी,
कायानी चेष्टा ज्यां काम करती नथी, विकल्पनो ज्यां अवकाश नथी अने गुणी-गुणना
भेदनुं अवलंबन नथी, एवो जे अभेद अखंड एकरूप आत्मा तेनुं अंतर दर्शन करवुं,
प्रतीत करवी ते एक ज आत्मदर्शन-सम्यग्दर्शन कहेवाय छे. ते सम्यग्दर्शन एक ज
मोक्षनो मार्ग छे. अभेद अखंड शुद्ध आत्माने अनुसरीने तेनो अनुभव करवो ते एक
ज सम्यग्दर्शन छे, ए सिवाय बीजो कोई प्रकार सम्यग्दर्शननो नथी. एकरूप अभेद
अखंड चैतन्य ते आत्मा अने तेनुं दर्शन अंतरमां तेनो अनुभव करीने प्रतीत करवी
ते एक ज सम्यग्दर्शन छे, ते एक ज मोक्षमार्ग छे, बे सम्यग्दर्शन नथी तेम ज बे
मोक्षमार्ग नथी.
आत्मानुं दर्शन एक ज-एम कहेतां आत्मा सिवाय बीजी चीजो पण छे खरी,
अजीव छे, मन-वचन-कायानी अजीवचेष्टाओ पण छे, अंदर आत्मामां जेनो अभाव
छे एवा

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३२] [हुं
पुण्य-पापनो राग पण छे-एम तेमां आवी गयुं. विकल्पना विचार वखते मन पण छे,
वाणीथी कहे छे ने सांभळे छे ए पण छे, पण ए बधां आत्मदर्शनमां काम करतां नथी.
कोई कहे छे के सम्यग्दर्शन बे प्रकारे छे, ज्ञान बे प्रकारे छे, चारित्र बे प्रकारे
छे. तो अहीं कहे छे के ना, बे प्रकारे छे ज नहीं; कथन भले व्यवहार अने निश्चयथी
बे प्रकारे आवे पण निश्चय सम्यग्दर्शन ते एक ज सम्यग्दर्शन छे.
छठ्ठे सातमे गुणस्थाने झूलनारा महासंत योगीन्द्रदेव कहे छे के आत्मानुं दर्शन
ते एक ज सम्यग्दर्शन छे ए सिवाय नव तत्त्वोनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, भेदवाळी
श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, छ द्रव्योनी
श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, एक समयमां पूरण चिदानंद वस्तु ते आत्मा, तेनुं दर्शन,
तेनो अनुभव, तेनी प्रतीति ते एक ज सम्यग्दर्शन छे. ए आत्मदर्शन विना जे कोई
क्रियाकांडमां धर्म मनाय ते मिथ्यादर्शन छे. एक समयमां पूरण अभेद अनंतगुणनुं
एकरूप जे भगवान आत्मा तेनी प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे ने सम्यग्दर्शनना प्रकाशना
अभावमां पुण्य-दया-दान आदिना परिणाममां धर्म छे तेम मानवुं ते मिथ्यादर्शन छे.
सम्यग्दर्शन पछी पुण्य-दया-दानना परिणाम आवे, वचमां व्यवहार आवे खरो पण
तेनाथी ते धर्म माने नहीं, ए व्यवहार तो बंधनुं ज कारण छे पण अनुकूळताथी
कहीए तो ए व्यवहार अंतर अनुभवनी द्रष्टिमां तेने निमित्त कहेवामां आवे छे ने
प्रतिकूळताथी कहीए तो ते बंधनुं कारण छे.
* आत्मदर्शन सिवाय अन्यने जरीये मोक्षमार्ग मानवो नहीं *
भगवान आत्माना दर्शन ते एक ज मोक्षनो मार्ग छे. आत्माना दर्शन सिवाय
पर देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो राग, नव तत्त्वोनी श्रद्धानो राग, छ द्रव्यनी श्रद्धानो
राग ए बधुंय पर-अन्य छे, तेने जरीए मोक्षमार्ग मानवो नहीं, शुभरागमां, देहनी
क्रियामां के नवतत्त्वोनी श्रद्धाना रागमां सम्यग्दर्शन अथवा मोक्षनो मार्ग जरीए छे
नहीं. आत्माना दर्शन सिवाय अन्यमां सम्यग्दर्शन ने मोक्षनो मार्ग जरीए नथी.
आहाहा! सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ परमेश्वरना मुखमांथी नीकळेली आ दिव्यध्वनिमां
जे आ आव्युं एवुं संतोए चारित्र सहित अनुभव्युं ने एमणे जगत समक्ष मूकयुं के
वस्तुनुं स्वरूप आ छे.
आत्मानुं दर्शन ते एक ज सम्यग्दर्शन छे अने तेनाथी अन्य बीजुं जे कांई छे
ते कांई पण मोक्षमार्गमां गणवामां आवतुं नथी. तेथी आत्मदर्शन सिवाय बीजी कोई
वातने सम्यग्दर्शन माने तेने मिथ्यादर्शन थाय छे. आत्माना अनुभवनी द्रष्टि सिवाय
सम्यग्दर्शन बीजी कोई चीज वडे होई शके नहीं ने बीजी कोई चीजमां होई शके नहीं,
गुणीने गुणना भेद वडे पण आत्मदर्शन थई शके नहीं, तो पछी दया-दान आदि
पाळो पछी सम्यग्दर्शन थशे ए वात तो तद्न मिथ्या छे.
हे धर्मी!-सम्यग्द्रष्टिने योगी-धर्मी ज कह्यो छे. चोथे गुणस्थाने होय, भरत
चक्रवर्ती

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परमात्मा] [३३
जेवा होय पण तेणे आत्मा साथे योग जोडयो छे ने आखा संसारथी अंदरमां
उदासीनपणुं वर्ते छे. जेने भोगनी रुचि नथी, भोगमां सुखबुद्धि नथी तेवा चोथे
गुणस्थानवाळा सम्यग्द्रष्टिने धर्मी-योगी कह्यो छे.
अहीं तो सम्यग्दर्शनने मोक्षनुं कारण कह्युं छे, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी
त्रणनी वात करी नथी, केम के अनुभवनुं जोर देवुं छे. आत्माना अनुभवमां
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे आवी जाय छे तेम कहेवुं छे. शांत, शांत धीरो थईने
अंतरना स्वभावनी एकताने अवलंबता जे सम्यग्दर्शन थाय तेमां सम्यग्ज्ञान ने
स्वरूपाचरणरूप चारित्रनो अंश पण भेगो उत्पन्न थाय छे, माटे अहीं एक
सम्यग्दर्शनने ज मोक्षनुं कारण कह्युं तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्राणि मोक्षमार्ग–
आवी गयुं. पोताना सहजानंद स्वभावनी द्रष्टि थईने रुचिनुं परिणमन थयुं तेमां
स्वरूपनी श्रद्धा, स्वरूपनुं ज्ञान ने स्वरूपमां अंशे रमणतारूप चारित्र आवी जाय छे.
एनो अर्थ ए थयो के-चोथे गुणस्थाने सम्यग्दर्शनमां स्वरूपाचरण होय छे. केम के
भगवान आत्मा पोताना अंतर स्वभाव तरफ ढळ्‌यो अने प्रतित ने ज्ञान थया एमां
एटलो ज अनंतानुबंधीनो अभाव थईने स्वरूपनी रमणतारूप चारित्र प्रगट थया
विना सम्यग्दर्शन ज होई शके नहीं.
सम्यग्दर्शन एक ज मोक्षमार्ग कहेतां एकांत थई जतुं नथी?-के ना, एमां
अनेकांत रहे छे. स्वरूपनी द्रष्टि, स्वरूपनुं ज्ञान ने स्वरूपाचरण त्रणे भेगा छे ने तेमां
विकल्पादि भावनो नास्तिभाव छे. व्यवहार समकित तो राग छे, तेनो निश्चय
सम्यग्दर्शनमां अभाव छे. आवा सम्यग्दर्शन विना बीजाने सम्यग्दर्शन माने तेने
मिथ्यादर्शननी पर्याय होय छे.
सर्वज्ञनी वाणीमां एम आवे छे के अमारा कहेलां शास्त्रोनी श्रद्धाने अमे
सम्यग्दर्शन कहेतां नथी. तारा आत्मानी सन्मुख थईने प्रतीत थवी, अनुभव थवो ते
एक ज सम्यग्दर्शन छे. बीजा प्रकारनुं सम्यग्दर्शन अमे कह्युं नथी, कहेतां नथी ने छे
पण नहीं. भगवान तारामां तुं पूरो पडयो छो, तारे कोईनी जरूर नथी. परसन्मुखना
ज्ञाननी पण तने जरूर नथी, पर पदार्थनी तो जरूर नथी. पर पदार्थना श्रद्धाननी तो
जरूर नथी, परसन्मुखना आश्रये थतां दया-दान आदिना रागभावनी तो जरूर नथी;
ए तो ठीक पण भगवान आ अने गुण आ एवा मनना संगे उत्पन्न थतां विकल्पनी
पण तने जरूर नथी.
योगीन्द्रदेव आदेश करे छे के हे आत्मा! निश्चयथी ए रीते छे एम तुं जाण
बाकी बधो विकल्प होय तेने व्यवहार निमित्त तरीके तुं जाण. बीजो मोक्षमार्ग जरीये
नथी. व्यवहार श्रद्धानो, शास्त्रना ज्ञाननो के कोई कषायनी मंदताना व्रतादिनो भाव
किंचित् छूटकारानो मार्ग नथी, ए तो बंधननो मार्ग छे-एम हे आत्मा! निश्चयथी
जाण! व्यवहारनुं स्वरूप जे छे ते जाणवा लायक छे पण आदरवा लायक नथी. भाई!
तने पूर्णानंद स्वरूप भगवाननी महिमा आवती नथी ने तेनी महिमा विना तने भेद
ने रागनी जेटली महिमा आवे छे ए मिथ्यादर्शन छे, शल्य छे. बापु! वीतराग
परमेश्वरनो मार्ग जगतने सांभळवा मळ्‌यो नहीं तेथी ऊंधे रस्ते चढीने माने के अमे
भगवानने मानीये छीए, पण भगवान तो एम कहे छे के जेम

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३४] [हुं
राख उपर गार करे ते गार नथी पण लींपणा छे, तेनी जेम आत्माना दर्शन विना
तेने देव-शास्त्र-गुरुनी साची श्रद्धा नथी, केम के देव-शास्त्र-गुरु तो आत्माना दर्शनने
दर्शन कहे छे ने ए दर्शन विना अमे देव-शास्त्र-गुरुने मानीये छीए-एम माने छे ते
मान्यता जूठी छे. आत्मदर्शन विना देव-शास्त्र-गुरुनी साची श्रद्धा रहेती नथी ने तेथी
ए विना जे व्रतादि क्रिया करवामां आवे ते राख उपर गारना लींपणा जेवुं छे. १६.
हवे १७मी गाथामां कहे छे के मार्गणास्थान ने गुणस्थान तारामां नथी-
मग्गण–गुण–ठाणइ कहिया विवहारेण वि दिठ्ठि ।
णिच्छय–णइ अप्पा मुणहि जिम पावहु परमेठ्ठि ।। १७।।
गुणस्थानक ने मार्गणा, कहे द्रष्टि व्यवहार;
निश्चय आतमज्ञान ते, परमेष्ठिपदकार.
१७.
भगवान सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा दिव्यध्वनि द्वारा जे वात फरमावे छे
ते वात संतोने विकल्प द्वारा वाणीथी आवी जाय छे. कहे छे के आ जीव कई गतिमां
छे, कई लेश्या छे ने भवि-अभवि छे, कया ज्ञाननो पर्याय छे-एवा बधा भेदोने
जाणवा ते व्यवहारनयनो विषय जाणवालायक छे, आदरवालायक नथी.
जिनेश्वरदेवे मार्गणा ने गुणस्थान कह्या छे. चौद मार्गणा ने चौद गुणस्थानथी
आ जीव आम छे एम नक्की करवुं ए जाणवानी पर्याय जाणवालायक छे पण एना
आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. केवळ व्यवहारनयनी द्रष्टिथी मार्गणा ने गुणस्थान
जाणवालायक छे पण आदरवालायक नथी. एना ज्ञान द्वारा सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
जेनी पर्यायमां भूल छे तेनी तो अहीं वात करता नथी अथवा तो मुनिदशा आवी
होय ने केवळीनी दशा आवी होय के सम्यग्द्रष्टिनी आ दशा होय एनो जेने ख्याल
पण नथी तेनी तो अहीं वात करता नथी. जेने ख्याल छे के मुनिदशा आवी होय,
चोथा गुणस्थाननी ने मिथ्याद्रष्टिनी दशा आवी होय ते नक्की करे के आ जीव आ
गुणस्थानमां छे, आ मार्गणास्थानमां छे-ए बधुं ज्ञान भले हो, जाणवा माटे छे,
एटलो भेद छे ते जाणवा माटे छे पण आदरवालायक के तेनाथी सम्यग्दर्शन थाय एवी
तेमां ताकात नथी.
मार्गणास्थान ने गुणस्थान वर्तमान पर्यायमां अस्तिरूप छे पण ए तो केवळ
व्यवहारद्रष्टिथी कथन छे. छे माटे निश्चयथी छे एम नथी, छे पण ते व्यवहार छे. वस्तु छे,
व्यवहारनयनो विषय छे, परंतु त्रिकाळ अभेदद्रष्टिनी अपेक्षाए ए बधा भेदोने अभूतार्थ
कहेवामां आवे छे, असत्यार्थ कहेवामां आवे छे. जूठा छे-एम कहेवामां आवे छे.
भवि छुं-एम ख्याल आववो ए व्यवहारनयनो विषय छे. आ मतिज्ञाननो
उपयोग छे ने आ श्रुतज्ञाननो उपयोग छे ने आ क्षायिक समकित कहेवाय तथा आ
पांच इन्द्रियवाळो छे ने आ बे इन्द्रियवाळो छे-ए बधुं अवस्थाद्रष्टिए छे खरुं, पण
त्रिकाळ स्वभावना आश्रय

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परमात्मा] [३प
करवानी अपेक्षाए ए बधुं नथी, मने लाभदायक नथी माटे ए नथी अने मने
लाभदायक अभेद छे माटे ए छे.
केवळ व्यवहारनयथी आ जीव पर्यायमां अहीं छे, आ जीव आ गुणस्थानमां छे
एम कहेवामां आव्युं छे. अभेद स्वभावनी द्रष्टिथी कहेवामां आवे तो आत्मा
आत्मारूप ज छे, भेद एमां नथी. आ भवि छे के आ समकिती छे के आ ज्ञान
उपयोग छे-ए भेदो अभेद वस्तुमां नथी. आ राग हजु एकाद बे भव करशे-ए
जाणवालायक छे पण आदरवालायक नथी.
अशेष कर्मनो भोग छे, भोगववो अवशेष रे,
एथी देह एक धारीने, जाशुं स्वरूप स्वदेश रे....
श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के अमने थोडो राग वर्ते छे तेथी जणाय छे के थोडो
काळ हजुं रागनुं वेदन रहेशे, एथी एम जणाय छे के एकाद भव करवो पडशे-एवुं जे
पर्यायनुं ज्ञान ते हो, पण ते आदरणीय नथी.
भगवाननी वाणीमां जे व्यवहार आव्यो-मार्गणास्थान-गुणस्थान-ते छे,
भेदरूप छे, अंशरूपी दशावाळा भावो छे पण ते जाणवालायक भावो छे, आश्रय करवा
लायक नथी. परमेश्वर त्रिलोकनाथे जे मार्गणास्थान आदि पर्यायना भेदो जोया ने कह्यां
अने एम छे-तेने तुं जाण तो हजु तो ते व्यवहार छे.
भगवान आत्माने जाण के जेमां केवळज्ञानना कंद पडया छे, जे अनंत गुणनी
राशि प्रभु आत्मा छे, जेमां ‘आ आत्मा’ एवो भेद पण नथी एवा आत्माने
आत्मारूपे जाण. आम जाणवानुं फळ शुं?-के तेनाथी अरिहंत ने सिद्धपद मळशे. जे
अभेद चिदानंद आत्माने जाणशे, तेनो आश्रय करशे ते निश्चयथी अरिहंत ने
सिद्धपदने पामशे.
पोताना आत्माने जाणवाथी सिद्ध थईश, व्यवहारने जाणवाथी सिद्ध नहि था.
केटलाक कहे छे के जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधायुं ए भावथी मुक्ति थशे केम के तीर्थंकर
प्रकृति बंधाणी ने! माटे मुक्ति थशे. तेने अहीं कहे छे के ए खोटी वात छे. तारुं ए
ज्ञान ज खोटुं छे. आत्मा आत्मामां ठरशे त्यारे केवळज्ञानने पामशे, राग आव्यो ने
बंध पडयो माटे केवळज्ञान थशे एम छे ज नहीं. सम्यग्द्रष्टिने विकल्प आव्यो ने
तीर्थंकर प्रकृतिनो बंध पडयो-एवुं ज्ञान पण आश्रय करवालायक नथी, विकल्प अने
प्रकृतिनो बंध जाणवालायक छे, पण एनाथी मुक्ति थशे के एना ज्ञानथी मुक्ति थशे
एम नथी.
एक ज वात! जे आत्मा आत्माने जाणशे ने जे आत्मा आत्मामां ठरशे ते
सिद्धपदने पामशे.
श्रेणीकराजाने विकल्प ऊठयो, भगवाने कह्युं के हे श्रेणीक! तुं भविष्यमां तीर्थंकर
थईश. श्रेणीक समवसरणमां क्षायिक समकित पाम्या. परंतु तेओ स्वभावना अवलंबन
वडे क्षायिक पाम्या. वळी ए क्षायिक थयुं एम जाण्युं ते ज्ञान अने तीर्थंकर थईश एनुं
ज्ञान ए ज्ञान तेने केवळज्ञाननुं कारण नथी. जेने आत्मदर्शन थयुं, सम्यग्दर्शन थयुं
तेने विकल्प

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३६] [हुं
आव्यो ने तीर्थंकर प्रकृति बंधाणी-ए संबंधीनुं ज्ञान तेने केवळज्ञान पमाडशे नहीं. माटे
कहे छे के व्यवहारद्रष्टिथी ए जाणवा लायक छे पण ए ज्ञाननो महिमा नथी. भगवान
आत्मानुं ज्ञान कर, एमां एकाग्रता कर, एनाथी केवळज्ञान थशे. प्रकृतिथी, विकल्पथी
के तेना ज्ञानथी केवळज्ञान थशे नहीं. भगवाननी वाणीथी ज्ञानमां नक्की थई गयुं के
हुं तीर्थंकर थईश. छतां ए ज्ञान आश्रय करवा लायक नथी.
व्यवहारद्रष्टिथी जे कह्युं तेने जाण; पण भगवान आत्मा एकरूप प्रभुने जाणता
ज नक्की तुं केवळज्ञानने-सिद्धपदने पामीश. त्रणकाळमां अमारी आ वात फरी एवी
नथी एम कहे छे. निश्चयनयथी आत्मा स्वयं अरिहंत ने परमात्मा छे. वस्तु सदा
सिद्ध परमात्मा छे एवी अंतरनी द्रष्टि ने तेनुं ज्ञान ते पर्यायमां सिद्धपदने पामवानुं
कारण छे. ए सिवाय अन्य कोई श्रद्धा, अन्य कोई ज्ञान के अन्य कोई आचरण
आत्माने मुक्तिनुं कारण नथी.
जे परमेष्ठिपद व्यवहारनये जाणवालायक कह्युं हतुं; तेना आश्रये परमेष्ठीपद
नहीं पमाय. एक समयमां अभेद परिपूर्ण प्रभु तेनी द्रष्टि थतां, तेनुं ज्ञान थतां, ते
श्रद्धा-ज्ञान परमेष्ठिपदनी प्राप्तिनुं कारण थशे, पण व्यवहाररत्नत्रय मुक्तिनुं कारण नहि
थाय एम कहे छे. १७.
हवे कोई एम कहे के आ मार्ग तो महा त्यागी मुनि जंगलमां होय तेना माटे
होय, गृहस्थ माटे शुं? तेना उत्तररूपे १८ मी गाथामां कहेशे के गृहस्थाश्रममां पण आ
मार्ग होय शके छे. राजपाटमां देखाय, इन्द्रना इन्द्रासनमां देखाय छतां ए
गृहस्थाश्रममां पण ए जीव निर्वाणमार्ग उपर चाली शके छे. केम के भगवान आत्मा
पूरण अखंड वस्तु तो मौजूद छे, अखंड वस्तुनो आश्रय करनार गृहस्थाश्रममां पण
निर्वाणने पामवाने लायक थई जाय छे. आटला आटला धंधादि होय तोपण?-के हा;
धंधादि एनामां रह्यां, ए तो जाणवालायक छे. भगवान आत्मानो आश्रय करीने
गृहस्थाश्रमना धंधादिमां जो हेयाहेयनुं ज्ञान वर्ते तो ते पण निर्वाणने लायक छे.
संसारमां ईन्द्रिय-जन्य जेटला सुख छे ते बधा आ आत्माने
तीव्र दुःख आपनारा छे. आ रीते जे जीव ईन्द्रिय-जन्य विषय-सुखोना
स्वरूपनुं चिंतवन करतो नथी ते बहिरात्मा छे.
- श्री रयणसार

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परमात्मा] [३७
[प्रवचन नं. ७]
गृहस्थाश्रममां निज परमात्म–अनुभव
[श्री योगसार उपर परमपूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता १३-६-६६]
श्री योगीन्द्रदेव कृत आ योगसार चाले छे. तेमां कहे छे के गृहस्थाश्रममां पण
आत्म-अनुभव थई शके छे. गृहस्थमां रहेलो जीव मोक्षना मार्ग पर चाली शके छे.
एम नथी के साधु ज मोक्षमार्गमां चाली शके-ए अर्थनी गाथा कहे छेः-
गिहि–वावार–परिठ्ठिया हेयाहेउ मुणंति
अणुदिणु सायहिं देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति ।। १८।।
गृहकाम करतां छतां, हेयाहेयनुं ज्ञान;
ध्यावे सदा जिनेशपद, शीघ्र लहे निर्वाण. १८.
गृहस्थना वेपार धंधामां लागेलो होवा छतां हेयाहेयनुं ज्ञान होय छे एटले के
छोडवायोग्य शुं छे ने आदरवायोग्य शुं छे एनुं ज्ञान होय छे. गृहस्थाश्रममां रह्या
छतां धर्म कई रीते होय छे?-के गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां हेयाहेयनुं ज्ञान होय छे. हेय
एटले पुण्य-पापना भाव, वेपार-धंधाना भाव के पूजा-भक्ति ना भाव ते हेय छे-
एवुं एने ज्ञान वर्तवुं जोईए.
गृहस्थाश्रममां धर्म थई शके छे ने मोक्षना मार्गे चाली शके छे तेनी अहीं वात
छे. गृहस्थाश्रममां आपणने धर्म न थाय. आपणे धर्म न करी शकीए. ए तो मुनि
थाय, त्यागी थाय तेने धर्म होय-एम नथी. मुनि उग्रपणे पुरुषार्थथी शीघ्रपणे मोक्षनुं
साधन उत्कृष्ट करे छे अने गृहस्थाश्रममां सम्यग्द्रष्टिने एने योग्य हेयाहेयनुं ज्ञान
वर्ततुं होय छे. धंधामां होय छतां तेने दरेक क्षणे रागादि भाव हेय छे, पर वस्तुनी,
शरीर आदिनी क्रियानो कर्ता हुं नथी-एवुं ज्ञान वर्ते छे.
पापना-पुण्यना भाव हो, देहनी क्रिया हो पण ए बधाने सम्यग्द्रष्टि हेय तरीके
जाणे छे. शुद्ध चैतन्य परमानंदनी मूर्ति प्रभु आत्मा ए ज मारे आदरणीय ने ध्यान
करवालायक छे. गृहस्थाश्रममां समकिती आ प्रमाणे वर्तन करी शके छे. गृहस्थाश्रममां
निर्वाणमार्ग न होय एम केटलाक कहे छे ने? अहीं तो कहे छे के गृहस्थाश्रममां आ
रीते निर्वाणमार्ग समकितीने होय छे.
आत्मा पोते निर्वाणस्वरूप छे. भगवान आत्मा मोक्षस्वरूप छे. तेनुं साधन
पोतामां छे. तेथी गृहस्थाश्रममां ते केम न करी शके? एक समयनो विकार छे ते हेय
छे ने तेने छोडीने

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३८] [हुं
अनंतगुणनो पिंड आखो पूर्णानंद प्रभु उपादेय छे अने ए स्वरूप तो पोतानुं छे. तेथी
गृहस्थाश्रममां ए काम न करी शके-ए केम होई शके?
आत्मा पोते अनंत ज्ञान-आनंद आदि गुणनो पिंड छे, तेने उपादेय छे एम
केम न करी शके? गृहस्थाश्रममां आत्मा छे के नथी? आत्मा छे अने ते पोतानो शुद्ध
स्वभाव राखीने पडयो छे. वीतरागना स्वरूपमां ने आत्माना स्वरूपमां कांई फेर नथी.
एवुं पोतानुं स्वरूप छे, एनुं उपादेयपणुं करी शके छे, केम के एनुं साधन पण पोतामां
छे, कांई बाह्य क्रियामां के रागमां नथी.
रागादि तो दूर छे, तारामां नथी; तारामां नथी ए कांई तारुं साधन होय?
माटे रागादि कोई तारुं साधन नथी. तारामां जे छे ए तारुं साधन छे. धंधादि होय के
रागादि होय-ए तो एनामां रह्यां, हुं तो शुद्ध परमात्मा छुं-आ ज हुं छुं-एम मानवुं
तेनुं नाम ज उपादेयपणुं.
वीतरागना स्वरूपमां ने मारा स्वरूपमां परमार्थे कांई फेर नथी-एम अंतरमां
रुचि करीने द्रष्टि करीने आत्माने स्वीकारवो-ए गृहस्थाश्रममां केम न थई शके? द्रष्टि दूर
हती, ते द्रष्टि समीपमां करे के आ आत्मा ज हुं छुं-ए तो गृहस्थाश्रममां थई शके छे.
वस्तु शुद्ध छे ने एनुं ज्ञान, एनी श्रद्धा ने एनुं आचरण-ए स्वभावनुं साधन
पण शुद्ध छे अने ते पण पोतानी समीपमांथी-स्वभावमांथी आवे छे, कांई दूरथी,
रागमांथी के परमांथी आवतां नथी माटे गृहस्थाश्रममां आत्माने मोक्षनो मार्ग केम न
थई शके? जरूर थई शके छे-एम कहे छे. वस्तु पोते छे ने ए ज किंमती चीज छे,
बीजी कोई पण चीज-अल्पज्ञता, राग के पर-मारी द्रष्टिमां किंमती चीज नथी-एम
द्रष्टिमां उपादेय तरीके वस्तुने ग्रहण करवी-ए गृहस्थाश्रममां केम न थई शके? जरूर
थई शके. वळी एनुं साधन पण अंदर छे. ज्ञानानंद चैतन्यस्वभावनुं साधन पण
एनी समीपमां-एमां छे, साधन कांई बहारमां नथी.
भगवान आत्मा परमानंदनुं रतन छे. ए परमानंद स्वरूप रतन पोते ज छे,
एम ज्यां द्रष्टिमां आदर आव्यो त्यां स्वभावनुं साधन पण पोते ज छे अने एमां
एकाग्र थतां साधनथी जे दशा प्रगट थाय, साधक दशा-ए पण एना समीपमां-साधन
पण एनी समीपमां-एमां छे, साधन कांई बहारमां नथी.
धंधानो भाव तो हेय छे पण ए काळे पण ए जीवनी शक्तिनुं सत्त्व छे ने!
तेथी गृहस्थना अशुभभावने हेय जाणे ने आ आत्मा अनंतगुणनो पिंड छे ते हुं-एम
हेयाहेयनुं ज्ञान थई शके छे. बापु! तुं छो ने तारुं न करी शके एनो अर्थ शुं? तुं छो
ने तारुं जरूर करी शके. गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां हेय-उपादेयनो ज्ञानमां विवेक जरूर
करी शके. पहेलां शास्त्रथी, गुरुगमथी, तीव्र जिज्ञासाथी हेयउपादेयनुं ज्ञान करे अने
पछी एनी द्रष्टिमां आवे के अहो! आ आत्मा! अनंतगुणस्वरूप भगवान आत्मा ते
हुं पोते छुं.
गृहस्थाश्रममां वेपारधंधाना काळ वखते शुं आत्मा क्यांय चाल्यो गयो छे? -ना; तो

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परमात्मा] [३९
ए आत्माने उपादेय तरीके श्रद्धा, ज्ञानमां ग्रहण करे ने रागादिने हेय जाणे-एवो धर्म
गृहस्थाश्रममां थई शके छे.
शरीर-वाणी ने मननी जे क्रिया थवा काळे थाय छे, ते तो चैतन्यना सत्त्वमां
नथी ने चैतन्य तेनो कर्ता नथी ने गृहस्थाश्रममां तेनुं ज्ञान थई शके छे के आ लक्ष
करवा लायक नथी. गृहस्थाश्रममां जे धंधादिना परिणाम थाय तेनाथी अधिकपणे अंदर
अनंतगुणनुं धाम आत्मा बिराजे छे, तेने उपादेय तरीके स्वीकारीने रागादिने हेय
तरीके स्वीकारी शकाय छे, पण पछी एने धंधादिमां रस न रहे हो!
पण धंधामां रस न रहे तो पैसा शी रीते कमाय?
धंधामां रस होय तो पैसा कमाय के पुण्यने लईने कमाय? पुण्य होय तो पैसा
मळे. अहीं तो कहे छे के बे वात छे. एक तुं पोते ने बीजो ताराथी विरुद्ध विकारनो
भाव. धंधादिना विकारी परिणाम वखते आत्मा क्यांय चाल्यो गयो नथी. धंधादिना
परिणाम दुःखरूप छे, हेयरूप छे, आदरवायोग्य नथी-एम एणे ज्ञान करवुं जोईए
अने एनाथी रहित त्रिकाळी ज्ञायकमूर्ति चिदानंद शुद्ध आत्मा छुं, एनो अंतर्मुख थईने
आदर करवो जोईए. आटलुं तो गृहस्थाश्रममां रहीने पण थई शके छे-एम कहे छे.
गृहस्थाश्रममां पण छूटेलुं ज्ञायक तत्त्व तुं छो, तेना साधन वडे छूटवानो उपाय
थई शके छे एटले के धंधादिना परिणाम ने बाह्य क्रियामां रहेवाथी आ न थई शके
एम छे नहीं. परंतु ननूर थईने एणे एनी किंमत कदी करी नथी. वस्तु तरीके तुं
जिनस्वरूपे ज छो. परंतु एनामां जे छे एने द्रष्टिमां न ले अने जे वस्तुमां नथी
एवा रागादिने द्रष्टिमां ले-वस्तु छे छतां तेने भूलीने ए भाव करे तो अज्ञान
करवामां पण जीव स्वतंत्र छे. ज्ञानानंदमूर्ति वस्तुनो अंतरमां स्वीकार करीने आ
आत्मा ते हुं-एम स्वीकार थतां पछी जे विकल्प ऊठे ते तेना स्वरूपमां न होवाथी
तेने हेय जाणीने गृहस्थाश्रममां हेयाहेयनुं ज्ञान करी शके छे.
सिद्ध समान सदा पद मेरो-सिद्ध समान तारुं आत्मतत्त्व छे पण एनी तने
खबर नथी ने कहे के मारे धर्म करवो छे, पण क्यांथी धर्म थाय? धर्म करनार धर्मी
महान पदार्थ छे एवी उपादेय बुद्धि गृहस्थाश्रममां करे तो धर्म थई शके छे. एनो अर्थ
ए थयो के भगवान आत्मा गृहस्थाश्रममां धंधादिनी पर्यायमां हो के बाह्य क्रियामां
निमित्त तरीके उपस्थिति देखाती हो छतां तेने हेय जाणी पोताना शुद्ध आनंदस्वरूप
आत्माने उपादेय जाणी अंतरना आनंदमां वर्ती शके छे, गृहस्थाश्रममां पण अंतरमां
आनंदस्वरूपनो स्वीकार करी शके छे, रागने हेय करी शके छे अने कोई कोई काळे ते
आनंदना अनुभवमां वर्ती शके छे. पण वात एम छे के एनो आत्मा केवडो छे एनी
एने खबर नथी.
गृहस्थ एटले गृहमां रहेलो एटले के धंधादिमां रहेलो जीव, पण ए वखते पण
आत्मा तो मोजूद छे ने! जेमां अनंत सिद्ध परमात्मा बिराजे छे एवा पूर्णानंदनो नाथ
तो धंधादिना काळे पण मोजूद छे ने! तो एवा आत्माने द्रष्टिमां उपादेय करीने,
धंधादिना के दया-दान आदिना राग होय छे एम द्रष्टिमां रागनो त्याग ने शुद्धात्मानो
आदर करी शके छे.

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४०] [हुं
द्रष्टिमां पूर्ण आत्मानो स्वीकार थतां परमेश्वरनो स्वीकार थयो ने हेय एवा
रागादि होवा छतां द्रष्टिमां तेनो त्याग थई गयो. आ रीते गृहस्थाश्रममां द्रष्टिमां
रागना त्यागरूप ने स्वभावना आदररूप धर्म थई शके छे. परंतु पैसादिमां लाभ माने
तेने स्वभावनो लाभस्वभावनो स्वीकार शी रीते थई शके? एक बाजु पैसानी
ममतानो भाव ने बीजी बाजु समतानो पिंड स्वभाव! ममताना काळे पण समतानो
पिंड प्रभु क्यांय चाल्यो गयो नथी, मात्र समताना पिंडनो स्वीकार ने ममतानो
अस्वीकार करवो जोईए; तो गृहस्थाश्रममां पण धर्म थाय.
* ध्यावे सदा जिनेशपद *
रात-दिवस जिनेन्द्रदेवनुं ध्यान करे छे. जिनेन्द्र एटले वितराग; अंदर
वितरागनी लगनी लागी छे. जिनेन्द्र एटले वितरागी आत्मा. वीतरागी भगवान ने
वस्तुमां कांई फेर नथी. समकिती गृहस्थाश्रममां धंधामां पडयो होय, हजारो राणीओना
वृंदमां पडयो होय छतां रात-दिन जिनेन्द्रदेवनुं ध्यान करे छे. वीतराग...
शुद्ध...शुद्ध...स्वभाव आदरणीय छे, अशुद्धता आदरणीय नथी. आवुं जो समकितीने न
होय तो सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान ज न होय.
परने पर तरीके, हेय तरीके जाण्या विना उपादेय तरीके चिदानंद भगवान
आत्मानुं ज्ञान यथार्थ थई शके नहीं. उपादेय तरीके आत्माने आदरणीय जाण्यो एटले
रागादि हेय तरीके वर्ते एटले तेमां लाभनुं कारण केम माने? ए तो नुकशाननुं कारण
छे, शुभाशुभभाव थाय पण ते नुकशाननुं कारण छे.
मोक्ष साधननो मोटो भाग मुनि करे पण गृहस्थाश्रममां एकदेश तो साधन थई
शके छे. मोटा भागनुं साधन मुनि करे, मुनि एटले? बहारना त्यागी एटले मुनि-
एम नथी. शुद्ध चिदानंदना भानपूर्वक तेमां खूब ठरे ने खूब आनंदने वेदे ते मुनि; ते
मोक्षना मोटा भागनुं साधन करे. परंतु मोक्षना मार्गनो नानो भाग तो गृहस्थने मळे
एम छे हो!
ज्यां एकलो पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यप्रभु द्रष्टिमां पडयो छे त्यां आखा
संसारनोउदय भावनो द्रष्टिमां त्याग वर्ते छे, आत्मानो आदर थयो ने मिथ्यात्वनो
त्याग थयो त्यां ते मोटो त्यागी थई गयो. आवा त्याग विना बहारनी क्रियाने त्याग
कहे ने दया-दानना भावथी मने लाभ थाय एम माननार त्यागीए आखा आत्मानो
ज त्याग कर्यो छे. एणे रागनो त्याग कर्यो नथी पण त्याग कर्यो छे पोताना
आत्मानो. ज्ञानीए तो जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते रागनो पण द्रष्टिमांथी त्याग
कर्यो छे.
प्रभु अंतरमां बिराजे छे ने तेनुं साधन पण दूर-रागमां नथी पण नजीकमां
अंतरमां छे. अंतरमां एकाग्र थवुं ते एनुं साधन छे. आवा साधनने ने साधनना
ध्येयने न जाणे तेने आ हेय ने आ उपादेय एम ज्ञानमां वर्ततुं नथी. तेथी तेने
द्रष्टिमां आत्मानो त्याग वर्ते छे पण द्रष्टिमां रागनो त्याग वर्ततो नथी.

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परमात्मा] [४१
धर्मी जीव गृहस्थाश्रममां ९६ हजार राणीओना वृंदमां पडया होय पण ए
भोगना काळे पण द्रष्टिमां एनो त्याग वर्ते छे. मारो आनंद मारी पासे छे पण
अरेरे! आ समाधान थतुं नथी एटले राग आवे छे पण समकिती ए अस्थिरताने
हेय तरीके जाणे छे. ए प्रकारना अस्थिरताना रागमांथी बीजे ज क्षणे कदाचित्
ध्यानमां आवे तो अतीन्द्रिय आनंदनुं ध्यान पण करी ले. वासनाना विकल्पमां दोराई
गयो पण अंदर तो सच्चिदानंद प्रभुने द्रष्टिमांथी छोडयो नथी.
गृहस्थाश्रममां पण स्वस्वरूप मोजूद छे छतां तेने आदरणीय केम करी शकतो
नथी?-के पोताना स्वस्वरूपनो एने महिमा नथी एटले विकार ने परना महिमामां
तेनी द्रष्टि पडी छे तेथी मिथ्यात्वमां पडयो छे. परंतु गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां ज्यां
स्वनो महिमा आव्यो के आ अखंडानंद प्रभु ज मारे करवानुं काम, विश्रामनुं धाम छे-
एम अंतर्दष्टि ने ज्ञान कर्या त्यां पूजा-भक्तिना भावने पण त्यागबुद्धिए देखे छे.
प्रभु! तुं छो के नहीं? छो तो केवडो छो?-केः-
अनंता गुणनो दरियो छो, ज्ञान स्वरूपे भरियो छो.
आनंदनो तुं कंद छो, वीर्यनी तुं कातळी छो,
शांतिनो तुं सागर छो, अनंत पुरुषार्थना वीर्यथी भरेलो पदार्थ छो, स्वच्छतानुं
धाम छो, अनंत गुणमां एक-एक गुणमां प्रभुताथी भरेलो प्रभु तुं छो.
आवा भगवानने जेणे गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां एनो श्रद्धा-ज्ञानमां स्वीकार
कर्यो एणे अनंतकाळथी जेनो त्याग वर्ततो हतो तेने ग्रहण कर्यो ने अनंतकाळथी
रागादि पुण्यपरिणामने ग्रहण करवायोग्य मानतो हतो तेनो द्रष्टिमां त्याग वर्त्यो.
समकिती जिनेन्द्रदेवनुं सदा ध्यान करे छे एटले के समकितीने आत्माना श्रद्धा-
ज्ञान तो निरंतर छे पण कोई वखते ध्यानमां अंदर स्थिर थई जाय छे. गृहस्थीने
ध्यान पण होय छे एम कहे छे. गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां धर्मीने रात-दिवस भगवान
आत्माना शुद्धज्ञानरूप परिणति कायम वर्ते छे ने कोई वखते निर्विकल्प ध्यान पण
गृहस्थीने थई जाय.
गृहस्थाश्रममां आत्मा शुं आत्मा मटीने विकाररूपे थई गयो छे? गृहस्थाश्रममां
रहेलो आत्मा शुं जड अने शरीररूपे थई गयो छे?-ना; तो ए त्रिकाळ स्वभावनी
द्रष्टि थतां विकारपणे हुं नथी एम द्रष्टि थतां द्रष्टिमां विकारनो त्याग वर्ते छे;
गृहस्थाश्रममां पण एने ध्यान वर्ते छे. जेने लक्षमां लीधो छे, तेमां वारंवार ठरवारूप
निर्विकल्प ध्यान पण वर्ते छे.
स्वरूप शुद्ध छे एम अनुभवपूर्वक सम्यग्द्रष्टिने ज्ञान थया पछी सामायिकमां
प्रयोग करे छे के हुं परमात्मा छुं तो उपयोग एमां स्थिर रही शके छे के नहीं एनो
अजमायश ने प्रयोग सामायिकमां करे छे. रोज सामायिकमां अजमायशने प्रयोग करे छे
तथा पंदर दिवसे, महिने चोवीश कलाक प्रयोग करे के आत्मा अंदर स्वरूपमां केटलो
रही शके छे. ते

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४२] [हुं
प्रयोगने पौषध कहे छे. देहना त्यागना काळे निर्विकल्प केटलो रही शकुं छुं, भवना
अभावना काळे भवना अभावस्वरूप भगवान आत्मामां स्थिरता केटलीक रही शके
छे? तेनो प्रयोग करवो तेने ‘संथारो-समाधि मरण’ कहे छे. आ बधुं गृहस्थाश्रममां
थई शके छे एम अहीं तो कहेवुं छे हो!
-आ रीते गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां जे आत्माने उपादेय जाणे ने रागादिने
होय जाणे ते अल्पकाळमां निर्वाणने पामे छे. १८.
हवे १९मी गाथामां कहे छे के जिनेन्द्रदेवनुं स्मरण परमपदनुं कारण छे.
जिणु सुमिरहु जिणु चिंतवहु जिणु झायहु सुमणेण ।
सो झायंतहं परम–पउ लब्भइ एक्क–खणेण ।। १९।।
जिन समरो जिन चिंतवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध;
ते ध्यातां क्षण एकमां, लहो परमपद शुद्ध.
१९.
हे आत्मा! वीतराग परमेश्वर अने तारो आत्मा-ते बन्नेना स्वभावमां कांई
फेर नथी. वर्तमान पर्यायमां-अवस्थामां फेर छे. भगवाननी दशा पूर्णानंदरूप थई
गईने तारी दशामां राग ने मलिनता छे परंतु वस्तु स्वभावमां ने भगवानना
स्वभावमां कांई फेर नथी. तेथी अहीं कहे छे के केवळज्ञानी परमेश्वरे जेवो भगवान
आत्मा जोयो छे तेवो आत्मा जेने श्रद्धा-ज्ञानमां बेठो छे एवो धर्मीजीव एनुं वारंवार
स्मरण करे छे. रागनुं, निमित्तनुं के संयोगनुं स्मरण करतां नथी पण भगवान
आत्मानुं स्मरण करे छे.
हे आत्मा! शुद्धभावथी जिनेन्द्रनुं स्मरण करो. जिनेन्द्र एटले आत्मा, तेनुं
शुद्धभावथी स्मरण करो. भगवान आत्मानो स्वभाव वीतरागी इन्द्र-ईश्वर छे पण
पोते पोताने रांको मानीने बेठो, आनी विना चाले नहीं ने तेनी विना चाले नहीं-
एने केम बेसे? आबरूमां जराक खामी थई जाय त्यां तो...एने केम बेसे के पोते
परमेश्वर प्रभु छे! आबरूमां जराक धक्को लागे त्यां तेने कांई थई जाय, पण बापु!
अनादिनो तने आबरूनो आ मोटो धक्को लागी गयो छे तेनुं शुं? भगवान
सच्चिदानंद प्रभु जिनेन्द्र छे तेने रागवाळो मानवो ए तने मोटुं कलंक छे बापु!
भाई! भगवान आत्मा वीतरागमूर्ति प्रभु छे तेनुं चिंतवन कर ने! आ राग
ने दया-दान आदिना विकल्प छे ए तो छोडवालायक छे, एने वारंवार याद शुं काम
करे छो? आवे तोपण तेने याद शुं करवा करे छो? आत्मा साक्षात् वस्तु तरीके जिनेन्द्र
प्रभु छे ने तेनी दशामां जिनेन्द्रपणुं प्रगट करवा माटे ए जिनेन्द्र प्रभुमां एकाग्र थईने
ध्यान करवुं ए प्रगट जिनेन्द्र थवानो उपाय छे.
आहाहा! घरे परमेश्वर प्रभु आदिनाथ मुनि पधारे ने तेनो आदर न करे अने
सडेलां रोगवाळी वाघरणनो आदर करे! तेम त्रण लोकनो नाथ भगवान पोते
समीपमां

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परमात्मा] [४३
बिराजे छे तेनो आदर न करतां पुण्य ने पाप मेल-भिखारी जेवा विकारने शरीरादिनो
सत्कार करे!!
जिन समरो-भगवान आत्मा चैतन्यप्रभु उपादेय छे ने रागादि मेल हेय छे एम
जेने पहेलां सम्यग्ज्ञानमां विवेक प्रगटयो छे ते जिनेन्द्रनुं स्मरण करे छे. बहारनी होळीना
स्मरण करे छो तेना करतां समीपमां चिदानंदप्रभु बिराजे छे तेनुं स्मरण कर ने! एनुं
स्मरण करतां ए प्रगट थाय एवो छे. माटे अंदर जे राग ने पुण्यभाव आवे एने याद
न कर! झेरने याद करवा जेवा नथी, छोडी दे लक्षमांथी! पवित्र प्रभु भगवान आत्मा छे
तेनुं स्मरण करवा जेवुं छे, ते तने हितनुं कारण छे.
अहो! हुं ज तीर्थंकर छुं, हुं ज जिनवर
छुं, मारामां ज जिनवर थवाना बीजडां पडया छे.
परमात्मानो एटलो उल्लास...के जाणे परमात्माने
मळवा जतो होय! परमात्मा बोलावता होय के
आवो......आवो......चैतन्यधाममां आवो! आहाहाहा!
चैतन्यनो एटलो आह्लाद ज होय! चैतन्यमां
एकलो आह्लाद ज भर्यो छे. एनो महिमा, माहात्म्य
उल्लास, उमंग असंख्य प्रदेशे आववो जोईए
– पूज्य गुरुदेवश्री

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४४] [हुं
[प्रवचन नं. ८]
हे मोक्षार्थी! निज परमात्मामां ने जिनेन्द्रमां
किंचित् भेद न जाण!
[श्री योगसार उपर परमपूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता १४-६-६६]
आ योगसार शास्त्र छे. आत्मानुं हित जेमांथी प्रगट थाय एवो जे पोतानो
आत्मा तेनी एकाग्रतानो जे भाव ते योग छे अने ते योगथी जे वीतरागता प्रगट
थाय ते योगसार छे. अहीं आपणे १९मी गाथा चाली रही छे.
जिणु सुमिरहु जिणु चिंतवहु जिणु झायहु सुमणेण ।
सो झायंतह परम–पउ लब्भइ एक्क–खणेण ।। १९।।
जिन समरो जिन चिंतवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध,
ते ध्यातां क्षण एकमां, लहो परमपद शुद्ध. १९
* शुद्ध भावे जिनेन्द्रनुं स्मरण करो *
शुद्ध भावे जिनेन्द्रनुं स्मरण करो एटले शुं?-जिनेन्द्र एटले जे पूरण परमात्मा
थई गया एवो ज आ आत्मा जिनेन्द्र छे; ए जिनेन्द्रनुं शुद्धभावथी स्मरण करवुं
एटले के राग विनानी वीतरागी दशा द्वारा भगवान आत्मानुं स्मरण करवुं.
रागनो आश्रय ए कांई जिनेन्द्रनुं स्मरण नथी, ए तो विकारनुं स्मरण छे.
पुण्यपापना रागमां तो जिनेन्द्रथी विरुद्ध विकारभावनुं स्मरण कर्युं, तेथी तेने संसार
अनादि जेम छे तेम रहे छे. भाई! तारे ए संसारनो अंत लाववो होय, सुखी थवुं
होय तो जिनेन्द्रनुं स्मरण करवुं एटले के जिनेन्द्र समान तारो स्वभाव छे तेनुं स्मरण
करवुं. ए स्मरण क्यारे करी शके?-कोण करी शके?-के पहेलां निर्णय कर्यो होय के हुं
पोते परिपूर्ण परमात्मा छुं, मारा स्वभावमां पूर्णानंद ने पूरण निर्दोषता भरी पडी
छे-आम जेने श्रद्धामां धारणामां आव्युं होय ए जिनेन्द्रनुं स्मरण करी शके.
जेनो जेने प्रेम होय तेनुं ते स्मरण करे. लग्ननी धमालमां अरे! मोटीबेन ने
भाणीया न आवी शक्या-एम ओरतो करे-याद करे; केम के प्रेम छे ने! एटले लग्ननी
धमालमां पण स्मरण करे! तेम शुद्ध अखंडानंद परमात्मानुं स्वरूप ते ज मारु स्वरूप
छे-एम निर्णयमां आत्मानो जेने प्रेम जाग्यो होय ते तेनुं वारंवार स्मरण करे
जेणे निर्णय कर्यो छे के पूरण शुद्ध आनंदस्वरूप परमात्मा होय छे, तेने एवो
निर्णय आवे के हुं पोते वस्तु तरीके परमात्मा छुं, मारुं स्वरूप ज वीतराग बिंब छे.
वस्तुमां

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परमात्मा] [४प
सदोषतानो अंश नथी के अपूरणता नथी, एवी मारी वस्तु छे-एवो जेणे ज्ञानमां
निर्णय करीने अनुभव कर्यो छे के आ वस्तु आम ज छे, एने वारंवार ए वस्तु
स्मरणमां आवे छे.
संसारना भोगमां, पैसा कमावा आदिमां केवी होंश आवे छे?-केम के अज्ञानमां
एने एनो प्रेम छे ने? माने भले मजा पण अत्यारेय दुःखी छे ने चार गतिमां
रखडवानो छे. आम कमावुं, आम परणवुं, आनुं आम करवुं-एम कषायमां होंश केटली
छे-ए तो एकला दुःखनी घाणीमां पीलाई रह्यो छे.
अहीं तो एम कहे छे के जेनो जेने प्रेम तेने ते वारंवार संभार्या करे ने तेमां
तेनुं उल्लसित वीर्य काम कर्या करे छे. परनुं कांई करतो नथी पण आनुं आम कर्युं ने
तेम कर्युं-एम एनुं उल्लसित वीर्य त्यां काम कर्या करे छे. रुचि अनुयायी वीर्य. जेनी
जेने रुचि तेनुं वीर्य त्यां काम कर्या विना रहे नहीं, तेनुं ज्ञान, तेनी श्रद्धा, तेनुं वीर्य
ज्यां रुचि होय त्यां काम कर्या करे.
जेने आ आत्मा सुखी केम थाय-एवी जरूरीयात जणाय, आ आत्मानी दया
आवे के अरे आत्मा! अनंत काळथी ८४ लाख योनिना अवतारमां क्यांय कोई शरण
नथी, क्यांय कोई आधार नथी, एकलो दुःखी थईने तरफडे छो, तरफडे छो! -एम
एने दया आववी जोईए के अरे आत्मा! तने कांईक सुख थाय एवो रस्तो ले
भाई! तुं जिनेन्द्रस्वरूपी छो-एम श्रद्धा-ज्ञानमां ले. एम जेणे श्रद्धा-ज्ञानमां लीधुं छे
ने ते वारंवार जिनेन्द्रनुं स्मरण करे छे.
भाई! वस्तु स्वरूप पूर्णानंदनी मूर्ति छे, एना श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक तेनुं वारंवार
स्मरण करतां एटले के एकाग्रता करतां मुक्तिनी प्राप्ति थाय छे. तेथी अहीं कहे छे के
जिन समरो, जिन चिंतवो, जिन ध्यावो. हुं पोते वीतराग परमात्मा छुं एम स्मरण
कर, चिंतवन कर ने एमां ने एमां एकाग्रता कर.
त्रसनी स्थिति तो बे हजार सागरनी छे, पछी तो एकेन्द्रियनी लांबी स्थितिए
आत्मा चाल्यो जाय. केम?-के जिनेन्द्र स्वरूपी आत्माना स्मरण ने ध्यानना अभावने
लईने विकारना स्मरण ने ध्यानने लईने त्रसनी स्थिति पूरी करीने निगोदमां
अनंतकाळ चाल्यो जशे.
अरे आत्मा! तुं परमात्मा छो ने आ परिभ्रमणना पंथे क्यां चढी गयो!
परिभ्रमणना पंथनो अभाव करवानी तारामां ताकात छे. अरिहंत परमात्माए भवनो
अभाव कर्यो छे ने ए भवनो अभाव करवानी ताकातवाळो हुं आत्मा छुं-एम पलटो मार.
* क्षणमां केवळज्ञान लई शके एवो तुं छो *
हवे कहे छे के एक क्षणमां केवळज्ञान लई शके एवो आत्मा छे. एक क्षणमां
करोडो रूपियानो बंगलो बांधवो होय तो बांधी न शके पण एक क्षणमां केवळज्ञानरूपी
बंगलो प्रगट करी शके एवो तैयार परमात्मा छे. भगवान आत्मा परमानंदनी मूर्ति,
ज्ञानसूर्य वीतराग स्वरूपी छे, तेनुं ध्यान करतां-तेने ध्येय बनावीने तेमां लीन थतां
क्षणमां केवळज्ञान

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४६] [हुं
पामे-सादि अनंतकाळ रहे एवुं केवळज्ञान क्षण एकमां पामे एवो आत्मा पोते छे,
पण एनी सामे एणे कदी जोयुं नथी.
भगवान आत्माने रुचिमां लई, ज्ञानमां एने ज्ञेय बनावीने, तेनुं स्मरण,
चिंतवन करे ने तेमां ठरे तो क्षणमां केवळज्ञान पामे अने सम्यग्दर्शन, ज्ञान ने
चारित्रना अंशमां जेटलो स्वरूपमां ठरे एटलो आनंदनो स्वाद आवे. ए आनंदना
स्वादीया सम्यग्द्रष्टि जगतने एम जुए छे के अहो! आ बधा परमात्मा प्रभु छे,
एनी भूल छे ते एक समयनी छे. तेथी कोई आत्मा प्रत्ये सम्यग्द्रष्टिने विषमभाव
थतो नथी. बधा आत्माओ परमात्मस्वरूपे परमात्मा छे. एक समयनी विकृत दशा छे,
ए विकृत दशाने जेणे स्वभावना आश्रये तोडीने जिनेन्द्रस्वरूपे पोते छे एम जाण्यो-
मान्यो ए बधा आत्माने एवा ज स्वभावे जुए छे एटले कोने कहेवा नाना ने कोने
कहेवा मोटा?
जेनी श्रद्धामां वीतराग स्वभावी आत्मानी किंमत थई छे ने वारंवार ए किंमती
चीजने याद करीने स्मरण करीने ठरे छे. ते जो अल्पकाळ ठरे तो तेटलो आनंद आवे छे
ने विशेष ठरे तो अल्पकाळमां केवळज्ञान पामे छे, क्षणमात्रमां परमात्मा थई जाय.
वीतराग स्वरूप परिपूर्ण भगवान आत्मा छे एम विश्वास करे, मारुं परमपद
निजानंदस्वरूपे त्रिकाळ बिराजमान छे एवो जेने अंतर रुचिपूर्वक ज्ञान थईने विश्वास
आव्यो ने एनी ज्यां लगन लागी ने अंदर ठर्यो त्यां क्षणमां परमात्मा! सादि अनंत
सिद्ध दशा! परमात्मा समान छुं...परमात्मा समान छुं... परमात्मा छुं...परमात्मा छुं...-
एम ध्यान करतां करतां परमात्मा पोते थई जाय छे. हुं रागी छुं...हुं रागी छुं...हुं
रागनो कर्ता छुं-एम करतां करतां मूढ थई जाय छे. रागनो कर्ता ने परनो कर्ता
आत्मा नथी, जो कर्ता होय तो तन्मय थई जाय. पण ए रूपे आत्मा थयो ज नथी.
एवो भगवान आत्मा वीतराग स्वरूपी परमपदनुं कारण छे. १९.
हवे कहे छे के पोताना आत्मामां ने जिनेन्द्रमां फेर नथी. एक समयनी दशामां
विकार छे ए कांई असली आत्मा नथी. एक समयनी अल्पज्ञ दशा, वर्तमान पर्याय
ने राग ए कांई आत्मानुं असली स्वरूप नथी. ए तो विकृत ने अपूर्णरूप छे.
भगवान आत्मामां एक समयमां त्रण प्रकार छे. पुण्य-पापनी विकृत दशा अने
तेनाथी मने लाभ थाय एवी भ्रांति ए एक प्रकार छे तेने जाणनारी वर्तमान पर्याय
अल्पज्ञता ते बीजो प्रकार छे अने ए विकृत तथा अल्पज्ञदशा वखते ज पूरण शुद्ध
पवित्र सर्वज्ञ स्वरूप ते त्रीजो प्रकार छे. एक समयनी पर्यायमां अल्पज्ञता छे त्यारे
पोते सर्वज्ञ छे, पर्यायमां ज्यारे रागादि भाव छे त्यारे पोते वीतरागनुं बिंब छे.
आवो आत्मा-सर्वज्ञ स्वरूपी वीतराग बिंब भगवान आत्मा अने जिनेन्द्रमां भेद
नथी. जिनेन्द्र भगवानना द्रव्य ने गुण शुद्ध छे अने एवा ज मारा द्रव्य-गुण शुद्ध छे,
जिनेन्द्र देवनी पर्याय अपूर्णनी पूर्ण थई गई ने विकारनी अविकारी वीतरागी पर्याय
थई गई-ए पोताना त्रिकाळ परमात्मस्वरूपना आश्रये थई छे अने एवी ज सर्वज्ञता
ने वीतरागता मारा त्रिकाळी स्वरूपमां पडी छे.

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परमात्मा] [४७
सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म मिं पि वियाणि ।
मोक्खहं कारणे जोइया णिच्छईं एउ विजाणि।। २०।।
जिनवर ने शुद्धात्ममां, किंचित् भेद न जाण;
मोक्षार्थे हे योगीजन! निश्चयथी ए मान.
र०.
आहाहा! आमां तो एकला माखण भर्या छे. गळ्‌या साटा पीरस्या छे! दांत
विनाना छोकराय खाय, दांतवाळा छोकराय खाय, युवान पण खाय ने वृद्धो पण
खाय-एवा साटा पीरस्या छे!
हे योगी एटले के जेने पोताना स्वरूपनी किंमत भासी छे एवा हे योगी!
पोताना आत्मामां जे जिनेन्द्रमां कोई भेद न समजो. अंतर वलणमां ज्यां वीतरागी
चैतन्यनी किंमत थई छे, रागना भावथी ज्यां भगवान आत्माने जुदो जाण्यो छे,
एवा हे योगी! आत्मामां ने परमात्मामां जरीये भेद न जाण.
सर्वज्ञ परमात्मा वीतराग देव पोताना ज्ञानमां ज्ञानथी बधुं जेम भिन्न छे तेम
जाणे छे-ए सर्वज्ञमां ने तारामां कांई फेर नथी. तुं पण जाणनार ज्ञानस्वरूपी प्रभु ज
छो. सर्वज्ञदेव सर्वज्ञनी पर्याय द्वारा जाणे छे ने तुं अल्पज्ञ पर्याय द्वारा सर्वज्ञपदने
लक्षमां लईने जाणवानुं काम करे छे. माटे सर्वज्ञमां ने तारामां कांई फेर नथी.
वस्तुस्वभाव ज एवो छे माटे तारामां ने सर्वज्ञमां भेद न जाण, जुदा न पाड!
सम्यग्ज्ञानदीपिकामां कह्युं छे के एक क्षण पण सिद्ध परमात्माथी जुदो पाडे ते मिथ्याद्रष्टि
संसारी छे. केम?-के एक क्षण पण सिद्ध परमात्माथी पोताने जुदो माने छे तेणे राग ने
विकल्पनी एकता मानी छे, रागनो ने परनो कर्ता थईने त्यां रोकायो छे, तेथी वीतराग
परमात्माथी एक क्षण पण जुदो रह्यो तो मूढ मिथ्याद्रष्टि संसारी निगोदगामी छो!
सर्वज्ञ जिनेश्वरदेव पण जाणे....जाणे...ने...जाणे, भले पूरण पर्याय द्वारा जाणे
पण जाणे...जाणे ने जाणे छे अने तुं अल्पज्ञ पण पूरण स्वभावना आश्रये जाणे छे.
जेम जिनेन्द्र पण रागादिना कर्ता नथी तेम तुं पण रागादि आवे तेनो कर्ता नथी-
जिनेन्द्रदेवने रागादि छे नहीं ने कर्ता नथी अने अहीं नीचली भूमिकामां रागादि छे
पण तारा स्वरूपमां नथी ने रागनो कर्ता छो ज नहीं. माटे कहे छे के जिनेन्द्रमां ने
तारा स्वरूपमां कांई पण भेद न जाण! जुदा न पाड!
सर्वज्ञ परमात्माथी पोताने जुदो जे पाडे ते रागनो कर्ता थाय छे, ते आत्मा
रहेतो नथी. जेम जेना अन्न जुदा तेना मन जुदा, तेम परमात्मा सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ
परमेश्वर स्वरूपी हुं आत्मा छुं-एवी जेने अंतरमां प्रतीत थई छे तेणे आत्मा
रागवाळो मान्यो नथी तेथी ते परमात्माथी जुदो पडयो नथी. परंतु जेणे पोताने
परमात्माथी जुदो पाडयो छे ते राग मारो ने पर मारा एम परमात्माथी जुदो पडीने
परमां-चार गतिमां रखडशे.

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४८] [हुं
* निश्चयथी मोक्षनुं साधन *
निश्चयथी मोक्षनुं साधन आ छे, बीजुं कांई निश्चयथी मोक्षनुं साधन नथी.
वीतराग परमात्मानो जेवो स्वभाव छे तेवो ज मारो स्वभाव छे एम प्रतीति करीने
तेना ध्यान वडे अंतरमां एकाग्र थवुं ए ज मोक्षनुं साधन छे, ए सिवाय मोक्षनुं कोई
बीजुं साधन नथी. मोक्षस्वरूपे पण पोते छे अने मोक्षनुं साधन पण पोते छे.
व्यवहाररत्नत्रय मोक्षनुं साधन छे के गुरु मोक्षनुं साधन छे-ए बधुं काढी
नाख्युं! एक ज मोक्षनुं साधन छे के परमात्माने ने आत्माने जुदा न जाणवा! एटले
के सर्वज्ञदेव वीतरागी पर्यायवाळा पूरण परमात्मा छे अने हुं पण एवी सर्वज्ञ
वीतरागी पर्याय प्रगट करवानी ताकातवाळो वीतरागी स्वरूपी आत्मा छुं अने एनी
प्रतीति, ज्ञान ने स्थिरता ए सर्वज्ञ वीतरागी पर्याय प्रगट करवानुं साधन मारामां छे.
वीतरागभावे ज्ञाताने जोवो-जाणवो ए ज मोक्षनुं साधन छे. रागवाळो छुं के में राग
कर्यो-ए कांई मोक्षनुं साधन नथी.
वीतराग परमात्मा अने तारा स्वभावमां-बेमां फेर नथी. ए ज मोक्षनुं कारण
छे. बेमां फेर न पाड तो मोक्षनुं कारण छे, फेर पाड के हुं रागवाळो छुं ने कर्मवाळो छुं
तो ए मोक्षनुं कारण नथी पण ए बंधनुं साधन छे.
निश्चयथी एम जाण एटले के सत्य आम ज छे-एम जाण. विकल्पनो कर्ता
वीतराग परमात्मा नथी तेम तुं पण नथी, सिद्ध भगवान निमित्तने मेळवता नथी के
छोडता नथी, जाणे छे तेम तुं पण निमित्तने मेळवे के छोडे एवुं तारामां नथी, तुं तो
जाणनार देखनार छो! एवा जाणनार-देखनार भगवान आत्माने सर्वज्ञदेव जेवो
जाणवो ए ज मोक्षनुं कारण छे.
अरे! अनंतकाळथी भूल्यो भाई! अने हवे ए भूल भांगवाना आ टाणा
आव्या त्यां आम नहीं ने तेम नहीं-एम ऊंधाई क्यां करवा बेठो? भाई! ए तने
नडशे हो! खावा टाणे बीजी होळी क्यां करे छो?-टाणुं गया पछी खावानुं ठरी जशे ने
पछी तने भावशे नहीं तेम आ भूल भांगवाना टाणा आव्या छे हो! टाणुं चूकीश
नहीं बापु!
भगवान आत्माने परमात्मामां कांई आंतरो नथी. एनी नातनो हुं छुं एम
जाण. स्तुतिमां पण आवे छे के हे तीर्थंकर देव! रागने विकारने ने संयोगने मारा
स्वभावमां एकत्व न करवा ए आपना कुळनी रीत छे. आपे रागने ने संयोगने
स्वभावमां मेळव्या नथी अने अमे आपना भगत छीए माटे अमे पण दया-दान-
व्रत भक्तिना विकल्पने ने संयोगने आत्मामां नहीं आववा दईए, एकपणे थवा नहीं
दईए. प्रभु! अमे पण आपना जेवा छीए तो अमे ए रागादिने स्वभावमां एकपणे
केम थवा दईए?-एम स्तुतिमां पण आवे छे.
भगवान आत्मा कोण छे? एनी पर्याय शुं छे? अल्पज्ञ पर्यायनी हद शुं छे?
विकारमां स्वरूपनी स्थिति शुं छे? एने जाण्या विना आत्मानो पत्तो क्यांथी लागे?
भाई! तारा स्वरूपनी पूरणतामां अपूरणता केम कहेवी? तारा स्वरूपने विकारवाळुं
केम कहेवुं? तारा स्वरूपने संयोगना संबंधवाळुं केम कहेवुं? भाई! संबंध विनानो,
विकार विनानो,

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परमात्मा] [४९
अल्पज्ञता विनाना तारो आत्मानो स्वभाव परमात्माना स्वभाव जेवो ज निश्चयथी तुं
जाण. एम जाणता तने वीतरागता प्रगट थशे ने वीतरागता प्रगट थतां तने
अल्पकाळमां केवळज्ञान थशे.
जेम सिंहनुं बच्चुं पहेलेथी बकरांना टोळामां उछर्युं होय तेथी ते माने के हुं पण
आ बधा जेवो ज छुं-बकरुं छुं; पण ज्यां बीजो मोटो सिंह आव्यो ने त्राड पाडी त्यारे
बधां बकरां भागी गया तोपण सिंहनुं बच्चुं भाग्युं नहीं. केम न भाग्युं?-के ए
त्राडथी एने कोई भय न लाग्यो माटे न भाग्युं. त्यारे सिंह कहे के तुं मारी नातनो
छो, तारुं मोढुं पाणीमां जो, बकरां, जेवुं नथी, मारी जेवुं छे, तुं सिंह छो, बकराना
टोळामां तुं न होई शके, आवी जा मारी साथे.
तेम सर्वज्ञदेव कहे छे के तुं राग ने द्वेष ने अज्ञानमां पडयो होवाथी हुं रागी
छुं, हुं संसारी छुं-एम बकरांना टोळामां सिंहना बच्चानी जेम भेळसेळ थई गयो!
हवे परमात्मानी ज्यां त्राड पडी के तुं परमात्मा छो, मारी नातनो ने जातनो छो!
तारी चीजने तुं जो तो खरो! मारामां पूरणता प्रगटी एवी पूरणता प्रगटाववानी
तारामां ताकात पडी छे के नहि! अंदर जो तो खरो! कर्म कर्ममां रह्या, राग रागमां
रह्यो ने अल्पज्ञता पर्यायमां रही, तारा पूरण स्वरूपमां अल्पज्ञता, कर्म के विकार
आवता नथी-एम तुं तने जो तो खरो!
एकवार विश्वास द्वारा जो तो खरो के परमात्मामां ने मारामां कांई फेर नथी.
आखो परमात्मा तारी पडखे ऊभो छे. तारे! बीजानी जरूर शुं छे? तुं तारामां ने
परमात्मामां भेद न जाण. आहाहा! गजब वात करी छे ने!
दशाश्रीमाळी करोडपतिने त्यां नातनुं जमण होय तेमां गरीब दशाश्रीमाळी
वाणियो जमवा बेसी जाय के अमे एक ज नातना छीए. परंतु बंगलावाळो वाघरी
जमवा नहि जई शके. तेम सिद्ध भगवानना मंडपमां पेसी जनारा अमे आत्मा छीए,
दूर आघा ऊभा रहीए एवा अमे नथी पण एक नातना, मंडपमां अंदर पेसी जनारा
आत्मा छीए-एम एकवार तो नक्की कर!
भगवान आत्मामां ने सिद्ध परमात्मामां कांई फेर नथी-एम फेर काढी नाख
तो सिद्ध थया विना नहीं रहे. माटे परमात्मामां ने तारामां किंचित् भेद न पाड-ए ज
मोक्षनुं साधन छे. बीजुं कोई मोक्षनुं साधन छे नहि.