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कारण छे. चोथेकाळे पण आ ज वात छे ने पंचमकाळे पण आ ज वात छे. पांचमो
आरो छे माटे शुभभाव कांईक लाभनुं कारण हशे एम नथी, शुभभाव बंधनुं ज
कारण छे.
गै्रवेयक जाय छे. परंतु शुद्ध चिदानंद आत्मानो अंतर विश्वास आव्या विना पुण्यना
विश्वासे चढी गयो-खोटा विश्वासे चढी गयो, खोटे रस्ते चढी गयो, तेथी ते मोक्षसुखने
पामतो नथी ने चार गतिमां फरी फरी भ्रमण करे छे.
चार गतिमां रखडवानुं थाय ने तेने अवतार कोई दी घटे नहीं.
नहीं हैं. सब क्षणभंगुर है, शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित जो
मिथ्यात्व विषय-कषाय हैं, उनसे आसक्त होके जीवने जो कर्म
उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता
है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता. ईसलिये ईस लोकमें ईन
देहादिक सबको विनश्वर जानकर देहादिकी ममता छोडना चाहिये,
और सकल विभाव रहित निज शुद्धात्म पदार्थकी भावना करनी
चाहिये.
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मोक्खह कारण जोइया णिच्छंइं एहउ जाणि ।। १६।।
हे योगी! शिव हेतु ए, निश्चयथी तुं जाण.
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वाणीथी कहे छे ने सांभळे छे ए पण छे, पण ए बधां आत्मदर्शनमां काम करतां नथी.
बे प्रकारे आवे पण निश्चय सम्यग्दर्शन ते एक ज सम्यग्दर्शन छे.
श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन नहीं, छ द्रव्योनी
तेनो अनुभव, तेनी प्रतीति ते एक ज सम्यग्दर्शन छे. ए आत्मदर्शन विना जे कोई
क्रियाकांडमां धर्म मनाय ते मिथ्यादर्शन छे. एक समयमां पूरण अभेद अनंतगुणनुं
अभावमां पुण्य-दया-दान आदिना परिणाममां धर्म छे तेम मानवुं ते मिथ्यादर्शन छे.
सम्यग्दर्शन पछी पुण्य-दया-दानना परिणाम आवे, वचमां व्यवहार आवे खरो पण
कहीए तो ए व्यवहार अंतर अनुभवनी द्रष्टिमां तेने निमित्त कहेवामां आवे छे ने
प्रतिकूळताथी कहीए तो ते बंधनुं कारण छे.
क्रियामां के नवतत्त्वोनी श्रद्धाना रागमां सम्यग्दर्शन अथवा मोक्षनो मार्ग जरीए छे
नहीं. आत्माना दर्शन सिवाय अन्यमां सम्यग्दर्शन ने मोक्षनो मार्ग जरीए नथी.
वस्तुनुं स्वरूप आ छे.
वातने सम्यग्दर्शन माने तेने मिथ्यादर्शन थाय छे. आत्माना अनुभवनी द्रष्टि सिवाय
गुणीने गुणना भेद वडे पण आत्मदर्शन थई शके नहीं, तो पछी दया-दान आदि
पाळो पछी सम्यग्दर्शन थशे ए वात तो तद्न मिथ्या छे.
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तेने देव-शास्त्र-गुरुनी साची श्रद्धा नथी, केम के देव-शास्त्र-गुरु तो आत्माना दर्शनने
मान्यता जूठी छे. आत्मदर्शन विना देव-शास्त्र-गुरुनी साची श्रद्धा रहेती नथी ने तेथी
ए विना जे व्रतादि क्रिया करवामां आवे ते राख उपर गारना लींपणा जेवुं छे. १६.
णिच्छय–णइ अप्पा मुणहि जिम पावहु परमेठ्ठि ।। १७।।
निश्चय आतमज्ञान ते, परमेष्ठिपदकार.
छे, कई लेश्या छे ने भवि-अभवि छे, कया ज्ञाननो पर्याय छे-एवा बधा भेदोने
जाणवा ते व्यवहारनयनो विषय जाणवालायक छे, आदरवालायक नथी.
आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. केवळ व्यवहारनयनी द्रष्टिथी मार्गणा ने गुणस्थान
जेनी पर्यायमां भूल छे तेनी तो अहीं वात करता नथी अथवा तो मुनिदशा आवी
होय ने केवळीनी दशा आवी होय के सम्यग्द्रष्टिनी आ दशा होय एनो जेने ख्याल
चोथा गुणस्थाननी ने मिथ्याद्रष्टिनी दशा आवी होय ते नक्की करे के आ जीव आ
गुणस्थानमां छे, आ मार्गणास्थानमां छे-ए बधुं ज्ञान भले हो, जाणवा माटे छे,
तेमां ताकात नथी.
व्यवहारनयनो विषय छे, परंतु त्रिकाळ अभेदद्रष्टिनी अपेक्षाए ए बधा भेदोने अभूतार्थ
कहेवामां आवे छे, असत्यार्थ कहेवामां आवे छे. जूठा छे-एम कहेवामां आवे छे.
पांच इन्द्रियवाळो छे ने आ बे इन्द्रियवाळो छे-ए बधुं अवस्थाद्रष्टिए छे खरुं, पण
त्रिकाळ स्वभावना आश्रय
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कहे छे के व्यवहारद्रष्टिथी ए जाणवा लायक छे पण ए ज्ञाननो महिमा नथी. भगवान
आत्मानुं ज्ञान कर, एमां एकाग्रता कर, एनाथी केवळज्ञान थशे. प्रकृतिथी, विकल्पथी
के तेना ज्ञानथी केवळज्ञान थशे नहीं. भगवाननी वाणीथी ज्ञानमां नक्की थई गयुं के
हुं तीर्थंकर थईश. छतां ए ज्ञान आश्रय करवा लायक नथी.
नथी एम कहे छे. निश्चयनयथी आत्मा स्वयं अरिहंत ने परमात्मा छे. वस्तु सदा
सिद्ध परमात्मा छे एवी अंतरनी द्रष्टि ने तेनुं ज्ञान ते पर्यायमां सिद्धपदने पामवानुं
कारण छे. ए सिवाय अन्य कोई श्रद्धा, अन्य कोई ज्ञान के अन्य कोई आचरण
आत्माने मुक्तिनुं कारण नथी.
श्रद्धा-ज्ञान परमेष्ठिपदनी प्राप्तिनुं कारण थशे, पण व्यवहाररत्नत्रय मुक्तिनुं कारण नहि
थाय एम कहे छे. १७.
मार्ग होय शके छे. राजपाटमां देखाय, इन्द्रना इन्द्रासनमां देखाय छतां ए
गृहस्थाश्रममां पण ए जीव निर्वाणमार्ग उपर चाली शके छे. केम के भगवान आत्मा
पूरण अखंड वस्तु तो मौजूद छे, अखंड वस्तुनो आश्रय करनार गृहस्थाश्रममां पण
निर्वाणने पामवाने लायक थई जाय छे. आटला आटला धंधादि होय तोपण?-के हा;
धंधादि एनामां रह्यां, ए तो जाणवालायक छे. भगवान आत्मानो आश्रय करीने
गृहस्थाश्रमना धंधादिमां जो हेयाहेयनुं ज्ञान वर्ते तो ते पण निर्वाणने लायक छे.
तीव्र दुःख आपनारा छे. आ रीते जे जीव ईन्द्रिय-जन्य विषय-सुखोना
स्वरूपनुं चिंतवन करतो नथी ते बहिरात्मा छे.
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एम नथी के साधु ज मोक्षमार्गमां चाली शके-ए अर्थनी गाथा कहे छेः-
ध्यावे सदा जिनेशपद, शीघ्र लहे निर्वाण. १८.
छतां धर्म कई रीते होय छे?-के गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां हेयाहेयनुं ज्ञान होय छे. हेय
एटले पुण्य-पापना भाव, वेपार-धंधाना भाव के पूजा-भक्ति ना भाव ते हेय छे-
एवुं एने ज्ञान वर्तवुं जोईए.
थाय, त्यागी थाय तेने धर्म होय-एम नथी. मुनि उग्रपणे पुरुषार्थथी शीघ्रपणे मोक्षनुं
साधन उत्कृष्ट करे छे अने गृहस्थाश्रममां सम्यग्द्रष्टिने एने योग्य हेयाहेयनुं ज्ञान
वर्ततुं होय छे. धंधामां होय छतां तेने दरेक क्षणे रागादि भाव हेय छे, पर वस्तुनी,
शरीर आदिनी क्रियानो कर्ता हुं नथी-एवुं ज्ञान वर्ते छे.
करवालायक छे. गृहस्थाश्रममां समकिती आ प्रमाणे वर्तन करी शके छे. गृहस्थाश्रममां
निर्वाणमार्ग न होय एम केटलाक कहे छे ने? अहीं तो कहे छे के गृहस्थाश्रममां आ
रीते निर्वाणमार्ग समकितीने होय छे.
छे ने तेने छोडीने
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गृहस्थाश्रममां ए काम न करी शके-ए केम होई शके?
स्वभाव राखीने पडयो छे. वीतरागना स्वरूपमां ने आत्माना स्वरूपमां कांई फेर नथी.
एवुं पोतानुं स्वरूप छे, एनुं उपादेयपणुं करी शके छे, केम के एनुं साधन पण पोतामां
तेनुं नाम ज उपादेयपणुं.
हती, ते द्रष्टि समीपमां करे के आ आत्मा ज हुं छुं-ए तो गृहस्थाश्रममां थई शके छे.
रागमांथी के परमांथी आवतां नथी माटे गृहस्थाश्रममां आत्माने मोक्षनो मार्ग केम न
थई शके? जरूर थई शके छे-एम कहे छे. वस्तु पोते छे ने ए ज किंमती चीज छे,
द्रष्टिमां उपादेय तरीके वस्तुने ग्रहण करवी-ए गृहस्थाश्रममां केम न थई शके? जरूर
थई शके. वळी एनुं साधन पण अंदर छे. ज्ञानानंद चैतन्यस्वभावनुं साधन पण
पण एनी समीपमां-एमां छे, साधन कांई बहारमां नथी.
हेयाहेयनुं ज्ञान थई शके छे. बापु! तुं छो ने तारुं न करी शके एनो अर्थ शुं? तुं छो
ने तारुं जरूर करी शके. गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां हेय-उपादेयनो ज्ञानमां विवेक जरूर
पछी एनी द्रष्टिमां आवे के अहो! आ आत्मा! अनंतगुणस्वरूप भगवान आत्मा ते
हुं पोते छुं.
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धंधामां रस होय तो पैसा कमाय के पुण्यने लईने कमाय? पुण्य होय तो पैसा
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तेने स्वभावनो लाभस्वभावनो स्वीकार शी रीते थई शके? एक बाजु पैसानी
ममतानो भाव ने बीजी बाजु समतानो पिंड स्वभाव! ममताना काळे पण समतानो
अस्वीकार करवो जोईए; तो गृहस्थाश्रममां पण धर्म थाय.
वस्तुमां कांई फेर नथी. समकिती गृहस्थाश्रममां धंधामां पडयो होय, हजारो राणीओना
वृंदमां पडयो होय छतां रात-दिन जिनेन्द्रदेवनुं ध्यान करे छे. वीतराग...
होय तो सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान ज न होय.
रागादि हेय तरीके वर्ते एटले तेमां लाभनुं कारण केम माने? ए तो नुकशाननुं कारण
छे, शुभाशुभभाव थाय पण ते नुकशाननुं कारण छे.
एम नथी. शुद्ध चिदानंदना भानपूर्वक तेमां खूब ठरे ने खूब आनंदने वेदे ते मुनि; ते
एम छे हो!
त्याग थयो त्यां ते मोटो त्यागी थई गयो. आवा त्याग विना बहारनी क्रियाने त्याग
कहे ने दया-दानना भावथी मने लाभ थाय एम माननार त्यागीए आखा आत्मानो
आत्मानो. ज्ञानीए तो जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते रागनो पण द्रष्टिमांथी त्याग
कर्यो छे.
ध्येयने न जाणे तेने आ हेय ने आ उपादेय एम ज्ञानमां वर्ततुं नथी. तेथी तेने
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हेय तरीके जाणे छे. ए प्रकारना अस्थिरताना रागमांथी बीजे ज क्षणे कदाचित्
ध्यानमां आवे तो अतीन्द्रिय आनंदनुं ध्यान पण करी ले. वासनाना विकल्पमां दोराई
गयो पण अंदर तो सच्चिदानंद प्रभुने द्रष्टिमांथी छोडयो नथी.
तेनी द्रष्टि पडी छे तेथी मिथ्यात्वमां पडयो छे. परंतु गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां ज्यां
एम अंतर्दष्टि ने ज्ञान कर्या त्यां पूजा-भक्तिना भावने पण त्यागबुद्धिए देखे छे.
आनंदनो तुं कंद छो, वीर्यनी तुं कातळी छो,
रागादि पुण्यपरिणामने ग्रहण करवायोग्य मानतो हतो तेनो द्रष्टिमां त्याग वर्त्यो.
आत्माना शुद्धज्ञानरूप परिणति कायम वर्ते छे ने कोई वखते निर्विकल्प ध्यान पण
गृहस्थीने थई जाय.
द्रष्टि थतां विकारपणे हुं नथी एम द्रष्टि थतां द्रष्टिमां विकारनो त्याग वर्ते छे;
गृहस्थाश्रममां पण एने ध्यान वर्ते छे. जेने लक्षमां लीधो छे, तेमां वारंवार ठरवारूप
निर्विकल्प ध्यान पण वर्ते छे.
अजमायश ने प्रयोग सामायिकमां करे छे. रोज सामायिकमां अजमायशने प्रयोग करे छे
रही शके छे. ते
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अभावना काळे भवना अभावस्वरूप भगवान आत्मामां स्थिरता केटलीक रही शके
थई शके छे एम अहीं तो कहेवुं छे हो!
सो झायंतहं परम–पउ लब्भइ एक्क–खणेण ।। १९।।
ते ध्यातां क्षण एकमां, लहो परमपद शुद्ध.
गईने तारी दशामां राग ने मलिनता छे परंतु वस्तु स्वभावमां ने भगवानना
स्वभावमां कांई फेर नथी. तेथी अहीं कहे छे के केवळज्ञानी परमेश्वरे जेवो भगवान
स्मरण करे छे. रागनुं, निमित्तनुं के संयोगनुं स्मरण करतां नथी पण भगवान
आत्मानुं स्मरण करे छे.
पोते पोताने रांको मानीने बेठो, आनी विना चाले नहीं ने तेनी विना चाले नहीं-
परमेश्वर प्रभु छे! आबरूमां जराक धक्को लागे त्यां तेने कांई थई जाय, पण बापु!
अनादिनो तने आबरूनो आ मोटो धक्को लागी गयो छे तेनुं शुं? भगवान
प्रभु छे ने तेनी दशामां जिनेन्द्रपणुं प्रगट करवा माटे ए जिनेन्द्र प्रभुमां एकाग्र थईने
ध्यान करवुं ए प्रगट जिनेन्द्र थवानो उपाय छे.
समीपमां
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सत्कार करे!!
स्मरण करे छो तेना करतां समीपमां चिदानंदप्रभु बिराजे छे तेनुं स्मरण कर ने! एनुं
स्मरण करतां ए प्रगट थाय एवो छे. माटे अंदर जे राग ने पुण्यभाव आवे एने याद
न कर! झेरने याद करवा जेवा नथी, छोडी दे लक्षमांथी! पवित्र प्रभु भगवान आत्मा छे
तेनुं स्मरण करवा जेवुं छे, ते तने हितनुं कारण छे.
छुं, मारामां ज जिनवर थवाना बीजडां पडया छे.
परमात्मानो एटलो उल्लास...के जाणे परमात्माने
मळवा जतो होय! परमात्मा बोलावता होय के
आवो......आवो......चैतन्यधाममां आवो! आहाहाहा!
चैतन्यनो एटलो आह्लाद ज होय! चैतन्यमां
एकलो आह्लाद ज भर्यो छे. एनो महिमा, माहात्म्य
उल्लास, उमंग असंख्य प्रदेशे आववो जोईए
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थाय ते योगसार छे. अहीं आपणे १९मी गाथा चाली रही छे.
सो झायंतह परम–पउ लब्भइ एक्क–खणेण ।। १९।।
ते ध्यातां क्षण एकमां, लहो परमपद शुद्ध. १९
एटले के राग विनानी वीतरागी दशा द्वारा भगवान आत्मानुं स्मरण करवुं.
अनादि जेम छे तेम रहे छे. भाई! तारे ए संसारनो अंत लाववो होय, सुखी थवुं
होय तो जिनेन्द्रनुं स्मरण करवुं एटले के जिनेन्द्र समान तारो स्वभाव छे तेनुं स्मरण
करवुं. ए स्मरण क्यारे करी शके?-कोण करी शके?-के पहेलां निर्णय कर्यो होय के हुं
पोते परिपूर्ण परमात्मा छुं, मारा स्वभावमां पूर्णानंद ने पूरण निर्दोषता भरी पडी
छे-आम जेने श्रद्धामां धारणामां आव्युं होय ए जिनेन्द्रनुं स्मरण करी शके.
धमालमां पण स्मरण करे! तेम शुद्ध अखंडानंद परमात्मानुं स्वरूप ते ज मारु स्वरूप
छे-एम निर्णयमां आत्मानो जेने प्रेम जाग्यो होय ते तेनुं वारंवार स्मरण करे
वस्तुमां
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पण एनी सामे एणे कदी जोयुं नथी.
चारित्रना अंशमां जेटलो स्वरूपमां ठरे एटलो आनंदनो स्वाद आवे. ए आनंदना
स्वादीया सम्यग्द्रष्टि जगतने एम जुए छे के अहो! आ बधा परमात्मा प्रभु छे,
एनी भूल छे ते एक समयनी छे. तेथी कोई आत्मा प्रत्ये सम्यग्द्रष्टिने विषमभाव
थतो नथी. बधा आत्माओ परमात्मस्वरूपे परमात्मा छे. एक समयनी विकृत दशा छे,
ए विकृत दशाने जेणे स्वभावना आश्रये तोडीने जिनेन्द्रस्वरूपे पोते छे एम जाण्यो-
मान्यो ए बधा आत्माने एवा ज स्वभावे जुए छे एटले कोने कहेवा नाना ने कोने
कहेवा मोटा?
ने विशेष ठरे तो अल्पकाळमां केवळज्ञान पामे छे, क्षणमात्रमां परमात्मा थई जाय.
आव्यो ने एनी ज्यां लगन लागी ने अंदर ठर्यो त्यां क्षणमां परमात्मा! सादि अनंत
सिद्ध दशा! परमात्मा समान छुं...परमात्मा समान छुं... परमात्मा छुं...परमात्मा छुं...-
एम ध्यान करतां करतां परमात्मा पोते थई जाय छे. हुं रागी छुं...हुं रागी छुं...हुं
रागनो कर्ता छुं-एम करतां करतां मूढ थई जाय छे. रागनो कर्ता ने परनो कर्ता
आत्मा नथी, जो कर्ता होय तो तन्मय थई जाय. पण ए रूपे आत्मा थयो ज नथी.
एवो भगवान आत्मा वीतराग स्वरूपी परमपदनुं कारण छे. १९.
ने राग ए कांई आत्मानुं असली स्वरूप नथी. ए तो विकृत ने अपूर्णरूप छे.
भगवान आत्मामां एक समयमां त्रण प्रकार छे. पुण्य-पापनी विकृत दशा अने
तेनाथी मने लाभ थाय एवी भ्रांति ए एक प्रकार छे तेने जाणनारी वर्तमान पर्याय
अल्पज्ञता ते बीजो प्रकार छे अने ए विकृत तथा अल्पज्ञदशा वखते ज पूरण शुद्ध
पवित्र सर्वज्ञ स्वरूप ते त्रीजो प्रकार छे. एक समयनी पर्यायमां अल्पज्ञता छे त्यारे
पोते सर्वज्ञ छे, पर्यायमां ज्यारे रागादि भाव छे त्यारे पोते वीतरागनुं बिंब छे.
आवो आत्मा-सर्वज्ञ स्वरूपी वीतराग बिंब भगवान आत्मा अने जिनेन्द्रमां भेद
नथी. जिनेन्द्र भगवानना द्रव्य ने गुण शुद्ध छे अने एवा ज मारा द्रव्य-गुण शुद्ध छे,
जिनेन्द्र देवनी पर्याय अपूर्णनी पूर्ण थई गई ने विकारनी अविकारी वीतरागी पर्याय
थई गई-ए पोताना त्रिकाळ परमात्मस्वरूपना आश्रये थई छे अने एवी ज सर्वज्ञता
ने वीतरागता मारा त्रिकाळी स्वरूपमां पडी छे.
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मोक्खहं कारणे जोइया णिच्छईं एउ विजाणि।। २०।।
मोक्षार्थे हे योगीजन! निश्चयथी ए मान.
खाय-एवा साटा पीरस्या छे!
चैतन्यनी किंमत थई छे, रागना भावथी ज्यां भगवान आत्माने जुदो जाण्यो छे,
एवा हे योगी! आत्मामां ने परमात्मामां जरीये भेद न जाण.
छो. सर्वज्ञदेव सर्वज्ञनी पर्याय द्वारा जाणे छे ने तुं अल्पज्ञ पर्याय द्वारा सर्वज्ञपदने
लक्षमां लईने जाणवानुं काम करे छे. माटे सर्वज्ञमां ने तारामां कांई फेर नथी.
संसारी छे. केम?-के एक क्षण पण सिद्ध परमात्माथी पोताने जुदो माने छे तेणे राग ने
विकल्पनी एकता मानी छे, रागनो ने परनो कर्ता थईने त्यां रोकायो छे, तेथी वीतराग
परमात्माथी एक क्षण पण जुदो रह्यो तो मूढ मिथ्याद्रष्टि संसारी निगोदगामी छो!
जेम जिनेन्द्र पण रागादिना कर्ता नथी तेम तुं पण रागादि आवे तेनो कर्ता नथी-
जिनेन्द्रदेवने रागादि छे नहीं ने कर्ता नथी अने अहीं नीचली भूमिकामां रागादि छे
पण तारा स्वरूपमां नथी ने रागनो कर्ता छो ज नहीं. माटे कहे छे के जिनेन्द्रमां ने
तारा स्वरूपमां कांई पण भेद न जाण! जुदा न पाड!
परमेश्वर स्वरूपी हुं आत्मा छुं-एवी जेने अंतरमां प्रतीत थई छे तेणे आत्मा
रागवाळो मान्यो नथी तेथी ते परमात्माथी जुदो पडयो नथी. परंतु जेणे पोताने
परमात्माथी जुदो पाडयो छे ते राग मारो ने पर मारा एम परमात्माथी जुदो पडीने
परमां-चार गतिमां रखडशे.
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जाण. एम जाणता तने वीतरागता प्रगट थशे ने वीतरागता प्रगट थतां तने
अल्पकाळमां केवळज्ञान थशे.
बधां बकरां भागी गया तोपण सिंहनुं बच्चुं भाग्युं नहीं. केम न भाग्युं?-के ए
त्राडथी एने कोई भय न लाग्यो माटे न भाग्युं. त्यारे सिंह कहे के तुं मारी नातनो
छो, तारुं मोढुं पाणीमां जो, बकरां, जेवुं नथी, मारी जेवुं छे, तुं सिंह छो, बकराना
टोळामां तुं न होई शके, आवी जा मारी साथे.
हवे परमात्मानी ज्यां त्राड पडी के तुं परमात्मा छो, मारी नातनो ने जातनो छो!
तारी चीजने तुं जो तो खरो! मारामां पूरणता प्रगटी एवी पूरणता प्रगटाववानी
तारामां ताकात पडी छे के नहि! अंदर जो तो खरो! कर्म कर्ममां रह्या, राग रागमां
रह्यो ने अल्पज्ञता पर्यायमां रही, तारा पूरण स्वरूपमां अल्पज्ञता, कर्म के विकार
आवता नथी-एम तुं तने जो तो खरो!
परमात्मामां भेद न जाण. आहाहा! गजब वात करी छे ने!
जमवा नहि जई शके. तेम सिद्ध भगवानना मंडपमां पेसी जनारा अमे आत्मा छीए,
दूर आघा ऊभा रहीए एवा अमे नथी पण एक नातना, मंडपमां अंदर पेसी जनारा
आत्मा छीए-एम एकवार तो नक्की कर!
मोक्षनुं साधन छे. बीजुं कोई मोक्षनुं साधन छे नहि.