Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 33-36.

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१७०] [हुं
प्राप्त करीने आजे ज अव्याकुळपणे नाचो.’ आजे ज आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद ल्यो.
वळी कहे छे के आ शास्त्रनी रचना माराथी थई नथी, ए तो पुद्गल-शब्दोनी रचना
छे. माटे आ टीका अमृतचंद्रसूरीए रची छे एम न नाचो. भाषामां स्व-परने कहेवानी
ताकात छे अने आत्मामां स्व-परने जाणवानी ताकात छे. ‘आ चैतन्यने चैतन्यपणे
आजे ज प्रबळपणे अनुभवो.’ सारा काममां डाह्यो माणस वायदा न करे. माटे
भगवान आत्मा कोईनो कर्ता-हर्ता नथी मात्र जाणनार-देखनार छे-एवो स्वीकार
करीने अत्यारे ज अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव कर! वायदा न कर!
भाई! अनंतकाळमां मांड आ थोडो समय मळ्‌यो छे हो! मनुष्यभवनो काळ
बहु थोडो छे ए पण मांड करीने मळ्‌यो छे तेने तुं बीजा कार्योमां गुमावी दईश तो
कल्याणनो काळ जतो रहेशे. माटे मिथ्या मान्यता छोडीने स्वानुभव करी ले. कह्युं छे केः
‘अनुभव रत्नचिंतामणि, अनुभव है रसकूप,
अनुभव मारग मोक्षनो, अनुभव मोक्षस्वरूप’
आत्माना स्वरूपने अनुसरीने जे दशा थाय छे ते अनुभव छे. माटे मुमुक्षुने
उचित छे के आत्माना स्वरूपमां वारंवार रमण करे, वारंवार भावना भावे. भावनामां
रहेवुं ते चारित्र छे. आत्मा पोते पोताथी पोतामां एक थई जाय छे त्यां रत्नत्रयनी
ऐक्यता थाय छे, आ रत्नत्रयधर्म ज निज-आत्मानो स्वभाव छे.
९०० वर्ष पहेलां थई गयेलां अमृतचंद्र आचार्य खरेखर एकलां अमृतनुं घोलन
करवावाळा हता. ए आचार्यदेव भरतक्षेत्रमां मात्र ९०० वर्ष पहेलां ज थई गया. केवा
लागतां हशे? जाणे हालतां-चालतां सिद्ध जोई ल्यो. एवा ए अमृतचंद्र आचार्य
पुरुषार्थसिद्धिमां लखे छे के आत्मानो निश्चय थवो ते सम्यग्दर्शन, आत्मानुं ज्ञान ते
सम्यग्ज्ञान अने आत्मामां स्थिरता ते चारित्र. आ त्रणेयथी कर्मबंधन थतुं नथी.
अहीं ८प गाथामां योगीन्दु मुनिराज कहे छे के आत्मानुभवमां ज बधा गुण छे.
जहिं अप्पा तहिं सयल–गुण केवलि एम भणंति ।
तिहिं कारणहं जोइ फुडु अप्पा विमलु मुणंति ।। ८५।।
ज्यां चेतन त्यां सकळ गुण, केवळी एम वदंत,
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत.
८प.
केवळी भगवाननी साक्षी आपीने मुनिराज वात करे छे. भगवानना ज्ञानमां
एक समयनी पर्यायमां बधुं जणाय जाय छे. जेम स्वच्छ-निर्मळ पाणीमां आकाशमां
रहेलां तारा देखाय जाय छे, ताराने जोवा उपर नजर करवी पडती नथी. तेम
भगवानने पोताना आत्माने अवलंबीने प्रगट थयेली पूर्ण केवळज्ञाननी एक समयनी
पर्यायमां त्रणकाळ-त्रणलोक जणाय जाय छे, पण जेम पाणीमां तारा आवी जतां नथी
तेम ज्ञानमां लोकालोक आवी जतुं नथी. लोकालोक संबंधीनुं पोतानुं ज्ञान आवे छे.

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परमात्मा] [१७१
केवळज्ञाननी एक पर्यायमां आटली ताकात छे, एवी अनंत पर्यायोनो एक
गुण अने एवा अनंत गुणोनो पिंड एक आत्मा छे. तेनी महिमानी शी वात! लोकोने
धर्म करवो छे पण धर्मनो करनारो पोते केवो छे अने केवडो छे तेनुं लोकोने भान
नथी. हे प्रभु! चैतन्यसंपदा तारा धाममां छे तेने तुं संभाळ ए तारो धर्म छे, पण
अरे! आवो महिमावंत आत्मा तेनी महिमा आवे नहि अने लोकोने रागनी ने
पुण्यनी ने वैभवनी महिमा आवे छे.
श्रोताः- प्रभु! आप एवी वात करो छो ने के सांभळतां खुशी खुशी थई
जवाय छे.
पूज्य गुरुदेवः-भगवान! तारा घरनी वात छे ने भाई! तने ए रुचवी ज
जोईए. कोई कोईने कांई करावी देतुं नथी. त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेव पण कोईने
आत्मानी रुचि के द्रष्टि करावी शक्ता नथी. पोते ज पोतानी रुचि, द्रष्टि-ज्ञान अने
अनुभव करवाना छे. महाविदेहमां तो अत्यारे धोरी धर्मधुरंधर तीर्थंकरो विचरे छे तो
शुं त्यां बधां जीवो समकिती हशे? अरे! सातमी नरके जवावाळा जीवो पण त्यां छे,
अने मोक्षे जवावाळा जीवो पण त्यां छे, ए ज तो जीवनी स्वतंत्रता बतावे छे.
अहीं गाथामां शुं कहे छे के भाई! तारा बधां गुणो तारा आत्मामां ज छे.
प्रशंसा करवा योग्य सारा सारा बधां गुणो तारा आत्मामां ज छे, संयोगमां नथी के
एक पर्यायमां पण तारा बधां गुण आवी जतां नथी. श्रद्धा, ज्ञान, आनंद, शांति,
स्वच्छता, परमेश्वरता, कर्ता, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण, भाव, अभाव आदि
अनंता गुणो ज्यां आत्मा छे त्यां असंख्यप्रदेशे ठसोठस भरेलां छे. एक भगवान
आत्माने अंतरद्रष्टिए अनुभवतां तेमां रहेलां अनंता गुणोनो एकसाथे अनुभव थई
जाय छे.
लोको तकरार करे छे के चोथा गुणस्थाने स्वरूपाचरण चारित्र न होय, पण
भाई! स्वरूपाचरण चारित्र न होय तो चारित्रगुणना अंश वगर आनंदनो अंश न
आवे अने तो अनंत आनंदनुं धरनारुं द्रव्य द्रष्टिमां-प्रतीतमां आव्यानुं फळ शुं?
सम्यग्दर्शन कोई एवी चीज छे के सर्वगुणोना अंशने प्रगट करीने अनुभवे छे. तेथी
ज कह्युं छे ‘सर्वगुणांश ते समकित.’ भगवानना ज्ञानमां जेटला गुणो आव्या छे ते
बधांनो अंशे अनुभव समकितीने थाय छे.
आत्मानुं ग्रहण थतां तेना सर्वगुणोनुं ग्रहण थई जाय छे. केरीने ग्रहण करतां
तेना स्पर्श-रसादि बधां गुणोनुं ग्रहण थई जाय छे, तेम आत्माने ग्रहण करतां तेना
बधां गुणोनुं ग्रहण थई जाय छे. तेनुं नाम स्वानुभूति कहो, समकित कहो के धर्म कहो
बधी एक ज वात छे.

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१७२] [हुं
[प्रवचन नं. ३३]
अनंत अनंत गुणनी खाणः निज–परमात्मा
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १३-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र छे. योगीन्द्रदेव नामना दिगंबर मुनि थई गया. तेमणे
आ योगसार शास्त्र पोताना संबोधन माटे बनावेल छे एम छेल्ले वात आवशे.
शरूआतनी गाथामां कहेल छे के जे भवभ्रमणथी डरे छे एवा जीवोने माटे हुं आ
शास्त्र बनावुं छुं.
अहीं आपणे ८प मी गाथा चाले छे.
जहिं अप्पा तहिं सयल–गुण केवलि एम भणंति ।
तिहिं कारणए जोइ फुडु अप्पा विमलु मुणंति ।। ८५।।
ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण, केवळी एम वदंत;
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत.
८प
आत्मा अनंत गुणसंपन्न एक वस्तु छे. तेनी अंतरद्रष्टि करीने तेनो अनुभव
करतां एक आत्माना ग्रहणमां अनंत गुणोनुं ग्रहण थई जाय छे.
भगवान आत्मा एक समयमां अनंत गुणरूप-एकरूप वस्तु छे, ए अनंत गुण
एटले केटलां? के आकाशना प्रदेशथी अनंतगुणा गुण दरेक आत्मामां छे.
आकाशना प्रदेशो अनंत छे. ए अनंत एटले केटलां के दर छ महिना अने
आठ समयमां ६०८ जीवो मोक्षमां जाय छे तो अत्यार सुधीमां जेटलां मुक्त जीवो थया
छे तेनां करतां निगोदना एक शरीरमां अनंतगुणा जीवो छे. आवा बधां जीवो मळीने
सिद्ध करतां अनंतगुणा जीवो छे अने जीवथी अनंतगुणा पुद्गलो छे. आ पुद्गलोथी
अनंतगुणा त्रणकाळना समय छे अने आ समयथी अनंतगुणा आकाशना प्रदेशो छे
अने आ प्रदेशोथी अनंतगुणा गुण एक एक जीवमां रहेला छे.
भगवान कहे छे के दरेक जीवमां अनंत..अनंत गुण छे, दोष देखाय छे ते तो
कोई गुणनी पर्यायमां अल्प दोष छे. अनंत गुणोमां दोष नथी. कोई गुणनी कोई
पर्यायमां अल्प दोष छे, ज्यारे गुण तो अनंत...अनंत छे. ए दरेक गुणो आत्माना
असंख्यप्रदेशे व्यापेला छे.
आकाशनो क्यांय अंत छे? चाल्या जाव...चाल्या जाव अने जुओ आकाशनो
क्यांय छेडो छे? नास्तिकने पण स्वीकारवी पडे एवी आ वात छे के आकाशनो अंत
नथी. ए आकाशना अनंत प्रदेशोथी अनंतगुणा गुण एक जीवमां छे. ‘आवा अनंत
गुणोनुं एक रूप ते आत्मा छे.’
आवी पोतानी चीजनो विश्वास अंतरथी आववो जोईए. खाली धारणामां, विचारमां
के क्षयोपशममां स्वीकारे एटलाथी न चाले. अनंत...अनंत गुणनुं एकरूप एवो आत्मा छे.

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परमात्मा] [१७३
तेने द्रष्टिमां लेवाथी, ज्ञाननुं ज्ञेय बनाववाथी, चारित्रमां तेनो आश्रय लेवाथी अनंत
गुणोनी पर्याय एक समयमां प्रगट थाय छे.
अनंत गुणसमुदाय कहो के भावसमुदाय कहो, एवा पोताना आत्मानुं अंतरमां
पोसाण थवुं जोईए. एकस्वरूप भगवान आत्मामां अनंत गुणस्वरूपे गुणो रहेलां छे
ते एकस्वरूपने अंतर्मुख द्रष्टि-ज्ञानमां पकडतां अनंत गुणनी पर्याय प्रगट थई जाय
छे. श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, शांति, स्वच्छता, प्रभुता, विभुता आदि अनंत गुणनी पर्याय
एकसाथे प्रगट थई जाय छे. तेथी ज कह्युं छे के ‘सर्वगुणांश ते समकित.’ आत्मानो
अनुभव करतां अनंत गुणनी पर्यायनी प्रगटतारूप अनंतो लाभ थाय छे.
केवळीभगवान कहे छे के प्रभु! तारामां अनंत गुणो छे तेने तुं परनो अने
रागनो प्रेम हटावी निर्मळ प्रेमथी प्रतीतमां ले, अनुभवमां ले तो तने प्रतीतमां अनंत
गुणस्वरूप एक आत्मानी श्रद्धा थशे अने अनंत गुणनी अंशे निर्मळ पर्यायोनो
अनुभव थशे. पण अनादिथी जीवने परद्रव्य अने रागादिनी महिमा आडे अनंत
गुणना एकपिंडरूप भगवान आत्मानो अनादर थई जाय छे-अशातना थाय छे तेनी
खबर नथी.
एक एक गुणने ग्रहण करतां आखो आत्मा ग्रहण थतो नथी पण अखंड-
अभेद आत्माने ग्रहण करतां तेमां अनंत गुणो ग्रहण थई जाय छे.
आ कोई भाषामां आवी शके एवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी, आ तो
अनंतानंत...अनंतानंत गुणोनुं एकस्वरूप साक्षात् परमात्मा हुं ज छुं एम महिमा
लावीने अंतरमां घूसी जाय तेने वस्तुनो अनुभव थाय छे.
सोनुं जेम गेरुथी शोभे छे तेम भगवान आत्मा पोतानी उग्र द्रष्टिथी ज्यां
आत्माने पकडे छे त्यां अतीन्द्रिय आनंदना प्रतपनथी शोभे छे अने बहारमां ईच्छानो
निरोध थाय छे, तेनुं नाम तप छे अने ते समये राग-द्वेषनो अभाव थवाथी निश्चय
अहिंसाव्रत पण थई जाय छे. दयाना परिणाम ए खरेखर अहिंसाव्रत नथी पण परमार्थ
स्वभावना लक्षे रागरहित वीतराग परिणाम थाय छे ते ज साचुं अहिंसाव्रत छे.
भगवान आत्मा ज्यारे परना लक्षे विकल्पमां जाय छे त्यारे निर्विकल्प
स्वभावनी हिंसा थाय छे तेथी परनी दयाना भावमां पण खरेखर पोताना स्वभावनी
हिंसा थाय छे पण लोकोनी मान्यता ज एवी छे के ‘दया धरमको मूल है, पाप मूल
अभिमान! तुलसी दया न छोडीए, जब लग घटमें प्राण.’
अहीं तो कहे छे के सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेलो आ आत्मा तेनी अंतरमां द्रष्टि करतां
एकाकार थईने जे अनुभव थाय छे ते ज सत्य दया छे. ते पोतानी दया छे. परनी दया
तो जीव पाळी शकतो ज नथी. केम के परद्रव्यनी अवस्था आत्मा त्रणकाळमां कदी करी
शक्तो नथी. शुं परद्रव्य वर्तमान पर्याय विनानुं खाली छे के आत्मा तेनी पर्याय करे?
आ तो महासिद्धांत छे के ‘कोई पण पदार्थ कोई पण समये पर्याय विनानुं होतुं नथी.’

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१७४] [हुं
ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण तो छे पण तेमां एकाग्रता करवाथी ए अनंत
गुणोनी अंशे निर्मळ पर्याय पण प्रगट थई जाय छे.
सत्-साहेब भगवान आत्मानी द्रष्टि करतां परम सत्यव्रत पण प्रगट थाय छे
अने वळी, अनंत गुणरूप भगवान आत्मानो अनुभव थतां राग प्रगट न थयो ते
परम अचौर्यव्रत छे. पोताना स्वभावनी पक्कड करी परनी पक्कड छोडतां-रागनो एक
कण पण ग्रहण न करतां साचुं अचौर्यव्रत प्रगट थाय छे.
ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण, केवळी बोले एम,
प्रगट अनुभव आपनो, निर्मळ करो सप्रेम,
चेतन प्रभु! चैतन्य संपदा रे तारा धाममां.
चैतन्यसंपदा नथी वैकुंठमां के नथी सिद्धशिलामां. चैतन्यसंपदा तो प्रभु! तारा
पोताना स्वभाव-धाममां ज भरी छे.
भगवान आत्मा परपदार्थमां एकाकार न थतां परम ब्रह्मस्वरूप निज आत्मामां
विहार करे छे-ब्रह्मानंद भगवानमां एकाकार थाय छे त्यां ब्रह्मव्रत प्रगट थाय छे,
निश्चय ब्रह्मचर्यव्रत प्रगट थाय छे.
अनंत गुणनां पिंडस्वरूप आत्मामां लीन थतां सर्व विभाव अने परपदार्थनी
मूर्छा दूर थई ते ज अपरिग्रहव्रत छे. असंगभावमां रमण करवाथी परिग्रह-त्यागव्रत
प्रगट थाय छे.
आत्मा आत्मामां सत्यभावथी ठरे छे तेनुं नाम निश्चय सामायिक छे.
भाई! तारा क्षेत्रमां गुणनी क्यां कमी छे के तारे बीजा क्षेत्रमां गुण शोधवा
जवा पडे? भगवान आत्मा अनंत गुणनुं संग्रहालय छे. अरे! केवळी भगवान पण
जो एक एक समयमां असंख्य गुणनुं वर्णन करे तोपण तेमना करोड पूर्वनी स्थितिमां
आत्माना अनंत गुणोनुं वर्णन न थई शके.
आत्मानी द्रष्टि अने अनुभव करतां गया काळना कर्मोथी निवृत्ति थाय छे अने
कर्म स्वयं निर्जराने प्राप्त थाय छे. तेनुं नाम प्रतिक्रमण छे. अने भविष्यमां थनारा
रागादि भावोनो त्याग थाय छे ए भावोथी निवृत्त परिणाम थवां ते निश्चय
प्रत्याख्यान छे. आम पंचमहाव्रत, त्रण गुप्ति आदि भावो अनुभवमां समाय जाय छे.
केम के भगवान आत्माना अंतरस्वरूपनो आश्रय करतां जे दशा प्रगट थाय तेमां शुं
खामी रहे? बधां ज गुणोनी पर्यायनुं परिणमन थई जाय छे.
चिदानंद निजात्मस्वभावनी द्रष्टि अने अनुभव करवो ते ज भगवाननी स्तुति
छे. समयसारमां पण कुंदकुंद आचार्यदेवे शिष्यने केवळीनी स्तुतिनुं स्वरूप बतावतां कह्युं
छे के शरीर, वाणी, मन, विकल्प, रागादिथी रहित निज परमात्मस्वरूपमां लीनता
करनार केवळीनी स्तुति करे छे-एम अमे नहि पण सर्वज्ञभगवान कहे छे. अहीं पण
कह्युं छेः ‘केवळी बोले एम.’

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परमात्मा] [१७प
पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मानी आराधना करवी, सेवना करवी, स्वभाव
सन्मुखनी लीनता करवी ते साचो विनय छे अने ते ज गुरुनी साची वंदना छे. बहारथी
वंदन आदिना भाव आवे-होय, निश्चयमां ज्यां सुधी पूर्णता प्राप्त न थाय त्यां सुधी
वच्चे व्यवहार आव्या वगर रहेतो नथी, भक्ति, स्तुति, वंदन, पूजा आदिना भावो छे
पण तेनी मर्यादा पुण्यबंधनी छे. वस्तुना स्वरूपमां ते भावो समाई शक्ता नथी.
व्यवहार छे तो निश्चय छे एम नथी रागनी मंदता छे तो अराग परिणाम
थाय छे एम नथी. पण ज्यां सुधी स्वभावनो पूर्ण आश्रय लीधो नथी त्यां सुधी
एटलो पराश्रित व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी, एम भगवान कहे छे. ते व्यवहार
ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. व्यवहार अने निश्चय बन्नेनी दिशा जुदी, बन्नेनुं
फळ जुदुं, अने बन्नेनो भाव पण जुदो-जुदो छे.
भाई! तुं शुद्धात्मा छो. तने क्यांय ठीक न पडे-न गोठे तो अंदरमां गोठे तेवुं
छे. बेने कह्युं हतुं एकवार के तने क्यांय न गोठे तो आत्मामां गोठे तेवुं छे. क्यांय
तने ठीक न पडे तो अंदर जा. तारी हाकलथी कोई साथे न आवे तो तुं एकलो जा!
तारे कोईनुं शुं काम छे? अहीं ८६ मी गाथामां पण ए ज वात आवशे.
अहा! योगसार तो कोई अलौकिक शास्त्र छे. दिगंबर संतोनी वात शुं कहेवी?
एक-एक श्लोकमां आखो १४ पूर्वनो सार भरी दीधो छे. दिगंबर संतो क्षणे-क्षणे
साक्षात् परमात्माने स्पर्शे छे. एक दिवसमां हजारोवार आत्मानो स्पर्श करे छे एवा
संते रचेलां आ श्लोको छे.
भगवान आत्मा निज-स्वरूपमां सावधान...सावधान...सावधान...थाय छे त्यां
मन-वचन-काया तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे तेनुं नाम त्रणगुप्ति छे, अने अतीन्द्रिय
स्वरूपमां एकाकार थतां पांच ईन्द्रिय तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे तेनुं नाम संयम छे,
अने ते ज उत्तम क्षमा आदि दशधर्म छे.
सर्व विशुद्ध गुणोनुं निवासस्थान आत्मा छे. जेणे आत्मानुं आराधन कर्युं तेणे
सर्व आत्मिकगुणोनुं आराधन करी लीधुं. आत्माना ध्यानथी आत्माना गुणो विकसीत
थाय छे एटले के पर्यायमां प्रगट थाय छे, साथे अवधि, मनःपर्ययज्ञाननी ऋद्धि पण
प्रगट थाय छे अने केवळज्ञाननो लाभ थाय छे. आम निर्वाणनो परम उपाय एक
आत्मानुं ध्यान छे.
तत्त्वानुशासनमां कह्युं छे के जे वीतरागी आत्मा, आत्मामां आत्मा द्वारा
आत्माने जाणे-देखे छे ते स्वयं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप थाय छे. स्वयं
सम्यग्दर्शनादि निश्चय मोक्षमार्ग छे एम जिनेन्द्रदेव कहे छे.
दिगंबर संतो जग्याए-जग्याए जिनेन्द्र भगवानने मोढागळ (मुख्य) राखे छे.
भाई! परमात्मा आम कहे छे हो! तुं ना न पाडीश, भाई! ना न पाडीश. अहा!
संतोनी करुणानो पार नथी.

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१७६] [हुं
हवे ८६ मी गाथा कहे छे के एक आत्मानुं मनन कर!
एक्कलय इंदिय–रहियउ मण–वय–काय–ति–सिद्धि
अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुं लहु पावहि सिव–सिद्धि ।। ८६।।
एकाकी ईन्द्रिय रहित, करी योगत्रय शुद्ध;
निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख.
८६.
पांच ईन्द्रियथी विरक्त थईने तुं आत्मानुं आत्मा द्वारा मनन कर! तो
अल्पकाळमां तुं मोक्ष पामीश.
निरंतर एक स्वभावनुं ज घोलन कर! विकल्पनो स्पर्श न कर! आत्मा द्वारा
आत्मानुं मनन कर! मनन एटले विकल्प नहि पण अंतर स्वरूपमां एकाकार थवानी
वात छे. आवुं मनन जे करशे ते मोक्षनी सिद्धि शीघ्र करी शकशे.
गृहस्थाश्रममां धर्म, अर्थ अने काम ए त्रणेयना पुरुषार्थ विकल्पनी जाळमां
अटकवुं पडे छे. अर्थ अने कामनो अशुभ पुरुषार्थ छे अने धर्मनो शुभ पुरुषार्थ छे
पण छे त्रणेय विकल्पनी जाळ!
श्रोताः-आप धर्मने शुभभाव केम कहो छो?
पूज्य गुरुदेवः-भाई! ए धर्मने समयसारमां पुण्य कह्युं छे. व्यवहारधर्म कहो के
पुण्य कहो बन्ने एक ज छे, ते निश्चयधर्म नथी.
स्वतंत्र वस्तुस्वभावनी द्रष्टि करवामां जो रागनी रुचि रही जाय, रागमां लाभ
मनाय जाय तो द्रष्टि त्यांथी नहि खसे प्रभु! तने तारी शांति नथी गोठती अने राग
गोठे छे! तो तुं क्यां जईश? ज्यां सुधी रागनुं पोषाण छे त्यां सुधी वीर्य अंतरमां काम
नहि करी शके. वीर्य गुणनुं खरुं कार्य तो पोताना स्वभावनी रचना करवानुं छे. पण ज्यां
सुधी वीर्य राग, पुण्य, संयोग आदिमां उल्लासथी कार्य करशे त्यां सुधी स्वभावनुं कार्य
नहि करी शके. माटे गृहस्थे पहेलां ज रागादिनी रुचि छोडी देवी जोईए.
कर्मना लक्षे उत्पन्न थती धारा कर्मधारा छे ते ज्ञानधारामां विघ्न करनारी छे
त्रणकाळ त्रणलोकमां वस्तुनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं कहेवाय छे. ‘एक होय त्रणकाळमां
परमारथनो पंथ.’ तेमां ढीलुं मूकीने कांई फेरफार न कराय. प्रभु! तारुं स्वरूप क्यां ढीलुं
छे? ज्ञानथी जो तो एकलो ज्ञाननो पुंज छे. वीर्यथी जो तो एकलो वीर्यनो पिंड छे.
आनंदथी जो तो एकलो आनंदनो पिंड छे. गुणपुंज आत्मा छे. अनंत गुणनो ढगलो छे.
दिगंबर संतोनी कथनपद्धति पण कोई अलौकिक छे. एक एक शब्दमां आखो
सिद्धांत भरी दीधो छे. आ तो भाई! सर्वज्ञभगवाने जेवुं स्वरूप जोयुं छे, कह्युं छे तेवुं
ज वस्तुनुं स्वरूप छे अने तेवुं ज अनुभवमां आवे छे.

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परमात्मा] [१७७
[प्रवचन नं. ३४]
निज–परमात्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. १४-७-६६]
श्री योगीन्द्रदेव नामना मुनिराज लगभग १३००-१४०० वर्ष पहेलां थई
गया. तेमणे आ ‘योगसार’ शास्त्रनी रचना करी छे. तेनी अहीं ८६ मी गाथा चाले
छे. मुनिराज करुणा करीने शिष्यने कहे छे के ‘तुं एक आत्मानुं मनन कर.!’
एक्कलउ इंदिय–रहियउ मण–वय–काय–ति–सुद्धि ।
अप्पा अप्पु मुणेहि तुहु लहु पावहि सिव–सिद्धि ।। ८६।।
एकाकी ईन्द्रिय रहित, करी योगत्रय शुद्ध;
निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख.
८६.
हे भाई! तुं एकला तारा आत्माने देख! ते आत्मा केवो छे?-के कर्म
शरीरादिथी रहित छे. परमार्थद्रष्टिथी भगवान आत्मा कर्म, शरीर, विकारादिथी रहित
एकलो छे. आवा तारा ईन्द्रिय रहित निज आत्मानुं हे भाई! तुं मन-वचन-कायानी
शुद्धिपूर्वक स्वभावसन्मुख थईने ध्यान कर! ए मोक्षमार्ग छे अने ए ज योगसार छे.
मुनिने तो आत्मानुं ध्यान उत्कृष्ट होय छे. परंतु श्रावक गृहस्थाश्रममां होवां
छतां एकदेश आत्मानुं ध्यान करी शके छे. नियमसार भक्ति-अधिकारना प्रथम
श्लोकमां ज कुंदकुंदआचार्य कहे छे के श्रावक हो के मुनि हो ते बन्ने निश्चयरत्नत्रयनी
भक्ति करे छे. माटे सिद्ध थाय छे के श्रावकने पण पोताना निश्चय शुद्धरत्नत्रयनुं ध्यान
होय छे अने तेनी प्रगट दशा पण होय छे. मात्र मुनिने ज साचुं ध्यान होय एवुं
नथी, श्रावकने पण एकदेश ध्यान होय छे.
भगवान आत्मा एक समयमां पूर्णानंद प्रभु छे तेनी अंतर अनुभवपूर्वक द्रष्टि
करवी अने स्वरूपमां स्थिर थवुं ते निश्चयरत्नत्रयनी भक्ति छे. आवी भक्ति, एकदेश
श्रावकने पण होय छे. सर्वार्थसिद्धिना चतुर्थ गुणस्थानवर्ती देवो करता पण जेनी शांति
वधी गई छे ते श्रावक भले स्त्री-कुटुंबनी वच्चे हो, राज्यभोग भोगवतो हो,
विषयभोगनी वासना पण हो परंतु ते श्रावक स्वभावना आश्रये शुद्ध
निश्चयरत्नत्रयनी भक्ति करे छे.
भाई! तुं वस्तुनुं स्वरूप समज! परमानंदनी मूर्ति, परमात्मस्वरूपनी अंतर
निश्चय स्वाश्रित द्रष्टि ते निश्चय शुद्धि अने सात तत्त्वनी श्रद्धा ते व्यवहार छे.
ज्ञानस्वभावनुं ज्ञान करवुं-स्वसंवेदन करवुं ते निश्चय अने शास्त्रज्ञान करवुं ते
पराश्रित व्यवहार छे. पोताना

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१७८] [हुं
स्वरूपनी द्रष्टि-ज्ञानपूर्वक स्थिरता करवी ते निश्चयचारित्र छे. आवी निश्चयरत्नत्रयनी भक्ति
श्रावकने होय छे. अरे! चोथा गुणस्थानमां पण मुक्तस्वरूप आत्मानुं ज्यां भान थाय छे
अने निर्विकल्प प्रतीति थाय छे, तो श्रावकने तो बे कषायनो नाश थवाथी शांति विशेष वधी
जाय छे. आ स्वभावना आश्रये प्रगट थयेली शांतिने अहीं शुद्ध निश्चयरत्नत्रय कहेल छे.
निर्वाणनो साक्षात् उपाय तो निर्ग्रंथपद छे. अहो! अलौकिक वात छे. अंतरमां
त्रण कषायना अभावरूप निर्ग्रंथभाव अने बहारमां द्रव्यलिंग पण निर्ग्रंथ होय ते
अंतर-बाह्य निर्ग्रंथदशा साक्षात् मोक्षनो उपाय छे.
सम्यग्द्रष्टिने स्वभावमां ज सुख छे अने ईन्द्रियना विषयोमां सुख नथी एवी
द्रढ प्रतीति होवा छतां, ईन्द्रियना विषयोमां आसक्ति रहे छे. केम के आसक्ति थवी ते
चारित्रनो दोष छे अने ईन्द्रिय विषयोमां सुख छे एम मानवुं ते मिथ्यात्वनो दोष छे.
सम्यग्द्रष्टिने त्रणकाळ त्रणलोकमां एक पोताना आत्मा सिवाय क्यांय सुखबुद्धि थती
नथी. ज्यां सुख होय त्यां सुखबुद्धि होय के ज्यां सुख न होय त्यां सुखबुद्धि होय?
पोतानो आनंद तो पोतामां छे, पुण्य-पाप भावमां पोतानो आनंद नथी-एवी श्रद्धा
धर्मीने प्रथम द्रष्टिमां ज थई जाय छे.
धर्मीए आवी श्रद्धा होवा छतां पण हजु पांच ईन्द्रियना विषयो प्रत्येथी
लालसा छूटती नथी, आसक्ति छूटती नथी. त्यां सुधी गृहस्थाश्रममां स्त्री, कुटुंब साथे
रहीने यथाशक्ति आत्मानुं मनन करे छे. अंतरमां विशेष स्थिर थवानी शक्ति न होय
अने बहारथी बधुं छोडीने बेसी जाय तो पछी हठथी परिषह आदि सहन करे, बोजो
वधी जाय. केम के अंतर शक्ति तो छे नहि.
आथी ज कुंदकुंद-आचार्ये मुलाचारमां एक जग्याए लख्युं छे के जो भाई! तारी
द्रष्टि सम्यक् थई छे तो तारा सम्यग्दर्शनमां दोष न लागे ते माटे बराबर ध्यान
राखजे. आसक्ति न छूटे तो लग्न करी लेजे पण मिथ्याद्रष्टि साधुनो संग कदापि न
करीश. केम के लग्न करवा ते चारित्रनो दोष छे पण मिथ्याश्रद्धावंतना संगमां चडवाथी
पोतानी श्रद्धा मिथ्या थई जाय तो ते श्रद्धाथी ज भ्रष्ट थई जाय.
श्रोताः-अरे! पण संतो आम लग्न करवानुं कहे?
पूज्य गुरुदेव-अरे भाई! तेनो अर्थ समजवो जोईए. मुनिने तो विवाह आदि
कार्योनो नव-नव कोटीए त्याग होय छे. मन-वचन-कायाथी एवा कार्यो करे नहि,
करावे नहि अने करताने अनुमोदे नहि. पण अहीं तो मिथ्यात्वथी बचवा माटे आ
वात कही छे. मिथ्यादर्शननुं पाप चारित्रदोषथी घणुं मोटुं छे. पण लोकोने मिथ्यादर्शननुं
पाप अने सम्यग्दर्शनरूप धर्मनी शुं किंमत छे तेनी खबर ज नथी.
‘सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।’ स्त्रीना संगमां चारित्रनो
दोष लागशे, श्रद्धानो दोष नहि लागे. ज्यारे जेनी द्रष्टि ज विपरीत छे एवा भले
साधु होय पण तेना संगथी समकितीनी श्रद्धा पण विपरीत थई जाय तो श्रद्धानो
मोटो दोष लागे छे. मूलाचारमां

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परमात्मा] [१७९
मुनिराजनो कहेवानो आशय आ छे. स्त्रीना संगमां पाडवानो आशय नथी.
ब्रह्मस्वरूपमां लीन थनारा आत्म-आनंदी मुनिराज आम कहे छे तो तेनो आशय
बराबर समजवो जोईए.
अहीं योगीन्द्रदेव पण ए ज कहे छे के जो तुं सम्यग्द्रष्टि छो पण तने विषयनी
आसक्ति न छूटती होय तो गृहस्थाश्रममां रहीने यथाशक्ति आत्मानुं मनन कर! निश्चय
श्रद्धा-ज्ञान-स्थिरतारूप रत्नत्रयनी भक्ति कर! ध्यान कर! अने ज्यारे तने मनथी
आसक्ति पण छूटी जाय त्यारे मुनिपणुं अंगीकार करजे. मुनिपणुं-चारित्र ज खरेखर
मोक्षनुं साक्षात् कारण छे, माटे ज्यारे तने आत्मिकसुखनो प्रेम वधी जाय अने तेना
सिवाय बधा विषयोना रस फीक्का लागे, क्यांय आसक्ति न थाय त्यारे जितेन्द्रिय थईने
निरंतर आत्माना मननमां लागी जजे अर्थात् मुनि थई स्वरूपमां लीन थजे.
अहीं आत्मानुशासननो आधार आप्यो छे के गुणभद्रस्वामी लखे छे के ‘आत्मज्ञानी
मुनिने योग्य छे के ते वारंवार सम्यग्ज्ञाननो अभ्यास फेलावता रहे.’ चैतन्यज्योत
आत्मानी द्रष्टिपूर्वक ज्ञाननो विकास करे एटले के आत्मानी सर्व शक्ति-आनंद, शांति, वीर्य
आदिनो विकास थाय तेम राग घटाडे अने ज्ञान फेलावे ते मुनिने योग्य कार्य छे.
भाई! मोक्षने तो आवो निरालंबी मार्ग छे. निश्चयमोक्षमार्गने व्यवहार
मोक्षमार्गनुं पण अवलंबन नथी.
जेम कळीनो विकास थईने फूल खीले छे तेम परम पारिणामिक स्वभावभाव
शक्तिरूपे छे तेमां एकाग्र थईने पर्यायमां विकास करो. अनंत शक्तिओने पर्यायमां खीलवो
अने राग-द्वेष न करतां समताभावथी आत्माने ध्यावो. कारण के परमानंदमूर्ति आत्मानुं
ध्यान करवुं ते ज मोक्षनो मार्ग छे. द्रव्यसंग्रह-४७ गाथामां पण आ ज वात मूकी छे.
अहो! गमे ते शास्त्र जुओ, चारे बाजुए आचार्योए एक ज वीतरागनो
मोक्षमार्ग स्पष्ट करीने मूकयो छे. वीतरागी मोक्षमार्गना ढंढेरा पीटया छे.
८६ गाथा पूरी थई, हवे ८७ मी गाथामां योगीन्दु मुनिराज कहे छे के ‘सहज
स्वरूपमां रमण कर! बंध-मोक्षनो विकल्प छोडी दे.’
जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु ।
सहज–सरुवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु ।। ८७।।
बंध-मोक्षना पक्षथी निश्चय तुं बंधाय,
सहजस्वरूपे जो रमे, तो शिवसुखरूप थाय.
८७.
आहाहा...! भगवान आत्मा! जो तुं बंध-मोक्षनी कल्पना करीश तो तुं
निःसंदेह बंधाईश. आ मने राग थाय छे ते छूटशे तो मोक्ष थशे एवो विकल्प छे ते
बंधनुं कारण छे. सहजात्मस्वरूप-एकस्वरूपनुं ध्यान ते मोक्षनुं कारण छे.
भाई! तुं बंध अने मोक्ष ए बे पर्यायद्रष्टिथी जोवा जईश तो तुं नियमथी
बंधाईश. आ योगसार छे ने! योगस्वरूपमां एकाकार थईने बंध-मोक्षना पण विकल्प न

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१८०] [हुं
करवा तेनुं नाम योगसार छे. आचार्यदेव कडकभाषामां कहे छे के ‘नियमथी बंधाईश.’
बंध अने मोक्ष ए विचार भले शुभविकल्प छे पण विकल्प छे ते ज बंधनुं कारण छे.
अरे! पण आमां एक पण जीवनो घात तो नथी कर्यो छतां बंधन?-हा, जीवनो घात
बंधनुं कारण नथी, विकल्प बंधनुं कारण छे. पर्यायद्रष्टि-व्यवहारनयनो आश्रय करवाथी
बंध थाय छे.
जीवनुं मोक्षनुं प्रयोजन पर्यायना लक्षथी सिद्ध थतुं नथी केम के निर्मळ
पर्यायमांथी पण नवी पर्याय उत्पन्न थती नथी. नियमसार प० मी गाथामां क्षायिक
सम्यग्दर्शनने पण परद्रव्य कह्युं छे. केम?-के जेम परद्रव्यमांथी पोतानी निर्मळ पर्याय
उत्पन्न थती नथी तेम पोतानी निर्मळ पर्यायमांथी पण नवी निर्मळ पर्याय उत्पन्न
थती नथी ते अपेक्षाथी उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक चारेय पर्यायने परद्रव्य कही
छे. नवी पर्याय उत्पन्न थवानुं स्थान एक ध्रुवस्वभाव छे ते स्वद्रव्य छे.
वास्तविक तत्त्वना ख्याल वगर कोईनुं कल्याण थाय तेम नथी. केमके कल्याणनी
खाण ज आत्मा पोते छे, तेनी एकरूप द्रष्टि थया विना कल्याणनुं बीज क्यांथी ऊगे?
अहीं तो आचार्य कहे छे के निर्वाणनो उपाय एक शुद्धात्मानुभव ज छे. ज्यां
मनना विचार विकल्प बधुं बंध थई जाय छे अने स्वानुभवनो प्रकाश थाय छे तेने
निर्विकल्प समाधि कहे छे. सम्यक् दर्शन-ज्ञान चारित्रमां राग रहित वीतरागी शांति छे
ते निर्विकल्प समाधि छे. ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
भाई! वात तो कठण छे पण तुं समजवानो प्रयत्न कर! नय, निक्षेप,
प्रमाणना विकल्पने छोडीने एकरूप निज परमात्मा उपर द्रष्टि दे अने तेमां लीनता कर
तो तारो निर्वाण थशे ज थशे. जेम आगळ कह्युं के तुं विकल्पथी निःभ्रांतपणे बंधाईश
ज तेम अहीं कहे छे के स्वरूपमां द्रष्टि-ज्ञान अने लीनता कर! तुं निःशंकपणे निर्वाण
पामीश. जेम ठंडुं हीम वनने बाळी नाखे छे तेम तारी अकषाय शांति संसारने बाळी
नाखशे, तारो निर्वाण थशे.
भक्तिमां आवे छे के ‘उपशम रस वरसे रे प्रभु तारा नयनमां.’ उपशम
एटले अकषाय शांति अने तेनी पूर्णता ते वीतराग. आत्मा अकषायस्वरूप छे एवो
अकषायभाव पर्यायमां प्रगट थवो ते उपशमभाव छे.
प्रभु! आ बधी वातो भाषामां तो सहेली लागे छे पण तेनी प्राप्ति माटे
पुरुषार्थनी उग्रता जोईए छे हो! भाषामां कांई भावो आवी जता नथी. पुरुषार्थ
करतां ए भावो प्रगट थाय छे.
बंध-मोक्षनो विचार ए पण राग छे, बंधनुं कारण छे.
श्रोताः-पण प्रभु! विचार ए तो ज्ञाननी पर्याय छे ने?
भाई! ए छे ज्ञाननी पर्याय, पण साथे जे राग आवे छे, भेद पडे छे ते बंधनुं

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परमात्मा] [१८१
कारण छे. समयसार-कळशमां राजमलजीए आ वात लीधी छे. ‘विचार सुद्धा बंधनुं
कारण छे.’ त्यां ज्ञानने बंधनुं कारण नथी कह्युं पण ज्ञान रागमां-भेदमां रोकाय जाय छे
तेनुं नाम विचार छे अने ते बंधनुं कारण छे. हुं मनुष्य छुं, भव्य छुं, सम्यग्द्रष्टि छुं
आदि, गुणस्थान, मार्गणास्थानना विचार, कर्मोना आस्रवभावनो विचार, चारे प्रकारना
बंधनो विचार, संवर-निर्जराना कारणोनो विचार आदि बधां विचारो व्यवहारनय द्वारा
चंचल छे. ते शुभोपयोग छे. निश्चय ज सत्य छे. व्यवहार उपचार छे.
पर्याय क्षणिक छे पण दुःखदायक नथी. पण तेमां विकल्प ऊठे छे ते दुःखदायक
छे. केवळज्ञान पण पर्याय छे. क्षणिक छे पण दुःखदायक नथी. माटे जे दुःखदायक छे
एवा विकल्पो छोडवा लायक छे. पर्यायनुं क्षणिकपणुं दुःखदायक नथी पण तेमां जे
राग-द्वेषना विकल्प ऊठे छे ते ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावने डखलरूपे छे माटे दुःखरूप छे.
भगवाननो मारग भाई! आत्मानो मारग छे, तेमां कांई फेरफार चाले नहि.
आंखनी पांपणमां थोडी रज समाय पण आमां कांई न समाय. रागरहितपणे भेदनुं
ज्ञान करवुं ते दुःखनुं कारण नथी, ते तो स्वभाव छे, पण जे रागी छे ते भेदनुं ज्ञान
करवा जाय छे त्यां तेने विकल्प ऊठे ते दुःखनुं कारण छे. भेदनुं ज्ञान दुःखनुं कारण
होय तो तो सर्वज्ञने पण दुःख थवुं जोईए, पण एम नथी. विकल्प दुःखनुं कारण छे.
हवे अहीं कोई प्रश्न करे छे के पर्याय तो द्रव्यनो ज भेद छे, अवस्तु तो नथी,
तो तेने व्यवहार केम कही शकाय?
तेने गुरु उत्तर आपे छे के भाई! तारी वात साची छे, पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी
अभेदने प्रधान करीने उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण करवाथी अभेद सारी रीते
मालुम पडी शके छे. सरागीने भेदद्रष्टिमां विकल्प रह्या करे छे, माटे ज्यां सुधी राग
मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदने मुख्य करवामां आव्यो छे. वीतराग थया
पछी तो भेदाभेद वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे.
भगवान तो एक द्रव्यना अनंत गुण, एक गुणनी अनंती पर्याय अने एक
पर्यायना अनंत अविभागप्रतिच्छेद आदि बधां भेदने एक समयमां जाणे छे पण
तेमने राग थतो नथी. माटे भेदनुं ज्ञान रागनुं कारण नथी पण रागीने भेदनुं लक्ष
करवाथी राग थाय छे. रागी एकरूप स्वभावने जाणे त्यारे निर्विकल्प थई जाय छे
अने भेदने जाणे त्यारे तेने राग थाय छे, तेनुं कारण रागी छे माटे राग थाय छे.
माटे कह्युं छे के वीतरागदशा प्राप्त करवा माटे रागीए व्यवहारनयनुं लक्ष छोडी
निश्चयनयथी पोताने अने परने जाणवा जोईए.
आ जीव ऊंधो पडयो अनंत तीर्थंकरो आवे तोपण न फरे तेवो छे अने सवळो
पडयो अनंत परिषह आवे तोपण न डगे तेवो छे, एटले ज अनुभव प्रकाशमां कह्युं
छे के भगवान! तारी शुद्धता तो मोटी छे पण तारी अशुद्धता पण मोटी छे.

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१८२] [हुं
सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी पोताना स्वभावमां एटलां द्रढ छे के गमे तेटलां परिषहो
आवे, आखी दुनिया फरी जाय तोपण ज्ञानी पोतानी द्रष्टि अने स्थिरताथी डगता
नथी.
ज्ञानी पण शास्त्र वांचे, विचारे, उपदेश आपे, उपयोग न टके तो
व्यवहारनयना विचार पण करे पण भावना एक ज होय के हुं केम शीघ्र स्वानुभवमां
पहोंची जाउं. ज्ञानीने पण जेटलो राग होय छे तेटलो बंध पण होय छे. जेटलो
अबुद्धिपूर्वकनो राग छे तेटलो बंध अनुभवकाळे पण थाय छे. प्रथम अनुभव थतां ज
पूर्ण स्थिरता थती नथी तेथी जेटली अस्थिरता छे तेटलो ज्ञानीने पण बंध तो थाय
छे. ज्ञानीने अबंध कह्या छे ए तो द्रव्यद्रष्टिथी कह्या छे पण पर्यायमां राग बाकी छे
पण पर्यायमां राग बाकी छे तेटलो बंध तो दशमा गुणस्थान सुधी होय छे माटे
ज्ञानीने पण श्रीगुरु कहे छे के तने शुभराग भले हो पण भावना तो हुं अंतरमां केम
स्थिर थाउं ए ज राखवी, ते ज मोक्षनो उपाय छे.
* जे शरीर दुष्ट आचरणथी उपार्जित कर्मरूपी
कारीगर द्वारा रचवामां आव्युं छे, जेना सांधा अने बंधनो
निंद्य छे, जेनी स्थिति विनाश सहित छे अर्थात् जे विनश्वर
छे, जे रोगादि दोषो, सात धातुओ अने मळथी परिपूर्ण
छे, अने जे नष्ट थवानुं छे, तेनी साथे जो आधि (मानसिक
चिंता), रोग, वृद्धावस्था अने मरण आदि रहेता होय
तो एमां कोई आश्चर्य नथी. परंतु आश्चर्य तो केवळ एमां
छे के विद्वान मनुष्य पण ते शरीरमां स्थिरता शोधे छे. प८
(श्री पद्मनंदि-पंचविंशति)

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परमात्मा] [१८३
[प्रवचन नं. ३प]
निज–परमात्मानी द्रष्टि करतां पर्यायमां
मुक्तिनो प्रारंभ
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता १प-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र छे. मुनिराज योगीन्द्रदेवे आ शास्त्रनी रचना करी छे.
तेमां आपणे ८८ गाथा सुधी पहोंच्या छीए.
सम्माइट्ठी–जीवडहं दुग्गइ–गमणु ण होइ
जइ जाइ वि तो दोसु णवि पुव्व–क्किउ खवणेइ ।। ८८।।
सम्यग्द्रष्टि जीवने दुर्गति गमन न थाय;
कदी जाय तो दोष नहि, पूर्व कर्म क्षय थाय. ८८.
सम्यग्द्रष्टि जीवनुं गमन हलकी गतिओमां होतुं नथी. केमके सम्यग्द्रष्टिने द्रष्टिमां
पोताना पूर्ण स्वभावनो ज आदर छे अने संसार तरफ उपेक्षाभाव छे. एक पोताना
शुद्धस्वभावनुं ज ग्रहण छे, बाकी शुभ विकल्पथी मांडीने आखा संसार प्रत्ये ज्ञानीने
ग्रहणबुद्धि नथी, आदर नथी. तेथी ज्ञानी हलकी गतिमां जतां ज नथी. छतां कदाचित्
जाय तोपण तेमां ज्ञानीने हानी नथी. तेमना पूर्वकृत कमनो क्षय थई जाय छे.
श्रोताः- सम्यग्द्रष्टि कोने कहेवाय?
पूज्य गुरुदेवः- जेने आत्माना शुद्ध स्वभावनी गाढ रुचि छे अने अतीन्द्रिय
सुखनो परम प्रेम छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. तेने आखा संसार तरफथी अंतरथी रुचि-प्रेम
ऊडी गया होय छे. आवा ज्ञानीने द्रढ प्रतीति होय छे के मारी शांति अने आनंद पासे
बधुं तुच्छ छे. शुभरागमां पण मारो आनंद नथी, तो बीजे क्यां होय? आवा द्रढ
प्रतीतिवंत ज्ञानी मुक्तिना पथिक छे-छूटवानी दिशाए चालनारा छे.
मोक्षस्वरूप आत्मानी जेने रुचि अने प्रतीत थई ते मोक्षनो पथिक छे. आत्मा
वस्तुस्वभावे राग, शरीर के कर्मथी कदापि बंधाणो ज नथी. एक समयनी पर्यायमां
राग छे पण जेणे पर्याय उपरथी द्रष्टि उठावी लीधी अने स्वभावद्रष्टि करी तेने
मुक्तस्वभाव ज जणाशे. ते पर्यायमां पण मुक्तस्वभावना पंथे ज छे.
भगवान आत्मामां राग अने कर्मनो संबंध क्यां छे? वस्तु तो पूर्ण मुक्त छे
अने सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि मुक्तस्वभाव उपर ज छे. द्रष्टि मुक्तस्वभाव उपर छे त्यां
राग, कर्मनुं निमित्त, बंधनी पर्याय आदिनुं ज्ञान रहे छे पण तेनो आदर रहेतो नथी.
भवरहित स्वभावनी द्रष्टि थतां ज्ञानीने पूछवा जवुं पडतुं नथी के हे भगवान!

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१८४] [हुं
हवे मारे केटला भव छे? अरे, हुं तो भवरहित वस्तु छुं ने! मारे भवनो परिचय ज
नथी. वस्तु एटले अनंतगुणनो सार-रसकस एवी चीजने भवनो परिचय ज नथी.
पर्यायमां भवनो परिचय छे पण द्रष्टि पर्यायने स्वीकारती ज नथी.
जेणे पोतानी द्रष्टिमां धर्मधारक धर्मीने धारी लीधो, तेनी द्रष्टिमां भव छे ज नहि
अने तेनी पर्यायनी गति पण भवना अभाव तरफ थवा लागी छे ते निःसंदेह थई गयो
छे के मारे हवे भव छे ज नहि. एक बे भव छे ते मारा पुरुषार्थनी कमीने कारणे-रागने
कारणे छे, ते मारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे, मारुं स्वरूप नथी, तेनो हुं स्वामी नथी. हुं तो मारा
सहजात्मस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ स्वामी छुं एम ज्ञानी जाणे छे. सम्यक्त्वनी महिमा केटली
छे ते आगळ रत्नकरंड-श्रावकाचारनी बे गाथाना आधारे कहेशे.
पूर्णानंदस्वरूप वस्तु ते मारी चीज छे अने हुं तेनो स्वामी छुं. मारी एक
समयनी पर्यायमां दोष छे बाकी आखो आत्मा निर्दोष पिंड छे. ए एक समयना
दोषनी जेणे रुचि छोडी अने पूर्णानंद स्वभावमां रुचि जोडी ते मोक्षनो ज पथिक छे.
भगवान कहे छे माटे हुं पूर्ण छुं एम नहि पण पोताने निःसंदेह प्रतीति थई जाय छे
के ‘हुं तो पूर्ण छुं, दोष ते मारुं त्रिकाळी स्वरूप नथी.’ जेम वस्तु क्यारेय पडती नथी
तेम वस्तुनी द्रष्टि थई ते पण कदी पडती नथी, अने जेने पडवानी शंका पडे छे तेने
ध्रुवनी द्रष्टि पण रहेती नथी.
समंतभद्र-आचार्ये रत्नकरंड-श्रावकाचारमां सम्यग्द्रष्टिने तेनी स्वसन्मुख चालती
धारानो कर्णधार कह्यो छे. कर्णधार एटले खेवटियो, नावडियो कह्यो छे. संसारसमुद्रथी
पार करनारो नावडियो छे. सम्यग्दर्शननी घणी महिमा करी छे के सम्यग्दर्शन विना
सम्यग्ज्ञान नथी, सम्यक्चारित्र नथी. सम्यग्दर्शन थयुं एटले तो सर्वस्व थई गयुं.
सम्यग्द्रष्टि संसार तरफ पीठ राखे छे, एटले शुं?-के विकल्प आदिथी उपेक्षा
राखे छे, अने निर्विकल्प स्वभावनी अपेक्षा राखे छे. जेम माखी जेवुं चौरेन्द्रिय प्राणी
पण ज्यां मीठास लागे त्यांथी खसतुं नथी अने ज्यां मीठास नथी त्यां बेसतुं नथी.
फटकडी उपर माखी बेसती नथी अने साकरमां मीठास आवे छे त्यांथी उडती नथी तेम
आत्मा साकरनी जेम अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद-ढगलो छे त्यां जेनी द्रष्टि पडी छे ते
सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि त्यांथी खसती नथी. आनंदघनजी पण कहे छे ने के ‘चाखे रस क्यों
करी छूटे?’ एकवार रस चाख्या पछी केम करीने छूटे? धर्मीए अतीन्द्रिय आनंदनो
रस चाख्यो पछी देवतानी टोळी आवीने कहे के आमां रस नथी तोपण ज्ञानी कहे छे
के में अनुभव कर्यो छे तेमां फेर नथी. ज्ञानीने पोताना अनुभवमां शंका पडती नथी.
ज्ञानीने स्वभाव प्रत्ये संवेग छे. अने परभाव-संसार प्रत्ये निर्वेग छे.
स्वभावनी रुचि थई छे तेथी वीर्य पण ते तरफ ज काम करे छे, केमके ‘रुचि
अनुयायी वीर्य.’ अने ज्ञानीने संसार, शरीर अने भोगोथी विरक्ति थई जाय छे.
संसारमां चारेय गतिमां आकुळता छे, शरीर कारागृह समान छे अने ईन्द्रियोना
भोगो अतृप्तिकारी छे एम जाणीने ज्ञानीने वैराग्य थाय छे.

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परमात्मा] [१८प
ज्ञानीने भोगादिनो थोडो राग आवी जाय छे पण तेनो खेद थाय छे, पोते
पोताना रागनी निंदा करे छे, गुरु पासे गर्हणा करे छे.
स्वामीकार्तिकेय मुनिराज कहे छे के जेने आत्मानुं भान थयुं अने
अनंतानुबंधीनो नाश थयो ते धर्मी पर्यायमां पोताने तुच्छ देखे छे. अरे! क्यां
भगवाननी केवळज्ञाननी दशा अने क्यां मुनिओनी प्रचुर स्वसंवेदननी दशा! तेनी
पासे मारी पर्यायमां तो बहु कमी छे-हुं पामर छुं.
समयसार प मी गाथामां कुंदकुंदाचार्ये पण कह्युं छे के सर्वज्ञ भगवानथी मांडीने
अमारा गुरुपर्यंत बधां अंतर निमग्न छे. तेमणे अमारा उपर कृपा करीने उपदेश आप्यो
के ‘भगवान! तुं शुद्ध छो’ आ सांभळी अमने प्रचुर स्वसंवेदन प्रगट थयुं. कुंदकुंद
आचार्ये एम न लीधुं के अमारी पात्रता जोईने गुरुए उपदेश आप्यो, पण गुरुए कृपा
करीने १२ अंगना साररूप ‘तुं शुद्धात्मा छो’ एवो उपदेश आप्यो एम लीधुं.
शुद्ध चैतन्य तरफ जेनो झुकाव छे तेने राग तरफ निंदा-गर्हणा थाय ज. ए तेनुं
लक्षण छे. एम न होय के राग भले आव्यो. धर्मीने सदाय अकषायभावनी जागृति रहे
छे अने जिनेन्द्रदेव, निर्ग्रंथ गुरु अने जिनवाणीनी गाढ भक्ति करे छे, स्तुति, वंदना,
पूजा, स्वाध्याय पण करे छे. आ बधा शुभभाव सहकारी निमित्त छे एम धर्मी जाणे छे.
धर्मीने साधर्मी भाई-बहेन प्रत्ये वात्सल्य आवे छे. साधर्मीनी विशेष दशा
जोईने द्वेष नथी आवतो पण एम थाय छे के अहा! धन्य अवतार! मारे पण आवी
दशा प्रगट करवी छे. रत्नकरंड-श्रावकाचारमां आवे छे के धर्म धर्मी विना होतो नथी.
तो जेने धर्मी उपर प्रेम नथी तेने धर्म उपर पण प्रेम नथी.
सम्यग्द्रष्टि कोई साथे अन्याययुक्त व्यवहार करतां नथी. सम्यग्द्रष्टिने ४१
प्रकृतिनो बंध थतो नथी. ते तो देव अने मनुष्यगतिमां ज जन्मे छे. कदाचित्
सम्यग्दर्शन पहेलां नरक, तिर्यंचगतिनो बंध थई गयो होय तो त्यां पण समभावथी
दुःख सहन करी ले छे. सम्यग्द्रष्टिने ‘बाहिर नारकीकृत दुःख भोगत, अंतर सुखरस
गटागटी.’ जेटलो कषायभाव छे तेटलुं ज्ञानीने दुःख थाय छे पण तेने गौण करीने
अतीन्द्रिय स्वभावनी मुख्यताथी आनंदने वेदे छे तेथी ज सम्यग्द्रष्टि नरकमां होय
तोपण सुखी छे अने मिथ्याद्रष्टि नवमी ग्रैवेयकमां होय तोपण दुःखी छे.
सम्यग्दर्शन थया पहेलां आयुष्य बंधाई गयुं होय तो सम्यग्द्रष्टि कदाचित्
नरकमां जाय तेने पूर्वकृत कर्मोनी अने अशुद्धभावनी निर्जरा थाय छे अने नवा कर्म
बंधाता नथी. सम्यग्द्रष्टिने पूर्णानंद स्वभावनी ज मुख्यता होवाथी सम्यग्दर्शन सूर्य
ऊग्यो होवाथी अव्रती होवा छतां एवा पाप नथी बांधतो के जेथी ते नारकी, तिर्यंच,
स्त्री, नपुंसक थाय के नीच गति आदि दशाने प्राप्त थाय.
सम्यग्द्रष्टि अखंडित प्रतापवंत होय छे, विद्यावंत होय छे, जशवंत होय छे.

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१८६] [हुं
सम्यग्द्रष्टिने शुद्धिनी वृद्धि थती जाय छे. पुण्य पण वधतां जाय छे अने सम्यग्द्रष्टिनो
पुरुषार्थ पण वधतो जाय छे.
सम्यग्द्रष्टि सदा विजयवंत होय छे. सम्यग्द्रष्टि कहे छे के अमारो ज विजय छे,
अमे कदी पाछा पडीए तेम नथी. राग अने कर्म अमने हरावी शके तेम नथी.
सम्यग्द्रष्टिनी भावना एवी जोरदार होय छे के पुरुषार्थ करीने क्यारे चारित्र प्रगट करुं
अने केवळज्ञान लउं? तेने एवी शंका न होय के कर्म मने हेरान करशे तो! भव हशे
तो! एवी शंका न होय.
जेणे पोताना आत्माने मुख्य कर्यो छे तेवा सम्यग्द्रष्टि बहारमां पण बधामां
मुख्य गणाय छे. जेम हीरा कोथळामां न रखाय, मखमलनी डबीमां ज हीरा रखाय.
तेम सम्यग्द्रष्टि पुण्यवंत माता-पिताने त्यां ज जन्म ले. हलका घरे न जन्मे.
सम्यक्त्वनी भूमिकामां जे पुण्य बंधाय छे तेवुं पुण्य मिथ्यात्व भूमिकामां अनंतकाळमां
क्यारेय बंधातुं नथी. सम्यग्द्रष्टिना पुण्यनी जात ज जुदी होय.
हवे योगीन्दु मुनिराज कहे छे के सर्व व्यवहारने छोडीने स्वरूपमां रमण कर!
जेने स्वभावमां एकता थई छे ते सम्यग्द्रष्टि, द्रष्टि अपेक्षाए रागथी मुक्त ज
छे. ज्ञानीने द्रष्टिमां के द्रष्टिना विषयमां क्यांय व्यवहार नथी. व्यवहार छे खरो पण
जेम परद्रव्य छे तेम व्यवहार छे.
प्रभु-आत्मामां त्रणकाळना समय करतां अनंतगुणा गुणो छे तेमां सम्यग्द्रष्टि
रमण करे छे अने शीघ्र संसारथी पार थई जाय छे.
लोको चोपडामां लखे छे के ‘लाभ सवाया’ ए तो धूळना लाभनी वात छे.
सम्यग्द्रष्टि तो पोताना अनंतगुणोनी शुद्धिमां वृद्धि थाय तेमां पोताने लाभ माने छे.
ए लाभ सवायो नहि पण अनंतगुणो छे.
हुं वस्तुए सर्व शुद्ध-परिपूर्ण शुद्ध छुं. द्रष्टिनो विषय द्रव्य छे तेथी द्रष्टि पूर्णनो
ज स्वीकार करे छे. बनारसीदास लखे छे के ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो.’
व्यवहारद्रष्टिमां कर्मनो संयोग छे पण ते तो त्यागवा योग्य छे.
ज्ञानी संसारमां एक क्षण पण रहेवा मागता नथी. एक चैतन्य ज शरणरूप छे
बाकी संसारमां कोई शरणरूप नथी. केटलाक वर्षो पहेलां एक बनाव बन्यो हतो.
प००-६०० माणसोनो काफलो जंगलमां थईने नीकळ्‌यो हतो, त्यां जंगलमां बे जुवान,
छोकराने कोलेरा थई गयो, चालवानी शक्ति नहि, तेने कोण ऊंचके? सगा मा-बाप
बेयने एकला जंगलमां छोडीने बधां साथे चाल्या गया! कोण शरण छे?
सम्यग्द्रष्टिने सकल चारित्र नथी पण चारित्रनी प्रतीति बराबर थई गई छे के
स्वरूपमां रमणता ते चारित्र छे अने चारित्र विना मुक्तिनो बीजो कोई उपाय नथी.
सम्यग्द्रष्टि बधो व्यवहार छोडी स्वरूपनुं ध्यान करे छे, अनुभव करे छे अने तेमां ज स्थिर

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परमात्मा] [१८७
थवा जेवुं छे एम माने छे. स्वरूपथी बहार नीकळवुं ते दुःख छे, रोग छे, शोक छे पण
स्थिर थई शक्तुं नथी तेथी बहार व्यवहारमां आवे छे. साधु पण स्वरूपमां उपयोग न
टके त्यारे स्वाध्याय स्तुति-संयम-प्रभावना आदि शुभ व्यवहारमां आवे छे पण
सुखरूप तो स्वरूपलीनता ज छे एम माने छे. बहार व्यवहारमां तेमने होंश आवती
नथी, उल्लसित वीर्य तो स्वभाव तरफ ढळेलुं छे. तेथी व्यवहारमां उदासीनता छे,
आदर नथी.
मुनिने जेम जेम आत्मध्याननी शक्ति वधती जाय छे तेम तेम व्यवहार छूटतो
जाय छे. मुनिराजने एटले शुद्धि तो प्रगटी ज गई छे के अंतर्मुहूर्तथी वधु समय बहार
उपयोग जोडता नथी. विकल्प आवे छे पण तेमां तत्परता नथी. कमजोरीथी आवे छे
पण भावना तो वारंवार शुद्ध स्वरूपमां ठरी जवानी रहे छे. विकल्प आवे छे तेनो
खेद थाय छे. जयधवलमां आवे छे के शुद्ध उपयोगनी प्रतिज्ञा करी छे छतां आहारनो
राग आव्यो तेमां मारी प्रतिज्ञानो भंग थाय छे माटे हुं फरी शुद्ध उपयोगनी प्रतिज्ञा
करुं छुं. मारे तो शुद्ध-उपयोगमां ज रहेवुं छे अहो! आवी दशा ते यथार्थ मोक्षमार्ग छे,
स्वरूप लीनता ते ज मोक्षनो उपाय छे. तेमां वच्चे व्यवहारना विकल्प आवे पण ते
बंधनुं कारण छे, तेनाथी दूर थाव.
सम्यग्द्रष्टि-तत्त्वज्ञानी द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव जोईने पोतानो सहज पुरुषार्थ काम
करे ते जोईने प्रतिज्ञा करे छे. लोकोनी साथे वेगमां आवीने कोई जातनी प्रतिज्ञा करता
नथी. ज्यां सुधी सहज वैराग्य न आवे त्यां सुधी श्रावकपणे रहीने पोताना परिणाम
अनुसार दर्शनप्रतिमा आदिनुं पालन करे छे अने आत्मानुभव माटे वधु ने वधु समय
मेळवता रहे छे.
मोक्षपाहुडमां कुंदकुंद आचार्य कहे छे के-
पोताना शुद्ध द्रव्यनी रुचि थवी ते सुगति छे परद्रव्य, परभावनी रुचि थवी ते
दुर्गति छे. दुर्गति नाम पोताना स्वभावथी विपरीत गति छे.
योगीन्दु मुनिराज देवसेन आचार्यकृत तत्त्वसारनो आधार आपे छे के ज्यां
सुधी जीव परद्रव्यना व्यवहारमां रहे छे त्यां सुधी भव्य जीव कठण-कठण तप करतो
होय तोपण मोक्ष पामतो नथी अने जे पोताना श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रमां स्वभावनो
लाभ मेळवे छे ते शीघ्र मुक्तिने प्राप्त थाय छे.

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१८८] [हुं
[प्रवचन नं. ३६]
निज–परमात्म–आश्रित निश्चय
अन्य सर्व व्यवहार
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १६-७-६६]
श्री योगीन्दु मुनिराजकृत आ योगसार शास्त्र चाले छे. तेमां अहीं ८९ मी
गाथा चाले छे. सम्यग्द्रष्टि जीव परव्यवहार छोडीने पोताना शुद्ध स्वभावनो आश्रय
लईने तेमां लीन थाय छे ए ज एक मोक्षनो मार्ग छे, ए वात चाले छे.
अप्प सरूवहं [–सरूवइ?] जो रमइ छंडिवि सहु ववहारु ।
सो सम्माइठ्ठी हवइ लहु पावइ भवपारु
।। ८९।।
आत्मस्वरूपे जे रहे, तजी सकळ व्यवहार;
सम्यग्द्रष्टि जीव ते, शीघ्र करे भवपार.
८९.
एक एक शब्दमां मुनिराज केटलो सार भरी दे छे! ज्यां सुधी जीव परद्रव्य
आश्रित व्यवहारमां रहे छे अने पोताना शुद्ध चैतन्यमूर्ति द्रव्यस्वभावना आश्रयमां
आवतो नथी त्यां सुधी तेनी मुक्ति थती नथी.
सम्यग्दर्शनमां पण पहेलां स्वद्रव्यनो आश्रय होय छे. पछी जेटलो परद्रव्यनो
आश्रय रहे छे त्यां सुधी मुक्ति थती नथी. सीधी ज वात छे के व्यवहार पराश्रित छे
अने निश्चय स्वाश्रित छे. साक्षात् तीर्थंकर भगवान हो, सर्वज्ञ हो, समवसरण हो,
सम्मेदशिखर हो के गणधर आचार्य आदि भले हो पण ते परद्रव्य छे. तेना आश्रये
सम्यग्दर्शन त्रणकाळमां थतुं नथी. स्वना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
भगवान! न्यायथी तो सांभळो भाई! आ आत्मद्रव्य एक सेकंडना
असंख्यातमां भागमां शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्यायनो पिंड छे. पुण्य-पापना विकल्प छे ए तो
आस्रव छे, ते जीव नथी अने शरीर, कर्म आदि अजीव छे ते पण जीव नथी अने
देव-शास्त्र-गुरु पण परद्रव्य छे, पोताना द्रव्यथी भिन्न छे, तो ए परद्रव्यना आश्रये
धर्मनी शरूआत केम होई शके? स्वद्रव्यमां अनंत...अनंत शुद्धता भरी पडी छे. तेना
आश्रय वगर पराश्रये धर्मनी शरूआत-सम्यग्दर्शन कदापि होई न शके.
तेथी ज अहीं देवसेन आचार्यकृत गाथानो आधार आप्यो छे के ज्यां सुधी जीव
व्यवहार, राग, विकल्प आदिनो आश्रय करे छे त्यां सुधी ते भव्य जीव भले कठिन
तप करतो होय तोपण मोक्ष पामतो नथी. बार-बार महिनाना उपवास करे के परलक्षे
ईन्द्रियदमन करे ए तो बधो पुण्यभाव छे, बंधनुं कारण छे. तेनाथी मुक्ति कोई काळे
न थाय.

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परमात्मा] [१८९
अनंतकाळमां जे कोई जीव सम्यग्दर्शन पाम्या छे ते पूर्ण चैतन्यकंद, आनंदघन
निजतत्त्वना आश्रये पाम्या छे. सम्यग्दर्शन थया पछी पण जेटलो व्यवहार बाकी रहे
छे तेने पराश्रय जाणीने छोडे अने स्वाश्रय करे त्यारे ज सम्यग्द्रष्टिने शुक्लध्यान अने
केवळज्ञान थईने मुक्ति थाय छे.
माटे, सौ प्रथम श्रद्धामां एवो निर्णय थवो जोईए के स्वाश्रयथी ज धर्मनी
शरूआत अने पूर्णता छे. पराश्रयथी तो धर्मनी शरूआत पण थती नथी. केमके
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-आनंद आदि बधी पर्यायोनो पिंड तो द्रव्य छे, व्यवहारना
रागमां ए पर्यायनी शक्ति नथी. निर्मळ मोक्षमार्गनी पर्याय द्रव्य-गुणमां छे, पराश्रित
व्यवहारमां नथी. आ तो भाई! सीधी अने सरळ वात छे.
बंध अधिकारमां अमृतचंद्राचार्य पण कहे छे के भगवान एम कहे छे के
परद्रव्यने हुं मारी-जीवाडी शकुं छुं के सुखी-दुःखी करी शकुं छुं ए आदि सर्व
अध्यवसाय-परमां एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्व छे. तेथी जेटलो पण पराश्रय छे ते बधो
भगवाने छोडाव्यो छे.
महासिद्धांतो आपेलां छे त्यां वाद-विवादनुं स्थान ज क्यां छे? एक ज वात छे.
पोतानो भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन छे तेना आश्रयथी ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्र थाय छे अने तेना आश्रयथी ज शुक्लध्यान अने केवळज्ञान थाय छे.
सर्वज्ञ भगवाननी पेढीमां त्रणकाळ त्रणलोकमां एक ज सिद्धांत चाले छे
‘स्वाश्रित ते निश्चय अने पराश्रित ते व्यवहार’ अने निश्चयनयाश्रित मुनिवरो ज
मुक्ति पामे छे.
परद्रव्यना आश्रये थतां भाव शुभ हो के अशुभ हो पण ते बन्ने अशुद्धभाव
छे. तेमां जेनुं मन लीन छे तेने स्वाश्रय नथी अने स्वाश्रय नथी माटे तेने मुक्ति पण
प्राप्त थती नथी. पोतानो शुद्ध द्रव्यस्वभाव छे तेना आश्रयथी ज शुद्धभाव प्रगट थाय
छे अने शुद्धभावथी ज मुक्ति प्राप्त थाय छे.
भाई! सर्वज्ञ परमात्मा त्रिलोकीनाथे जे पद्धति कही छे ते पद्धति न रहे तो
आखी अन्यमतनी पद्धति थई जाय. रागथी लाभ मानवो ए तो अन्यमतनी पद्धति
छे. सर्वज्ञ परमात्मानी अनादि परंपराथी चाली आवती पद्धतिनी श्रद्धा तो बराबर
होवी जोईए. स्थिरता भले विशेष न थई शके पण स्वाश्रये ज लाभ छे- एवी द्रष्टि
तो बराबर होवी जोईए. आ वात त्रणकाळमां फरवी न जोईए.
आथमणो थोडो चाले तो उगमणो जाय? एटले के पश्चिम तरफ थोडुं चाले तो
पूर्व तरफ जई शके एक कदी होई शके?-न होय; तो पछी थोडो पराश्रय करे पछी
स्वाश्रय थाय एम केम बनी शके?
लोकोमां कहेवत छे ने! ‘पराधीन स्वप्ने सुख नाहि.’ ए ज वात अहीं छे.
साक्षात् सर्वज्ञदेव भले हो पण ते परद्रव्य छे, तेना आश्रये अन्य जीवने सुख कोई
काळे थाय नहि. पराश्रयभाव ते व्यवहार अर्थात् बंध छे. स्वाश्रयभाव ज सदा अबंध
छे. त्रणकाळ, त्रणलोकमां आ एक ज सिद्धांत छे ते कदी फरे तेम नथी.