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वळी कहे छे के आ शास्त्रनी रचना माराथी थई नथी, ए तो पुद्गल-शब्दोनी रचना
छे. माटे आ टीका अमृतचंद्रसूरीए रची छे एम न नाचो. भाषामां स्व-परने कहेवानी
ताकात छे अने आत्मामां स्व-परने जाणवानी ताकात छे. ‘आ चैतन्यने चैतन्यपणे
आजे ज प्रबळपणे अनुभवो.’ सारा काममां डाह्यो माणस वायदा न करे. माटे
भगवान आत्मा कोईनो कर्ता-हर्ता नथी मात्र जाणनार-देखनार छे-एवो स्वीकार
करीने अत्यारे ज अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव कर! वायदा न कर!
कल्याणनो काळ जतो रहेशे. माटे मिथ्या मान्यता छोडीने स्वानुभव करी ले. कह्युं छे केः
रहेवुं ते चारित्र छे. आत्मा पोते पोताथी पोतामां एक थई जाय छे त्यां रत्नत्रयनी
ऐक्यता थाय छे, आ रत्नत्रयधर्म ज निज-आत्मानो स्वभाव छे.
लागतां हशे? जाणे हालतां-चालतां सिद्ध जोई ल्यो. एवा ए अमृतचंद्र आचार्य
पुरुषार्थसिद्धिमां लखे छे के आत्मानो निश्चय थवो ते सम्यग्दर्शन, आत्मानुं ज्ञान ते
सम्यग्ज्ञान अने आत्मामां स्थिरता ते चारित्र. आ त्रणेयथी कर्मबंधन थतुं नथी.
तिहिं कारणहं जोइ फुडु अप्पा विमलु मुणंति ।। ८५।।
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत.
रहेलां तारा देखाय जाय छे, ताराने जोवा उपर नजर करवी पडती नथी. तेम
भगवानने पोताना आत्माने अवलंबीने प्रगट थयेली पूर्ण केवळज्ञाननी एक समयनी
पर्यायमां त्रणकाळ-त्रणलोक जणाय जाय छे, पण जेम पाणीमां तारा आवी जतां नथी
तेम ज्ञानमां लोकालोक आवी जतुं नथी. लोकालोक संबंधीनुं पोतानुं ज्ञान आवे छे.
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धर्म करवो छे पण धर्मनो करनारो पोते केवो छे अने केवडो छे तेनुं लोकोने भान
अरे! आवो महिमावंत आत्मा तेनी महिमा आवे नहि अने लोकोने रागनी ने
पुण्यनी ने वैभवनी महिमा आवे छे.
आत्मानी रुचि के द्रष्टि करावी शक्ता नथी. पोते ज पोतानी रुचि, द्रष्टि-ज्ञान अने
अनुभव करवाना छे. महाविदेहमां तो अत्यारे धोरी धर्मधुरंधर तीर्थंकरो विचरे छे तो
अने मोक्षे जवावाळा जीवो पण त्यां छे, ए ज तो जीवनी स्वतंत्रता बतावे छे.
एक पर्यायमां पण तारा बधां गुण आवी जतां नथी. श्रद्धा, ज्ञान, आनंद, शांति,
स्वच्छता, परमेश्वरता, कर्ता, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण, भाव, अभाव आदि
आत्माने अंतरद्रष्टिए अनुभवतां तेमां रहेलां अनंता गुणोनो एकसाथे अनुभव थई
जाय छे.
आवे अने तो अनंत आनंदनुं धरनारुं द्रव्य द्रष्टिमां-प्रतीतमां आव्यानुं फळ शुं?
ज कह्युं छे ‘सर्वगुणांश ते समकित.’ भगवानना ज्ञानमां जेटला गुणो आव्या छे ते
बधांनो अंशे अनुभव समकितीने थाय छे.
बधां गुणोनुं ग्रहण थई जाय छे. तेनुं नाम स्वानुभूति कहो, समकित कहो के धर्म कहो
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शरूआतनी गाथामां कहेल छे के जे भवभ्रमणथी डरे छे एवा जीवोने माटे हुं आ
शास्त्र बनावुं छुं.
तिहिं कारणए जोइ फुडु अप्पा विमलु मुणंति ।। ८५।।
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत.
छे तेनां करतां निगोदना एक शरीरमां अनंतगुणा जीवो छे. आवा बधां जीवो मळीने
सिद्ध करतां अनंतगुणा जीवो छे अने जीवथी अनंतगुणा पुद्गलो छे. आ पुद्गलोथी
अनंतगुणा त्रणकाळना समय छे अने आ समयथी अनंतगुणा आकाशना प्रदेशो छे
अने आ प्रदेशोथी अनंतगुणा गुण एक एक जीवमां रहेला छे.
पर्यायमां अल्प दोष छे, ज्यारे गुण तो अनंत...अनंत छे. ए दरेक गुणो आत्माना
असंख्यप्रदेशे व्यापेला छे.
नथी. ए आकाशना अनंत प्रदेशोथी अनंतगुणा गुण एक जीवमां छे. ‘आवा अनंत
गुणोनुं एक रूप ते आत्मा छे.’
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गुणोनी पर्याय एक समयमां प्रगट थाय छे.
ते एकस्वरूपने अंतर्मुख द्रष्टि-ज्ञानमां पकडतां अनंत गुणनी पर्याय प्रगट थई जाय
छे. श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, शांति, स्वच्छता, प्रभुता, विभुता आदि अनंत गुणनी पर्याय
एकसाथे प्रगट थई जाय छे. तेथी ज कह्युं छे के ‘सर्वगुणांश ते समकित.’ आत्मानो
अनुभव करतां अनंत गुणनी पर्यायनी प्रगटतारूप अनंतो लाभ थाय छे.
गुणस्वरूप एक आत्मानी श्रद्धा थशे अने अनंत गुणनी अंशे निर्मळ पर्यायोनो
अनुभव थशे. पण अनादिथी जीवने परद्रव्य अने रागादिनी महिमा आडे अनंत
गुणना एकपिंडरूप भगवान आत्मानो अनादर थई जाय छे-अशातना थाय छे तेनी
खबर नथी.
लावीने अंतरमां घूसी जाय तेने वस्तुनो अनुभव थाय छे.
निरोध थाय छे, तेनुं नाम तप छे अने ते समये राग-द्वेषनो अभाव थवाथी निश्चय
अहिंसाव्रत पण थई जाय छे. दयाना परिणाम ए खरेखर अहिंसाव्रत नथी पण परमार्थ
स्वभावना लक्षे रागरहित वीतराग परिणाम थाय छे ते ज साचुं अहिंसाव्रत छे.
हिंसा थाय छे पण लोकोनी मान्यता ज एवी छे के ‘दया धरमको मूल है, पाप मूल
अभिमान! तुलसी दया न छोडीए, जब लग घटमें प्राण.’
तो जीव पाळी शकतो ज नथी. केम के परद्रव्यनी अवस्था आत्मा त्रणकाळमां कदी करी
शक्तो नथी. शुं परद्रव्य वर्तमान पर्याय विनानुं खाली छे के आत्मा तेनी पर्याय करे?
आ तो महासिद्धांत छे के ‘कोई पण पदार्थ कोई पण समये पर्याय विनानुं होतुं नथी.’
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परम अचौर्यव्रत छे. पोताना स्वभावनी पक्कड करी परनी पक्कड छोडतां-रागनो एक
कण पण ग्रहण न करतां साचुं अचौर्यव्रत प्रगट थाय छे.
प्रगट अनुभव आपनो, निर्मळ करो सप्रेम,
चेतन प्रभु! चैतन्य संपदा रे तारा धाममां.
निश्चय ब्रह्मचर्यव्रत प्रगट थाय छे.
प्रगट थाय छे.
भाई! तारा क्षेत्रमां गुणनी क्यां कमी छे के तारे बीजा क्षेत्रमां गुण शोधवा
जो एक एक समयमां असंख्य गुणनुं वर्णन करे तोपण तेमना करोड पूर्वनी स्थितिमां
आत्माना अनंत गुणोनुं वर्णन न थई शके.
रागादि भावोनो त्याग थाय छे ए भावोथी निवृत्त परिणाम थवां ते निश्चय
प्रत्याख्यान छे. आम पंचमहाव्रत, त्रण गुप्ति आदि भावो अनुभवमां समाय जाय छे.
केम के भगवान आत्माना अंतरस्वरूपनो आश्रय करतां जे दशा प्रगट थाय तेमां शुं
खामी रहे? बधां ज गुणोनी पर्यायनुं परिणमन थई जाय छे.
छे के शरीर, वाणी, मन, विकल्प, रागादिथी रहित निज परमात्मस्वरूपमां लीनता
करनार केवळीनी स्तुति करे छे-एम अमे नहि पण सर्वज्ञभगवान कहे छे. अहीं पण
कह्युं छेः ‘केवळी बोले एम.’
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वंदन आदिना भाव आवे-होय, निश्चयमां ज्यां सुधी पूर्णता प्राप्त न थाय त्यां सुधी
वच्चे व्यवहार आव्या वगर रहेतो नथी, भक्ति, स्तुति, वंदन, पूजा आदिना भावो छे
पण तेनी मर्यादा पुण्यबंधनी छे. वस्तुना स्वरूपमां ते भावो समाई शक्ता नथी.
एटलो पराश्रित व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी, एम भगवान कहे छे. ते व्यवहार
ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. व्यवहार अने निश्चय बन्नेनी दिशा जुदी, बन्नेनुं
फळ जुदुं, अने बन्नेनो भाव पण जुदो-जुदो छे.
तने ठीक न पडे तो अंदर जा. तारी हाकलथी कोई साथे न आवे तो तुं एकलो जा!
तारे कोईनुं शुं काम छे? अहीं ८६ मी गाथामां पण ए ज वात आवशे.
साक्षात् परमात्माने स्पर्शे छे. एक दिवसमां हजारोवार आत्मानो स्पर्श करे छे एवा
संते रचेलां आ श्लोको छे.
स्वरूपमां एकाकार थतां पांच ईन्द्रिय तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे तेनुं नाम संयम छे,
अने ते ज उत्तम क्षमा आदि दशधर्म छे.
थाय छे एटले के पर्यायमां प्रगट थाय छे, साथे अवधि, मनःपर्ययज्ञाननी ऋद्धि पण
प्रगट थाय छे अने केवळज्ञाननो लाभ थाय छे. आम निर्वाणनो परम उपाय एक
आत्मानुं ध्यान छे.
सम्यग्दर्शनादि निश्चय मोक्षमार्ग छे एम जिनेन्द्रदेव कहे छे.
संतोनी करुणानो पार नथी.
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निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख.
वात छे. आवुं मनन जे करशे ते मोक्षनी सिद्धि शीघ्र करी शकशे.
पण छे त्रणेय विकल्पनी जाळ!
पूज्य गुरुदेवः-भाई! ए धर्मने समयसारमां पुण्य कह्युं छे. व्यवहारधर्म कहो के
गोठे छे! तो तुं क्यां जईश? ज्यां सुधी रागनुं पोषाण छे त्यां सुधी वीर्य अंतरमां काम
नहि करी शके. वीर्य गुणनुं खरुं कार्य तो पोताना स्वभावनी रचना करवानुं छे. पण ज्यां
सुधी वीर्य राग, पुण्य, संयोग आदिमां उल्लासथी कार्य करशे त्यां सुधी स्वभावनुं कार्य
नहि करी शके. माटे गृहस्थे पहेलां ज रागादिनी रुचि छोडी देवी जोईए.
परमारथनो पंथ.’ तेमां ढीलुं मूकीने कांई फेरफार न कराय. प्रभु! तारुं स्वरूप क्यां ढीलुं
छे? ज्ञानथी जो तो एकलो ज्ञाननो पुंज छे. वीर्यथी जो तो एकलो वीर्यनो पिंड छे.
आनंदथी जो तो एकलो आनंदनो पिंड छे. गुणपुंज आत्मा छे. अनंत गुणनो ढगलो छे.
ज वस्तुनुं स्वरूप छे अने तेवुं ज अनुभवमां आवे छे.
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छे. मुनिराज करुणा करीने शिष्यने कहे छे के ‘तुं एक आत्मानुं मनन कर.!’
अप्पा अप्पु मुणेहि तुहु लहु पावहि सिव–सिद्धि ।। ८६।।
निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख.
एकलो छे. आवा तारा ईन्द्रिय रहित निज आत्मानुं हे भाई! तुं मन-वचन-कायानी
शुद्धिपूर्वक स्वभावसन्मुख थईने ध्यान कर! ए मोक्षमार्ग छे अने ए ज योगसार छे.
श्लोकमां ज कुंदकुंदआचार्य कहे छे के श्रावक हो के मुनि हो ते बन्ने निश्चयरत्नत्रयनी
भक्ति करे छे. माटे सिद्ध थाय छे के श्रावकने पण पोताना निश्चय शुद्धरत्नत्रयनुं ध्यान
होय छे अने तेनी प्रगट दशा पण होय छे. मात्र मुनिने ज साचुं ध्यान होय एवुं
नथी, श्रावकने पण एकदेश ध्यान होय छे.
श्रावकने पण होय छे. सर्वार्थसिद्धिना चतुर्थ गुणस्थानवर्ती देवो करता पण जेनी शांति
वधी गई छे ते श्रावक भले स्त्री-कुटुंबनी वच्चे हो, राज्यभोग भोगवतो हो,
विषयभोगनी वासना पण हो परंतु ते श्रावक स्वभावना आश्रये शुद्ध
निश्चयरत्नत्रयनी भक्ति करे छे.
ज्ञानस्वभावनुं ज्ञान करवुं-स्वसंवेदन करवुं ते निश्चय अने शास्त्रज्ञान करवुं ते
पराश्रित व्यवहार छे. पोताना
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श्रावकने होय छे. अरे! चोथा गुणस्थानमां पण मुक्तस्वरूप आत्मानुं ज्यां भान थाय छे
अने निर्विकल्प प्रतीति थाय छे, तो श्रावकने तो बे कषायनो नाश थवाथी शांति विशेष वधी
जाय छे. आ स्वभावना आश्रये प्रगट थयेली शांतिने अहीं शुद्ध निश्चयरत्नत्रय कहेल छे.
अंतर-बाह्य निर्ग्रंथदशा साक्षात् मोक्षनो उपाय छे.
चारित्रनो दोष छे अने ईन्द्रिय विषयोमां सुख छे एम मानवुं ते मिथ्यात्वनो दोष छे.
सम्यग्द्रष्टिने त्रणकाळ त्रणलोकमां एक पोताना आत्मा सिवाय क्यांय सुखबुद्धि थती
नथी. ज्यां सुख होय त्यां सुखबुद्धि होय के ज्यां सुख न होय त्यां सुखबुद्धि होय?
पोतानो आनंद तो पोतामां छे, पुण्य-पाप भावमां पोतानो आनंद नथी-एवी श्रद्धा
धर्मीने प्रथम द्रष्टिमां ज थई जाय छे.
रहीने यथाशक्ति आत्मानुं मनन करे छे. अंतरमां विशेष स्थिर थवानी शक्ति न होय
अने बहारथी बधुं छोडीने बेसी जाय तो पछी हठथी परिषह आदि सहन करे, बोजो
वधी जाय. केम के अंतर शक्ति तो छे नहि.
राखजे. आसक्ति न छूटे तो लग्न करी लेजे पण मिथ्याद्रष्टि साधुनो संग कदापि न
करीश. केम के लग्न करवा ते चारित्रनो दोष छे पण मिथ्याश्रद्धावंतना संगमां चडवाथी
पोतानी श्रद्धा मिथ्या थई जाय तो ते श्रद्धाथी ज भ्रष्ट थई जाय.
पूज्य गुरुदेव-अरे भाई! तेनो अर्थ समजवो जोईए. मुनिने तो विवाह आदि
करावे नहि अने करताने अनुमोदे नहि. पण अहीं तो मिथ्यात्वथी बचवा माटे आ
वात कही छे. मिथ्यादर्शननुं पाप चारित्रदोषथी घणुं मोटुं छे. पण लोकोने मिथ्यादर्शननुं
पाप अने सम्यग्दर्शनरूप धर्मनी शुं किंमत छे तेनी खबर ज नथी.
साधु होय पण तेना संगथी समकितीनी श्रद्धा पण विपरीत थई जाय तो श्रद्धानो
मोटो दोष लागे छे. मूलाचारमां
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ब्रह्मस्वरूपमां लीन थनारा आत्म-आनंदी मुनिराज आम कहे छे तो तेनो आशय
बराबर समजवो जोईए.
श्रद्धा-ज्ञान-स्थिरतारूप रत्नत्रयनी भक्ति कर! ध्यान कर! अने ज्यारे तने मनथी
आसक्ति पण छूटी जाय त्यारे मुनिपणुं अंगीकार करजे. मुनिपणुं-चारित्र ज खरेखर
मोक्षनुं साक्षात् कारण छे, माटे ज्यारे तने आत्मिकसुखनो प्रेम वधी जाय अने तेना
सिवाय बधा विषयोना रस फीक्का लागे, क्यांय आसक्ति न थाय त्यारे जितेन्द्रिय थईने
निरंतर आत्माना मननमां लागी जजे अर्थात् मुनि थई स्वरूपमां लीन थजे.
आत्मानी द्रष्टिपूर्वक ज्ञाननो विकास करे एटले के आत्मानी सर्व शक्ति-आनंद, शांति, वीर्य
आदिनो विकास थाय तेम राग घटाडे अने ज्ञान फेलावे ते मुनिने योग्य कार्य छे.
अने राग-द्वेष न करतां समताभावथी आत्माने ध्यावो. कारण के परमानंदमूर्ति आत्मानुं
ध्यान करवुं ते ज मोक्षनो मार्ग छे. द्रव्यसंग्रह-४७ गाथामां पण आ ज वात मूकी छे.
सहज–सरुवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु ।। ८७।।
सहजस्वरूपे जो रमे, तो शिवसुखरूप थाय.
बंधनुं कारण छे. सहजात्मस्वरूप-एकस्वरूपनुं ध्यान ते मोक्षनुं कारण छे.
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बंध अने मोक्ष ए विचार भले शुभविकल्प छे पण विकल्प छे ते ज बंधनुं कारण छे.
अरे! पण आमां एक पण जीवनो घात तो नथी कर्यो छतां बंधन?-हा, जीवनो घात
बंधनुं कारण नथी, विकल्प बंधनुं कारण छे. पर्यायद्रष्टि-व्यवहारनयनो आश्रय करवाथी
बंध थाय छे.
सम्यग्दर्शनने पण परद्रव्य कह्युं छे. केम?-के जेम परद्रव्यमांथी पोतानी निर्मळ पर्याय
उत्पन्न थती नथी तेम पोतानी निर्मळ पर्यायमांथी पण नवी निर्मळ पर्याय उत्पन्न
थती नथी ते अपेक्षाथी उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक चारेय पर्यायने परद्रव्य कही
छे. नवी पर्याय उत्पन्न थवानुं स्थान एक ध्रुवस्वभाव छे ते स्वद्रव्य छे.
निर्विकल्प समाधि कहे छे. सम्यक् दर्शन-ज्ञान चारित्रमां राग रहित वीतरागी शांति छे
ते निर्विकल्प समाधि छे. ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
तो तारो निर्वाण थशे ज थशे. जेम आगळ कह्युं के तुं विकल्पथी निःभ्रांतपणे बंधाईश
ज तेम अहीं कहे छे के स्वरूपमां द्रष्टि-ज्ञान अने लीनता कर! तुं निःशंकपणे निर्वाण
पामीश. जेम ठंडुं हीम वनने बाळी नाखे छे तेम तारी अकषाय शांति संसारने बाळी
नाखशे, तारो निर्वाण थशे.
अकषायभाव पर्यायमां प्रगट थवो ते उपशमभाव छे.
करतां ए भावो प्रगट थाय छे.
श्रोताः-पण प्रभु! विचार ए तो ज्ञाननी पर्याय छे ने?
भाई! ए छे ज्ञाननी पर्याय, पण साथे जे राग आवे छे, भेद पडे छे ते बंधनुं
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कारण छे.’ त्यां ज्ञानने बंधनुं कारण नथी कह्युं पण ज्ञान रागमां-भेदमां रोकाय जाय छे
तेनुं नाम विचार छे अने ते बंधनुं कारण छे. हुं मनुष्य छुं, भव्य छुं, सम्यग्द्रष्टि छुं
आदि, गुणस्थान, मार्गणास्थानना विचार, कर्मोना आस्रवभावनो विचार, चारे प्रकारना
बंधनो विचार, संवर-निर्जराना कारणोनो विचार आदि बधां विचारो व्यवहारनय द्वारा
चंचल छे. ते शुभोपयोग छे. निश्चय ज सत्य छे. व्यवहार उपचार छे.
एवा विकल्पो छोडवा लायक छे. पर्यायनुं क्षणिकपणुं दुःखदायक नथी पण तेमां जे
राग-द्वेषना विकल्प ऊठे छे ते ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावने डखलरूपे छे माटे दुःखरूप छे.
ज्ञान करवुं ते दुःखनुं कारण नथी, ते तो स्वभाव छे, पण जे रागी छे ते भेदनुं ज्ञान
करवा जाय छे त्यां तेने विकल्प ऊठे ते दुःखनुं कारण छे. भेदनुं ज्ञान दुःखनुं कारण
होय तो तो सर्वज्ञने पण दुःख थवुं जोईए, पण एम नथी. विकल्प दुःखनुं कारण छे.
मालुम पडी शके छे. सरागीने भेदद्रष्टिमां विकल्प रह्या करे छे, माटे ज्यां सुधी राग
मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदने मुख्य करवामां आव्यो छे. वीतराग थया
पछी तो भेदाभेद वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे.
तेमने राग थतो नथी. माटे भेदनुं ज्ञान रागनुं कारण नथी पण रागीने भेदनुं लक्ष
करवाथी राग थाय छे. रागी एकरूप स्वभावने जाणे त्यारे निर्विकल्प थई जाय छे
अने भेदने जाणे त्यारे तेने राग थाय छे, तेनुं कारण रागी छे माटे राग थाय छे.
छे के भगवान! तारी शुद्धता तो मोटी छे पण तारी अशुद्धता पण मोटी छे.
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नथी.
पहोंची जाउं. ज्ञानीने पण जेटलो राग होय छे तेटलो बंध पण होय छे. जेटलो
अबुद्धिपूर्वकनो राग छे तेटलो बंध अनुभवकाळे पण थाय छे. प्रथम अनुभव थतां ज
पूर्ण स्थिरता थती नथी तेथी जेटली अस्थिरता छे तेटलो ज्ञानीने पण बंध तो थाय
छे. ज्ञानीने अबंध कह्या छे ए तो द्रव्यद्रष्टिथी कह्या छे पण पर्यायमां राग बाकी छे
पण पर्यायमां राग बाकी छे तेटलो बंध तो दशमा गुणस्थान सुधी होय छे माटे
ज्ञानीने पण श्रीगुरु कहे छे के तने शुभराग भले हो पण भावना तो हुं अंतरमां केम
स्थिर थाउं ए ज राखवी, ते ज मोक्षनो उपाय छे.
निंद्य छे, जेनी स्थिति विनाश सहित छे अर्थात् जे विनश्वर
छे, जे रोगादि दोषो, सात धातुओ अने मळथी परिपूर्ण
छे, अने जे नष्ट थवानुं छे, तेनी साथे जो आधि (मानसिक
चिंता), रोग, वृद्धावस्था अने मरण आदि रहेता होय
तो एमां कोई आश्चर्य नथी. परंतु आश्चर्य तो केवळ एमां
छे के विद्वान मनुष्य पण ते शरीरमां स्थिरता शोधे छे. प८
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कदी जाय तो दोष नहि, पूर्व कर्म क्षय थाय. ८८.
शुद्धस्वभावनुं ज ग्रहण छे, बाकी शुभ विकल्पथी मांडीने आखा संसार प्रत्ये ज्ञानीने
ग्रहणबुद्धि नथी, आदर नथी. तेथी ज्ञानी हलकी गतिमां जतां ज नथी. छतां कदाचित्
जाय तोपण तेमां ज्ञानीने हानी नथी. तेमना पूर्वकृत कमनो क्षय थई जाय छे.
पूज्य गुरुदेवः- जेने आत्माना शुद्ध स्वभावनी गाढ रुचि छे अने अतीन्द्रिय
ऊडी गया होय छे. आवा ज्ञानीने द्रढ प्रतीति होय छे के मारी शांति अने आनंद पासे
बधुं तुच्छ छे. शुभरागमां पण मारो आनंद नथी, तो बीजे क्यां होय? आवा द्रढ
प्रतीतिवंत ज्ञानी मुक्तिना पथिक छे-छूटवानी दिशाए चालनारा छे.
राग छे पण जेणे पर्याय उपरथी द्रष्टि उठावी लीधी अने स्वभावद्रष्टि करी तेने
मुक्तस्वभाव ज जणाशे. ते पर्यायमां पण मुक्तस्वभावना पंथे ज छे.
राग, कर्मनुं निमित्त, बंधनी पर्याय आदिनुं ज्ञान रहे छे पण तेनो आदर रहेतो नथी.
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नथी. वस्तु एटले अनंतगुणनो सार-रसकस एवी चीजने भवनो परिचय ज नथी.
पर्यायमां भवनो परिचय छे पण द्रष्टि पर्यायने स्वीकारती ज नथी.
छे के मारे हवे भव छे ज नहि. एक बे भव छे ते मारा पुरुषार्थनी कमीने कारणे-रागने
कारणे छे, ते मारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे, मारुं स्वरूप नथी, तेनो हुं स्वामी नथी. हुं तो मारा
सहजात्मस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ स्वामी छुं एम ज्ञानी जाणे छे. सम्यक्त्वनी महिमा केटली
छे ते आगळ रत्नकरंड-श्रावकाचारनी बे गाथाना आधारे कहेशे.
दोषनी जेणे रुचि छोडी अने पूर्णानंद स्वभावमां रुचि जोडी ते मोक्षनो ज पथिक छे.
भगवान कहे छे माटे हुं पूर्ण छुं एम नहि पण पोताने निःसंदेह प्रतीति थई जाय छे
के ‘हुं तो पूर्ण छुं, दोष ते मारुं त्रिकाळी स्वरूप नथी.’ जेम वस्तु क्यारेय पडती नथी
तेम वस्तुनी द्रष्टि थई ते पण कदी पडती नथी, अने जेने पडवानी शंका पडे छे तेने
ध्रुवनी द्रष्टि पण रहेती नथी.
पार करनारो नावडियो छे. सम्यग्दर्शननी घणी महिमा करी छे के सम्यग्दर्शन विना
सम्यग्ज्ञान नथी, सम्यक्चारित्र नथी. सम्यग्दर्शन थयुं एटले तो सर्वस्व थई गयुं.
पण ज्यां मीठास लागे त्यांथी खसतुं नथी अने ज्यां मीठास नथी त्यां बेसतुं नथी.
फटकडी उपर माखी बेसती नथी अने साकरमां मीठास आवे छे त्यांथी उडती नथी तेम
आत्मा साकरनी जेम अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद-ढगलो छे त्यां जेनी द्रष्टि पडी छे ते
सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि त्यांथी खसती नथी. आनंदघनजी पण कहे छे ने के ‘चाखे रस क्यों
करी छूटे?’ एकवार रस चाख्या पछी केम करीने छूटे? धर्मीए अतीन्द्रिय आनंदनो
रस चाख्यो पछी देवतानी टोळी आवीने कहे के आमां रस नथी तोपण ज्ञानी कहे छे
के में अनुभव कर्यो छे तेमां फेर नथी. ज्ञानीने पोताना अनुभवमां शंका पडती नथी.
अनुयायी वीर्य.’ अने ज्ञानीने संसार, शरीर अने भोगोथी विरक्ति थई जाय छे.
संसारमां चारेय गतिमां आकुळता छे, शरीर कारागृह समान छे अने ईन्द्रियोना
भोगो अतृप्तिकारी छे एम जाणीने ज्ञानीने वैराग्य थाय छे.
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भगवाननी केवळज्ञाननी दशा अने क्यां मुनिओनी प्रचुर स्वसंवेदननी दशा! तेनी
पासे मारी पर्यायमां तो बहु कमी छे-हुं पामर छुं.
के ‘भगवान! तुं शुद्ध छो’ आ सांभळी अमने प्रचुर स्वसंवेदन प्रगट थयुं. कुंदकुंद
आचार्ये एम न लीधुं के अमारी पात्रता जोईने गुरुए उपदेश आप्यो, पण गुरुए कृपा
करीने १२ अंगना साररूप ‘तुं शुद्धात्मा छो’ एवो उपदेश आप्यो एम लीधुं.
छे अने जिनेन्द्रदेव, निर्ग्रंथ गुरु अने जिनवाणीनी गाढ भक्ति करे छे, स्तुति, वंदना,
पूजा, स्वाध्याय पण करे छे. आ बधा शुभभाव सहकारी निमित्त छे एम धर्मी जाणे छे.
दशा प्रगट करवी छे. रत्नकरंड-श्रावकाचारमां आवे छे के धर्म धर्मी विना होतो नथी.
तो जेने धर्मी उपर प्रेम नथी तेने धर्म उपर पण प्रेम नथी.
सम्यग्दर्शन पहेलां नरक, तिर्यंचगतिनो बंध थई गयो होय तो त्यां पण समभावथी
दुःख सहन करी ले छे. सम्यग्द्रष्टिने ‘बाहिर नारकीकृत दुःख भोगत, अंतर सुखरस
गटागटी.’ जेटलो कषायभाव छे तेटलुं ज्ञानीने दुःख थाय छे पण तेने गौण करीने
अतीन्द्रिय स्वभावनी मुख्यताथी आनंदने वेदे छे तेथी ज सम्यग्द्रष्टि नरकमां होय
तोपण सुखी छे अने मिथ्याद्रष्टि नवमी ग्रैवेयकमां होय तोपण दुःखी छे.
बंधाता नथी. सम्यग्द्रष्टिने पूर्णानंद स्वभावनी ज मुख्यता होवाथी सम्यग्दर्शन सूर्य
ऊग्यो होवाथी अव्रती होवा छतां एवा पाप नथी बांधतो के जेथी ते नारकी, तिर्यंच,
स्त्री, नपुंसक थाय के नीच गति आदि दशाने प्राप्त थाय.
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पुरुषार्थ पण वधतो जाय छे.
सम्यग्द्रष्टिनी भावना एवी जोरदार होय छे के पुरुषार्थ करीने क्यारे चारित्र प्रगट करुं
अने केवळज्ञान लउं? तेने एवी शंका न होय के कर्म मने हेरान करशे तो! भव हशे
तो! एवी शंका न होय.
तेम सम्यग्द्रष्टि पुण्यवंत माता-पिताने त्यां ज जन्म ले. हलका घरे न जन्मे.
सम्यक्त्वनी भूमिकामां जे पुण्य बंधाय छे तेवुं पुण्य मिथ्यात्व भूमिकामां अनंतकाळमां
क्यारेय बंधातुं नथी. सम्यग्द्रष्टिना पुण्यनी जात ज जुदी होय.
जेने स्वभावमां एकता थई छे ते सम्यग्द्रष्टि, द्रष्टि अपेक्षाए रागथी मुक्त ज
जेम परद्रव्य छे तेम व्यवहार छे.
ए लाभ सवायो नहि पण अनंतगुणो छे.
व्यवहारद्रष्टिमां कर्मनो संयोग छे पण ते तो त्यागवा योग्य छे.
प००-६०० माणसोनो काफलो जंगलमां थईने नीकळ्यो हतो, त्यां जंगलमां बे जुवान,
छोकराने कोलेरा थई गयो, चालवानी शक्ति नहि, तेने कोण ऊंचके? सगा मा-बाप
बेयने एकला जंगलमां छोडीने बधां साथे चाल्या गया! कोण शरण छे?
सम्यग्द्रष्टि बधो व्यवहार छोडी स्वरूपनुं ध्यान करे छे, अनुभव करे छे अने तेमां ज स्थिर
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स्थिर थई शक्तुं नथी तेथी बहार व्यवहारमां आवे छे. साधु पण स्वरूपमां उपयोग न
टके त्यारे स्वाध्याय स्तुति-संयम-प्रभावना आदि शुभ व्यवहारमां आवे छे पण
सुखरूप तो स्वरूपलीनता ज छे एम माने छे. बहार व्यवहारमां तेमने होंश आवती
नथी, उल्लसित वीर्य तो स्वभाव तरफ ढळेलुं छे. तेथी व्यवहारमां उदासीनता छे,
आदर नथी.
उपयोग जोडता नथी. विकल्प आवे छे पण तेमां तत्परता नथी. कमजोरीथी आवे छे
पण भावना तो वारंवार शुद्ध स्वरूपमां ठरी जवानी रहे छे. विकल्प आवे छे तेनो
खेद थाय छे. जयधवलमां आवे छे के शुद्ध उपयोगनी प्रतिज्ञा करी छे छतां आहारनो
राग आव्यो तेमां मारी प्रतिज्ञानो भंग थाय छे माटे हुं फरी शुद्ध उपयोगनी प्रतिज्ञा
करुं छुं. मारे तो शुद्ध-उपयोगमां ज रहेवुं छे अहो! आवी दशा ते यथार्थ मोक्षमार्ग छे,
स्वरूप लीनता ते ज मोक्षनो उपाय छे. तेमां वच्चे व्यवहारना विकल्प आवे पण ते
बंधनुं कारण छे, तेनाथी दूर थाव.
नथी. ज्यां सुधी सहज वैराग्य न आवे त्यां सुधी श्रावकपणे रहीने पोताना परिणाम
अनुसार दर्शनप्रतिमा आदिनुं पालन करे छे अने आत्मानुभव माटे वधु ने वधु समय
मेळवता रहे छे.
पोताना शुद्ध द्रव्यनी रुचि थवी ते सुगति छे परद्रव्य, परभावनी रुचि थवी ते
होय तोपण मोक्ष पामतो नथी अने जे पोताना श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रमां स्वभावनो
लाभ मेळवे छे ते शीघ्र मुक्तिने प्राप्त थाय छे.
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लईने तेमां लीन थाय छे ए ज एक मोक्षनो मार्ग छे, ए वात चाले छे.
सो सम्माइठ्ठी हवइ लहु पावइ भवपारु
सम्यग्द्रष्टि जीव ते, शीघ्र करे भवपार.
आवतो नथी त्यां सुधी तेनी मुक्ति थती नथी.
अने निश्चय स्वाश्रित छे. साक्षात् तीर्थंकर भगवान हो, सर्वज्ञ हो, समवसरण हो,
सम्मेदशिखर हो के गणधर आचार्य आदि भले हो पण ते परद्रव्य छे. तेना आश्रये
सम्यग्दर्शन त्रणकाळमां थतुं नथी. स्वना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
आस्रव छे, ते जीव नथी अने शरीर, कर्म आदि अजीव छे ते पण जीव नथी अने
देव-शास्त्र-गुरु पण परद्रव्य छे, पोताना द्रव्यथी भिन्न छे, तो ए परद्रव्यना आश्रये
धर्मनी शरूआत केम होई शके? स्वद्रव्यमां अनंत...अनंत शुद्धता भरी पडी छे. तेना
आश्रय वगर पराश्रये धर्मनी शरूआत-सम्यग्दर्शन कदापि होई न शके.
तप करतो होय तोपण मोक्ष पामतो नथी. बार-बार महिनाना उपवास करे के परलक्षे
ईन्द्रियदमन करे ए तो बधो पुण्यभाव छे, बंधनुं कारण छे. तेनाथी मुक्ति कोई काळे
न थाय.
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