Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 29-32.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 9 of 13

 

Page 150 of 238
PDF/HTML Page 161 of 249
single page version

background image
१प०] [हुं
आत्मा अनंतगुणवाळो छे तो तेनी पर्याय पण अनंत छे, एम एकरूप
आत्माने गुण अने पर्याय एम बेरूपे विचारवो ते व्यवहार छे. एकडे एक अने बगडे
बे. बेपणाना विचारमां विकल्प ऊभो थयो-व्यवहार ऊभो थयो पण एकस्वरूपमां ठरी
न शके त्यारे अनेकस्वरूपे पोताना आत्माने भाववो एम अहीं कहेवुं छे पण भेद
पडयो ते योगसार नथी.
प्रभु! आ तो एकलां माखणनी वात छे. आत्मानुं विकल्पपूर्वक घोलन करतां जे
व्यवहार ऊभो थाय छे तेनी अहीं वात छे.
भगवान आत्मा दर्शन-ज्ञानस्वरूप छे ए रीते पण बे-रूपे आत्मानो विचार
थई शके छे. धर्मी जीव आखा लोकमां दरेकने जाणे देखे पण क्यांय मारापणुं करतो
नथी. स्व-परने जाणवाना स्वभावने हुं धरनार छुं एवा विकल्प धर्मीने आवे छे, ए
व्यवहार छे. आ वीतरागनो व्यवहार छे. छतां ते पण बंधनुं कारण छे माटे तेवा
विचारमां धर्मीने होंश नथी आवती. खेद थाय छे के आवो व्यवहार वच्चे आवे छे ते
मारा पुरुषार्थनी नबळाई छे.
भाई! परमेश्वर पंथ तो कोई अलौकिक छे. दरेक आत्मा पोते परमेश्वर छे परम
ईश्वरता-मोटपनो पुंज छे, तेमां पण एक गुणे ईश्वर नथी. दरेक गुणे करीने आत्मा
अनंती ईश्वरशक्तिनो पिंड छे, एक एक गुण तो ईश्वर खरा पण तेनी एके एक
पर्याय पण ईश्वरवान छे एवा अनंत गुण-पर्यायोनी ईश्वरतानो पुंज आत्मा एक छे.
आत्मा पोते परमेश्वर अने त्रिलोकनाथ परमेश्वर सर्वज्ञदेवे बतावेलो आ पंथ!
ते तो अलौकिक ज होय ने! लौकिकनी साथे तेनो मेळ न खाय. दुनियाथी जुदी
जातनो-अतडो आ परमेश्वरपंथ छे. अतडो एटले तेने बीजा कोई साथे मेळ खाय
नहि तेवो आ मार्ग छे.
धर्मीजीव ‘उत्पाद-व्यय-ध्रुव’ एम त्रण प्रकारे पण आत्मानो विचार करे छे.
जेने आत्मानी द्रष्टि अने अनुभव थई गयो छे ते पण आवा विचार करे छे अने
जेने द्रष्टि अने अनुभव प्रगट करवा छे ते पण अनुभव पहेलां आ जातनां ज
विचार करे छे आत्मा ध्रुवरूपे कायम टके छे, उत्पादरूपे नवी पर्याय थाय छे अने
व्ययरूपे तेनो अनुभव थाय छे. एवो उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप आत्मा छे. भगवान
आत्माने त्रणरूपे भाववो ए पण व्यवहार छे. समयसारनी आठमी गाथा अनुसार
‘व्यवहार’ पण उपदेश आपनार के लेनार कोईने पण अनुसरवायोग्य नथी. उत्पाद
अने व्ययरूपे निरंतर पलटो खातां छतां वस्तु ध्रुव छे ते अनुसरवायोग्य छे.
भगवाननी भक्तिनो व्यवहार तो स्थूळ छे, बहार रही जाय छे. अहीं तो एक
आत्माने त्रणरूपे विचारवो ते पण व्यवहार छे, विकल्प छे, अनुसरवायोग्य नथी.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप आत्मा छे एम पण त्रण भेदे आत्मानुं स्वरूप
विचारी शकाय छे अने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने परमानंदनी उग्र
वीतराग दशा-सम्यक् तप आ चार आराधना स्वरूपे पण आत्मानो विचार धर्मी करे छे.
प्रभु! तारा घरमां घर्या विना तारो छुटको नथी. आवा भेद विचारवा ए पण
बहार नीकळवुं छे.

Page 151 of 238
PDF/HTML Page 162 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१प१
अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख अने अनंत वीर्य आ चार अनंत
चतुष्टयथी पण आत्मानुं स्वरूप विचारी शकाय छे. आ अभेद एकस्वरूपने चाररूपे
विचारवो ते व्यवहार छे. ए व्यवहार आवे भले, पण तेनी होंश करवा जेवी नथी.
सम्यग्दर्शन थया पछी सर्वज्ञदशा तुरत ज प्रगटती नथी. तेनी सर्वज्ञ न थाय त्यां सुधी
धर्मीने वच्चे आवो व्यवहार आव्या वगर रहेतो नथी.
चैतन्य भगवान आत्मा आनंद, बोध, चैतन्य अने होवापणुं एवा चार प्राणने
धरनारो छे. शरीर, वाणी, कर्म आदिने तो व्यवहारथी पण आत्मा धरतो नथी.
आत्मा पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनो स्वामी छे. अन्य द्रव्यना द्रव्य-क्षेत्र-
काळ-भावनो स्वामी नथी; अखंड एकरूप आत्मद्रव्यनी श्रद्धा-ज्ञान अने रमणता ते ज
साक्षात् मोक्षमार्ग छे. तेमां हुं शांत...शांत उपशमरसनो कंद छुं-एवो विकल्प उठाववो
ते पण भेद होवाथी व्यवहार छे.
पांचभाव स्वरूपे आत्मानो विचार करवामां आवे तो आत्मा अनंत ज्ञान
अनंत दर्शन, क्षायिक समकित, क्षायिक चारित्र अने अनंत वीर्य स्वरूपे छे अथवा तो
उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक अने परम पारिणामिकभाव ए पांच स्वरूपे आत्मा
छे. उपशम समकित अने उपशम चारित्ररूपे थवानी आत्मामां शक्ति छे, क्षयोपशम
ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि रूपे थवानी आत्मामां शक्ति छे, क्षायिक सम्यग्दर्शन अने
चारित्ररूपे थवानी आत्मामां शक्ति छे अने उदयभावमां राग-द्वेष आदि विकाररूपे
परिणमवानी पर्यायनी योग्यता छे. कर्मने लईने के परद्रव्यने कारणे आत्मा
उदयभावमां परिणमतो नथी. पोतानी पर्यायनी ए जातनी योग्यताथी पोते परिणमे
छे ते द्रव्यनो त्रिकाळी गुण नथी पण पर्यायनी एवी शक्ति छे.
उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक ए त्रण निर्मळ पर्याय अने उदयभाव ए
विकारी पर्याय, आ चार पर्यायो छे अने पंचम परमपारिणामिकभाव ए आत्मानो
त्रिकाळी गुण छे. आवा पांचभावस्वरूपे एक आत्माने विचारवो ए पण व्यवहार छे.
ज्यारे मुनिराज उपशम श्रेणीए चडे छे त्यारे ए उपशमश्रेणी, क्षायिक सम्यक् दर्शन,
उदयभाव, क्षयोपशम ज्ञान अने परमपारिणामिकभाव आ पांचेय भाव मुनिराजने
एक समयमां एकसाथे होय छे.
अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु आ पांच परमेष्ठीना पदनो
धरनारो भगवान आत्मा पोते एक छे. पांचेय पदरूपे थवानी दरेक आत्मामां शक्ति
छे. एम आत्माने पांच-पदना धरनाररूपे विचारवो ते व्यवहार छे.
धर्मी एम विचारे छे के नारक, तिर्यंच, मनुष्य अने देव ए चारगति अने
पंचम गति-मोक्ष ते रूपे परिणमवानी मारामां ताकात छे अने छ स्वरूपे मारा
आत्मानो विचार करुं तो अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व अने
क्षायिक चारित्रस्वरूपे हुं बिराजमान छुं. अथवा छ गुणथी हुं शोभायमान छुं. पूर्व,
पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व अने अधो आ छ दिशाओमां गमन करवानी मारामां
शक्ति छे. कोई कर्म के धर्मद्रव्य मने गमन करावतुं नथी अथवा आत्मा अस्तित्व,
वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व अने

Page 152 of 238
PDF/HTML Page 163 of 249
single page version

background image
१प२] [हुं
प्रदेशत्व आ छ सम्यक्गुणनो धरवावाळो छे.
अनंत दर्शन-ज्ञान आदि सात गुणथी अथवा तो सात भंगथी पण आत्माना
स्वरूपनो धर्मी विचार करे छे. पोतानुं होवापणुं पोताथी छे अने परथी नहि होवापणुं
पण पोताथी छे ए रीते सप्तभंगीथी आत्मानो विचार करे छे अथवा जीवनी पर्यायमां
रहेलां सात तत्त्वो-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष तथा नैगम
आदि सात नयथी पण आत्मानो विचार थाय छे. (आठमो प्रकार पाठमां लीधो नथी.)
नव प्रकारे विचार करीए तो आत्मा नव लब्धिरूप छे. केवळी भगवानने नव
लब्धिनी पर्याय प्रगट थाय छे, एवी पर्याय प्रगट करवानी ताकातवाळो हुं छुं.
साधारण जीवोने आ बधां आंकडा याद न रहे पण भाव तो याद रही शके ने!
आपणे तो आंकडानुं काम नथी, भावनुं काम छे.
आ रीते विविध प्रकारे आत्माना गुणोनी भावना करतां करतां तेमांथी खसीने
अंतरमां एकाकार थवुं ते स्वानुभूति छे. आवा गुणोनी भावना ते विकल्प छे पण
तेनी पाछळ रागनी पुष्टि न थतां स्वभावनी पुष्टि थाय छे.
हवे ७७ मी गाथामां बे त्यागी बे गुण सहित आत्मामां लीन थवानुं कहे छे-
बे छडिवि बे–गुण–सहिउ जो अप्पाणि वसेइ ।
जिणु सामिउ एमइ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ७७।।
बे त्यागी बे गुण सहित, जे आतमरसलीन;
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन. ७७.
जिनेन्द्र भगवान एम कहे छे हे आत्मा! तुं राग-द्वेष भावने छोडी ज्ञान-दर्शन
धारी स्वरूपमां वसी जा! निजस्वरूपमां रुचि, ज्ञान अने ठरवुं ते स्वरूपमां वसवुं कहेवाय.
जिनना स्वामी एवा जिनेन्द्रभगवान एम फरमावे छे के जे जीव जाणवा-देखवाना
स्वभाववाळा एक आत्मामां लीन थाय छे ते जीव शीघ्र निर्वाणपदने प्राप्त करे छे.
बंधनुं कारण राग-द्वेष छे. भगवान आत्मा अखंड वीतरागस्वरूपे छे. ज्ञेयोमां
आ ठीक अने आ अठीक एवा बे खंड करवा ते राग-द्वेष छे. आ अनुकूळ अने आ
प्रतिकूळ एवा विकल्प उठाववा ए आत्मानुं स्वरूप नथी. तेम ज अन्य परद्रव्योमां पण
कोई अनुकूळ के कोई प्रतिकूळ एवुं द्रव्योनुं स्वरूप नथी.
अज्ञानी एम माने छे के निरोग शरीर होय तो धर्म थाय, बधी जातनी
अनुकूळता होय तो धर्म थई शके. तेने जिनेन्द्र भगवान कहे छे के अरे प्रभु! अनुकूळ
के प्रतिकूळ एवुं वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. शरीरादि तो जाणवा लायक ज्ञेय छे. ज्ञेय
पदार्थो आत्माने धर्म करवामां रोकता नथी. माटे भाई! तुं राग-द्वेष छोडी दे अने
स्वभावनी साधना कर!
आत्मा सिवाय अन्य पदार्थोमां ठीक-अठीकपणानी मान्यता करवी ते
अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया अने लोभ छे. तेमां क्रोध अने मान ए द्वेषस्वरूप छे
अने माया अने

Page 153 of 238
PDF/HTML Page 164 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१प३
लोभ ए रागरूप छे. मिथ्याद्रष्टि जीव परपदार्थमां अहंकार अने ममकार करे छे एटले
के आ हुं अने आ मारा एवा मिथ्यात्वनुं सेवन करे छे अने ईन्द्रियसुखने पोतानुं
साचुं सुख समजे छे ते पण मिथ्या बुद्धि छे.
मोक्षमार्गप्रकाशकमां टोडरमलजी पण लखे छे के मिथ्याद्रष्टि जीव पोताने रुचे
तेवा अने तेमां मदद करनारां पदार्थोमां राग करे अने न रुचे तेवा पदार्थो अने तेमां
मदद करनारां प्रत्ये द्वेष करे छे. भगवान कहे छे के हे जीवो! आवा अनंतानुबंधी
कषाय अने मिथ्यात्वनो त्याग करी स्वरूपनुं श्रद्रान करो तो शीघ्र निर्वाणनी प्राप्ति थशे.
* संपत्ति, पुत्र अने स्त्री आदि पदार्थ ऊंचा
पर्वतना शिखर पर स्थित अने वायुथी चलायमान
दीपक समान शीघ्र ज नाश पामनारा छे छतां पण
जे मनुष्य तेमना विषयमां स्थिरतानुं अभिमान करे
छे ते जाणे मुठ्ठीथी आकाशनो नाश करे छे अथवा
व्याकुळ थईने सूकी नदी तरे छे अथवा तरसथी
पीडाईने प्रमादयुक्त थयो थको रेतीने पीवे छे.
(श्री पद्मनंदि-पंचविंशति)

Page 154 of 238
PDF/HTML Page 165 of 249
single page version

background image
१प४] [हुं
[प्रवचन नं. २९]
एम नक्की कर -
चार संज्ञा–रहित ने चार गुण सहित परमात्मा छुं
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. ८-७-६६]
श्री योगसारशास्त्रमां आ ७७मी गाथा चाले छे.
बे छडिवि बे–गुण–सहिउ जो अप्पाणी वसेइ ।
जिणु सामिउ एमइ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ७७।।
बे त्यागी बे गुण सहित, जे आतमरसलीन;
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन.
७७.
दिगंबर साधु योगीन्द्रदेव फरमावे छे के जे जीव बे दोषने त्यागी, बे गुण
ग्रहण करी पोताना आत्मामां लीन थाय छे ते शीघ्र निर्वाणपदने प्राप्त थाय छे. एम
जिनदेवनुं फरमान छे.
राग-द्वेष ए बे दोषने त्यागी ज्ञान-दर्शनगुणने ज्ञानी ग्रहण करे छे. सम्यग्द्रष्टि
चोथा गुणस्थानमां पण राग-द्वेषमां एकत्व करतां नथी. ज्ञानीने राग-द्वेष होय छे.
खरा पण ज्ञानी तेने रोग तरीके जाणे छे, अहितरूप छे एम माने छे. हितरूप तो एक
पोताना शुद्ध स्वरूपनी द्रष्टि-ज्ञान अने रमणता ज छे.
अज्ञानी जीवे अनंतकाळथी पोताना स्वरूपनी द्रष्टि ज करी नथी तेथी ज्ञानी कहे
छे के प्रथम तुं तारा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धा अने ज्ञान कर अने
राग-द्वेष जे तारुं स्वरूप नथी तेमांथी एकत्वपणानी श्रद्धा छोड!
दरेक आत्मा सूर्यनी जेम स्व-परप्रकाशक शक्तिवाळा छे. पोताने जाणे छे अने
पोतानी हयाती-मोजूदगीमां रहीने ज अन्य सर्वने पण जाणे छे. एवो ज कोई
आत्मानो सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शीत्व स्वभाव छे. आवा आत्मानी श्रद्धा अने ज्ञान
करवा ते प्रथम भूमिका छे.
सिद्धभगवानने जेवो अतीन्द्रिय आनंद छे तेवो ज अतीन्द्रिय आनंद मारामां
पण छे, तेनो अनुभव करवो ए ज मारुं कर्तव्य छे, अने ए ज मारो खोराक छे-एम
प्रथम श्रद्धामां ले! पोतानी सत्तानी भूमिमां ज कर्ता-भोक्तापणुं छे. परनी सत्तामां
रहेलां पदार्थने आत्मा करी के भोगवी शक्तो नथी.
श्रोताः- श्री कुंदकुंद आचार्य कहे छे ने के आत्मा परने भोगवे छे?
पूज्य गुरुदेवश्रीः- ए तो निमित्तथी कथन छे, खरेखर आत्मा परने भोगवतो
ज नथी. आत्मा पररूपे थया वगर परने करे केम अने भोगवे केम? श्री कुंदकुंद
आचार्य पोते ज कहे छे के कुंभार घडाने करतो नथी, माटी घडाने करे छे. एटले के
वस्तु पोते ज स्वतंत्रपणे

Page 155 of 238
PDF/HTML Page 166 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१पप
परिणमे छे तेने अन्य कोई करी के भोगवी शकतुं नथी. अज्ञानदशामां जीव राग-द्वेष
करे छे अने भोगवे छे अने ज्ञानदशामां दर्शन-ज्ञान-चारित्र करे छे अने भोगवे छे.
परने तो आत्मा अज्ञानमां पण भोगवी शकतो नथी. भाई! जगतना पदार्थो तेनी
वर्तमान अवस्थामां परिणमी रह्यां छे अने पूर्वनी अवस्थाथी बदलाई रह्या छे तेमां
तारे करवा-भोगववानुं क्यां आव्युं? दरेक जीव स्वरूपे परमात्मा छे. हुं अतीन्द्रिय पूर्ण
आनंदस्वरूप प्रभु छुं-एम वारंवार भावना करवाथी एटले के तेमां एकाग्रता करवाथी
सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थाय छे अने मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय छूटी जाय छे
त्यारे जीव निर्वाणपदने प्राप्त करवाने लायक बने छे.
निहिं रहियउ तिहिं गुण–सहिउ जो अप्पाणी वसेइ ।
सो सासय–सुह–भायणु वि जिणवरु एम भणेई ।। ७८।।
त्रण रहित त्रण गुण सहित, निजमां करे निवास;
शाश्वत सुखना पात्र ते, जिनवर करे प्रकाश.
७८.
जे कोई जीव राग, द्वेष अने मोह आ त्रण दोषने छोडीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्र वडे आत्मामां स्थिर थाय छे ते अविनाशी सुखनो पात्र बने छे एम
जिनेन्द्रदेव फरमावे छे, संतो तेने जगत पासे जाहेर करे छे.
जेने परमानंदस्वरूप निज आत्मानी प्राप्तिनी चाहना छे तेणे राग-द्वेष-मोह
छोडीने सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मामां स्थिर थवुं ते तेनो उपाय छे. पण,
अनादिथी जीवे पोताना स्वरूपने जोवा माटेनी आंख बंध करी दीधी छे अने परने ज
जोई रह्यो छे तो जेने स्वस्वरूपप्राप्तिनी भावना छे तेणे पोतानुं स्वरूप जोवा माटे
द्रष्टि, तेनुं ज्ञान करवुं, श्रद्धा करवी अने तेमां स्थिर थवुं. आम करवाथी जीव मुक्तिनी
समीप आवी जाय छे. मुक्तिनो पात्र बने छे, शाश्वत सुखनुं भाजन बने छे, तेने
अल्पकाळमां शाश्वत सुखनी प्राप्ति थशे.
श्रोताः- प्रभु! ए ज्ञाननेत्र खोले कोण?
पूज्य गुरुदेवः- पोताना ज्ञाननेत्र पोते खोले. गुरु खोली न दे. गुरु पोताना
ज्ञाननेत्र खोले. शिष्यना ज्ञाननेत्र खुलवामां गुरुनी वाणी निमित्त होय छे पण ते
कांई नेत्र खोली देती नथी. उपादान तो पोतानुं छे. श्रीमद्मां आवे छे ने के ‘शुद्ध बुद्ध
चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम, बीजुं कहीए केटलुं, कर विचार तो पाम.’ तुं विचार
करीश तो पामीश एम कह्युं छे. गुरु शिष्यने ज्ञान पमाडी देता नथी. इष्टोपदेशमां पण
आवे छे के पोते ज पोतानो गुरु छे. पोते ज समजनार अने पोते ज समजावनार छे.
जे आत्मा पोताना हितने चाहे, हितने बतावे अने पोते ज हितरूप वर्तन करे ते गुरु
छे. इष्टोपदेशमां पूज्यपादस्वामीए आवुं पोताना निश्चय गुरुनुं स्वरूप कह्युं छे.
जेने निश्चय गुरुपणुं प्रगटयुं छे ते व्यवहारगुरुनो उपकार बतावे छे. मुनिओ पण
एम कहे के ‘अमारा गुरुना प्रतापथी अमे भवसागर तरी गया छीए.’ नेमिचंद्र सिद्धांत
चक्रवर्तीना गोम्मटसारमां आ लखाण छे. श्री कुंदकुंद आचार्य पण लखे छे के सर्वज्ञ

Page 156 of 238
PDF/HTML Page 167 of 249
single page version

background image
१प६] [हुं
भगवानथी लईने अमारा गुरु पर्यंत बधाए कृपा करीने अमने आ शुद्धात्मा
बतावीने तेमां ठरी जवानो उपदेश आव्यो छे.
ज्ञानीनी द्रष्टि एम स्वीकार करे छे के हुं वर्तमानमां ज आठ कर्म, पुण्य-पापना
विकार अने शरीरादि नोकर्मथी रहित पूर्ण परमात्मा छुं. द्रष्टिनुं आवुं जोर क्यांथी आवे
छे?-के आत्मामांथी आवे छे. ज्ञानीनी द्रष्टि द्रव्यस्वभाव सिवाय कोईनो स्वीकार करती
नथी. वर्तमान अवस्था रागयुक्त अने कर्मना निमित्त सहित होवा छतां तेनाथी
भेदज्ञान करीने पोताना वीतराग विज्ञानमय आत्माने अनुभवे छे ते पुरुषार्थनुं बळ
केटलुं! आवा पुरुषार्थी जीवो अल्पकाळमां मुक्ति पामे छे.
व्यवहारथी शत्रु-मित्र, धनवान-निर्धन, राजा-प्रजा, देव-नारकी, पशु-मनुष्य,
सूक्ष्म-बादर, अनाथ-सनाथ, विगेरे अनेक प्रकारना भेदो देखाय छे, तेमां संसारनो
लोलुपी जीव इष्ट-अनिष्टबुद्धि करीने राग-द्वेष करे छे. आम व्यवहारनयथी जगतनुं
स्वरूप राग-द्वेष थवामां निमित्त बने छे, माटे ज्ञानीओ निश्चयद्रष्टिथी ज जगतनुं
स्वरूप जुए छे. निश्चयद्रष्टिए बधां जीवो एक समान परमात्मा छे. भगवान
आत्मानो स्वभाव ज स्वने स्व तरीके अने परने पररूपे जाणवा-देखवानो छे.
रत्नत्रयस्वरूपी आत्मा अभेदद्रष्टिए एकरूप छे, शुद्ध स्फटिक समान निर्मळ छे,
परम निरंजन, परम ज्ञानी, परम आनंदमय, परम परमेश्वर छे. आम वारंवार
पोताना आत्माने ध्याववाथी स्वयं आत्मानुभव थाय छे ते ज साचो मोक्षमार्ग छे.
बनारसीदासजीए हिन्दी श्लोक बनाव्यो छे ने!-के धर्मी पोताना स्वरूपने एम
विचारे छे-‘कहे विचिक्षण पुरुष सदा मैं एक हूं, अपने रससो भर्यो अनादि टेक हूं,
मोह कर्म मम नाहि, नाहि भ्रमकूप है, शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है.’ मोह भ्रमनो
कूवो छे अने भगवान आत्मा शुद्ध चेतनानो सागर छे. आवी द्रष्टि करवी ते
सम्यग्द्रष्टि छे.
हवे ७९मी गाथा कहे छे-
चउ–कसाय–सण्णा–रहिउ चउ–गुण–सहियउ बुत्तु ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ७९।।
कषाय संज्ञा चार विण, जे गुण चार सहित;
हे जीव! निजरूप जाण ए, थईश तुं परम पवित्र. ७९.
हे जीव तुं एम मनन कर!-के मारो भगवान आत्मा क्रोध, मान, माया, लोभ
ए चार कषाय अने आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह ए चार संज्ञाथी रहित छे.
अने अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख अने वीर्य ए चार गुणोथी सहित छे. हे जीव! आम
मनन करीने एवा स्वभावनो आश्रय लईश तो तुं परम पवित्र बनी जईश.
आ जीव अपनेको आप भूलके हैरान हो गया है, तेने पोतानो भगवान
आत्मा केवो छे ते जाणवानी परवा पण नथी. दया, भक्ति आदि पुण्य करवानुं कहे
पण पहेलां पोते कोण छे? केवुं पोतानुं स्वरूप छे? ए तो जाणवुं जोईए ने!

Page 157 of 238
PDF/HTML Page 168 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१प७
आंबामां केरी जेम वधारे पाके तेम ते वधारे नमतो जाय छे. तेम मुनिराज
ज्ञानीने कहे छे के तारामां तप अने विनय आदि गुणो छे तो नरमाश होवी जोईए,
रोगी प्रत्ये दया आवे छे तेम अपराधी प्रत्ये पण दया लाववी जोईए. क्रोध, मान,
माया, लोभ आदिथी मनने दूर राखवुं जोईए अने आहार, भय, मैथुन अने परिग्रह
आ चार संज्ञाने जीतवी जोईए तथा अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य आ अनंत
चतुष्टय युक्त आत्माने ध्याववो जोईए. केम के जेने निर्दोष-पवित्र थवुं छे तेणे
निर्दोष-पवित्र भगवान आत्माने ध्याववो जोईए, तो ज पवित्र थई शकाय पवित्र
स्वरूपने ध्यावतां जे स्वानुभव प्रगट थाय छे तेनी उग्रता ते ज शुक्लध्यान अने
तेनाथी अल्प निर्दोषता ते ज धर्मध्यान छे.
आत्मानुशासनमां कह्युं छे के ज्यां मगरमच्छ होय त्यां बीजा जीव रही शक्तां
नथी केम के मगरमच्छ तेने खाई जाय छे. तेम ज्यां सुधी गंभीर अने निर्मळ
मनरूपी सरोवरमां क्रोध, मान, माया, लोभरूपी मगरमच्छनो वास छे त्यां सुधी
गुणोनो समूह शंकारहितपणे त्यां रही शकतो नथी. माटे हे जीव! समता अने
ईन्द्रियदमन वडे आ चार कषायो अने चार संज्ञाने जीतवानो प्रयत्न कर!
हवे ८० मी गाथामां योगीन्द्रदेव पांच ईन्द्रियनुं दमन करीने संयम तथा पांच
अव्रतनो त्याग करीने महाव्रत प्रगट करवानुं कहे छेः
बे–पंचहु रहियउ मुणहि बे–पंचहं संजुत्तु ।
बे पंचहं जो गुणसहिउ सो अप्पा णिरु वुत्तु ।। ८०।।
दश विरहित, दशथी सहित, दश गुणथी संयुक्त;
निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप.
८०.
जे उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश गुण सहित अथवा तो अनंत ज्ञान
आदि दशगुणथी सहित छे ते आत्मा छे. आवा निज आत्माने तुं ईन्द्रियदमन अने
अव्रतना त्याग पूर्वक भज! पांच ईन्द्रियना विषयोमां फसायेलुं मन एटले के ते
तरफनी सावधानीवाळुं मन आत्मानुं ध्यान करी शक्तुं नथी. पांच इन्द्रियमां उल्लसित
थयेलुं मन अतीन्द्रिय आत्मानुं ध्यान न करी शके. माटे पांच इन्द्रियने संयममां
राखीने इन्द्रियविजयी बनवुं जोईए.
जगतना आरंभ-परिग्रहथी छूटवा माटे पण हिंसा, जूठुुं, चोरी, अब्रह्म अने
परिग्रहना भावोथी विरक्त थईने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह
आ पांच महाव्रत पाळवा जोईए.
साधुपदमां मुनिराज द्रव्य अने भाव बन्ने परिग्रहथी रहित होय छे. मुनिने
अंतरमां रागरहित निर्ग्रंथदशा छे अने बहारमां वस्त्र रहित निर्ग्रंथ दशा छे आवा
मुनि थईने एकाकीपणे शुद्ध निश्चय द्वारा पोताना शुद्धात्मानुं मनन करवुं जोईए.
जुओ? मुनिने पण शुद्धात्मानुं मनन करवुं ते ज मुनिपणुं छे. शुद्धात्मस्वरूपनुं मनन
एटले तेमां एकाग्र थवुं ते मुनिनुं कर्तव्य छे अने गृहस्थाश्रममां पण पोताना
शुद्धात्मामां अंशे एकाग्रता करीने निर्मळता प्रगट करे छे तेने समकिती अथवा श्रावक
कहेवाय छे.

Page 158 of 238
PDF/HTML Page 169 of 249
single page version

background image
१प८] [हुं
[प्रवचन नं. ३०]
निज–परमात्मामां लीनता ते ज खरो संन्यास
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ९-७-६६]
आ योगसारशास्त्र छे. तेमां अहीं ८० मी गाथा चाले छे. विविध गुणोथी
आत्मानुं स्वरूप विचारवानी वात चाले छे.
बे–पंचहं रहियउ मुणहि बे–पंचहं संजुत्तु ।
बे–पंचहं जो गुणसहिउ सो अप्पा णिरु बुत्तु ।। ८०।।
दश विरहित, दशथी सहित, दश गुणथी संयुक्त,
निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप.
८०.
निश्चयथी ज्ञायकस्वभावनुं ध्यान करवुं ते ज यथार्थ छे, पण ज्यारे ध्यानमां
ज्ञानी टकी न शके त्यारे जुदां-जुदां गुणोथी आत्मानो स्वभाव विचारे ते व्यवहार छे.
ज्ञानी दशगुणथी आत्मानो विचार करतां-भेदद्रष्टिथी आत्मानुं मनन करतां एम
विचारे छे के आ आत्मा क्रोधविकारथी रहित पृथ्वी समान क्षमागुणधारी छे. शास्त्रमां
पृथ्वीनी उपमा आपी छे के जेम पृथ्वीने कोई तोडे, खाडो पाडे, विष्टा नाखे छतां
पृथ्वी तेनी सामे क्रोध करती नथी. तेम भगवान आत्मा क्षमागुणनो भंडार ज्ञाता-द्रष्टा
रहे छे, क्रोध करतो नथी.
आत्मा मार्दव धर्मधारी छे एटले के निर्मानता-कोमळतानो पिंड छे. मायाना
अभावथी आत्मा उत्तम आर्जवगुणधारी सरळ परमात्मा छे. महासत्यस्वरूपनो धरनार
छे. लोभना अभावथी आत्मा उत्तम शौचधर्मधारी छे, पवित्र छे, संतोषस्वरूप छे.
आवा आत्मस्वरूपनी द्रष्टि करीने तेमां स्थिर थवुं ते ज आत्माना कल्याणनो उपाय छे.
आत्मा संयमधर्मधारी छे, तेमां असंयमनो अभाव छे. सर्व ईच्छाओना
अभावस्वरूप-वीतरागस्वरूप-शुद्धतामां एकाकार थईने तेनी तपना एटले के तेमां
प्रतपन करवुं ते उत्तम तपधर्म छे. बहारनुं तप तो व्यवहार छे. आत्मा तो त्रिकाळ
परम तपस्वी छे तेनुं ध्यान करवुं ते उत्तम तप छे.
लोकोने त्यागनी बहु महिमा होय छे, पण बहारनी वस्तुओनो त्याग करवो के
पुस्तक औषध आदि दान देवुं ते उत्तम त्याग नथी. खरो त्यागधर्म तो पोताना शुद्ध
स्वरूपमां एकाग्र थईने पर्यायमां शुद्धता प्रगट करवी अने अशुद्धतानो त्याग करवो ते
उत्तम त्यागधर्म छे.
मारा स्वरूपमां अन्य आत्माओ, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळनो अभाव
छे. राग, शरीर, वाणी, मन आदि मारा नथी एवी अंतरमां भावना करवी तेनुं नाम
आकिंचनधर्म छे. आत्मा त्रिकाळ अपरिग्रहवान छे, तेनुं ध्यान करी पर्यायमां
अपरिग्रहदशा प्रगट करवी ते आकिंचनधर्म छे. आत्मा परम असंग छे, तेने कोई
अन्यनो संग नथी.

Page 159 of 238
PDF/HTML Page 170 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१प९
आ आत्मा उत्तम ब्रह्मचर्यगुणनो धारी छे निरंतर पोताना ब्रह्मभावमां लीन
रहे छे. उत्तम ब्रह्मस्वरूप तो आत्मा अनादि अनंत छे ज पण ते ब्रह्मस्वरूपमां लीन
थवुं ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे अने कायाथी ब्रह्मचर्य पाळवुं ते व्यवहारधर्म छे.
हे जीव! आ रीते तुं दशलक्षणधर्मथी तारुं स्वरूप विचार अथवा तो बीजा दश
गुणोथी तारुं स्वरूप विचार!
आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, क्षायिक समकित, क्षायिक चारित्र, अनंत
दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य अने अनंत सुख-
आवा दश विशेषणोथी सहित छे. परमात्मस्वरूप छे.
एक एक गुणनी व्याख्या करतां मुनिराज कहे छे के आत्मा सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी
होवा छतां आत्मज्ञ अने आत्मदर्शी छे. आम भेदथी आत्मानुं स्वरूप विचारवुं. आत्मा
सर्वने जाणवा-देखवावाळो होवा छतां, छे ए आत्मज्ञ अने आत्मदर्शी. आत्मज्ञ ते ज
सर्वज्ञ छे अने सर्वज्ञ छे ते आत्मज्ञ छे. एवुं नथी के सर्वज्ञ कहेतां तेमां परनुं
जाणवापणुं आव्युं माटे व्यवहार छे, पण सर्वज्ञत्व ए आत्मानो स्वभाव ज छे. ज्ञेयनी
अपेक्षाए तेने सर्वज्ञ कहेवाय छे अने पोतानी अपेक्षाए तेने ज आत्मज्ञ कहेवाय छे.
शुद्ध सम्यग्दर्शननो धारी थईने आत्मा निरंतर आत्मप्रतीतिमां वर्तमान छे.
ज्यारे ज्ञानी पूर्णस्वरूपनी प्रतीति करे छे त्यारे प्रतीतमां एम आवे छे के आत्मा तो
त्रिकाळ प्रतीतमान ज छे. वळी, सर्व कषायभावोना अभावथी आत्मा
वीतरागचारित्रथी विभूषित छे. ज्यारे वीतरागचारित्र पर्यायमां अंशे प्रगट थाय त्यारे
अनुभवमां आवे छे के आत्मा त्रिकाळ वीतरागस्वरूप ज छे.
अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप आत्मामां एकाग्र थईने पर्यायमां आनंदनुं दान देवुं ते
यथार्थ दान छे. मुनिराजने आहारदान आपवुं ते तो शुभराग छे. खरेखर तो आत्मा
एक रजकणने पण दई शकतो नथी के लई शकतो नथी. कारण के रजकणनो स्वामी
आत्मा नथी. रजकणनो फेरफार थवो ते तो जडनी रमत छे. अनुभवप्रकाशमां
दीपचंदजी कहे छे के खावुं, पीवुं, देवुं-लेवुं, हलन-चलन बधी जडनी क्रिया छे. आ
दीपचंदजी २०० वर्ष पहेलां थई गयेलां मोटा प्रख्यात दिगंबर गृहस्थ पंडित हतां.
पहेलां तो पंडित पण साधर्मी सम्यग्ज्ञानी हता.
ए दीपचंदजी लखे छे के-नर-नारकादि पर्याय, वैभव आदि बधुं पुद्गलनुं
नाटक छे रांधवुं, खावुं, पीवुं, कमावुं ए बधुं पुद्गलनो अखाडो छे, ए आत्मानुं कार्य
नथी तेमां हे चिदानंद! तुं राची रह्यो छे ते तने शोभतुं नथी.
जेम सर्प करडे बीजाने अने झेर चडे कोई बीजाने एम बनवुं अशक्य छे, तेम
हे चेतन! आ खाय-पीए, तेलनुं मर्दन करे ए बधुं करे जड अने तुं एम माने के में
खाधुं, में पीधुं, में भोगव्युं ए शुं साचुं छे?
रस्ता उपर चाल्यो जतो माणस रस्तानी के बजारनी वस्तुने पोतानी मानी ले
तो ते

Page 160 of 238
PDF/HTML Page 171 of 249
single page version

background image
१६०] [हुं
पागल कहेवाय, तेम आ जीव जे गतिमां जाय त्यां जे स्त्री, पुत्र, परिवार, धनादि
होय तेने पोताना मानी ले छे तो ते पण पागल ज छे ने!
नोकर भोजन करे तो राजा एम नथी मानतो के मारुं पेट भराई गयुं, तो तुं
जडना भोजनथी तारुं भोजन माने छे ए तारी चाल तने ज दुःखदायी छे. आ बधुं
दीपचंदजीए लख्युं छे. अनुभवप्रकाश, चिद्दविलास अने आत्म-अवलोकन आ त्रणेय
पुस्तक दीपचंदजीए बनाव्या छे. शास्त्रप्रमाणथी अने अंतरद्रष्टिथी बहु सरस रचना
करी छे, पण लोकोने अत्यारे वांचवानी पण फुरसद मळती नथी.
अहीं योगीन्द्रदेव कहे छे के आत्मा पोते पोतानी पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनुं
दान आपे तेनुं नाम अनंत दान छे, निरंतर स्वात्मानुभव करवो ते अनंत लाभ छे.
पुत्र, पैसो के कीर्ति आदिनी प्राप्ति थवी ते लाभ नथी पण स्वभावमांथी निर्विकारता
पर्यायमां प्रगट थवी ते साचो लाभ छे.
श्रोताः-प्रभु! जडनी क्रियाने आत्मानी न मानवी पण धर्मकार्यमां दान तो देवुं
के नहि?
पूज्य गुरुदेवश्रीः-भाई! दान कोण कोने आपी शके? दाननो भाव थाय छे ते
शुभभाव छे, पण ए शुभभाव थयो माटे लक्ष्मी जाय छे एम नथी अने लक्ष्मी
जवानी छे माटे शुभभाव थयो एम पण नथी अने शुभभाव थयो माटे धर्म थशे
एम पण नथी.
आनंदस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि करीने आनंदनो अनुभव करवो तेनुं
नाम भोग छे अने तेनो वारंवार अनुभव करवो तेनुं नाम उपभोग छे. जड वस्तुने
तो आत्मा भोगवी ज शकतो नथी तो उपभोग क्यांथी करे?
आत्मा अनंतवीर्यनो धणी छे. ते पोतानी शक्तिरूपे परिणमन करवामां थाकतो
तो नथी उलटुं तेना बळनी वृद्धि थाय छे.
जीव ज्यारे अभेदनयथी एक अखंड आत्माने ध्यावे छे त्यारे तेने स्वानुभवनो
लाभ थाय छे ते ज आत्मदर्शन छे, ते ज सुखशांति छे, ते ज आत्मसमाधि छे अने ते
ज निश्चयरत्नत्रयनी ऐक्यता छे. माटे मुमुक्षुजीवे निश्चिंत थईने परम रुचिथी पोताना
आत्मानुं सेवन करवुं.
हवे योगीन्द्र मुनिराज ८१ मी गाथामां कहे छे के आत्मस्मरणमां ज तप त्याग
आदि बधुं आवी जाय छे.
अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि ।
अप्पा संजमु सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ।। ८१।।
आत्मा दर्शन-ज्ञान छे, आत्मा चरित्र जाण;
आत्मा संयम-शील-तप, आत्मा प्रत्याख्यान.
८१.
आ गाथा समयसारमां पण आवे छे आत्माने ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
संयम आदि जाणो.

Page 161 of 238
PDF/HTML Page 172 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१६१
अरे! आ मनुष्यदेहनी स्थिति क्यारे पूरी थशे ए पोताने खबर छे? एनी
चिंता करने भाई! परनी चिंता करवा क्यां रोकायो?
अहीं तो कहे छे के शुद्ध चैतन्य वीतराग चारित्रमयी शांत स्वरूप निज
आत्मानी द्रष्टि करी तेमां स्थिरता करतां जे चारित्र प्रगट थाय छे ते आत्मा ज छे.
कारण के निर्मळ पर्याय आत्मा साथे अभेद छे. महाव्रतादिना भावरूप व्यवहारचारित्र
छे ते आत्मा नथी कारण के ते तो राग छे ते आत्मा साथे अभेद नथी.
आत्मा ज संयम छे, आत्मा ज शील छे, आत्मा ज तप छे अने आत्मा ज
त्याग छे. कारण के आत्माना स्वभावमां रमणतां थतां निश्चयनयथी मोक्षना सर्व
साधन प्रगट थई जाय छे.
व्यवहारनयथी साचा देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धा अने सात तत्त्वोनी श्रद्धा ते
सम्यग्दर्शन छे पण ए तो शुभरागरूप छे, निश्चयथी तो निर्मळ वीतरागस्वरूप
आत्मानी श्रद्धा-रुचि करतां पर्यायमां जे निर्मळ आनंद प्रगट थाय छे ते यथार्थ
सम्यग्दर्शन छे अने ते ज आत्मा छे कारण के निर्मळ पर्याय आत्माथी भिन्न नथी.
निश्चयथी पोताना ज्ञानमां पोतानो शुद्धस्वभाव झलकवो-शुद्धस्वभावनुं थवुं ते
सम्यग्ज्ञान छे अने शुद्धस्वरूपमां रमणता करतां जे निर्विकल्प आनंदनो अनुभव थाय
ते सम्यक्चारित्र छे. ए सम्यक् रत्नत्रयधारी साधुने महाव्रतादिनो जे शुभराग आवे छे
ते तेमनुं व्यवहारचारित्र छे.
पांच इन्द्रिय तथा मननो निरोध करवो अने छकाय जीवनी रक्षा पाळवानो
भाव थवो ते व्यवहारसंयम छे अने निश्चयथी पोताना शुद्धस्वभावमां स्थिर रहेवुं,
बहार राग-द्वेष न करवो ते आत्मानो संयमधर्म छे.
व्यवहारथी मन वचन-कायाथी कृत-कारित-अनुमोदना एम नवप्रकारे
कामविकारने टाळवो ते ब्रह्मचर्य छे अने निश्चयथी पोताना ब्रह्म नाम आनंदस्वरूप
निज आत्मामां चरवुं एटले रमवुं ते ब्रह्मचर्य छे.
पंचमकाळ छे तोपण वस्तुनुं स्वरूप तो जेम छे तेम ज छे, तेमां कोई काळे फेर
पडतो नथी. निश्चयथी वस्तुनुं स्वरूप जेवुं कह्युं छे तेवुं ज यथार्थ छे. व्यवहार तो मात्र
जाणवा लायक छे. पंचम-आरामां थई गयेलां योगीन्द्रदेव वनवासी दिगंबर संत
वस्तुनुं स्वरूप आम बतावी रह्यां छे. के आत्मानी प्रतीत-ज्ञान अने स्थिरता ते
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. पांचमां आरामां पण संतो आत्मा... आत्मा...आत्मानो
पोकार करी रह्यां छे.
निश्चयथी एक शुद्ध निज आत्मामां तपवुं ते तप छे. देहनी क्रियाथी तप नथी केम
के ते जड छे, तेम पुण्य-पाप भावथी पण तप नथी केम के ते तो आत्मा छे, ते आत्मानुं
निजस्वरूप नथी. ध्रुव...ध्रुव...ध्रुव...शाश्वत चैतन्य ध्रुव तत्त्वमां लीन थवुं ते तप छे. बाकी
बधो व्यवहार-तप शुभराग छे. आत्मिक प्रकाश करनारो तो निश्चय तप ज छे.
पोताना आत्मानो सर्व परद्रव्य अने परभावथी भिन्न अनुभव करवो ते
निश्चय प्रत्याख्यान छे. आम आत्मस्थ रहेवुं ते ज निश्चय श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, तप
अने त्याग छे. तेने माटे

Page 162 of 238
PDF/HTML Page 173 of 249
single page version

background image
१६२] [हुं
अहीं समयसारनो आधार आप्यो छे के श्री कुंदकुंद आचार्य फरमावे छे के निश्चयथी
मारा ज्ञानमां आत्मा छे. मारा दर्शनमां आत्मा ज समीप छे, ज्ञानमां आत्मा ज
समीप छे, चारित्रमां आत्मा ज समीप छे केम के तेमां हुं ज्यारे रमण करुं छुं त्यारे
आत्मानी समीप ज पहोंचुं छुं.
हवे ८२ मी गाथामां मुनिराज कहे छे के परभावोनो त्याग ते ज संन्यास छे.
जो परियाणइ अप्प परु सो परु चयइ णिभंतु ।
सो सण्णासु मुणेहि तुहु केवल–णाणिं उत्तु ।। ८२।।
जे जाणे निज आत्मने, पर त्यागे निर्भ्रान्त;
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
जे आत्मा पोताना आनंदस्वरूप शुद्धात्माने जाणे ते अने शरीर, कर्म, पुण्य-
पाप आदि परद्रव्य-परभावने पररूपे जाणे छे ते जीव कोई जातनी भ्रांति वगर परने
त्यागी दे छे अने स्वरूपमां स्थिर थाय छे ते जीव संन्यासी छे.
केवळीभगवान सर्वज्ञदेव एम कहे छे के पोताना वीतरागस्वरूप आत्मानुं अने
रागनुं ए बेनुं ज्ञान करीने राग छोडी स्वरूपमां स्थिर थवुं तेनुं नाम त्याग छे-
संन्यास छे. आवा संन्यासनो प्रारंभ अविरत सम्यग्द्रष्टिथी चालु थई जाय छे. कारण
के सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थाने अभिप्रायमां रागनो त्याग वर्ते छे अने स्वभावनुं
ग्रहण थयुं छे.
९६००० राणी अने ९६ करोड पायदळना स्वामी सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्ती अंतरथी
तेना स्वामी थतां नथी. ज्ञानी पुद्गल, शरीर, वाणी, मन अने अंतरमां
शुभाशुभभावो थाय छे तेना पण स्वामी थतां नथी. आवा ज्ञानी ते द्रष्टि अपेक्षाए
संन्यासी छे पण स्थिरता अपेक्षाए तो मुनि ज संन्यासी छे.
आत्मामां स्व-स्वामीसंबंध नामनो एक गुण छे. स्व नाम पोतानुं सहजात्मस्वरूप
तेनो आत्मा स्वामी छे. विकल्पनो स्वामी आत्मा नथी. आत्मा पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-
भावनो स्वामी छे. अन्यना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनो स्वामी आत्मा नथी.
एकस्वरूपे बिराजमान शुद्ध वस्तु ते मारुं द्रव्य छे, लक्ष्मी छे ते मारुं द्रव्य नथी.
आत्मानुं असंख्यप्रदेशी क्षेत्र मारुं क्षेत्र छे. शरीरनुं के मकाननुं के रागनुं क्षेत्र ते मारुं
क्षेत्र नथी. मारा आत्मगुणोनुं समय-समयनुं परिणमन ते मारो काळ छे अने मारा
आत्माना शुद्ध गुणो छे ते मारो भाव छे. हुं तो सिद्ध समान शुद्ध, निरंजन, निर्विकार
चैतन्य छुं, पूर्ण दर्शन-ज्ञानमय छुं. आवो सम्यग्द्रष्टिनो अभिप्राय होय छे. अपूर्ण
अवस्था के रागनी अवस्थाना स्वामी सम्यग्द्रष्टि थतां नथी. ए अपेक्षाए ज्ञानीने
परनो संन्यास छे-त्याग छे.
आत्मा अगाध...अगाध...अगाध...अमाप अकृत्रिम चैतन्यगुणोनो मोटो
महासागर छे. एवी द्रष्टिना धारक सम्यग्द्रष्टि द्रष्टि अपेक्षाए परम कृतकृत्य छे.
जीवनमुक्त छे, तथा खरा संन्यासी छे.

Page 163 of 238
PDF/HTML Page 174 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१६३
[प्रवचन नं. ३१]
रत्नत्रययुक्त निज–परमात्माः उत्तम तीर्थ
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १०-७-६६]
श्री योगसार शास्त्रमां आ ८२ मी गाथा चाले छे. श्री योगीन्दु मुनिराज कहे छे
के परभावनो त्याग ते ज संन्यास छे.
जो परियाणइ अप्प परु सो परु चयइ णिमंतु ।
सो सप्णासु मुणेहि तुहुं केवल–णाणिं उत्तू ।। ८२।।
जे जाणे निज आत्मने, पर त्यागे निर्भ्रांत;
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
कोई कहे के चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने त्याग न होय. तो जुओ! अहीं
मुनिराज कहे छे के जे पोताना आत्माने जाणी पुण्य-पाप आदि परभावनो त्याग करे
छे तेने ज खरेखर संन्यास छे. शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप पोतानुं स्वरूप अने अजीव तथा
विकारादि परभावोना स्वरूप वच्चे जेने भेदज्ञान छे तेनी द्रष्टिमांथी परभाव छूटी जाय
छे. धर्मी जीव पोताना शुद्धस्वरूपनो आदर करे छे अने विकार तथा संयोगोनो आदर
करतां नथी. केम के धर्मीनी द्रष्टिमां विकार अने संयोगोनो त्याग छे ए ज खरो
संन्यास छे.
आत्मा शुद्ध, अरूपी, आनंदघन छे. आवा निज आत्मानी जेने द्रष्टि प्रगट थई
छे एवो धर्मी जीव एम विचारे छे के मारे माराथी भिन्न, अन्य दरेक आत्मा अने जड
पुद्गलना स्कंधो साथे कांई संबंध नथी. जोके आत्मा स्वभावे तो परद्रव्य-परभावना
संबंधथी त्रिकाळ रहित छे पण जेनी द्रष्टिमां आत्मा आवे छे ते वर्तमान पर्यायमां
पण विकार अने परद्रव्यथी भिन्न आत्मानी द्रष्टि करे छे तेने त्याग कहेवामां आवे छे.
जेम संसारमां पुत्रना लग्न के एवा कोई प्रसंगे बीजा पासेथी पांच-दश
हजारना घरेणां उछीना पहेरवा लई आवे तेने पोतानी पुंजीमां नथी गणता. तेम
विकार तो आगंतुक भाव छे तेने धर्मी पोताना स्वभाव तरीके स्वीकारता नथी, केम के
ते कांई त्रिकाळ टकनारी चीज नथी.
धर्मी जीव एम विचारे छे के धर्म-अधर्म, आकाश अने काळद्रव्यथी पण हुं भिन्न
छुं, ज्ञानावरणादि आठ कर्मथी पण हुं रहित छुं, शरीरादि परद्रव्य के रागादि विकारभाव
पण मारामां नथी, पांच ईन्द्रियोना विषयनी अभिलाषानो पण मारामां अभाव छे.
अस्थिरता वश पांच इन्द्रियोना विषयो प्रत्ये राग आवी जाय छे पण तेमां सुखबुद्धि
नथी. तेथी अभिप्रायमां धर्मीने सर्व परद्रव्योनो तथा परभावोनो त्याग वर्ते छे.
आगळ आवशे के ‘ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण, केवळी बोले एम’ केवळी
भगवान-

Page 164 of 238
PDF/HTML Page 175 of 249
single page version

background image
१६४] [हुं
सर्वज्ञदेव एम फरमावे छे के ज्यां चैतन्य...चैतन्य...चैतन्य...जाणक...जाणक...जाणक्
स्वभावी आत्मा छे त्यां अनंत गुण छे. परमां, शरीर, कर्म के रागमां आत्मानो कोई
गुण रहेलो नथी. आवुं जाणनार ज्ञानीने बहारमां क्यांय सुख लागतुं नथी.
सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्ती छ-खंडना अधिपति होय, ९६००० तो जेनी राणी होय,
वैभवनो कोई पार न होय छतां तेमां क्यांय तेने सुखबुद्धि नथी. ज्यां सुख नथी त्यां
सुख माने ए तो मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण छे. सम्यग्द्रष्टिने पोताना आत्मा सिवाय क्यांय
सुखबुद्धि नथी. सम्यग्द्रष्टि भले भोग भोगवतां देखाय पण तेनी द्रष्टि पोताना
स्वभावना अतीन्द्रिय सुख सिवाय क्यांय सुखबुद्धि करती नथी. ए द्रष्टिमां केटली
पुरुषार्थनी जागृति छे! द्रष्टि कहे छे के मारा आत्मामां आनंद छे, ईन्द्रियसुखने हुं सुख
मानती ज नथी, ए तो दुःख छे, झेर छे, उपसर्ग छे.
धर्मी जीव लौकिक ज्ञान के शास्त्रज्ञानने ज्ञान नथी कहेतां. पोताना स्वभावनां
अतीन्द्रिय ज्ञानने ज ज्ञान कहे छे, अने अतीन्द्रिय सुखने ज सुख कहे छे. मनथी पार,
रागथी भिन्न, ईन्द्रियथी अतीत-इन्द्रियातीत ज्ञान अने सुख छे ते ज वास्तविक ज्ञान
अने ते ज वास्तविक सुख छे.
लोको धूळ एवा धननी पाछळ दोडे छे ने! तेम धर्मी पोतानुं धन अंतरमां देखे ने
तेनी पाछळ दोडे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव भले ते स्त्री होय के पुरुष होय के आठ वर्षनी
बालिका होय पण ते पोताना अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप धन पाछळ दोडे छे. अरे!
सम्यग्द्रष्टि देडकुं होय के हजार जोजननो मोटो मच्छ होय ते पण एम माने छे के मारी
लक्ष्मी मारी पासे छे. पुण्य-पापना भावमां के तेना फळमां मळतां संयोगोमां मारुं धन नथी.
आम श्रद्धा-ज्ञाननी परिणतिनी अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी परभावना परम
त्यागी छे-संन्यासी छे, अने सहजात्मस्वरूपनी यथार्थ प्रतीति विना बहारथी
संयोगोनो त्याग करे छे ते खरेखर त्याग ज नथी.
मिथ्याद्रष्टि शुभरागमां लाभ माने छे अने शरीरनी क्रियाने धर्मनुं साधन माने
छे त्यारे सम्यग्द्रष्टि रागने रोग जाणे छे अने ए रोगने टाळवानो उपाय करे छे.
अज्ञानी शरीरना रोगने पोतानो रोग जाणी तेने टाळवानो उपाय करे छे त्यारे
नीरोग स्वरूप आत्मानी द्रष्टिवाळा सम्यग्द्रष्टि जीवो रागने रोगरूप जाणीने तेने
त्यागवानो उपाय करे छे. शरीरादिमां मारापणानी बुद्धिरूप सनेपातनो रोग आत्माने
लागु पडयो छे तेनुं अज्ञानीने भान नथी. ज्ञानीने ए रोग नथी पण पुण्य-पापना
भावरूप गुमडां छे तेने टाळवानो ज्ञानी प्रयत्न करे छे.
आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनी मोटी खाण छे. तेनी द्रष्टि, ज्ञान अने स्थिरता
करतां अनंत...अनंत...अनंत...अतीन्द्रिय आनंद बहार आवे छे, अनुभवमां आवे छे.
जेम आत्मा ज्ञानमय छे तेम अतीन्द्रिय आनंदमय छे. आत्मा पुण्य-पाप के रागमय
त्रणकाळमां नथी. भाई! तुं शरीरनी तपास करावे छे पण एकवार तारा आत्मानी
तपास कर के तेमां शुं भर्युं छे?

Page 165 of 238
PDF/HTML Page 176 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१६प
श्रीमदे लख्युं छे ने के-
“ आत्मभ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण,
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.”
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदमय छे एम नहि मानता,
आत्माने रागवाळो, शरीरवाळो, पुण्य-पापवाळो, संयोगवाळो मानवो ए रूप जे
भ्रांति एना जेवो बीजो कोई रोग जगतमां नथी. ए रोगने टाळवानो उपाय
बतावनार सद्गुरु छे. ए सद्गुरु तो त्यां सुधी कहे छे के तुं अमारा प्रत्ये राग करे छे
ए पण रोग छे.
प्रभु! ए रोग टाळवानो उपाय शुं!
अनुभव रत्नचिंतामणि, अनुभव है रसकूप,
अनुभव मारग मोक्षनो, अनुभव मोक्षस्वरूप.
शुद्धात्मानो अनुभव करवो ए ज रोग टाळवानो एकमात्र उपाय छे. तेथी ज
ज्ञानी धंधा आदि प्रवृत्तिनी वच्चे पण अनुभवनो समय काढी ले छे. आत्मानो स्पर्श
करीने अनुभव करी ले छे ए अनुभव जेम जेम वधतो जाय छे तेम तेम तेने
बहारनी प्रवृत्ति अने संयोगोथी वैराग्य आवतो जाय छे, वेपार आदि प्रवृत्तिमां क्यांय
चेन पडतुं नथी. तेथी आत्मामां विशेष लीन थवा माटे धर्मी जीव बहारथी संयोगोनो
त्याग करी मुनि थई वनमां चाल्या जाय छे.
पोताना आत्माने उग्रपणे साधवानो पुरुषार्थ उपडतां बहारनी वस्तुओनो
त्याग सहज थई जाय छे. जेम हडकायुं (पागल) कूतरुं जेने करडयुं होय तेने पाणी,
पवन, भोजन कांई रुचतुं नथी, क्यांय चेन पडतुं नथी. तेम जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्रनी अंतर लगनी लागी छे एवा धर्मी जीवने बहारमां
क्यांय चेन पडतुं नथी, रुचि लागती नथी. बोलवुं, चालवुं, वेपार, आबरुं, मनोरंजन
आदिमां क्यांय मन ठरतुं नथी. एक आत्मानी लगनी लागी छे ते पोताना अंतर
स्वभावमां उग्रपणे लीन थवा घर-वस्त्र आदि बहारना संयोगोनो त्याग करे छे, तेनुं
नाम निर्ग्रंथ कहेवामां आवे छे.
धर्मी जीवने अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप आत्मानी ज्यारथी रुचि अने प्रीति लागी
छे त्यारथी श्रद्धामांथी तो रागनो त्याग थई गयो छे. राग आवे छे तेने रोग जाणी
नाश करवानो प्रयत्न करे छे. धर्मी जीवने श्रद्धा-ज्ञान अपेक्षाए तो रागनो संन्यास
(त्याग) चोथा गुणस्थानथी ज थई जाय छे. समकिती कहे छे अहो! अमने अमारा
आत्मा सिवाय बीजे क्यांय रुचतुं नथी. शुभभाव पण अमने रुचतां नथी.
मिथ्याद्रष्टिने शुभभाव रुचे छे ने पोताना स्वभावनो अनादर करे छे.
९२ लाख माळवाना अधिपति राजा भर्तुहरीए ज्यारे प्राणथी पण प्यारी
पींगळानो मायाचार जाण्यो त्यारे तेने केवो वैराग्य आव्यो हशे! धर्मीने आखा जगत
प्रत्ये वैराग्य वर्ते छे. सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थानमां ज साचुं ज्ञान अने वैराग्य
अंतरथी प्रगट थई जाय छे.

Page 166 of 238
PDF/HTML Page 177 of 249
single page version

background image
१६६] [हुं
प्रभु तने मारा माहात्म्यनी खबर नथी. अनंत...अनंत...अतीन्द्रिय आनंद-
पर्यायमां अनंतकाळ सुधी अनंत अतीन्द्रिय आनंदनो प्रवाह वहे तोपण कदी खूटे नहि
एवो मोटो अनंत आनंदनो दरियो तुं पोते ज छो. भाई! आवा आत्मानी एकवार
द्रष्टि प्रगट करतां रागनो श्रद्धा-ज्ञानमांथी नाश थई जाय छे. चारित्रमां राग आवे छे,
पण तेने ज्ञानी काळो सर्प जाणी तेनो त्याग करवा अने स्वरूपमां विशेष विशेष
स्थिरता प्रगट करवा-स्वानुभवनो विशेष अभ्यास करवा मुनिपणुं अंगीकार करे छे.
मुनिदशामां वीतरागतानी वृद्धि खूब थाय छे.
भगवान आत्मा ज्यां उग्र पुरुषार्थ करीने स्वरूपमां ठरवानो अभ्यास करे छे
त्यां केवळज्ञान दोडतुं आवे छे. आत्मानुभवनी उग्रता केवळज्ञानने बोलावे छे त्यां
केवळज्ञान दोडतुं आवे छे.
आ गाथामां सम्यग्दर्शन, मुनिदशा अने केवळज्ञान त्रणेय भूमिकानी वात आवी
गई. हवे ८३ गाथामां कहे छे के रत्नत्रययुक्त जीव ज उत्तम तीर्थ छे.
रयणत्तय–संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तु ।
मोक्खहं कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ८३।।
रत्नत्रययुत जीव जे, उत्तम तीर्थ पवित्र.
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न तंत्र न मंत्र. ८३.
योगीन्द्रदेव मुनिराज १३०० वर्ष पहेलां नग्न दिगंबर महासंत थई गया.
जंगलमां जेम सिंह त्राड नाखतो आवे छे तेम मुनिराज गर्जना करतां कहे छे के उत्तम
तीर्थ तो रत्नत्रययुत जीव पोते ज छे. अन्य सम्मेदशिखर, गिरनार, शत्रुंजय आदि
तीर्थो तो शुभभावना निमित्तो छे, तेनाथी शुभभाव थाय पण धर्म न थाय.
भवसागरथी तरवानुं तीर्थ तो शुद्ध आत्मानुं दर्शन-ज्ञान अने चारित्र ज छे. ते
सिवाय तरवानो बीजो कोई उपाय नथी.
निश्चयरत्नत्रय ज साक्षात् तीर्थ छे, उत्तम तीर्थ छे, पवित्र तीर्थ छे, ते तीर्थनी
यात्रा करवाथी ज जन्म-मरणनो नाश थई मुक्ति प्राप्त थाय छे. ए सिवाय मुक्तिनो
बीजो कोई उपाय नथी, मुक्तिनुं उपादानकारण शुद्धात्माना श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रस्वरूप
रत्नत्रय ज छे.
भगवान आत्मा स्वयं ज्ञानचेतनामय छे, ज्ञानस्वरूपनुं वेदन ते ज्ञानचेतना छे.
रागादिनुं वेदन ते अज्ञानचेतना छे. निराकुळ-भगवान आत्मानी द्रढ श्रद्धा थवी ते
निश्चय सम्यग्दर्शन छे. ते आत्मानी ज भूमिकामां, आत्माना आश्रये ज प्रगट थाय छे.
रागनी भूमिकामां सम्यग्दर्शन प्रगट थतुं नथी.
आत्मानुं ज्ञान ते सम्यग्दर्शन छे अने आत्माना आश्रये, आत्मामां थती
स्थिरतानुं नाम सम्यक् चारित्र छे, आ निश्चयरत्नत्रयस्वरूप तीर्थ ते ज उत्तम तीर्थ छे,
शाश्वत तीर्थ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रण धर्मोथी रचित आ तीर्थ छे.
आत्मारूप जहाजने आत्मारूप सागरमां चलावतो आत्मा ज मोक्षद्वीपमां पहोंची जाय छे.
रत्नत्रयरूप परिणत आत्मा ज उत्तम तीर्थ छे आ तीर्थ द्वारा आत्मा मुक्तिने पामे छे.

Page 167 of 238
PDF/HTML Page 178 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१६७
[प्रवचन नं. ३२]
परमात्मदशानी जन्मभूमिः भगवान आत्मा
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १२-७-६६]
आ योगीन्द्रदेव नामना वनवासी दिगंबर संत-आचार्य १३००-१४०० वर्ष
पहेलां थई गया. तेमणे आ योगसार अने परमात्मप्रकाश जेवा बे प्रसिद्ध शास्त्रो
रच्यां छे. तेमां आ योगसार एटले निज शुद्ध आत्मस्वरूपमां योग नाम जोडाण
करीने, सार एटले तेनी निर्विकल्प श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करवी तेनुं नाम योगसार छे.
दिगंबर संतोए तत्त्वनुं दोहन करीने बधुं सार...सार ज आप्युं छे. समयसार,
प्रवचनसार, नियमसार, योगसार आ बधां शास्त्रोमां संतोए तत्त्वनो सार आप्यो छे.
योगसार ते पर्याय छे पण तेनो विषय त्रिकाळ ध्रुव-शाश्वत शुद्ध सत् वस्तु छे,
तेनुं ध्येय बनावीने तेनी श्रद्धा-ज्ञान अने स्थिरता करवी तेने भगवान अहीं योगसार
कहे छे.
तेमां आ श्री योगसार शास्त्रनी ८४ गाथा चाले छे.
दंसणु ज पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महंतु ।
पुणु पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्तु ।। ८४।।
दर्शन जे निज देखवुं, ज्ञान जे विमळ महान,
फरी फरी आतमभावना, ते चारित्र प्रमाण.
८४.
आ आत्मा मळ-दोषथी रहित विमळ अने महान छे. एक समयमां अनंती
परमात्मदशा जेना गर्भमां पडी छे एवो ध्रुव-शाश्वत भगवान पोते ज छे. तेने देखवो
एटले के तेनी श्रद्धा करवी तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. केवी रीते देखवो? तो कहे छे के
पर सन्मुखता छोडी, भेदना विकल्प छोडी अने स्वसन्मुखता करीने आत्माने देखवो-
श्रद्धवो तेनुं नाम ‘दर्शन’ छे, अने आ पोताना ज आत्माने ज्ञेय बनावीने तेनुं यथार्थ
ज्ञान करवुं तेनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे.
भगवान आत्मा अनंत गुणस्वरूप अने असंख्यप्रदेशी छे पण तेमां गुणना के
प्रदेशना भेद नथी. एकरूप अखंड छे तेथी तेने जोनारनी द्रष्टि पण एकरूप होय त्यारे
ज आत्मानुं दर्शन-श्रद्धा थाय छे.
आत्मा महान छे. तेना एक एक गुण पण महान छे. अनंत शक्तिनो धारक
एवो अनंत शक्तिवान-अनंत गुणोनो एकरूप पिंड आत्मा महान ज होय ने!
भगवाने दरेक आत्माने आवा असंख्यप्रदेशी अनंत गुणस्वरूप महान देख्यो छे एवा
पोताना आत्मानी पोते श्रद्धा-ज्ञान अने रमणता करवी तेनुं नाम भगवान
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र फरमावे छे.

Page 168 of 238
PDF/HTML Page 179 of 249
single page version

background image
१६८] [हुं
ज्ञानस्वरूप आत्मानी जे ज्ञान-पर्याय पोताना स्वरूपनुं ज्ञान करे छे ते
सम्यग्ज्ञान छे. शास्त्रनुं ज्ञान ते ज्ञान नथी. ते तो परसत्तावलंबी ज्ञान छे. आ तो
स्वसत्तावलंबी थईने जे पोतानुं त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे तेमांथी जे ज्ञाननी पर्याय प्रगट
थाय छे ते साचुं ज्ञान छे-पोतानुं ज्ञान छे.
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी व्याख्या थई. हवे सम्यक्चारित्र कोने कहेवुं? तो
कहे छे के वारंवार आत्मानी भावना करवी तेनुं नाम सम्यक्चारित्र छे. भगवान
आत्मा शुद्ध पूर्णानंद, अतीन्द्रिय आनंदनो कंद एकरूप वस्तु छे, तेनी द्रष्टि-ज्ञान करीने
वारंवार तेमां लीनता करवी ते यथार्थ चारित्र छे.
जेम अभेद-अखंड-एकरूप आत्मा द्रष्टि-ज्ञानमां लीधो छे एवा ज आत्मामां
स्थिरता करवी-लीनता करवी-ठरवुं-चरवुं एटले अतीन्द्रिय आनंदनो चारो करवो,
अनुभव करवो तेनुं नाम भगवान चारित्र कहे छे. ते ज साचुं अने पवित्र चारित्र छे.
असंख्यप्रदेशी आत्मा क्षेत्रथी गमे तेटलो होय पण भावथी ते महान छे. ए
अनंत गुणस्वरूप भावमां लीनता करवी ते चारित्र छे. आ चारित्र ज खरेखर मोक्षनो
मार्ग छे अने ए चारित्रनुं कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. माटे, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
ए मोक्षमार्ग छे.
भगवान आत्मा अनंत गुणोनो पिंड छे. आ गुणोनुं स्वभाव-परिणमन थवुं ते
द्रव्यनो धर्म छे-द्रव्यनी पर्यायनो धर्म छे. परिणमन शक्तिथी पर्यायनुं परिणमन थाय छे. ए
द्रव्यनो पर्यायधर्म छे. ते व्यवहारनयनो विषय छे. तेथी ते आश्रय करवा लायक नथी.
व्यवहारनो विषय ज नथी एम नथी, विषय तो छे पण ते आदरवा योग्य नथी.
चौद गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिनी पर्यायो आश्रय करवा लायक नथी माटे
ज तेने व्यवहार कह्यो छे. पर्यायने गौण करीने व्यवहार कहेल छे अने अभूतार्थ कहेल
छे अने द्रव्यना पूर्ण ध्रुव स्वरूपने मुख्य करीने निश्चय अने भूतार्थ कह्यो छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी मोक्षमार्गनी पर्याय पण छे. पर्याय ज नथी, परिणमन
नथी एम माने तो तो मोक्षमार्गनो ज अभाव थई जाय, पण एम नथी. पर्याय छे
पण तेनुं लक्ष करवाथी जीवनुं प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी. तेथी तेने गौण करीने व्यवहार
कह्यो छे, अभूतार्थ कह्यो छे अने त्रिकाळ स्वभावने मुख्य करीने, तेनो आश्रय लेतां
प्रयोजन सिद्ध थाय छे माटे तेने भूतार्थ कह्यो छे.
जीवनुं प्रयोजन शांति अने आनंद छे, ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी प्रगट थाय छे.
भगवान आत्मा अनादि अनंत, स्वतःसिद्ध वस्तु छे. जन्म-मरण रहित छे.
जगतमां संख्याए अनंत जीवो छे ते दरेक जाति-अपेक्षाए समान छे. बटेटानी एक
कटकीमां अनंत जीवो छे. अत्यार सुधीमां जेटलां सिद्ध थया तेनाथी अनंतगुणा जीवो
एक-एक कटकीमां छे. स्वभावे दरेक जीवो समान छे पण सत्ता बधानी अलग अलग
स्वतंत्र छे.
हे भाई! आवा अनंतानंत परद्रव्योनी सत्ता अने पोतानी सत्तानो एकसाथे
स्वीकार करवानी तारी एक समयनी पर्यायमां ताकात छे तेनो तुं स्वीकार कर.
भगवान आत्मा कोई परद्रव्यना कार्यनुं कारण नथी के कोईनुं कार्य नथी एवी तेमां

Page 169 of 238
PDF/HTML Page 180 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१६९
अकार्यकारण शक्ति छे. एक गुण एवो छे तो बधां गुण अने द्रव्य पण
अकार्यकारणस्वरूप छे.
अध्यात्मनी अंतरनी वातो ग्रहण थवामां घणो पुरुषार्थ मागी ले छे. आ तो
भगवानना घरनी वात छे ते समजवा माटे घणो पुरुषार्थ जोईए. धर्म कोई साधारण
चीज नथी. जेना फळमां भूतकाळथी पण अनंतगुणी भविष्यनी पर्यायोमां अतीन्द्रिय
आनंदनुं फळ मळे एवा धर्मनी शी वात करवी? अने आ धर्म जेना आश्रयथी प्रगट
थाय छे एवा द्रव्यनुं तो कहेवुं ज शुं? तेनी महिमानो कोई पार नथी.
पण अरेरे! जीवने पोतानी स्वतंत्र महान सत्तानी वात रुचती नथी.
अनादिकाळथी पोताने शक्तिहीन मानीने पराधीन दशामां ज रह्यो छे तेथी स्वतंत्रता
रुचती नथी. पण भाई! तुं तो पराक्रमी सिंह छो, तने आ पराधीनता-कायरता
शोभती नथी.
आत्मा स्वभावथी अकर्ता-अभोक्ता छे. परनो कर्ता-भोक्ता तो आत्मा नथी
पण रागनो कर्ता-भोक्ता पण आत्मा पोताना स्वरूपथी थतो नथी. गजब वात छे
भाई! समजवा जेवी वात छे.
शुं राग आत्माना स्वभावनी खाणमां पडयो छे-शक्तिमां राग पडयो छे के
तेने आत्मा करे? खरेखर जो आत्मा स्वभावथी रागने करतो होय तो तेनो अर्थ ए
थयो के आखुं द्रव्य विकारी छे, पण एम नथी. माटे रागनो कर्ता आत्मा छे ज नहि.
वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम सर्वज्ञदेवे बताव्युं छे, कांई बनाव्युं नथी. जेवुं
स्वरूप छे तेवुं सर्वज्ञे जाण्युं, जाण्युं एवुं वाणीमां आव्युं अने तेवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे.
भाई! तुं तो आत्मा छो ने? तारामां तो महान महान पवित्रता पडी छे. ते
पवित्रतारूपे तुं परिणमी जा! ए परिणमन ते व्यवहार छे अने ध्रुव पोते निश्चय छे.
एक रजकणनो पण आत्मा कर्ता नथी त्यां तेने परने बचाववावाळो, दयावाळो
के परने मारवावाळो शी रीते कहेवाय? एक कहेवुं ए तो भगवानने कलंक लागे छे.
जे स्वभाव नथी तेने स्वभाव मानवो ते कलंक छे प्रभु! ए कलंकनुं फळ बहु
नुकशानकारी छे भाई! तने पोताने नुकशान थाय एवुं तुं शा माटे माने छे?
आ तो भाई! भगवानना देशनी वात छे. जेने परदेशमांथी नीकळीने स्वदेशमां
आववुं होय तेने माटे आ वात छे. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदना रसकसथी
तरबोळ...तरबोळ छे. आखो असंख्यप्रदेशी आत्मा अतीन्द्रिय आनंदथी तरबोळ छे.
तेमां आनंद ठसोठस भरेलो छे. तेमां बीजुं कांई प्रवेशवानो अवकाश नथी. आत्मा
खरेखर आवा अतीन्द्रिय आनंदनो भोक्ता छे. पण एम भेद पाडीने कहेवुं ए पण
व्यवहार छे.
आत्मा शुं चीज छे, शुं एनी महिमा छे तेनो जीवे कदी अंतरथी विचार ज कर्यो
नथी. अरे! आत्मा तो एवो छे के आत्माना पेटमांथी परमात्मानो प्रसव थाय छे,
आत्मा परमात्मानुं प्रसूतिगृह छे. अनंती परमात्म-पर्यायो आत्माना पेटमां भरी छे.
ज्यां आत्मा स्वभावमां एकाकार थाय छे त्यां एक पछी एक परमात्म-पर्यायो प्रगट
थवा लागे छे.
प्रवचनसारनी छेल्ली गाथामां आचार्यदेव कहे छे के ‘एक आखा शाश्वत स्वतत्त्वने