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जिणु सामिउ एमइ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ७७।।
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन. ७७.
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के आ हुं अने आ मारा एवा मिथ्यात्वनुं सेवन करे छे अने ईन्द्रियसुखने पोतानुं
साचुं सुख समजे छे ते पण मिथ्या बुद्धि छे.
मदद करनारां प्रत्ये द्वेष करे छे. भगवान कहे छे के हे जीवो! आवा अनंतानुबंधी
कषाय अने मिथ्यात्वनो त्याग करी स्वरूपनुं श्रद्रान करो तो शीघ्र निर्वाणनी प्राप्ति थशे.
दीपक समान शीघ्र ज नाश पामनारा छे छतां पण
जे मनुष्य तेमना विषयमां स्थिरतानुं अभिमान करे
छे ते जाणे मुठ्ठीथी आकाशनो नाश करे छे अथवा
व्याकुळ थईने सूकी नदी तरे छे अथवा तरसथी
पीडाईने प्रमादयुक्त थयो थको रेतीने पीवे छे.
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जिणु सामिउ एमइ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ७७।।
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन.
पूज्य गुरुदेवश्रीः- ए तो निमित्तथी कथन छे, खरेखर आत्मा परने भोगवतो
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सो सासय–सुह–भायणु वि जिणवरु एम भणेई ।। ७८।।
शाश्वत सुखना पात्र ते, जिनवर करे प्रकाश.
पूज्य गुरुदेवः- पोताना ज्ञाननेत्र पोते खोले. गुरु खोली न दे. गुरु पोताना
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सो अप्पा मुणि जीव तुहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ७९।।
हे जीव! निजरूप जाण ए, थईश तुं परम पवित्र. ७९.
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बे पंचहं जो गुणसहिउ सो अप्पा णिरु वुत्तु ।। ८०।।
निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप.
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निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप.
पृथ्वीनी उपमा आपी छे के जेम पृथ्वीने कोई तोडे, खाडो पाडे, विष्टा नाखे छतां
पृथ्वी तेनी सामे क्रोध करती नथी. तेम भगवान आत्मा क्षमागुणनो भंडार ज्ञाता-द्रष्टा
रहे छे, क्रोध करतो नथी.
छे. लोभना अभावथी आत्मा उत्तम शौचधर्मधारी छे, पवित्र छे, संतोषस्वरूप छे.
आवा आत्मस्वरूपनी द्रष्टि करीने तेमां स्थिर थवुं ते ज आत्माना कल्याणनो उपाय छे.
प्रतपन करवुं ते उत्तम तपधर्म छे. बहारनुं तप तो व्यवहार छे. आत्मा तो त्रिकाळ
परम तपस्वी छे तेनुं ध्यान करवुं ते उत्तम तप छे.
स्वरूपमां एकाग्र थईने पर्यायमां शुद्धता प्रगट करवी अने अशुद्धतानो त्याग करवो ते
उत्तम त्यागधर्म छे.
आकिंचनधर्म छे. आत्मा त्रिकाळ अपरिग्रहवान छे, तेनुं ध्यान करी पर्यायमां
अपरिग्रहदशा प्रगट करवी ते आकिंचनधर्म छे. आत्मा परम असंग छे, तेने कोई
अन्यनो संग नथी.
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थवुं ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे अने कायाथी ब्रह्मचर्य पाळवुं ते व्यवहारधर्म छे.
आवा दश विशेषणोथी सहित छे. परमात्मस्वरूप छे.
सर्वने जाणवा-देखवावाळो होवा छतां, छे ए आत्मज्ञ अने आत्मदर्शी. आत्मज्ञ ते ज
सर्वज्ञ छे अने सर्वज्ञ छे ते आत्मज्ञ छे. एवुं नथी के सर्वज्ञ कहेतां तेमां परनुं
अपेक्षाए तेने सर्वज्ञ कहेवाय छे अने पोतानी अपेक्षाए तेने ज आत्मज्ञ कहेवाय छे.
वीतरागचारित्रथी विभूषित छे. ज्यारे वीतरागचारित्र पर्यायमां अंशे प्रगट थाय त्यारे
अनुभवमां आवे छे के आत्मा त्रिकाळ वीतरागस्वरूप ज छे.
एक रजकणने पण दई शकतो नथी के लई शकतो नथी. कारण के रजकणनो स्वामी
आत्मा नथी. रजकणनो फेरफार थवो ते तो जडनी रमत छे. अनुभवप्रकाशमां
दीपचंदजी २०० वर्ष पहेलां थई गयेलां मोटा प्रख्यात दिगंबर गृहस्थ पंडित हतां.
पहेलां तो पंडित पण साधर्मी सम्यग्ज्ञानी हता.
नथी तेमां हे चिदानंद! तुं राची रह्यो छे ते तने शोभतुं नथी.
खाधुं, में पीधुं, में भोगव्युं ए शुं साचुं छे?
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अप्पा संजमु सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ।। ८१।।
आत्मा संयम-शील-तप, आत्मा प्रत्याख्यान.
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सो सण्णासु मुणेहि तुहु केवल–णाणिं उत्तु ।। ८२।।
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
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सो सप्णासु मुणेहि तुहुं केवल–णाणिं उत्तू ।। ८२।।
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
छे तेने ज खरेखर संन्यास छे. शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप पोतानुं स्वरूप अने अजीव तथा
छे. धर्मी जीव पोताना शुद्धस्वरूपनो आदर करे छे अने विकार तथा संयोगोनो आदर
करतां नथी. केम के धर्मीनी द्रष्टिमां विकार अने संयोगोनो त्याग छे ए ज खरो
संबंधथी त्रिकाळ रहित छे पण जेनी द्रष्टिमां आत्मा आवे छे ते वर्तमान पर्यायमां
पण विकार अने परद्रव्यथी भिन्न आत्मानी द्रष्टि करे छे तेने त्याग कहेवामां आवे छे.
विकार तो आगंतुक भाव छे तेने धर्मी पोताना स्वभाव तरीके स्वीकारता नथी, केम के
ते कांई त्रिकाळ टकनारी चीज नथी.
पण मारामां नथी, पांच ईन्द्रियोना विषयनी अभिलाषानो पण मारामां अभाव छे.
अस्थिरता वश पांच इन्द्रियोना विषयो प्रत्ये राग आवी जाय छे पण तेमां सुखबुद्धि
नथी. तेथी अभिप्रायमां धर्मीने सर्व परद्रव्योनो तथा परभावोनो त्याग वर्ते छे.
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स्वभावी आत्मा छे त्यां अनंत गुण छे. परमां, शरीर, कर्म के रागमां आत्मानो कोई
गुण रहेलो नथी. आवुं जाणनार ज्ञानीने बहारमां क्यांय सुख लागतुं नथी.
सुख माने ए तो मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण छे. सम्यग्द्रष्टिने पोताना आत्मा सिवाय क्यांय
स्वभावना अतीन्द्रिय सुख सिवाय क्यांय सुखबुद्धि करती नथी. ए द्रष्टिमां केटली
पुरुषार्थनी जागृति छे! द्रष्टि कहे छे के मारा आत्मामां आनंद छे, ईन्द्रियसुखने हुं सुख
अने ते ज वास्तविक सुख छे.
बालिका होय पण ते पोताना अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप धन पाछळ दोडे छे. अरे!
सम्यग्द्रष्टि देडकुं होय के हजार जोजननो मोटो मच्छ होय ते पण एम माने छे के मारी
नीरोग स्वरूप आत्मानी द्रष्टिवाळा सम्यग्द्रष्टि जीवो रागने रोगरूप जाणीने तेने
त्यागवानो उपाय करे छे. शरीरादिमां मारापणानी बुद्धिरूप सनेपातनो रोग आत्माने
भावरूप गुमडां छे तेने टाळवानो ज्ञानी प्रयत्न करे छे.
जेम आत्मा ज्ञानमय छे तेम अतीन्द्रिय आनंदमय छे. आत्मा पुण्य-पाप के रागमय
त्रणकाळमां नथी. भाई! तुं शरीरनी तपास करावे छे पण एकवार तारा आत्मानी
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अनुभव मारग मोक्षनो, अनुभव मोक्षस्वरूप.
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मोक्खहं कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ८३।।
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न तंत्र न मंत्र. ८३.
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रच्यां छे. तेमां आ योगसार एटले निज शुद्ध आत्मस्वरूपमां योग नाम जोडाण
करीने, सार एटले तेनी निर्विकल्प श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करवी तेनुं नाम योगसार छे.
कहे छे.
पुणु पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्तु ।। ८४।।
फरी फरी आतमभावना, ते चारित्र प्रमाण.
एटले के तेनी श्रद्धा करवी तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. केवी रीते देखवो? तो कहे छे के
पर सन्मुखता छोडी, भेदना विकल्प छोडी अने स्वसन्मुखता करीने आत्माने देखवो-
श्रद्धवो तेनुं नाम ‘दर्शन’ छे, अने आ पोताना ज आत्माने ज्ञेय बनावीने तेनुं यथार्थ
ज्ञान करवुं तेनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे.
ज आत्मानुं दर्शन-श्रद्धा थाय छे.
भगवाने दरेक आत्माने आवा असंख्यप्रदेशी अनंत गुणस्वरूप महान देख्यो छे एवा
पोताना आत्मानी पोते श्रद्धा-ज्ञान अने रमणता करवी तेनुं नाम भगवान
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र फरमावे छे.
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भगवान आत्मा अनादि अनंत, स्वतःसिद्ध वस्तु छे. जन्म-मरण रहित छे.
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