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तो एथी पण वधु दुर्लभ छे.
भगवान आत्मा अने आनंद तेनो गुण एवा भेदना लक्षथी पण धर्म न थाय. आवी
वात कहेनारा विरला ज्ञानी पण जो कदाच मळी आवे तो तेने सांभळनारां रुचिवंत
विरल छे. तेमां पण आत्मानुभूति प्रगट करनारां जीवो तो विरल... विरल...विरल छे.
मोक्षमां पहोंची जाय छे.
करीश. विषयोनी लोलुपतामां आ रत्न खोवाई न जाय तेनुं ध्यान राखजे. आ वात
‘सार समुच्चय’ मां लीधी छे अने टोडरमलजी पण ‘रहस्यपूर्ण चिठ्ठी’ मां लखे छे के
के एक माणसे लखेलुं के जो आ चिठ्ठी अंग्रेजीमां होत अने विलायतमां पहोंची होत
तो एक एक चिठ्ठीनी किंमत हजारोनी थात.
इम चिंततहं किं करइ लहु संसारहं छेउ ।। ६७।।
ज्ञानीजन एम चिंतवी, शीघ्र करे भवहाण. ६७
जेवुं नथी. कुटुंब-परिवार ए तो धूतारानी टोळी छे. नियमसारमां आवे छे ने!
परिवार आदि लौकिक सुख-दुःखना एटले के दुःखना ज निमित्तो छे. तेना पालन-
पोषणमां रोकाईश नहि. आत्मानी दरकार करीने आत्मानुं ध्यान करजे.
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अरे भूख्या कोण मरे? बधाने पोत-पोताना पुण्य प्रमाणे मळी ज रहेवानुं छे.
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असरणु जाणिवि मुणि–धवला अप्पा अप्प मुणंति ।। ६८।।
शरण न जाणी मुनिवरो, निजरूप वेदे आप. ६८.
नथी. दरेकने पोतानो आत्मा ज एक रक्षक छे, शरण-दातार छे. तेनी मुनि पोताने
पोतानुं शरण जाणी पोते पोताने ध्यावे छे. पोताना आत्मामां शरण मेळवी ल्ये छे.
परिणति द्वारा ज अनुभव थई शके छे. ए सिवाय बीजो कोई उपाय नथी.-एम पोते
पहेलां निर्णय करवो जोईए.
जवुं पडे छे. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ७०० वर्षनुं आयुष्य भोगवी अंत समये हीराना
पलंगमां सूतो हतो, हजारो देवो जेनी सेवामां हाजर हतां, ९६००० राणीओ सामे
ऊभी हती अने ब्रह्मदत्त मरीने सीधो सातमी नरकमां ३३ सागरनुं आयुष्य लईने
गयो. त्यां विलाप करे छे के अरे मने अहीं कोई शरण न मळे! भाई! तें आत्माने
तो सांभळ्यो नथी. विकल्प पण ज्यां शरण नथी, त्यां बहारना संयोगो तो शुं शरण
आपे! अनंत सामर्थ्यनो धणी पोतानो आत्मा तेनी द्रष्टि कदी करी नथी तो तेना
वगर कोण शरण आपे? भगवान पण शरणदाता नथी. पोतानो प्रभु ज पोताने
शरणदाता छे. पोतानो आत्मा ज अरिहंत छे, पोतानुं स्वरूप ज सिद्ध समान छे,
पोतानुं स्वरूप आचार्य, उपाध्याय, साधुनी वीतरागी परिणति जेवुं छे. आत्मा पोते ज
पांच पदरूपे छे. अष्टपाहुडमां श्री कुंदकुंदाचार्ये आ वात लीधी छे के पांचेय पदरूपे
पोतानो आत्मा ज छे. अरिहंत, सिद्ध आदि कोई शरण आपवा आवता नथी.
आवे छे, तेमां अन्य कोई जीव फेरफार करी शकतो नथी. बृहद-सामायिक पाठमां आवे
छे के ज्यारे मरण आवे छे त्यारे वैद्य, ब्राह्मण, स्त्री, पुत्र, माता, नोकर, चाकर के इन्द्र
आदि कोई पण
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सज्जनोए आत्मिक काम करवामां वार लगाववी न जोईए. आवो मनुष्यदेह, पांच
ईन्द्रिय अने जैनधर्म मळ्या पछी आत्महितना कार्यमां वार न लगाडीश. आजे ज
करजे. अमृतचंद्र आचार्य प्रवचनसारमां कहे छे के आजे ज तारुं हित साधी ले. विलंब
न कर!
अने आकुळता थशे अने निराकुळ स्वभावमां द्रष्टि करतां पर्यायमां पण निराकुळता
प्रगटशे. माटे हे जीव! स्वभावद्रष्टि करवामां तुं जरापण विलंब न कर! आजे ज कर!
अत्यारे ज कर!
मारी स्त्री, पुत्र, मित्र, आ मारुं धन, आबरू एम
अनेक मारा एटले के धनवाळो, शरीरवाळो, स्त्री-पुत्र-
मित्रवाळो एम अनेक वाळानी पीडानुं एने भान
नथी पण पीडाय छे.
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स्वभाव अनादि अनंत शुद्ध, पवित्र छे तेमां एकाग्र थवुं ते योगनो सार छे.
णरयहं जाइ वि इक्क जिउ तह णिव्वाणहं इक्कु ।। ६९।।
नर्कगमन पण एकलो, मोक्ष जाय जीव एक. ६९.
अन्य गतिमां जीव एकलो ज जाय छे. नरकमां जाय तोपण एकलो अने स्वभावद्रष्टि
करीने तेमां लीन थई सर्वथा कर्मोनो अभाव करी मुक्तिमां जाय तोपण जीव एकलो
ज जाय छे. त्यां देव-शास्त्र-गुरु के संघ साथे आवतां नथी. स्वरूपमां एकाग्रता करीने
पोतानो आत्मा ज पोताने मुक्ति प्राप्त करावे छे. तेमां कोई मदद करतुं नथी.
संयोग थयो अने छूटयो, पोते तो एकलो ने एकलो ज रह्यो. कोई साथे आव्युं नहि.
माटे हे जीव! आम विचारीने तुं तारुं हित शीघ्र करी ले!
करवा मांस-इंडा आदि तेने खबर पडवा दीधा वगर खवराव्यां. मरीने मोटोभाई नारकी
थयो अने नानोभाई असुरकुमार देव थईने तेने मारवा लाग्यो. जेने माटे पाप कर्युं ते
परमाधामी थयो अने जेणे पाप कर्युं ते नारकी थयो. नारकीनो जीव कहे छे के अरे!
पण में तारा माटे थईने आ पाप कर्युं हतुं अने तुं मने ज मारे छे? पेलो कहे के मने
तो खबर न हती, तें शा माटे पाप कर्युं? हुं तो तने मारीश. आ द्रष्टांत उपरथी दरेके
विचार करवा जेवो छे के कुटुंब माटे थईने पोते जे पाप करे छे तेनुं फळ पोताने
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करतां पहेलां जीवे विचारवा जेवुं छे.
जुदो छे. दरेकने संयोगो जुदां जुदां मळे छे पण संयोगने कोई भोगवी शकतुं नथी. सौ
पोताना रागने भोगवे छे.
एक मूर्ख रहीने निरादर पामे. ए ज रीते श्रेणिक अने अभयकुमारने खूब प्रेम हतो.
स्वर्गमां गया. जेना जेवा भाव थाय छे तेवुं तेने फळ मळे छे. एक साथे जमनारा
अने एक साथे रहेनारा होय छतां, एक नरके जाय छे, एक मोक्षमां जाय छे. आ
पण त्याग करी दे छे. माटे कोई उपर मोह कर्या वगर पोतानुं हित करी लेवा जेवुं छे.
तिर्यंचमां, कोई मनुष्यमां अने कोई मोक्षमां जाय छे. कोईनो कोई साथी-सथवारो
नथी. माटे कोई उपर राग-द्वेष न करतां समभाव करवा जेवो छे.
ज्ञान अने ध्यान करवुं ते ज शुद्धिनी वृद्धिनुं कारण छे अने ते ज मोक्षनुं कारण छे.
करवी ते मोक्षनो मार्ग छे. ए मोक्षमार्ग प्रगट करवो ते पोताना स्वतंत्र पुरुषार्थथी
थाय छे, तेमां कोई मददगार नथी.
अप्पा सायहि णाणमउ लहु सिव–सुक्ख लहेहि ।। ७०।।
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पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१.
ज छे. पुण्यतत्त्व पण पाप ज छे एम अहीं सिद्ध करे छे.
निश्चयथी पोताना शुद्ध स्वरूपने छोडीने जे कांई शुभ-अशुभ भाव आवे छे ते बधां
अपवित्र भाव छे,
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संसारनुं फळ आपनारा छे. सर्वज्ञदेव दिव्यध्वनिमां फरमावे छे के आनंद तारा
आत्मामां छे. परभावमां तो एकलुं दुःख छे.
पहेलुं कर्तव्य ए छे के ज्ञानस्वरूपी आत्माने ओळखीने तेनी श्रद्धा करवी अने बंध
तत्त्वने ओळखीने तेनो सर्वथा छेद करवो. भवभ्रमणथी छूटवुं होय तेणे पुण्य-पाप
भावनो सर्वथा छेद करीने अमृतस्वरूप आत्माने ध्याववो.
बंधतत्त्व अने अबंधस्वरूपी निज आत्मा ए बन्नेनुं भेदविज्ञान करवानुं छे. पुण्य-
पावन परमात्मानी श्रद्धा-ज्ञान अने अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे.
मात्र दुःखस्वरूप छे. पुण्य-पाप बन्ने एक ज जातनां छे, बन्नेनुं फळ संसार अने
दुःख ज छे. एवुं जाणनारां तो कोई विरल, बुद्धिमान, ज्ञानी ज होय छे. जेनाथी
ज छे-एम ज्ञानी माने छे.
परीक्षा करे के पुण्यथी लाभ मान तो तने परिषहोथी बचावुं, नहि तो मारी नाखीश,
तोपण डगे नहि. ते जाणे छे के कोण कोने मारी शके छे? अमे तो पुण्य-पाप रहित
आत्माना आनंद पासे बीजा बधां भावो तुच्छ लागे छे. पुण्य-पापभाव बन्ने दोष छे.
बंधन अपेक्षाए बन्ने समान छे. बन्नेना बंधन-कारण कषायनी मलिनता छे.
विपरीत छे. माटे ज्ञानी पुण्य-पाप बन्नेने लाभदायक मानता नथी.
नथी ज्ञानी पुण्य-पाप अने भावने दुःखना कारण जाणी तेनाथी विरक्त रहे छे अने
कर्मक्षयकारक, आत्मानंद-दायक एक शुद्ध उपयोगने ज मान्य करे छे. तेने ज मोक्षनुं
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जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१
अनुभवी ज्ञानी ज होय छे. जेम पापभाव बंधनुं कारण छे तेम पुण्यभाव पण बंधनुं
ज कारण छे. बन्ने आकुळता उपजावनारा छे. माटे ज्ञानी बन्नेने पाप ज कहे छे.
आत्मानी द्रष्टि करतां जे शुद्ध आचरण प्रगटे छे ते ज उपादेय छे, हितकारक छे. पुण्य-
पापभाव कर्मबंधनना कारणो छे, तेनाथी विरुद्ध शुद्धभाव कर्मक्षयनुं कारण छे. पुण्य-
पापभाव दुःखकारक छे तो शुद्धात्मानी द्रष्टि, ज्ञान अने शुद्ध-उपयोग आनंददायक छे.
आत्मा पोते आनंदस्वरूप छे. तेथी तेनो अंतर व्यापार-उपयोग पण आनंददायक छे.
पुण्य-पाप भावमां-पुण्यमां आकुळता अने पापमां तीव्र आकुळता छे, पण बंन्नेमां
आकुळता अने दुःख ज छे.
निरंतर मारा आत्मबागमां रमुं, आत्मामां एकाग्रता करीने निरंतर वीतरागभावनी
सेवा करुं अने सिद्ध समान मारा पदमां ज प्रेम करुं; एवी ज्ञानीने निरंतर भावना
रहे छे.
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नथी. पुण्यबंध के पुण्यफळनी तेने चाहना नथी. जेनाथी पोतानुं शुद्धस्वरूप बंधनमां
आवी जाय एवा भावने ज्ञानी हितकर केम माने? न ज माने. धर्मी ज्ञानी शुद्ध-
स्वरूपना रुचिवंत धर्मात्मा मुक्तिना पथिक छे, संसारना पथिक नथी. बंधनथी
छूटवाना पथिक छे, तेथी पुण्यने पण पाप समान जाणीने छोडवा मागे छे.
आत्मानी रुचि होय, पुण्यभावनी रुचि न होय, तो ज ते साचो मोक्षार्थी छे.
जे सुहु असुह परिच्चयहिं ते वि हवंति हु णाणि ।। ७२।।
जाणी शुभाशुभ दूर करे, ते ज ज्ञानीनो मर्म. ७२
द्रष्टि कर तो तुं साचो पंडित छो. पहेलां तो समजणमां एम ले के पुण्य-पाप बन्ने
बंधन छे, पछी ते बन्ने भावोनो त्याग कर. शुभाशुभभावनी द्रष्टि छोडी पूर्ण शुद्ध
निजस्वरूपमां आवी जा! पुण्य ठीक अने पाप अठीक एम माननार तो मिथ्याद्रष्टि ज
छे. पुण्य-पापभावमां चैतन्यनुं नूर-तेज नथी. बन्ने कर्म जीवने संसारमां फसावनार
छे. माटे मोक्षार्थीने उचित छे के ते बंने भावोने संसारमां बांधनार बेडी जाणीने तेनी
रुचि छोडीने मुक्तिनो उपाय करे.
अघातिकर्ममां पुण्यभावथी अनुकूळ संयोगो मळे एवा शुभ कर्मो बंधाय छे अने
पापभावथी प्रतिकूळ संयोगो प्राप्त थाय तेवां अशुभ कर्मो बंधाय. पण ज्ञानावरणी,
दर्शनावरणी आदि चार घातिकर्मोमां तो शुभाशुभ बन्ने भावथी एकलो पाप बंध ज
पडे छे. आथी अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लीधो छे. एवा धर्मी जीवने शुभभावमां
तथा तेना फळमां मळतां पांच ईन्द्रियना विषयोमां पण रुचि नथी. तेमां सुखबुद्धि
थती नथी. कारण पुण्यपरिणामथी पण आत्मघात ज थाय छे.
वैभव मळे अने
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साधन करवामां तमे स्वतंत्र छो-एम करीने ज्यां अंतरमां द्रष्टि करे छे त्यां
अनुभवमां अतीन्द्रिय आनंद पामे छे. आ अतीन्द्रिय आनंदनुं कारण स्वभावनी द्रष्टि
अने अनुभव छे. अज्ञानीने पुण्यनी रुचि छे तेना कारणे स्वर्गमां दैवी सुखोनी वच्चे
पण ते एकली आकुळताने ज वेदे छे.
जइया तुहुं णिग्गथु जिय तो लब्भइ सिवपंथु ।। ७३।।
ज्यां पामे निर्ग्रंथता, त्यां पामे शिवपंथ. ७३.
तोडी, आत्मसंपदामां एकत्व कर्युं छे तेनुं मन खरेखर निर्ग्रंथ छे, अने हे जीव! जो
तारुं मन निर्ग्रंथ छे तो तें मोक्षपंथ प्राप्त करी लीधो छे. बाह्यमां द्रव्यलिंग पण आवे
ज छे पण जो तें भावनिर्ग्रंथ दशा प्राप्त करी लीधी छे तो तुं समज के तुं शिवपंथी थई
गयो, बाह्यमां द्रव्यनिर्ग्रंथ दशा होय पण भावनिर्ग्रंथता न होय तो मोक्षमार्ग नथी
एम अहीं बताववुं छे.
छे. ज्यां सुधी वस्त्रनुं ग्रहण छे त्यां सुधी परिग्रहनो पूरो त्याग नथी. पण प्रथम तो
अंतरंगमां मनने ग्रंथिरहित करवुं जोईए. मनमां दया-दानना विकल्प ऊठे छे ते पण
रागनी गांठ छे. ते गांठने प्रथम भेदी मनने निर्ग्रंथ बनाव्युं छे ते मोक्षमार्गी छे.
आत्मा वस्तु पोते निर्ग्रंथ छे तो तेनी द्रष्टि करवावाळो पण भावथी निर्ग्रंथ छे. पण
बहारमां केवळ द्रव्यथी निर्ग्रंथनो एक पण भव ओछो थाय तेम नथी.
परम संतोषी होय अने ए भावनिर्ग्रंथ ज्ञानी जीवनी आत्मरसनी पिपासा घणी होय.
आवां लक्षणो युक्त होय ते ज भाव-निर्ग्रंथ छे. एथी विपरीत कोई जीव बधो
बाह्यपरिग्रह छोडी दे-स्त्री, पुत्र परिवार त्यागी जंगलमां रहेवा लागे पण
अंतरपरिग्रह-राग-द्वेष-मोहनो त्याग न करे तो ते निर्ग्रंथ नथी. तेने आत्मरसनो
लाभ प्राप्त थतो नथी. ते जीव मोक्षमार्गी नथी पण संसारमार्गी छे.
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अंतरमां शुद्धात्मानी द्रष्टि, अनुभव न करे, समदर्शी-समताभावने प्राप्त न थाय,
आत्मिक आनंदनो पिपासु न बने अने राग-द्वेष-मोहरूपी अंतरपरिग्रहने धारी राखे
तो तेने मोक्षनो लाभ प्राप्त थतो नथी, ते जीव साचो निर्ग्रंथ नथी. भाव-निर्ग्रंथ नथी,
द्रव्य निर्ग्रंथ छे.
चालीने ज्ञानी मोक्षमां पहोंची जाय छे.
तं देहहं देउ वि मुणहि जो तइलोय–पहाणु ।। ७४।।
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान.
आत्मबीजमां परमात्मशक्तिनुं वड प्रगट छे. शक्तिमां परमात्मपणुं होय तो ज पर्यायमां
प्रगट थाय ने? त्रणलोकमां तारो आत्मा ज प्रधानदेव छे. भगवान अरिहंत अने
सिद्धप्रभु पण तारा माटे प्रधानदेव नथी. तारुं परमात्मपद ज तारा माटे प्रधान छे.
परमात्मा जेम पर्याये पूर्ण छे तेम दरेक जीव शक्तिए पूर्ण छे. एम पोतानी शक्तिनो
ज्यां सुधी विश्वास न करे त्यां सुधी द्रष्टि सम्यक् न थाय-सम्यग्दर्शन न थाय.
त्रिलोकप्रधान छे.
पर्यायमां व्यापेलो छे. आखा वडनां मोटा वृक्षमां मूळ बीज सर्वत्र व्यापेलुं छे. तेम
भगवान आत्मा पोतामां सर्वत्र व्यापेलो छे. केवळज्ञान आदि अनंत पर्यायोनुं बीज
तो आत्मा छे माटे तुं ज तारो देव छो.
आनंद आदि अनंत गुणो बिराजमान छे ते ज मारे आराधवा योग्य छे.
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योगसार छे.
तं देहहं देउ वि मुणहि जो तइलोय–पहाणु ।। ७४।।
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान.
पहोरी एटले पूरेपूरी तीखाश भरी छे तो तेने घसतां बहारमां तीखाश प्रगट थाय छे.
अंदरमां तीखाश हती तो बहार आवी. माटे प्राप्तनी प्राप्ति छे. तेम दरेक आत्मामां
ज्ञान, आनंद आदि अनंतगुणोनी पूर्ण शक्ति अंतरमां पडी छे, तेमांथी ते प्रगट थाय
छे. आ भगवान आत्माना अंतरसत्त्वमां-ध्रुवशक्तिमां पूर्ण ज्ञान-आनंद व्यापक छे,
पण आ जीवने जगतनी चीजोनी तो महत्ता आवे छे पण पोताना स्वभावनी महत्ता
आवती नथी.
के कांकरामां वड थवानी ताकात नथी. अरे! लींबोळीमां पण वड थवानी ताकात नथी.
वडना बीजमां ज वड थवानी ताकात छे. आ बधुं लोजिकथी-न्यायथी समजवुं जोईए.
प्राप्ति थतां परमात्मा थवाय छे.
रहेलो छे तेनो आकार शरीर जेवो छे पण ते शरीरथी भिन्न छे.
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बधांने जाणे. स्वभावने मर्यादा न होय.
प्रमाण होवा छतां त्रणलोकमां मुख्य-प्रधानपदे छे.
जेम लाखो-करोडो लींडीपीपरनी गुणो भरी होय, तेमांनी दरेके-दरेक पीपर ६४ पहोरी
बिराजमान छे.
शक्तिओनी झलक प्रगट थाय छे, अनुभवमां आवे छे. वर्तमान पर्यायमां थतां देखाय
छे ते स्वभाव नथी. तेनो नाश थतां स्वभाव प्रगट थशे. अल्पज्ञता दूर थतां पूर्णता
प्रगट थाय छे.
आत्माने तेना स्वभावथी जोईए तो कर्म के तेना संगे थयेलो विकार के कर्मना उदयनी
वधघटथी थयेली हीनाधिकता ए कांई तेना स्वभावमां नथी. सिद्धांत समजाववा माटे
छे? तेनो जीवे कदी विचार कर्यो नथी.
अपेक्षा रहेती नथी. अनादि अनंत सत्...सत्...सत् छे....छे....छे...., जेनी आदि नहि,
उत्पत्ति नहि अने नाश पण नहि एवुं आत्मतत्त्व छे. तेनी दरेक शक्ति पण त्रिकाळ
निर्मळ पर्याय तो नहि पण पूर्ण निर्मळ पर्याय जेटलो पण आत्मा देखातो नथी.
पूर्ण...पूर्ण...निर्मळ एकरूप वस्तु ज द्रष्टिमां देखाय त्यारे ज पर्यायमां सम्यग्दर्शन-
बीजो कोई उपाय नथी.
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अंतरमांथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-शांति-आनंदना कणिया प्रगट थाय छे. माटे जेने सुख,
शांति अने स्वतंत्रता जोईती होय तेणे पूर्णानंद प्रभुनी द्रष्टि करवी ते ज एक उपाय छे.
सिवाय इन्द्र, नरेन्द्र, राजा-महाराजा, अबजोपति शेठिया ए बधां भिखारा छे, दुःखी छे.
भगवान छे. ज्यारे ए पोतानुं भगवानपणुं संभाळशे-स्वीकारशे त्यारे ए पण
भगवान बनी जशे. दरेकमां परमात्मशक्ति भरी पडी छे. माटे निर्ग्रंथ मुमुक्षुने उचित
छे के तेणे समतास्वभावमां स्थिर थवुं, लीन थवुं, रमवुं. सर्व नयोना विचारथी पण
मुक्त थईने आत्मानंदमां मस्त थवुं.
मोक्खहं कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ७५।।
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न मंत्र न तंत्र. ७प.
तो आम पहेलां नक्की कर! निर्णय कर के! “हुं ज परमात्मा छुं.”
जातमां कांई फेर नथी. भगवान सर्वज्ञे जे दशाने प्राप्त करी तेवी दशाने धरनारो
शक्तिवान हुं पोते ज जिनेन्द्र छुं.
करवो ते सुख पामवानो-परमात्मा थवानो सरळ-सीधो उपाय छे. आवी वात
सांभळवा मळवी पण बहु दुर्लभ छे.
पण परमात्मा छुं, जिनेन्द्र छुं.
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एवी वीतराग शांतरसनी शिला आत्मा छे. भगवान आत्मा देहथी रहित,
शुभाशुभभावथी रहित अरूपी चिद्घन वीतरागी चैतन्यनी शिला छे.
जेवा ज तारा आत्मानी निभ्रांत-भ्रांति रहित निःशंकपणे भावना कर! शक्तिए बधा
आत्मा भगवान छे. तुं तारी चैतन्यसत्तानो स्वीकार कर! जाणवुं... जाणवुं...जाणवुं...आ
जाणवानी ज्ञानशक्तिनी बेहदता, अचिंत्यता, अमापता छे ते हुं ज छुं, ज्ञाननी साथे
रहेलो आनंद ए पण हुं ज छुं. अतीन्द्रिय, बेहद अने पूर्ण आनंद मारुं ज स्वरूप छे.
आवा ज्ञान-आनंद स्वरूप आत्मानी द्रष्टि करतां-सत्यस्वरूपनो स्वीकार करतां पर्यायमां
जे सत्यदशा प्रगट थाय छे ते ज खरेखर आत्मानो निजधर्म छे.
रहेली ६४ पहोरी तीखाशनी अने लीलारंगनी जे ना पाडे छे ते पीपरना स्वभावनो
घात करे छे केम के तेमां अस्तिनी नास्ति थाय छे. तेम सत् स्वरूप पोताना भगवान
आत्मानो अस्वीकार करतां अस्तिस्वरूपनी नास्ति थाय छे ते ज हिंसा छे.
राग-द्वेषनी अवस्थामां होवा छतां हुं पूर्ण, अखंड वीतराग छुं, भगवान ज छुं एवी
निर्भ्रांत श्रद्धा करवी तेमां घणो उग्र पुरुषार्थ जोईए केटलुं जोर होय त्यारे आवो
निर्णय थई शके!
पूरण स्वभावमां जे जीव द्रष्टि-ज्ञानने जोडे छे ते ज योगी छे. योगीनो ए वेपार ते ज
योग अने योग ते ज धर्म छे. आवुं योगीपणुं प्रगट कर्या विना गमे तेटला व्रत-तप
करे तोपण आत्मानुं कल्याण थाय तेम नथी. सर्वज्ञपिताए वारसामां आपेली
जिनवाणीना पाना खोलीने जीव भावथी वांचे तो तेने साचुं स्वरूप समजाय छे.
त्रिकाळ पूर्णस्वरूप जेवुं छे तेवुं ज श्रद्धामां स्वीकारवुं, ज्ञानमां लेवुं अने तेमां स्थिर
थवुं ते ज पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षनो उपाय छे. जेवुं जिनेन्द्रनुं स्वरूप छे तेवुं ज आ
आत्मानुं मूळ स्वरूप छे. मात्र बन्नेनी सत्ता ज जुदी छे.
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विकल्प छे ते बधो अधर्म छे. जे जीव भगवान अरिहंत, सिद्धना स्वरूपने एटले के
तेमनुं द्रव्य, अनंती शक्तिओ अने वर्तमान अवस्थाने जाणे तेने पोताना आत्माना
द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणवानो प्रयत्न थाय. आम भगवान जेवा ज पोताना आत्मानो
स्वीकार करवो, तेमां एकाकार थवुं ते ज स्वानुभवनी कळा छे.
पुण्य-पापभावनी किंमत ऊडी जाय छे. मनुष्यदेहमां आ वस्तु पामवानो अमूल्य
अवसर छे तेने जो जीव चूकी जशे तो चोराशीना अवतारनी खीणमां डुबी जशे.
त्यांथी तेने बचावनार कोई नथी.
ए (मोक्ष) मार्गमां खपावी देतां जो परम शुद्ध
चैतन्यघन अविनाशी निःश्रेयसनी प्राप्ति थती
होय तो तने फूटी कोडीना बदलामां चिंतामणी-
रत्नथी पण अधिक प्राप्त थयुं छे एम समज.
हे जीव! सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र अने तप ए
चार आराधनानी उत्तरोतर वृद्धि अने शुद्धिमां
तारा आ मानवजीवननो जे काळ छे, तेटलुं ज
तारुं सफळ आयुष्य छे एम समज. ३७.
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निज–परमात्मानो अनेकरूप भेद–विचार ते व्यवहार
भावना करवानुं कहे छे. जो के पोताना पूर्णस्वरूपमां ज लीन थवानुं छे परंतु ज्यां
सुधी तेमां पूर्णपणे लीन न थई शके त्यां सुधी तेना जुदा-जुदा गुणोना विचार करवा
एम अहीं कहे छे.
चउगुण–सहियउ सो मुणह एयई लक्खण जाहं ।। ७६।।
नव गुणयुत परमातमा, कर तुं ए निर्धार. ७६
छे. नजीकनो व्यवहार आ छे. देव-शास्त्र-गुरु आदिनी भक्तिनो व्यवहार ते बहारनो
दूरनो व्यवहार छे-पोताना गुणोनो विचार करवो ते नजीकमां नजीकनो व्यवहार छे.
त्यारे धर्मी बे, त्रण, चार एम विविध प्रकारे आत्माना गुणोनो विचार करे छे,
भावना करे छे ते व्यवहार छे. आ योगसारनो व्यवहार पण जुदी जातनो छे. टूंकामां
बहु सरस वात करी छे.
आत्मा पोताना मूळ स्वरूपने जाणीने तेमां ठरे ए तो एनुं मुख्य कर्तव्य छे पण
पोताना पुरुषार्थनी कमजोरीने कारणे स्वभावमां ठरी न शके तो मारो आत्मा
ज्ञानस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे, सुखस्वरूप छे, वीर्य, स्वच्छत्व, प्रभुत्व आदि अनंत
शक्तिस्वरूपे मारो आत्मा बिराजी रह्यो छे एवो विचार करे ते व्यवहार छे.