Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 25-28.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 8 of 13

 

Page 130 of 238
PDF/HTML Page 141 of 249
single page version

background image
१३०] [हुं
छे. जेने निमित्त, व्यवहार अने रागादिनी वात रुचे छे तेने आ वात सांभळवी पण
रुचती नथी.
भगवान आत्मा तरफनुं अंतरमां वलण करी स्वरूपने ध्येय बनावी तेनुं ध्यान
करनारा जीवो विरल छे. पुण्य करवा के तेना फळ मळवा-इन्द्र, चक्रवर्ती आदिनी पदवी
मळवी दुर्लभ न कही पण आत्मानुं ध्यान करवुं दुर्लभ छे, तेथी ध्यान करनारां जीवो
जगतमां दुर्लभ छे. राग रहित वीतराग आत्मानी वीतरागी परिणति प्रगट करवी
अने तेनी धारणा करवी, ए महा दुर्लभ छे. ए धारणाने स्मृतिमां लईने वारंवार
अनुभव करनारा जीवो बहु विरल छे. दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात छे.
शास्त्रनी धारणा, बोलचालनी धारणा करनारां तो जगतमां घणां छे. पण
सम्यग्दर्शन-ज्ञानमां-अनुभवमां जे आत्मा आव्यो तेनी धारणा करनारा जीवो बहु
विरल छे पहेलां तो आत्मज्ञान प्रगट करवुं ते ज बहु दुर्लभ छे. तेथी थोडां ज जीवो
आ अनुपम तत्त्वनो लाभ लई शके छे. केम के मनरहित पंचेन्द्रिय सुधीना जीवोने तो
विचार करवानी ज शक्ति नथी अने संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोमां नारकी तो रात-दिवस
कषायना कार्योमां लागेलां छे. पशुओमां पण आत्मज्ञाननुं साधन पामवुं घणुं दुर्लभ छे.
देवोमां विषयोनी अति तीव्रता छे अने वैराग्यभावनी दुर्लभता छे.
मनुष्यगतिमां ज आत्मज्ञाननी प्राप्तिनुं साधन सुगम छे तोपण तेनी प्राप्ति
घणी दुर्लभ छे. केम के मनुष्योमां केटलाक तो रात-दिवस शरीरनी सगवडता
संभाळवामां ज रोकाय छे. केटलाक व्यवहारनी रुचिवाळा मात्र व्यवहारना ग्रंथो ज
वांचे अने सांभळे छे. अध्यात्मग्रंथो वांचवा-सांभळवानो तेने टाईम ज नथी एटले
दरकार ज नथी. न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वैदक आदिना पंडितो घणा बनी जाय छे.
अध्यात्मशास्त्रोने सूक्ष्मद्रष्टिथी कोई वांचतुं-विचारतुं नथी. व्यवहार करतां करतां धर्म
थई जशे एम माने छे पण असंग, निर्विकल्प, वीतराग तत्त्वने समजीने मनन
करनारां बहु थोडां जीवो छे.
भगवान आत्मानी गांठमां एकली वीतरागता भरी छे, एकला चैतन्यरत्नो
भर्या छे. तेमां राग-द्वेष के विकारनुं कोई स्थान नथी. निश्चयनयथी एक पोतानो
आत्मा ज आराध्यदेव छे ते वातनो व्यवहारीजन विश्वास करी शकता नथी. खरेखर
आराधवा योग्य-सेववा योग्य तो पोतानो आत्मा छे. परमेश्वर वीतरागदेव ते व्यवहारे
आराध्यदेव छे. आवी वात जे अध्यात्मशास्त्रमां भरी छे तेने कोई सूक्ष्म द्रष्टिथी
वांचतां नथी तेम विचारतां पण नथी.
आचार्य कुंदकुंददेव पण समयसारमां कहे छे के आ रागनी कथा करी अने वेदी
एवी वात तो जीवे अनादिथी सांभळी छे पण रागथी भिन्न अने पोताना स्वभावथी
अभिन्न आत्मानी वात जीवे कदी सांभळी नथी. निमित्त अने रागथी भिन्न
भगवान आत्मानी वात सांभळवा मळवी ए पण घणुं दुर्लभ छे. निमित्त अने
रागादि व्यवहार द्वारा आत्माने जाणी शकाय एवुं माननारने निमित्त आदिथी आत्माने
न जाणी शकाय एवी आ वात सांभळवी अने स्वीकारवी आकरी पडी जाय.
स्वभावथी एकत्व अने विभावथी विभक्त आत्मानी

Page 131 of 238
PDF/HTML Page 142 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१३१
वात जगतने सांभळवी दुर्लभ छे. परिचय करवो दुर्लभ छे अने अनुभवमां लेवी ए
तो एथी पण वधु दुर्लभ छे.
केटलाक पंडितो विद्वानो क्रियाकांडथी धर्म मनावे छे. ज्यारे अहीं क्रियाकांडथी तो
धर्म न थाय पण विकल्पथी के गुणभेदथी पण धर्म न थाय एवी वात छे. धर्मी-
भगवान आत्मा अने आनंद तेनो गुण एवा भेदना लक्षथी पण धर्म न थाय. आवी
वात कहेनारा विरला ज्ञानी पण जो कदाच मळी आवे तो तेने सांभळनारां रुचिवंत
श्रोता पण दुर्लभ छे.
भाई! तुं तो निर्दोष दशा प्रगट करवा मागे छे तेवी अनंती दशा-अवस्थानो
पिंड ज तुं पोते छो. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो पिंड तुं पोते छो, तेना सिवाय बीजुं
तारे शुं जोईए छे? रुचिवंत जीवोने माटे आ वात छे. आवा जीवो जगतमां बहु
विरल छे. तेमां पण आत्मानुभूति प्रगट करनारां जीवो तो विरल... विरल...विरल छे.
आ मानवजन्म प्राप्त करीने निर्मळ अनुभूति प्रगट करवानो उपाय करवो
जरूरी छे. जेने आत्मज्ञाननी रुचि थाय तेने मार्ग मळे ज छे. ए मार्गथी जीव सीधो
मोक्षमां पहोंची जाय छे.
आ भयानक संसारमां रखडतां जीवने आत्मज्ञानरूपी महारत्न क्यांय मळ्‌युं
नथी. हवे जो तने आ रत्न मळ्‌युं होय-आत्मज्ञान थयुं होय तो जरा पण प्रमाद न
करीश. विषयोनी लोलुपतामां आ रत्न खोवाई न जाय तेनुं ध्यान राखजे. आ वात
‘सार समुच्चय’ मां लीधी छे अने टोडरमलजी पण ‘रहस्यपूर्ण चिठ्ठी’ मां लखे छे के
आत्मानी अनुभूतिमां रहेजे, बहार खोवाई न जईश! आ चिठ्ठी तो एवी अमूल्य छे
के एक माणसे लखेलुं के जो आ चिठ्ठी अंग्रेजीमां होत अने विलायतमां पहोंची होत
तो एक एक चिठ्ठीनी किंमत हजारोनी थात.
आ रीते ६६मी गाथामां आत्मरसिक जीवोनी विरलता बतावी. हवे ६७मां
मुनिराज कहे छे के कुटुंबमोह त्यागवा योग्य छे.
इहु परियण ण हु महुतणउ इहु–दुक्खहं हेउ ।
इम चिंततहं किं करइ लहु संसारहं छेउ ।। ६७।।
आ परिवार न मुजतणो, छे सुखदुःखनी खाणः
ज्ञानीजन एम चिंतवी, शीघ्र करे भवहाण. ६७
धर्मात्मा जीवे निज आत्मस्वभावमां योग नाम जोडाण-एकाग्रता करवा माटे
कुटुंब प्रत्येनो ममत्वभाव छोडवायोग्य छे. कुटुंबना मोहमां रोकाईने आत्मध्यान खोवा
जेवुं नथी. कुटुंब-परिवार ए तो धूतारानी टोळी छे. नियमसारमां आवे छे ने!
पोताना स्वार्थ माटे-पोतानुं पेट भरवा माटे धूतारानी टोळी मळी छे. स्त्री, पुत्र,
परिवार आदि लौकिक सुख-दुःखना एटले के दुःखना ज निमित्तो छे. तेना पालन-
पोषणमां रोकाईश नहि. आत्मानी दरकार करीने आत्मानुं ध्यान करजे.

Page 132 of 238
PDF/HTML Page 143 of 249
single page version

background image
१३२] [हुं
प्रश्न- कुटुंबना माणसोने भूख्या मरवा देवाय?
अरे भूख्या कोण मरे? बधाने पोत-पोताना पुण्य प्रमाणे मळी ज रहेवानुं छे.
तेनुं भरण-पोषण तुं करीश तो ज थशे एम नथी.
योगसार छे ने! आत्मामां एकाग्र थवा माटे कुटुंब आदिनो मोह छोडजे! ए
तो पोताना कारणे आव्या छे, पोताना कारणे टकी रह्यां छे अने पोताना कारणे चाल्या
जशे; तारे अने एने कांई संबंध नथी. आम मोह छोडीने अंदरमां एकाकार नहि था
तो एकाग्रता-योगसार नहि थई शके. अरे! ज्यां शरीर मारुं नथी त्यां शरीरना
संबंधवाळा मारा क्यांथी होय? बधां मारा शरीरने ओळखे छे के आ मारो दीकरो छे
ने आ मारा पिता छे. आत्माने तो कोई ओळखतुं नथी.
ईन्द्रियसुखनो कामी जीव ईन्द्रियविषयोना सहकारी कारणोने छोडतो नथी. स्त्री,
पुत्र, परिवार, धन, मकान, आबरू ए बधां मारा सुखना साधन छे-एम माननारो
तेमांथी रुचि छोडी शकतो नथी. बाल्यावस्थामां माता-पिता द्वारा पालन-पोषण अने
लाड-प्यार मळे छे तेथी बाळकने माता-पिता प्रत्ये तीव्र मोह थाय छे. युवानीमां स्त्री
अने पुत्र-पुत्रीथी ईन्द्रियसुख मेळवे छे तेथी तेनो मोह करे छे. जे मित्रोथी अने
नोकर-चाकरथी ईन्द्रियसुखमां सहकार मळे छे तेने सारा मानी राग करे छे अने जे
सुखमां बाधक थाय तेने दुश्मन समजी द्वेष करे छे. आम बधां प्राणी ईन्द्रियसुखना
स्वार्थ खातर बीजां प्रत्ये मोह करे छे पण आत्मानुं सुख ए ज वास्तविक सुख छे
अने ईन्द्रियसुख ए तो दुःख छे. एवी जो तेने प्रतीती थाय तो ईन्द्रियसुखना
निमित्तोंने पण सहकारी माने नहि अने तेमां मोह करे नहि.
जेम कमळने जळनो स्पर्श नथी, कमळ जळथी अलिप्त छे, तेम जेणे निज
आत्मानो अनुभव करी अतीन्द्रियसुख प्राप्त कर्युं छे एवा धर्मी जीव गृहस्थाश्रममां
जळकमळवत् निर्लेप रहे छे.
स्त्री, पुत्र आदि बधा मारा आत्माथी सर्वथा भिन्न छे. आत्मा साथे संबंधवाळा
नथी. तेमनो संयोग वायु समान चंचळ छे. पवनथी जेम पांदडा आमतेम उडे तेम
पूर्वना पुण्य-पाप अनुसार क्षणिक संयोगो आवे छे ने जाय छे. तेमां ईन्द्रिय सुखना
लोलुपी अने अतीन्द्रिय सुखना अजाण-मूर्ख जीवो अनुकूळ संयोग मळतां एवी
कल्पना करे छे के जाणे अमने स्वर्ग मळी गयुं, पण पोताना आत्मानो अनुभव करीने
अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करवानो आ मूर्ख जीवो प्रयत्न ज करतां नथी. जे केवळज्ञान
लक्ष्मीनो स्वामी छे एवा आत्मानी ओळखाण करीने अल्पकाळमां केवळज्ञान प्रगट
करवानी भावना मोक्षार्थी जीवो ज करे छे. विषयलोलुपी जीवो तो पोताना पुण्याधीन
मळेला क्षणिक अनुकूळ संयोगोमां ज साचुं सुख मानीने अटकी जाय छे, तेने
अतीन्द्रिय सुखनी रुचि थती नथी.
अंदरमां अनुकूळतानो पिंड-भगवान आत्मा बिराजमान छे तेनी द्रष्टि न करतां
बहारनी क्षणिक अनुकूळतामां रुचि करे छे, सुख माने छे ते भ्रमणा छे. एम कही हवे
आचार्यदेव संसारमां कोई शरणदातार नथी ए वात बतावे छे.

Page 133 of 238
PDF/HTML Page 144 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१३३
इन्द्र–फणिंद–णरिंदय वि जीवहं सरणु ण होंति ।
असरणु जाणिवि मुणि–धवला अप्पा अप्प मुणंति ।। ६८।।
इन्द्र, फणीन्द्र, नरेन्द्र पण नहि शरण दातार,
शरण न जाणी मुनिवरो, निजरूप वेदे आप. ६८.
आत्मध्यानी आत्मज्ञानी महामुनि संत योगीन्द्रदेव जगत सामे पोकार करीने
कहे छे के इन्द्र, धरणेन्द्र के चक्रवर्ती कोई पण आ संसारी जीवना रक्षक थई शक्ता
नथी. दरेकने पोतानो आत्मा ज एक रक्षक छे, शरण-दातार छे. तेनी मुनि पोताने
पोतानुं शरण जाणी पोते पोताने ध्यावे छे. पोताना आत्मामां शरण मेळवी ल्ये छे.
‘निजरूप वेदे आप’ कहेतां एम कहेवुं छे के व्यवहार द्वारा के निमित्त द्वारा
अनुभव थई शकतो नथी पण शुद्ध वीतराग प्रभु निज आत्मानो शुद्ध वीतराग
परिणति द्वारा ज अनुभव थई शके छे. ए सिवाय बीजो कोई उपाय नथी.-एम पोते
पहेलां निर्णय करवो जोईए.
जीवने ज्यारे प्रतिकूळतानो के मरणनो काळ आवे छे त्यारे तेमांथी तेने
छोडाववा कोई समर्थ नथी. चक्रवर्ती जेवाने पण मरणकाळे छ खंडनुं राज्य छोडीने
जवुं पडे छे. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ७०० वर्षनुं आयुष्य भोगवी अंत समये हीराना
पलंगमां सूतो हतो, हजारो देवो जेनी सेवामां हाजर हतां, ९६००० राणीओ सामे
ऊभी हती अने ब्रह्मदत्त मरीने सीधो सातमी नरकमां ३३ सागरनुं आयुष्य लईने
गयो. त्यां विलाप करे छे के अरे मने अहीं कोई शरण न मळे! भाई! तें आत्माने
तो सांभळ्‌यो नथी. विकल्प पण ज्यां शरण नथी, त्यां बहारना संयोगो तो शुं शरण
आपे! अनंत सामर्थ्यनो धणी पोतानो आत्मा तेनी द्रष्टि कदी करी नथी तो तेना
वगर कोण शरण आपे? भगवान पण शरणदाता नथी. पोतानो प्रभु ज पोताने
शरणदाता छे. पोतानो आत्मा ज अरिहंत छे, पोतानुं स्वरूप ज सिद्ध समान छे,
पोतानुं स्वरूप आचार्य, उपाध्याय, साधुनी वीतरागी परिणति जेवुं छे. आत्मा पोते ज
पांच पदरूपे छे. अष्टपाहुडमां श्री कुंदकुंदाचार्ये आ वात लीधी छे के पांचेय पदरूपे
पोतानो आत्मा ज छे. अरिहंत, सिद्ध आदि कोई शरण आपवा आवता नथी.
आ रीते ज्ञानी जीवे अशरण भावना भावीने कर्मोना क्षयनो उपाय करवो
योग्य छे केम के कर्मोनो संयोग एक समय पण गुणकारी नथी.
समयसारमां कह्युं छे के हुं पर जीवने सुखी-दुःखी करी शकुं छुं ए मान्यता महा
मिथ्यात्व छे. सौ पोताना पूर्वना कर्मोना उदय प्रमाणे आयुष्य अने संयोग लईने
आवे छे, तेमां अन्य कोई जीव फेरफार करी शकतो नथी. बृहद-सामायिक पाठमां आवे
छे के ज्यारे मरण आवे छे त्यारे वैद्य, ब्राह्मण, स्त्री, पुत्र, माता, नोकर, चाकर के इन्द्र
आदि कोई पण

Page 134 of 238
PDF/HTML Page 145 of 249
single page version

background image
१३४] [हुं
बचावी शकतुं नथी. एक शरणभूत मात्र पोतानो आत्मा छे एम विचार करीने
सज्जनोए आत्मिक काम करवामां वार लगाववी न जोईए. आवो मनुष्यदेह, पांच
ईन्द्रिय अने जैनधर्म मळ्‌या पछी आत्महितना कार्यमां वार न लगाडीश. आजे ज
करजे. अमृतचंद्र आचार्य प्रवचनसारमां कहे छे के आजे ज तारुं हित साधी ले. विलंब
न कर!
पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यरत्नाकर एवा निज आत्मामां द्रष्टि करतां निधान फाटे
तेवुं छे. बहार नजर करतां होळी सळगे तेवुं छे. बहार नजर करतां विकल्प ऊठशे
अने आकुळता थशे अने निराकुळ स्वभावमां द्रष्टि करतां पर्यायमां पण निराकुळता
प्रगटशे. माटे हे जीव! स्वभावद्रष्टि करवामां तुं जरापण विलंब न कर! आजे ज कर!
अत्यारे ज कर!
* अरे! एक वाळो शरीरमां नीकळतां पीडानो
पार रहेतो नथी. तो आ मारुं शरीर, मारुं घर,
मारी स्त्री, पुत्र, मित्र, आ मारुं धन, आबरू एम
अनेक मारा एटले के धनवाळो, शरीरवाळो, स्त्री-पुत्र-
मित्रवाळो एम अनेक वाळानी पीडानुं एने भान
नथी पण पीडाय छे.
-पूज्य गुरुदेव

Page 135 of 238
PDF/HTML Page 146 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१३प
[प्रवचन नं. २प]
मुक्तिदाताः निज परमात्मा
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ४-७-६६]
आ भरतक्षेत्रमां सेंकडो वर्ष पहेलां एक योगीन्द्रदेव नामना मुनि थई गया.
तेमणे आ शास्त्रनी रचना करी छे. शास्त्रनुं नाम पण ‘योगसार’ छे. आत्मानो
स्वभाव अनादि अनंत शुद्ध, पवित्र छे तेमां एकाग्र थवुं ते योगनो सार छे.
अहीं ६९ गाथामां योगीन्द्रदेव कहे छे के ‘जन्म-मरण जीव एकलो करे छे.’
इक्क उपज्जइ मरइ कु वि दुहु सुहु भुंजइ इक्कु ।
णरयहं जाइ वि इक्क जिउ तह णिव्वाणहं इक्कु ।। ६९।।
जन्म-मरण एक ज करे. सुख-दुःख वेदे एक,
नर्कगमन पण एकलो, मोक्ष जाय जीव एक. ६९.
जीव एकलो ज जन्मे छे अने देह छूटे त्यारे एकलाने ज परलोकमां जवुं पडे
छे, कोई स्वजन साथे जतां नथी. जीवनपर्यंत जेवां भाव कर्यां होय ते प्रमाणे मरीने
अन्य गतिमां जीव एकलो ज जाय छे. नरकमां जाय तोपण एकलो अने स्वभावद्रष्टि
करीने तेमां लीन थई सर्वथा कर्मोनो अभाव करी मुक्तिमां जाय तोपण जीव एकलो
ज जाय छे. त्यां देव-शास्त्र-गुरु के संघ साथे आवतां नथी. स्वरूपमां एकाग्रता करीने
पोतानो आत्मा ज पोताने मुक्ति प्राप्त करावे छे. तेमां कोई मदद करतुं नथी.
आ श्लोकमां एकत्वभावनानो विचार करवामां आव्यो छे. चारगतिना भ्रमणमां
अनेक जन्मोमां जीवने माता-पिता, भाई-बहेन, स्त्री-पुत्र, मित्र तथा जड वस्तुनो
संयोग थयो अने छूटयो, पोते तो एकलो ने एकलो ज रह्यो. कोई साथे आव्युं नहि.
माटे हे जीव! आम विचारीने तुं तारुं हित शीघ्र करी ले!
जीव जेवा शुभ-अशुभ भाव करे छे, तेवा कर्म बंधाय छे अने तेवुं तेनुं फळ
मळे छे. एक द्रष्टांत आवे छे के नानो भाई बीमार हतो. मोटा भाईए तेने साजो
करवा मांस-इंडा आदि तेने खबर पडवा दीधा वगर खवराव्यां. मरीने मोटोभाई नारकी
थयो अने नानोभाई असुरकुमार देव थईने तेने मारवा लाग्यो. जेने माटे पाप कर्युं ते
परमाधामी थयो अने जेणे पाप कर्युं ते नारकी थयो. नारकीनो जीव कहे छे के अरे!
पण में तारा माटे थईने आ पाप कर्युं हतुं अने तुं मने ज मारे छे? पेलो कहे के मने
तो खबर न हती, तें शा माटे पाप कर्युं? हुं तो तने मारीश. आ द्रष्टांत उपरथी दरेके
विचार करवा जेवो छे के कुटुंब माटे थईने पोते जे पाप करे छे तेनुं फळ पोताने

Page 136 of 238
PDF/HTML Page 147 of 249
single page version

background image
१३६] [हुं
एकलाने ज भोगववुं पडशे, तेमां कोई कुटुंबीजनो भागीदार नहि थाय. माटे पाप
करतां पहेलां जीवे विचारवा जेवुं छे.
दरेक जीवनी सत्ता निराळी छे-जुदी जुदी छे. दरेकना भावो अलग अलग छे.
दरेकना कर्मना बंधन निराळा छे अने शाता-अशातानो भोगवटो पण दरेकने जुदो
जुदो छे. दरेकने संयोगो जुदां जुदां मळे छे पण संयोगने कोई भोगवी शकतुं नथी. सौ
पोताना रागने भोगवे छे.
चार सगा भाई होय तेमां एक धनवान थईने सांसारिक सुख भोगवे, एक
निर्धन थईने कष्टथी जीवननिर्वाह करे, एक विद्वान थईने देशमान्य थई जाय, अने
एक मूर्ख रहीने निरादर पामे. ए ज रीते श्रेणिक अने अभयकुमारने खूब प्रेम हतो.
एक थाळीमां साथे जमतां हतां पण मरीने श्रेणिक नरकमां गया अने अभयकुमार
स्वर्गमां गया. जेना जेवा भाव थाय छे तेवुं तेने फळ मळे छे. एक साथे जमनारा
अने एक साथे रहेनारा होय छतां, एक नरके जाय छे, एक मोक्षमां जाय छे. आ
बधी भावोनी विविधता छे.
तारा परिणाम तुं सुधार अने निज आत्मा आनंदकंद छे तेमां द्रष्टि करीने
ध्यान-अनुभव कर! ते ज मोक्षनो उपाय छे. बीजो कोई मोक्षनो उपाय नथी.
संसारमां दरेक जीव पोताना स्वार्थना सगा छे. स्वार्थ न सधाय तो स्त्री, पुत्र, मित्र
पण त्याग करी दे छे. माटे कोई उपर मोह कर्या वगर पोतानुं हित करी लेवा जेवुं छे.
नौकामां एक साथे बेठेला माणसो होय, पण जाय छे बधां जुदां जुदां नगरमां
तेम एक कुटुंबमां अनेक जीवो भेगा थया होय पण मरीने कोई स्वर्गमां, कोई नरक
तिर्यंचमां, कोई मनुष्यमां अने कोई मोक्षमां जाय छे. कोईनो कोई साथी-सथवारो
नथी. माटे कोई उपर राग-द्वेष न करतां समभाव करवा जेवो छे.
दया, दान, पूजादिना भाव पुण्यभाव छे अने हिंसा, जूठुं, चोरी आदिना भाव
पापभाव छे. बन्ने भावथी पोताना आत्माने न्यारो जाणी, पोताना स्वभावनी श्रद्धा
ज्ञान अने ध्यान करवुं ते ज शुद्धिनी वृद्धिनुं कारण छे अने ते ज मोक्षनुं कारण छे.
रत्नत्रयनी आराधनापूर्वक मोक्ष पण जीव एकलो पामे छे.
दरेक जीवना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव भिन्न छे. दरेक जीव परम शुद्ध छे.
शुद्धस्वभावने आठ कर्म, शरीर, विभावभाव के अन्य कोईनो संयोग नथी, असंयोगी
तत्त्व छे. पुण्य-पाप भावथी रहित, निरंजन निज परमात्मानी श्रद्धा-ज्ञान-रमणता
करवी ते मोक्षनो मार्ग छे. ए मोक्षमार्ग प्रगट करवो ते पोताना स्वतंत्र पुरुषार्थथी
थाय छे, तेमां कोई मददगार नथी.
हवे कहे छे के भाई! तुं निर्मोही थई आत्मानुं ध्यान कर!
एक्कुलउ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि ।
अप्पा सायहि णाणमउ लहु सिव–सुक्ख लहेहि ।। ७०।।

Page 137 of 238
PDF/HTML Page 148 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१३७
हे आत्मा! तुं एकलो ज छो माटे राग-द्वेष-मोहादि सर्व परभावोनो त्याग
करीने, निर्मळानंद, ज्ञानमय, सदा शुद्ध पवित्र निज आत्मानुं ध्यान कर! तो तने शीघ्र
मुक्तिसुख मळशे.
आत्मा जाणग...जाणग...जाणगस्वभावी छे. ‘ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां त्यां हुं अने
ज्यां ज्यां ज्ञान नहि त्यां त्यां हुं नहि.’ भक्तिमां, रागादिना भावमां ज्ञान नथी माटे
ते हुं नहि. हुं चैतन्यमात्र छुं एम जाणीने रागादिनो त्याग करी निज ज्ञानमय
आत्मामां एकाग्र थवुं तेनुं नाम योगसार छे.
हे भव्यो! तमे एवुं काम करो के जेथी आत्मा पोतानी ज्ञानभूमिकामां आवी
जाय. देह छूटयां पहेलां आ प्रयत्न करी ले. घर बळे त्यारे कूवो खोदवा न बेसाय.
माटे मरतां पहेलां आत्मानो यत्न करी ले. मानवदेहथी ज शिवपद मळी शके छे. देव,
नारक, पशुगतिमांथी शिवपद नहि मळे. माटे आ अमूल्य अवसर खोवा जेवो नथी.
रागादि परभाव मारी ज्ञानभूमिकाथी बहार छे. बहारमां-संयोगोमां तो
क्यांय आत्माने एकाग्र थवानुं-ठरवानुं स्थान नथी. पण पोताना राग-द्वेष-
मोहभावमां पण क्यांय ठरवानुं स्थान नथी. मात्र ज्ञानस्वरूपी पोताना आत्मामां ज
पोताने ठरवानुं स्थान छे. माटे, पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां ज ठरवानुं स्थान
जाणी, स्वभावनो परम रुचिवान थईने तेमां ज मग्न थवानो, आत्मिक आनंद प्राप्त
करवानो उद्यम कर! अखंड ज्ञानमय वस्तु ते मारुं द्रव्य, असंख्यप्रदेश मारुं क्षेत्र, एक
समयनी पर्याय ते मारो काळ अने ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि मारो शुद्धभाव छे ते
खरेखर मारुं सर्वस्व छे. जे भावमां परनो आश्रय छे ते भाव मारा नथी. हुं तो
एकाकार, अखंड शुद्ध, स्वसंवेदनगम्य एक अविनाशी पदार्थ छुं. तेना श्रद्धा-ज्ञान-
चारित्र ते मारो स्वभाव भाव छे ते एक ज मोक्षमार्ग छे.
हवे योगीन्द्रदेव खूल्लुं करे छे के पुण्य पण पाप छे.
जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेई ।
जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह (? ) को वि हवेइ ।। ७१।।
पापरूपने पाप तो, जाणे जग सहु कोई;
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१.
हिंसा, जूठुं, चोरी, परिग्रह, अब्रह्म आदि भावने तो आखुं जगत पाप कहे छे
पण दया-दान, अहिंसा, सत्य आदि पुण्यभावने पण पाप कहेनारा तो विरला ज्ञानी
ज छे. पुण्यतत्त्व पण पाप ज छे एम अहीं सिद्ध करे छे.
ज्ञानीने पण अशुभथी बचवा शुभभाव आवे छे पण पोतानो स्वभाव
अमृतस्वरूप छे तेमांथी पतित थईने पुण्यभावमां आववुं ते निश्चयथी पाप छे. पुण्यनुं
फळ झेर छे. पुण्यना फळमां संसार फळशे. माटे ज्ञानी पुण्यने पण पाप कहे छे.
निश्चयथी पोताना शुद्ध स्वरूपने छोडीने जे कांई शुभ-अशुभ भाव आवे छे ते बधां
अपवित्र भाव छे,

Page 138 of 238
PDF/HTML Page 149 of 249
single page version

background image
१३८] [परमात्मा
अमृतने-आनंदने लूंटवावाळां छे, मदद करनार नथी. माटे ते बधां भावो पाप छे,
संसारनुं फळ आपनारा छे. सर्वज्ञदेव दिव्यध्वनिमां फरमावे छे के आनंद तारा
आत्मामां छे. परभावमां तो एकलुं दुःख छे.
श्री कुंदकुंद आचार्य समयसार गाथा र९प मां कहे छे के प्रथममां प्रथम आत्मा
अने बंधनुं लक्षण ओळखीने ते बन्नेनुं भेदज्ञान करवानुं छे. आत्मार्थीनुं पहेलांमां
पहेलुं कर्तव्य ए छे के ज्ञानस्वरूपी आत्माने ओळखीने तेनी श्रद्धा करवी अने बंध
तत्त्वने ओळखीने तेनो सर्वथा छेद करवो. भवभ्रमणथी छूटवुं होय तेणे पुण्य-पाप
भावनो सर्वथा छेद करीने अमृतस्वरूप आत्माने ध्याववो.
हे भाई! तुं सर्वज्ञदेवनी वाणी सांभळीने, विचारीने, निर्णय तो पहेलां साचो
कर! निर्णयमां ज ठेकाणुं नहि होय तो मार्ग हाथ क्यांथी आवशे? पुण्य-पापभावरूप
बंधतत्त्व अने अबंधस्वरूपी निज आत्मा ए बन्नेनुं भेदविज्ञान करवानुं छे. पुण्य-
पापभाव ते मारुं स्वरूप ज नथी एम पहेलां नक्की करीने अबंधस्वरूप निज परम
पावन परमात्मानी श्रद्धा-ज्ञान अने अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे.
साधारण रीते सर्व जीवो पापभावने हेय अने पुण्यभावने उपादेय माने छे.
पुण्यनां फळमां सुख मळवानी आशा राखे छे. केम के पुण्यथी ज इन्द्र, चक्रवर्ती,
बळदेव, वासुदेव आदि महावैभवयुक्त पदवी प्राप्त थाय छे. पण ए पदवीओ पण
मात्र दुःखस्वरूप छे. पुण्य-पाप बन्ने एक ज जातनां छे, बन्नेनुं फळ संसार अने
दुःख ज छे. एवुं जाणनारां तो कोई विरल, बुद्धिमान, ज्ञानी ज होय छे. जेनाथी
संसारमां रहेवुं पडे, विषयभोगमां फसावुं पडे, एवुं स्वाधीनताघातक पुण्य पण पाप
ज छे-एम ज्ञानी माने छे.
आत्मा मोटो ताकातवान छे. ऊंधो पुरुषार्थी होय तो समवसरणमां तीर्थंकरना
समजाववाथी पण न समजे अने सवळो पुरुषार्थी समकिती उपरथी अग्निनी वर्षा वर्षे,
परिषहोना पार न रहे तोपण पोतानी श्रद्धाथी डग्यो न डगे. उपरथी देव आवीने
परीक्षा करे के पुण्यथी लाभ मान तो तने परिषहोथी बचावुं, नहि तो मारी नाखीश,
तोपण डगे नहि. ते जाणे छे के कोण कोने मारी शके छे? अमे तो पुण्य-पाप रहित
अमारा आत्माथी लाभ मानीए छीए. पुण्यथी लाभ त्रणकाळमां कदी न थाय. ज्ञानीने
आत्माना आनंद पासे बीजा बधां भावो तुच्छ लागे छे. पुण्य-पापभाव बन्ने दोष छे.
बंधन अपेक्षाए बन्ने समान छे. बन्नेना बंधन-कारण कषायनी मलिनता छे.
बन्नेनो अनुभव स्वाभाविक अनुभवथी विरुद्ध छे. अतीन्द्रिय शुद्ध भावथी बन्ने
विपरीत छे. माटे ज्ञानी पुण्य-पाप बन्नेने लाभदायक मानता नथी.
पुण्य-पापभावमां तन्मय थवाथी बंधन थाय छे तेथी मोक्षमार्गना ते विरोधी
छे. आत्माना धर्मना ते लूंटारां छे वीतरागमार्गनी आवी वात पामर झीली शकतां
नथी ज्ञानी पुण्य-पाप अने भावने दुःखना कारण जाणी तेनाथी विरक्त रहे छे अने
कर्मक्षयकारक, आत्मानंद-दायक एक शुद्ध उपयोगने ज मान्य करे छे. तेने ज मोक्षनुं
कारण जाणे छे.

Page 139 of 238
PDF/HTML Page 150 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१३९
[प्रवचन नं. र६]
एम नक्की कर -
त्रिलोकप्रधान निज परमात्मा
आ देहमां ज बिराजमान छे
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. प-७-६६]
आ योगसार शास्त्र चाले छे. तेमां ७१ मो श्लोक छे. योगीन्द्रदेव कहे छे के
ज्ञानी पुण्यने पण पाप कहे छे.
जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेइ ।
जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह
(?) को वि हवेइ ।। ७१।।
पापरूपने पाप तो, जाणे जग सहु कोई;
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१
हिंसा, जूठुं, चोरी आदिना अशुभभावोने तो आखी दुनिया पाप कहे छे पण
अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिना शुभभावने पण पाप कहेनारा कोई
अनुभवी ज्ञानी ज होय छे. जेम पापभाव बंधनुं कारण छे तेम पुण्यभाव पण बंधनुं
ज कारण छे. बन्ने आकुळता उपजावनारा छे. माटे ज्ञानी बन्नेने पाप ज कहे छे.
कर्मक्षयकारक, आत्मानंददायक, एक शुद्धोपयोगने ज ज्ञानी मान्य करे छे एटले के
आदरणीय माने छे. जेवो परमात्मानो स्वभाव छे तेवो ज पोतानो आत्मा छे. एवा
आत्मानी द्रष्टि करतां जे शुद्ध आचरण प्रगटे छे ते ज उपादेय छे, हितकारक छे. पुण्य-
पापभाव कर्मबंधनना कारणो छे, तेनाथी विरुद्ध शुद्धभाव कर्मक्षयनुं कारण छे. पुण्य-
पापभाव दुःखकारक छे तो शुद्धात्मानी द्रष्टि, ज्ञान अने शुद्ध-उपयोग आनंददायक छे.
आत्मा पोते आनंदस्वरूप छे. तेथी तेनो अंतर व्यापार-उपयोग पण आनंददायक छे.
पुण्य-पाप भावमां-पुण्यमां आकुळता अने पापमां तीव्र आकुळता छे, पण बंन्नेमां
आकुळता अने दुःख ज छे.
धर्मीजीवने पण शुभ-अशुभभाव आवे छे पण धर्मी तेने हितकारक मानता
नथी. धर्मीनी द्रष्टि तो आत्मा उपर छे तेथी तेने तो एवी ज भावना होय छे के हुं
निरंतर मारा आत्मबागमां रमुं, आत्मामां एकाग्रता करीने निरंतर वीतरागभावनी
सेवा करुं अने सिद्ध समान मारा पदमां ज प्रेम करुं; एवी ज्ञानीने निरंतर भावना
रहे छे.
ज्ञानीने हजु आत्मविर्यनी कमी होवाथी कर्मोदयवश गृहस्थने योग्य बधां कार्य
करे छे.

Page 140 of 238
PDF/HTML Page 151 of 249
single page version

background image
१४०] [हुं
दया, दान, पूजा पण करे छे, पण तेनी पाछळ तेने पांच ईन्द्रियना भोगोनी लालसा
नथी. पुण्यबंध के पुण्यफळनी तेने चाहना नथी. जेनाथी पोतानुं शुद्धस्वरूप बंधनमां
आवी जाय एवा भावने ज्ञानी हितकर केम माने? न ज माने. धर्मी ज्ञानी शुद्ध-
स्वरूपना रुचिवंत धर्मात्मा मुक्तिना पथिक छे, संसारना पथिक नथी. बंधनथी
छूटवाना पथिक छे, तेथी पुण्यने पण पाप समान जाणीने छोडवा मागे छे.
जेने आत्मानो पवित्र धर्म प्रगट करवो छे अने पूर्णानंदस्वरूप मोक्षनी जेने
भावना छे तेणे सर्व पुण्य पाप छोडवा योग्य छे. तेनी द्रष्टिमां आत्मानुं ज्ञान होय,
आत्मानी रुचि होय, पुण्यभावनी रुचि न होय, तो ज ते साचो मोक्षार्थी छे.
हवे योगीन्द्रदेव कहे छे के पुण्यभाव सुवर्णनी बेडी छे अने पापभाव लोखंडनी
बेडी छे. बन्ने बेडी छे. बंधन करावनार छे, मुक्ति आपनार नथी.
जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि
जे सुहु असुह परिच्चयहिं ते वि हवंति हु णाणि ।। ७२।।
लोहबेडी बंधन करे, सोनानी पण तेम;
जाणी शुभाशुभ दूर करे, ते ज ज्ञानीनो मर्म. ७२
वनवासी दिगंबर संत कहे छे के हे पंडित! पापभाव लोखंडनी बेडी अने
पुण्यभाव सोनानी बेडी छे ए बन्ने बंधनभावथी रहित अबंध स्वभावी आत्मानी
द्रष्टि कर तो तुं साचो पंडित छो. पहेलां तो समजणमां एम ले के पुण्य-पाप बन्ने
बंधन छे, पछी ते बन्ने भावोनो त्याग कर. शुभाशुभभावनी द्रष्टि छोडी पूर्ण शुद्ध
निजस्वरूपमां आवी जा! पुण्य ठीक अने पाप अठीक एम माननार तो मिथ्याद्रष्टि ज
छे. पुण्य-पापभावमां चैतन्यनुं नूर-तेज नथी. बन्ने कर्म जीवने संसारमां फसावनार
छे. माटे मोक्षार्थीने उचित छे के ते बंने भावोने संसारमां बांधनार बेडी जाणीने तेनी
रुचि छोडीने मुक्तिनो उपाय करे.
जेम क्रोध-मान-माया-लोभ, हिंसा, चोरी आदि अशुभभावथी घातिकर्म बंधाय
छे तेम शुभभावथी पण घातिधर्म बंधाय छे. घातिकर्ममां एकली पाप-प्रकृति ज छे.
अघातिकर्ममां पुण्यभावथी अनुकूळ संयोगो मळे एवा शुभ कर्मो बंधाय छे अने
पापभावथी प्रतिकूळ संयोगो प्राप्त थाय तेवां अशुभ कर्मो बंधाय. पण ज्ञानावरणी,
दर्शनावरणी आदि चार घातिकर्मोमां तो शुभाशुभ बन्ने भावथी एकलो पाप बंध ज
पडे छे. आथी अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लीधो छे. एवा धर्मी जीवने शुभभावमां
तथा तेना फळमां मळतां पांच ईन्द्रियना विषयोमां पण रुचि नथी. तेमां सुखबुद्धि
थती नथी. कारण पुण्यपरिणामथी पण आत्मघात ज थाय छे.
पुण्यना फळमां प्राप्त थतां विषयोमां फसाई जवाथी अज्ञानी जीवो नरक निगोद
आदिमां चाल्या जाय छे. परमात्मप्रकाशमां योगीन्द्रदेव ज लखे छे के पुण्यना फळमां
वैभव मळे अने

Page 141 of 238
PDF/HTML Page 152 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१४१
वैभवमां अभिमान थतां पापभाव वडे जीव नरकमां चाल्यो जाय छे. पुण्यना फळमां
देवपद मळे अने देवमांथी सीधो एकेन्द्रियमां चाल्यो जाय. तृष्णामां देवना वैभव
भोगववानी इच्छा छे एवा मिथ्याद्रष्टिनी आ वात छे. पुण्यना फळ अने
इन्द्रियविषयोने भोगववानी लोलुपतामां देवपर्यायमां पण मिथ्याद्रष्टिजीव दुःखी छे अने
त्यांथी पाछो एकेन्द्रिय आदि हलकी पर्यायमां चाल्यो जाय छे. १२मां स्वर्ग सुधीना देवो
मरीने पशु थाय छे, नवमी ग्रैवेयक सुधीना देवो मरीने मनुष्य थाय छे अने त्यां पण
तृष्णारूपी रोगथी पीडाय छे. “आत्मभ्रांति सम रोग नहि.” आत्माने भूलीने
इन्द्रियसुख अने पुण्यमां प्रीति रहेवी ते ज आत्मभ्रांतिनो रोग छे. तेना जेवो बीजो
मोटो कोई रोग नथी.
पोते भगवान होवा छतां बहारनां संयोगो-मकान, स्त्री पुत्र, दौलत आदि जड
वस्तुओ पासे सुखनी भीख मागे छे. तृष्णारूपी क्षय रोग लागु पडयो छे, तेमां
पीडातो इन्द्रियविषयो पासे सुखनी भीख मागे छे पण प्रतिकूळता, रोग, निर्धनता
आदि दुःखना साधन मळवाथी जेवी आकुळता थाय छे तेवी ज आकुळता तुष्णारूपी
रोगथी थाय छे. आ जीवे अनंतवार देव, मनुष्य, मोटा राजा आदिना वैभवो प्राप्त
कर्या पण आ तृष्णारोग मटयो नहि. केम के आत्माना आनंदनी रुचि विना तृष्णानो
दाह शमन थई शक्तो नथी.
धर्मीजीव पांच इन्द्रियना विषयोने हेय-छोडवा लायक समजे छे. तेथी
विषयसुखना कारणभूत पुण्यधर्मने पण हेय समजे छे अने तेथी पुण्यकर्मना कारणभूत
शुभभावने पण ज्ञानी हेय समजे छे. तेथी विरुद्ध, अज्ञानी जीव इन्द्रियविषयोमां सुख
माने छे तेथी तेना कारण एवा पुण्य-कर्मना बंधनने पण सुखरूप माने छे अने तेना
कारणभूत शुभभावने पण सुखरूप अने उपादेय माने छे. शुभाशुभभावने जेणे अधिक
मान्या छे तेणे आत्माने हीन मान्यो छे, तेने आत्मा प्रत्ये प्रेम नथी पण विषयो अने
विषयोना कारण प्रत्ये प्रेम छे.
शुद्ध चिदानंद निज आत्मानी रुचिवाळो अनुभवी जीव भले पशु होय तोपण
तेने आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद छे, वास्तविक सुख छे. नानुं एवुं देडकुं होय के चकली
होय ते पण आत्मा छे ने! तेने आत्मानो अनुभव थई शके छे. भगवानना
समवसरणमां तो सर्प, सिंह आदि क्रूर हिंसक प्राणीओ पण जाय छे. त्यां जो आत्मानी
द्रष्टिपूर्वक अनुभव करी ले तो तेने पण अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे. कोई तो विशेष
लीनता करीने पांचमुं गुणस्थान पण प्रगट करे छे. पछी ए रात्रे खोराक के पाणी न
ले अने दिवसे पण निर्दोष खोराक वनस्पति आदि मळे तो ज ले. आवा पशु पण
पोताना शुद्धस्वरूप सिवाय बीजा कोई विषयोमां आनंद मानता नथी. ज्यारे आत्माना
स्वरूपथी अजाण मोटा शेठिया होय तोपण पुण्य-पापना भाव अने तेना फळमां सुख
मानीने आकुळताने वेदे छे.
समकितीने तो नरकमां पण अतीन्द्रिय आनंद छे. “बाहिर नारकीकृत दुःख
भोगत, अंतर सुखरस गटागटी.” आत्माना शुद्ध-उपयोगनी द्रष्टिने कारणे नरकना
असह्य दुःखनी वच्चे पण समकितीने सुखनी गटागटी छे. आहाहा...! क्यां ज्ञानी पशु,
क्यां मिथ्याद्रष्टि शेठिया! मिथ्याद्रष्टिदेव नवमी ग्रैवेयकमां पण आकुळता वेदे छे अने
सातमी नरकमां कोई

Page 142 of 238
PDF/HTML Page 153 of 249
single page version

background image
१४२] [हुं
राजा मरीने जाय ने त्यां याद आवी जाय के संतोए अमने कह्युं हतुं के स्वभावनुं
साधन करवामां तमे स्वतंत्र छो-एम करीने ज्यां अंतरमां द्रष्टि करे छे त्यां
अनुभवमां अतीन्द्रिय आनंद पामे छे. आ अतीन्द्रिय आनंदनुं कारण स्वभावनी द्रष्टि
अने अनुभव छे. अज्ञानीने पुण्यनी रुचि छे तेना कारणे स्वर्गमां दैवी सुखोनी वच्चे
पण ते एकली आकुळताने ज वेदे छे.
हवे ७३ मी गाथामां योगीन्द्रदेव फरमावे छे के ‘भावनिर्ग्रंथ ज मोक्षमार्गी छे.’
जइया मणु णिग्गथु जिय तइया तुहु णिग्गथु ।
जइया तुहुं णिग्गथु जिय तो लब्भइ सिवपंथु ।। ७३।।
जो तुज मन निर्ग्रंथ छे, तो तुं छे निर्ग्रंथ;
ज्यां पामे निर्ग्रंथता, त्यां पामे शिवपंथ. ७३.
हे आत्मा! जो तें मनमां रागनी एकता तोडी छे, मिथ्यात्वनी ग्रंथिने भेदी
नाखी छे अने शुद्ध आत्मानी द्रष्टि करी छे तो तारुं मन निर्ग्रंथ छे रागथी एकता
तोडी, आत्मसंपदामां एकत्व कर्युं छे तेनुं मन खरेखर निर्ग्रंथ छे, अने हे जीव! जो
तारुं मन निर्ग्रंथ छे तो तें मोक्षपंथ प्राप्त करी लीधो छे. बाह्यमां द्रव्यलिंग पण आवे
ज छे पण जो तें भावनिर्ग्रंथ दशा प्राप्त करी लीधी छे तो तुं समज के तुं शिवपंथी थई
गयो, बाह्यमां द्रव्यनिर्ग्रंथ दशा होय पण भावनिर्ग्रंथता न होय तो मोक्षमार्ग नथी
एम अहीं बताववुं छे.
श्रद्धा-अपेक्षाए समकिती पण भावनिर्ग्रंथ छे. निज शुद्धस्वभावनी प्रीति, द्रष्टि
अने अनुभव करनार समकितीने राग उपर प्रीति नथी माटे ते खरेखर भावनिर्ग्रंथ
छे. ज्यां सुधी वस्त्रनुं ग्रहण छे त्यां सुधी परिग्रहनो पूरो त्याग नथी. पण प्रथम तो
अंतरंगमां मनने ग्रंथिरहित करवुं जोईए. मनमां दया-दानना विकल्प ऊठे छे ते पण
रागनी गांठ छे. ते गांठने प्रथम भेदी मनने निर्ग्रंथ बनाव्युं छे ते मोक्षमार्गी छे.
आत्मा वस्तु पोते निर्ग्रंथ छे तो तेनी द्रष्टि करवावाळो पण भावथी निर्ग्रंथ छे. पण
बहारमां केवळ द्रव्यथी निर्ग्रंथनो एक पण भव ओछो थाय तेम नथी.
भावनिर्ग्रंथ जीवने अंतरनो परिग्रह न होय. मनमां रहेल सर्व राग-द्वेष
भावनी मलिनताने दूर करी होय, सर्व जीव उपर समताभाव तथा करुणाभाव होय,
परम संतोषी होय अने ए भावनिर्ग्रंथ ज्ञानी जीवनी आत्मरसनी पिपासा घणी होय.
आवां लक्षणो युक्त होय ते ज भाव-निर्ग्रंथ छे. एथी विपरीत कोई जीव बधो
बाह्यपरिग्रह छोडी दे-स्त्री, पुत्र परिवार त्यागी जंगलमां रहेवा लागे पण
अंतरपरिग्रह-राग-द्वेष-मोहनो त्याग न करे तो ते निर्ग्रंथ नथी. तेने आत्मरसनो
लाभ प्राप्त थतो नथी. ते जीव मोक्षमार्गी नथी पण संसारमार्गी छे.
जेम चोखा उपरनुं फोतरुं काढी नाखे पण चोखानी लालाश न काढे तेने चोखानो

Page 143 of 238
PDF/HTML Page 154 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१४३
असल स्वाद आवतो नथी. तेम कोई जीव बाह्य संयोगोनो तो त्याय करी दे पण
अंतरमां शुद्धात्मानी द्रष्टि, अनुभव न करे, समदर्शी-समताभावने प्राप्त न थाय,
आत्मिक आनंदनो पिपासु न बने अने राग-द्वेष-मोहरूपी अंतरपरिग्रहने धारी राखे
तो तेने मोक्षनो लाभ प्राप्त थतो नथी, ते जीव साचो निर्ग्रंथ नथी. भाव-निर्ग्रंथ नथी,
द्रव्य निर्ग्रंथ छे.
सनातन वीतराग धर्म संतोए स्पष्ट बतावीने सहेलो करी दीधो छे.
आत्मतत्त्वनी द्रष्टि-ज्ञान अने अनुभवरूप रत्नत्रय ते ज शिवपंथ छे. तेना उपर
चालीने ज्ञानी मोक्षमां पहोंची जाय छे.
हवे कहे छे के आ देहमां ज देव बिराजे छे एम नक्की कर!
जं वडमज्सहं बीउ फुडु बीयहं वडु वि हु जाणु ।
तं देहहं देउ वि मुणहि जो तइलोय–पहाणु ।। ७४।।
जेम बीजमां वड प्रगट, वडमां बीज जणाय;
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान.
७४.
जेम बीजमां वड प्रगट छे अने वडमां स्पष्टरूपथी बीज ज व्यापेलुं छे. तेम आ
शरीररूपी वडमां भगवान आत्मा बिराजमान छे. बीजमां जेम वड छे तेम
आत्मबीजमां परमात्मशक्तिनुं वड प्रगट छे. शक्तिमां परमात्मपणुं होय तो ज पर्यायमां
प्रगट थाय ने? त्रणलोकमां तारो आत्मा ज प्रधानदेव छे. भगवान अरिहंत अने
सिद्धप्रभु पण तारा माटे प्रधानदेव नथी. तारुं परमात्मपद ज तारा माटे प्रधान छे.
परमात्मा जेम पर्याये पूर्ण छे तेम दरेक जीव शक्तिए पूर्ण छे. एम पोतानी शक्तिनो
ज्यां सुधी विश्वास न करे त्यां सुधी द्रष्टि सम्यक् न थाय-सम्यग्दर्शन न थाय.
जेम लग्न वखते वरराजा तो एक दिवस माटे ज वरराजा छे, प्रधान छे पण हे
जीव! तुं तो त्रणे काळे अने त्रणे लोकमां प्रधान छो. तुं तारी शक्तिथी सदाय
त्रिलोकप्रधान छे.
बीजमां जेम वड व्यापक छे तेम भगवान आत्मा अनंत ज्ञान-दर्शनथी व्यापक
छे. आत्मा देहना आकारे देहमां रहेलो होवा छतां देहथी अत्यंत भिन्न पोताना गुण-
पर्यायमां व्यापेलो छे. आखा वडनां मोटा वृक्षमां मूळ बीज सर्वत्र व्यापेलुं छे. तेम
भगवान आत्मा पोतामां सर्वत्र व्यापेलो छे. केवळज्ञान आदि अनंत पर्यायोनुं बीज
तो आत्मा छे माटे तुं ज तारो देव छो.
मोक्षार्थीए एम विचारवुं जोईए के मारे आराधवा योग्य, सेववा योग्य मारो
आत्मा ज छे. देहनो आकार जेवो छे तेवो ज मारा आत्मानो आकार छे. तेमां अनंत
आनंद आदि अनंत गुणो बिराजमान छे ते ज मारे आराधवा योग्य छे.

Page 144 of 238
PDF/HTML Page 155 of 249
single page version

background image
१४४] [हुं
[प्रवचन नं. २७]
सर्व सिद्धांतोनो सारः-
हुं ज परमात्मा छुं – एम नक्की कर
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ६-७-६६]
आ योगसार शास्त्र छे. देह, मन, वाणी आदि जड पदार्थ अने पुण्य-पाप
आदि विकारीभावथी भिन्न शुद्ध सच्चिदानंद निज आत्मामां जोडाण करवुं तेनुं नाम
योगसार छे.
अहीं ७४ मी गाथामां द्रष्टांत आपीने योगीन्द्र मुनिराज समजावे छे केः-
जं वडमज्सहं बीउ फुडु बीयहं वडु वि हु जाणु ।
तं देहहं देउ वि मुणहि जो तइलोय–पहाणु ।। ७४।।
जेम बीजमां वड प्रगट, वडमां बीज जणाय;
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान.
७४.
जेम बीजमां वड छे तेम आ आत्मस्वभावमां पूर्ण परमात्मस्वरूप शक्तिरूपे
भर्युं छे. जेम लींडीपीपर कदमां नानी अने रंगमां काळी होय छतां तेनी अंदरमां ६४
पहोरी एटले पूरेपूरी तीखाश भरी छे तो तेने घसतां बहारमां तीखाश प्रगट थाय छे.
अंदरमां तीखाश हती तो बहार आवी. माटे प्राप्तनी प्राप्ति छे. तेम दरेक आत्मामां
ज्ञान, आनंद आदि अनंतगुणोनी पूर्ण शक्ति अंतरमां पडी छे, तेमांथी ते प्रगट थाय
छे. आ भगवान आत्माना अंतरसत्त्वमां-ध्रुवशक्तिमां पूर्ण ज्ञान-आनंद व्यापक छे,
पण आ जीवने जगतनी चीजोनी तो महत्ता आवे छे पण पोताना स्वभावनी महत्ता
आवती नथी.
वडना बीजमां वड छे तो तेमांथी वड थाय छे. बीजमां वड न होय तो वड
क्यांथी थाय? कांकरा वावीने एमां पाणी तो शुं दूध पाय तोपण तेमांथी वड न थाय. केम
के कांकरामां वड थवानी ताकात नथी. अरे! लींबोळीमां पण वड थवानी ताकात नथी.
वडना बीजमां ज वड थवानी ताकात छे. आ बधुं लोजिकथी-न्यायथी समजवुं जोईए.
कूवामां पाणी होय तो अवेडामां आवे केम के प्राप्तनी प्राप्ति थाय. दरेक
आत्मामां अतीन्द्रिय ज्ञान, आनंद आदिनी ताकात प्राप्त छे, तेमांथी पर्यायमां तेनी
प्राप्ति थतां परमात्मा थवाय छे.
लोटाना आकार जेवो ज अंदरमां रहेलां पाणीनो आकार छे पण ए पाणीनो
आकार लोटाथी भिन्न छे. तेम आ चिदानंद भगवान आत्मा के जे शरीरनी अंदर
रहेलो छे तेनो आकार शरीर जेवो छे पण ते शरीरथी भिन्न छे.

Page 145 of 238
PDF/HTML Page 156 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१४प
आ आत्माना स्वभावमां अनंत ज्ञान, अनंत आनंद आदि अनंत शक्ति भरी
छे. जेनो स्वभाव ज जाणवानो छे ते कोने न जाणे? स्वभावने मर्यादा शेनी? ए तो
बधांने जाणे. स्वभावने मर्यादा न होय.
आत्माना दरेक गुणो अमाप छे. अमाप आनंद, अमाप शांति, बेहद ज्ञान,
बेहद दर्शन आदि बधी अमाप शक्तिओनो रसकंद ते आत्मा. आवो आ आत्मा शरीर
प्रमाण होवा छतां त्रणलोकमां मुख्य-प्रधानपदे छे.
जे परमात्मा थई गया ते पोतानी स्वतंत्र शक्तिथी थया छे अने जे परमात्मा
थशे ते पण पोतानी स्वतंत्र शक्तिथी थशे. केम के दरेक आत्मानी शक्ति स्वतंत्र छे.
जेम लाखो-करोडो लींडीपीपरनी गुणो भरी होय, तेमांनी दरेके-दरेक पीपर ६४ पहोरी
पूर्ण शक्तिथी भरी छे तेम अनंता आत्माओ पोत-पोतानी स्वतंत्र शक्तिथी
बिराजमान छे.
आवा आत्माने हे जीव! तुं शरीरथी न जो! कर्मथी न जो! पर्यायना भेदथी न
जो! पण एकरूप स्वभावथी जो! स्वभाव उपर द्रष्टि करवाथी ज श्रद्धा-ज्ञानमां बधी
शक्तिओनी झलक प्रगट थाय छे, अनुभवमां आवे छे. वर्तमान पर्यायमां थतां देखाय
छे ते स्वभाव नथी. तेनो नाश थतां स्वभाव प्रगट थशे. अल्पज्ञता दूर थतां पूर्णता
प्रगट थशे. रागमांथी के अल्पज्ञतामांथी पूर्णता आवती नथी. पूर्णता स्वभावमांथी
प्रगट थाय छे.
जेम पीपरने तेनी शक्तिना सत्त्वथी जोईए तो अल्प तीखाश काळापणुं
तेनामां नथी. ते तो पूर्ण तीखाश अने लीला रंगथी भरेलुं तत्त्व छे. तेम भगवान
आत्माने तेना स्वभावथी जोईए तो कर्म के तेना संगे थयेलो विकार के कर्मना उदयनी
वधघटथी थयेली हीनाधिकता ए कांई तेना स्वभावमां नथी. सिद्धांत समजाववा माटे
आ बधां द्रष्टांत अपाय छे. तेमांथी सिद्धांत तारववानो छे.
जगतना जीवो भणी-भणीने भण्या, पण साचुं भणतर भण्या नहि. शास्त्र
भणीने पण तेनो सार समजे तो शास्त्र भणतर कामनुं छे. पोतानुं स्वरूप शुं छे? केवुं
छे? तेनो जीवे कदी विचार कर्यो नथी.
पूर्ण ज्ञान, पूर्ण आनंद, पूर्ण स्वच्छता, प्रभुता, शांति आदि पूर्ण स्वभावनी
द्रष्टि करता जे नवी पर्याय वर्तमानमां प्रगट थाय तेनी पण त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टिमां
अपेक्षा रहेती नथी. अनादि अनंत सत्...सत्...सत् छे....छे....छे...., जेनी आदि नहि,
उत्पत्ति नहि अने नाश पण नहि एवुं आत्मतत्त्व छे. तेनी दरेक शक्ति पण त्रिकाळ
सत् छे. त्रिकाळ स्वभावनी द्रष्टि करनारने शरीर तो नहि, विकार तो नहि, अधूरी
निर्मळ पर्याय तो नहि पण पूर्ण निर्मळ पर्याय जेटलो पण आत्मा देखातो नथी.
पूर्ण...पूर्ण...निर्मळ एकरूप वस्तु ज द्रष्टिमां देखाय त्यारे ज पर्यायमां सम्यग्दर्शन-
ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय छे. माटे आवी द्रष्टि करवी ते ज एक मुक्तिनो उपाय छे,
बीजो कोई उपाय नथी.

Page 146 of 238
PDF/HTML Page 157 of 249
single page version

background image
१४६] [हुं
द्रष्टिना जोरे ज्यारे कर्म के कर्मना निमित्ते थयेलां परिणाम ते हुं नहि, हुं तो
परिपूर्ण अखंडानंद एकरूप शुद्ध तत्त्व छुं एम द्रष्टि आत्मानो स्वीकार करे त्यारे
अंतरमांथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-शांति-आनंदना कणिया प्रगट थाय छे. माटे जेने सुख,
शांति अने स्वतंत्रता जोईती होय तेणे पूर्णानंद प्रभुनी द्रष्टि करवी ते ज एक उपाय छे.
चैतन्य स्फटिकना स्वभावमां पूर्ण निर्मळता छे. पुण्य-पापना लाल-काळा डाघनो
तेमां प्रवेश नथी. आवी द्रष्टि करवी ते धर्मद्रष्टि छे. धर्मद्रष्टिवंत जीवो ज सुखी छे. ते
सिवाय इन्द्र, नरेन्द्र, राजा-महाराजा, अबजोपति शेठिया ए बधां भिखारा छे, दुःखी छे.
स्वभावद्रष्टिथी जोतां दरेक आत्मा एक समान देखाय छे, माटे कोई शत्रु के
कोई मित्र नथी. तेथी स्वभावद्रष्टिवंतने कोई उपर राग-द्वेष थतो नथी. ए पण
भगवान छे. ज्यारे ए पोतानुं भगवानपणुं संभाळशे-स्वीकारशे त्यारे ए पण
भगवान बनी जशे. दरेकमां परमात्मशक्ति भरी पडी छे. माटे निर्ग्रंथ मुमुक्षुने उचित
छे के तेणे समतास्वभावमां स्थिर थवुं, लीन थवुं, रमवुं. सर्व नयोना विचारथी पण
मुक्त थईने आत्मानंदमां मस्त थवुं.
हवे ७प मी गाथामां कहे छे के जे परमात्मा छे ते ज हुं छुं-
जो जिण सो हउं सो जि हउं एहउ भाउ णिभंतु ।
मोक्खहं कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ७५।।
जे जिन ते हुं, ते ज हुं, कर अनुभव निर्भ्रान्त;
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न मंत्र न तंत्र. ७प.
आत्मानी पूर्ण वीतराग दशाने प्राप्त थयेला परमात्मा छे ते हुं ज छुं केम के हुं
ज पोते परमात्मा थवाने लायक छुं. योगीन्द्र देव कहे छे तारे मुक्तिनुं प्रयोजन होय
तो आम पहेलां नक्की कर! निर्णय कर के! “हुं ज परमात्मा छुं.”
जेणे आत्मामांथी राग-द्वेषनो नाश कर्यो, अल्पज्ञतानो नाश कर्यो अने
वीतराग, सर्वज्ञपणुं प्रगट कर्युं तेवा परमात्मा जेवो ज हुं छुं. मारी अने परमात्मानी
जातमां कांई फेर नथी. भगवान सर्वज्ञे जे दशाने प्राप्त करी तेवी दशाने धरनारो
शक्तिवान हुं पोते ज जिनेन्द्र छुं.
जेम तलमांथी काढेला स्वच्छ तेल जेवुं ज तेल तलमां भर्युं पडयुं छे तेम
वीतरागे जेवी दशा प्रगट करी छे तेवो ज हुं छुं. आवा आत्मानो द्रष्टिमां स्वीकार
करवो ते सुख पामवानो-परमात्मा थवानो सरळ-सीधो उपाय छे. आवी वात
सांभळवा मळवी पण बहु दुर्लभ छे.
दरेक आत्मा स्वभावे-शक्तिए एक समान छे. जेणे स्वभावनुं अवलंबन लई
पूर्णदशा प्रगट करी ते परमात्मा थया. हुं पण ए दशा प्रगट करवाने लायक छुं माटे हुं
पण परमात्मा छुं, जिनेन्द्र छुं.

Page 147 of 238
PDF/HTML Page 158 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१४७
जेम बरफनी शीतळ शिलामां खूणे-खांचरे, उपर-नीचे, मध्यमां क्यांय गरमीनो
अंश पण न होय तेम आ अविकारी चैतन्य पिंडमां क्यांय कषाय, राग-द्वेष नथी
एवी वीतराग शांतरसनी शिला आत्मा छे. भगवान आत्मा देहथी रहित,
शुभाशुभभावथी रहित अरूपी चिद्घन वीतरागी चैतन्यनी शिला छे.
भगवान कहे छे अरे प्रभु! तारा आत्मानी जात अने अमारा आत्मानी
जातमां कांइ फेर नथी. तें तारुं स्वरूप प्रगट कर्युं नथी एटलो ज फेर छे माटे परमात्मा
जेवा ज तारा आत्मानी निभ्रांत-भ्रांति रहित निःशंकपणे भावना कर! शक्तिए बधा
आत्मा भगवान छे. तुं तारी चैतन्यसत्तानो स्वीकार कर! जाणवुं... जाणवुं...जाणवुं...आ
जाणवानी ज्ञानशक्तिनी बेहदता, अचिंत्यता, अमापता छे ते हुं ज छुं, ज्ञाननी साथे
रहेलो आनंद ए पण हुं ज छुं. अतीन्द्रिय, बेहद अने पूर्ण आनंद मारुं ज स्वरूप छे.
आवा ज्ञान-आनंद स्वरूप आत्मानी द्रष्टि करतां-सत्यस्वरूपनो स्वीकार करतां पर्यायमां
जे सत्यदशा प्रगट थाय छे ते ज खरेखर आत्मानो निजधर्म छे.
ज्ञान-आनंदस्वरूप आत्मानो स्वीकार न करवो अने राग-द्वेषनो स्वीकार करवो
ते ज खरेखर हिंसा छे, केम के तेमां पोताना स्वरूपनो अनादर थाय छे. पीपरमां
रहेली ६४ पहोरी तीखाशनी अने लीलारंगनी जे ना पाडे छे ते पीपरना स्वभावनो
घात करे छे केम के तेमां अस्तिनी नास्ति थाय छे. तेम सत् स्वरूप पोताना भगवान
आत्मानो अस्वीकार करतां अस्तिस्वरूपनी नास्ति थाय छे ते ज हिंसा छे.
आ शास्त्रमां तो एकला तत्त्वना सिद्धांतो ज भर्या छे. भ्रांति छोडीने
निर्भ्रांतपणे एम भावनां करतां कर के ‘जे जिनेन्द्र छे ते ज हुं छुं.’ अल्पज्ञ अने
राग-द्वेषनी अवस्थामां होवा छतां हुं पूर्ण, अखंड वीतराग छुं, भगवान ज छुं एवी
निर्भ्रांत श्रद्धा करवी तेमां घणो उग्र पुरुषार्थ जोईए केटलुं जोर होय त्यारे आवो
निर्णय थई शके!
भाई! तारुं जोडाण अत्यारे परद्रव्य अने परभावमां थई रह्युं छे ते तने दुःखनुं
कारण छे. तेने छोडीने स्वद्रव्यमां जोडाण कर तो तने सुख थशे. भगवान आत्माना
पूरण स्वभावमां जे जीव द्रष्टि-ज्ञानने जोडे छे ते ज योगी छे. योगीनो ए वेपार ते ज
योग अने योग ते ज धर्म छे. आवुं योगीपणुं प्रगट कर्या विना गमे तेटला व्रत-तप
करे तोपण आत्मानुं कल्याण थाय तेम नथी. सर्वज्ञपिताए वारसामां आपेली
जिनवाणीना पाना खोलीने जीव भावथी वांचे तो तेने साचुं स्वरूप समजाय छे.
पूर्णानंदनी प्राप्ति थाय तेनुं नाम मोक्ष अने एवा पोताना त्रिकाळ पूर्णानंद
स्वभावनी द्रष्टि-ज्ञान करीने तेमां एकाकार थवुं ते एक ज मोक्षनो उपाय छे. आत्मानुं
त्रिकाळ पूर्णस्वरूप जेवुं छे तेवुं ज श्रद्धामां स्वीकारवुं, ज्ञानमां लेवुं अने तेमां स्थिर
थवुं ते ज पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षनो उपाय छे. जेवुं जिनेन्द्रनुं स्वरूप छे तेवुं ज आ
आत्मानुं मूळ स्वरूप छे. मात्र बन्नेनी सत्ता ज जुदी छे.

Page 148 of 238
PDF/HTML Page 159 of 249
single page version

background image
१४८] [हुं
निश्चयथी पोताना आत्मानी श्रद्धा-ज्ञान अने रमणता ते ज मोक्ष छे अने
वर्तमानमां जेटली अंतरमां एकाग्रता छे तेटलो धर्म छे अने जेटलो शुभाशुभनो
विकल्प छे ते बधो अधर्म छे. जे जीव भगवान अरिहंत, सिद्धना स्वरूपने एटले के
तेमनुं द्रव्य, अनंती शक्तिओ अने वर्तमान अवस्थाने जाणे तेने पोताना आत्माना
द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणवानो प्रयत्न थाय. आम भगवान जेवा ज पोताना आत्मानो
स्वीकार करवो, तेमां एकाकार थवुं ते ज स्वानुभवनी कळा छे.
स्वभावनी किंमत आवतां राग-द्वेष, पैसा, भोगादिनी किंमत ऊडी जाय छे.
अतीन्द्रिय सुखनी द्रष्टि थतां ईन्द्रियसुख अने तेना निमित्तो संयोगी पदार्थ अने
पुण्य-पापभावनी किंमत ऊडी जाय छे. मनुष्यदेहमां आ वस्तु पामवानो अमूल्य
अवसर छे तेने जो जीव चूकी जशे तो चोराशीना अवतारनी खीणमां डुबी जशे.
त्यांथी तेने बचावनार कोई नथी.
☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯
आ अल्प आयुष्य अने चंचळ कायाने
ए (मोक्ष) मार्गमां खपावी देतां जो परम शुद्ध
चैतन्यघन अविनाशी निःश्रेयसनी प्राप्ति थती
होय तो तने फूटी कोडीना बदलामां चिंतामणी-
रत्नथी पण अधिक प्राप्त थयुं छे एम समज.
हे जीव! सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र अने तप ए
चार आराधनानी उत्तरोतर वृद्धि अने शुद्धिमां
तारा आ मानवजीवननो जे काळ छे, तेटलुं ज
तारुं सफळ आयुष्य छे एम समज. ३७.
(श्री आत्मानुशासन)
☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯☯

Page 149 of 238
PDF/HTML Page 160 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१४९
[प्रवचन नं. २८]
एकरूप निज–परमात्मामां स्थिरता ते निश्चय
निज–परमात्मानो अनेकरूप भेद–विचार ते व्यवहार
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ७-७-६६]
श्री योगसार ए आगमनो सार छे. जेने आत्मानुं हित करवुं होय तेणे क्यां
जोडाण करवुं अने क्यांथी खसवुं तेनी आमां मुदनी वात छे.
राग-द्वेषादिथी खसी पोताना पूर्णस्वरूप उपर द्रष्टि देतां आत्मानुं हित एटले के
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय छे. अहीं ७६ मी गाथामां आत्माना गुणोनी
भावना करवानुं कहे छे. जो के पोताना पूर्णस्वरूपमां ज लीन थवानुं छे परंतु ज्यां
सुधी तेमां पूर्णपणे लीन न थई शके त्यां सुधी तेना जुदा-जुदा गुणोना विचार करवा
एम अहीं कहे छे.
बे ते चउ पंच वि णवहं सत्तह छह पंचाहं ।
चउगुण–सहियउ सो मुणह एयई लक्खण जाहं ।। ७६।।
बे, त्रण, चार ने पांच, छ, सात, पांच ने चार;
नव गुणयुत परमातमा, कर तुं ए निर्धार. ७६
अनंत गुणनुं एकरूप आत्मस्वरूप छे तेनुं लक्ष करीने तेमां स्थिर थवुं ते
निश्चय छे अने स्थिर थवा पहेलां पोताना विविध गुणोनो विचार करवो ते व्यवहार
छे. नजीकनो व्यवहार आ छे. देव-शास्त्र-गुरु आदिनी भक्तिनो व्यवहार ते बहारनो
दूरनो व्यवहार छे-पोताना गुणोनो विचार करवो ते नजीकमां नजीकनो व्यवहार छे.
आनंदस्वरूप, वीतरागस्वरूप, अनंतगुणना गोदाम स्वरूप आत्माने ज्ञायकरूपे
भाववो-एकरूपे भाववो ते धर्म करनारनुं मुख्य कर्तव्य छे पण तेमां स्थिर न थई शके
त्यारे धर्मी बे, त्रण, चार एम विविध प्रकारे आत्माना गुणोनो विचार करे छे,
भावना करे छे ते व्यवहार छे. आ योगसारनो व्यवहार पण जुदी जातनो छे. टूंकामां
बहु सरस वात करी छे.
मोक्षार्थी जीव ज्यारे एक ज्ञायकस्वभावमां स्थिर न थई शके त्यारे
व्यवहारनयथी आत्मा गुण-पर्यायवाळो छे एम विचार करे छे. जाणनार-देखनार
आत्मा पोताना मूळ स्वरूपने जाणीने तेमां ठरे ए तो एनुं मुख्य कर्तव्य छे पण
पोताना पुरुषार्थनी कमजोरीने कारणे स्वभावमां ठरी न शके तो मारो आत्मा
ज्ञानस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे, सुखस्वरूप छे, वीर्य, स्वच्छत्व, प्रभुत्व आदि अनंत
शक्तिस्वरूपे मारो आत्मा बिराजी रह्यो छे एवो विचार करे ते व्यवहार छे.