Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 20-24.

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११०] [हुं
प्रीतिपूर्वक पोतानी वात सांभळे तो अवश्य मुक्तिनुं भाजन बने. अनंतगुणमय
आत्मामां अनादि अनंत एक प्रकाश नामनो गुण छे, जेनाथी आत्मा प्रत्यक्ष थाय.
परोक्ष न रहे. ४७ शक्तिमां आ ‘प्रकाश’ नामनी १रमी शक्ति छे. सीधो प्रत्यक्ष थईने
पोते पोताने जाणे एवो आ गुण छे. पोताने जाणीने पोतामां-निज आत्मामां रहेवुं ते
ज आत्मानुं घर छे. पोतानुं ज्ञान ज पोताना वस्त्र छे. निज आत्मिक रस ए ज
पोतानुं भोजन छे. अने आत्मिक शैया ए ज ज्ञानीनी शैया छे. आवी रीते आत्माने
प्रत्यक्ष जाणीने जे वेदे छे ते संसारथी मुक्त थाय छे माटे पोते पोतानुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन
करवुं ते ज मुक्त थवानी विधि छे, ए सिवाय मुक्तिनी बीजी कोई विधि नथी.
पांच पद शरणरूप छे एटले के पांच पदरूप पोतानो
आत्मा ज शरणरूप छे. कह्युं छे ने! के वर्तमानमां
सिद्धदशा तो नथी, तो सिद्धनुं ध्यान केम होय! जूठ-मूठ
छे; अरे! अंदरमां शक्तिरूप सिद्ध स्वभाव तो वर्तमानमां
मौजुद छे अने तेथी तेनुं ध्यान करतां प्रत्यक्ष शान्तिनुं वेदन
आवे छे. आत्मा स्वभावे त्रिकाळ सिद्ध स्वरूप ज छे.
-पूज्य गुरुदेव

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परमात्मा] [१११
[प्रवचन नं. र०]
भाई! तारा परमात्मानी ओळखाण कर!
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. र८-६-६६]
आ योगसार शास्त्र चाले छे. प६ गाथा पूरी थई छे प६मी गाथामां एम
आव्युं के ‘आ आत्मा ज्ञानस्वरूप छे’ ते ज्ञानने ज्ञानथी प्रत्यक्ष न जाणे त्यां सुधी
एने आत्मानुं कांई कार्य थाय नहीं. चैतन्य चैतन्यने प्रत्यक्ष जाणीने वेदनमां ले अने
तेमां स्थिर थाय तो जीवनी मुक्ति थाय.
रयण दीउ दिणयर देहिउ दुध्दु धीव पाहाणु ।
सुण्णउ रूउ फलिहउ अगिणि णव दिट्ठंता जाणु ।। ५७।।
रत्न दीप रवि दूध दहीं, घी पत्थर ने हेम;
स्फटिक रजत ने अग्नि नव, जीव जाणवो तेम. प७.
आ गाथामां ९ द्रष्टांत वडे आत्मानुं स्वरूप समजाववामां आव्युं छे.
१. आ आत्मा रत्न समान छे. जेम रत्न प्रकाशमय छे तेम आ आत्मा ज्ञान-
प्रकाशमय छे. रत्न जेम नित्य-कायम टकनार छे, तेम आत्मा ज्ञानस्वरूपे अविनाशी
कायम टकनार छे. रत्न जेम किंमती चीज छे तेम आत्मा पण अलौकिक अचिंत्य
सम्यग्ज्ञान स्वरूप महा किंमती-अमूल्य चीज छे. आत्मज्ञानरूपी रत्नना स्वामी
सम्यग्द्रष्टि झवेरी छे. गमे तेवुं रत्न होय पण तेनी किंमत आंकनार झवेरी वगर तेनी
किंमत ओळखाय नहीं तेम समकिती झवेरी वगर मिथ्याद्रष्टि ज्ञानरत्नने पारखी न
शके. केम के शरीरनी क्रिया वडे के राग-द्वेष वडे तेनी परीक्षा थई शकती नथी.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रण रत्नो छे-पर्याय छे. ते त्रण रत्न वडे तेनी परीक्षा थई
शके तेम छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय प्रगट करे-किंमत भरे, तो चैतन्यरत्न
प्राप्त थाय.
र. आत्मा दीपक समान स्व-परप्रकाशक छे. दीवो जेम पोताने अने अन्य
पदार्थोने प्रकाशे छे पण पररूपे थतो नथी, तेम आ चैतन्य दीवो पोताने अने परद्रव्य-
गुण-पर्यायने प्रकाशनारो छे पण ते परद्रव्यरूपे थई जतो नथी. शरीरने जाणे, राग,
कर्म, पुद्गल आदि बधांने जाणे पण ते-रूपे थई जतो नथी. जडदीवो तो बुझाई जाय
छे पण आ चैतन्यदीवाने मननी-रागना विकल्परूप तेलनी जरूर नथी झळहळ
ज्योति, अनादि अनंत देहरूपी देवळमां बिराजमान छे. वळी सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काळभावने
एक समयमां जाणी ले एवो स्व-परप्रकाशक चैतन्यदीवो छे.

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११र] [हुं
३. आत्मा सूर्य समान प्रकाशमान अने प्रतापवान छे. पोतानी प्रभुताथी
भरेलुं, अनादि अनंत तत्त्व स्वतंत्रपणे पोताना अखंड प्रतापथी शोभे छे. अनंत
वीर्यनो-अनंत बळनो सूर्य भगवान आत्मा छे. सूर्य तो आतापवाळो छे पण
चैतन्यसूर्य तो परम शांत छे. जगतमां सूर्य तो असंख्य छे पण पोतानो चैतन्यसूर्य
तो अनुपम छे. द्रव्यस्वभाव-वस्तुस्वभावरूप आ सूर्य कदी कोईथी ढंकातो नथी. कर्मथी
अवराई जाय के रागना विकल्पमां ग्रसाई जाय एवो आ सूर्य नथी. ज्यारे बहारनो
सूर्य तो मेघ अने ग्रहोथी ढंकाई जाय छे. चैतन्यसूर्य स्वयं परमानंदमय छे. एने जे
देखे तेने ते आनंदकारी छे. शुद्धात्मा पोते ज्ञान ने आनंदनो दातार छे. वळी ते सदा
निरावरण अने नियमित पोताना असंख्यप्रदेश-स्वप्रदेशमां रहेनारो छे. देहमां रहेवा
छतां पोताना आकारे रहे छे.
४. दूधमांथी जेम दहीं थाय छे तेम दूध समान पोताना भगवान आत्मानुं
एकाग्र ध्यान करवाथी दहींनी जेम मीठाश प्रगट थाय छे अने दहींमांथी घी थाय तेम
ध्यान द्वारा आत्मानी मुक्ति थाय छे. दूध मेळवतां दहीं थाय तेम आत्मामां एकाग्र
थतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय अने दहीं वलोवतां माखण अने धी थाय
तेम आत्मामां विशेष लीन थतां मुक्तिरूपी घी प्रगट थाय छे.
मुमुक्षुए निज आत्मारूपी गोरसनुं ज निरंतर पान करवुं जोईए. पोतानो
आत्मा ज दूध, पोतानो आत्मा ज दहीं ने पोतानो आत्मा ज घी छे. एटले के शुद्ध
चैतन्यनुं सत्त्व ते दूध तेने मेळववाथी एटले तेमां एकाग्र थवाथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्ररूपी दहीं बने अने तेमां विशेष एकाग्र थवाथी केवळज्ञाननुं माखण मळे छे.
पछी मुक्तिरूपी घी तैयार थाय छे.
प. आत्मा पत्थर समान द्रढ अने अमीट छे. कणी न खरे एवा चीकणां पत्थर
होय तेम भगवान आत्मा असंख्य प्रदेशी अनंत गुणनो पिंड छे, तेमांथी एक पण
प्रदेश के एक पण गुण खरे नहि तेवो पत्थर जेवो आत्मा छे. अनंत ज्ञानादि
शक्तिमांथी एक पण शक्ति कदी ओछी थती नथी. चंद्र-सूर्य पण एक जातना पत्थर छे
तेमांथी एक कणी पण क्यारेय खरती नथी. पत्थर बीजी वस्तुने रहेवा स्थान न आपे
तेम आत्मा विकल्पने पण पोतामां स्थान आपतो नथी. अनंत गुणनो ढीम आत्मा
राग-कर्म-शरीरादिने स्थान आपतो नथी. मगशेळिया पत्थरने पाणी पण अडे नहि तेम
भगवान आत्माने राग अडतो नथी. रागनुं पाणी आत्मामां पेसी शकतुं नथी.
६. आत्मा शुद्ध सुवर्ण समान, परम प्रकाशमान, ज्ञानधातुथी अनादि अनंत
बिराजमान अद्भुत मूर्ति छे. मलिन सुवर्ण पोतानी योग्यताथी ज अग्निना संगे सो
टचनुं शुद्ध सुवर्ण बने छे तेम राग-द्वेष-मोहनी कालिमासंयुक्त आत्मसुवर्ण पण
पोतानी योग्यताथी ज पोतामां एकाग्रतारूप अग्निथी सो टचनो शुद्ध आत्मा बने छे.
स्वभावे तो शुद्ध हतो ज, ते पर्यायमां पण शुद्ध बने छे.
७. हवे चांदीनी उपमा आपे छे. आत्मा चांदी समान परम शुद्ध अने निर्मळ छे.

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परमात्मा] [११३
वीतरागतारूपी सफेदी आत्मामां भरी छे. संसारीओने व्हाला एवा सोना-चांदीनी
उपमा आपीने आत्माने समजावे छे. खरेखर तो आत्माने कोईनी उपमा ज लागु
पडती नथी एवो अनुपम आत्माराम छे.
ज्ञानी आत्मारूपी चांदीनो सदा वेपार करे छे, वीतरागतारूपी सफेदाई ज्ञानी प्रगट
करे छे. ए ज एनो वेपार-धंधो छे. राग-पुण्य-पाप करवा ते ज्ञानीनो धंधो नथी.
८. आत्मा स्फटिकमणि समान निर्मळ छे अने परिणमनशील छे. जेम
स्फटिकमणि लाल पीळी वस्तुना संयोगथी लाल-पीळा रंगनुं देखाय छे छतां
निर्मळताने खोई बेसतुं नथी. तेम आत्मा रागादि अवस्थाने धारतां छतां स्वभावे
निर्मळ अने शुद्ध ज रहे छे. बंधपणे थवुं एवो अबंधस्वभावी आत्मानो स्वभाव ज
नथी. परलक्षेममतारूपे पर्यायमां परिणमे ते परना लक्षे थाय छे. स्वभावना लक्षे
पर्यायमां पण अशुद्धता न आवे. आहाहा...! केवुं सीधुं सट-सरळ-सुलभ वस्तुनुं
स्वरूप छे! पोताना भाव (गुण) छोडीने विकाररूपे थाय एवुं वस्तुनुं स्वरूप ज नथी.
स्फटिकमणि समान निर्मळ आत्मस्वभावनी द्रष्टि करवाथी पर्यायमां पण निर्मळता
प्रगटे छे.
९. आत्मा अग्नि समान सदाय प्रज्वलित झळहळ ज्योति छे. जेम अग्निमां
प्रकाश, दाहक अने पाचक गुण छे, तेम आत्मामां दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रिकाळी गुण छे.
अग्नि प्रकाशे छे, अनाजने पचवे छे ने इंधणने बाळे छे तेम भगवान आत्मा स्व-
परने प्रकाशनारो छे. पूर्ण त्रिकाळीने पचावनारो छे एक समयमां हुं पूर्ण प्रभु छुं एम
पचावनारी शक्ति आत्मामां त्रिकाळ भरी छे अने चारित्र नामनो त्रिकाळ गुण एवो
छे के जे अज्ञान अने राग-द्वेषने बाळीने खाख करे छे. आ जाजल्यमान ज्योतिने
कोई ढांकी शके तेम नथी. आत्मरूपी अनुपम अग्नि कर्मइंधनने बाळनारी,
आत्मिकबळनी पोषक अने स्वभावज्ञान द्वारा स्व-परप्रकाशक छे.
आ नव द्रष्टांतोथी आत्माने ओळखीने पोताना स्वभावनो पूर्ण विश्वास
करवायोग्य छे एम आचार्यदेवे आ गाथामां कह्युं.
हवे प८ मी गाथामां कहे छे के देहादिरूप हुं नथी-ए ज्ञान मोक्षनुं बीज छे.
देहादिउ जो परु मुणइ जेहउ सुण्णु अयासु ।
सो लहु पावइ [?] बंभु परु केवलु करइ पयासु ।। ५८।।
देहादिकने पर गणे, जेम शून्य आकाश;
तो पामे परब्रह्म झट, केवळ करे प्रकाश. प८.
जेम आकाशने कोई पण पदार्थनो संबंध देखाय छतां तेने कोई साथे संबंध
नथी तेम भगवान आत्माने देह-वाणी-मन-माता-पिता कुटंब-घरना क्षेत्र-काळ
आदिना संयोगो देखाय छतां ए बधां संयोगोथी तद्न निराळो छे. आकाश सदा
एकलुं निर्लेप छे तेम

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११४] [हुं
आत्मा अत्यारे अने त्रणे काळ असंग अने निर्लेप छे. तेने परपदार्थ साथे कांई ज
संबंध नथी एवो आत्माने अंतरमां अनुभववो ते सम्यग्दर्शन मोक्षनुं बीज छे.
अग्निना भडका भड-भड बळतां आकाशमां देखाय, वादळ देखाय, वर्षा देखाय
छतां ए बधांथी आकाश निर्लेप छे तेम रोगरूपी भडकाथी आत्म-आकाश भिन्न-
निराळो छे. ९६००० स्त्रीओना वृंदमां पडेलो देखाय. हीरा-माणेकना मोटा हार पहेरेल
देखाय छतां चैतन्यचक्रवर्ती ए बधांथी असंग अने निर्लेप छे. माटे कहे छे के अनेक
संग-प्रसंगमां रह्यो छतां स्वभाव संग-प्रसंग रहित छे एवी द्रष्टि करनारने परमब्रह्म
परमात्मा प्राप्त थाय छे.
आ तो योगसार छे ने! एकलुं माखण भर्युं छे. अज्ञानी जीवने बहारमां ज
रुचि अने होंश छे. में आम कर्युं, में आम कर्युं-एम आवडतना अभिमान करीने हुं
बीजाथी अधिक छुं एम बतावीने होंश करे छे. तेने अहीं संतो कहे छे के तुं रागनी
होंश नहीं कर, ज्ञाननी होंश कर! ज्ञान तारो स्वभाव छे, बहारमां तो बधुं धूळ धाणी
अने वा पाणी छे.
अरे! संतो द्रष्टांतो पण केवा आपे छे! सिद्धांतने सिद्ध करे तेवा सचोट द्रष्टांत
आपे छे. धर्मास्ति, अधर्मास्ति, अनेक प्रकारना पुद्गलो, अनंता जीवो बधुं आकाशना
असंख्य प्रदेशनी अंदर छे छतां आकाशने ए परद्रव्यो अडतां पण नथी एम भगवान
सर्वव्यापक ज्ञायक ज्यां होय त्यां जाणनार...जाणनार...जाणनार...बस...जाणनार...पछी
भले ते नरकनां दुःखमां हो के स्वर्गना सुखमां हो, शरीरना तीव्र रोगमां हो के
तंदुरस्त नीरोग शरीरमां हो, पण निर्लेप चैतन्यपरमात्माने आ संयोग अडतां पण
नथी. आकाशनी जेम पोताना असंग परमात्मानी द्रष्टि करतां जीव पोताना
परमब्रह्मस्वरूप आत्माने प्राप्त करे छे अने क्रमे केवळज्ञान लक्ष्मीने वरे छे.
अनंता जीव-पुद्गलोनी विकारी परिणतिथी आकाशनी परिणतिमां विकार
आवतो नथी. आकाश तो आकाशपणे ज सदाय रहे छे. तेम ज्ञायक तो सदाय
ज्ञायकपणे ज रहे छे चैतन्यप्रकाशना तेज अचेतन विकल्परूपे पण कदी न थाय. आवा
निर्लेप चैतन्यने द्रष्टिमां लेवो ते एकमात्र मुक्तिनो-परमपद प्राप्तिनो उपाय छे.
आकाशनी सत्ता अलग अने आकाशमां रहेलां पदार्थोनी सत्ता अलग छे. तेम
धन, कुटुंब आदि परपदार्थोनी सत्ता अलग अने आत्मानी सत्ता तेनाथी अलग छे.
अरे! तेजस अने कार्मण शरीरनी सत्ता पण आत्मानी सत्ताथी जुदी छे. कषायनी
तीव्रता के मंदता तथा मन-वचन-कायानी सर्व क्रियाओथी आत्मा तद्न भिन्न छे.
आत्मानो कोई स्वामी नथी. ने आत्मा कोईनो स्वामी नथी. आत्मानुं कोई गाम नथी,
कोई धाम नथी. जुओ! आ भेदज्ञान छे. भेदज्ञान एटले जे चीजो जेवी छे तेवुं तेनुं
ज्ञान ते भेदज्ञान! मारामां परनो अभाव छे अने परमां मारो अभाव छे.
भले अनंत सिद्धो अने अनंत संसारी मारी सत्ता जेवा ज छे. छतां मारी
सत्ता अने ए जीवोनी सत्ता निराळी निराळी छे. मारा गुण तेनाथी निराळा छे. मारुं
परिणमन तेनाथी निराळुं छे. हुं संयोगो साथे एकमेक थयो नथी. हुं अनादिकाळथी
एकाकी रह्यो छुं अने अनंतकाळ एकाकी ज रहेवानो छुं.

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परमात्मा] [११प
[प्रवचन नं. २१]
निज आत्माने परमात्मा जाणवानुं फळ शुं?
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. र९-६-६६]
अहीं योगसारनी प८ गाथा पूरी थई. छेल्ली गाथामां आव्युं हतुं के जेम
आकाशमां अनेक पदार्थो रहेलां देखाय छे छतां ए दरेक पदार्थो पोतामां रह्या छे,
आकाशरूपे थया नथी, तेम ज्ञानमां पदार्थो जणाय छे तोपण पर पदार्थो आत्माथी जुदां
छे, पर पदार्थो आत्मामां नथी. आम आ प्रकारे आकाश अने आत्मामां समानपणुं
होवा छतां बे वच्चे फेर शुं छे ते हवे कहे छे.
जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु ।
आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ।। ५९।।
जेम शुद्ध आकाश छे, तेम शुद्ध छे जीव;
जडरूप जाणो व्योमने, चैतन्यलक्षण जीव. प९.
आकाशमां परद्रव्य नथी तेम आत्मामां पण परद्रव्य नथी. आकाश शुद्ध छे तेम
आत्मा पण पोताना स्वरूपे शुद्ध छे. पचरंगी वादळ हो के बीजा पांच द्रव्यो आकाशमां
हो, पण तेना रंगे आकाश रंगायेलुं नथी. सर्वद्रव्योथी आकाश अलिप्त छे, तेम आत्मा
विकार के परचीजथी रंगायेलो नथी. आवा शुद्ध आत्मानुं एकाग्र थईने ध्यान करवुं
तेने योगसार कहे छे.
आकाश शुद्ध छे अने आत्मा पण शुद्ध छे पण हे जीव! आकाश जड छे, तेनामां
चेतना नथी. ज्यारे आत्मा चेतन छे. आकाश आकाशनुं ध्यान करी शकतुं नथी केम के
तेनामां ज्ञान नथी, ज्यारे आत्मा पोतानुं ध्यान करी शके छे केम के ते ज्ञानवान छे
माटे ते बन्नेमां महान तफावत जाणी हे जीव! तुं ज्ञानस्वरूपी आत्मानुं ध्यान करजे!
आत्मा चेतनार छे, जाणनार छे, एकाग्र थनार छे, माटे जाणनारने तुं जाणजे.
चैतन्यस्वरूप शुद्ध छे तेनुं जाग्रत थईने ध्यान करतां पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे.
आकाश सर्वव्यापी छे तेनी साथे आत्माने सरखावे छे के आत्मा पण आकाशनी
माफक सर्वव्यापी छे. आकाश क्षेत्रथी सर्वव्यापी छे अने आत्मा भावथी सर्वने
जाणनारो छे माटे सर्वव्यापी छे.
दरेक द्रव्य परमस्वभावी छे. पारिणामिकभावे परमाणु, आकाश आदि छए द्रव्यो
परमस्वभावी छे पण ए परमस्वभावने आत्मा जाणी शके छे. ए ज्ञानगुणनी
विशेषता छे.

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११६] [हुं
माटे कहे छे के सामान्यगुणे आकाश आदि बधां द्रव्यो समान छे पण विशेषगुणे करीने
दरेक द्रव्यमां तफावत छे.
आकाश आदि चार जड द्रव्यो पण शुद्ध छे अने आत्मा चेतनस्वभावी पण शुद्ध
छे. आकाश आदि द्रव्योने शुद्धता छे ते प्राप्त करवानी नथी, प्राप्त ज छे, पण जेने
शुद्धता प्रगट करवी छे तेवा जीवे पोताना शुद्ध स्वभावनुं ध्यान करीने तेमां एकाग्र
थईने शुद्धतानो अनुभव करवो ए ज निर्वाणनो मार्ग छे.
भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावी होवाथी, चेतनपणे जाग्रत थईने चेतनानो
अनुभव करवो ते ज पोतानी मुक्तिनो उपाय छे.
हवे ६० मी गाथामां कहे छे के पोतानी अंदर ज मोक्षमार्ग छे.
णासग्गि अबि्ंभंतरह जे जोवहिं असरीरु
बाहुडि जम्मि ण संभवहिं पिवहिं ण जणणी–खीरु ।। ६०।।
ध्यान वडे अभ्यंतरे, देखे जे अशरीर;
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननीक्षीर. ६०.
जे ज्ञानी नासिकाद्रष्टि राखीने एटले के अंतर्मुख द्रष्टि करीने ज्ञानानंदस्वभावी,
अशरीरी पोताना आत्माने देखे छे, ध्यावे छे तेने फरी आवां लज्जाजनक जन्मो करवा
पडतां नथी.
नासिकाद्रष्टि एटले अंतरमां जे मुख्य वस्तु छे तेना उपर द्रष्टि राखीने शरीर
रहित-अशरीरी, शुद्ध कुंदन समान निर्मळ पोताना आत्माने जे ध्यावे छे, अनुभवे छे
ते मोक्षमार्गी छे. ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा पोतानी पूर्ण ज्ञानदशा प्रगट करवा
अत्यंतर द्रष्टिनुं साधन करे तेने फरी बीजी मातानी कुंखे अवतरीने मातानुं दूध पीवुं
नहि पडे.
चैतन्यबिंबने अग्र करीने-मुख्य करीने तेनुं अंतर ध्यान करे ते अंतरनो
मोक्षमार्ग छे, ते ज साचो-वास्तविक मोक्षमार्ग छे. विकल्पमां के निमित्तमां के मजबूत
शरीरना संहननमां मोक्षमार्ग खरेखर नथी.
वस्तुना स्वभाव उपर द्रष्टि लई जवी तेने अहीं नासाग्रद्रष्टि कही छे. पूर्ण
आनंद ते आत्मानुं नाक छे, तेना लईने आत्मा नभी रह्यो छे, माटे तेना उपर द्रष्टि
मूकवानुं कह्युं छे. लोको मोटी आबरूने पोतानुं नाक कहे छे. अहीं कहे छे के आत्मानी
मोटी आबरू ‘केवळज्ञान’ ते आत्मानुं नाक छे. केवळज्ञानरूपी नाकनो आत्मा धणी छे.
शुं एनी महिमा!! केवळज्ञानीनी वाणीमां न आवी शके एटलुं आत्मानुं ज्ञान छे,
एटली शांति छे अने एवुं अनंतु बळ आदि बधा गुणो वाणीमां न आवी शके
एटलां महान छे. अनंती अनंती अनंती आत्मिकशक्ति ते आत्मानुं नाक छे. आत्मा
जेवी बीजी चीज केवी? एनी शुं

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परमात्मा] [११७
वात करवी! एनी आबरूनी शुं वात करवी! आवा आत्मानुं ध्यान करे तो
अल्पकाळमां निर्वाण पामे. आवो अंतरनो मार्ग छे. बहार शोधवा जवो पडे तेम नथी.
भगवानना ज्ञानमां आत्मानुं अनंतु सामर्थ्य आवी जाय छे पण वाणीमां तो
तेना अनंतमां भागे आवे छे. जेटलुं जणाय छे तेटलुं वाणीमां आवी शक्तुं नथी एवा
आत्माना सामर्थ्यनी शी आबरू! जे वस्तुस्वभावमां जन्म-मरण नथी तेनुं ध्यान
करनारना जन्म-मरण पण टळी जाय छे.
जे जीव शांत...शांत..विकल्परहित निर्विकल्प, रागरहित वीतराग तत्त्वने जोवा
माटे निर्मळ गंगा वहावे-निर्मळ परिणति प्रगट करे अने शरीर विनानो छतां
शरीरप्रमाण बिराजित एटले के शरीर जेटलां क्षेत्रमां रहेलो-जेटलां क्षेत्रमां शरीर छे
एटलां ज क्षेत्रमां बिराजमान आत्माने अंतर सूक्ष्म भेदविज्ञानद्रष्टिथी जोवानो प्रयत्न
करे, रागथी भिन्न वीतराग तत्त्वने राग, संयोग, निमित्त अने विकल्प आदिरूप
आंख बंध करीने जोवानो वारंवार प्रयत्न करे, विकल्पनी वृत्तिनो नाश करी अंतर
निर्विकल्प तत्त्वमां टगटगी लगावे, तेमां एकाकार थाय तेने ते अभ्यंतर मोक्षनो उपाय
छे. बहारमां मोक्षमार्ग नथी. अंतरमां मोक्षमार्ग छे. प्रवचनसारमां पण कह्युं के अरे!
बहारमां मोक्षनुं साधन शोधवा शा माटे जाव छो? तमारुं साधन तमारां अंतरमां छे.
अज्ञानी जीव शास्त्रमां क्यांक व्यवहारनी वात आवे त्यां ते बराबर पकडी ले
छे के व्यवहार टेकारूप छे. सहायक छे एम भगवाने कह्युं छे पण भगवाने ज एकला
व्यवहारनुं फळ संसार कह्युं छे तेना तरफ लक्ष आपतो नथी.
अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के जे आत्मामां एकाग्र थवानी भावना करतो करतो
एकाग्र थईने अनुभव करी ले छे तेनी अनुभवरूपी ध्यानाग्नि कर्मने बाळीने बधी
अंतरना ध्याननी क्रिया छे. बहारनी क्रिया विकल्प आदि तो बधां दूर रही जाय छे.
व्यवहार मोक्षमार्ग खरेखर वास्तविक मोक्षमार्ग नथी. अभ्यंतर मोक्षमार्ग पोतानी पासे
छे अने पोते करी शके छे. निश्चय स्वरूपमां एकाग्र थवुं ते ज साचो मोक्षमार्ग छे.
प्रश्नः- आवो मोक्षमार्ग गुरु बतावे ने?
उत्तरः- आत्मा पोते ज पोतानो गुरु छे, ते पोताने अभ्यंतर मार्ग बतावे छे.
जेने समजावे ते तेनो गुरु कहेवाय. हे आत्मा! तुं ज्ञान छो, तुं आनंद छो, तुं पूर्ण
छो, तुं शुद्ध छो, तुं अनादिथी रखडयो छो, एम समजावीने आत्मा पोते ज पोतामां
ठरे छे माटे आत्मा ज पोतानो साचो गुरु छे. आत्मा गुरु अने तेनी पर्यायरूपी प्रजा
ते तेनी शिष्य छे. पर्याय आत्मद्रव्यनो विनय करे छे. आत्मा अने पर्याय गुरु-शिष्य
छे. आत्मा अने पर्यायनां नामभेदे भेद छे, लक्षण भेदे भेद छे, भाव भेदे भेद छे,
अने प्रदेशभेदे बन्ने अभेद छे. द्रव्य धर्म कायमी असली धर्म छे अने पर्याय क्षणिक
धर्म छे. द्रव्यगुरुनो आधार लईने पर्यायरूपी शिष्य काम करे छे.

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११८] [हुं
हवे ६१ मी गाथामां कहे छे के निर्मोही थईने शरीरने पोतानुं न मानो.
असरीरु वि सुसरीरु मुणि इहु सरीरु जडु जाणि ।
मिच्छा–मोहु परिच्चयहि मुत्ति णिय वि ण माणि
।। ६१।।
तनविरहित चैतन्यतन, पुद्गलतन जड जाण,
मिथ्या मोह दूरे करी, तन पण मारुं न मान ६१.
आत्मा जड शरीरथी रहित छे पण उत्तम ज्ञानरूपी सुशरीर-सुंदर शरीरथी
सहित छे. आत्मानो परमभाव ते तेनुं शरीर छे. बहारनुं शरीर तो जड छे. हे जीव!
तुं तेमां मोह न कर. निर्मोही बन.
आत्मज्ञानना साधकने उचित छे के ते पोताने जडशरीर रहित ज्ञानशरीरी
समजे अने पुद्गल परमाणुथी रचित आ जड मूर्तिक शरीरने पींजरुं अथवा कारागृह
समजे. पोतानुं बधुं श्रेय-हितनी दरेक क्रिया आत्मा साथे जोडे अने परथी प्रेम उठावी
ले. कारण के ज्यां सुधी हुं आत्मा अतीन्द्रिय आनंद अने सुखथी भरेलो छुं एवी
श्रद्धा, ज्ञान अने रुचि थतां नथी त्यां सुधी शरीर अने शरीरना साधनने ज हितकारी
मानी आवकारे छे, ईच्छे छे अने तेमां ज प्रेम करे छे. शरीर नीरोग रहे, शरीरने
बधी जातनी अनुकूळता रहे तो ठीक एवी बुद्धि मिथ्याद्रष्टिनी होय छे, माटे हे साधक!
तुं आवी मिथ्याद्रष्टिथी दूर रहेजे. तारा आत्मानी नीरोगता अने अनुकूळताथी तुं सुखी
छो. आवी श्रद्धा थयां पछी परमां मारापणानी-सारापणानी मान्यता छूटी जाय छे.
अज्ञानीने अंतरमां आनंदनो अनुभव नथी तेथी ते बहारना आनंदमां टेको आप्या
वगर रहेतो ज नथी. ‘शरीरे सुखी तो सुखी सर्व वाते’ आम मानीने अनित्य शरीर
आदिमांथी अज्ञानी जीव सुख लेवा चाहे छे.
भगवान आत्मा चैतन्यशरीरी छे, तेमां सुख अने आनंद न मानतां बहारथी
सुखनी ईच्छा राखवी ते मूढता छे, मोह छे. अज्ञानी मोही जीव दया-दान-व्रत-भक्ति
करीने पण वांछा तो आ भव के परभवमां भोगो भोगववानी ज राखे छे.
संसारी आत्मानी मन-वचन-कायानी बधी क्रियाओ मोह उपर ज निर्भर छे.
आवा मिथ्यामोहने नाश करीने जे सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे ते साधक जीव निश्चिंत
थईने ज्यारे करवा मागे त्यारे आत्मानो अनुभव करी शके छे. तेने पोतापणुं-
मारापणुं एक आत्मामां ज छे, मोह क्यांय नथी. चारित्रमोहना उदयवश राग आवे
तो रोगी जेम कडवी औषधिनुं पान करे तेम सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी विषय भोग भोगवे छे.
लाचार थईने रोगीने कडवी दवा पीवी पडे तेम ज्ञानीने विकल्पवश-लाचारीवश भोग
भोगववा पडे छे, पण भावना तो तेनाथी केम जल्दी छूटाय एवी ज रहे छे. द्रष्टिमां
ग्रहण योग्य तो पोतानुं निजस्वरूप ज लागे छे पण रागवश भोगनुं ग्रहण करे छे.
मिथ्याद्रष्टिने वारंवार राग अने पर ज द्रष्टिमां आव्या करे छे. ज्यारे सम्यग्द्रष्टिने
वारंवार पोतानुं निजस्वरूप ज द्रष्टिमां आव्या करे छे.

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परमात्मा] [११९
आत्मानुभवनुं फळ केवळज्ञान अने अविनाशी सुख छे अने राग, पुण्य, पाप
विकारीभावनुं फळ चार गतिनुं दुःख छे. आ वात हवे आचार्यदेव ६२ मी गाथामां करे छे.
अप्पई अप्पु मुणंतयहं किं णेहा फलु होई ।
केवल–णाणु वि परिणवइ सासय–सुक्खु लहेइ ।। ६२।।
निजने निजथी जाणतां, शुं फळ प्राप्त न थाय?
प्रगटे केवळज्ञान ने शाश्वत सुख पमाय.
६२.
ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव एटले के सर्वज्ञ
शक्तिवाळा आत्मानी द्रष्टि ज्ञान ने स्थिरता करतां पूर्ण शक्ति पर्यायमां प्रगट थई
जाय छे. ज्ञाननी साथे शाश्वत नित्य अविनाशी कायम टके एवा सुखने पण पामे छे.
पूर्ण ज्ञानरूपे परिणमतां साथे पूर्ण सुखने पण पामे एवुं आत्मानुभवनुं महान फळ
छे. अभ्यंतर मोक्षमार्गनुं-अनुभवनुं फळ केवळज्ञान अने पूर्ण सुख छे.
जेने आत्माथी आत्माने जाण्यो तेणे १२ अंग जाणी लीधा. जेणे आत्मा जाण्यो
तेणे सर्व जाण्युं. उपयोगने आत्मामां जोडवो ते ‘योगसार’ छे. ते मोक्षमार्ग छे.
उपयोगने आत्मामां जोडीने आत्माने जाणतां जे महा आनंद थाय-तेनी शी वात! ते
आनंद पासे इन्द्रपद के चक्रवर्तीना वैभवनी कांई गणतरी नथी. ते इन्द्रपद अने
चक्रवर्तीपद तो पुण्यना फळ छे. आत्मज्ञानना फळमां तो केवळज्ञान अने पूर्ण सुख
प्रगट थाय छे ते ज वात अहीं लीधी छे. वच्चे रागना फळमां इन्द्रपद के चक्रवर्तीना
वैभवो मळे छे तेनी वात अहीं याद करी नथी, कारण के ते साध्य नथी. साध्य तो
केवळज्ञान अने शाश्वत सुख छे अने ते ज आत्मज्ञाननुं साचुं फळ छे. आत्मज्ञाननो
अपार महिमा छे. आम आत्माने कई रीते जाणवो अने तेनुं फळ केवुं महान छे ते
आ गाथामां बताव्युं छे.
एकवार अंदरमां नजर कर के हुं पण सिद्धनी
जेम अशरीरी छुं. शरीरने स्पर्शतो ज नथी, अत्यारे
ज शरीरथी छूटो छुं, एम श्रद्धा नहि करे तो ज्यारे
शरीरथी छूटो पडशे त्यारे एनी लाळ शरीरमां ज लंबाशे
-पूज्य गुरुदेव

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१२०] [हुं
[प्रवचन नं. २२]
भवतापहरण अर्थे
निज–परमात्माने निज वडे जाण
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. ३०-६-६६]
आ योगसार शास्त्र छे. तेमां अहीं ६२ मी गाथा चाले छे.
अप्पइ अप्पु मुणंतयहं किं णेहा फलु होइ ।
केवल–णाणु वि परिणवइ सासय–सुक्खु लहेइ ।। ६२।।
निजने निजथी जाणतां, शुं फळ प्राप्त न थाय?
प्रगटे केवळज्ञान ने शाश्वत सुख पमाय.
६२.
आ योगसारमां बहु सारमां सार वात छे. पुण्य-पापना विकार अने
शरीरादिथी रहित आत्मा आनंदनो कंद छे. विकार ते आस्रव तत्त्व छे, देहादि ते अजीव
तत्त्व छे अने आत्मा पोते जीवतत्त्व छे. ए जीवतत्त्वमां छे शुं?-के आत्मामां ज्ञान,
आनंद, शांति, वीर्य, प्रभुता, विभुत्व, स्वच्छत्व, प्रकाश आदि अनंत गुणो छे एवा
आत्माने आत्माथी एटले के पोताने पोताथी जाणवो ते ज मोक्षमार्ग छे.
अहीं बहु टूंकी अने सारमां सार वात करी छे. विकार रहित निज आत्मानो
विकार रहित निज परिणतिथी-पर्यायथी अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे. ए एक ज
मोक्षनो मार्ग छे, बीजो कोई मोक्षमार्ग छे ज नहि. भगवान आत्मा अर्थात् निज
परमात्मा उपर द्रष्टि करीने पर्यायमां तेना अनुभव करतां शुं फळ प्राप्त न थाय? वच्चे
मतिश्रुतज्ञाननी विशेषता प्रगटे, अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय अने क्रमे क्रमे ए
अनुभव वधतां वधतां केवळज्ञान थाय. शुं फळ प्राप्त थाय? बधुं ज थाय. अनुभवनी
साथे व्रत-तप आदिना शुभविकल्प होय, तेनुं ज्ञान कराव्युं छे पण ए कांई मोक्षमार्ग
नथी स्वभावनुं साधन तो स्वभाव ज छे. सर्वज्ञ वीतराग स्वभावी आत्मानुं
वीतरागी पर्याय द्वारा ज ज्ञान थई शके, अनुभव थई शके. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्ररूप वीतरागी पर्याय ज मोक्षमार्ग छे.
आत्मानो अनुभव करतां शुं फळ न प्राप्त थाय? बधुं ज थाय. पहेलुं तो
अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय, पहेलुं फळ ज आनंद छे. केम के पोते अतीन्द्रिय
आनंदनो ढगलो छे, पुंज छे, तेमांथी आनंद ज आवे. वळी ए आनंद केवो छे?-के
जेवो अरिहंत अने सिद्ध भगवानने आनंद छे ते ज जातनो आनंद धर्मीने अनुभवमां
आवे छे. ते अनुभवनो आनंद एवो छे के तेनी पासे इन्द्रना इन्द्रासनो पण धर्मीने
सडेलां तरणा

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परमात्मा] [१२१
जेवा लागे छे. ९६००० राणी होय, राजपाट होय, ३२००० मुकुटबंधी राजा जेनी
नीचे होय अने पोते खम्मा...खम्मा...थतो होय छतां धर्मी जाणे छे के अरे! मारो
आनंद तो मारी पासे छे, मारा आनंद पासे आ वैभवनी पण कांई किंमत नथी.
समकिती गृहस्थ हो के आत्मज्ञानी मुनि हो पण तेना अनुभवना काळमां
दरेकने पोतानी बधी शक्तिओनी व्यक्तता अंदर प्रगट थाय छे. भगवान आत्माना
गुणोना भावनी अचिंत्यता तो अपार छे पण गुणोनी संख्या पण अनंत, अचिंत्य
अने अपार छे. ए अनंत गुणोना धारक निज आत्मानो अनुभव थतां समये समये
अनंता गुणोनी अनंती पर्यायमां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे.
जेनी आंखो हीरानुं पारखुं करे ते ज झवेरी कहेवाय. तेम जे वीर्य आत्माना
स्वरूपने रचे ते ज वीर्य कहेवाय अने जे ज्ञान आत्माने ज्ञेय बनावे तेने ज ज्ञान
कहेवाय. आ तो अगम्यने गम्य करवानी वातो छे बापु!
मोक्षमार्गनुं साधकपणुं असंख्य समय ज होय छे अने तेनुं फळ अनंतसमयनुं
छे. आहाहा! एक श्लोकमां पण केटलुं भरी दीधुं छे! जंगलमां वसता एक योगीन्द्रदेव
पोकार करे छे के पोताने पोताथी जाणतां शुं फळ न मळे? अनुभवना आनंदथी
मांडीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अने केवळज्ञान बधुं ज मळे.
अनुभवनुं पहेलुं फळ तो अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन कह्युं. हवे बीजुं फळ कहे छे
के वीर्यमां उल्लास आवे छे के हुं हवे स्वरूपनी पूर्ण रचनानुं काम करी शकीश. वीर्य
उछळ्‌युं ते हवे पूर्ण केवळज्ञान लेशे. उल्लसित वीर्य ज केवळज्ञाननुं अधिकारी छे. पामर
वीर्य केवळज्ञान लई शके नहि. उल्लसित वीर्य एटले शुं?-के जे शक्तिमां वीर्य गुण छे
ते अनुभव थतां पर्यायमां व्यक्त थयो के हवे हुं केवळज्ञान लईने ज रहीश.
अल्पकाळमां हुं सिद्धपदने प्राप्त करीश-एम एनुं वीर्य उछाळा मारे छे. तेने एम न
थाय के अरेरे! हवे शुं थशे? केवळज्ञान सुधी केम पहोंचाशे?-एवुं हीन वीर्य न होय.
द्रव्य छे ते कदी पडीने अद्रव्य न थाय, तेम जागेलुं वीर्य कदी पाछुं न पडे. क्षयोपशम
सम्यग्दर्शन होय तो क्षायिक ल्ये अने क्षायिक होय तो शुक्लध्यान ल्ये अने शुक्लध्यान
होय तो केवळज्ञान ल्ये.
आत्माना शुद्ध महिमावंत द्रव्यस्वभावने अनुभवतां वीर्य एवुं उछळीने काम
करे छे के ज्ञाननी वृद्धि श्रद्धानी शुद्धता, चारित्रनी स्थिरता, आनंदनी वृद्धि, स्वच्छतानी
वृद्धि, प्रभुतानी उग्रता आदि बधी पर्यायोमां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. अनुभव थतां
वीर्यनुं वीरपणुं जागृत थाय छे. अल्पकाळमां विकल्प तोडीने निर्विकल्पता प्राप्त करनारुं
ए वीर्य छे.
हवे अनुभवना बीजां पण फळ कहे छे के अनुभव थतां पापकर्मनो अनुभाग
घटी जाय अने पुण्यकर्मनो रस वधी जाय छे तथा आयुकर्म सिवाय बधां कर्मोनी
स्थिति घटती जाय छे. मोक्षमार्ग प्रगट थई गयो तेने संसारनी स्थिति केम वधे? न
ज वधे, ऊलटी ते

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१२२] [हुं
घटती जाय. अनुभव थाय ते ज भवमां केवळज्ञान सुधीनो पुरुषार्थ न उपडे तो
आयुष्य पूरुं थये देव थाय. त्यांथी च्यवीने उत्तम मनुष्य थाय. एवा एकाद-बे भव
करवा पडे तोपण तेने रागनी मंदता छे अने पुरुषार्थ चालु छे तेथी वृद्धि ज करतो
जाय छे.
आत्मानुभवना फळमां श्रुतकेवळी थाय, भले १२ अंगनुं ज्ञान न होय पण
शास्त्रना भणतर वगर आत्माना भणतरथी श्रुतकेवळी थाय. अनुभवनी जात ज एवी
छे के अंदरथी आगळ वधतां श्रुतकेवळी थई जाय. वळी आत्मानुभवना फळमां शुद्धिनी
तो वृद्धि थाय पण साथे पुण्य बंधाय तेना फळमां बहारनी सगवडताओ पण प्राप्त थाय
छे. स्वर्ग, चक्रवर्ती आदिना भवो पुण्यना फळमां अनुभवीने ज प्राप्त थाय छे.
जेम केरी वावे तो पहेलां डाळां-पांदडां थाय अने पछी केरीनुं फळ पाके तेम
आत्मानो अनुभव थतां पहेलां शुभरागना फळमां स्वर्ग चक्रवर्ती आदिना सुखो प्राप्त
थाय अने पछी पूर्णानंद-केवळज्ञाननुं सुख प्राप्त थाय. ए रीते बीजो दाखलो पण छे के
चक्रवर्तीना घर तरफनो रस्तो पण कोई जुदी जातनो वैभवयुक्त होय. ते रस्तेथी
चालनार वच्चे थोडो आराम पण ले. तेम मोक्षमार्गथी निर्वाण पहोंचवा माटे
आत्मानुभवनी सुखदायी सडक उपर ज्ञानी चाले छे. मोक्षरूपी महेले पहोंचता पहेलां
पण अनुभवी सुखरूपी सडके चाले, तेने दुःख नथी. वच्चे स्वर्ग आदि अनुकूळ संयोगो
पामीने अंते मोक्षमहेलमां पहोंची जाय छे अने आठेय कर्मोनो नाश करीने सिद्धदशा
प्राप्त करे छे.
प्रजा उपर राजानी मीठी नजर होय तेम शिष्यो उपर भगवाननी मीठी नजर
होय. भगवान कहे छे के चैतन्यरत्नथी भरेलां रत्नाकर उपर जे द्रष्टि करशे ते बधां
भगवान थशे. कुंदकुंद आचार्य महाविदेहमां भगवान सीमंधरनाथना समवसरणमां
गयेलां, त्यां दिव्यध्वनिमां आचार्यने आशीर्वाद मळेलां. जुओ! आचार्य माटे
भगवाननी वीतरागी वाणीमां आव्युं के आ भरतक्षेत्रना धर्म-धुरंधर आचार्य छे-
आम भगवानना कुंदकुंद आचार्यदेवने आशीर्वाद मळ्‌या. आचार्यदेव अत्यारे देवलोकमां
छे, पछी पुरुषार्थ उपाडी मोक्षे जशे.
आत्मानुं ध्यान करतां वीर्य फाटतां अनंत केवळज्ञान प्रगट करवानी शक्ति
खीली ऊठे छे-एम अहीं कह्युं. हवे ६३ मी गाथामां कहे छे के परभावनो त्याग ते
संसारना त्यागनुं कारण छे.
जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति ।
केवल–णाण–सरूव लइ [लहि?] ते संसारु मुंचति ।। ६३।।
जो परभाव तजी मुनि, जाणे आपथी आप,
केवळज्ञान स्वरूप लही, नाश करे भवताप. ६३.
अहोहो!! मुनिराजे एकलुं माखण भर्युं छे.
अहीं त्यागधर्मनी मुख्यता बतावे छे. त्याग एटले विकल्पोनो परभावोनो
त्याग. जे कोई धर्मात्मा शुभाशुभ रागादि परभावोनो त्याग करी पोताने पोता वडे
जाणे ते केवळज्ञानरूपी प्रकाश प्राप्त करी भवतापनो नाश करे छे.

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परमात्मा] [१२३
जेणे धर्म करवो छे तेणे सौ प्रथम तो कुदेव-कुशास्त्र-कुगुरुनी श्रद्धा छोडवी
जोईए. राग द्वेषवाळा देवो, परिग्रहधारी आत्मज्ञान रहित कुज्ञानी गुरु तथा खोटा
शास्त्रोनी महिमा अने भक्ति छोडवी जोईए तथा हिंसा, जूठुं, चोरी, शिकार,
परस्त्रीसेवन, वेश्या, जुगार आ सात प्रकारना व्यसननो पण त्याग करवो जोईए.
अन्याय कार्यो प्रत्ये ग्लानि होवी जोईए. आ रीते कुदेवादिनी श्रद्धा वगेरेनो त्याग करी
वीतराग परमदेव, निर्ग्रंथगुरु तथा अनेकांत वस्तुने बतावनारा शास्त्रोनी श्रद्धा करवी
जोईए, भक्ति करवी जोईए, मनन करवुं जोईए. सत् देव-शास्त्र-गुरुनी साची श्रद्धा
करे अने आत्मानी ओळखाण करे त्यारे अनंतानुबंधी कर्म तथा मिथ्यात्वनो नाश थाय
अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो लाभ थाय. स्वरूपने ओळखी तेमां स्थिरता थवी ते
सम्यक्चारित्र छे.
सम्यग्दर्शन थतां परभाव, मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी आदिनो नाश थई स्वरूपनी
द्रष्टिज्ञान ने रमणता-स्वरूपमां लीनतारूप स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट थाय छे. आ
रीते सम्यग्दर्शन थतां ग्रहण ने त्याग बन्ने थई जाय छे. नित्यानंद स्वभावी निज
आत्मानुं ध्यान करतां निमित्तना लक्षे थतां पुण्य-पापना अनित्य भावोनो नाश थई
जाय छे.
“हम परदेशी पंखी साधु आ रे देश के नाहिजी,
आतम अनुभव करीने अमे, उडी जाशुं सिद्ध–स्वदेशजी.”
विकल्पनो देश ते अमारो नहि, पुण्य-पापना भावो आत्माना देशमां नथी.
भगवान आत्मा तो अनंत आनंदनो देश छे, ए अमारो स्वदेश छे. तेमां अमे जईशुं.
जुओ! आ योगीन्द्रदेव वन-जंगलमां सिंह-वाघनी त्राडोनुं लक्ष पण छोडीने, निजदेशमां
जईने आ वात लखे छे. अहो! तारा स्वरूपमां अनंता सिद्ध भगवान बिराजे छे.
अनंती सिद्धपर्यायनो तुं पिंड छो. आवो निज भगवान जेना अनुभवमां आव्यो तेने
मुनिराज कहे छे के हवे तारे शुं बाकी रह्युं? अनुभव थतां बधुं ज मळी गयुं. स्वदेशनो
स्वामी थई गयो. पुण्य-पापना भावने पोताना माननारो तो परदेशी छे.
एक पोताना परमपारिणामिकभावरूप जीवत्वस्वरूप कारणप्रभुमां एकत्व करी
अनुभव करवो ते सदाने माटे आनंद-अमृतनुं पान करावनारो मोक्षमार्ग छे. ए
मोक्षमार्ग प्रगट थयां पछी बहारमां गमे तेवां उपसर्गो आवे, घाणीमां पीलाय ते
समये पण अंतरमां मुनिराज अतीन्द्रिय आनंदमां रमता होय छे. कोई वैरी देव
साधुने लवणसमुद्रमां नाखे त्यां मुनिराज श्रेणी मांडी केवळज्ञान लई सिद्धदशाने प्राप्त
थई जाय छे. माटे कहे छे के एकवार चैतन्यरत्नाकर उपर द्रष्टि करीने अनुभव कर तो
तने शुं फळ नहि मळे? अल्पकाळमां सिद्ध थईने मुक्तिने पामीश.
हवे आगळ ६४मी गाथामां मुनिराज कहेशे के लोकालोकने प्रकाशनारा एवा
निज आत्माने जे अनुभवे छे तेने केवळज्ञान लेवानी तैयारी थई गई छे. एवा धर्मी
आत्माओ धन्य-धन्य छे. अमे मुनिओ पण एवा मोक्षमार्गी साधकोने धन्य धन्य
कहीए छीए.

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१२४] [हुं
[प्रवचन नं. २३]
ते ज धन्य छे जे पोताना परमात्माने अनुभवे छे
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. १-७-६६]
आ योगसार चाले छे. पुण्य-पापभावथी रहित पोताना त्रिकाळ शुद्ध
स्वभावमां एकाग्र थई श्रद्धा-ज्ञान अने रमणता प्रगट करवी तेनुं नाम योगसार
कहेवामां आवे छे.
अहीं ६४मी गाथा चाले छे. जेणे पोताना निर्मळ शुद्ध स्वभावने साध्य
बनावीने साध्यो छे एवा धर्मीने धन्य छे. जुओ! पैसावाळा धूळना धणीने धन्य न
कह्यां! तेम दानमां खूब धन खर्चनारने पण धन्य नथी कह्यां. केम के ए कांई धन्य
चीज नथी. अंतरमां सत्चिदानंद ध्रुव लक्ष्मी पडी छे तेमां योग एटले के जोडाण करीने
शुद्ध निर्मळभावोने प्रगट करे ते धर्मी धन्य छे.
धण्णा ते भयवंत बुह जे परभाव चयति ।
लोयालोय–पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ।। ६४।।
धन्य अहो भगवंत बुध, जे त्यागे परभाव;
लोकालोक प्रकाशकर, जाणे विमळ स्वभाव. ६४.
पुण्य-पाप आदि परभावने जे त्यागे छे अने लोकालोकने प्रकाशनारा पोताना
निर्मळ स्वभावने जे जाणे छे, स्वीकारे छे एटले के परभावथी विमुख थईने जे
स्वसन्मुख द्रष्टि करे छे एवा धर्मात्माओ धन्य छे. एक समयमात्रमां आखा
लोकालोकने जाणवानो आत्मानो ज्ञानस्वभाव एवो असाधारण छे के एवो स्वभाव
बीजा द्रव्योमां तो नथी पण आत्माना बीजा कोई गुणोमां पण एवो असाधारण
स्वभाव नथी. एवा ज्ञानस्वभाव वडे जे पोताना आत्माने जाणे छे अने तेमां एकाग्र
थाय छे ते धन्य छे.-प्रसंशनीय छे.
भगवान आत्मानी परम संपदाने रुचिपूर्वक साधतां जगतना अन्य पदार्थोथी
उदासीनता थई जाय छे. कदाचित् पुण्यना उदयथी चक्रवर्ती, कामदेव, नारायण,
प्रतिनारायण, इन्द्र, धरणेन्द्र, अहमिंद्र आदि पदवीओ प्राप्त थई होय तोपण धर्मीने
मोह थतो नथी. निजपदनी पूर्ण साधना करनार धर्मीने लौकिक पदवीओनी जराय
चाहना नथी. धर्मानुराग, पंचपरमेष्ठीनी भक्ति, शास्त्रवांचन, पूजन, अनुकंपा आदि
शुभभावो धर्मी जीवने आवे छे पण तेनो तेने आदर होतो नथी. शुद्ध स्वभावमां ठरी
शक्तो नथी तेथी शुभभावमां आवे छे पण धर्मी ते भावने के तेना फळने आदरतो
नथी. धर्मीने धर्मप्रचारनो विकल्प आवे छे पण तेने छोडवा लायक समजे छे, एक
निजपदनी निर्विकल्प साधनामां ज उपयोगने रोके छे, केम के शुद्धस्वरूपमां जेटली
एकाग्रता थाय एटलो ज पोताने लाभ छे. धर्म-

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परमात्मा] [१२प
प्रचारथी कांई पोताना आत्माने लाभ थतो नथी. संसारनी सर्व प्रपंचजाळथी विरक्त
थईने, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिना विकल्पोने पण त्यागीने धर्मी जीव एक शुद्ध
निजात्माने ध्यावे छे अने परमानंदना अमृतनुं पान करे छे. अंतर सुधारसने पीए छे.
योगीन्द्रदेव कहे छे के आवा धर्मी ते धन्य छे, प्रसंशनीय छे, ते ज महा विवेकी अने
पंडित छे. परम ऐश्वर्यवान पण ए ज छे.
एक तरफ खूणे बेठो ज्ञानी शांति...शांतिथी पोतानी शांतिनुं वेदन करे छे ते ज
धन्य छे, प्रसंशनीय छे, विवेकी छे, पंडित छे अने ऐश्वर्यवान छे. धनवान ते
ऐश्वर्यवान नथी पण आत्मसंपदाने लूंटनारा धर्मी ते ऐश्वर्यवान छे. धर्मी जीव
निजशुद्धात्मानी प्रतीत-ज्ञान-रमणतारूप रत्नत्रयनो धणी छे. रत्नत्रयनो धणी ते ज
धनवान छे. पैसावाळो धनवान नथी.
श्रोताः- तो पछी पैसावाळाए शुं करवुं?
पूज्य गुरुदेवः- पैसावाळाए पैसानो मोह छोडी, आत्मानी रुचि करी रत्नत्रय
प्रगट करवा.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रण रत्नोने धारण करनारो ज भाग्यवान छे अने
ते ज भगवान छे. अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो स्वामी थईने ते अल्पकाळमां मोक्ष
पामशे-शीघ्र मोक्षगामी थशे.
अहीं आत्मानुशासननुं द्रष्टांत आपे छे के अतीन्द्रिय आनंदना स्वसंवेदनमां
मस्त बनेलां दिगंबर संतना शरीरे लागेली रज-मेल ए जेमनुं घरेणुं छे, पाषाणनी
शिला ए जेमनुं बेसवानुं स्थान छे, कांकरीवाळी भूमि ए जेमनी शैया छे, सिंह-
वाघनी गुफाओ जेनुं सुंदर घर छे, अनुभूति जेनी गिरिगुफा छे अने जेमणे अज्ञाननी
सर्व गांठोने तोडी पाडी छे अने ज्ञान-आनंदना खजाना खोल्यां छे एवा जगतथी
उदास अने मुक्तिना प्रेमी, सम्यग्ज्ञानधनी योगीगण अमारा मनने पवित्र करो.
हवे गृहस्थ हो के मुनि हो बन्ने माटे आत्मरमणता ज सिद्धि-सुखनो उपाय छे
एम कहे छे.
सागारु वि णागारु कु वि जो अप्पाणि वसेइ ।
सो लहु पावइ सिद्धि–सुहु जिणवरु एम भणेइ ।। ६५।।
मुनिजन के कोई गृही, जे रहे आतमलीन,
शीघ्र सिद्धि सुख ते लहे, एम कहे प्रभु जिन. ६प.
अत्यारे लोकोमां कोई कहे छे के गृहस्थाश्रममां आत्मरमणता न होई शके,
आत्मरमणता तो आठमां गुणस्थाने ज होय. तेनी सामे आ गाथा छे. जिनवर
परमात्मा तीर्थंकरदेव सो इन्द्रोनी हाजरीमां सभामां एम फरमावे छे के ज्ञान-दर्शन
सहित जीव गृहस्थाश्रममां रहीने पण आत्मामां वसी शके छे. वीतरागना बिंब एवा
जिनवरदेवनी ईच्छा विना वाणी खरे छे.

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१२६] [हुं
एमां पण आम आव्युं छे एम जिनवरदेवनी साक्षी आपीने योगीन्द्रदेव कहे छे के
गृहस्थ होय के मुनि बन्ने माटे आत्मरमणता ज सिद्धिसुखनो उपाय छे. चोथा-पांचमां
गुणस्थानमां गृहस्थ पण निज आत्मामां वसे छे वसी शके छे. गृहस्थाश्रममां राग
होय पण एनाथी निवृत्ति थईने स्वरूपमां धर्मी जीव वसे छे, वसी शके छे. मुनि
उग्रपणे आत्मामां वसे छे.
एक न्याय तो एम कहे छे के समकितीने त्रण कषाय छे, श्रावकने बे कषाय छे
अने मुनिने एक कषाय छे पण निश्चयथी तो ए त्रणेय आत्मामां ज वसेलां छे,
कषायमां-रागमां वसतां ज नथी. केम के दरेकनी द्रष्टि एक आत्मा उपर छे, रागादि छे
ते तो जाणवा माटे छे. निश्चयथी तो धर्मी पोताना आत्मामां ज वसे छे.
समकिती गृहस्थमां रहेवा छतां विकल्पोने छोडीने निर्विकल्पस्वभावमां वसे छे.
समकिती करतां मुनिनो पुरुषार्थ विशेष होवाथी मुनि उग्रपणे स्वभावमां स्थिर थाय
छे. “आत्मा एटले शुद्धभावनो भंडार.” रागने तोडीने आवा निजात्मानो भंडार जे
खोले छे ते तेमां ज वसे छे. रागादि होय छतां तेमां तेनुं वसवुं नथी. जेमां प्रीति छे
तेमां ज ते वस्यो छे. पुण्य-पाप भावमां धर्मीने प्रीति नथी तेथी ते एमां वस्यो छे
एम कहेवाय ज नहि. धर्मीने एक आत्मानी ज प्रीति होवाथी तेने माटे आत्मा ज
वसवानो वास छे.
आ गाथामां त्रण वात सिद्ध थई. एक तो जेणे अंतर्मुख द्रष्टि करी श्रद्धा ज्ञान
अने लीनता प्रगट करी ते आत्मामां ज वसे छे. बीजुं एम के गृहस्थाश्रममां आत्मामां
वसवुं न होय-ए वातनो निषेध थयो अने त्रीजुं के धर्मीने व्यवहार होय छे पण एनुं
धणीपणुं नथी, तेमां धर्मीनो वास नथी.
चोथा गुणस्थानवाळो समकिती हो के मुनि हो बन्नेनी स्थिरताना अंशमां फेर
छे पण बन्नेनुं वसवुं तो एक आत्मामां ज छे, तेमां फेर नथी. व्यवहारना रागथी
बन्ने मुक्त ज छे, तेमां तेनो वसवाट ज नथी. गीत गाय छे ने के ‘परणी मारा
पीयुजीनी साथ, बीजाना मींढोळ नहि रे बांधु.’ तेम समकिती कहे छे के
“ लगनी लागी मारा चैतन्यनी साथ, बीजाना भाव नहि रे आदरुं.” “धर्म जिनेश्वर
गाउं रंगशुं. भंग न पडशो रे प्रीत जिनेश्वर, बीजो मन-मंदिर आणुं नहि.” अखंड
आनंद मारो प्रभु तेना हुं गुणगान गाउं छुं. पुण्य-पापना गुणगान हुं नहि गाउं.
मारा मनना मंदिरमां विकल्पने स्थान न आपुं ए अम कुळवट रीते जिनेश्वर! ए
अमारा अनंता सिद्धोना वट छे.
ज्यां जेनी रुचि त्यां तेनो वसवाट, ज्यांथी रुचि ऊठी, त्यां तेनो वसवाट नहि.
जेणे आत्मानी रुचि करीने आत्मामां वसवाट कर्यो ते भले गृहस्थ हो के मुनि हो
बन्ने अल्पकाळमां सिद्धिसुखने पामशे. ज्यां जेनी प्रीति लागी छे त्यां ज ए ठर्या छे.
बीजे ठरवुं एने गोठतुं नथी. जेने प्रभुताना भणकारा वाग्या तेनो वसवाट आत्मा
सिवाय बीजे क्यांय न होई शके. वनवासी दिगंबर संत महा लक्ष्मीना स्वामी
योगीन्द्रदेव भगवाननी वाणीनो आधार लईने आम फरमावे छे.

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परमात्मा] [१२७
धर्मीने आत्माना रस आडे बीजे क्यांय रस लागतो नथी, सूज पडती नथी.
जेणे आत्मानी श्रद्धा-ज्ञान रमणता करी ते गृहस्थ हो के मुनि बन्ने आत्मामां ज वसे
छे. आ वातनी ना न पाड भाई! ना न पाड! जिनदेवनुं आ फरमान छे, तेनी तुं ना
पाडीश तो तुं जिनवरदेवनो वेरी थईश. जिनवरनो वेरी ते आत्मानो वेरी. मिथ्याद्रष्टि
समकिती थयो एटले बहिरात्मामांथी अंतरात्मा थयो. हवे अंतरात्मा थयो तो एनी
द्रष्टिमां-एना वसवाटमां कांई फेर पडे के नहि? रागमां वसवाट तो बहिरात्मानो छे,
तो अंतरात्मानो वसवाट रागमां न होई शके, तेनो वसवाट आत्मामां छे. आम कांईक
विचार भाई! सीधी ना न पाडी दे.
जे कोईए आत्मानी श्रद्धा ज्ञान-रमणता प्रगट करी छे ते गृहस्थ के मुनि दरेक
अल्पकाळमां आत्मानी पूर्ण लक्ष्मी-सिद्धिसौख्यने पामवाना...पामवाना अने पामवाना ज.
अहा! जंगलमां रहेनारा वीतरागी संतो तो जुओ! जंगलमां सिंह त्राड पाडे
एम मुनिराज त्राड पाडीने सत्नी जाहेरात करे छे. सिद्ध भगवान जेओ शुद्धात्मानो
अनुभव करी रह्या छे तेवो ज अनुभव सम्यग्द्रष्टिने थाय छे. अतीन्द्रिय आनंदनी
जातमां फेर नथी. सिद्ध अने साधक बंने एक ज जातना अतीन्द्रिय आनंद अनुभवी
रह्यां छे. जे साधन वडे अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थाय छे ते ज साधन सिद्धिसुखनो
उपाय छे एटले के दर्शन-ज्ञान अथवा तो अतीन्द्रिय आनंद पोते ज पूर्ण आनंदनुं
साधन छे.
माटे अतीन्द्रिय आनंद ज पूर्णानंद सिद्धिसुखनो साधक छे, ए सिवाय अन्य
कोई व्यवहार आदि साधक नथी. स्वानुभव ज निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप रत्नत्रय छे,
केम के स्वानुभवमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणेय समाय जाय छे. तेथी कहे छे के
स्वानुभव अतीन्द्रिय आनंद ज मोक्षमहेलनी सीधी सडक छे. अहीं मुनिराजे विकल्प
आदिना तो भूका उडाडी दीधा छे. क्यांय विकल्पनुं स्थान ज नथी. अतीन्द्रिय आनंद
ज पूर्णानंद सुधी पहोंचाडशे, ए सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. शुभ विकल्प आदि
व्यवहार साथे होय पण ते कोई मार्ग नथी, उपाय नथी. हिंसा, जुठुं, चोरी, परिग्रह,
अब्रह्म आदिनो त्याग, मन-वचन-कायनी शुभ प्रवृत्ति आदि विकल्पो बधां छे खरां
पण ते व्यवहारचारित्र छे. निश्चयचारित्र तो एक अतीन्द्रिय आनंदरूप स्वानुभव छे.
हवे कहे छे केः-
विरला जाणहिं तत्तु बुह विरला णिसुणहिं तत्त ।
विरला झायहिं तत्तुं जिय विरला धारहि तत्तु ।। ६६।।
विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई,
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
भगवान आत्मा शुद्ध आनंदनो पिंड छे, एने तो कोई विरला पंडित ज जाणे.

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१२८] [हुं
छे. शुद्धात्मतत्त्वनी वात सांभळनार पण विरला ज होय छे. ए तत्त्वनुं ध्यान पण
कोई विरला ज करे छे.
लोकालोकने जाणनारा आत्माने जाणनार ज्ञानी कोई विरला ज होय छे. एवा
ज्ञानी पासेथी तत्त्वनी वात सांभळनारा पण कोई विरला ज होय छे. व्यवहारना
रसिया, पुण्यना रसिया, संसारना रसियाने आ वात सांभळवी बहु कठण पडे छे माटे
कहे छे के तत्त्वनी वात सांभळनार श्रोता पण दुर्लभ छे. एथी पण विशेष
शुद्धात्मतत्त्वनुं ध्यान करनार वधु विरल छे. जुओ! अहीं पैसावाळाने के आबरूवाळाने
के बेठी आवकवाळाने विरल न कह्यां पण शुद्धात्माने जाणनारने विरल कह्यां. खरेखर
अतीन्द्रिय आनंदनी बेठी आवक तो आत्मानुं ध्यान करनारने मळी रही छे. आत्मानुं
स्वरूप धारणामां लईने अनुभव करनारा कोई विरला ज होय छे.
आम आ गाथामां योगीन्द्रदेवे शुद्धात्मतत्त्वना प्रेमी जीवोनी दुर्लभता बतावी छे.
क्यांय विरोध जेवुं होय त्यां न जवुं जोईए अने
कदाच जवानुं थई जाय तो मौन रहेवुं जोईए. आ
अंतरनो मार्ग तो एवो छे के सहन करी लेवुं जोईए.
विरोधमां पडवुं नहि. पोतानो गोळ पोते चोरीथी अर्थात्
छुपी रीते खाई लेवो जोईए. फंफेरो करवा जेवो काळ
नथी. पोतानुं संभाळी लेवा जेवुं छे. वाद-विवादमां
ऊतरवा जेवुं नथी.
-पूज्य गुरुदेव

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परमात्मा] [१२९
[प्रवचन नं. २४]
शरणदाताः एक मात्र निज परमात्मा
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. ३-७-६६]
आ योगसार शास्त्र चाले छे. आजथी १३००-१४०० वर्ष पहेलां थई गयेला
श्री योगीन्द्रदेवे आ शास्त्र रचेलुं छे.
आजे महावीर भगवाननी दिव्यध्वनिनो दिवस छे. प्रभुने केवळज्ञान तो वैशाख
सुद दशमे थयुं हतुं पण ६६ दिवस सुधी वाणी न छूटी. तेथी व्यवहारथी एम कहेवाय
के वाणीने झीलनार गणधरदेवनी हाजरी न हती माटे वाणी न छूटी, पण खरेखर तो
वाणी छूटवानो योग न हतो माटे ज वाणी न छूटी. पछी विचार करीने इन्द्र
इन्द्रभूति-गौतम पासे गया अने छ द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिनुं स्वरूप
समजाववा तेने कह्युं. ए तो तेने आवडतुं न हतुं एटले कहे चाल, तारा गुरु पासे.
तेथी इन्द्र गौतमने लईने भगवान पासे आव्या अने ज्यां गौतमे समवसरण जोयुं
त्यां तो एनुं मान गळी गयुं अने अंदर गया त्यां तो आत्मज्ञान प्राप्त करी लीधुं.
तेनी योग्यता हती ने! तरत भगवाननी वाणी छूटी. श्रावण वद एकमे सौप्रथम
वाणी छूटी ते गौतम गणधरे झीली अने भावश्रुतरूपे परिणमीने सुत्ररूपे वाणी गूंथी.
अंतर्मूहूर्तमां बार अंग अने चौदपूर्वनी रचना करी. आजना दिवसे आ रचना थई. ते
बार अंग अने चौद पूर्वनो सार शुं? ते अहीं कहेवामां आवे छे.
१२ अंगमां संयोग, विकल्प अने एक समयनी अवस्थानी उपेक्षा करीने
त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनी अपेक्षा करवी एवो सार योगसाररूपे भगवाननी वाणीमां
आव्यो. ध्रुव, शाश्वत, एकरूप, अनादि अनंत एवी चीजमां एकाकार थईने स्वरूपना
आनंदनुं वेदन थवुं तेने योगसार कहे छे के जे मोक्षनो मार्ग छे.
हवे अहीं कहे छे के जगतमां तत्त्वज्ञानीओ विरल होय छे.
विरला जाणहिं तत्तु बुह विरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ।। ६६।।
विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई,
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
आत्मज्ञान प्राप्त थवुं घणुं कठिन छे तेथी बहु थोडां जीवो ज आ आत्मज्ञाननो
लाभ पामी शके छे. आत्मतत्त्वनी वात कहेनारां तो दुर्लभ छे पण तेने सांभळनारां
पण दुर्लभ