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आत्मामां अनादि अनंत एक प्रकाश नामनो गुण छे, जेनाथी आत्मा प्रत्यक्ष थाय.
परोक्ष न रहे. ४७ शक्तिमां आ ‘प्रकाश’ नामनी १रमी शक्ति छे. सीधो प्रत्यक्ष थईने
पोते पोताने जाणे एवो आ गुण छे. पोताने जाणीने पोतामां-निज आत्मामां रहेवुं ते
ज आत्मानुं घर छे. पोतानुं ज्ञान ज पोताना वस्त्र छे. निज आत्मिक रस ए ज
पोतानुं भोजन छे. अने आत्मिक शैया ए ज ज्ञानीनी शैया छे. आवी रीते आत्माने
प्रत्यक्ष जाणीने जे वेदे छे ते संसारथी मुक्त थाय छे माटे पोते पोतानुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन
करवुं ते ज मुक्त थवानी विधि छे, ए सिवाय मुक्तिनी बीजी कोई विधि नथी.
आत्मा ज शरणरूप छे. कह्युं छे ने! के वर्तमानमां
सिद्धदशा तो नथी, तो सिद्धनुं ध्यान केम होय! जूठ-मूठ
छे; अरे! अंदरमां शक्तिरूप सिद्ध स्वभाव तो वर्तमानमां
मौजुद छे अने तेथी तेनुं ध्यान करतां प्रत्यक्ष शान्तिनुं वेदन
आवे छे. आत्मा स्वभावे त्रिकाळ सिद्ध स्वरूप ज छे.
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एने आत्मानुं कांई कार्य थाय नहीं. चैतन्य चैतन्यने प्रत्यक्ष जाणीने वेदनमां ले अने
तेमां स्थिर थाय तो जीवनी मुक्ति थाय.
सुण्णउ रूउ फलिहउ अगिणि णव दिट्ठंता जाणु ।। ५७।।
स्फटिक रजत ने अग्नि नव, जीव जाणवो तेम. प७.
१. आ आत्मा रत्न समान छे. जेम रत्न प्रकाशमय छे तेम आ आत्मा ज्ञान-
कायम टकनार छे. रत्न जेम किंमती चीज छे तेम आत्मा पण अलौकिक अचिंत्य
सम्यग्ज्ञान स्वरूप महा किंमती-अमूल्य चीज छे. आत्मज्ञानरूपी रत्नना स्वामी
सम्यग्द्रष्टि झवेरी छे. गमे तेवुं रत्न होय पण तेनी किंमत आंकनार झवेरी वगर तेनी
किंमत ओळखाय नहीं तेम समकिती झवेरी वगर मिथ्याद्रष्टि ज्ञानरत्नने पारखी न
शके. केम के शरीरनी क्रिया वडे के राग-द्वेष वडे तेनी परीक्षा थई शकती नथी.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रण रत्नो छे-पर्याय छे. ते त्रण रत्न वडे तेनी परीक्षा थई
शके तेम छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय प्रगट करे-किंमत भरे, तो चैतन्यरत्न
प्राप्त थाय.
गुण-पर्यायने प्रकाशनारो छे पण ते परद्रव्यरूपे थई जतो नथी. शरीरने जाणे, राग,
कर्म, पुद्गल आदि बधांने जाणे पण ते-रूपे थई जतो नथी. जडदीवो तो बुझाई जाय
छे पण आ चैतन्यदीवाने मननी-रागना विकल्परूप तेलनी जरूर नथी झळहळ
ज्योति, अनादि अनंत देहरूपी देवळमां बिराजमान छे. वळी सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काळभावने
एक समयमां जाणी ले एवो स्व-परप्रकाशक चैतन्यदीवो छे.
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वीर्यनो-अनंत बळनो सूर्य भगवान आत्मा छे. सूर्य तो आतापवाळो छे पण
चैतन्यसूर्य तो परम शांत छे. जगतमां सूर्य तो असंख्य छे पण पोतानो चैतन्यसूर्य
तो अनुपम छे. द्रव्यस्वभाव-वस्तुस्वभावरूप आ सूर्य कदी कोईथी ढंकातो नथी. कर्मथी
अवराई जाय के रागना विकल्पमां ग्रसाई जाय एवो आ सूर्य नथी. ज्यारे बहारनो
सूर्य तो मेघ अने ग्रहोथी ढंकाई जाय छे. चैतन्यसूर्य स्वयं परमानंदमय छे. एने जे
देखे तेने ते आनंदकारी छे. शुद्धात्मा पोते ज्ञान ने आनंदनो दातार छे. वळी ते सदा
निरावरण अने नियमित पोताना असंख्यप्रदेश-स्वप्रदेशमां रहेनारो छे. देहमां रहेवा
छतां पोताना आकारे रहे छे.
ध्यान द्वारा आत्मानी मुक्ति थाय छे. दूध मेळवतां दहीं थाय तेम आत्मामां एकाग्र
थतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय अने दहीं वलोवतां माखण अने धी थाय
तेम आत्मामां विशेष लीन थतां मुक्तिरूपी घी प्रगट थाय छे.
चैतन्यनुं सत्त्व ते दूध तेने मेळववाथी एटले तेमां एकाग्र थवाथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्ररूपी दहीं बने अने तेमां विशेष एकाग्र थवाथी केवळज्ञाननुं माखण मळे छे.
पछी मुक्तिरूपी घी तैयार थाय छे.
प्रदेश के एक पण गुण खरे नहि तेवो पत्थर जेवो आत्मा छे. अनंत ज्ञानादि
शक्तिमांथी एक पण शक्ति कदी ओछी थती नथी. चंद्र-सूर्य पण एक जातना पत्थर छे
तेमांथी एक कणी पण क्यारेय खरती नथी. पत्थर बीजी वस्तुने रहेवा स्थान न आपे
तेम आत्मा विकल्पने पण पोतामां स्थान आपतो नथी. अनंत गुणनो ढीम आत्मा
राग-कर्म-शरीरादिने स्थान आपतो नथी. मगशेळिया पत्थरने पाणी पण अडे नहि तेम
भगवान आत्माने राग अडतो नथी. रागनुं पाणी आत्मामां पेसी शकतुं नथी.
टचनुं शुद्ध सुवर्ण बने छे तेम राग-द्वेष-मोहनी कालिमासंयुक्त आत्मसुवर्ण पण
पोतानी योग्यताथी ज पोतामां एकाग्रतारूप अग्निथी सो टचनो शुद्ध आत्मा बने छे.
स्वभावे तो शुद्ध हतो ज, ते पर्यायमां पण शुद्ध बने छे.
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उपमा आपीने आत्माने समजावे छे. खरेखर तो आत्माने कोईनी उपमा ज लागु
पडती नथी एवो अनुपम आत्माराम छे.
निर्मळताने खोई बेसतुं नथी. तेम आत्मा रागादि अवस्थाने धारतां छतां स्वभावे
निर्मळ अने शुद्ध ज रहे छे. बंधपणे थवुं एवो अबंधस्वभावी आत्मानो स्वभाव ज
पर्यायमां पण अशुद्धता न आवे. आहाहा...! केवुं सीधुं सट-सरळ-सुलभ वस्तुनुं
स्वरूप छे! पोताना भाव (गुण) छोडीने विकाररूपे थाय एवुं वस्तुनुं स्वरूप ज नथी.
प्रगटे छे.
अग्नि प्रकाशे छे, अनाजने पचवे छे ने इंधणने बाळे छे तेम भगवान आत्मा स्व-
परने प्रकाशनारो छे. पूर्ण त्रिकाळीने पचावनारो छे एक समयमां हुं पूर्ण प्रभु छुं एम
छे के जे अज्ञान अने राग-द्वेषने बाळीने खाख करे छे. आ जाजल्यमान ज्योतिने
कोई ढांकी शके तेम नथी. आत्मरूपी अनुपम अग्नि कर्मइंधनने बाळनारी,
सो लहु पावइ [?] बंभु परु केवलु करइ पयासु ।। ५८।।
तो पामे परब्रह्म झट, केवळ करे प्रकाश. प८.
आदिना संयोगो देखाय छतां ए बधां संयोगोथी तद्न निराळो छे. आकाश सदा
एकलुं निर्लेप छे तेम
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आकाशरूपे थया नथी, तेम ज्ञानमां पदार्थो जणाय छे तोपण पर पदार्थो आत्माथी जुदां
छे, पर पदार्थो आत्मामां नथी. आम आ प्रकारे आकाश अने आत्मामां समानपणुं
होवा छतां बे वच्चे फेर शुं छे ते हवे कहे छे.
आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ।। ५९।।
जडरूप जाणो व्योमने, चैतन्यलक्षण जीव. प९.
हो, पण तेना रंगे आकाश रंगायेलुं नथी. सर्वद्रव्योथी आकाश अलिप्त छे, तेम आत्मा
विकार के परचीजथी रंगायेलो नथी. आवा शुद्ध आत्मानुं एकाग्र थईने ध्यान करवुं
तेने योगसार कहे छे.
तेनामां ज्ञान नथी, ज्यारे आत्मा पोतानुं ध्यान करी शके छे केम के ते ज्ञानवान छे
माटे ते बन्नेमां महान तफावत जाणी हे जीव! तुं ज्ञानस्वरूपी आत्मानुं ध्यान करजे!
आत्मा चेतनार छे, जाणनार छे, एकाग्र थनार छे, माटे जाणनारने तुं जाणजे.
चैतन्यस्वरूप शुद्ध छे तेनुं जाग्रत थईने ध्यान करतां पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे.
जाणनारो छे माटे सर्वव्यापी छे.
विशेषता छे.
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दरेक द्रव्यमां तफावत छे.
शुद्धता प्रगट करवी छे तेवा जीवे पोताना शुद्ध स्वभावनुं ध्यान करीने तेमां एकाग्र
थईने शुद्धतानो अनुभव करवो ए ज निर्वाणनो मार्ग छे.
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननीक्षीर. ६०.
पडतां नथी.
ते मोक्षमार्गी छे. ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा पोतानी पूर्ण ज्ञानदशा प्रगट करवा
अत्यंतर द्रष्टिनुं साधन करे तेने फरी बीजी मातानी कुंखे अवतरीने मातानुं दूध पीवुं
नहि पडे.
शरीरना संहननमां मोक्षमार्ग खरेखर नथी.
मूकवानुं कह्युं छे. लोको मोटी आबरूने पोतानुं नाक कहे छे. अहीं कहे छे के आत्मानी
मोटी आबरू ‘केवळज्ञान’ ते आत्मानुं नाक छे. केवळज्ञानरूपी नाकनो आत्मा धणी छे.
शुं एनी महिमा!! केवळज्ञानीनी वाणीमां न आवी शके एटलुं आत्मानुं ज्ञान छे,
एटली शांति छे अने एवुं अनंतु बळ आदि बधा गुणो वाणीमां न आवी शके
एटलां महान छे. अनंती अनंती अनंती आत्मिकशक्ति ते आत्मानुं नाक छे. आत्मा
जेवी बीजी चीज केवी? एनी शुं
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अल्पकाळमां निर्वाण पामे. आवो अंतरनो मार्ग छे. बहार शोधवा जवो पडे तेम नथी.
आत्माना सामर्थ्यनी शी आबरू! जे वस्तुस्वभावमां जन्म-मरण नथी तेनुं ध्यान
करनारना जन्म-मरण पण टळी जाय छे.
शरीरप्रमाण बिराजित एटले के शरीर जेटलां क्षेत्रमां रहेलो-जेटलां क्षेत्रमां शरीर छे
एटलां ज क्षेत्रमां बिराजमान आत्माने अंतर सूक्ष्म भेदविज्ञानद्रष्टिथी जोवानो प्रयत्न
करे, रागथी भिन्न वीतराग तत्त्वने राग, संयोग, निमित्त अने विकल्प आदिरूप
आंख बंध करीने जोवानो वारंवार प्रयत्न करे, विकल्पनी वृत्तिनो नाश करी अंतर
निर्विकल्प तत्त्वमां टगटगी लगावे, तेमां एकाकार थाय तेने ते अभ्यंतर मोक्षनो उपाय
छे. बहारमां मोक्षमार्ग नथी. अंतरमां मोक्षमार्ग छे. प्रवचनसारमां पण कह्युं के अरे!
बहारमां मोक्षनुं साधन शोधवा शा माटे जाव छो? तमारुं साधन तमारां अंतरमां छे.
व्यवहारनुं फळ संसार कह्युं छे तेना तरफ लक्ष आपतो नथी.
अंतरना ध्याननी क्रिया छे. बहारनी क्रिया विकल्प आदि तो बधां दूर रही जाय छे.
व्यवहार मोक्षमार्ग खरेखर वास्तविक मोक्षमार्ग नथी. अभ्यंतर मोक्षमार्ग पोतानी पासे
छे अने पोते करी शके छे. निश्चय स्वरूपमां एकाग्र थवुं ते ज साचो मोक्षमार्ग छे.
छो, तुं शुद्ध छो, तुं अनादिथी रखडयो छो, एम समजावीने आत्मा पोते ज पोतामां
ठरे छे माटे आत्मा ज पोतानो साचो गुरु छे. आत्मा गुरु अने तेनी पर्यायरूपी प्रजा
ते तेनी शिष्य छे. पर्याय आत्मद्रव्यनो विनय करे छे. आत्मा अने पर्याय गुरु-शिष्य
छे. आत्मा अने पर्यायनां नामभेदे भेद छे, लक्षण भेदे भेद छे, भाव भेदे भेद छे,
अने प्रदेशभेदे बन्ने अभेद छे. द्रव्य धर्म कायमी असली धर्म छे अने पर्याय क्षणिक
धर्म छे. द्रव्यगुरुनो आधार लईने पर्यायरूपी शिष्य काम करे छे.
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मिच्छा–मोहु परिच्चयहि मुत्ति णिय वि ण माणि
मिथ्या मोह दूरे करी, तन पण मारुं न मान ६१.
तुं तेमां मोह न कर. निर्मोही बन.
समजे. पोतानुं बधुं श्रेय-हितनी दरेक क्रिया आत्मा साथे जोडे अने परथी प्रेम उठावी
ले. कारण के ज्यां सुधी हुं आत्मा अतीन्द्रिय आनंद अने सुखथी भरेलो छुं एवी
श्रद्धा, ज्ञान अने रुचि थतां नथी त्यां सुधी शरीर अने शरीरना साधनने ज हितकारी
मानी आवकारे छे, ईच्छे छे अने तेमां ज प्रेम करे छे. शरीर नीरोग रहे, शरीरने
बधी जातनी अनुकूळता रहे तो ठीक एवी बुद्धि मिथ्याद्रष्टिनी होय छे, माटे हे साधक!
तुं आवी मिथ्याद्रष्टिथी दूर रहेजे. तारा आत्मानी नीरोगता अने अनुकूळताथी तुं सुखी
छो. आवी श्रद्धा थयां पछी परमां मारापणानी-सारापणानी मान्यता छूटी जाय छे.
अज्ञानीने अंतरमां आनंदनो अनुभव नथी तेथी ते बहारना आनंदमां टेको आप्या
वगर रहेतो ज नथी. ‘शरीरे सुखी तो सुखी सर्व वाते’ आम मानीने अनित्य शरीर
आदिमांथी अज्ञानी जीव सुख लेवा चाहे छे.
करीने पण वांछा तो आ भव के परभवमां भोगो भोगववानी ज राखे छे.
थईने ज्यारे करवा मागे त्यारे आत्मानो अनुभव करी शके छे. तेने पोतापणुं-
मारापणुं एक आत्मामां ज छे, मोह क्यांय नथी. चारित्रमोहना उदयवश राग आवे
तो रोगी जेम कडवी औषधिनुं पान करे तेम सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी विषय भोग भोगवे छे.
लाचार थईने रोगीने कडवी दवा पीवी पडे तेम ज्ञानीने विकल्पवश-लाचारीवश भोग
भोगववा पडे छे, पण भावना तो तेनाथी केम जल्दी छूटाय एवी ज रहे छे. द्रष्टिमां
ग्रहण योग्य तो पोतानुं निजस्वरूप ज लागे छे पण रागवश भोगनुं ग्रहण करे छे.
मिथ्याद्रष्टिने वारंवार राग अने पर ज द्रष्टिमां आव्या करे छे. ज्यारे सम्यग्द्रष्टिने
वारंवार पोतानुं निजस्वरूप ज द्रष्टिमां आव्या करे छे.
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केवल–णाणु वि परिणवइ सासय–सुक्खु लहेइ ।। ६२।।
प्रगटे केवळज्ञान ने शाश्वत सुख पमाय.
जाय छे. ज्ञाननी साथे शाश्वत नित्य अविनाशी कायम टके एवा सुखने पण पामे छे.
पूर्ण ज्ञानरूपे परिणमतां साथे पूर्ण सुखने पण पामे एवुं आत्मानुभवनुं महान फळ
छे. अभ्यंतर मोक्षमार्गनुं-अनुभवनुं फळ केवळज्ञान अने पूर्ण सुख छे.
उपयोगने आत्मामां जोडीने आत्माने जाणतां जे महा आनंद थाय-तेनी शी वात! ते
आनंद पासे इन्द्रपद के चक्रवर्तीना वैभवनी कांई गणतरी नथी. ते इन्द्रपद अने
चक्रवर्तीपद तो पुण्यना फळ छे. आत्मज्ञानना फळमां तो केवळज्ञान अने पूर्ण सुख
प्रगट थाय छे ते ज वात अहीं लीधी छे. वच्चे रागना फळमां इन्द्रपद के चक्रवर्तीना
वैभवो मळे छे तेनी वात अहीं याद करी नथी, कारण के ते साध्य नथी. साध्य तो
केवळज्ञान अने शाश्वत सुख छे अने ते ज आत्मज्ञाननुं साचुं फळ छे. आत्मज्ञाननो
अपार महिमा छे. आम आत्माने कई रीते जाणवो अने तेनुं फळ केवुं महान छे ते
आ गाथामां बताव्युं छे.
जेम अशरीरी छुं. शरीरने स्पर्शतो ज नथी, अत्यारे
ज शरीरथी छूटो छुं, एम श्रद्धा नहि करे तो ज्यारे
शरीरथी छूटो पडशे त्यारे एनी लाळ शरीरमां ज लंबाशे
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केवल–णाणु वि परिणवइ सासय–सुक्खु लहेइ ।। ६२।।
प्रगटे केवळज्ञान ने शाश्वत सुख पमाय.
तत्त्व छे अने आत्मा पोते जीवतत्त्व छे. ए जीवतत्त्वमां छे शुं?-के आत्मामां ज्ञान,
आनंद, शांति, वीर्य, प्रभुता, विभुत्व, स्वच्छत्व, प्रकाश आदि अनंत गुणो छे एवा
आत्माने आत्माथी एटले के पोताने पोताथी जाणवो ते ज मोक्षमार्ग छे.
मोक्षनो मार्ग छे, बीजो कोई मोक्षमार्ग छे ज नहि. भगवान आत्मा अर्थात् निज
परमात्मा उपर द्रष्टि करीने पर्यायमां तेना अनुभव करतां शुं फळ प्राप्त न थाय? वच्चे
मतिश्रुतज्ञाननी विशेषता प्रगटे, अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय अने क्रमे क्रमे ए
अनुभव वधतां वधतां केवळज्ञान थाय. शुं फळ प्राप्त थाय? बधुं ज थाय. अनुभवनी
साथे व्रत-तप आदिना शुभविकल्प होय, तेनुं ज्ञान कराव्युं छे पण ए कांई मोक्षमार्ग
नथी स्वभावनुं साधन तो स्वभाव ज छे. सर्वज्ञ वीतराग स्वभावी आत्मानुं
वीतरागी पर्याय द्वारा ज ज्ञान थई शके, अनुभव थई शके. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्ररूप वीतरागी पर्याय ज मोक्षमार्ग छे.
आनंदनो ढगलो छे, पुंज छे, तेमांथी आनंद ज आवे. वळी ए आनंद केवो छे?-के
जेवो अरिहंत अने सिद्ध भगवानने आनंद छे ते ज जातनो आनंद धर्मीने अनुभवमां
आवे छे. ते अनुभवनो आनंद एवो छे के तेनी पासे इन्द्रना इन्द्रासनो पण धर्मीने
सडेलां तरणा
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आनंद तो मारी पासे छे, मारा आनंद पासे आ वैभवनी पण कांई किंमत नथी.
गुणोना भावनी अचिंत्यता तो अपार छे पण गुणोनी संख्या पण अनंत, अचिंत्य
अने अपार छे. ए अनंत गुणोना धारक निज आत्मानो अनुभव थतां समये समये
मांडीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अने केवळज्ञान बधुं ज मळे.
उछळ्युं ते हवे पूर्ण केवळज्ञान लेशे. उल्लसित वीर्य ज केवळज्ञाननुं अधिकारी छे. पामर
वीर्य केवळज्ञान लई शके नहि. उल्लसित वीर्य एटले शुं?-के जे शक्तिमां वीर्य गुण छे
अल्पकाळमां हुं सिद्धपदने प्राप्त करीश-एम एनुं वीर्य उछाळा मारे छे. तेने एम न
थाय के अरेरे! हवे शुं थशे? केवळज्ञान सुधी केम पहोंचाशे?-एवुं हीन वीर्य न होय.
सम्यग्दर्शन होय तो क्षायिक ल्ये अने क्षायिक होय तो शुक्लध्यान ल्ये अने शुक्लध्यान
होय तो केवळज्ञान ल्ये.
वृद्धि, प्रभुतानी उग्रता आदि बधी पर्यायोमां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. अनुभव थतां
ए वीर्य छे.
स्थिति घटती जाय छे. मोक्षमार्ग प्रगट थई गयो तेने संसारनी स्थिति केम वधे? न
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केवल–णाण–सरूव लइ [लहि?] ते संसारु मुंचति ।। ६३।।
केवळज्ञान स्वरूप लही, नाश करे भवताप. ६३.
अहीं त्यागधर्मनी मुख्यता बतावे छे. त्याग एटले विकल्पोनो परभावोनो
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शास्त्रोनी महिमा अने भक्ति छोडवी जोईए तथा हिंसा, जूठुं, चोरी, शिकार,
अन्याय कार्यो प्रत्ये ग्लानि होवी जोईए. आ रीते कुदेवादिनी श्रद्धा वगेरेनो त्याग करी
वीतराग परमदेव, निर्ग्रंथगुरु तथा अनेकांत वस्तुने बतावनारा शास्त्रोनी श्रद्धा करवी
करे अने आत्मानी ओळखाण करे त्यारे अनंतानुबंधी कर्म तथा मिथ्यात्वनो नाश थाय
अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो लाभ थाय. स्वरूपने ओळखी तेमां स्थिरता थवी ते
आत्मानुं ध्यान करतां निमित्तना लक्षे थतां पुण्य-पापना अनित्य भावोनो नाश थई
जाय छे.
जईने आ वात लखे छे. अहो! तारा स्वरूपमां अनंता सिद्ध भगवान बिराजे छे.
अनंती सिद्धपर्यायनो तुं पिंड छो. आवो निज भगवान जेना अनुभवमां आव्यो तेने
स्वामी थई गयो. पुण्य-पापना भावने पोताना माननारो तो परदेशी छे.
मोक्षमार्ग प्रगट थयां पछी बहारमां गमे तेवां उपसर्गो आवे, घाणीमां पीलाय ते
समये पण अंतरमां मुनिराज अतीन्द्रिय आनंदमां रमता होय छे. कोई वैरी देव
थई जाय छे. माटे कहे छे के एकवार चैतन्यरत्नाकर उपर द्रष्टि करीने अनुभव कर तो
तने शुं फळ नहि मळे? अल्पकाळमां सिद्ध थईने मुक्तिने पामीश.
आत्माओ धन्य-धन्य छे. अमे मुनिओ पण एवा मोक्षमार्गी साधकोने धन्य धन्य
कहीए छीए.
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कहेवामां आवे छे.
कह्यां! तेम दानमां खूब धन खर्चनारने पण धन्य नथी कह्यां. केम के ए कांई धन्य
चीज नथी. अंतरमां सत्चिदानंद ध्रुव लक्ष्मी पडी छे तेमां योग एटले के जोडाण करीने
शुद्ध निर्मळभावोने प्रगट करे ते धर्मी धन्य छे.
लोयालोय–पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ।। ६४।।
लोकालोक प्रकाशकर, जाणे विमळ स्वभाव. ६४.
स्वसन्मुख द्रष्टि करे छे एवा धर्मात्माओ धन्य छे. एक समयमात्रमां आखा
लोकालोकने जाणवानो आत्मानो ज्ञानस्वभाव एवो असाधारण छे के एवो स्वभाव
बीजा द्रव्योमां तो नथी पण आत्माना बीजा कोई गुणोमां पण एवो असाधारण
स्वभाव नथी. एवा ज्ञानस्वभाव वडे जे पोताना आत्माने जाणे छे अने तेमां एकाग्र
थाय छे ते धन्य छे.-प्रसंशनीय छे.
प्रतिनारायण, इन्द्र, धरणेन्द्र, अहमिंद्र आदि पदवीओ प्राप्त थई होय तोपण धर्मीने
मोह थतो नथी. निजपदनी पूर्ण साधना करनार धर्मीने लौकिक पदवीओनी जराय
चाहना नथी. धर्मानुराग, पंचपरमेष्ठीनी भक्ति, शास्त्रवांचन, पूजन, अनुकंपा आदि
शुभभावो धर्मी जीवने आवे छे पण तेनो तेने आदर होतो नथी. शुद्ध स्वभावमां ठरी
शक्तो नथी तेथी शुभभावमां आवे छे पण धर्मी ते भावने के तेना फळने आदरतो
नथी. धर्मीने धर्मप्रचारनो विकल्प आवे छे पण तेने छोडवा लायक समजे छे, एक
निजपदनी निर्विकल्प साधनामां ज उपयोगने रोके छे, केम के शुद्धस्वरूपमां जेटली
एकाग्रता थाय एटलो ज पोताने लाभ छे. धर्म-
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थईने, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिना विकल्पोने पण त्यागीने धर्मी जीव एक शुद्ध
निजात्माने ध्यावे छे अने परमानंदना अमृतनुं पान करे छे. अंतर सुधारसने पीए छे.
पंडित छे. परम ऐश्वर्यवान पण ए ज छे.
ऐश्वर्यवान नथी पण आत्मसंपदाने लूंटनारा धर्मी ते ऐश्वर्यवान छे. धर्मी जीव
निजशुद्धात्मानी प्रतीत-ज्ञान-रमणतारूप रत्नत्रयनो धणी छे. रत्नत्रयनो धणी ते ज
पूज्य गुरुदेवः- पैसावाळाए पैसानो मोह छोडी, आत्मानी रुचि करी रत्नत्रय
वाघनी गुफाओ जेनुं सुंदर घर छे, अनुभूति जेनी गिरिगुफा छे अने जेमणे अज्ञाननी
सर्व गांठोने तोडी पाडी छे अने ज्ञान-आनंदना खजाना खोल्यां छे एवा जगतथी
सो लहु पावइ सिद्धि–सुहु जिणवरु एम भणेइ ।। ६५।।
शीघ्र सिद्धि सुख ते लहे, एम कहे प्रभु जिन. ६प.
परमात्मा तीर्थंकरदेव सो इन्द्रोनी हाजरीमां सभामां एम फरमावे छे के ज्ञान-दर्शन
सहित जीव गृहस्थाश्रममां रहीने पण आत्मामां वसी शके छे. वीतरागना बिंब एवा
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गृहस्थ होय के मुनि बन्ने माटे आत्मरमणता ज सिद्धिसुखनो उपाय छे. चोथा-पांचमां
गुणस्थानमां गृहस्थ पण निज आत्मामां वसे छे वसी शके छे. गृहस्थाश्रममां राग
उग्रपणे आत्मामां वसे छे.
ते तो जाणवा माटे छे. निश्चयथी तो धर्मी पोताना आत्मामां ज वसे छे.
खोले छे ते तेमां ज वसे छे. रागादि होय छतां तेमां तेनुं वसवुं नथी. जेमां प्रीति छे
तेमां ज ते वस्यो छे. पुण्य-पाप भावमां धर्मीने प्रीति नथी तेथी ते एमां वस्यो छे
वसवानो वास छे.
धणीपणुं नथी, तेमां धर्मीनो वास नथी.
पीयुजीनी साथ, बीजाना मींढोळ नहि रे बांधु.’ तेम समकिती कहे छे के
“ लगनी लागी मारा चैतन्यनी साथ, बीजाना भाव नहि रे आदरुं.” “धर्म जिनेश्वर
आनंद मारो प्रभु तेना हुं गुणगान गाउं छुं. पुण्य-पापना गुणगान हुं नहि गाउं.
मारा मनना मंदिरमां विकल्पने स्थान न आपुं ए अम कुळवट रीते जिनेश्वर! ए
अमारा अनंता सिद्धोना वट छे.
बन्ने अल्पकाळमां सिद्धिसुखने पामशे. ज्यां जेनी प्रीति लागी छे त्यां ज ए ठर्या छे.
बीजे ठरवुं एने गोठतुं नथी. जेने प्रभुताना भणकारा वाग्या तेनो वसवाट आत्मा
योगीन्द्रदेव भगवाननी वाणीनो आधार लईने आम फरमावे छे.
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छे. आ वातनी ना न पाड भाई! ना न पाड! जिनदेवनुं आ फरमान छे, तेनी तुं ना
पाडीश तो तुं जिनवरदेवनो वेरी थईश. जिनवरनो वेरी ते आत्मानो वेरी. मिथ्याद्रष्टि
समकिती थयो एटले बहिरात्मामांथी अंतरात्मा थयो. हवे अंतरात्मा थयो तो एनी
द्रष्टिमां-एना वसवाटमां कांई फेर पडे के नहि? रागमां वसवाट तो बहिरात्मानो छे,
तो अंतरात्मानो वसवाट रागमां न होई शके, तेनो वसवाट आत्मामां छे. आम कांईक
विचार भाई! सीधी ना न पाडी दे.
अनुभव करी रह्या छे तेवो ज अनुभव सम्यग्द्रष्टिने थाय छे. अतीन्द्रिय आनंदनी
जातमां फेर नथी. सिद्ध अने साधक बंने एक ज जातना अतीन्द्रिय आनंद अनुभवी
रह्यां छे. जे साधन वडे अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थाय छे ते ज साधन सिद्धिसुखनो
उपाय छे एटले के दर्शन-ज्ञान अथवा तो अतीन्द्रिय आनंद पोते ज पूर्ण आनंदनुं
साधन छे.
केम के स्वानुभवमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणेय समाय जाय छे. तेथी कहे छे के
स्वानुभव अतीन्द्रिय आनंद ज मोक्षमहेलनी सीधी सडक छे. अहीं मुनिराजे विकल्प
आदिना तो भूका उडाडी दीधा छे. क्यांय विकल्पनुं स्थान ज नथी. अतीन्द्रिय आनंद
ज पूर्णानंद सुधी पहोंचाडशे, ए सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. शुभ विकल्प आदि
व्यवहार साथे होय पण ते कोई मार्ग नथी, उपाय नथी. हिंसा, जुठुं, चोरी, परिग्रह,
अब्रह्म आदिनो त्याग, मन-वचन-कायनी शुभ प्रवृत्ति आदि विकल्पो बधां छे खरां
पण ते व्यवहारचारित्र छे. निश्चयचारित्र तो एक अतीन्द्रिय आनंदरूप स्वानुभव छे.
विरला झायहिं तत्तुं जिय विरला धारहि तत्तु ।। ६६।।
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
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कोई विरला ज करे छे.
रसिया, पुण्यना रसिया, संसारना रसियाने आ वात सांभळवी बहु कठण पडे छे माटे
कहे छे के तत्त्वनी वात सांभळनार श्रोता पण दुर्लभ छे. एथी पण विशेष
शुद्धात्मतत्त्वनुं ध्यान करनार वधु विरल छे. जुओ! अहीं पैसावाळाने के आबरूवाळाने
के बेठी आवकवाळाने विरल न कह्यां पण शुद्धात्माने जाणनारने विरल कह्यां. खरेखर
अतीन्द्रिय आनंदनी बेठी आवक तो आत्मानुं ध्यान करनारने मळी रही छे. आत्मानुं
स्वरूप धारणामां लईने अनुभव करनारा कोई विरला ज होय छे.
कदाच जवानुं थई जाय तो मौन रहेवुं जोईए. आ
अंतरनो मार्ग तो एवो छे के सहन करी लेवुं जोईए.
विरोधमां पडवुं नहि. पोतानो गोळ पोते चोरीथी अर्थात्
छुपी रीते खाई लेवो जोईए. फंफेरो करवा जेवो काळ
नथी. पोतानुं संभाळी लेवा जेवुं छे. वाद-विवादमां
ऊतरवा जेवुं नथी.
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के वाणीने झीलनार गणधरदेवनी हाजरी न हती माटे वाणी न छूटी, पण खरेखर तो
वाणी छूटवानो योग न हतो माटे ज वाणी न छूटी. पछी विचार करीने इन्द्र
इन्द्रभूति-गौतम पासे गया अने छ द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिनुं स्वरूप
समजाववा तेने कह्युं. ए तो तेने आवडतुं न हतुं एटले कहे चाल, तारा गुरु पासे.
तेथी इन्द्र गौतमने लईने भगवान पासे आव्या अने ज्यां गौतमे समवसरण जोयुं
त्यां तो एनुं मान गळी गयुं अने अंदर गया त्यां तो आत्मज्ञान प्राप्त करी लीधुं.
तेनी योग्यता हती ने! तरत भगवाननी वाणी छूटी. श्रावण वद एकमे सौप्रथम
वाणी छूटी ते गौतम गणधरे झीली अने भावश्रुतरूपे परिणमीने सुत्ररूपे वाणी गूंथी.
अंतर्मूहूर्तमां बार अंग अने चौदपूर्वनी रचना करी. आजना दिवसे आ रचना थई. ते
बार अंग अने चौद पूर्वनो सार शुं? ते अहीं कहेवामां आवे छे.
आव्यो. ध्रुव, शाश्वत, एकरूप, अनादि अनंत एवी चीजमां एकाकार थईने स्वरूपना
आनंदनुं वेदन थवुं तेने योगसार कहे छे के जे मोक्षनो मार्ग छे.
विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ।। ६६।।
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
पण दुर्लभ