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देहा–देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ।। ४२।।
तन-मंदिरमां देव जिन, ते निश्चयथी जाण. ४२.
पूजा कर, ते देवनी पूजा छे. मंदिरमां तो भगवाननी स्थापना छे पण त्यां खरा
भगवान नथी केम के खरा भगवान तो समवसरणमां छे अने त्यां जईश तोपण तने
भगवाननुं शरीर ज देखाशे. भगवाननो आत्मा नहि देखाय. भगवाननो आत्मा
क्यारे देखाशे? के ज्यारे तुं तारा आत्माने देखीश त्यारे. रागनी आंख बंध करी परने
जोवानुं बंध करीश ने स्वने जाणीश-देखीश त्यारे तारो आत्मा जणाशे अने त्यारे
खरेखर भगवान तने जणाशे-के परमात्मा आवा होय. भगवाननी भक्ति करे छे ने!
ते पण पोताना आत्माने जेणे जाण्यो छे ते भक्ति करे छे, अने तेनी भक्ति ज
व्यवहारथी साची छे.
नथी, परंतु आत्मानुं शरण लेतां तेमां ई बधा
आवी जाय छे. माटे आत्मा ज शरणरूप छे. अर्हंत
एटले वीतरागी पर्याय, सिद्ध एटले वीतरागी पर्याय,
आचार्य, उपाध्याय अने साधु एटले वीतरागी पर्याय
-ए बधी वीतरागी पर्यायो मारा आत्मामां ज
पडेली छे. तेथी मारे बीजे क्यांय नजर करवानी
नथी. मारे ऊंचे आंख करीने बीजे क्यांय जोवानुं
नथी. मारो आत्मा ज मने शरणरूप छे.
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देहा–देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ।। ४२।।
तन-मंदिरमां देव जिन, ते निश्चयथी जाण. ४२.
आ आत्मा नथी. आ आत्माने जोवो अने जाणवो होय तो ए आ शरीररूपी तीर्थ
अने मंदिरमां ज देखाशे. आ आत्मा कांई भगवान पासे नथी. प्रश्नः-भगवान पासे
आत्मानो नमूनो तो छे ने?-के आ आत्मा त्यां छे के अहीं? आ आत्मा अहीं छे, तो
तेनो नमूनो पण अहीं ज छे.
मंदिर...अमारुं मंदिर. पण एला, मंदिरमां तारो भगवान क्यां छे? तारो भगवान तो
तारामां छे. श्रुतकेवळी आम कहे छे के आ देहदेवालयमां भगवान बिराजे छे. आम
कहीने सिद्ध करे छे के तारामां जोवाथी तने आत्मा मळशे. मंदिरना भगवान सामे
जोवाथी तारो आत्मा नहि मळे. मंदिरमां तो भगवान केवा होय, केवा हता तेनुं
प्रतिबिंब छे. तेनाथी पर परमेश्वरनुं स्मरण थाय पण पोतानो आत्मा न देखाय.
साक्षात् भगवान सामे जोवाथी पण आ भगवान न देखाय.
आवा हता एम स्मरण थाय एमां पण उपादान तो पोतानुं ज छे. आटली वात
अहीं सिद्ध करवी छे.
देहमंदिर छे जेमां खरेखर पोतानो भगवान बिराजे छे. जिनप्रतिमा तो शुभमां-
निमित्त तरीके भगवान केवा हता तेम तेनाथी स्मरण थाय पण त्यां भगवान क्यां
हता? सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो अंतर द्रष्टि करशे त्यारे थशे, ए वात पछी लेशे. अहीं तो
एटली वात छे के अनंतकाळमां
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छे अने भविष्यमां पण जेटला पामशे ते बधा अंतरद्रष्टिथी ज थया छे, थाय छे ने
थशे. आत्मानुं स्मरण तो त्यारे थाय के पहेलां तेनो अवग्रह, ईहा, अवाय ने धारणा
थाय. पहेला विचार तो आवे. सम्मेदशिखर ने शत्रुंजय बधां तिर्थक्षेत्र अने सिद्धक्षेत्र
तो भगवान केवा हतां तेना स्मरणमां निमित्त थाय छे, आत्माना स्मरणमां नहि. तो
पछी मंदिर शुं काम करावे छे?-के ई तो भगवानना स्मरण माटे छे.
जोवाथी पामशे. पहेलां बहार जोवाथी मोक्ष पाम्या अने हवे पामशे ए अंतर जोवाथी
पामशे एम नथी. आत्मानी विचारधारा-अवग्रह क्यारे प्रगटे? अंतरमां जुए त्यारे
प्रगटे ने? आत्मानी प्राप्ति तो आत्मा सामे जोवाथी थाय के पर सामे जोवाथी थाय?
भाई! ई तो अंतरमां देखवाथी ज जणाय एवो छे. माटे ज आ देह ज देवालय छे,
ज्यां जोवाथी आत्मा प्रगट थाय. बीजा देवळमां जोवाथी आत्मा न प्रगट थाय.
तो एक शुभभाव होय त्यारे स्मृतिमां आवे पण ए स्मृतिने पाछी वाळवी छे
अंतरमां. बहार जोये आत्मप्राप्ति थई होय एवुं भूतकाळमां बन्युं नथी, वर्तमानमां
बनतुं नथी अने भविष्यमां बनवानुं नथी.
माननार पण मूढ छे, ज्यारे अंतरमां टकी न शके त्यारे भगवाननी पूजा-भक्तिना
शुभभावरूप व्यवहार होय ज.
हाउस महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ।। ४३।।
हास्य मने देखाय आ, प्रभु भिक्षार्थे भमंत. ४३.
त्यारे केवळज्ञाननी साची स्तुति थाय.
छे पण
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पण ते व्यवहारथी निश्चय थशे एम नथी.
छे ने! योग नाम जोडाण. पोतामां एकाकार थई जोडाय तेनुं नाम योगसार.
भगवाननुं साचुं भजन क्यारे कहेवाय? के ज्यारे पोतानुं भजन करे अने पोतानुं
भजन करे तो भवनो अंत आवे ज. पोताना भगवानने ओळखे त्यारे ज भगवानने
ओळखे अने भजे छे. ‘सिद्ध समान सदा पर मेरो’ एमां ठरी जा!
छे. तारी लक्ष्मी मारी पासे नथी.
तो आत्मदेवने अंतरमां जोई लीधो तेने बहारनी क्रियामां मोह रहेतो नथी. परमार्थथी
बाह्य जीवो मोक्षमार्गने समजता ज नथी अने पुण्यने ज निर्वाणनो मार्ग मानी ले छे.
पर तरफना लक्षथी-दया-दान-व्रत-भक्तिथी कदी पण मोक्ष थतो नथी. व्यवहारथी
निश्चय पमातो नथी एम सिद्ध करवुं छे.
देहा–देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचित्ति ।। ४४।।
तन-मंदिरमां देव जिन, समज थई समचित्त. ४४.
चैतन्यमूर्तिनुं अवलोकन तो अरागी निर्विकारी भावथी थाय छे. कारण के ए
चैतन्यमूर्तिमां रागनो अभाव छे. निज आत्मप्रभुने जोवामां समभाव जोईए.
ईश्वर होवाथी जिनेन्द्र छे. बेहद शांतस्वरूप निराकुळ छे. स्वभावमां जिनेन्द्रपणुं न
होय तो पर्यायमां
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जिनेन्द्र छे. जिन अने जिनेन्द्रमां कांई फेर नथी. समभावथी एटले के पर तरफना
रागना वलणने रोकी स्व तरफनुं वलण करवाथी स्वात्मा श्रद्धाय छे, देखाय छे.
पण जीव ओशीयाळो-पामर एवो थई गयो छे के मने घर, बार, बैरा, छोकरां आदि
पर वगर न चाले!
देहा–देउलि जो मुणइ सो वुहु को वि हवेइ ।। ४५।।
विरला ज्ञानी जाणता, तन-मंदिरमां देव.
मोटी भूल छे. अज्ञानी त्यां आत्माने जोवा जाय छे पण आत्मा मळतो नथी
भगवान आत्माने देखे छे, दर्शन करे छे ते ज्ञानी छे. देवळमां बिराजतां भगवान
मानीने ज भगवानने भजे छे.
ते लाव. सामाए कह्युं के हुं चोपडामां जोईश. चोपडामां जोयुं तो रूा. १०० नीकळता
हता पण रूा १०० कबूलवा जईश तो वधारे चोंटशे एटले बे मींडा ज उडावी दीधां के
चडाव्या’ता. एम मूर्ति होय पण सादी होय, आंगी न होय. तोय श्वेतांबरोए चडावी
दीधी त्यारे स्थानकवासीए मूर्ति ज उडाडी दीधी. बेय खोटा छे.
मानतुं नथी.
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छे के सिंहनो आकार, भय देखाडवा मात्र आ मूर्ति छे, ते सिंहनुं ज्ञान करवामां
निमित्तमात्र छे, साक्षात् सिंह नथी. तेम भगवाननी प्रतिमा भगवान केवा हता तेनुं
स्वरूप देखाडवामां निमित्त छे. भगवाननुं स्मरण करावे छे माटे मूर्तिने मूर्ति मानवी,
परमात्मा न मानवा ते यथार्थ ज्ञान छे. अंदर बिराजे छे ते परमात्मा छे. आ
योगसार कोई दी वंचाणुं नथी. पहेलीवार वंचाय छे. व्यवहार खरेखर असत्यार्थ छे. ते
वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम बतावतो नथी. दाखला तरीके नारकी, मनुष्य, पशु, देव
आदि छे ते आत्मा छे एम व्यवहारथी कहेवाय पण खरेखर निश्चयथी ते आत्मा नथी.
ते शरीरमां रहेलो ज्ञानमय छे ते आत्मा छे. माटे ज्ञानी पोताने मानव नथी मानता;
पोते साक्षात् भगवान छे तेम माने छे.
निमित्तने वळग्यो छे. व्यवहारथी निश्चय पमाशे एटले के असत्यथी सत्य पमाशे एम
मानीने वळग्यो छे. भूतार्थ भगवान आत्मा अखंडानंद प्रभुने जोनारा बहु थोडा छे.
निश्चय समज्या विना व्यवहारने माननारा क्यारेय सत्य पामी शक्ता नथी.
तो व्यवहारनी नीतिना वचनथी आवे छे. परंतु
अध्यात्मद्रष्टिथी तो विकारने अने आत्माने अत्यंत
अभाव छे. चैतन्यगोळो विकारथी भिन्न एकलो छूटो
ज पडयो छे एने देख! जेम तेल पाणीना प्रवाहमां
उपर ने उपर तरे छे, पाणीना दळमां पेसतुं नथी
तेम विकार चैतन्यना प्रवाहमां उपर ने उपर तरे छे,
चैतन्यदळमां पेसतो नथी.
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छे. अने तेनो सार एटले निश्चय स्वभावनी स्थिरता. तेमां अहींया गाथा ४६ मां कहे
छे के धर्मरूपी अमृत पीवाथी अमर थवाय छेः-
धम्म–रसायणु पियहि तुहुं जिम अजरामर होहि ।। ४६।।
अजरामर पद पामवा, कर धर्मोषधि पान. ४६.
आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप छे तेनी अंतर श्रद्धा ज्ञान ने रमणता तेने अहींया धर्म
कहेवामां आवे छे. तुं ते धर्मरूपी रसायण अर्थात् उत्तम औषधिनुं सेवन कर, जेथी तुं
अजर-अमर थई शके. पण पहेलां जीवने आ जन्म-मरणना दुःख भासवा जोईए.
मटाडवा माटे आत्मामां औषध छे. आत्माना आनंद स्वरूपने अनुसरीने अंतरमां
तेनी श्रद्धा ज्ञान ने रमणतारूप अनुभव करवो ते जन्म-जरा-मरणने नाश करवानो
उपाय-औषधि छे-एम सर्वज्ञ परमात्मा वीतरागदेव त्रण काळ, त्रण लोकना जाणनार
कहे छे. माटे धर्म रसायण छे. अने आ धर्म रत्नत्रयस्वरूप छे. देहनी क्रिया ते धर्म
नथी, तेमज दया, दान, भक्ति आदिना भाव थाय ते पण धर्म नथी. परंतु शुद्ध
आनंदकंद आत्मानो अनुभव करवो ते धर्म छे. आहाहा!! आत्मा अनंतगुणनुं
पवित्रधाम छे. जेटलो जे कांई आ विकार देखाय छे ते कांई आत्मा नथी. माटे
आत्मानो अनुभव करवो ते ज जन्म-जरा-मरणने मटाडवानुं औषध छे. ते धर्म-
औषध शुद्धिभावरूप छे, आत्मतल्लीनतारूप छे. ज्यारे अनादि पुण्य-पापना
विकारीभावनी तल्लीनता ते जन्म-मरणना रोगोने उत्पन्न करवानुं कारण छे.
आहाहा! आ देह तो माटी जड छे. कर्म पण जड छे ने जे पुण्य-पापना भाव थाय छे
ते पण विकार ने दुःख छे, दोष छे तेथी तेनाथी रहित आत्माना
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टाळवानो उपाय छे. एटले के पुण्य-पापना विकारीभावनो अनुभव तो रोगने उत्पन्न
करवानुं कारण छे. ज्यारे आत्मानो अनुभव ते ज मोक्षनो उपाय छे.
सिवाय परमां जरीये तारो पुरुषार्थ काम करे नहीं. आहाहा! पोतानी सत्तामां रहीने
कां तो विकार करे ने कां तो आत्मानो अनुभव करीने मुक्ति करे. बाकी बहारनुं फोतरुं
पण ते फेरवी शके नहीं. तेनो रोग शुं छे ते बतावनार ज्ञानी छे. अने तेनी आज्ञा छे
के विचार ने ध्यान ते रोगनुं औषध छे. भगवान आत्मानी पर सन्मुखनी
उपयोगदशाने फेरवी पोताना अंर्तस्वभावमां उपयोगने जोडवो ते योगसार छे ने तेने
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहे छे. अने ए ज धर्म-रसायण छे के जे पीवाथी
परमानंदनो लाभ थाय छे. आत्मामां थतां शुभ-अशुभभाव ते धर्म नथी. परंतु
आत्माना शुभ-अशुभभावथी खसीने अंतर आत्मामां शुद्ध भाव प्रगट करवो तेने
भगवान धर्म कहे छे, अने आत्मानो अनुभव ज मोक्षनो उपाय छे.
नाश करवानो तारो काळ छे. तारे टाणा आव्या छे.
धम्मु ण मढिय–पणसि धम्मु ण मत्था–लुंचियई ।। ४७।।
राखे वेश मुनि तणो, धर्म न थाये लेश. ४७.
छे, नग्न दिगम्बर, जंगलवासी आचार्य छे ने आत्मध्यानमां मस्त छे. तेओ आम कहे
छे के कोई एकांत वनमां के मठमां रहे तेमां शुं थयुं? वनमां तो घणा चकला पण रहे
छे. ज्यां धर्मनुं भान नथी त्यां मठ ने वन एक ज छे. ज्ञानानंद शुद्ध आत्मानुं भान
करीने ते भले वनमां रहे के भले घरमां रहे पण ते आत्मामां ज छे. केशलोचनथी
पण धर्म नथी.
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सो धम्मु वि जिण–उत्तियउ जो पंचम–गइ णेइ ।। ४८।।
जिनवरभाषित धर्म ते, पंचम गति लई जाय. ४८.
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वसवुं ते आत्मामां वसवुं नथी तेम कहे छे. आहाहा! भगवान चैतन्यधाम बिराजे छे.
ठर अने ते योगसार छे. अंदर वसे ते योगसार छे, के जे मुक्तिनो उपाय छे ने तेने
वीतराग परमेश्वरे धर्म कह्यो छे. आहाहा! सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ वीतराग परमात्मानी
धर्म छे ने जेटलो पुण्य ने पापना भावमां जाय तेटलो अधर्म कहेवाय छे. आवी वात
छे, भारे आकरी भाई! कर्म, शरीर, वाणीथी रहित भगवान आत्मा छे. केम के कर्म,
माटे ते पण आत्मा नथी. आत्मा तो शुद्ध वीतरागी विज्ञानघनथी भरेलुं तत्त्व छे
तेमां तेने शुद्धभाव प्रगट थाय छे ने जेटलो पुण्य-पापना विकल्पमां आवे तेटलो
छोडी दईने भगवान आत्मा के जे शांत अने सच्चिदानंद मूर्ति छे तेमां जेटलो वसे,
रहे, ठरे, एकाग्र थाय तेटलो शुद्धभाव प्रगट थाय छे, ने तेटलो धर्म छे एम भगवाने
विकल्प आवे छे तेनी मोक्षमां पहोंचाडवानी ताकात नथी तेम कहे छे. कारण के ते
बंधनुं कारण छे. जेम पापनो भाव बंधनुं कारण छे तेम पुण्यनो भाव पण बंधनुं
शुभभाव होय छे, पण तेनाथी संवर निर्जरा थाय तेम छे नहीं. तो करवा शुं करवा?-
के ए भाव वच्चे आवशे भाई! ज्यारे तेने पापभाव न होय ने शुद्ध स्वरूपमां
पामे, त्यांसुधी वचमां शुभभाव आवे छे पण ते आवे छे माटे मोक्षनुं कारण छे के
आत्माने शांतिनुं कारण छे तेम नथी. कारण के शुभभाव पोते अशांति छे. अशुभभाव
नथी. भगवान आत्मा अनादि अनंत चैतन्यज्योत छे, अकृत्रिम अणकरायेल
अविनाशी प्रभु छे. तेवा चैतन्य प्रभुना स्वभावमां तो परमानंद ने शुद्धता भरी छे,
छे, अने ते सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मानी निर्विकल्प शुद्ध पर्याय छे, तथा जे
आत्मामां वसे छे तेने आत्मानी पूर्ण दशा प्रगट थाय छे.
मोहु फुरइ णवि अप्प–हिउ इम संसार भमेइ ।। ४९।।
आत्महित स्फूरे नहि, एम भमे संसार.
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आहाहा! कूतरानी जेम अज्ञानी ज्यां त्यां बहारमां भटके छे. कूतरो घरना
वधवापणुं
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गाम. एम एक कोर सत् चिदानंद अनाकुळ आनंदकंद पदार्थ छे अने एक कोर पुण्य-
पापना विकार, शरीर, कर्म आदि परपदार्थ छे. बेमांथी जेने बाह्यसामग्री प्रत्ये पे्रम
वधी जाय छे तेने तृष्णा वधती जाय छे अने आतमराम प्रत्ये जेने पे्रम वधी जाय छे
तेने तृष्णा घटती जाय छे.
थयो छे. भगवान आत्माने छोडीने पर पदार्थमां प्रेम ए तुष्णावर्धक ज छे. एम ४९
मी गाथामां कह्युं. हवे प०मी गाथामां कहे छे के हे योगी! खरेखर आत्मा ज प्रेमने
पात्र छे. आत्मामां रमण करनार निर्वाणने पामे छेः-
जोइउ भणइ हो जोइयहु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ५०।।
शीघ्र लहे निर्वाणपद, धरे न देह नवीन.
आत्मामां कर तो शीघ्र मुक्ति थाय.
सांभळवानो प्रेम पण राग छे.
हवे सवळा पुरुषार्थथी, तुं पोते ज गुलांट खाईने तारा आत्मानो प्रेम कर! तो शीघ्र
मुक्ति पामीश.
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जिंदगी आत्माने खोईने पण परनो प्रेम छोडतो नथी. मूढ बहारनी प्रीतिमां भगवान
आत्मानी प्रीति खोई बेठो छे, भले त्यागी होय पण ज्यां सुधी एने बहारमां दया-
दानादिमां प्रेम छे त्यां सुधी ए जोगी नथी पण भोगी छे.
जणाशे पण राग वगर जणाशे. आखी दुनिया देखाशे पण एमां तने प्रेम नहि थाय,
आत्मस्वभावना प्रेममां पछी आ साधन मने अनुकूळ अने आ प्रतिकूळ एवुं रहेतुं नथी.
गाढ प्रेमभावथी पोताना आत्मामां रमतुं करवुं जोईए. एम थाय तो वीतरागताना
प्रकाशथी शीघ्र निर्वाण लाभ थाय.
भान नथी तेथी बहार आनंद लेवा जाय छे. तेथी कहे छे के एकवार गुलांट खा!
परनो प्रेम छोडी स्वनो प्रेम कर.
ज्योतना प्रेममां भस्म थई जाय छे तोपण एने खबर रहेती नथी. कर्णेन्द्रियना
विषयभूत-सांभळवाना शोखीन हरणीया जंगलमां शिकारमां पकडाई जाय छे. दाखलां
आपीने एम कह्युं के एक एक इन्द्रियमां जेम ए जीवो लीन छे तेम तुं आत्मामां
लीन था. एकमात्र आत्मानी लगनी लगाव! तो समकित थाय ने भवभ्रमण टळे.
वळी कहे छे के आत्माना रसमां एवुं रसिक थई जवुं जोईए के मान-अपमान,
जीवन-मरण, कंचन-काच बधामां समभाव थई जाय. जेम धतूरा पीवावाळाने बधी
चीज पीळी देखाय छे तेम धर्मीने एक नित्यानंद भगवान आत्मा द्रष्टिमां आवतां
तेना सिवाय बधी वस्तु क्षणिक-नाशवान ज देखाय छे. हुं अविनाशी छुं अने बाकी
बधुं विनाशिक छे एम ज्ञानीने देखाय छे.
छे. ते बीजा आत्माने पण बंधनवाळा देखतो नथी. पोताना आत्माने जेम निर्विकारी
देखे छे तेम अन्यना आत्माने पण धर्मी निर्विकारी देखे छे. तेना पुण्य-पापने विकारी
भावरूप देखे छे, देहने जड पुद्गल जाणे छे अने बधानां आत्माने आनंदमय देखे छे.
त्रणलोकनी संपदा पण तेने झीर्ण तृण समान देखाय छे.
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थाय? आत्मार्थीए आवा ज प्रश्नो करवा जोईए. सहज तेने प्रश्नो एवा ज ऊठे.
बहु लागी छे. पण अरे! आ पाणी तो तारी पासे ज भर्युं छे. पाणीमां ज तुं छो. तो
माछली कहे छे के तमे पण ज्ञानथी ज भर्या छो. तमे पोते ज ज्ञानस्वरूप छो.
वखत मळतो नथी. माटे कहे छे मोक्षेच्छुए आत्मानी चाह करवी, आत्मानी लगनी
लगाडवी, बीजानी लगनी छोडवी ए ज आत्मार्थीनुं कर्तव्य छे.
अप्पा भावहि णिम्मलउ लहु पावहि भवतीरु ।। ५१।।
करी शुद्धातम भावना, शीघ्र लहो भवतीर. प१.
मलिनतानुं घर छे. हाडकां, चामडां, मांस, लोही, परुनुं घर छे. एम जराक शरीर
उपरथी चामडी उतरडे तो खबर पडी जाय. ते जोवा पण ऊभो न रहे.
क्षणमात्र पण शाता नथी. नरक अत्यंत ग्लानिकारक छे, खराब छे, दुःखकारी छे पण
तने खबर नथी भाई! आ शरीर पण नरकना घर जेवुं छे, एमां बधुं ग्लानिकारक ज
भर्यु छे. जे शरीर उपर जीवने अतिशय प्रेम छे ए ज शरीरना लोही, परु, हाडकां,
मांस आदि जुदां जुदां भाग करीने बतावे तो ते जोवा पण ऊभो न रहे.
मानसिक अने शारीरिक वेदनानो पार नथी. आम आखी जिंदगी वीतावे छे. एमां जो
आत्मा पोतानुं साधन करे तो फरी आवो दुःखमय देह ज न मळे पण तेने आत्मानो
महिमा आवतो नथी. जीवने परनो ज महिमा आवे छे तेथी एनो प्रेम परमां ज
लूंटाई जाय छे.
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आदि शुभभावथी पण धर्म न थाय तो शरीरनी क्रियाथी तो धर्म क्यांथी थाय?
चामडीथी ढंकायेलो छो अने आयुकर्मथी तुं जकडायेलो छो. आवा शरीरने हे जीव! तुं
काराग्रह जाण! तेनी वृथा प्रीति करीने तुं दुःखी न थाय! तेमांथी छूटवानो प्रयत्न कर!
पण चोपडी नथी’ एवा शरीरना जेने अभिमान छे तेने आत्मानो प्रेम नथी तेना
आत्मानुं कल्याण न थाय. शरीरनो प्रेम छोडाववा माटे शरीरने नरकनी उपमा आपी छे.
तहिं कारणि ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ।। ५२।।
ते कारण जगजीव ते, पामे नहि निर्वाण.
दान, व्रत मंदिर बंधाववाना एवा धंधामां पडयां छे. आम कोई अशुभरागना धंधामां
ने कोई शुभरागना धंधामां फसाई गया छे. र४ कलाकमां आत्मा कोण छे, केवो छे ए
जोवा पण नवरो थतो नथी. शुभाशुभरागना धंधामां भगवानने खोई बेठो छे.
आत्मस्वभावमां जोडावुं ते ‘योग’ छे बाकी बधुं ‘अयोग’ छे.
कहे छे के हुं ऊंट उपर बेठो छुं. अरे! ऊंट उपर पण छो तो जेलमां ने! एम त्यागी
कहे अमे धर्म करीए छीए पण जड शरीरनी क्रियामां ज ते धर्म माने छे. परंतु ते
त्यागी होय तोपण संसारमां ज पडया छे. आत्माने ओळखतो नथी.
एटले तो कह्युं के “सकल जग धंधे फस्या छे”.
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एटले माने के मने धर्म थई गयो. पण भाई! मंदिर आदि रागना कार्य कर्ये धर्म नहि
थाय. पोताना आत्माना श्रद्धा-ज्ञान करवाथी ज धर्म थाय.
तहिं कारणि ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ।। ५३।।
ते कारण ए जीव खरे, पामे नहि निर्वाण. प३.
आनंद छे. शास्त्रवांचन ते धर्म नथी, छतां शास्त्रपाठी व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, वैदक
आदि अनेक विषयोने जाणे छे पण शुद्ध निश्चय उपर लक्ष आपतां नथी, स्वभावनो
पुरुषार्थ करतां नथी तेथी शास्त्र वांचे छे छतां अध्यात्मज्ञानथी शून्य रहे छे.
चैतन्यधातुने जाणतां नथी माटे तेनुं शास्त्र भणतर निष्फळ कह्युं छे.
थाय. माटे आत्माना लक्ष वगर शास्त्रना भणनारा पण जड छे. भगवान आत्मानी
अंतर्मुख थईने आत्मानुं ज्ञान करे ते चैतन्य छे.
सार काढवानो छे. निश्चयथी आत्माने न जाण्यो तेणे कांई जाण्युं नथी.
आवडत नथी. आत्मानी प्रतीत अने आत्मानुं ज्ञान कर्युं तेणे बधुं कर्युं. जेणे
आत्मज्ञान नथी कर्युं, अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपने सम्यग्दर्शन द्वारा अनुभव्युं नथी तेनी
आखी जिंदगी अफळ छे-निष्फळ छे. आत्माना अनुभव विनानुं मात्र शास्त्रज्ञान
भववर्धक बने छे, निर्वाणना मार्गथी दूर लई जाय छे. माटे भाई! शास्त्र वांचता पण
लक्ष तो आत्मानुं ज राखजे.
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तहिं कारणि ए जीव फुडु णिव्वाणु लहंति ।। ५३।।
ते कारण ते जीव खरे, पामे नहि निर्वाण. प३.
मात्र शास्त्र वांच्या करे तेनुं शास्त्र-भणतर व्यर्थ छे. जिनवाणी सांभळीने, वांचीने,
धारीने अभेद आत्मानो अनुभव करवो ए तेनुं फळ छे. अंतर-अनुभवनी द्रष्टि वगर
चारेय अनुयोगनुं भणतर करनाराने जड कह्यां छे.
चिदानंद प्रभुनो अनुभव करवो ते ज शास्त्रभणतरनुं फळ छे. सर्व शास्त्र भणवा
पाछळ हेतु समकितनो लाभ प्राप्त करवानो छे. ए हेतु न सरे तो शास्त्र भणवा पण
कार्यकारी नथी.
नथी. ख्याति-पूजा मेळववा माटे जे शास्त्रो भणे छे अने आत्मानुभूति करवानो
प्रयत्न करतो नथी तेनुं जीवन अफळ छे. उलटुं तेने माटे तो प्रयोजन अन्यथा
साधवाथी शास्त्रज्ञान संसारवृद्धिनुं कारण बनी जाय छे अने पोते निर्वाणमार्गथी दूर
जाय छे. आवडतना अभिमानमां अटकी समकितनो लाभ चूकी जाय छे.
रायहं पसरु णिवारियइ सहज उपज्जइ सोइं ।। ५४।।
राग-प्रसार निवारतां, सहज स्वरूप उत्पाद. प४.
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चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ लहु पावहि भवपारु ।। ५५।।
तज पुद्गल ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार. पप.
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होय छे. न होय एम करीने उडाडी दे तो ए जीवतत्त्वने ज समजतो नथी. शुभभाव
छे तो खरा, पण एनी मर्यादा छे के ए भावोथी निर्मळ आत्मानो धर्म प्रगट न थाय.
शुद्धभाव न थाय.
पोताना आत्मारूपी चैतन्यरतनमां एकाग्र थईने स्वरूपनुं ग्रहण करे छे तेने पोताना
स्वामीपणाथी संतोष थई जाय छे. शरीर-वाणी-मननो तो आत्मा स्वामी नथी पण
दया-दान आदि शुभभावनो पण आत्मा स्वामी नथी. आत्मा तो एक सहजात्म शुद्ध
चैतन्यपिंडनो स्वामी छे, मालिक छे. ए मालिकीमां ज धर्मीने संतोष थाय छे. परना
स्वामीपणामां संतोष नथी, असंतोष छे. अनंतगुणरूपी आत्मानी पूंजीनो स्वामी थतां
धर्मीने संतोष थई जाय छे. परनुं स्वामीपणुं मानवुं ए तो मूढता छे.
दुःखदायक भ्रमणा छे, वास्तविक संतोष नथी. पोताना स्वरूपना स्वामीपणामां ज खरो
संतोष थाय छे.
ते जिण–णाहहं उत्तिया णउ संसार मुचंति ।। ५६।।
छूटे नहि संसारथी, भाखे छे प्रभु जिन. प६.
विकल्पथी आत्माने जाणे ते साचुं जाणपणुं ज नथी. गाथाए गाथाए वात फेरवे छे.
एकनी एक वात नथी. ज्ञाननी लहेरे जागतो भगवान पोते पोताने प्रत्यक्ष न जाणे
तेने अमे ज्ञान कहेता ज नथी. प्रत्यक्ष आत्माने प्रत्यक्ष जाणे ते ज ज्ञान छे.
थवानी विधि कहे छे. शास्त्रथी अने विकल्पथी आत्मानुं ज्ञान करवुं ते खरेखर प्रत्यक्ष
ज्ञान नथी. परमात्मस्वरूपमां स्थित आत्मानुं स्वरूप रागथी-शास्त्रथी न जणाय.
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‘न होवापणे’ केम कहेवुं? तुं पूर्ण सत्ता ‘सततं सुलभं’ भगवान! तुं तने सुलभ न
हो तो बीजी कई चीज सुलभ होय? तुं तारी हथेळीमां छो एटले के तुं तने अत्यंत
सुलभ छो.
करवो पडे ने होवो ज जोईए होय तो मने ठीक एम सम्यग्द्रष्टि मानतो नथी.
व्यवहारनुं पूछडुं निश्चयने लागु पडतुं नथी.
जेणे आत्माने प्रत्यक्ष जाण्यो नथी ते संसारथी नहि छूटे. समजाणुं कांई? ज्ञानथी
ज्ञानने वेदे ते प्रत्यक्षज्ञान छे. शास्त्रथी, मनथी, गुरुवचनथी के विकल्पथी आत्मानुं
जाणपणुं ते परोक्ष छे, प्रत्यक्षज्ञान नथी.
आवेली आ वात छे. मिथ्यात्व ए ज संसार छे. मिथ्यात्व जाय पछी संसार न रहे.
भगवान आत्मानुं अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान करी तेमां स्थिर था! वारंवार अतीन्द्रिय
ज्ञाननो स्पर्श कर! तने जरूर सुख थशे.
संवर-निर्जरा न थाय. लाख उपवास करे पण अनुभव न होय तेने संवर-निर्जरा न
थाय. आ धरम तो बहु मोंघो!! तेने ज्ञानी कहे छे के भाई! धर्म तो बहु सोंघो छे.
बहारनी वस्तुमां तो पैसा जोईए बजारमां लेवा जवुं पडे ने आ धर्म प्रगट करवामां
तो क्यांय जवुं पण न पडे ने कोई बीजानी जरूर पण न पडे. अरे! पण माणसने
पोतानी जातने जाणवी मोंघी लागे छे! तारुं परमात्मस्वरूप तो तारी पासे ज बिराजी
रह्युं छे तेने जाणवुं ते मोंघु नथी.
आग भभूकी ऊठे छे जे कर्मरूपी इंधनने जलावीने भस्म करी नाखे छे. आत्माना
ध्यान विना कर्मथी मुक्त कोई थई शकतुं नथी. माटे वास्तवमां आत्मानुभव ज
मोक्षमार्ग छे. समकित बाह्य चारित्रने मोक्षमार्ग मानता नथी.