Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 16-19.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 6 of 13

 

Page 90 of 238
PDF/HTML Page 101 of 249
single page version

background image
९०] [हुं
हवे कहे छे निज शरीर ज निश्चयथी तिर्थ अने मंदिर छे.
तित्थहि देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि–वुत्तु ।
देहा–देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ।। ४२।।
तीर्थ-मंदिरे देव नहि-ए श्रुतकेवळी वाण;
तन-मंदिरमां देव जिन, ते निश्चयथी जाण. ४२.
श्रुतकेवळी अने भगवान कहे छे के निश्चयथी देवालयमां परमात्मा नथी पण
शरीररूपी तारा देहदेवळमां परमात्मा-तारो आत्मा बिराजमान छे-तेम जाण ने! तेनी
पूजा कर, ते देवनी पूजा छे. मंदिरमां तो भगवाननी स्थापना छे पण त्यां खरा
भगवान नथी केम के खरा भगवान तो समवसरणमां छे अने त्यां जईश तोपण तने
भगवाननुं शरीर ज देखाशे. भगवाननो आत्मा नहि देखाय. भगवाननो आत्मा
क्यारे देखाशे? के ज्यारे तुं तारा आत्माने देखीश त्यारे. रागनी आंख बंध करी परने
जोवानुं बंध करीश ने स्वने जाणीश-देखीश त्यारे तारो आत्मा जणाशे अने त्यारे
खरेखर भगवान तने जणाशे-के परमात्मा आवा होय. भगवाननी भक्ति करे छे ने!
ते पण पोताना आत्माने जेणे जाण्यो छे ते भक्ति करे छे, अने तेनी भक्ति ज
व्यवहारथी साची छे.
मारे (निश्चयथी) अर्हंत आदिनुं शरण लेवानुं
नथी, परंतु आत्मानुं शरण लेतां तेमां ई बधा
आवी जाय छे. माटे आत्मा ज शरणरूप छे. अर्हंत
एटले वीतरागी पर्याय, सिद्ध एटले वीतरागी पर्याय,
आचार्य, उपाध्याय अने साधु एटले वीतरागी पर्याय
-ए बधी वीतरागी पर्यायो मारा आत्मामां ज
पडेली छे. तेथी मारे बीजे क्यांय नजर करवानी
नथी. मारे ऊंचे आंख करीने बीजे क्यांय जोवानुं
नथी. मारो आत्मा ज मने शरणरूप छे.
-पूज्य गुरुदेव

Page 91 of 238
PDF/HTML Page 102 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [९१
[प्रवचन नं. १६]
देहदेवालयमां बिराजमान निज परमात्माने देख
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २३-६-६६]
तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि–वुत्तु ।
देहा–देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ।। ४२।।
तीर्थ-मंदिरे देव नहि-ए श्रुतकेवणी वाण;
तन-मंदिरमां देव जिन, ते निश्चयथी जाण. ४२.
खरेखर शरीर ज तीर्थ अने मंदिर छे, केमके आत्मा तेमां वसे छे. बाह्य
मंदिरमां आत्मा वसतो नथी. प्रतिमामां आत्मा नथी. तेम साक्षात् भगवानमां पण
आ आत्मा नथी. आ आत्माने जोवो अने जाणवो होय तो ए आ शरीररूपी तीर्थ
अने मंदिरमां ज देखाशे. आ आत्मा कांई भगवान पासे नथी. प्रश्नः-भगवान पासे
आत्मानो नमूनो तो छे ने?-के आ आत्मा त्यां छे के अहीं? आ आत्मा अहीं छे, तो
तेनो नमूनो पण अहीं ज छे.
जुओ, आ वास्तविक तत्त्व! भगवाननी प्रतिमा छे त्यां इ कांई भावनिक्षेप
नथी. ई तो स्थापनानिक्षेप छे. शरीररूपी तीर्थमां ज भगवान बिराजे छे. अमारुं
मंदिर...अमारुं मंदिर. पण एला, मंदिरमां तारो भगवान क्यां छे? तारो भगवान तो
तारामां छे. श्रुतकेवळी आम कहे छे के आ देहदेवालयमां भगवान बिराजे छे. आम
कहीने सिद्ध करे छे के तारामां जोवाथी तने आत्मा मळशे. मंदिरना भगवान सामे
जोवाथी तारो आत्मा नहि मळे. मंदिरमां तो भगवान केवा होय, केवा हता तेनुं
प्रतिबिंब छे. तेनाथी पर परमेश्वरनुं स्मरण थाय पण पोतानो आत्मा न देखाय.
साक्षात् भगवान सामे जोवाथी पण आ भगवान न देखाय.
शास्त्रोना वाक्यथी ज्ञान थाय? अरे! धूळमांय न थाय. पर संबंधी ज्ञान थाय
ते पण तारा पोताथी थाय छे, पोताना उपादानथी थाय, निमित्तथी नहि. भगवान
आवा हता एम स्मरण थाय एमां पण उपादान तो पोतानुं ज छे. आटली वात
अहीं सिद्ध करवी छे.
भगवान नथी गूफामां, नथी पर्वत-नदीमां, नथी मंदिरमां क्यांय बहारमां
भगवान नथी तो मंदिरने वास्तविक मंदिर केवी रीते कहेवाय? वास्तविक मंदिर तो
देहमंदिर छे जेमां खरेखर पोतानो भगवान बिराजे छे. जिनप्रतिमा तो शुभमां-
निमित्त तरीके भगवान केवा हता तेम तेनाथी स्मरण थाय पण त्यां भगवान क्यां
हता? सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो अंतर द्रष्टि करशे त्यारे थशे, ए वात पछी लेशे. अहीं तो
एटली वात छे के अनंतकाळमां

Page 92 of 238
PDF/HTML Page 103 of 249
single page version

background image
९२] [हुं
जेटला आत्मा मोक्ष पाम्या के सम्यग्दर्शन पाम्या ते अने वर्तमानमां पण जेटला पामे
छे अने भविष्यमां पण जेटला पामशे ते बधा अंतरद्रष्टिथी ज थया छे, थाय छे ने
थशे. आत्मानुं स्मरण तो त्यारे थाय के पहेलां तेनो अवग्रह, ईहा, अवाय ने धारणा
थाय. पहेला विचार तो आवे. सम्मेदशिखर ने शत्रुंजय बधां तिर्थक्षेत्र अने सिद्धक्षेत्र
तो भगवान केवा हतां तेना स्मरणमां निमित्त थाय छे, आत्माना स्मरणमां नहि. तो
पछी मंदिर शुं काम करावे छे?-के ई तो भगवानना स्मरण माटे छे.
आ आत्मा अनंत ज्ञान-दर्शन संपन्न छे. जेटला मोक्ष पाम्या छे ते अंतरथी
पाम्या छे. वर्तमानमां पामे छे ते पण अंदर जोवाथी अने हवे पामशे ए पण अंतरमां
जोवाथी पामशे. पहेलां बहार जोवाथी मोक्ष पाम्या अने हवे पामशे ए अंतर जोवाथी
पामशे एम नथी. आत्मानी विचारधारा-अवग्रह क्यारे प्रगटे? अंतरमां जुए त्यारे
प्रगटे ने? आत्मानी प्राप्ति तो आत्मा सामे जोवाथी थाय के पर सामे जोवाथी थाय?
भाई! ई तो अंतरमां देखवाथी ज जणाय एवो छे. माटे ज आ देह ज देवालय छे,
ज्यां जोवाथी आत्मा प्रगट थाय. बीजा देवळमां जोवाथी आत्मा न प्रगट थाय.
भगवान केवा हता तेना स्मरणनुं मात्र निमित्त मंदिरो छे अथवा तो ज्यांथी
भगवान निर्वाण पामे त्यां मंदिर होय पण तेनाथी कांई आत्मा प्रगट थई जाय!? ए
तो एक शुभभाव होय त्यारे स्मृतिमां आवे पण ए स्मृतिने पाछी वाळवी छे
अंतरमां. बहार जोये आत्मप्राप्ति थई होय एवुं भूतकाळमां बन्युं नथी, वर्तमानमां
बनतुं नथी अने भविष्यमां बनवानुं नथी.
हवे कहे छे के देवालयमां साक्षात् देव नथी, परोक्ष व्यवहार देव छे. भगवाननी
प्रतिमा छे ज नहि एम माने तोपण मूढ छे अने तेनाथी आत्मानी प्राप्ति थाय एम
माननार पण मूढ छे, ज्यारे अंतरमां टकी न शके त्यारे भगवाननी पूजा-भक्तिना
शुभभावरूप व्यवहार होय ज.
देहा–देवलि देउ जिणु जणु देवलिहि णिणइ ।
हाउस महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ।। ४३।।
तन मंदिरमां देव जिन, जन देरे देखंत;
हास्य मने देखाय आ, प्रभु भिक्षार्थे भमंत. ४३.
केवळ ज्ञाननी स्तुति केम थाय? एम कुंदकुंदाचार्य पासे प्रश्न थयो त्यारे
आचार्यदेवे कह्युं अंतरमां बेठेलां भगवानने अतीन्द्रिय ज्ञान वडे जाणे अने अनुभवे
त्यारे केवळज्ञाननी साची स्तुति थाय.
अज्ञानी मंदिरमां देव पासे जईने भगवान पासे शिवपद मागे छे पण एला
तारुं शिवपद त्यां छे के तारी पासे छे? ज्ञानी तो जाणे छे के मारुं शिवपद मारी पासे
छे पण

Page 93 of 238
PDF/HTML Page 104 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [९३
तेने व्यवहारमां एवा भक्तिना भाव आवे छे. व्यवहार नथी एम नथी; व्यवहार छे
पण ते व्यवहारथी निश्चय थशे एम नथी.
अरे! मने हांसी आवे छे के मोटो राजा थईने घेर घेर भीख मागे तेम पोते
चैतन्यराजा अने मंदिरमां भगवान पासे आत्मानी भीख मागे छे! आ तो योगसार
छे ने! योग नाम जोडाण. पोतामां एकाकार थई जोडाय तेनुं नाम योगसार.
शुभभावमां ज्ञानी होय त्यारे एम पण कहे के-श्रीमद्नुं वाक्य छे ने के-
‘भजीने भगवंत भवंत लहो!’ भगवाननुं भजन कर्ये भवनो अंत आवशे. पण
भगवाननुं साचुं भजन क्यारे कहेवाय? के ज्यारे पोतानुं भजन करे अने पोतानुं
भजन करे तो भवनो अंत आवे ज. पोताना भगवानने ओळखे त्यारे ज भगवानने
ओळखे अने भजे छे. ‘सिद्ध समान सदा पर मेरो’ एमां ठरी जा!
घरमां लक्ष्मी छे अने बहारमां भीख मांगवा जाय, तेम चैतन्यलक्ष्मी पोतानी
पासे छे अने भगवान पासे मागे छे. तो भगवान कहे छे के तारी लक्ष्मी तारी पासे
छे. तारी लक्ष्मी मारी पासे नथी.
अंतरना चारित्र विना बाह्य चारित्र रेतीमांथी तेल काढवा बराबर छे. पोताना
स्वरूपना भान अने रमणता वगर बहारनुं चारित्र मिथ्या छे, जूठुं छे. जेणे खरेखर
तो आत्मदेवने अंतरमां जोई लीधो तेने बहारनी क्रियामां मोह रहेतो नथी. परमार्थथी
बाह्य जीवो मोक्षमार्गने समजता ज नथी अने पुण्यने ज निर्वाणनो मार्ग मानी ले छे.
पर तरफना लक्षथी-दया-दान-व्रत-भक्तिथी कदी पण मोक्ष थतो नथी. व्यवहारथी
निश्चय पमातो नथी एम सिद्ध करवुं छे.
हवे समभावरूप चित्तथी पोताना जिनदेवने देखो एम कहे छेः-
मूढा देवलि देउ णवि णवि सिलि लिप्पइ चित्ति ।
देहा–देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचित्ति ।। ४४।।
नथी देव मंदिर विशे, देव न मूर्ति, चित्र;
तन-मंदिरमां देव जिन, समज थई समचित्त. ४४.
परदेवालयमां देखवाथी तो शुभराग थाय छे पण स्वदेवालयमां देखवाथी
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय छे. शुभरागथी चैतन्यमूर्ति देखाती नथी.
चैतन्यमूर्तिनुं अवलोकन तो अरागी निर्विकारी भावथी थाय छे. कारण के ए
चैतन्यमूर्तिमां रागनो अभाव छे. निज आत्मप्रभुने जोवामां समभाव जोईए.
हे मूर्ख! देव कोई बीजा मंदिरमां नथी के नथी पाषाणमां के नथी शिल्पमां,
जिनदेव तो शरीररूपी देवालयमां बिराजे छे. आत्मा ज पोताना वीतरागी स्वभावनो
ईश्वर होवाथी जिनेन्द्र छे. बेहद शांतस्वरूप निराकुळ छे. स्वभावमां जिनेन्द्रपणुं न
होय तो पर्यायमां

Page 94 of 238
PDF/HTML Page 105 of 249
single page version

background image
९४] [हुं
जिनेन्द्रपणुं क्यांथी आवशे? माटे नक्की थाय छे के पोतानो आत्मा ज स्वभावथी
जिनेन्द्र छे. जिन अने जिनेन्द्रमां कांई फेर नथी. समभावथी एटले के पर तरफना
रागना वलणने रोकी स्व तरफनुं वलण करवाथी स्वात्मा श्रद्धाय छे, देखाय छे.
योगीन्द्रदेव जंगलमां वसता हता, तेणे आ रहस्य कह्युं छे. ए रहस्यनो धरनार तुं छो,
पण जीव ओशीयाळो-पामर एवो थई गयो छे के मने घर, बार, बैरा, छोकरां आदि
पर वगर न चाले!
तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोइ भणेइ ।
देहा–देउलि जो मुणइ सो वुहु को वि हवेइ ।। ४५।।
तीर्थ-मंदिरे देव जिन, लोक कथे सहु एम;
विरला ज्ञानी जाणता, तन-मंदिरमां देव.
४प.
ज्ञानी शरीरमंदिरमां आत्माने देखे छे. पहेलां नहोतो देखतो तेनी वात हती,
हवे देखे छे तेनी वात कहे छे.
अज्ञानी जीव तो भगवानना स्थापनानिक्षेपमां ज आत्मा मानी ले छे.
स्थापना निक्षेपमां भाव भगवान मानी ले तो भ्रम छे ज, तेमां आत्मा मानवो ए
मोटी भूल छे. अज्ञानी त्यां आत्माने जोवा जाय छे पण आत्मा मळतो नथी
ज्यां सुधी पोताना स्वरूपमां पूर्ण न ठरे त्यां सुधी भगवानना दर्शननो भाव
आवे ज. न आवे एम नहि, पण त्यां आत्माना दर्शन न थाय. जे कोई देहदेवालयमां
भगवान आत्माने देखे छे, दर्शन करे छे ते ज्ञानी छे. देवळमां बिराजतां भगवान
मारा उपकारी छे. माटे पूजवा लायक छे एम माने एमां दोष नथी. ज्ञानी एम
मानीने ज भगवानने भजे छे.
एक वात एवी छे ने के एक जणे बीजाने रूा. १०० आप्या हशे. तेना
छोकराए पेलाना छोकराने कह्युं के मारा बापे तारा बापने १०,००० रूपिया आप्या छे
ते लाव. सामाए कह्युं के हुं चोपडामां जोईश. चोपडामां जोयुं तो रूा. १०० नीकळता
हता पण रूा १०० कबूलवा जईश तो वधारे चोंटशे एटले बे मींडा ज उडावी दीधां के
मारा बापे लीधां ज नथी. आणे बे मींडा काढी नाख्या अने पेलाए बे मींडा
चडाव्या’ता. एम मूर्ति होय पण सादी होय, आंगी न होय. तोय श्वेतांबरोए चडावी
दीधी त्यारे स्थानकवासीए मूर्ति ज उडाडी दीधी. बेय खोटा छे.
देवळमां ज देव छे, देहदेवळमां नहि एम बधा माने छे, पण देवळमां तो
भगवाननी मूर्ति छे पण साक्षात् देव तो देहदेवळमां बिराजे एम कोई जोतुं नथी ने
मानतुं नथी.
सम्यग्द्रष्टि सदाय जाणे छे अने माने छे के ज्यारे हुं अंतरद्रष्टि करुं छुं त्यारे
मने मारो आत्मा ज जणाय छे अने ई आत्मदर्शन ज निर्वाणनुं कारण छे.
दाखलो दे छे के जेम सिंहनी मूर्तिने जोईने मने खाई जशे एम माने ते मूढ छे.

Page 95 of 238
PDF/HTML Page 106 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [९प
तेम भगवाननी मूर्ति मने संसारसमुद्रथी तारी देशे एम माने ते मूढ छे. ज्ञानी जाणे
छे के सिंहनो आकार, भय देखाडवा मात्र आ मूर्ति छे, ते सिंहनुं ज्ञान करवामां
निमित्तमात्र छे, साक्षात् सिंह नथी. तेम भगवाननी प्रतिमा भगवान केवा हता तेनुं
स्वरूप देखाडवामां निमित्त छे. भगवाननुं स्मरण करावे छे माटे मूर्तिने मूर्ति मानवी,
परमात्मा न मानवा ते यथार्थ ज्ञान छे. अंदर बिराजे छे ते परमात्मा छे. आ
योगसार कोई दी वंचाणुं नथी. पहेलीवार वंचाय छे. व्यवहार खरेखर असत्यार्थ छे. ते
वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम बतावतो नथी. दाखला तरीके नारकी, मनुष्य, पशु, देव
आदि छे ते आत्मा छे एम व्यवहारथी कहेवाय पण खरेखर निश्चयथी ते आत्मा नथी.
ते शरीरमां रहेलो ज्ञानमय छे ते आत्मा छे. माटे ज्ञानी पोताने मानव नथी मानता;
पोते साक्षात् भगवान छे तेम माने छे.
सवर्ज्ञ परमात्मा व्यवहारने असत्यार्थ अने निश्चयने सत्यार्थ कहे छे. सर्व
संसारी जीव भूतार्थ-निश्चय ज्ञानथी बहु दूर छे. मोटो भाग तो व्यवहार अने
निमित्तने वळग्यो छे. व्यवहारथी निश्चय पमाशे एटले के असत्यथी सत्य पमाशे एम
मानीने वळग्यो छे. भूतार्थ भगवान आत्मा अखंडानंद प्रभुने जोनारा बहु थोडा छे.
निश्चय समज्या विना व्यवहारने माननारा क्यारेय सत्य पामी शक्ता नथी.
परद्रव्यने अने आत्माने अत्यंत अभाव छे
तो व्यवहारनी नीतिना वचनथी आवे छे. परंतु
अध्यात्मद्रष्टिथी तो विकारने अने आत्माने अत्यंत
अभाव छे. चैतन्यगोळो विकारथी भिन्न एकलो छूटो
ज पडयो छे एने देख! जेम तेल पाणीना प्रवाहमां
उपर ने उपर तरे छे, पाणीना दळमां पेसतुं नथी
तेम विकार चैतन्यना प्रवाहमां उपर ने उपर तरे छे,
चैतन्यदळमां पेसतो नथी.
– पूज्य गुरुदेव

Page 96 of 238
PDF/HTML Page 107 of 249
single page version

background image
९६] [हुं
[प्रवचन नं. १७]
राग–द्वेष त्यागीने, निज परमात्मामां करो निवास
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. २४-६-६६]
श्री योगीन्द्रदेव दिगंबर मुनि थई गया. तेमणे आ योगसार बनाव्युं छे. आ
आत्मानो स्वभाव शुद्ध ने आनंद छे अने तेमां एकाग्रता थवी तेनुं नाम योग कहेवाय
छे. अने तेनो सार एटले निश्चय स्वभावनी स्थिरता. तेमां अहींया गाथा ४६ मां कहे
छे के धर्मरूपी अमृत पीवाथी अमर थवाय छेः-
जइ जर–मरण–करालियउ तो जिय धम्म करेहि ।
धम्म–रसायणु पियहि तुहुं जिम अजरामर होहि ।। ४६।।
जरा-मरण भयभीत जो, धर्म तुं कर गुणवान;
अजरामर पद पामवा, कर धर्मोषधि पान. ४६.
हे जीव! तुं जरा-मरणथी भयभीत हो अने दुनियाना संयोगना दुःख ने
चोराशीना अवतारथी जो तुं भयभीत हो तो धर्म कर. धर्म एटले शुं? भगवान
आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप छे तेनी अंतर श्रद्धा ज्ञान ने रमणता तेने अहींया धर्म
कहेवामां आवे छे. तुं ते धर्मरूपी रसायण अर्थात् उत्तम औषधिनुं सेवन कर, जेथी तुं
अजर-अमर थई शके. पण पहेलां जीवने आ जन्म-मरणना दुःख भासवा जोईए.
घडपण आवतां शरीरनी शक्ति क्षीण थई जाय छे. ईन्द्रियोमां शक्ति रहेती
नथी. बहारना रोग मटाडवाने जेम औषध होय छे, तेम जन्म-जरा-मरणना रोगने
मटाडवा माटे आत्मामां औषध छे. आत्माना आनंद स्वरूपने अनुसरीने अंतरमां
तेनी श्रद्धा ज्ञान ने रमणतारूप अनुभव करवो ते जन्म-जरा-मरणने नाश करवानो
उपाय-औषधि छे-एम सर्वज्ञ परमात्मा वीतरागदेव त्रण काळ, त्रण लोकना जाणनार
कहे छे. माटे धर्म रसायण छे. अने आ धर्म रत्नत्रयस्वरूप छे. देहनी क्रिया ते धर्म
नथी, तेमज दया, दान, भक्ति आदिना भाव थाय ते पण धर्म नथी. परंतु शुद्ध
आनंदकंद आत्मानो अनुभव करवो ते धर्म छे. आहाहा!! आत्मा अनंतगुणनुं
पवित्रधाम छे. जेटलो जे कांई आ विकार देखाय छे ते कांई आत्मा नथी. माटे
आत्मानो अनुभव करवो ते ज जन्म-जरा-मरणने मटाडवानुं औषध छे. ते धर्म-
औषध शुद्धिभावरूप छे, आत्मतल्लीनतारूप छे. ज्यारे अनादि पुण्य-पापना
विकारीभावनी तल्लीनता ते जन्म-मरणना रोगोने उत्पन्न करवानुं कारण छे.
आहाहा! आ देह तो माटी जड छे. कर्म पण जड छे ने जे पुण्य-पापना भाव थाय छे
ते पण विकार ने दुःख छे, दोष छे तेथी तेनाथी रहित आत्माना

Page 97 of 238
PDF/HTML Page 108 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [९७
स्वभावनुं स्वसंवेदन अर्थात् आत्माने जाणे-वेदे ने ठरे ते एक ज जन्म-मरण
टाळवानो उपाय छे. एटले के पुण्य-पापना विकारीभावनो अनुभव तो रोगने उत्पन्न
करवानुं कारण छे. ज्यारे आत्मानो अनुभव ते ज मोक्षनो उपाय छे.
आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के-
“आत्मभ्रान्ति सम रोग नहीं, सद्गुरुवैद्य सुजाण,
गुरु–आज्ञा सम पथ्य नहीं, औषध विचार ध्यान.”
रागमां, पुण्यमां, शरीरमां आत्मा छे-एवी मान्यता मोटो भ्रम छे. अहींया कहे
छे के भाई! तारो पुरुषार्थ कां तो विकारमां चाले छे ने कां तो स्वभावमां चाले, ते
सिवाय परमां जरीये तारो पुरुषार्थ काम करे नहीं. आहाहा! पोतानी सत्तामां रहीने
कां तो विकार करे ने कां तो आत्मानो अनुभव करीने मुक्ति करे. बाकी बहारनुं फोतरुं
पण ते फेरवी शके नहीं. तेनो रोग शुं छे ते बतावनार ज्ञानी छे. अने तेनी आज्ञा छे
के विचार ने ध्यान ते रोगनुं औषध छे. भगवान आत्मानी पर सन्मुखनी
उपयोगदशाने फेरवी पोताना अंर्तस्वभावमां उपयोगने जोडवो ते योगसार छे ने तेने
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहे छे. अने ए ज धर्म-रसायण छे के जे पीवाथी
परमानंदनो लाभ थाय छे. आत्मामां थतां शुभ-अशुभभाव ते धर्म नथी. परंतु
आत्माना शुभ-अशुभभावथी खसीने अंतर आत्मामां शुद्ध भाव प्रगट करवो तेने
भगवान धर्म कहे छे, अने आत्मानो अनुभव ज मोक्षनो उपाय छे.
जेम विद्वान लोको टाणाने ओळखीने शत्रुने हणी नाखे छे. तेम हे आत्मा! तने
अवसर मळ्‌यो छे तो अत्यारे मनुष्यदेहमां आत्मानुं भान करीने विकाररूपी शत्रुनो
नाश करवानो तारो काळ छे. तारे टाणा आव्या छे.
हवे आगळनी गाथामां बाह्यक्रियामां धर्म नथी तेम कहे छेः-
धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्था–पिच्छियई ।
धम्मु ण मढिय–पणसि धम्मु ण मत्था–लुंचियई ।। ४७।।
शास्त्र भणे मठमां रहे, शिरना लुंचे केश;
राखे वेश मुनि तणो, धर्म न थाये लेश. ४७.
अरे! मोटा मोटा शास्त्र भणीने पंडित थई जाय तेथी धर्म थई गयो छे तेम
नथी. तेम ज नग्नपणुं, मोरपींछी ने कमंडळ ते कांई धर्म नथी. योगीन्दुदेव पोते मुनि
छे, नग्न दिगम्बर, जंगलवासी आचार्य छे ने आत्मध्यानमां मस्त छे. तेओ आम कहे
छे के कोई एकांत वनमां के मठमां रहे तेमां शुं थयुं? वनमां तो घणा चकला पण रहे
छे. ज्यां धर्मनुं भान नथी त्यां मठ ने वन एक ज छे. ज्ञानानंद शुद्ध आत्मानुं भान
करीने ते भले वनमां रहे के भले घरमां रहे पण ते आत्मामां ज छे. केशलोचनथी
पण धर्म नथी.

Page 98 of 238
PDF/HTML Page 109 of 249
single page version

background image
९८ ] [ हुं
आहाहा! लोकोने एम थई जाय छे के आ शुं? पण भाई ते तो जडनी बहारनी
क्रिया छे. आत्मानी कांई क्रिया नथी. जो तेमां पण मंदराग करीने सहनशीलता करे तो
पुण्यभाव छे. पण आत्माना भान विना माथा मुंडावे तेमां कांई धर्म छे नहीं.
जेनाथी जन्म-जरा-मरणनुं दुःख मटे, कर्मोनो नाश थाय ने स्वाभाविक दशा
प्रगट थाय ते आत्मानो नित्य स्वभाव छे ने ते धर्म छे. माटे कहे छे के जो पोतानी
श्रद्धा करशे, पोतानुं ज्ञान करशे, ने तेमां एकाग्रता करशे, तो तेने साचा शुद्ध
उपयोगनी प्राप्ति थशे. आहाहा! भगवान आत्मा ज्ञाताद्रष्टा छे. जगतनो साक्षी
जगतना द्रश्यनो देखनार ज्ञेयनो जाणनार छे. तो तेवा भगवान आत्माने अनुभवमां
न लईने ते सिवाय बहारनी क्रियाने-मात्र व्यवहारने जे करे छे ने माने छे के हुं
धर्मनुं साधन करुं छुं तो ते धर्मनुं साधन छे नहीं.
जेम खेतर साफ करे पण बीज वाव्या विना उगे क्यांथी? शुं बीज विना
ढेफामांथी छोड फाटे? तेम भगवान आत्मानो अनुभव कर्या विना मोक्षना कणसला
क्यांय पाके नहीं. भले पछी बहारनी क्रिया करी करी ने मरी जाय; दया दान भक्ति
करे, लाखो क्रोडोना दान करे के लाखो क्रोडो मंदिर बनावे तोपण तेमां धर्म थाय तो
हराम छे. फकत शुभभावथी पुण्य बंधाय. तेवी रीते परमानंदमूर्ति शुद्धात्मानो अनुभव
न होय ने केवळ शास्त्रनो पाठी-एकला शास्त्र भणे, महा विद्वान महा वक्ता होय ने
धर्मात्मानुं अभिमान करतो होय तो ते पण मिथ्या छे. ते खरेखर धर्मात्मा नथी. धर्म
तो आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करवो ते छे. अहींया कहे छे के श्रद्धामां द्रढ राखवुं
जोईए के अंतर आत्मामां पुण्य-पापना भाव रहित शुद्ध आत्मानी भावना थवी अने
भाव थवो ते ज मुनि अने श्रावक धर्म छे. अशुभभावथी बचवा शुभ भाव आवे
पण ते निश्चयधर्म विना, एकडा विनाना मींडा छे. शुद्धज्ञान ने आनंदनो अनुभव ते
धर्मनी ओळखाण छे. पण दया-दानना विकल्प जे विकार छे, ते धर्मनी ओळखाण छे
नहीं. जेम चोखा विनाना एकला फोतरा होय, तेम आत्माना शुद्ध श्रद्धा ज्ञानना
अनुभव विना बाह्यनी क्रिया महाव्रतना परिणाम आदि बधा थोथा थोथा छे. ते तो
पुण्यबंध करावीने संसारने वधारनार छे. जेटली वीतरागता छे, तेटलो ज धर्म छे.
तेथी हे आत्मा! तुं अहंकार कर नहीं के हुं मोटो पैसावाळो छुं, गुणवान छुं, हुं समर्थ
छुं ने हुं मुनिराज छुं-एवो अंहकार छोडी दे अने भगवान आत्मा शुद्ध
चैतन्यस्वभावी वस्तु छे, तेनो निरंतर अनुभव कर. भगवान आत्मा निराळो
ज्ञानानंद छे. तेने आवा बहारना अभिमान शाना? भारे आकरुं! व्यवहार छे खरो
पण व्यवहारथी लाभ थाय नहीं.
हवे राग-द्वेष छोडीने आत्मस्थ थवुं ते धर्म छे एम कहे छेः-
राय–रोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ ।
सो धम्मु वि जिण–उत्तियउ जो पंचम–गइ णेइ ।। ४८।।
रागद्वेष बे त्यागीने, निजमां करे निवास;
जिनवरभाषित धर्म ते, पंचम गति लई जाय. ४८.

Page 99 of 238
PDF/HTML Page 110 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [९९
बहु ज टूंका शब्दोमां टूंकुं कहे छे के शुभाशुभभाव रागद्वेषमय होवाथी बंधना
कारण छे, तेने छोडीने त्रिकाळी आत्मामां विश्राम कर. एटले के शुभाशुभ भावमां
वसवुं ते आत्मामां वसवुं नथी तेम कहे छे. आहाहा! भगवान चैतन्यधाम बिराजे छे.
अंदर पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा शाश्वत बिराजे छे, तेमां वस, विश्राम कर ने
ठर अने ते योगसार छे. अंदर वसे ते योगसार छे, के जे मुक्तिनो उपाय छे ने तेने
वीतराग परमेश्वरे धर्म कह्यो छे. आहाहा! सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ वीतराग परमात्मानी
वाणीमां एम आव्युं के भगवान आत्मा के जे शुद्धभावे छे तेमां जेटलो वसे तेटलो
धर्म छे ने जेटलो पुण्य ने पापना भावमां जाय तेटलो अधर्म कहेवाय छे. आवी वात
छे, भारे आकरी भाई! कर्म, शरीर, वाणीथी रहित भगवान आत्मा छे. केम के कर्म,
शरीर, वाणी अजीव छे ने? तेमज पुण्य-पापना भाव ते आस्रव-बंधना कारण छे
माटे ते पण आत्मा नथी. आत्मा तो शुद्ध वीतरागी विज्ञानघनथी भरेलुं तत्त्व छे
तेमां तेने शुद्धभाव प्रगट थाय छे ने जेटलो पुण्य-पापना विकल्पमां आवे तेटलो
अशुद्धभाव छे, बंधभाव छे. रागद्वेषना विकल्पो चाहे तो शुभ हो के अशुभ हो तेने
छोडी दईने भगवान आत्मा के जे शांत अने सच्चिदानंद मूर्ति छे तेमां जेटलो वसे,
रहे, ठरे, एकाग्र थाय तेटलो शुद्धभाव प्रगट थाय छे, ने तेटलो धर्म छे एम भगवाने
कह्युं छे, अने ते धर्म पंचमगतिनुं कारण छे. वच्चे जे दया, दान, व्रत, भक्तिना भाव-
विकल्प आवे छे तेनी मोक्षमां पहोंचाडवानी ताकात नथी तेम कहे छे. कारण के ते
बंधनुं कारण छे. जेम पापनो भाव बंधनुं कारण छे तेम पुण्यनो भाव पण बंधनुं
कारण छे, माटे मोक्षगतिमां लई जाय तेवी तेनामां ताकात नथी. अशुभथी बचवा
शुभभाव होय छे, पण तेनाथी संवर निर्जरा थाय तेम छे नहीं. तो करवा शुं करवा?-
के ए भाव वच्चे आवशे भाई! ज्यारे तेने पापभाव न होय ने शुद्ध स्वरूपमां
स्थिरता न होय त्यारे शुभभाव आवे छे. ज्यांसुधी आत्मा पूर्ण वीतरागपणाने न
पामे, त्यांसुधी वचमां शुभभाव आवे छे पण ते आवे छे माटे मोक्षनुं कारण छे के
आत्माने शांतिनुं कारण छे तेम नथी. कारण के शुभभाव पोते अशांति छे. अशुभभाव
तीव्र अशांति छे ने शुभभाव मंद अशांति छे पण छे अशांति, तेमां जरीये शांति
नथी. भगवान आत्मा अनादि अनंत चैतन्यज्योत छे, अकृत्रिम अणकरायेल
अविनाशी प्रभु छे. तेवा चैतन्य प्रभुना स्वभावमां तो परमानंद ने शुद्धता भरी छे,
माटे पुण्य-पापना विकल्पथी खसीने स्वरूपमां वसवुं के जे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र
छे, अने ते सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मानी निर्विकल्प शुद्ध पर्याय छे, तथा जे
आत्मामां वसे छे तेने आत्मानी पूर्ण दशा प्रगट थाय छे.
आशा-तुष्णा ते संसार-भ्रमणनुं कारण छे तेम हवे कहे छेः-
आउ गलइ णवि मणु गलइ णवि आसा हु गलेइ ।
मोहु फुरइ णवि अप्प–हिउ इम संसार भमेइ ।। ४९।।
मन न घटे, आयु घटे, घटे न ईच्छामोह;
आत्महित स्फूरे नहि, एम भमे संसार.
४९.

Page 100 of 238
PDF/HTML Page 111 of 249
single page version

background image
१००] [हुं
कहे छे के अरे आत्मा! आयुष्य तो चाल्युं जाय छे भाई! जे कांई ८प के १००
वर्ष लाव्यो हतो ते गळी जाय छे पण आयुष्य गळवा छतां तारी तृष्णा गळती नथी.
आहाहा! केमके ज्यां परनी भावना छे त्यां मन गळे शी रीते? आत्माना आनंदना
श्रद्धा ज्ञान विना तुष्णा घटे नहीं. अज्ञानी मोटो थाय तेम तेने ऊंडे ऊंडे आशा वध्ये
ज जाय छे. आशाना छोड लांबा थतां ज जाय छे. आहाहा! आशाना बीजडा वाव्या
होय एटले पछी मोटुं वृक्ष थाय ने आशा प्रमाणे थई शके नहीं तेथी झांवा मारे छे.
भगवान आत्माना स्वरूपनी श्रद्धा ने भान विना पर तरफनुं आ करवुं, आ करवुं
तेवी भावनामां तृष्णा वधी जाय छे.
आनंदघनजी कहे छे के-
आहाहा! कूतरानी जेम अज्ञानी ज्यां त्यां बहारमां भटके छे. कूतरो घरना
दरवाजानी जाळीमां माथुं मारे छे के टुकडो आपजो, रोटलीनुं बटकुं आपजो, तेम आ
मूर्ख ज्यां त्यां मने मान आपजो. मने मोटो कहेजो, सारो ऊंचो छुं तेम कहेजो. एम
आशा तुष्णाना टुकडा मांगवामां भीखारीनी जेम भम्या करे छे. दुनियानी पासे मान
लेवा मागे छे ते भीखारी छे, रांका छे. आ राजा महाराजा पण भीखारी छे. भले ने
क्रोड क्रोडना तालुका होय तोपण रांकाना रांका छे. भीखारीमां भीखारी छे कहे छे के ए
आयुष्य गळे छे तोपण तृष्णा गळती नथी. उलटानी वधी जाय छे. मोह भाव फेलातो
जाय छे पण आत्माना हितनी भावना स्फुरती नथी. अहा! आ मान सन्मान ने
मोटपमां बधो वखत चाल्यो जाय छे ने आत्माना हित करवाना टाणा हाल्या जाय छे.
छोकरा सारा थाय ने पेदाश वधी एटले मूढ एम माने छे के अमे वध्या, मोटा
थया, पण शाना वध्या! श्रीमदे कह्युं छे के--
लक्ष्मी अने अधिकार वधता शुं वध्युं ते तो कहो? श्रीमद् राजचंद्र १६ मे वर्षे
आम कहे छे. सातमे वर्षे जातिस्मरणज्ञान थयुं हतुं ने ३३ मे वर्षे देह छूटी गयो हतो
१६ मे वर्षे मोक्षवाळा बनावी छे तेमां आम कहे छे के-
‘लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो,
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो;
वधवापणुं
संसारनुं, नरदेहने हारी जवो;
एनो विचार नहीं अहोहो, एक पळ पण तमने हवो.’
अहींया तो कहे छे के बहारना साधनथी वध्यो तेवुं मानवुं ते मिथ्या छे. ते
परिभ्रमणना कारणमां वध्यो छे. आहाहा! आवो मनुष्य देह मांड मळ्‌यो छे तेमां
जन्म-जरा-मरणने टाळवानो उपाय आ छे, तेम बतावे छे. अहो! भवने भांगवाना
भवमां भवने वधारवाना साधन वधार्या, पण आत्मानुं हित सूझतुं नथी. अहा!
अज्ञानी सदा शरीरने पोषे छे, विषय भोगोने भोगवतो रहे छे, पण आनंदकंद
भगवानना अमृतमां डूबतो नथी, अंदरमां आवतो नथी अने झेर पीने जीवन ईच्छे
छे. तेथी कहे छे के बधी तृष्णा छोड ने भगवान आत्माना श्रद्धा ज्ञान ने अनुभव
कर. तेमां तारा कल्याणनो पंथ छे बाकी बीजे क्यांय कल्याण नथी.

Page 101 of 238
PDF/HTML Page 112 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१०१
[प्रवचन नं. १८]
[विषयोमां रमतां मनने निज परमात्मामां रमाड]
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. र६-६-६६]
श्री योगीन्द्रदेवे ४९ मी गाथामां कह्युं के आयुष्य घटतुं जाय छे ने तृष्णा वधती
जाय छे. केम के एने आत्माना स्वभावनो पे्रम नथी. एक कोर राम ने एक कोर
गाम. एम एक कोर सत् चिदानंद अनाकुळ आनंदकंद पदार्थ छे अने एक कोर पुण्य-
पापना विकार, शरीर, कर्म आदि परपदार्थ छे. बेमांथी जेने बाह्यसामग्री प्रत्ये पे्रम
वधी जाय छे तेने तृष्णा वधती जाय छे अने आतमराम प्रत्ये जेने पे्रम वधी जाय छे
तेने तृष्णा घटती जाय छे.
जेम झांझवामां पाणी नथी पण सरोवरमां पाणी छे. तेम जगतना कोई
पदार्थमां सुख नथी पण आत्मामां सुख छे पण अनादिथी परमां प्रेम करीने दुःखी
थयो छे. भगवान आत्माने छोडीने पर पदार्थमां प्रेम ए तुष्णावर्धक ज छे. एम ४९
मी गाथामां कह्युं. हवे प०मी गाथामां कहे छे के हे योगी! खरेखर आत्मा ज प्रेमने
पात्र छे. आत्मामां रमण करनार निर्वाणने पामे छेः-
जेहउ मणु विसयहं रमइ तिमु जइ अप्प मुणेइ ।
जोइउ भणइ हो जोइयहु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ५०।।
जेम रमतुं मन विषयमां, तेम जो आत्मे लीन,
शीघ्र लहे निर्वाणपद, धरे न देह नवीन.
प०.
कहे छे के हे जीव! तारुं मन जेम पांच इन्द्रियना विषयोमां रमे छे, एनी ज
रुचि, रति अने प्रेम करे छे, पुण्य-पापना फळमां जेवो प्रेम करे छे तेवो प्रेम जो
आत्मामां कर तो शीघ्र मुक्ति थाय.
‘विषयमां मन रमे छे’ एम कह्युं, एमां विषय शब्दे एकलां भोगादि एम
नहि. आत्मा सिवाय बधां स्पर्श-रस-गंधादिनो एमां समावेश थई जाय छे. शास्त्र
सांभळवानो प्रेम पण राग छे.
देह, स्त्री, कुटुंब के देव-शास्त्र-गुरु कोई पण परपदार्थ प्रत्ये तारो पे्रम छे, ते
प्रेम कर्म तने करावतुं नथी. तारा उलटां पुरुषार्थथी तुं पोते ज ए प्रेम करे छे. माटे
हवे सवळा पुरुषार्थथी, तुं पोते ज गुलांट खाईने तारा आत्मानो प्रेम कर! तो शीघ्र
मुक्ति पामीश.
तुलसीदास पण कहे छे के “जैसी प्रीति हरामसे, तैसी हरिसे होय, चला जाय
वैकुंठमें पला न पकडे कोय.”

Page 102 of 238
PDF/HTML Page 113 of 249
single page version

background image
१०र] [हुं
भाई! तारा शांतरसमां तने पे्रम नथी. श्री समयसारनी र०६ गाथामां आवे
छे ने के हे आत्मा! आत्मामां रति कर! तारो प्रेम अत्यारे परे लूंटी लीधो छे. आखी
जिंदगी आत्माने खोईने पण परनो प्रेम छोडतो नथी. मूढ बहारनी प्रीतिमां भगवान
आत्मानी प्रीति खोई बेठो छे, भले त्यागी होय पण ज्यां सुधी एने बहारमां दया-
दानादिमां प्रेम छे त्यां सुधी ए जोगी नथी पण भोगी छे.
भगवान आत्मा ज्ञाननी नूरनो पूर प्रभु! एक क्षण तेनो पे्रम कर तो तारा
संसारनो-जन्म-मरणनो नाश थाय. एम तत्त्वने जोतां पर्यायमां अन्य विविध तत्त्वो
जणाशे पण राग वगर जणाशे. आखी दुनिया देखाशे पण एमां तने प्रेम नहि थाय,
आत्मस्वभावना प्रेममां पछी आ साधन मने अनुकूळ अने आ प्रतिकूळ एवुं रहेतुं नथी.
योगी एटले जेनुं वलण बाह्यथी छूटयुं छे अने आत्मा तरफ जेनुं वलण-दिशा
थई छे एवा धर्मी-सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने सर्व संतो जीवोने कहे छे के अरे जीव! मनने
गाढ प्रेमभावथी पोताना आत्मामां रमतुं करवुं जोईए. एम थाय तो वीतरागताना
प्रकाशथी शीघ्र निर्वाण लाभ थाय.
हरणनी डुटीमां कस्तूरी भरी छे पण एने कस्तूरीनी खबर नथी, बहार फांफा
मारे छे. तेम आ आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनुं सरोवर-मोटो दरियो छे पण पोताने तेनुं
भान नथी तेथी बहार आनंद लेवा जाय छे. तेथी कहे छे के एकवार गुलांट खा!
परनो प्रेम छोडी स्वनो प्रेम कर.
पांच इन्द्रियना विषयना दाखला आप्या छे के-हाथी स्पर्शेन्द्रियमां लीन छे,
माछलां रसेन्द्रियमां लीन छे, भमरां कमळनी सुगंधमां मुग्ध छे, पतंगिया दीवानी
ज्योतना प्रेममां भस्म थई जाय छे तोपण एने खबर रहेती नथी. कर्णेन्द्रियना
विषयभूत-सांभळवाना शोखीन हरणीया जंगलमां शिकारमां पकडाई जाय छे. दाखलां
आपीने एम कह्युं के एक एक इन्द्रियमां जेम ए जीवो लीन छे तेम तुं आत्मामां
लीन था. एकमात्र आत्मानी लगनी लगाव! तो समकित थाय ने भवभ्रमण टळे.
वळी कहे छे के आत्माना रसमां एवुं रसिक थई जवुं जोईए के मान-अपमान,
जीवन-मरण, कंचन-काच बधामां समभाव थई जाय. जेम धतूरा पीवावाळाने बधी
चीज पीळी देखाय छे तेम धर्मीने एक नित्यानंद भगवान आत्मा द्रष्टिमां आवतां
तेना सिवाय बधी वस्तु क्षणिक-नाशवान ज देखाय छे. हुं अविनाशी छुं अने बाकी
बधुं विनाशिक छे एम ज्ञानीने देखाय छे.
वळी ज्ञानी जेने पुण्य-पापना बंधन रहित पोताना आत्मामां योग अर्थात्
जोडाण थयुं छे तेने बीजा आत्माओ पण पुण्य-पापना बंधन रहित निर्मळ ज देखाय
छे. ते बीजा आत्माने पण बंधनवाळा देखतो नथी. पोताना आत्माने जेम निर्विकारी
देखे छे तेम अन्यना आत्माने पण धर्मी निर्विकारी देखे छे. तेना पुण्य-पापने विकारी
भावरूप देखे छे, देहने जड पुद्गल जाणे छे अने बधानां आत्माने आनंदमय देखे छे.
त्रणलोकनी संपदा पण तेने झीर्ण तृण समान देखाय छे.

Page 103 of 238
PDF/HTML Page 114 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१०३
मोक्षना अर्थीने उचित छे के ए आत्मज्योतिना संबंधमां ज प्रश्न करे. आत्मा
केवो छे? आत्मा केम प्राप्त थाय? आत्मामां शुं छे? आत्मा प्राप्त थया पछी केवी दशा
थाय? आत्मार्थीए आवा ज प्रश्नो करवा जोईए. सहज तेने प्रश्नो एवा ज ऊठे.
अनुभवप्रकाशमां समजाववा माटे दाखलो आप्यो छे के आत्मार्थीने गुरुए माछली
पासे ज्ञान लेवो मोकल्यो तो माछली कहे छे के मने पहेलां पाणी लावी आपो, मने तरस
बहु लागी छे. पण अरे! आ पाणी तो तारी पासे ज भर्युं छे. पाणीमां ज तुं छो. तो
माछली कहे छे के तमे पण ज्ञानथी ज भर्या छो. तमे पोते ज ज्ञानस्वरूप छो.
अनादिथी आत्मा पुण्य-पाप, राग-द्वेष, देहादिनी क्रियाने देखे छे पण चिदानंद
जळथी भरेलो दरियो छे तेने अज्ञानी जीव देखतो नथी. आत्मामां नजर करवानो तेने
वखत मळतो नथी. माटे कहे छे मोक्षेच्छुए आत्मानी चाह करवी, आत्मानी लगनी
लगाडवी, बीजानी लगनी छोडवी ए ज आत्मार्थीनुं कर्तव्य छे.
हवे प१मी गाथामां शरीरनी जीर्णता बतावे छेः-
जेहउ जज्जरु णरय–धरु तेहउ बुज्झि सरीरु ।
अप्पा भावहि णिम्मलउ लहु पावहि भवतीरु ।। ५१।।
नर्कवास सम जर्जरित, जाणो मलिन शरीर,
करी शुद्धातम भावना, शीघ्र लहो भवतीर. प१.
भगवान अमृतानंदना प्रेममां कहे छे के आ शरीर तने नरकना घर जेवुं
देखाशे. नवद्वारथी पेशाब, परसेवो, विष्टा आदि मलिनता झरे एवुं आ शरीर
मलिनतानुं घर छे. हाडकां, चामडां, मांस, लोही, परुनुं घर छे. एम जराक शरीर
उपरथी चामडी उतरडे तो खबर पडी जाय. ते जोवा पण ऊभो न रहे.
मांस ने दारू खानारा राजाओ-लंपटीओ ते बधां नरकमां जाय छे. अहीं खम्मा
खम्मा थतां होय तेना ते नरकमां मार खावा माटे महेमान थाय छे. नर्कवासमां
क्षणमात्र पण शाता नथी. नरक अत्यंत ग्लानिकारक छे, खराब छे, दुःखकारी छे पण
तने खबर नथी भाई! आ शरीर पण नरकना घर जेवुं छे, एमां बधुं ग्लानिकारक ज
भर्यु छे. जे शरीर उपर जीवने अतिशय प्रेम छे ए ज शरीरना लोही, परु, हाडकां,
मांस आदि जुदां जुदां भाग करीने बतावे तो ते जोवा पण ऊभो न रहे.
बाळपण पराधीनतामां खूब कष्टथी वीते छे, युवानीमां घोर तृष्णाने मटाडवा
धर्मने नेवे मूके छे, धर्मनी परवा न करतां रळवामां पडी जाय छे अने वृद्धावस्थामां
मानसिक अने शारीरिक वेदनानो पार नथी. आम आखी जिंदगी वीतावे छे. एमां जो
आत्मा पोतानुं साधन करे तो फरी आवो दुःखमय देह ज न मळे पण तेने आत्मानो
महिमा आवतो नथी. जीवने परनो ज महिमा आवे छे तेथी एनो प्रेम परमां ज
लूंटाई जाय छे.

Page 104 of 238
PDF/HTML Page 115 of 249
single page version

background image
१०४] [हुं
स्वभावथी विरुद्धभावनो प्रेम-रुचि ते मिथ्यात्व छे. शुभभाव होय पण ए
मिथ्यात्व नथी पण एनो प्रेम छे-तेमां लाभबुद्धि छे ते मिथ्यात्व छे. व्रत, भक्ति
आदि शुभभावथी पण धर्म न थाय तो शरीरनी क्रियाथी तो धर्म क्यांथी थाय?
हे मूर्ख! आ तारुं शरीररूपी घर दुष्कर्मरूपी शत्रुए बनावेलुं केदखानुं छे. कर्मोए
ईन्द्रियना मोटा पींजरामां तने पूरी दीधो छे. लोही-मांसथी तुं लेपाई गयो छो अने
चामडीथी ढंकायेलो छो अने आयुकर्मथी तुं जकडायेलो छो. आवा शरीरने हे जीव! तुं
काराग्रह जाण! तेनी वृथा प्रीति करीने तुं दुःखी न थाय! तेमांथी छूटवानो प्रयत्न कर!
आत्मानुं कल्याण करवुं होय तो निर्विकल्प चैतन्यनो प्रेम करीने शरीरादिनो प्रेम
छोड! अने तेमां उपजवानुं बंध कर! ‘६० वर्ष थया पण कोई दिवस शरीरे अमे सूंठ
पण चोपडी नथी’ एवा शरीरना जेने अभिमान छे तेने आत्मानो प्रेम नथी तेना
आत्मानुं कल्याण न थाय. शरीरनो प्रेम छोडाववा माटे शरीरने नरकनी उपमा आपी छे.
हवे कहे छे के व्यवहारमां डूबेला जीवो आत्माने ओळखी शकता नथी.
धंधइ पडियउ सयल जगि णवि अप्पा हु मुणंति ।
तहिं कारणि ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ।। ५२।।
व्यवहारिक धंधे फस्यां, करे न आत्मज्ञान;
ते कारण जगजीव ते, पामे नहि निर्वाण.
पर.
कोई धंधामां, कोई खावामां, पीवामां, मान मेळववामां, आबरू साचववामां
एवा अनेक धंधामां जीवो पडया छे. अरे! त्यागी नाम धरावनारा पण पुण्य, दया,
दान, व्रत मंदिर बंधाववाना एवा धंधामां पडयां छे. आम कोई अशुभरागना धंधामां
ने कोई शुभरागना धंधामां फसाई गया छे. र४ कलाकमां आत्मा कोण छे, केवो छे ए
जोवा पण नवरो थतो नथी. शुभाशुभरागना धंधामां भगवानने खोई बेठो छे.
आत्मस्वभावमां जोडावुं ते ‘योग’ छे बाकी बधुं ‘अयोग’ छे.
जे पुण्य-पापना रागना प्रेममां फसाणां छे तेने आत्मा शुं चीज छे? एनुं पण
भान नथी. बधा सलवाई गयेलां छे. जेलमां पडेलो शेठ जेलमां ऊंट उपर बेठां-बेठां
कहे छे के हुं ऊंट उपर बेठो छुं. अरे! ऊंट उपर पण छो तो जेलमां ने! एम त्यागी
कहे अमे धर्म करीए छीए पण जड शरीरनी क्रियामां ज ते धर्म माने छे. परंतु ते
त्यागी होय तोपण संसारमां ज पडया छे. आत्माने ओळखतो नथी.
निर्विकल्प तत्त्वमां सांभळवा-संभळाववाना विकल्पनो अवकाश नथी. व्यवहार,
राग ए बधो संसार ज छे. शुभ, अशुभ बन्नेनो प्रेम ते व्यवसाय छे, धर्म नथी
एटले तो कह्युं के “सकल जग धंधे फस्या छे”.
ज्ञानस्वरूपमां एकाग्र थवुं ते प्रभावना छे पण आ जीव शुभरागमां प्रभावना
मानी बेठो

Page 105 of 238
PDF/HTML Page 116 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१०प
छे एटले रागना कार्यो पोते करे, बीजा पासे करावे, एने करतां होय तेने अनुमोदे
एटले माने के मने धर्म थई गयो. पण भाई! मंदिर आदि रागना कार्य कर्ये धर्म नहि
थाय. पोताना आत्माना श्रद्धा-ज्ञान करवाथी ज धर्म थाय.
टोडरमलजी कहे छे के आ जीवने खरेखर धर्म करवानुं टाणुं आवे त्यां
व्यवहारधर्म करीने त्यां अटकी जाय छे, संतोषाई जाय छे, आगळ वधतो नथी.
हवे अहीं कहे छे के शास्त्रपठन आत्मज्ञान विना निष्फळ छेः- -
सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जे मुणंति ।
तहिं कारणि ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ।। ५३।।
शास्त्रपाठी पण मूर्ख छे, जे निजतत्त्व अजाण;
ते कारण ए जीव खरे, पामे नहि निर्वाण. प३.
शास्त्र भणतर ए पर तरफनुं ज्ञान छे, राग छे, विकल्प छे. शास्त्रमां पण
भगवाने एम ज कह्युं छे के चोथा गुणस्थाने स्वरूपाचरण चारित्र छे, अतीन्द्रिय
आनंद छे. शास्त्रवांचन ते धर्म नथी, छतां शास्त्रपाठी व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, वैदक
आदि अनेक विषयोने जाणे छे पण शुद्ध निश्चय उपर लक्ष आपतां नथी, स्वभावनो
पुरुषार्थ करतां नथी तेथी शास्त्र वांचे छे छतां अध्यात्मज्ञानथी शून्य रहे छे.
चैतन्यधातुने जाणतां नथी माटे तेनुं शास्त्र भणतर निष्फळ कह्युं छे.
अरे भाई! आत्मभान विनाना भणतर शा कामना? बीजाने भणाववाना
शुभ रागथी पोताने लाभ न थाय. शुभराग अने परना ज्ञानथी चैतन्यने लाभ न
थाय. माटे आत्माना लक्ष वगर शास्त्रना भणनारा पण जड छे. भगवान आत्मानी
अंतर्मुख थईने आत्मानुं ज्ञान करे ते चैतन्य छे.
जिनवाणी वांचवानुं फळ निश्चय सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त करवा ते छे. माटे चार
अनुयोग वांचीने शास्त्रीय विषय जाणीने, छ द्रव्यरूप जगतथी मारुं तत्त्व जुदुं छे ए
सार काढवानो छे. निश्चयथी आत्माने न जाण्यो तेणे कांई जाण्युं नथी.
अभेद आत्मानुं ज्ञान करी आत्मामां एकाग्र थवुं ते शास्त्रभणतरनो सार छे.
आत्मानी अंतर निर्विकल्प श्रद्धा करवी ए साची आवडत छे. बहारनी आवडत ए
आवडत नथी. आत्मानी प्रतीत अने आत्मानुं ज्ञान कर्युं तेणे बधुं कर्युं. जेणे
आत्मज्ञान नथी कर्युं, अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपने सम्यग्दर्शन द्वारा अनुभव्युं नथी तेनी
आखी जिंदगी अफळ छे-निष्फळ छे. आत्माना अनुभव विनानुं मात्र शास्त्रज्ञान
भववर्धक बने छे, निर्वाणना मार्गथी दूर लई जाय छे. माटे भाई! शास्त्र वांचता पण
लक्ष तो आत्मानुं ज राखजे.

Page 106 of 238
PDF/HTML Page 117 of 249
single page version

background image
१०६] [हुं
[प्रवचन नं. १९]
निज परमात्माना लक्ष वगरना शास्त्र–अभ्यास व्यर्थ छे
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन ता. र७-६-६६]
सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जे ण मुणति ।
तहिं कारणि ए जीव फुडु णिव्वाणु लहंति ।। ५३।।
शास्त्रपाठी पण मूर्ख छे, जे निज तत्त्व अजाण,
ते कारण ते जीव खरे, पामे नहि निर्वाण. प३.
भगवान आत्मा एक समयमां अभेद परिपूर्ण वस्तु छे. तेनुं ज्ञान करी तेनो
अनुभव करवो तेमां एकाग्र थवुं ते शास्त्रनो सार छे. ए सार ग्रहण न करे अने
मात्र शास्त्र वांच्या करे तेनुं शास्त्र-भणतर व्यर्थ छे. जिनवाणी सांभळीने, वांचीने,
धारीने अभेद आत्मानो अनुभव करवो ए तेनुं फळ छे. अंतर-अनुभवनी द्रष्टि वगर
चारेय अनुयोगनुं भणतर करनाराने जड कह्यां छे.
शास्त्र कहे छे के तारो आत्मा कर्म अने रागथी भिन्न छे अने अतीन्द्रिय आनंद
आदि अनंत गुणोथी अभिन्न छे. एक समयमां शाश्वत ज्ञान ने आनंदनो भंडार सत्
चिदानंद प्रभुनो अनुभव करवो ते ज शास्त्रभणतरनुं फळ छे. सर्व शास्त्र भणवा
पाछळ हेतु समकितनो लाभ प्राप्त करवानो छे. ए हेतु न सरे तो शास्त्र भणवा पण
कार्यकारी नथी.
अनेक जीवो शास्त्रो वांची. विद्या मेळवी, अभिमान करे छे पण भाई! ए
तारी विद्या हजारो माणसोने समजाववानी शक्ति ते तारा आत्माने कांई कार्यकारी
नथी. ख्याति-पूजा मेळववा माटे जे शास्त्रो भणे छे अने आत्मानुभूति करवानो
प्रयत्न करतो नथी तेनुं जीवन अफळ छे. उलटुं तेने माटे तो प्रयोजन अन्यथा
साधवाथी शास्त्रज्ञान संसारवृद्धिनुं कारण बनी जाय छे अने पोते निर्वाणमार्गथी दूर
जाय छे. आवडतना अभिमानमां अटकी समकितनो लाभ चूकी जाय छे.
मणु–इंदिहि वि छोडियइ [?] बुहु पुच्छियइ ण कोइ ।
रायहं पसरु णिवारियइ सहज उपज्जइ सोइं ।। ५४।।
मन-इन्द्रियथी दूर था, शी बहु पूछे वात?
राग-प्रसार निवारतां, सहज स्वरूप उत्पाद. प४.
टूंकामां टूंकी वात-अखंडानंद भगवान आत्मानो, मन अने इन्द्रियथी दूर करी,
अंतर अनुभव करवानो छे. बहु प्रश्न पूछवाथी कांई न थाय. पहेलां जे अनुभवनुं काम

Page 107 of 238
PDF/HTML Page 118 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१०७
करवानुं छे ते करी लेवुं जोईए. मन ने इन्द्रियथी लक्ष हटावी अंतरमां जवुं अने राग
हटावी वीतराग द्रष्टि करवी ते ज कर्तव्य छे. भक्ति-पूजा-यात्रा आदिना भाव आवे
पण तेनाथी शुभराग थशे, धर्म नहि थाय. माटे अहीं तो कहे के मोटी यात्रा आत्मानी
कर! मन ने इन्द्रियना विकल्प हटावी निर्विकल्प थवुं ते साची यात्रा छे. शुभरागनी
अने धर्मनी दशा अने दिशामां मोटो फेर छे.
सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथे जेवो आत्मा कह्यो छे ने जोयो छे एवा तारा
आत्माने जोवो ने एमां ठरवुं ते करवा जेवुं कार्य छे. आत्मस्वभावमां एकाग्र थतां
रागनो विस्तार घटे अने अराग-वीतराग स्वभावनो विस्तार थाय, आनंदनो फेलावो
थाय ए कर्तव्य छे.
अनुभव करनार-धर्म प्रगट करनार आत्मा पोते ज छे. पोते ज अनुभव ने
पोतानो ज अनुभव करीने आनंद लेनार पण पोते ज छे. तेमां परमांथी कांई लेवानुं
नथी. अनाकुळ शांतिनो डुंगर आत्मा पोते छे, तेनी गाढ श्रद्धा अने प्रीति थतां परने
कांई पूछवानुं रहेतुं नथी. पोते पोतामां ठरी जवानुं ज रहे छे. पोतानी श्रद्धा थतां
परमां सुख के आनंद छे एवी मान्यतानो नाश थई जाय छे. कुटुंब, पैसा आदिमां
सुखबुद्धि रहेती नथी. पोतामां प्रीति थतां परनी प्रीति आपोआप छूटी जाय छे.
पुग्गलु अण्णु जि अण्णु जिउ अण्णु वि सहु ववहारु ।
चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ लहु पावहि भवपारु ।। ५५।।
जीव पुद्गल बे भिन्न छे, भिन्न सकळ व्यवहार;
तज पुद्गल ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार. पप.
संसारथी पार थवानो एक मात्र उपाय आत्मानुं ध्यान छे. असद्भूत
व्यवहारनयनो विषय जे कर्म, शरीर आदि पुद्गल बधां आत्माथी अन्य छे. अशुद्ध
निश्चयथी उत्पन्न थतां पुण्य-पापना रागादि भाव ते पण व्यवहार छे, आत्माथी न्यारा
छे. पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ए बधां तत्त्वथी पण आत्मतत्त्व
कथंचित् जुदु छे. विकारी पर्यायथी तो आत्मा जुदो, पण अविकारी पर्यायथी पण
कथंचित् जुदो छे. गुण-गुणीना भेद ते पण व्यवहार छे. भगवान आत्मा ज्ञान-आनंद
आदि अनंत गुणनो पिंड छे एवो गुण-भेद पाडीने विचार करवो ते पण व्यवहार छे.
संकल्प-विकल्पनी बधी क्रियाओ आत्मवस्तुथी भिन्न छे. जगतनो बधो व्यवहार मन-
वचन-कायाना त्रण योग अने शुभ-अशुभ उपयोगथी चाले छे. मारा शुद्ध उपयोगमां
ते व्यवहारनो अभाव छे एटले के मारा शुद्ध भावमां ए मन-वचन-कायानो वेपार
अने शुभाशुभ भावनो अभाव छे.
सत्चिदानंद गोळो मन-वचन-कायाथी जुदो ज छे. तेने जुदो अनुभववो ते
सम्यग्दर्शन छे. शुभभावनी दिशा तो पर तरफ छे अने शुद्धभावनी दिशा स्व-स्वभाव
तरफ छे.
हुं तो सर्व व्यवहारनी रचनाथी निराळो परम शुद्ध आत्मा छुं. आवा पोताना
आत्मानुं ध्यान करवुं ते मोक्षमार्ग छे एम तुं जाण! एम संतो कहे छे. शुभभाव आवे,

Page 108 of 238
PDF/HTML Page 119 of 249
single page version

background image
१०८] [हुं
न आवे एम नहीं, अशुभभावथी बचवा दया-दान-व्रत-भक्ति-पूजा-यात्राना भाव
होय छे. न होय एम करीने उडाडी दे तो ए जीवतत्त्वने ज समजतो नथी. शुभभाव
छे तो खरा, पण एनी मर्यादा छे के ए भावोथी निर्मळ आत्मानो धर्म प्रगट न थाय.
शुद्धभाव न थाय.
‘हुं सर्व व्यवहारथी रहित शुद्ध एक प्रकाशमान चैतन्यज्योति छुं. ज्ञायक एक
प्रकाशमान परम निराकुळ, परम वीतरागी अखंड द्रव्य छुं’ एवी रीते मनन करीने जे
पोताना आत्मारूपी चैतन्यरतनमां एकाग्र थईने स्वरूपनुं ग्रहण करे छे तेने पोताना
स्वामीपणाथी संतोष थई जाय छे. शरीर-वाणी-मननो तो आत्मा स्वामी नथी पण
दया-दान आदि शुभभावनो पण आत्मा स्वामी नथी. आत्मा तो एक सहजात्म शुद्ध
चैतन्यपिंडनो स्वामी छे, मालिक छे. ए मालिकीमां ज धर्मीने संतोष थाय छे. परना
स्वामीपणामां संतोष नथी, असंतोष छे. अनंतगुणरूपी आत्मानी पूंजीनो स्वामी थतां
धर्मीने संतोष थई जाय छे. परनुं स्वामीपणुं मानवुं ए तो मूढता छे.
पाठशाळानो हुं स्वामी, आटलां पुस्तक रच्यां तेनो हुं स्वामी, लक्ष्मीनो हुं
स्वामी-लक्ष्मीपति एम परना स्वामीपणाथी मूढ जीव संतोषाय छे पण ए तो
दुःखदायक भ्रमणा छे, वास्तविक संतोष नथी. पोताना स्वरूपना स्वामीपणामां ज खरो
संतोष थाय छे.
हवे प६मी गाथामां कहे छे के आत्मानुभवी ज संसारथी मुक्त थाय छे.
जे णवि मण्णहिं जीव फुडु जे णवि जीउ मुणंति ।
ते जिण–णाहहं उत्तिया णउ संसार मुचंति ।। ५६।।
स्पष्ट न माने जीवने, जे नहि जाणे जीव;
छूटे नहि संसारथी, भाखे छे प्रभु जिन. प६.
जे भगवान आत्मा स्पष्टरूपथी पोतानुं स्वरूप जाणतो नथी. परोक्षपणे
आत्मानुं स्वरूप आम छे-एम जाणे छे तेने संतो कहे छे के अमे ज्ञान कहेतां नथी.
विकल्पथी आत्माने जाणे ते साचुं जाणपणुं ज नथी. गाथाए गाथाए वात फेरवे छे.
एकनी एक वात नथी. ज्ञाननी लहेरे जागतो भगवान पोते पोताने प्रत्यक्ष न जाणे
तेने अमे ज्ञान कहेता ज नथी. प्रत्यक्ष आत्माने प्रत्यक्ष जाणे ते ज ज्ञान छे.
भाई! आ तो मूळ मारग छे. ज्ञानथी ज्ञाननुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन थवुं ते
आत्मानुं ज्ञान छे. आ तो योगसार छे ने! आत्माने आत्मामां जोडवानी-एकाग्र
थवानी विधि कहे छे. शास्त्रथी अने विकल्पथी आत्मानुं ज्ञान करवुं ते खरेखर प्रत्यक्ष
ज्ञान नथी. परमात्मस्वरूपमां स्थित आत्मानुं स्वरूप रागथी-शास्त्रथी न जणाय.
संतोनी कथनी आहाहा....! मारगने सहेलो करीने समजावे छे. भगवान!
ज्ञानानंदनी

Page 109 of 238
PDF/HTML Page 120 of 249
single page version

background image
परमात्मा] [१०९
ज्योत! अतीन्द्रिय आनंदनी मूर्ति प्रगट....प्रगट....प्रगट छो ने! होवापणे प्रगट छे तेने
‘न होवापणे’ केम कहेवुं? तुं पूर्ण सत्ता ‘सततं सुलभं’ भगवान! तुं तने सुलभ न
हो तो बीजी कई चीज सुलभ होय? तुं तारी हथेळीमां छो एटले के तुं तने अत्यंत
सुलभ छो.
बधा व्यवहारथी आत्मा मुक्त छे जेम परद्रव्य छे तेम व्यवहार पण हो भले,
पण भगवान आत्मा अभेद चैतन्यना अनुभवमां धर्मी व्यवहारथी मुक्त छे. व्यवहार
करवो पडे ने होवो ज जोईए होय तो मने ठीक एम सम्यग्द्रष्टि मानतो नथी.
व्यवहारनुं पूछडुं निश्चयने लागु पडतुं नथी.
जेम झांझवामां जळ नथी पण सरोवरमां छे, तेम गुरुवचनमां बोध नथी पण
हृदयसरोवरमां बोध भर्यो छे. अहीं तो त्रणलोकना नाथ जिनेश्वरदेव एम कहे छे के
जेणे आत्माने प्रत्यक्ष जाण्यो नथी ते संसारथी नहि छूटे. समजाणुं कांई? ज्ञानथी
ज्ञानने वेदे ते प्रत्यक्षज्ञान छे. शास्त्रथी, मनथी, गुरुवचनथी के विकल्पथी आत्मानुं
जाणपणुं ते परोक्ष छे, प्रत्यक्षज्ञान नथी.
जुओ तो खरा आ योगसार! निर्विकल्प स्वरूपने निर्विकल्प वेदनथी न जाणे
अने मात्र शास्त्र आदिथी जाणे तेने संसार न छूटे. ईच्छा विना छूटती दिव्यध्वनिमां
आवेली आ वात छे. मिथ्यात्व ए ज संसार छे. मिथ्यात्व जाय पछी संसार न रहे.
भगवान आत्मानुं अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान करी तेमां स्थिर था! वारंवार अतीन्द्रिय
ज्ञाननो स्पर्श कर! तने जरूर सुख थशे.
लोकोने लागे के आ धर्म तो बहु मोंघो. बहारमां तो गमे तेटली मोंधवारी होय
तोपण वधु पैसा खर्चता वस्तु मळी रहे पण अहीं तो कहे छे के अनुभव विना
संवर-निर्जरा न थाय. लाख उपवास करे पण अनुभव न होय तेने संवर-निर्जरा न
थाय. आ धरम तो बहु मोंघो!! तेने ज्ञानी कहे छे के भाई! धर्म तो बहु सोंघो छे.
बहारनी वस्तुमां तो पैसा जोईए बजारमां लेवा जवुं पडे ने आ धर्म प्रगट करवामां
तो क्यांय जवुं पण न पडे ने कोई बीजानी जरूर पण न पडे. अरे! पण माणसने
पोतानी जातने जाणवी मोंघी लागे छे! तारुं परमात्मस्वरूप तो तारी पासे ज बिराजी
रह्युं छे तेने जाणवुं ते मोंघु नथी.
जिनेन्द्र भगवाने दिव्यवाणीमां आ उपदेश आप्यो छे के पोताना आत्मानुं
श्रद्धान-ज्ञान ने ध्यान एटले निश्चयरत्नत्रयरूप मसालाना प्रयोगथी वीतरागतानी
आग भभूकी ऊठे छे जे कर्मरूपी इंधनने जलावीने भस्म करी नाखे छे. आत्माना
ध्यान विना कर्मथी मुक्त कोई थई शकतुं नथी. माटे वास्तवमां आत्मानुभव ज
मोक्षमार्ग छे. समकित बाह्य चारित्रने मोक्षमार्ग मानता नथी.
अरे! आ जीवे पोताना गाणां पण कोई दिवस प्रीति करीने सांभळ्‌या नहि. जो