Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 12-15.

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७०] [हुं
[प्रवचन नं. १२]
शिव सुख माटे निज परमात्मानो अनुभव कर
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. १९-६-६६]
श्री योगीन्द्रदेव दिगंबर संत मुनि थई गया. अनादि सर्वज्ञ परमेश्वर तीर्थंकर
भगवाने कहेलो मार्ग श्री योगीन्द्रदेव योगसार तरीके अहीं वर्णवे छे. तेमां आपणे २९
मी गाथा छेः-
वय–तव–संजम–मूल–गुण मूढहं मोङ्कख ण वुत्तु ।
जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। २९।।
ज्यां लगी एक न जाणियो, परम, पुनित, शुद्ध भाव;
मुढ तणा व्रत-तप सहु; शिवहेतु न कहाय.
२९.
ज्यां सुधी आ शरीर-वाणीथी भिन्न, अशुद्ध विकारी भावथी रहित, परम शुद्ध
परम निर्मळ आत्मभावनो अनुभव न करे, शुद्ध चिद्घन पवित्र आनंदकंद आत्मानो
अंतर्मुख थईने आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धा-आचरण न करे त्यां सुधी मूढ जीवोए करेलां
व्रत-तप आदि निरर्थक छे, रागनी मंदतानो शुभराग छे. सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेवे
कह्यो एवो तद्न शुद्ध पवित्र सच्चिदानंद ज्ञायक अनाकुळ शांतरसथी भरेलुं आत्मतत्त्व
छे, तेनी श्रद्धा-ज्ञान ने अनुभव ज्यां सुधी न करे त्यां सुधी अज्ञानी मूढ जीवना-
स्वरूपना अजाण जीवना व्रत-तप आदि निरर्थक छे.
भगवान परमेश्वरे जे अवस्थामां प्रगट कर्यो छे ए ज्ञायक चैतन्यस्वरूप
आत्मानो, देहमां बिराजमान चैतन्यरत्न आत्मानो जेने अनुभव नथी एवा मूढ
एटले के ज्ञाताद्रष्टा स्वरूपथी भरेल वस्तुनुं जेने भान नथी एवा मूढ जीवो गमे
तेटला व्रत तप करे, अनशन-उणोदरी करे, विनय करे, यात्रा करे, भक्ति करे, पूजा करे
तोपण ए बधां एना धर्मना खाते नथी. ए बधां शुभभाव बंधना खाते छे, संसार
खाते छे.
निजस्वरूपमां आनंद ने शुद्धता भरी पडी छे, तेने स्पर्शे नहि ने पोताना
निजस्वभावना अजाण मूढ जीवो देव-शास्त्र-गुरुनी विनय-भक्ति पूजा नामस्मरण
करे ते बधां शुभरागरूपी पुण्य छे, धर्म नथी. ए देव-शास्त्र-गुरुनी वैयावृत करे, सेवा
करे पण जेने आत्मसेवानी खबर नथी के हुं एक ज्ञानानंद चिदानंद शुद्ध ध्रुव अनादि
अनंत पवित्र अनंत शांतिनी खाण-खजानो-आत्मा छुं, एवा अतीन्द्रिय आनंदनो
जेने स्पर्श नथी, अनुभव नथी एवा मूढ जीवोना देव-शास्त्र-गुरुनी सेवा आदिना
भावो पण एने संवर अने निर्जरामां नथी, बंधमां छे, एमां बंध थईने चार गतिमां
रखडे छे.
भगवान आत्मा सत् सत् सत् शाश्वत ज्ञान ने आनंदनी खाण आत्मा छे.
एना भान ने स्पर्श विना जे कांई शास्त्रनी स्वाध्यायो करे, ११ अंग ने ९ पूर्व भणे,
ए बधा

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परमात्मा] [७१
विकल्पो पुण्य-राग छे, ए धर्म नथी, संवर-निर्जरा नथी भगवान आत्मा चैतन्यरत्न
छे. प्रभु! एने खबर नथी. आ देह, वाणी, मन ए तो धूळ, माटी, जड छे अने
हिंसा, जूठुं, चोरी, विषयभोगनी वासना ए पाप छे. दया, दान, व्रत, भक्ति, तप,
विनयना जे विकल्पो ऊठे ते पुण्य छे ते कांई आत्मा नथी. एवा पुण्य-पापना राग
रहित भगवान आत्मा वस्तु शाश्वत, नित्य ध्रुव, एने स्पर्श कर्या विना मूढ जीव
स्वाध्याय करे, विनय करे, ए बधा वृथा छे. स्वसन्मुखना भान विना पर सन्मुख,
थयेला बधा विकल्पोनी जाळ पुण्य के पाप ए बंधनुं ज कारण छे.
मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी मूढ जीवना व्रत-तप बधुं पुण्यनो बंध छे. आत्मा एक
समयमां अखंडानंद प्रभु सत्नी खाण छे, सत् शाश्वत अनादि-अनंत अण करायेलो
शाश्वत पदार्थ छे. एमां अंदर शाश्वत आनंद ने शाश्वत शांति पडया छे. एवा शाश्वत
भगवान आत्मा अने शाश्वत शांतिने आनंदनो जे भाव एना स्पर्शना भान विना
जे शास्त्रस्वाध्याय आदि करे, पर्यटना करे, ते बधा एकलां पुण्य-बंधनना कारण छे.
भगवान आत्मा वस्तुए अबंध स्वरूपे छे, एने आवा परिणामथी बंधन थाय छे.
भगवान आत्मा शाश्वत ध्रुव छे ने एना गुणो जे छे ए पण शाश्वत ध्रुव छे. एना
गुणमां तो ज्ञाता द्रष्टा आनंद ने वीतरागथी भरेलो भगवान छे. एना अंतर स्पर्शथी
एनी सन्मुखनी द्रष्टि विना मूढ जीव स्वभावना अजाणथी जेटली क्रिया व्रत, तप
आदि करे ए मोक्षनो उपाय नथी, ए आत्माना छूटवानो उपाय नथी, ए तो बंधनो
ने रखडवानो उपाय छे.
केटलाक बेठां बेठां भगवान् भगवान् नमो अरिहंताणम् वगेरे करे छे-ए तो
एक राग छे, विकल्प छे. भाई! शुभराग छे, परलक्षी वृत्ति छे. स्वरूप अंदर शुद्ध छे
एना भान विनाना आवा भाव एने संवर-निर्जरानुं कारण नथी, बंधनुं कारण छे.
रागनी दिशा पर तरफनी छे अने स्वभावनी दिशा अंतर्मुखनी स्व तरफनी छे. पर
तरफनी दिशाना भाव ए स्व तरफनी दिशामां मदद करे ए त्रण काळमां बने नहीं.
भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदनी मूर्ति, शाश्वत आनंदनी मूर्ति, जेमां अतीन्द्रिय
आनंद ठसोठस भर्यो छे, एवा आनंदने स्पर्श्या विना, एवा आनंदने जाणीने प्रतीत
कर्या विना, जेटला आवा व्रत नियम आदिना थाय ते पर तरफना वलणनी वृत्तिओ
आत्माने अंतर्मुख थवा माटे जरीये मददगार नथी. भगवान आनंदनो नाथ प्रभु एने
अडया विना स्पर्श्या विना आवी रागनी क्रियाओथी मोक्षमार्ग नथी, संसारमार्ग छे.
दया-दान-व्रत-भक्ति ए तो बधी बहिर्मुख वलणवाळी लागणीओवाळी वृत्ति छे.
अंतर्मुख परमात्मा पोते निजानंदथी भरेलो छे एना सन्मुखथी विमुखनी वृत्ति छे. ए
विमुखनी वृत्तिओना भावथी आत्माने पुण्य ने संसार ज छे, ते पुण्य बंधना कारण
छे. साधु थाय, र८ मूळगुण पाळे, एकवार ऊभा ऊभा आहार ले, नग्नपणुं,
सामायिक, षट् आवश्यकना विकल्पो एवा र८ मूळगुण पाळे तोपण ए संसार ने
पुण्यवर्धक छे. भगवान तारी पासे क्यां मूडी ओछी छे? ज्यारे आत्मा सर्वज्ञ
परमेश्वर केवळज्ञानपणाने पामे, अनंत आनंद

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७र] [हुं
आदि दशाने अरिहंत-सिद्धपणाने पामे ए बधी निर्मळदशानी खाण तो आत्मा छे, ए
कांई दशा बहारथी आवती नथी. भगवान आत्मा एक समयमां सत् सत् सत् चिद्
आनंद चिद् ज्ञान आदि शक्तिओनो रसकंद एनो ज्यां अंतर आदर नथी, सन्मुख
नथी, सावधानी नथी, रुचि नथी, तेने ज्ञेय करीने तेनुं ज्ञान नथी, तेमां ठरतो नथी,
त्यां सुधी बधा बहारना व्रत-तप आदि चार गतिमां रखडवाना कारण छे.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदथी शोभित तत्त्व छे. एनी अंतरमां एकाग्र
थईने अतीन्द्रिय आनंदना शांतिनो सागरो ऊछळे एने तप कहे छे. जेम मेरूथी सोनुं
शोभे एम भगवान आत्मानी एकाग्रताथी एनी दशामां अतीन्द्रिय आनंदनी भरती
आवे एनुं नाम तप कहे छे, जे जातनो भाव आत्मानो छे ते जातनो भाव तेनी
दशामां प्रगट थाय तेने मोक्षनो मार्ग कहे छे. ए जातना भावथी विपरीत भाव ए
बधा संसार खाते पुण्य खाते छे. प्रभु अनंत गुणोनो आतमराम छे, एनी सन्मुख
थईने एनुं ज्ञान एनी प्रतीत ने आचरण ए संवर ने निर्जरा छे. एनाथी जेटला
विमुखभाव-सम्यग्द्रष्टिना विमुख भाव ए पण बंधनुं कारण छे.
बधुं जाण्युं पण भगवान जाण्यो नहीं, महा प्रभु, चैतन्य प्रभु भगवान आत्मा
एक सेकन्डना असंख्य भागमां वस्तु तरीके अरूपी आनंदघन चैतन्य छे, एमां शांत
वीतरागताना रत्नो अनंत भर्या छे एवा चैतन्यरत्ननी अनुभव द्रष्टि विना एटले के
तेनी किंमत ने बहुमान कर्या विना जेटला व्रत-तप आदि करवामां आवे ए संसार
खाते छे. वीतराग परमेश्वर सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव जेने पर्यायमां अवस्थामां
स्वभावना अंतर आश्रय वडे पूर्ण ज्ञान ने पूर्ण वीतरागता प्रगट थई, त्यारे
भगवाननी ईच्छा विना वाणी नीकळी. ए वाणीमां जे आव्युं एने संतो अहीं फरमावे
छे. योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि जंगलवासी-वनमां रहेता हता. एमणे कह्युं के-भाई!
तारी चीजना अजाण अने परचीजना भ्रमणवाळा गमे तेवा पुण्यना भाव हो ए
तारा आत्माने बंधनने माटे ने रखडवा माटे छे, छूटवा माटे नथी.
व्रत-तप-संयम-इन्द्रियदमन ने मूळगुण, एकवार आहार लेवो आदि करे पण
जे आत्माना शुद्ध चिदानंदना अजाण छे एने मोक्ष नथी कह्यो, एने संवर-निर्जरा
कह्या नथी. ज्यां सुधी भगवान आत्मा पवित्र छे एनुं सम्यग्दर्शन ने अनुभव न
होय त्यां सुधी आ बधा फोगट छे, एकडा विनाना मिंडा छे, रणमां पोक मूकवा जेवा
छे. र९.
हवे ३० मी गाथा कहे छेः- -
जइ णिम्मल अप्पा मुणइ वय–संजुम–संजुत्तु ।
तो लहु पावइ सिद्धि–सुह इउ जिणणाहहं उत्तु ।। ३०।।
जे शुद्धतम अनुभवे, व्रत-संयम संयुक्त,
जिनवर भाखे जीव ते, शीघ्र लहे शिवसुख. ३०.

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परमात्मा] [७३
जे कोई आत्मा निर्मळ आनंदकंद, शुद्ध ज्ञानघन प्रभुने जाणे छे, निर्मळ शुद्ध
चिद्घन वस्तुने अनुसरीने निर्विकल्प वडे आत्माने अनुभवे छे, निर्विकल्प एटले
रागनी मलिनतानी विपरीत दशा विना निर्मळानंद प्रभुने निर्मळ अनुभवथी जे
अनुभवे छे, एने व्रत ने संयमनो व्यवहार हो, पण ए वस्तु सहित छे तो एमां
व्यवहार निमित्त तरीके त्यां कहेवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन ने अनुभव विनाना व्रतादि
हता ए तो निमित्तपणे पण कहेवामां आव्या नथी. अहीं तो निमित्तपणुं सिद्ध करवुं
छे. व्रत-संयम-इन्द्रियदमन सहित निर्मळ आत्मानो अनुभव करे तो अल्पकाळमां शीघ्र
सिद्ध परमात्मानुं सुख पामे छे. पोते आत्माना अंतर-अनुभव वडे शुद्ध चैतन्यने
अनुभवे एनी साथे एने व्रत, नियमना निमित्तरूपे विकल्पो व्यवहार होय छे तो ए
बधुं-व्यवहार क्रमे क्रमे छोडी ए पोताना सिद्ध सुखने प्राप्त करशे.
आ आत्मा केवो छे एनी एने खबर नथी, जे किंमत करवा लायक चैतन्यरत्न
तेनी कांई किंमत नहीं ने आ देह, वाणीनी क्रिया ने दया-दानना परिणाम जे कांई
किंमत करवा लायक नथी तेनी एने किंमत ने तेनो महिमा; पण सर्वज्ञ परमात्मा
वीतराग त्रिलोकनाथ अनंत आनंदने प्राप्त थया ए बधी निर्दोष दशाओ
परमात्मस्वरूपे अंदर आत्मामां पडी छे एवो निर्मळ भगवान आत्मा छे एनी एने
किंमत नथी. वर्तमान शाश्वत ध्रुव निर्मळ भाव पडयो छे एनी अंतरद्रष्टि ने आचरण
जेने छे एने भले व्रत-संयम निमित्त तरीके हो, रागनी मंदता तरीके व्यवहार-
आचरण हो पण खरुं मोक्षनुं कारण जे छे तेनी साथे आ होय छे एटले धीमे धीमे
आने छोडी दईने केवळज्ञानने सिद्धसुखने पामशे. निमित्तपणुं होय छे, स्वरूपना शुद्ध
उपादानना श्रद्धा ज्ञान ने आचरणनी भूमिकामां, पूर्ण शुद्धता प्रगट थई नथी तेथी
थोडी अशुद्धतानो ते भूमिकाने योग्य व्यवहार-रागनी मंदता होय छे, एने निमित्त
तरीके कहेवामां आवे छे. चोथे गुणस्थाने पण आत्मानुभव होय छे पण ज्यां विशेष
स्थिरता छे त्यां व्रत-नियमना आवा परिणाम होय एने तो विशेष स्थिरता होय छे
एम अहीं बताववुं छे.
ज्यां आ आत्मा अंदर पोताना पंथे चडयो छे पण ज्यां सुधी व्रतना
परिणाम-विकल्प, जोईए एवी भूमिका योग्य स्थिरता नथी थई त्यां सुधी एने उग्र
आचरण रूपी साधुपणुं होतुं नथी अने ज्यां उग्र आचरण होय छे त्यां आवा
पंचमहाव्रतना विकल्पो होय छे-एम वात सिद्ध करे छे. आवुं जिनेन्द्र भगवाननुं कथन
छे. जिनेन्द्रदेव वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ सो इन्द्र द्वारा पूजनिक, समवसरणना
नायक, लाखो संतोना सूर्य-चंद्र, लाखो साधुरूपी तारा एमां आ चंद्र एना मुखेथी आ
वाणी आवी छे. अहीं तो स्वरूपनुं अज्ञान अने राग-द्वेषनी अस्थिरता जे पडी छे
एने स्वभावना भाने टाळी शकाय छे, एम वाणीमां आव्युं छे.
वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव समवसरण सभामां आम कहेता हता
भगवान आत्मा अनंत चैतन्य आनंदना रसथी भरेलो प्रभु छे, एनी जेने अंतरमां
अनुभवनी

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७४] [हुं
उग्रतानी चारित्रदशा-रमणता होय एनी साथे ए वखते उग्र चारित्रमां निमित्त तरीके
व्रत आदिना परिणाम होय तो ए क्रमे रागनो अभाव करी शुद्धताने वधारी अने पूर्ण
आनंद-सिद्धिना सुखने मुक्तिना सुखने पामशे एम जिननाथे वर्णन कर्युं छे. ३०.
हवे ३१मी गाथामां कहे छे के एकलो व्यवहार नकामो छे.
वढ तव संजमु सीलु जिय ए सव्वई अकयत्थु ।
जांव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। ३१।।
ज्यां लगी एक न जाणियो, परम, पुनित, शुद्धभाव;
व्रत-तप-संयम-शील सहु, फोगट जाणो साव.
३१.
हे जीव! ज्यां सुधी एक भगवान आत्मानो वीतरागभाव शुद्धभाव
आनंदभाव एवो एक आत्मानो अंतरभाव, शुद्ध ध्रुवस्वभाव, शाश्वत आनंद
वीतरागभाव तेने न जाणे, शुद्ध उपयोग प्रगट न करे त्यां सुधी एना बधा व्यवहार
व्रतादि फोगट फोगट छे. व्रत पाळे, वैयावृत करे, देव-गुरुनो विनय करे, शास्त्रस्वाध्याय
करे, इन्द्रियनुं दमन करे ए बधुं कषायनी मंदतानो स्वभाव कूणो कूणो छे पण ए बधुं
अकृतार्थ छे. एनाथी तारुं कांई सिद्ध थाय एम नथी.
भगवान आत्मा वीतरागभाव, आनंदभाव, शांतभाव, अकषायभाव, सत्भाव,
प्रभुताभाव, परमेश्वभाव, एवा अनंता शुद्ध भावोनो भरेलो भगवान, एवा
शुद्धभावने ज्यां सुधी अंतर्मुख थईने न जाणे त्यां सुधी अज्ञानीना व्यवहार-चारित्र
वृथा छे. एकडा विनाना मींडा छे, रणमां पोक मूकवा जेवा छे, पुण्य बांधीने संसार
वधारनारा छे.
भगवान आत्मा पोताना शुद्धभावना भंडारनुं ज्यां सुधी ताळुं खोले नहीं त्यां
सुधी शुभभावना ए शुभरागनी क्रियाने शुभ उपयोग पण कहेवातो नथी. द्रष्टि
मिथ्यात्व छे ते खरेखर अशुभ ज परिणाम छे. आत्मानुं स्वरूप वीतरागभाव छे,
तेनो अनुभव शुद्ध उपयोगरूप भाव छे, आवो भाव ज्यां सुधी न करे त्यां सुधी
व्रत-तप-संयम-शील ए बधुं अकृतार्थ छे, मोक्षने माटे अकार्य छे. करोडो जन्म सुधी
कोई व्रत, नियम, तपस्या करे पण भगवान आत्माना अंतर अनुभव ने सम्यग्दर्शन
विना ए चार गतिमां रखडवाना पंथे पडयो छे. शुभाशुभ परिणामथी निवृत्ति अने
भगवान आत्मानी द्रष्टि सहित शुद्ध उपयोगनी रमणता करे एनुं नाम खरुं चारित्र
अने एनी साथे अशुभनी निवृत्ति ने शुभभाव होय ते व्यवहारचारित्र छे.
व्यवहारचारित्र बंधनुं कारण अने निश्चयचारित्र संवर ने निर्जरानुं कारण छे.
अनंत भव सुधी आत्माना अनुभव विनानी क्रिया अनंतवार करे तोपण एने
कांई पण लाभ थतो नथी. ३१.
आत्मानो जे द्रव्यस्वभाव छे ए द्रव्यस्वभावे परिणमवुं ए मोक्षनुं कारण छे
अने रागादि तो परद्रव्यस्वभाव छे. पंचमहाव्रत दया-दान आदिना विकल्पो ए तो
परद्रव्यस्वभाव

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परमात्मा] [७प
छे. परद्रव्यस्वभाव तो दुर्गति छे, बंधन छे. स्वद्रव्यस्वभाव ए सद्गति छे. मार्ग तो
एक होय त्रण काळमां, ‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ,’ कांई बे मार्ग होय
नहीं. सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ वीतरागदेवे कहेलो जे निश्चय स्व-आश्रय मार्ग ते एक ज
मोक्षनो मार्ग छे. पराश्रय ते मोक्षमार्ग होय ज नहीं.
पुण्य ने पाप बन्ने संसार छे तेम हवे ३र मी गाथामां कहे छेः-
पुणि्ंण पावइ सग्ग जिउ पावएं णरय–णिवासु ।
वे छडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु ।। ३२।।
पुण्ये पामे स्वर्ग जीव, पापे नरक निवास;
बे तजी जाणे आत्माने, ते पामे शिववास. ३र.
दया-दान-व्रत-भक्तिनो शुभभाव करे तो पुण्यथी स्वर्ग मळे अने पाप करे तो
नरकमां जाय. शुभभाव करे तो स्वर्गमां जाय पण अंते तो बधी धूळ ज छे.
आचार्यदेव कहे छे के पुण्य करीश तो आ स्वर्ग आदि धूळ मळशे ने पाप करीश तो
नरकमां जईश. हिंसा-जूठुं-चोरी-भोग-काम-क्रोध-वासना-महा विषयवासना-विकार,
परस्त्री लंपटपणा, दारू मांसना खावाना भाव हशे तो नरकमां जईश. परंतु बन्नेने
छोडीने आत्मानुं श्रद्धा-ज्ञान ने चारित्र करीश तो मोक्षे जईश.
भाई! एकवार हरख तो लाव के अहो! मारो
आत्मा आवो परमात्मस्वरूप छे, ज्ञानानंदनी शक्ति
भरेलो छे, मारा आत्मानी ताकात हणाई गई नथी.
“अरेरे! हुं हीणो थई गयो, विकारी थई गयो....हवे
मारुं शुं थशे!” एम डर नहि, मुंझा नहि, हताश
था नहि.....एकवार स्वभावनो उत्साह लाव.....स्वभावनो
महिमा लावीने तारी ताकातने उछाळ.
- पूज्य गुरुदेव

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७६] [हुं
[प्रवचन नं. १३]
निज परमात्मानो अनुभव
ते एक ज मोक्षनुं कारण जाण
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. र०-६-६६]
पहेलां ३१ मी गाथामां आव्युं हतुं के व्यवहारचारित्र निरर्थक छे अर्थात्
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र विना एकला व्यवहारतप कांई कार्यकारी नथी. ३०मी
गाथामां निश्चय ने व्यवहार साथे कह्या हता. एटले के ज्यां निर्मळ आत्माना श्रद्धा-
ज्ञान ने शांति होय त्यां निमित्तरूपे व्रतादि होय छे. छतां ते व्रतादि मोक्षमार्ग नथी.
तथा र८मी गाथामां, आ त्रिलोक पूज्य जिनस्वरूपी आत्मा त्रण लोकमां आदरणीय छे
ने मोक्षनुं कारण छे एम आव्युं हतुं.-आम कहीने हवे तेनुं फळ बतावे छेः-
पुणि्ंण पावइ सग्ग जिउ पावएं णरय–णिवासु ।
बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु ।। ३र।।
पुण्ये पामे स्वर्ग जीव, पापे नरक निवास;
बे तजी जाणे आत्मने, ते पामे शिववास. ३र.
जीव पुण्यथी एटले के दया, दान, शील, संयम ने व्रतादिथी-ए बधा व्यवहार
भावथी स्वर्ग पामे छे, अने तेथी एने संसारना कारण कह्यां छे. ‘पापे नरक
निवास’-पापथी नरकमां निवास थाय छे-आम पुण्य ने पाप-बेय दुःखरूप एवा
संसारना कारण छे. ‘बे तजी जाणे आत्माने’-शुभाशुभ भावने तजीने एटले के तेनी
रुचिने छोडीने-तेनो आश्रय छोडीने ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी सन्मुख थईने तेनो
आश्रय ले तो शिववास पामे. अर्थात् पुण्य-पापने छोडीने आत्मानो अनुभव करे तो
मुक्ति थाय.
निश्चय होय त्यां व्यवहार साथे होय छे. पण एकलो व्यवहार निरर्थक-अकृतार्थ
छे तेम कहे छे. जुओ! एकला व्यवहाररत्नत्रयने निरर्थक कह्या छे, केम के ज्यां
उपादान-आत्माना श्रद्धा-ज्ञान-शांति होय त्यां तेवा भावने निमित्त कहेवाय छे. पण
ज्यां उपादान न होय त्यां निमित्त केम कहेवाय? तो अहीं कह्युं के दया, दान, पूजा,
भक्ति ने व्रतादिना परिणामथी जीव स्वर्गमां जाय छे ने हिंसा, जूठुं, चोरी आदि
पापना परिणामथी नरकमां जाय छे. परंतु ते बेयने छोडे तो शिवमहेलमां जाय.
शिवमहेल एटले आत्मानी मुक्तदशा-परमानंदरूपी दशा अने ते पुण्य-पाप छोडीने
आत्मानो अनुभव करे तो थाय. पण पुण्यनी क्रियाथी कांई मुक्ति थती नथी.

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परमात्मा] [७७
अहा! निश्चय होय त्यां साथे व्यवहार होय छे, अने तेथी साथे बतावे छे. पण
पहेलो व्यवहार होय ने पछी निश्चय थाय एम नथी कहेता, तथा निश्चय साथे रहेलो
व्यवहार छे तो बंधनुं कारण, पण तेने निमित्त तरीके गणीने, ते बेथी मुक्ति थाय छे
तेम कहेवाय छे.
हवे पुण्यकर्मनी व्याख्या करे छे के शातावेदनीय, शुभआयुष्य, शुभनाम,
शुभगोत्र, ए पुण्यकर्ममां आवे छे. आहारदान, औषधदान, अभयदान ने विद्यादान-
ए चार प्रकारनुं दान आपे तो शातावेदनी आदि बांधे छे. श्रावक ने मुनिनुं
व्यवहारचारित्र पण पुण्यबंधनुं कारण छे. क्षमाभाव, संतोषपूर्वक आरंभ, अल्प
ममत्व, कोमळता, कष्ट सहन करवुं, मन-वचन-कायानुं कपट रहित वर्तन, परगुण
प्रशंसा, आत्मदोष निंदा ने निराभिमानता आदि शुभभाव स्वर्गनुं कारण छे.
हवे पापकर्मनी व्याख्या करे छे के अशातावेदनी, अशुभ आयुष्य, अशुभनाम ने
अशुभगोत्र ते पापकर्म छे ने ते अशुभभावथी बंधाय छे, ज्ञानना साधनमां विघ्न
करवाथी, परने दुःख देवाथी, तीव्र कषाय करवाथी, अन्यायपूर्वक आरंभ करवाथी, कपट
सहित वर्तन करवाथी. मन-वचन-कायाने वक्र राखवाथी, झघडा करवाथी, परनिंदा
करवाथी, आत्मप्रशंसा करवाथी, अभिमान करवाथी ने हिंसा-असत्य वचन आदि पांच
पापोमां प्रवर्तनथी अशातावेदनी आदि बंधाय छे.
जुओ, व्रत, संयम वगेरे पाळवाथी शुभराग थाय छे. तेनाथी पुण्य बंधाय छे
पण अबंधपणुं थतुं नथी-तेम कहे छे ने मोक्षनुं कारण तो एक शुद्धोपयोग ज छे.
परंतु बीजुं कोई कारण नथी एम पण कह्युं. ३र.
वउ तउ संजमु सील जिया इउ सव्वई ववहारु ।
मोक्खहं कारणु एक्कु मुणि जो तइलोयहं सारु ।। ३३।।
व्रत-तप-संयम-शील जे, ते सघळां व्यवहार;
शिवकारण जीव एक छे, त्रिलोकनो जे सार. ३३.
आत्मा मोक्षनुं कारण छे. अर्थात् आत्माने आश्रये जे वीतरागता प्रगट थाय ते
एक ज मोक्षनुं कारण छे. ज्यारे व्यवहारचारित्र बंधनुं कारण छे.
प्रश्नः– तो पछी कुंदकुंदाचार्ये पंच महाव्रत शुं करवा पाळ्‌या हता?
समाधानः– अरे! क्यां पाळ्‌या हता? जे निमित्तरूपे हता तेने ज्ञानना ज्ञेय
तरीके जाणीने हेय गण्या हता.
प्रश्नः– आप तो एकांत करो छो? व्यवहारथी कांई लाभ न थाय तेम मानो छो!
समाधानः– पण भाई! अहीं आचार्य शुं कहे छे? के व्यवहार छे, होय छे, पण
मोक्षनुं कारण तो निश्चय-आत्मानो आश्रय करवो ते ज छे.

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७८] [हुं
अहा! त्रणलोकमां सार वस्तु जो कोई होय तो मोक्षना कारणरूप एक
निश्चयचारित्र छे. सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान मोक्षना कारणरूप तो छे ज. पण अहींया
उत्कृष्ट वात लेवी छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित स्वरूपनो आश्रय करीने स्थिरता-
वीतरागता-निर्विकल्पता-शांतिनी उग्रता प्रगट करवी ते निश्चयचारित्र छे के जे
त्रणलोकमां सार छे.
अहीं कहे छे के मोक्षनुं कारण एक छे पण बे नहि. पं. टोडरमलजीए पण
मोक्षमार्गप्रकाशकना सातमा अधिकारमां कह्युं छे के मोक्षनुं कारण बे नथी पण कथन बे
प्रकारे छे ने जो बे मोक्षमार्ग माने छे तो भ्रम छे. आत्मानी पूर्ण पवित्र वीतराग
दशा-केवळज्ञान, आत्माना आश्रये निश्चयचारित्रथी ज प्रगटे छे. केमके व्यवहारना
विनय, भक्ति आदि भाव तो पराश्रित छे. छतां ते होय छे. पूर्ण वीतरागता न होय
त्यां सुधी ते होय छे, तोपण, ते व्यवहार सार नथी सार तो निश्चयचारित्र छे.
आत्मा श्रद्धा-ज्ञान-शांतिथी ज्यारे पोतानुं स्वरूप साधे छे त्यारे आवो व्यवहार
साथे होय छे, विनय, स्वाध्याय आदि भाव होय छे. पण तेनुं फळ पुण्य-स्वर्गनुं
बंधन छे. समकितीने पण तेनुं फळ स्वर्ग छे.-अहा! आम कहीने व्यवहारनुं ज्ञान
कराव्युं-व्यवहार छे तेम जणाव्युं. पण पछी उडाडी दीधो. केमके तेनी किंमत छे नहि.
अहा! आ तो योगसार छे, एटले के स्वरूपनी एकाग्रताना जोडाणनो सार-
मोक्षमार्गनो सार छे. शुद्ध परमानंदनी मूर्ति भगवान आत्मानी श्रद्धा, ज्ञान ने
रमणता ते एक ज सार छे, ने ते एक ज मोक्षनो मारग छे.
जेवुं कार्य-साध्य होय छे तेवुं ज तेनुं कारण-साधन होय छे-एवो नियम छे.
तो, कार्य निर्मळ छे तो तेनुं साधन पण निर्मळ होय छे. हवे व्रतादि तो मलिन छे.
माटे साधन मलिन छे ने साध्य निर्मळ थाय एम बने नहि. ते यथार्थ उपाय नथी.
पण परम मोक्षदशानुं कारण पण पवित्रताना परिणाम एवा निश्चय स्वसंवेदन निश्चय
रत्नत्रय छे ने ते एक ज उपाय छे. पण बीजो कोई उपाय नथी.
व्यवहारनुं पाळवुं ते राग छे, ने रागने करीने कोई माने के हुं श्रावक छुं ने
मुनि छुं तो मूढ छे. शुं ते श्रावकपणुं ने मुनिपणुं छे? ते तो बंधनुं कारण छे.
व्यवहारनी क्रियामां श्रावकपणुं के मुनिपणुं क्यांथी आव्युं? मुनिपणुं ने श्रावकपणुं तो
शुद्धात्मानो अनुभव करवो ते छे ने ते जैनधर्म छे. आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
आचरण स्वरूप अनुभव, ते एक ज मोक्षनो मारग छे ने ते चोथे गुणस्थानथी शरू
थाय छे.
अहा! निश्चय छे तो व्यवहार छे के व्यवहार छे तो निश्चय छे तेम नथी. पण
बन्ने स्वतंत्र छे. स्वाश्रयपणुं भिन्न छे ने पराश्रयपणुं पण भिन्न छे. अने खरेखर तो,
शुद्ध चैतन्यमय आत्मानुं ज्ञान थतां सम्यग्द्रष्टि व्यवहारथी मुक्त ज छे. जेम परद्रव्य छे
तेम व्यवहार छे खरो. पण ते ज्ञानीमां नथी. तेनाथी ते मुक्त छे.
श्री ‘समयसार’ मां कह्युं छे ने के आ शरीर मृतक कलेवर छे. तेम सम्यग्दर्शन

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परमात्मा] [७९
विनाना-आत्माना भान विनाना जीवनुं जीवन ज नथी पण ते मडदुं छे अर्थात्
शुद्धात्मानी प्रतीति, अनुभव विना बधी शुभाचरणनी क्रिया मडदुं छे-तेमां जीवन
नथी. परमात्मप्रकाशमां पण आवे छे के जेम जीव विनानुं शरीर अपूज्य छे-मडदुं छे.
तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना बधा व्यवहार व्रतादि
मडदां छे, अपूज्य छे. सम्यग्दर्शन विना बधा प्राणी चालता मडदां छे, ने आत्माना जे
चैतन्यप्राण, आनंदप्राण, भावप्राण छे तेनी प्रतीत, तेनुं ज्ञान ने तेमां रमणता करे तो
जीवतो थाय छे. वीतराग परमेश्वरना मार्गमां, वीतरागस्वरूप आत्मानी वीतरागी
द्रष्टि ने ज्ञानने जीवनुं जीवन कहेवामां आवे छे. तो एवा जीवना जीवन विना लक्ष्मी
वगेरेथी जे पोताने मोटो माने छे ते मरी गयेलुं मडदुं छे. तथा व्यवहारना भाववाळा
होवा छतां जे शुद्धभावथी रहित छे ते पण मडदुं छे.
भाई! आमां तो एम सिद्ध कर्युं छे के शुद्ध स्वभावी आत्मानी अंतर निश्चय
श्रद्धा ने ज्ञान ते एक ज धर्म छे. अने ते एक ज मोक्षनुं कारण छे. जो ते न होय तो
एकला व्रतादिना भाव अमान्य-अपूज्य छे. अहा! आ कांई कोईना घरनी वात नथी.
पण सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव के जेमने एक सेंकडना असंख्यमां भागमां त्रणकाळ-
त्रणलोक जाण्या छे तेमनी दिव्यवाणीमां आ आव्युं छे. अनंता तीर्थंकरोनी वाणीमां आ
आव्युं छे के अखंडानंद प्रभु आत्मानी द्रष्टि ज्ञान ने रमणता ते त्रिलोकमां सार छे. ने
ते विनाना बधा व्रतादि-तपादि अपूज्य-अमान्य छे. एटले के काढी नाखवा लायक छे.
पण जीवमां भेळववा लायक नथी. रागरूपी मडदुं चैतन्यमां भळी शके ज नहि.
अप्पा अप्पई जो मुणइ जो परमाउ चएइ ।
सो पावइ सिवपुरि–गमणु जिणवरु एम भणेइ ।। ३४।।
आत्मभावथी आत्मने, जाणे तजी परभाव,
जिनवर भाखे जीव ते. अविचळ शिवपुर जाय. ३४.
पुण्य-पापना विकल्प विनाना आनंदमूर्ति चैतन्य भगवान आत्माने आत्माथी
जाणो ने रागादिने लक्षमांथी छोडी द्यो. आम जिनवर परमेश्वर त्रिलोकनाथ कहे छे.
निर्मळ ने परमानंदस्वरूपी आत्मानो आश्रय लईने व्यवहारना जे विकल्पो छे तेने
छोड. केमके आत्माने साधवामां ते बिलकुल सहायक नथी. माटे शुभभावनो आश्रय
छोडे ने आत्मानो अनुभव करे तो धर्म थाय. अहा! रागना लोभियाने वीतरागी वातु
आकरी पडे एवी छे. वीतराग परमात्मानी तो वीतरागी वातु छे के पुण्य-पाप बेय
तडका छे. ज्यारे भगवान आत्मा शांत-शीतळरसथी भरेलो छे.
अहा! अनंतकाळना जन्म-मरण मटाडवानो उपाय कोई अपूर्व ज होय ने!
अनादिकाळना संसारमां अनंता...अनंता...अनंत ने अनंतथी गुणीए तोपण अंत न आवे
एटला भवो कर्या छे. भाई! रखडी रखडीने दुःखी थई गयो छो. अने ते पण एक

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८०] [हुं
आत्माना भान विना-सम्यग्दर्शन विना. माटे आचार्यदेव फरमावे छे के व्यवहारने
छोडीने आत्मानो अनुभव कर तो मोक्षनगरमां पहोंचीश. अहा भाई! तुं धीरो था.
धीरो था. तारा स्वभावमां अनंत अनंत आनंदना सागर डोले छे. तेनी श्रद्धा, ज्ञान
ने स्थिरता करता अल्पकाळमां तारी मुक्ति थशे. आ सिवाय मुक्तिनो बीजो कोई
उपाय नथी. पुण्यभाव पण तने मदद करे तेम नथी. ते तो तने अटकावनारा छे. माटे
तेने छोड.
‘आत्मभावथी आत्माने जाणे’ अर्थात् भगवान आत्मा पोताने राग रहित
निर्विकल्प श्रद्धा-ज्ञानथी जाणे. ने ‘तजी परभाव’ एटले के दया, दान, व्रतादिना
परिणाम के जे बंधना कारण छे तेने छोडे तो ते ‘अविचळ शिवपुर जाय.’- शिवपुरने
पामे छे. नहींतर चार गतिमां रखडशे.-आम जिनवर कहे छे.
छढाळामां आवे छे ने के ‘लाख वातनी वात, निश्चय उर आणो.’ अहा!
चैतन्यरत्नाकरमां आनंद, शांति आदि अनंत अनंत रत्नो भर्या छे. आवा
आत्मस्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने स्थिरता कर तो ते द्वारा तने अल्पकाळमां मुक्ति थशे.
जेम कूतराने कानमां कीडा पडे ने तेनुं लक्ष
वारंवार त्यां ज गया करे तेम जेने आत्मा प्राप्त
करवो छे, तेनुं लक्ष वारंवार आत्मानी सन्मुख गया
करे. आत्मानी धून चाल्या करे. बीजी धून तो
अनंतकाळथी चडी गई छे तो एकवार आत्मानी धून
तो जगाड! अने छ मास तो प्रयत्न कर! वारंवार
अंतर्मुखनो प्रयत्न कर तो जरूर तने आत्मानी
प्राप्ति थशे.
- पूज्य गुरुदेव

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परमात्मा] [८१
[प्रवचन नं. १४]
भवपार थवानुं कारणः
एक मात्र निज परमात्मानो अनुभव
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. र१-६-६६]
आ योगसार छे. योगसार एटले आत्माना मोक्षनो उपाय. तेमां सार शुं ते
बतावे छे.-
छह दव्वई जे जिण–कहिया णव पयत्थ जे तत्त ।
विवहारेण य उत्तिया ते जाणियहि पयत्त ।। ३५।।
षट् द्रव्यो जिन-उक्त जे, पदार्थ नव जे तत्त्व,
भाख्यां ते व्यवहारथी, जाणो करी प्रयत्न.
३प.
जिनेन्द्र परमेश्वरे छ द्रव्य, नव पदार्थ ने सात तत्त्व कह्यां छे; सर्वज्ञ परमेश्वर के
जेने एक समयमां त्रण काळ त्रण लोकनुं ज्ञान प्रकाशमान थयुं छे एवा भगवाने तेने
व्यवहारे कह्यां छे. पण व्यवहारे कह्यां एटले?-के आत्माथी भिन्न अने भेदरूप तत्त्व छे
तेथी तेने व्यवहारे नवतत्त्व आदि कहेवामां आव्या छे. आत्मा निश्चयथी तो अखंड
अभेद आनंदनी मूर्ति छे. तेनो आश्रय करवो ने तेनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ते
निश्चय छे. पण निश्चयमां जेनो निषेध थाय छे ते चीज शुं छे? निश्चयथी तो आत्मा
अनंत गुणनो पिंड शुद्ध एकरूप वस्तु छे. ते निश्चय के जेना आश्रयथी आत्मानो
साक्षात्कार थाय. पण ज्यारे निश्चय आम छे त्यारे बीजो व्यवहार छे के नहीं? सात
तत्त्व नव पदार्थो अने छ द्रव्यो छे, छ प्रकारना द्रव्यो छे. धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश
अने काळ तथा अनंता पुद्गल परमाणु अने अनंता जीव ते बधा एक स्वरूपना
निश्चयनी अपेक्षाए भेदरूप अथवा अनेकरूप थया माटे तेने वीतरागे व्यवहार कह्यो छे.
भगवाने छ द्रव्य, नव तत्त्व, सात पदार्थ आदि व्यवहारे कह्यां छे. व्यवहारे
कह्यांनो अर्थ? एकरूपमांथी भेदरूप अने एकरूपमांथी अन्यरूप जे छे तेने भगवाने
व्यवहार कह्यो छे, ते व्यवहार न जाणे तेने निश्चय होय नहीं. निश्चय अभेदरूप छे
त्यारे भेदरूप शुं छे? चैतन्यथी अन्यरूप शुं छे? आत्मा शुद्ध अभेद छे त्यारे तेमां
पुण्य-पापनो आस्रवभाव, बंधभाव ए आत्माथी विपरीतरूप भाव अन्य छे. तेनुं
पण ज्ञान करवुं जोईए ने आत्माना अभेद स्वरूपनी द्रष्टि करतां भेद वीतरागे कह्यां
छे. तेने जाणवा जोईए. अहीं जाणवानी वात छे. सच्चिदानंद स्वरूप अनंत अनंत
गुणोनुं एकरूप एवो जे आत्मा ते निश्चय छे. त्यारे व्यवहार कह्यो ते केवो छे? छ
द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्व जिने कह्यां ते बराबर जाणवा

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८र] [हुं
जोईए. तेने जाणवा ते व्यवहार छे. स्वने जाणवुं ते निश्चय छे. तो व्यवहार छे के नहीं?
अने तेनुं ज्ञान होवुं जोईए के नहीं? प्रयत्नपूर्वक होवुं जोईए के नहीं? तेम प्रश्न छे.
समाधानः- प्रयत्नपूर्वक जाणवुं योग्य छे. छ द्रव्यमां धर्मास्ति, अधर्मास्ति,
आकाश अने काळ चार अरूपी छे, पुद्गलरूपी छे ने जीव अरूपी छे. ते बधाने जेम
छे तेम एटले के तेना द्रव्य, तेनी शक्ति, तेनी अवस्थाओ जेम छे तेम व्यवहारे
जाणवी जोईए. ज्यारे छ द्रव्य कह्यां त्यारे एनो अर्थ एम थयो के छए द्रव्य भिन्न
भिन्न छे, तो छ द्रव्यनी पर्याय पण स्वतंत्र पोताथी थाय छे. तेम जे जाणवुं तेनुं नाम
व्यवहार ज्ञान छे, व्यवहार छे.
अहींया वात एम कहेवी छे के जगतमां छ द्रव्यो छे, एटलुं जो व्यवहारे न
जाणे तो तेनो आत्मा निश्चय अभेद एकाकार छे तेमां शी रीते आवशे? अहीं पर्याय
छे ते भेद छे ने द्रव्यो अन्य छे पण एटलो जे व्यवहार छे तेने जो न जाणे तो तेनो
निषेध करीने अभेदमां शी रीते आवशे? नवना भेदरूप कथन छे ते व्यवहार छे. नव
छे माटे निश्चय छे तेम नहीं. नवमां जीव केवो छे? अजीव केवो छे? दया-दान-
व्रतादिना परिणाम पुण्य छे, हिंसादिना परिणाम पाप छे ते बन्ने आस्रव छे. वस्तु
तेमां अटके माटे भावबंध कहे छे, आत्मा आस्रव ने बंधमांथी नीकळी स्वभाव तरफ
जतां जे शुद्ध संवर, निर्जरा-शुद्धिनी उत्पत्ति, शुद्धिनी वृद्धि ने शुद्धिनी पूर्णता ते बधी
पर्यायो नवतत्त्वमां व्यवहार तरीके आवे छे. नव छे ते निश्चय नथी एटले के नथी
तेम नहीं, पण ते भेदरूप छे, अन्यरूप छे. माटे तेने भगवाने व्यवहार कह्यो छे. बधी
दशाओ व्यवहारमां जाय छे. १४ गुणस्थान पण व्यवहारमां जाय छे. एक समयनी
पर्याय पर्याय छे के नहीं? अभेद निश्चयमां पर्याय पण न आवी. त्यां तो
निश्चयस्वरूपे भगवान आत्मा एकरूप छे ते आव्यो. व्यवहार तरीके तेनी
अवस्थाओना प्रकार-निर्मळ-मलिन अवस्थाना प्रकार अने अन्य द्रव्यना प्रकार ते
बधाने प्रयत्नथी बराबर जाणवा जोईए. आदरवानी वातनो अहीं प्रश्न नथी. ज्ञान
करवा लायक छे एटली वात छे. व्यवहारनयना विषयनुं ज्ञान करवा लायक छे के
नहीं? जाणवुं तो जोईए ने के आ भगवान आत्मा एकरूप अभेद छे तो तेमां संवर,
निर्जरा ने मोक्षनी दशा-निर्मळ दशा अने आस्रव, बंध ने पुण्य-पाप भेद छे ते
मलिन छे, तेने जाणवा जोईए. तेवी रीते बीजा अनंत आत्माओ, कर्म आदि पर छे
ने? तो परनुं ज्ञान करवुं जोईशे.
प्रयोजन सिद्ध करवा माटे आत्मा अभेद छे ते निश्चय छे, अने बधा भेदो तेने
वीतरागे व्यवहार कह्यो छे माटे तेने जाणवो जोईए. छ द्रव्यो, नव पदार्थो व्यवहार छे केमके
तेमां निश्चय तो एकरूप आत्मा काढवो ते छे. जीव, अजीव, पुण्य-पाप आदि नव पदार्थो
भगवाने कह्या ते व्यवहार छे. तेमांथी एकरूप आत्मानो आश्रय करवो ते निश्चय छे.
योगसार छे ने! आत्मा स्वभावे एकरूप, अखंड, अभेद छे, तेनो आश्रय करवो
ते निश्चय वस्तु छे. प्रयोजन सिद्ध थवामां; पण ते सिद्ध थयुं त्यारे निषेध करवा लायक
कोई बीजी चीजनुं ज्ञान कर्युं छे के नहीं? सात तत्त्व, नव पदार्थ, छ द्रव्यनुं ज्ञान तेने
भगवाने व्यवहार कह्यो छे. वीतराग परमेश्वरे कहेलां छ द्रव्य आदि अन्यमां क्यांय

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परमात्मा] [८३
होता नथी. ते छ द्रव्य अने छ द्रव्यने जाणनारी ज्ञाननी एक समयनी पर्याय-एवुं
अन्य दर्शनमां क्यांय होतुं नथी अने छतां एक समयमां छ द्रव्य जणाय ते छ द्रव्यनो
निषेध ने एक समयनी पर्याय जाणे तेनो निषेध! आहाहा! एक समयमां अभेद
पूर्णानंदनो आश्रय ते निश्चय छे ते व्यवहारनुं ज्ञान करवा लायक छे. नव तत्त्व आदिनुं
ज्ञान करवा लायक छे पण आश्रय करवा लायक नथी, पण एने जाणवा लायक छे.
त्रण लोकना नाथ भगवान जगतमां छे, देव-शास्त्र-गुरु जगतमां छे, तेनुं
ज्ञान ते व्यवहार ज्ञान छे, निश्चयमां तो स्वचैतन्यमूर्ति भगवान अखंडानंद प्रभु पूरण
शुद्ध छे, तेनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. बहु न्यायथी वात मूकेल छे. हवे
कहे छे के--
सव्व अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयणु सारु
जो जाणेविणु परम–मुणि लहु पावइ भवपारु ।। ३६।।
शेष अचेतन सर्व छे, जीव सचेतन सार,
जाणी जेने मुनिवरो, शीघ्र लहे भवपार.
३६.
भगवान सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ कहे छे के हे जीव! पुद्गलादिक पांचे द्रव्य-
परमाणु, धर्म-अधर्म-आकाश ने काळ ते बधा अचेतन छे. शरीर, वाणी, कर्म बधुं जड
अचेतन छे, तेमां चेतनभाव नथी. चेतनभाव सर्वज्ञप्रभु आत्मामां छे. एक भगवान
आत्मा सचेतन छे. सर्वज्ञस्वभावी आत्मामां चेतनभाव छे. पहेलां व्यवहारनुं ज्ञान
कराव्युं पण हवे जेमां चेतनपणुं भर्युं छे, एटले के जेमां ज्ञस्वभाव-सर्वज्ञस्वभाव भर्यो
छे, ते एक ज आ आत्मा छे तेम कहे छे. बधां छे तेने जाणनार ज्ञाननी पर्याय छे.
पण आखो आत्मा के जेमां सर्वज्ञपद पडयुं छे तेने जाणवानी ताकात ज्ञानमां छे,
जाणनारी ज्ञाननी दशा छे. पण एवी अनंती ज्ञानदशाओनो चेतनपिंड एकलो आत्मा
छे. ते सचेतन सर्वज्ञ आत्मा छे तेने तुं आत्मा जाण. बीजा सर्वे जे छे ते अचेतन
अने सचेतन छे. बीजा आत्माओ भले सचेतन हो पण तारा माटे सचेतन नथी.
तारा सिवायना बधा चेतन आ आत्मामां क्यांय नथी. बीजा पांच द्रव्यमां ज्ञान नथी
अने बधानुं जेने ज्ञान छे, तेवो आत्मा सर्वज्ञ स्वभावी छे, ते एक परम पदार्थ
भगवान आत्मा सार छे, स्वरूपनी एकता करवी ते योगसार छे. भगवान आत्मानो
चेतन स्वभाव ते तेनो सार छे. आ तो मुनिओनी मस्तीनी वात छे. जाणनार,
जाणनार, जाणनार ते एक सार छे. तेने जाण तो तारुं कल्याण थशे, ते सिवाय तारुं
कल्याण नहीं थाय. जाण एटले अनुभव कर. तेने जाणीने अल्पकाळमां मुनिओ, संतो,
भवनो पार पामी जाय छे. संसारनो अंत लाववानो उपाय भगवान आत्मानो
अंतर्मुख अनुभव करवो ते ज छे. तेथी अमे पण आव्युं के वच्चे दया-दान आदि
विकल्पो आवे ते मुक्तिनो उपाय नथी.
प्रश्नः- नजरे देखाय तो साचुं मनाय ने?
समाधानः-शी रीते देखवुं? आंख उघडे तो देखाय ने? जेम ओरडामां एक ज

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८४] [हुं
बारणुं होय, तेमां भाई साहेबे त्रण गोदडां ओढया होय अने आंखे चिपडा वळ्‌या
होय, तेने कहे के जो आ सोनाना नळीया थया-सूर्य देखाय. पण शी रीते देखाय?
आंख उघाडीने बधुं दूर करे त्यारे देखाय ने?
एक साकरनी साथे नव मीठाई मेळवे तोपण साकरने जोवावाळो, साकर,
साकर, साकर, जोवे छे, बीजा लोट आदिने नहीं. तेम आखी दुनियामां ज्यां जोवे त्यां
चेतन चेतन, जाणनार, जाणनार ते हुं, बीजी वस्तु जणाय जाय ज्ञान ते हुं नहीं. हुं
तो जाणनार छुं. जडनुं ज्ञान, संवरादिनुं ज्ञान, बीजा जीवनुं ज्ञान, पण ज्ञान ते हुं छुं.
सर्वज्ञ स्वभावी प्रभु आत्मानी ज्यां सुधी द्रष्टि न करे त्यां सुधी तेने किचिंत् पण धर्म
थतो नथी.
जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि छंडिवि सहु व्यवहारु ।
जिण–सामिउ एमइ भणइ लहु पावइ भवपारु ।। ३७।।
जो शुद्धतम अनुभवो, तजी सकल व्यवहार;
जिनप्रभुजी एम ज भणे, शीघ्र थशो भवपार. ३७.
जिनेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेवनी वाणीमां हुकम आव्यो छे के अमे व्यवहारनुं
जे ज्ञान करवानुं कह्युं-ते व्यवहारने जेम छे तेम जाण पण तेनी द्रष्टि छोड ने एक
निर्मळ आत्मानो अनुभव कर. व्यवहार छोडवानी भगवाननी आज्ञा छे. आवो
सिंहनाद भगवाननो छे. भगवान आत्मा चैतन्य प्रभु तेनी एकाग्रतानो आत्म-
अनुभव करीश अने व्यवहार छोडीश त्यारे तारी मुक्ति थशे.
परपदार्थ ने परमाणुमात्र पण हितकारी नथी अने व्यवहार धर्म ने तेनो जेटलो
विषय ते बधो त्यागवा योग्य छे. सर्व व्यवहार एटले के परवस्तुने छोड, राग छोड,
देव-शास्त्र-गुरुनी भक्तिनो विकल्प छोड, गुण-गुणीना भेदनो विकल्प पण छोड.
अरे! हुं भगवान सिद्ध समान छुं ए पण एक विकल्प छे. जेटला व्यवहारना भेद ते
बधा छोडवा जेवा छे, तेनो कोई पण अंश आश्रय करवा लायक नथी. भले ते निमित्त
होय, दया-दानना विकल्प होय के एक समयनी पर्यायनो भेद होय पण ते आश्रय
करवा लायक नथी. आ आज्ञाथी विरुद्ध माने तेने भगवाननी आज्ञानी अने उपदेशनी
श्रद्धा नथी. ज्यां सुधी व्यवहारनो विकल्प रहेशे त्यां सुधी अंतर अनुभव नहीं थई
शके. आत्मानो अनुभव ए एक ज मोक्षनो मारग छे. धर्मीजीवने तो पोतानो देव
आत्मा, गुरु पोतानो आत्मा अने शास्त्र पण पोतानो आ आत्मा ने घर पण
आत्मा-भगवान सच्चिदानंदप्रभु सिद्ध समान सदा पद मेरो. एवो आत्मा ते तेनुं घर
छे. धर्मीनुं उपवन आत्मा छे, आहाहा! त्यां ते फरे छे. आसन पण ज्ञानानंद
भगवान छे अने ते ज शीला, पर्वतनी गुफाने सिंहासन छे. आत्मानी एकाग्रतारूप
नौका ते ज धर्मीने संसारथी पार कराववावाळी छे. व्यवहारना अहंकार मुनिपणादिनो
अहंकार ते बधो मिथ्यात्व छे. व्यवहारमां सावधानवाळो मोक्षमार्गी नथी. निश्चयमां
सावधानवाळो मोक्षमार्गी छे.

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परमात्मा] [८प
हे योगी! तीर्थंकरोए जीव-अजीवनो भेद जाण, तेम कह्युं. जीव एटले ज्ञायक
स्वभावी अभेद ते जीव, बाकी बधुं अजीव. आ जीव ते बीजा जीव नहीं, आ जीव ते
बीजा जड नहीं, राग जीव नहीं, एक समयनो भेदभाव पण खरेखर जीव नहीं, ते
जीवनुं आखुं स्वरूप नहीं ते अपेक्षाए बधां अजीव! व्यवहार पण अजीव. आहाहा!
एक समयनी पर्याय पण आखो जीव नहीं. व्यवहारे जीव ते पण निश्चयथी अणात्मा
छे. एवा जीव अजीवनुं भेदज्ञान तेने मोक्षनुं कारण जाणवुं, तेम भगवान कहे छे.
बंधमां संबंध अजीवनो छे ने मोक्षनो संबंध स्वभाव छे, ते बेने जाणवुं जोईए. ज्ञान
बराबर करवुं जोईए. एटले जेने संसार, राग, बंध ते पर छे, अने आत्मा ज्ञायक
स्व छे तेवुं ज्यां भेदज्ञान थाय तेने ज मुक्तिनुं कारण थाय छे, बीजाने मुक्तिनुं कारण
थतुं नथी.
शास्त्रमां शुभरागने अशुचि कह्यो छे. आहाहा!
शरीरनी अशुचि तो क्यांय रही गई! अहीं तो
शुभरागनो व्यवहार तेने पण अशुचि कहे छे.
अरे प्रभु! तारुं कदी मरण ज थतुं नथी ने
केम डरे छे? अतीन्द्रिय आनंदमां जा! प्रभु! तारे
शरीर ज नथी ने रोगथी केम डरे छे? जन्म जरा ने
रोग रहित भगवान आत्मा छे त्या जा!-एम
जिनवर, जिनवाणी अने गुरु कहे छे. तुं जन्म,
जरा, मरण, रहित प्रभु छो त्यां द्रष्टि दे! तारे
जन्म. जरा, मरण रहित थवुं होय तो जन्म, जरा,
मरण रहित भगवान अंदर बिराजे छे त्यां जा! त्यां
द्रष्टि दईने ठर!
-पूज्य गुरुदेव

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८६] [हुं
[प्रवचन नं. १प]
हे जीव!
केवळज्ञानस्वभावी निज परमात्माने जाण
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. २२-६-६६]
जीवाजीवह भेउ जो जाणइ तिं जाणियउ ।
मोक्खहं कारण एउ भणइ जोइ जाइहिं भणिउं ।। ३८।।
जीव-अजीवना भेदनुं ज्ञान ते ज छे ज्ञान;
कहे योगीजन योगी हे! मोक्ष हेतु ए जाण. ३८.
हे धर्मी! हे योगी! जड अने चैतन्य बन्ने तद्न जुदा छे-एम जो भेदज्ञान
करीश अथवा पोताने शुद्ध ज्ञान ने आनंदमय स्वरूपे जोईश अने राग द्वेष-कर्म
आदिने अजीव स्वरूपे जोईश तो मोक्षनुं कारण प्रगट थशे. आहा जीव अजीवनो भेद
जाण एटले के जीव ते शुद्ध ज्ञान आनंदादि स्वरूपे छे अने राग, कर्म शरीर आदि
बधा अजीव छे-एम जाणवुं. जीव अने अजीवनो अनादि संबंध छे, केमके बेनो संबंध
न होय तो बंध ज न होय. वळी ज्यारे बेनो संबंध तूटे त्यारे मुक्ति थाय. माटे आ
बेनुं ज्ञान बराबर करवुं. आ ज मोक्षनुं कारण छे. जीव-अजीवनुं भेदज्ञान ते ज
मुक्तिनुं कारण छे. एम भगवाने कह्युं छे.
“भेदज्ञान ते ज्ञान छे बाकी बूरो अज्ञान.” आत्मा अने जड भिन्न छे ने?
केम के ते भिन्न न होय तो, संबंधनो बंध अने बंधना अभावरूप मुक्ति कोई रीते
सिद्ध नहि थाय. तेथी बन्नेना स्वरूप, लक्षण, भाव जुदा छे एम बराबर भिन्न जाणे
तो तेने मोक्षनुं कारण एवा आत्मस्वरूपनी श्रद्धा-ज्ञान ने शांति प्रगट थाय. आम
भगवाने कह्युं छे.
आत्मा रागादि परथी जुदो छे अने पोताना शुद्ध स्वभावथी अभेद एक छे
एवुं भेदज्ञान करे तो स्वभाव सन्मुखतानी एकता थाय ने पर सन्मुखता जाय, ए
रीते आत्म-अनुभव करतां मोक्ष थाय.
हवे सार कहे छे-जीवनी ओळखाण आपे छेः-
केवल–णाण–सहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुहुं ।
जह चाहहि–सिव–लाहु भणइ जोइ जोइहिं भणिउं ।। ३९।।
योगी कहे रे जीव तुं, जो चाहे शिवलाभ;
केवळज्ञानस्वभावी आ आत्मतत्त्वने जाण. ३९.

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परमात्मा] [८७
हे योगी! सर्वज्ञ परमेश्वरे अथवा संतोए कह्युं छे के तुं केवळज्ञानस्वभावी
आत्माने जाण! केवळज्ञानस्वभावी एटले केवळज्ञान पर्यायनी वात नथी. पण एकलो
ज्ञानस्वभाव तेमां सर्वज्ञस्वभाव आवी गयो. आत्मा आखो ज्ञानस्वरूप छे तेने जाण!
आत्मा देहथी भिन्न एकली केवळज्ञाननी मूर्ति छे-एम भान थवुं जोईए. देह
कहेतां रागादि बधां परमां जाय छे. एकलो चैतन्यस्वरूप प्रभु केवळज्ञान स्वभावनो
धरनार-रागनो धरनार नथी पण जाणनस्वभावी छे.
हवे जो मोक्षनो लाभ चाहतो हो, अर्थात् निर्मळ आनंदनी पूर्ण पर्यायनी
प्राप्तिने ईच्छतो हो-पूर्ण पवित्रता प्रगटाववी होय तो ते केवळज्ञानस्वभावी आत्माने
तुं जाण! अनुभव कर! एकला ज्ञानस्वभावनो अनुभव करवाथी तने मुक्ति मळशे.
आत्माने जाणवानुं कहेतां तेमां प्रतीत, स्थिरता ने आनंदनो अंश आदि बधुं आवी
जाय छे. ‘जाण’! जाणवामां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आखो मोक्षमार्ग आवी
गयो. केवळज्ञानस्वभावी केम कह्यो? के ज्ञानगुणमां ज बीजा अनंत गुणोनो प्रतिभास
थाय छे. ते ज्ञानथी ज बीजा गुणोनुं भान थाय छे पण बीजा गुणोना भानथी तेनुं
ज्ञान थाय छे एम नथी. बीजा गुणो अस्तित्व राखे छे पण तेओ बीजा गुणोने
जाणता नथी अने पोते पोताने पण जाणतां नथी. ज्यारे ज्ञानगुण तो एवो छे के
पोताने जाणे छे त्यारे बीजा बधां गुणो आवा छे एम जाणी ले छे. आनंदनो
अनुभव थाय पण जाणे छे तो ज्ञान के आ आनंदनो अनुभव छे. तेम सम्यग्दर्शन
पोताने नथी जाणतुं पण ज्ञान जाणे छे के आ सम्यग्दर्शन छे. दरेक आत्मा
सर्वज्ञस्वभावी छे. ज्ञान कहेतां दरेक गुणनुं ज्ञान आवी गयुं.
आमां अमारे क्रिया शुं करवी?-आ ज्ञानस्वरूपी आत्मा छे तेम जाणवुं ते क्रिया
नथी? पण बहारमां कांई फेरफार देखातो नथी. परंतु आत्मा ज क्यां बहारमां छे के
जेथी बहारमां फेरफार देखाय? शुं कह्युं? वाणी-शरीरमां आत्मा नथी तो तेनो फेरफार
बहारमां क्यांथी देखाय? ज्ञानस्वरूपी आत्मा एनो फेरफार तो ए ज्यां छे त्यां देखाय
एनी क्रियानो पलटो एनी दशामां देखाय. बहारनी क्रियाथी ए न जणाय-एनुं माप
न आवे. ज्ञानी बहारनी क्रियामां लडाईमां लडतो देखाय, पण अंदरमां तो रागनुं
स्वामीपणुं छोडी आत्मानुं स्वामीपणुं करीने बेठो छे. ज्यारे अज्ञानी बहारमां बधां
संयोगो छोडी दे छे छतां अंदर बधानुं स्वामीपणुं तो पडयुं छे. तेथी ते बधां
संयोगोनी वच्चे ज बेठो छे, कांई छूटयुं नथी. तेथी कहे छे के हे जीव! जो तुं शिवलाभ
ईच्छतो होय तो केवळज्ञानस्वभावी आत्मतत्त्वने जाण.
को [?] सुसमाहि करउ को अंचउ छोपु–अछोपु करिवि को वंचउ ।
हल सहि कलहु केण समाणउ जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ ।। ४०।।

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८८] [हुं
कोण कोनी समता करे, सेवे, पूजे कोण,
कोनी स्पर्शास्पर्शता, ठगे कोईने कोण?
कोण कोनी मैत्री करे, कोनी साथे कलेश;
ज्यां देखुं त्यां सर्व जीव, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश. ४०.
ज्ञानीने दरेक जग्याए आत्मा ज देखाय छे. आ शरीरादि तो जड छे ने रागादि
तो विकार-दोष छे, ते कांई आत्मा नथी. आत्माना जाणनारने तो दरेक जग्याए
आत्मा ज भासे छे एम आ गाथामां कहे छे.
भगवान आत्मा...आनंद स्वरूपी ज हुं आत्मा छुं. एम जेने भास्युं तेने हवे
शुं करवुं रह्युं? हवे कोण समाधि करे?-केम के ज्यां आत्माने जाण्यो छे त्यां तेमां स्थिर
थयो ज छे. हुं ज पोते परमात्मस्वरूपनो धरनार छुं एम ज्यां भास्युं त्यां हवे ते
कोनी पूजा करे? ए तो पोतानी पूजा करे छे. ए तो शुभाशुभ होय त्यारे भगवाननी
पूजा करे पण हवे ज्यां आत्मा ज शुभभावथी भिन्न चैतन्यस्वरूपे भास्यो ने तेमां
ठर्यो त्यां पोते ज पोतानुं बहुमान करे छे. माटे हवे तेने बीजानुं पूजन करवानुं रह्युं
नहि. पोते ज आत्मा सत् चिदानंद छे एम भासतां ज्यां भाव प्रगटयां त्यां हवे कोनी
साथे स्पर्श-अस्पर्श करे? जेणे पोताने जाण्यो तेने हवे स्पर्श-अस्पर्श कांई रहेतुं नथी.
पोताने ज्ञानवान जाण्यो त्यां बीजाना आत्माने पण ज्ञानवान भगवान आत्मा
जाणे छे. त्यां ते कोने ठगे? कोनी साथे मायाचार करे! बधाने भगवान भाळे त्यां
कोनी साथे मायाचार करे? एम कहे छे. आत्माने जाणतो न हतो त्यां सुधी मायाचार
कर्यो पण हवे कोनी साथे मायाचार करे? केम के ते आत्मानुं स्वरूप ज नथी.
कोनी साथे शत्रु-मित्रपणुं करे? बधा परमात्मा छे. बधा परमात्मा छे तो हवे
कोनी साथे मैत्री करवी? कोनुं भजन करवुं? आम जाणनार पोते तो अतीन्द्रिय
आनंदना मणका फेरवे छे एने तो ज्ञान ने आनंदना मणका पर्यायमां फरे छे. तो हवे
ए बीजा कोनी माळा फेरवे? अने ज्यां पोताने शांतस्वभावी जाण्यो त्यां परना
आत्माने पण ए कलेश रहित शांतस्वभावी ज जाणे छे त्यां कोनी साथे कलेश करी
शत्रु-मित्रता करे?
अहा! एने तो ज्यां जुओ त्यां भगवान आत्मा ज देखाय छे, जणाय छे. पण
बधां मळीने एक आत्मा छे एम जणाय छे एवुं नथी. परंतु पोताना आत्माने जेवो
रागादि रहित जोवे छे तेवो ज बीजाना आत्माने जोवे छे. अहा! पहेलां जीव-
अजीवनो भेद करवानुं कह्युं, पछी केवळज्ञानस्वभावी आत्मा कह्यो अने हवे पोताना
जेवो ज बधाना आत्माने जाणे छे एम कह्युं. ज्ञानी जेवी द्रष्टिए पोताने जोवे छे तेवी
ज द्रष्टिए बीजाना आत्माने जोवे छे. बीजाना आत्माने पण ते शरीर-रागादिथी
रहित जाणे छे. अरे! परमाणु आदिने जुए छे तोपण त्यां ज्ञान भासे छे के हुं तो
जाणनार छुं. रागादिने जोतां पण जाणनारुं जे ज्ञान छे ते ज्ञानने जाणे छे, माटे ज्यां
होय त्यां आत्मा ज जणाय छे.

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परमात्मा] [८९
बीजाने जोतां पण पोताना ज्ञानने ज देखे छे, आवो धर्म जीवे कोई दी सांभळ्‌यो नथी.
अनादिथी चोराशीना अवतारमां भटकीने भूका थई गया, तोपण ज्ञान ते आत्मा तेम
जाण्युं नहि पण आत्माने अणात्मा मान्यो अने अणात्माने आत्मा मान्यो.
बीजाना दोषनुं ज्ञान थयुं पण त्यां ज्ञान थयुं ने! तो ज्ञान थयुं ते पोतामां थयुं
छे. माटे पोतानुं ज्ञान थयुं छे पण दोषनुं ज्ञान थयुं नथी. माटे ज्यां होय त्यां पोतानुं
ज्ञान थाय छे-पोतानुं ज्ञान जणाय छे.
ज्ञाननी मूर्ति छे एम अंतरभान थतां ते बधेय ज्ञान अथवा आत्मा ज भाळे
छे. जेम खेतरमां चणा वाव्या होय तो खेडूतनी नजर चणा उपर ज होय. केटला थया
छे? ने केवा थाय छे? एम एनी नजर चणा उपर होय. पण डाळा-पांदडा उपर
नजर न होय. तथा जेम सोनामां मणि जडेल होय ने झवेरी पासे जाव तो तेनी द्रष्टि
मणि पर ज होय; सोना पर नहि केम के तेने मणिनुं काम छे ज्यारे सोनीने त्यां जाव
तो तेनी द्रष्टि सोना उपर ज होय, तेम जेने आत्मानी श्रद्धा ज्ञान ने भान थयुं तेने
ज्यां होय त्यां आत्मानो पाक ज देखाय के हुं जाणनार-देखनार छुं. बीजुं मारामां छे
नहि ने हुं ज मने जाणनार-देखनार छुं.
हवे अनात्मज्ञानी कुतीर्थमां भमे छे तेम कहे छेः-
ताम कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ ।
गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पा–देउ मुणेइ ।। ४१।।
सदगुरु वचन प्रसादथी, जाणे न आतमदेव;
भमे कुतीर्थे त्यां सुधी, करे कपटना खेल. ४१.
गुरु महाराजना प्रसादथी देहदेवळमां बिराजमान पोताना आत्माने
सच्चिदानंदस्वरूप-पोताना देवने सच्चिदानंदस्वरूप ज्यां नथी जाणतो त्यां सुधी
कुतीर्थोमां भमे छे, ज्यां त्यां भटक्या करे छे.
नदीमां स्नान करवा जाय तो कल्याण थाय ने! अरे धूळमां कल्याण थाय! त्यां
माछलां तो घणां स्नान करे छे! तो शुं तेनुं कल्याण थई जशे? कुतीर्थोमां लाभ
मानवो ते लोकमूढता छे. विषयोनी प्राप्ति माटे जीव मिथ्यादेव, मिथ्यागुरु ने मिथ्या
शास्त्रोनी खूब पूजा-भक्ति करे छे. पण ते मूढता छे. शुद्धात्माने अनुभववो ते देवनी
साची पूजा छे, सम्यग्दर्शन छे. बाकी कुतीर्थोमां रखडवाथी कांई लाभ थाय नहि.
तूंबडीनो दाखलो आवे छे ने के तूंबडीने तीर्थमां खूब नवरावी पण एनी कडवाश तो
गई नहि. तो पछी शुं तारी कडवाश तीर्थमां नावाथी चाली जशे? अहा! भ्रमणारूपी
झेर तो उतर्या नथी तो पछी शेना तीर्थ कर्या?