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जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। २९।।
मुढ तणा व्रत-तप सहु; शिवहेतु न कहाय.
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छे. प्रभु! एने खबर नथी. आ देह, वाणी, मन ए तो धूळ, माटी, जड छे अने
विनयना जे विकल्पो ऊठे ते पुण्य छे ते कांई आत्मा नथी. एवा पुण्य-पापना राग
रहित भगवान आत्मा वस्तु शाश्वत, नित्य ध्रुव, एने स्पर्श कर्या विना मूढ जीव
थयेला बधा विकल्पोनी जाळ पुण्य के पाप ए बंधनुं ज कारण छे.
शाश्वत पदार्थ छे. एमां अंदर शाश्वत आनंद ने शाश्वत शांति पडया छे. एवा शाश्वत
भगवान आत्मा अने शाश्वत शांतिने आनंदनो जे भाव एना स्पर्शना भान विना
भगवान आत्मा वस्तुए अबंध स्वरूपे छे, एने आवा परिणामथी बंधन थाय छे.
भगवान आत्मा शाश्वत ध्रुव छे ने एना गुणो जे छे ए पण शाश्वत ध्रुव छे. एना
एनी सन्मुखनी द्रष्टि विना मूढ जीव स्वभावना अजाणथी जेटली क्रिया व्रत, तप
आदि करे ए मोक्षनो उपाय नथी, ए आत्माना छूटवानो उपाय नथी, ए तो बंधनो
ने रखडवानो उपाय छे.
एना भान विनाना आवा भाव एने संवर-निर्जरानुं कारण नथी, बंधनुं कारण छे.
रागनी दिशा पर तरफनी छे अने स्वभावनी दिशा अंतर्मुखनी स्व तरफनी छे. पर
तरफनी दिशाना भाव ए स्व तरफनी दिशामां मदद करे ए त्रण काळमां बने नहीं.
कर्या विना, जेटला आवा व्रत नियम आदिना थाय ते पर तरफना वलणनी वृत्तिओ
आत्माने अंतर्मुख थवा माटे जरीये मददगार नथी. भगवान आनंदनो नाथ प्रभु एने
दया-दान-व्रत-भक्ति ए तो बधी बहिर्मुख वलणवाळी लागणीओवाळी वृत्ति छे.
अंतर्मुख परमात्मा पोते निजानंदथी भरेलो छे एना सन्मुखथी विमुखनी वृत्ति छे. ए
छे. साधु थाय, र८ मूळगुण पाळे, एकवार ऊभा ऊभा आहार ले, नग्नपणुं,
सामायिक, षट् आवश्यकना विकल्पो एवा र८ मूळगुण पाळे तोपण ए संसार ने
परमेश्वर केवळज्ञानपणाने पामे, अनंत आनंद
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कांई दशा बहारथी आवती नथी. भगवान आत्मा एक समयमां सत् सत् सत् चिद्
आनंद चिद् ज्ञान आदि शक्तिओनो रसकंद एनो ज्यां अंतर आदर नथी, सन्मुख
त्यां सुधी बधा बहारना व्रत-तप आदि चार गतिमां रखडवाना कारण छे.
शोभे एम भगवान आत्मानी एकाग्रताथी एनी दशामां अतीन्द्रिय आनंदनी भरती
आवे एनुं नाम तप कहे छे, जे जातनो भाव आत्मानो छे ते जातनो भाव तेनी
बधा संसार खाते पुण्य खाते छे. प्रभु अनंत गुणोनो आतमराम छे, एनी सन्मुख
थईने एनुं ज्ञान एनी प्रतीत ने आचरण ए संवर ने निर्जरा छे. एनाथी जेटला
तेनी किंमत ने बहुमान कर्या विना जेटला व्रत-तप आदि करवामां आवे ए संसार
खाते छे. वीतराग परमेश्वर सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव जेने पर्यायमां अवस्थामां
भगवाननी ईच्छा विना वाणी नीकळी. ए वाणीमां जे आव्युं एने संतो अहीं फरमावे
छे. योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि जंगलवासी-वनमां रहेता हता. एमणे कह्युं के-भाई!
तारा आत्माने बंधनने माटे ने रखडवा माटे छे, छूटवा माटे नथी.
कह्या नथी. ज्यां सुधी भगवान आत्मा पवित्र छे एनुं सम्यग्दर्शन ने अनुभव न
होय त्यां सुधी आ बधा फोगट छे, एकडा विनाना मिंडा छे, रणमां पोक मूकवा जेवा
तो लहु पावइ सिद्धि–सुह इउ जिणणाहहं उत्तु ।। ३०।।
जिनवर भाखे जीव ते, शीघ्र लहे शिवसुख. ३०.
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अनुभवे छे, एने व्रत ने संयमनो व्यवहार हो, पण ए वस्तु सहित छे तो एमां
व्यवहार निमित्त तरीके त्यां कहेवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन ने अनुभव विनाना व्रतादि
छे. व्रत-संयम-इन्द्रियदमन सहित निर्मळ आत्मानो अनुभव करे तो अल्पकाळमां शीघ्र
सिद्ध परमात्मानुं सुख पामे छे. पोते आत्माना अंतर-अनुभव वडे शुद्ध चैतन्यने
बधुं-व्यवहार क्रमे क्रमे छोडी ए पोताना सिद्ध सुखने प्राप्त करशे.
किंमत करवा लायक नथी तेनी एने किंमत ने तेनो महिमा; पण सर्वज्ञ परमात्मा
वीतराग त्रिलोकनाथ अनंत आनंदने प्राप्त थया ए बधी निर्दोष दशाओ
किंमत नथी. वर्तमान शाश्वत ध्रुव निर्मळ भाव पडयो छे एनी अंतरद्रष्टि ने आचरण
जेने छे एने भले व्रत-संयम निमित्त तरीके हो, रागनी मंदता तरीके व्यवहार-
आने छोडी दईने केवळज्ञानने सिद्धसुखने पामशे. निमित्तपणुं होय छे, स्वरूपना शुद्ध
उपादानना श्रद्धा ज्ञान ने आचरणनी भूमिकामां, पूर्ण शुद्धता प्रगट थई नथी तेथी
तरीके कहेवामां आवे छे. चोथे गुणस्थाने पण आत्मानुभव होय छे पण ज्यां विशेष
स्थिरता छे त्यां व्रत-नियमना आवा परिणाम होय एने तो विशेष स्थिरता होय छे
एम अहीं बताववुं छे.
आचरण रूपी साधुपणुं होतुं नथी अने ज्यां उग्र आचरण होय छे त्यां आवा
पंचमहाव्रतना विकल्पो होय छे-एम वात सिद्ध करे छे. आवुं जिनेन्द्र भगवाननुं कथन
नायक, लाखो संतोना सूर्य-चंद्र, लाखो साधुरूपी तारा एमां आ चंद्र एना मुखेथी आ
वाणी आवी छे. अहीं तो स्वरूपनुं अज्ञान अने राग-द्वेषनी अस्थिरता जे पडी छे
एने स्वभावना भाने टाळी शकाय छे, एम वाणीमां आव्युं छे.
अनुभवनी
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व्रत आदिना परिणाम होय तो ए क्रमे रागनो अभाव करी शुद्धताने वधारी अने पूर्ण
आनंद-सिद्धिना सुखने मुक्तिना सुखने पामशे एम जिननाथे वर्णन कर्युं छे. ३०.
जांव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। ३१।।
व्रत-तप-संयम-शील सहु, फोगट जाणो साव.
व्रतादि फोगट फोगट छे. व्रत पाळे, वैयावृत करे, देव-गुरुनो विनय करे, शास्त्रस्वाध्याय
करे, इन्द्रियनुं दमन करे ए बधुं कषायनी मंदतानो स्वभाव कूणो कूणो छे पण ए बधुं
अकृतार्थ छे. एनाथी तारुं कांई सिद्ध थाय एम नथी.
शुद्धभावने ज्यां सुधी अंतर्मुख थईने न जाणे त्यां सुधी अज्ञानीना व्यवहार-चारित्र
वधारनारा छे.
तेनो अनुभव शुद्ध उपयोगरूप भाव छे, आवो भाव ज्यां सुधी न करे त्यां सुधी
व्रत-तप-संयम-शील ए बधुं अकृतार्थ छे, मोक्षने माटे अकार्य छे. करोडो जन्म सुधी
विना ए चार गतिमां रखडवाना पंथे पडयो छे. शुभाशुभ परिणामथी निवृत्ति अने
भगवान आत्मानी द्रष्टि सहित शुद्ध उपयोगनी रमणता करे एनुं नाम खरुं चारित्र
व्यवहारचारित्र बंधनुं कारण अने निश्चयचारित्र संवर ने निर्जरानुं कारण छे.
परद्रव्यस्वभाव
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एक होय त्रण काळमां, ‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ,’ कांई बे मार्ग होय
नहीं. सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ वीतरागदेवे कहेलो जे निश्चय स्व-आश्रय मार्ग ते एक ज
मोक्षनो मार्ग छे. पराश्रय ते मोक्षमार्ग होय ज नहीं.
वे छडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु ।। ३२।।
बे तजी जाणे आत्माने, ते पामे शिववास. ३र.
आचार्यदेव कहे छे के पुण्य करीश तो आ स्वर्ग आदि धूळ मळशे ने पाप करीश तो
नरकमां जईश. हिंसा-जूठुं-चोरी-भोग-काम-क्रोध-वासना-महा विषयवासना-विकार,
परस्त्री लंपटपणा, दारू मांसना खावाना भाव हशे तो नरकमां जईश. परंतु बन्नेने
छोडीने आत्मानुं श्रद्धा-ज्ञान ने चारित्र करीश तो मोक्षे जईश.
आत्मा आवो परमात्मस्वरूप छे, ज्ञानानंदनी शक्ति
भरेलो छे, मारा आत्मानी ताकात हणाई गई नथी.
“अरेरे! हुं हीणो थई गयो, विकारी थई गयो....हवे
मारुं शुं थशे!” एम डर नहि, मुंझा नहि, हताश
था नहि.....एकवार स्वभावनो उत्साह लाव.....स्वभावनो
महिमा लावीने तारी ताकातने उछाळ.
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गाथामां निश्चय ने व्यवहार साथे कह्या हता. एटले के ज्यां निर्मळ आत्माना श्रद्धा-
ज्ञान ने शांति होय त्यां निमित्तरूपे व्रतादि होय छे. छतां ते व्रतादि मोक्षमार्ग नथी.
तथा र८मी गाथामां, आ त्रिलोक पूज्य जिनस्वरूपी आत्मा त्रण लोकमां आदरणीय छे
ने मोक्षनुं कारण छे एम आव्युं हतुं.-आम कहीने हवे तेनुं फळ बतावे छेः-
बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु ।। ३र।।
बे तजी जाणे आत्मने, ते पामे शिववास. ३र.
निवास’-पापथी नरकमां निवास थाय छे-आम पुण्य ने पाप-बेय दुःखरूप एवा
संसारना कारण छे. ‘बे तजी जाणे आत्माने’-शुभाशुभ भावने तजीने एटले के तेनी
रुचिने छोडीने-तेनो आश्रय छोडीने ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी सन्मुख थईने तेनो
आश्रय ले तो शिववास पामे. अर्थात् पुण्य-पापने छोडीने आत्मानो अनुभव करे तो
मुक्ति थाय.
उपादान-आत्माना श्रद्धा-ज्ञान-शांति होय त्यां तेवा भावने निमित्त कहेवाय छे. पण
ज्यां उपादान न होय त्यां निमित्त केम कहेवाय? तो अहीं कह्युं के दया, दान, पूजा,
भक्ति ने व्रतादिना परिणामथी जीव स्वर्गमां जाय छे ने हिंसा, जूठुं, चोरी आदि
पापना परिणामथी नरकमां जाय छे. परंतु ते बेयने छोडे तो शिवमहेलमां जाय.
शिवमहेल एटले आत्मानी मुक्तदशा-परमानंदरूपी दशा अने ते पुण्य-पाप छोडीने
आत्मानो अनुभव करे तो थाय. पण पुण्यनी क्रियाथी कांई मुक्ति थती नथी.
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व्यवहार छे तो बंधनुं कारण, पण तेने निमित्त तरीके गणीने, ते बेथी मुक्ति थाय छे
तेम कहेवाय छे.
ए चार प्रकारनुं दान आपे तो शातावेदनी आदि बांधे छे. श्रावक ने मुनिनुं
व्यवहारचारित्र पण पुण्यबंधनुं कारण छे. क्षमाभाव, संतोषपूर्वक आरंभ, अल्प
ममत्व, कोमळता, कष्ट सहन करवुं, मन-वचन-कायानुं कपट रहित वर्तन, परगुण
प्रशंसा, आत्मदोष निंदा ने निराभिमानता आदि शुभभाव स्वर्गनुं कारण छे.
करवाथी, परने दुःख देवाथी, तीव्र कषाय करवाथी, अन्यायपूर्वक आरंभ करवाथी, कपट
सहित वर्तन करवाथी. मन-वचन-कायाने वक्र राखवाथी, झघडा करवाथी, परनिंदा
करवाथी, आत्मप्रशंसा करवाथी, अभिमान करवाथी ने हिंसा-असत्य वचन आदि पांच
पापोमां प्रवर्तनथी अशातावेदनी आदि बंधाय छे.
परंतु बीजुं कोई कारण नथी एम पण कह्युं. ३र.
मोक्खहं कारणु एक्कु मुणि जो तइलोयहं सारु ।। ३३।।
शिवकारण जीव एक छे, त्रिलोकनो जे सार. ३३.
समाधानः– अरे! क्यां पाळ्या हता? जे निमित्तरूपे हता तेने ज्ञानना ज्ञेय
समाधानः– पण भाई! अहीं आचार्य शुं कहे छे? के व्यवहार छे, होय छे, पण
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उत्कृष्ट वात लेवी छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित स्वरूपनो आश्रय करीने स्थिरता-
वीतरागता-निर्विकल्पता-शांतिनी उग्रता प्रगट करवी ते निश्चयचारित्र छे के जे
दशा-केवळज्ञान, आत्माना आश्रये निश्चयचारित्रथी ज प्रगटे छे. केमके व्यवहारना
विनय, भक्ति आदि भाव तो पराश्रित छे. छतां ते होय छे. पूर्ण वीतरागता न होय
कराव्युं-व्यवहार छे तेम जणाव्युं. पण पछी उडाडी दीधो. केमके तेनी किंमत छे नहि.
रमणता ते एक ज सार छे, ने ते एक ज मोक्षनो मारग छे.
माटे साधन मलिन छे ने साध्य निर्मळ थाय एम बने नहि. ते यथार्थ उपाय नथी.
पण परम मोक्षदशानुं कारण पण पवित्रताना परिणाम एवा निश्चय स्वसंवेदन निश्चय
शुद्धात्मानो अनुभव करवो ते छे ने ते जैनधर्म छे. आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
आचरण स्वरूप अनुभव, ते एक ज मोक्षनो मारग छे ने ते चोथे गुणस्थानथी शरू
थाय छे.
शुद्ध चैतन्यमय आत्मानुं ज्ञान थतां सम्यग्द्रष्टि व्यवहारथी मुक्त ज छे. जेम परद्रव्य छे
तेम व्यवहार छे खरो. पण ते ज्ञानीमां नथी. तेनाथी ते मुक्त छे.
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शुद्धात्मानी प्रतीति, अनुभव विना बधी शुभाचरणनी क्रिया मडदुं छे-तेमां जीवन
नथी. परमात्मप्रकाशमां पण आवे छे के जेम जीव विनानुं शरीर अपूज्य छे-मडदुं छे.
तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना बधा व्यवहार व्रतादि
मडदां छे, अपूज्य छे. सम्यग्दर्शन विना बधा प्राणी चालता मडदां छे, ने आत्माना जे
चैतन्यप्राण, आनंदप्राण, भावप्राण छे तेनी प्रतीत, तेनुं ज्ञान ने तेमां रमणता करे तो
जीवतो थाय छे. वीतराग परमेश्वरना मार्गमां, वीतरागस्वरूप आत्मानी वीतरागी
द्रष्टि ने ज्ञानने जीवनुं जीवन कहेवामां आवे छे. तो एवा जीवना जीवन विना लक्ष्मी
वगेरेथी जे पोताने मोटो माने छे ते मरी गयेलुं मडदुं छे. तथा व्यवहारना भाववाळा
होवा छतां जे शुद्धभावथी रहित छे ते पण मडदुं छे.
एकला व्रतादिना भाव अमान्य-अपूज्य छे. अहा! आ कांई कोईना घरनी वात नथी.
पण सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव के जेमने एक सेंकडना असंख्यमां भागमां त्रणकाळ-
त्रणलोक जाण्या छे तेमनी दिव्यवाणीमां आ आव्युं छे. अनंता तीर्थंकरोनी वाणीमां आ
आव्युं छे के अखंडानंद प्रभु आत्मानी द्रष्टि ज्ञान ने रमणता ते त्रिलोकमां सार छे. ने
ते विनाना बधा व्रतादि-तपादि अपूज्य-अमान्य छे. एटले के काढी नाखवा लायक छे.
पण जीवमां भेळववा लायक नथी. रागरूपी मडदुं चैतन्यमां भळी शके ज नहि.
सो पावइ सिवपुरि–गमणु जिणवरु एम भणेइ ।। ३४।।
जिनवर भाखे जीव ते. अविचळ शिवपुर जाय. ३४.
निर्मळ ने परमानंदस्वरूपी आत्मानो आश्रय लईने व्यवहारना जे विकल्पो छे तेने
छोड. केमके आत्माने साधवामां ते बिलकुल सहायक नथी. माटे शुभभावनो आश्रय
छोडे ने आत्मानो अनुभव करे तो धर्म थाय. अहा! रागना लोभियाने वीतरागी वातु
आकरी पडे एवी छे. वीतराग परमात्मानी तो वीतरागी वातु छे के पुण्य-पाप बेय
तडका छे. ज्यारे भगवान आत्मा शांत-शीतळरसथी भरेलो छे.
एटला भवो कर्या छे. भाई! रखडी रखडीने दुःखी थई गयो छो. अने ते पण एक
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छोडीने आत्मानो अनुभव कर तो मोक्षनगरमां पहोंचीश. अहा भाई! तुं धीरो था.
धीरो था. तारा स्वभावमां अनंत अनंत आनंदना सागर डोले छे. तेनी श्रद्धा, ज्ञान
ने स्थिरता करता अल्पकाळमां तारी मुक्ति थशे. आ सिवाय मुक्तिनो बीजो कोई
उपाय नथी. पुण्यभाव पण तने मदद करे तेम नथी. ते तो तने अटकावनारा छे. माटे
तेने छोड.
परिणाम के जे बंधना कारण छे तेने छोडे तो ते ‘अविचळ शिवपुर जाय.’- शिवपुरने
पामे छे. नहींतर चार गतिमां रखडशे.-आम जिनवर कहे छे.
आत्मस्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने स्थिरता कर तो ते द्वारा तने अल्पकाळमां मुक्ति थशे.
वारंवार त्यां ज गया करे तेम जेने आत्मा प्राप्त
करवो छे, तेनुं लक्ष वारंवार आत्मानी सन्मुख गया
करे. आत्मानी धून चाल्या करे. बीजी धून तो
अनंतकाळथी चडी गई छे तो एकवार आत्मानी धून
तो जगाड! अने छ मास तो प्रयत्न कर! वारंवार
अंतर्मुखनो प्रयत्न कर तो जरूर तने आत्मानी
प्राप्ति थशे.
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विवहारेण य उत्तिया ते जाणियहि पयत्त ।। ३५।।
भाख्यां ते व्यवहारथी, जाणो करी प्रयत्न.
व्यवहारे कह्यां छे. पण व्यवहारे कह्यां एटले?-के आत्माथी भिन्न अने भेदरूप तत्त्व छे
तेथी तेने व्यवहारे नवतत्त्व आदि कहेवामां आव्या छे. आत्मा निश्चयथी तो अखंड
अभेद आनंदनी मूर्ति छे. तेनो आश्रय करवो ने तेनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ते
निश्चय छे. पण निश्चयमां जेनो निषेध थाय छे ते चीज शुं छे? निश्चयथी तो आत्मा
अनंत गुणनो पिंड शुद्ध एकरूप वस्तु छे. ते निश्चय के जेना आश्रयथी आत्मानो
साक्षात्कार थाय. पण ज्यारे निश्चय आम छे त्यारे बीजो व्यवहार छे के नहीं? सात
तत्त्व नव पदार्थो अने छ द्रव्यो छे, छ प्रकारना द्रव्यो छे. धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश
अने काळ तथा अनंता पुद्गल परमाणु अने अनंता जीव ते बधा एक स्वरूपना
निश्चयनी अपेक्षाए भेदरूप अथवा अनेकरूप थया माटे तेने वीतरागे व्यवहार कह्यो छे.
व्यवहार कह्यो छे, ते व्यवहार न जाणे तेने निश्चय होय नहीं. निश्चय अभेदरूप छे
त्यारे भेदरूप शुं छे? चैतन्यथी अन्यरूप शुं छे? आत्मा शुद्ध अभेद छे त्यारे तेमां
पुण्य-पापनो आस्रवभाव, बंधभाव ए आत्माथी विपरीतरूप भाव अन्य छे. तेनुं
पण ज्ञान करवुं जोईए ने आत्माना अभेद स्वरूपनी द्रष्टि करतां भेद वीतरागे कह्यां
छे. तेने जाणवा जोईए. अहीं जाणवानी वात छे. सच्चिदानंद स्वरूप अनंत अनंत
गुणोनुं एकरूप एवो जे आत्मा ते निश्चय छे. त्यारे व्यवहार कह्यो ते केवो छे? छ
द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्व जिने कह्यां ते बराबर जाणवा
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अने तेनुं ज्ञान होवुं जोईए के नहीं? प्रयत्नपूर्वक होवुं जोईए के नहीं? तेम प्रश्न छे.
छे तेम एटले के तेना द्रव्य, तेनी शक्ति, तेनी अवस्थाओ जेम छे तेम व्यवहारे
जाणवी जोईए. ज्यारे छ द्रव्य कह्यां त्यारे एनो अर्थ एम थयो के छए द्रव्य भिन्न
भिन्न छे, तो छ द्रव्यनी पर्याय पण स्वतंत्र पोताथी थाय छे. तेम जे जाणवुं तेनुं नाम
व्यवहार ज्ञान छे, व्यवहार छे.
छे ते भेद छे ने द्रव्यो अन्य छे पण एटलो जे व्यवहार छे तेने जो न जाणे तो तेनो
निषेध करीने अभेदमां शी रीते आवशे? नवना भेदरूप कथन छे ते व्यवहार छे. नव
छे माटे निश्चय छे तेम नहीं. नवमां जीव केवो छे? अजीव केवो छे? दया-दान-
व्रतादिना परिणाम पुण्य छे, हिंसादिना परिणाम पाप छे ते बन्ने आस्रव छे. वस्तु
तेमां अटके माटे भावबंध कहे छे, आत्मा आस्रव ने बंधमांथी नीकळी स्वभाव तरफ
जतां जे शुद्ध संवर, निर्जरा-शुद्धिनी उत्पत्ति, शुद्धिनी वृद्धि ने शुद्धिनी पूर्णता ते बधी
पर्यायो नवतत्त्वमां व्यवहार तरीके आवे छे. नव छे ते निश्चय नथी एटले के नथी
तेम नहीं, पण ते भेदरूप छे, अन्यरूप छे. माटे तेने भगवाने व्यवहार कह्यो छे. बधी
दशाओ व्यवहारमां जाय छे. १४ गुणस्थान पण व्यवहारमां जाय छे. एक समयनी
पर्याय पर्याय छे के नहीं? अभेद निश्चयमां पर्याय पण न आवी. त्यां तो
निश्चयस्वरूपे भगवान आत्मा एकरूप छे ते आव्यो. व्यवहार तरीके तेनी
अवस्थाओना प्रकार-निर्मळ-मलिन अवस्थाना प्रकार अने अन्य द्रव्यना प्रकार ते
बधाने प्रयत्नथी बराबर जाणवा जोईए. आदरवानी वातनो अहीं प्रश्न नथी. ज्ञान
करवा लायक छे एटली वात छे. व्यवहारनयना विषयनुं ज्ञान करवा लायक छे के
नहीं? जाणवुं तो जोईए ने के आ भगवान आत्मा एकरूप अभेद छे तो तेमां संवर,
निर्जरा ने मोक्षनी दशा-निर्मळ दशा अने आस्रव, बंध ने पुण्य-पाप भेद छे ते
मलिन छे, तेने जाणवा जोईए. तेवी रीते बीजा अनंत आत्माओ, कर्म आदि पर छे
ने? तो परनुं ज्ञान करवुं जोईशे.
तेमां निश्चय तो एकरूप आत्मा काढवो ते छे. जीव, अजीव, पुण्य-पाप आदि नव पदार्थो
भगवाने कह्या ते व्यवहार छे. तेमांथी एकरूप आत्मानो आश्रय करवो ते निश्चय छे.
कोई बीजी चीजनुं ज्ञान कर्युं छे के नहीं? सात तत्त्व, नव पदार्थ, छ द्रव्यनुं ज्ञान तेने
भगवाने व्यवहार कह्यो छे. वीतराग परमेश्वरे कहेलां छ द्रव्य आदि अन्यमां क्यांय
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अन्य दर्शनमां क्यांय होतुं नथी अने छतां एक समयमां छ द्रव्य जणाय ते छ द्रव्यनो
निषेध ने एक समयनी पर्याय जाणे तेनो निषेध! आहाहा! एक समयमां अभेद
ज्ञान करवा लायक छे पण आश्रय करवा लायक नथी, पण एने जाणवा लायक छे.
शुद्ध छे, तेनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. बहु न्यायथी वात मूकेल छे. हवे
कहे छे के--
जाणी जेने मुनिवरो, शीघ्र लहे भवपार.
आत्मा सचेतन छे. सर्वज्ञस्वभावी आत्मामां चेतनभाव छे. पहेलां व्यवहारनुं ज्ञान
कराव्युं पण हवे जेमां चेतनपणुं भर्युं छे, एटले के जेमां ज्ञस्वभाव-सर्वज्ञस्वभाव भर्यो
पण आखो आत्मा के जेमां सर्वज्ञपद पडयुं छे तेने जाणवानी ताकात ज्ञानमां छे,
जाणनारी ज्ञाननी दशा छे. पण एवी अनंती ज्ञानदशाओनो चेतनपिंड एकलो आत्मा
अने सचेतन छे. बीजा आत्माओ भले सचेतन हो पण तारा माटे सचेतन नथी.
तारा सिवायना बधा चेतन आ आत्मामां क्यांय नथी. बीजा पांच द्रव्यमां ज्ञान नथी
भगवान आत्मा सार छे, स्वरूपनी एकता करवी ते योगसार छे. भगवान आत्मानो
चेतन स्वभाव ते तेनो सार छे. आ तो मुनिओनी मस्तीनी वात छे. जाणनार,
कल्याण नहीं थाय. जाण एटले अनुभव कर. तेने जाणीने अल्पकाळमां मुनिओ, संतो,
भवनो पार पामी जाय छे. संसारनो अंत लाववानो उपाय भगवान आत्मानो
विकल्पो आवे ते मुक्तिनो उपाय नथी.
समाधानः-शी रीते देखवुं? आंख उघडे तो देखाय ने? जेम ओरडामां एक ज
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होय, तेने कहे के जो आ सोनाना नळीया थया-सूर्य देखाय. पण शी रीते देखाय?
आंख उघाडीने बधुं दूर करे त्यारे देखाय ने?
चेतन चेतन, जाणनार, जाणनार ते हुं, बीजी वस्तु जणाय जाय ज्ञान ते हुं नहीं. हुं
सर्वज्ञ स्वभावी प्रभु आत्मानी ज्यां सुधी द्रष्टि न करे त्यां सुधी तेने किचिंत् पण धर्म
थतो नथी.
जिण–सामिउ एमइ भणइ लहु पावइ भवपारु ।। ३७।।
जिनप्रभुजी एम ज भणे, शीघ्र थशो भवपार. ३७.
निर्मळ आत्मानो अनुभव कर. व्यवहार छोडवानी भगवाननी आज्ञा छे. आवो
सिंहनाद भगवाननो छे. भगवान आत्मा चैतन्य प्रभु तेनी एकाग्रतानो आत्म-
अरे! हुं भगवान सिद्ध समान छुं ए पण एक विकल्प छे. जेटला व्यवहारना भेद ते
बधा छोडवा जेवा छे, तेनो कोई पण अंश आश्रय करवा लायक नथी. भले ते निमित्त
करवा लायक नथी. आ आज्ञाथी विरुद्ध माने तेने भगवाननी आज्ञानी अने उपदेशनी
श्रद्धा नथी. ज्यां सुधी व्यवहारनो विकल्प रहेशे त्यां सुधी अंतर अनुभव नहीं थई
आत्मा, गुरु पोतानो आत्मा अने शास्त्र पण पोतानो आ आत्मा ने घर पण
आत्मा-भगवान सच्चिदानंदप्रभु सिद्ध समान सदा पद मेरो. एवो आत्मा ते तेनुं घर
भगवान छे अने ते ज शीला, पर्वतनी गुफाने सिंहासन छे. आत्मानी एकाग्रतारूप
नौका ते ज धर्मीने संसारथी पार कराववावाळी छे. व्यवहारना अहंकार मुनिपणादिनो
सावधानवाळो मोक्षमार्गी छे.
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बीजा जड नहीं, राग जीव नहीं, एक समयनो भेदभाव पण खरेखर जीव नहीं, ते
जीवनुं आखुं स्वरूप नहीं ते अपेक्षाए बधां अजीव! व्यवहार पण अजीव. आहाहा!
एक समयनी पर्याय पण आखो जीव नहीं. व्यवहारे जीव ते पण निश्चयथी अणात्मा
छे. एवा जीव अजीवनुं भेदज्ञान तेने मोक्षनुं कारण जाणवुं, तेम भगवान कहे छे.
बंधमां संबंध अजीवनो छे ने मोक्षनो संबंध स्वभाव छे, ते बेने जाणवुं जोईए. ज्ञान
बराबर करवुं जोईए. एटले जेने संसार, राग, बंध ते पर छे, अने आत्मा ज्ञायक
स्व छे तेवुं ज्यां भेदज्ञान थाय तेने ज मुक्तिनुं कारण थाय छे, बीजाने मुक्तिनुं कारण
थतुं नथी.
शरीरनी अशुचि तो क्यांय रही गई! अहीं तो
शुभरागनो व्यवहार तेने पण अशुचि कहे छे.
अरे प्रभु! तारुं कदी मरण ज थतुं नथी ने
केम डरे छे? अतीन्द्रिय आनंदमां जा! प्रभु! तारे
शरीर ज नथी ने रोगथी केम डरे छे? जन्म जरा ने
रोग रहित भगवान आत्मा छे त्या जा!-एम
जिनवर, जिनवाणी अने गुरु कहे छे. तुं जन्म,
जरा, मरण, रहित प्रभु छो त्यां द्रष्टि दे! तारे
जन्म. जरा, मरण रहित थवुं होय तो जन्म, जरा,
मरण रहित भगवान अंदर बिराजे छे त्यां जा! त्यां
द्रष्टि दईने ठर!
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मोक्खहं कारण एउ भणइ जोइ जाइहिं भणिउं ।। ३८।।
कहे योगीजन योगी हे! मोक्ष हेतु ए जाण. ३८.
आदिने अजीव स्वरूपे जोईश तो मोक्षनुं कारण प्रगट थशे. आहा जीव अजीवनो भेद
जाण एटले के जीव ते शुद्ध ज्ञान आनंदादि स्वरूपे छे अने राग, कर्म शरीर आदि
बधा अजीव छे-एम जाणवुं. जीव अने अजीवनो अनादि संबंध छे, केमके बेनो संबंध
न होय तो बंध ज न होय. वळी ज्यारे बेनो संबंध तूटे त्यारे मुक्ति थाय. माटे आ
बेनुं ज्ञान बराबर करवुं. आ ज मोक्षनुं कारण छे. जीव-अजीवनुं भेदज्ञान ते ज
मुक्तिनुं कारण छे. एम भगवाने कह्युं छे.
सिद्ध नहि थाय. तेथी बन्नेना स्वरूप, लक्षण, भाव जुदा छे एम बराबर भिन्न जाणे
तो तेने मोक्षनुं कारण एवा आत्मस्वरूपनी श्रद्धा-ज्ञान ने शांति प्रगट थाय. आम
भगवाने कह्युं छे.
रीते आत्म-अनुभव करतां मोक्ष थाय.
जह चाहहि–सिव–लाहु भणइ जोइ जोइहिं भणिउं ।। ३९।।
केवळज्ञानस्वभावी आ आत्मतत्त्वने जाण. ३९.
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ज्ञानस्वभाव तेमां सर्वज्ञस्वभाव आवी गयो. आत्मा आखो ज्ञानस्वरूप छे तेने जाण!
धरनार-रागनो धरनार नथी पण जाणनस्वभावी छे.
तुं जाण! अनुभव कर! एकला ज्ञानस्वभावनो अनुभव करवाथी तने मुक्ति मळशे.
आत्माने जाणवानुं कहेतां तेमां प्रतीत, स्थिरता ने आनंदनो अंश आदि बधुं आवी
जाय छे. ‘जाण’! जाणवामां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आखो मोक्षमार्ग आवी
गयो. केवळज्ञानस्वभावी केम कह्यो? के ज्ञानगुणमां ज बीजा अनंत गुणोनो प्रतिभास
थाय छे. ते ज्ञानथी ज बीजा गुणोनुं भान थाय छे पण बीजा गुणोना भानथी तेनुं
ज्ञान थाय छे एम नथी. बीजा गुणो अस्तित्व राखे छे पण तेओ बीजा गुणोने
जाणता नथी अने पोते पोताने पण जाणतां नथी. ज्यारे ज्ञानगुण तो एवो छे के
पोताने जाणे छे त्यारे बीजा बधां गुणो आवा छे एम जाणी ले छे. आनंदनो
अनुभव थाय पण जाणे छे तो ज्ञान के आ आनंदनो अनुभव छे. तेम सम्यग्दर्शन
पोताने नथी जाणतुं पण ज्ञान जाणे छे के आ सम्यग्दर्शन छे. दरेक आत्मा
सर्वज्ञस्वभावी छे. ज्ञान कहेतां दरेक गुणनुं ज्ञान आवी गयुं.
जेथी बहारमां फेरफार देखाय? शुं कह्युं? वाणी-शरीरमां आत्मा नथी तो तेनो फेरफार
बहारमां क्यांथी देखाय? ज्ञानस्वरूपी आत्मा एनो फेरफार तो ए ज्यां छे त्यां देखाय
एनी क्रियानो पलटो एनी दशामां देखाय. बहारनी क्रियाथी ए न जणाय-एनुं माप
न आवे. ज्ञानी बहारनी क्रियामां लडाईमां लडतो देखाय, पण अंदरमां तो रागनुं
स्वामीपणुं छोडी आत्मानुं स्वामीपणुं करीने बेठो छे. ज्यारे अज्ञानी बहारमां बधां
संयोगो छोडी दे छे छतां अंदर बधानुं स्वामीपणुं तो पडयुं छे. तेथी ते बधां
संयोगोनी वच्चे ज बेठो छे, कांई छूटयुं नथी. तेथी कहे छे के हे जीव! जो तुं शिवलाभ
ईच्छतो होय तो केवळज्ञानस्वभावी आत्मतत्त्वने जाण.
हल सहि कलहु केण समाणउ जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ ।। ४०।।
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कोनी स्पर्शास्पर्शता, ठगे कोईने कोण?
कोण कोनी मैत्री करे, कोनी साथे कलेश;
ज्यां देखुं त्यां सर्व जीव, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश. ४०.
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अनादिथी चोराशीना अवतारमां भटकीने भूका थई गया, तोपण ज्ञान ते आत्मा तेम
जाण्युं नहि पण आत्माने अणात्मा मान्यो अने अणात्माने आत्मा मान्यो.
ज्ञान थाय छे-पोतानुं ज्ञान जणाय छे.
छे? ने केवा थाय छे? एम एनी नजर चणा उपर होय. पण डाळा-पांदडा उपर
नजर न होय. तथा जेम सोनामां मणि जडेल होय ने झवेरी पासे जाव तो तेनी द्रष्टि
मणि पर ज होय; सोना पर नहि केम के तेने मणिनुं काम छे ज्यारे सोनीने त्यां जाव
तो तेनी द्रष्टि सोना उपर ज होय, तेम जेने आत्मानी श्रद्धा ज्ञान ने भान थयुं तेने
ज्यां होय त्यां आत्मानो पाक ज देखाय के हुं जाणनार-देखनार छुं. बीजुं मारामां छे
नहि ने हुं ज मने जाणनार-देखनार छुं.
गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पा–देउ मुणेइ ।। ४१।।
भमे कुतीर्थे त्यां सुधी, करे कपटना खेल. ४१.
कुतीर्थोमां भमे छे, ज्यां त्यां भटक्या करे छे.
मानवो ते लोकमूढता छे. विषयोनी प्राप्ति माटे जीव मिथ्यादेव, मिथ्यागुरु ने मिथ्या
शास्त्रोनी खूब पूजा-भक्ति करे छे. पण ते मूढता छे. शुद्धात्माने अनुभववो ते देवनी
साची पूजा छे, सम्यग्दर्शन छे. बाकी कुतीर्थोमां रखडवाथी कांई लाभ थाय नहि.
तूंबडीनो दाखलो आवे छे ने के तूंबडीने तीर्थमां खूब नवरावी पण एनी कडवाश तो
गई नहि. तो पछी शुं तारी कडवाश तीर्थमां नावाथी चाली जशे? अहा! भ्रमणारूपी
झेर तो उतर्या नथी तो पछी शेना तीर्थ कर्या?