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सो जाणउ सत्थई सयल ण हु सिवसुक्खु लहेइ ।। ९६।।
जाणे कदी सौ शास्त्र पण, थाय न शिवपुर राव. ९६.
पूज्य गुरुदेवः- शाश्वत अनंत गुणनो गोदाम आत्मा बिराजमान छे तेनी
त्रिलोकीनाथ परमात्मा पोकार करे छे के भाई! तुं त्रिकाळ शुद्ध भगवान छो
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पूज्य गुरुदेवः- ‘शास्त्र-स्वाध्यायथी ज्ञानीने असंख्यगुणी निर्जरा थाय छे’
मिथ्याद्रष्टि तेथी रे आकरो, करे अर्थना अनर्थ.
निश्चय-व्यवहार, उपादान-निमित्तथी वस्तुनुं जेवुं स्वरूप छे तेम नहि मानतां
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जं वंदहिं साणंदु क वि सो सिव–सुक्ख भणंति ।। ९७।।
वेदे जे आनंदने, शिवसुख कहेता जिन.
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अनुभव करवाथी जीव आत्माना आनंदने प्राप्त करे छे.
करे छे तेने विकारना दुःखनुं वेदन थाय छे. पछी कर्म बंधाय अने तेनुं फळ मळे ए
समये कर्ता ते ज समये जीव भोक्ता छे.’
भाव तो अशुभ छे तो तेने दुःख केम थतुं नथी?
विकल्पजाळने छोडीने स्वभावनुं लक्ष करे तेने ज समरस अने शांति छे, सुख छे, तेने
ज धर्म प्रगट थयो कहेवाय. कह्युं छे के...
आतम अनुभव रसके रसिया ऊतरे न कबहू खुमारी,
आशा औरनकी क्या कीजे? ज्ञान सुधारस पीजे...
छे भाई! तुं ज्ञानरसनो पिंड छो, आनंदनो सागर छो तेनो तुं स्वाद ले, ज्ञानरस पी!
सुधारसनो सागर तो तुं पोते छो! तेमां डूबकी मारवी छोडीने, आ तुं क्यां डूब्यो?
अहीं कहे छे के प्रभु! एक वार तो तुं गुलांट मार! आ बधां विकल्पो छोडी
गयेला एवा वीतराग त्रिलोकनाथनी वाणीमां आवेली आ वातो छे. ए ज मुनि कहे
छे. आ कांई कोईना घरनी वात नथी.
अंतर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार.
स्वभावद्रष्टि करतां तेनो नाश थया वगर नहि रहे.
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मार्गे जवानो समय काढीने सामायिकनो अभ्यास करे छे.
अज्ञानी राग आकुळतास्वरूप छे एम मींढवणी-मेळवणी करी शकता नथी. तेथी
आकुळताने ज एटले के रागने ज पोतानुं स्वरूप माने छे.
अहीं योगीन्द्रदेवे तत्त्वानुशासनना श्लोकनो आधार आप्यो छे के जेने आत्माना
धर्मध्यानमां आनंदनो अनुभव थयो नथी ते मूर्च्छावान अने मोही छे, कयांक मूर्च्छाई
गयो छे, तेथी आत्मानो आनंद आवतो नथी.
अहीं कहे छे के परमात्मा आनंदनी मूर्ति छे तेनुं ध्यान करे छे पण आनंद नथी
आवतो तो समजी लेवुं के ते कयांक मूर्च्छाई गयो छे. क्यांक पुण्य-पापना प्रेममां
मूर्च्छाई गयो छे. जो न मूर्च्छायो होय तो ध्यान करे अने आनंद केम न आवे? आवे
ज. जे आत्मानुं दर्शन, ज्ञान अने रमणता करे छे, एकाग्रता करे छे, तेने वचनगोचर
एवो आत्मिक आनंद आवे ज छे.
हवे कहे छे के आत्मध्यान परमात्मानुं कारण छे.
रूवातीतु मुणेहि लहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ९८।।
जाणी ध्यान जिनोक्त ए, शीघ्र बनो सुपवित्र. ९८.
(१) पिंडस्थ एटले शरीरमां रहेला आत्मानुं ध्यान करवुं ते, (२) पदस्थ
रूपस्थ एटले अरिहंत परमात्मानुं ध्यान करवुं ते अने (४) रूपातीत एटले रूपथी
रहित सिद्ध भगवाननो विचार करी अंतरमां जवुं ते. आ चार प्रकारना ध्यान द्वारा
स्वरूपमां एकाग्र थतां जीव अल्पकाळमां सिद्ध थई जाय छे. परमात्मपदने प्राप्त
करवानी आ कळा छे.
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भावथी ने एवा स्वरूपथी तेनुं ध्यान करे छे तो ते दशा ते भावमां तन्मय थई जाय
छे. भगवान आत्मा पूरण शुद्ध आनंदस्वरूप छे अने ज्ञाननी मूर्ति छे एवा भावथी
ने एवा रूपथी जे आत्माने ध्यावे छे त्यारे ते वर्तमानदशा त्रिकाळभाव साथे तन्मय
थई जाय छे.
देहने जरा उष्णता लागे, अथवा क्यांय वाजिंत्रोना अवाज
सांभळे तो ते तुरत जागृत थई जाय छे. परंतु अविवेकी
जीवने तो पाप कर्मफळना उपरा उपरी उदयरूप मुदगरना
मार मर्मस्थान उपर पडया करे छे. महादुःखरूप त्रिविध
तापथी तेनो देह निरंतर बळी आज आ मर्यो, काल आ मर्यो,
फलाणो आम मर्यो अने फलाणो तेम मर्यो, एवा
यमराजना वाजिंत्रोना भयंकर शब्दो वारंवार सांभळे छे,
छतां ए महा अकल्याणकारक अनादि मोहनिंद्राने जराय
वेगळी करी शक्तो नथी, ए परम आश्चर्य छे.
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सो सामइउ जाणि फुडु जिणवर एम भणेइ ।। ९९।।
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराय.
ज्ञानमय छे एम जोतां समभाव प्रगट थाय छे.
जीवने ज्ञानमय न देखतां कर्मना वशे तेनी थयेली विविध पर्यायने देखीने ठीक-अठीक
बुद्धि करतो हतो तेनो अभाव थाय छे. ज्ञानावरणीने आधीन ज्ञाननुं ओछा-वधतापणुं
होय, दर्शनावरणीने आधीन दर्शननो क्षयोपशम ओछो-वधारे होय, मोहनीयने आधीन
मिथ्याभ्रांति अने रागादि होय अने अंतरायने आधीन थतां पोताने विकार आदि
देखाय, आयुष्य कर्मने आधीन दीर्घ के थोडुं आयुष्य होय, नामकर्मने आधीन सुडोळ के
बेडोळ शरीर देखाय, गोत्र कर्मने आधीन ऊंच-नीच दशा देखाय पण ते तो बधी
पर्याय छे. वेदनीयने आधीन शाता-अशातानो उदय देखाय पण ते तो बधो संयोग
छे, ते मात्र जाणवा लायक छे.
बुद्धि थती नथी, आ शेठ छे अने आ गरीब छे एम जोयुं ते तो वेदनीय कर्मने
आधीन मळेलां संयोगोने जोवानी वात छे, एवी संयोग आधीन द्रष्टि न करतां
स्वभावद्रष्टिथी बधाने ज्ञानमय जोनारा ज्ञानीने आ ठीक छे अने आ अठीक छे-एवा
राग-द्वेष थतां नथी.
वधतांपणानी पण वात नथी. सर्व जीव ज्ञानमय छे तेम हुं पण ज्ञानमय चैतन्यबिंब
स्वरूप छुं एवी द्रष्टि
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समभाव कहेवामां आवे छे.
प्रगट थाय छे. ज्ञानमय वस्तु अर्थात् वीतरागतामय अर्थात् निर्विकल्प
समरसीस्वभाव-एकरूप स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय, सम्यग्ज्ञान थाय,
सम्यक्चारित्र थाय, शुक्लध्यान थाय अने केवळज्ञान पण तेना ज आश्रये थाय छे.
समयसारमां बधां शास्त्रोनां बीजडां पडयां छे.
ज्ञानमय छे एम जोतां आ ठीक छे के आ अठीक छे एवी वृत्ति ज ऊभी थती नथी.
समभावथी भरेलां भगवान ज जुए.
छतां, तेने देखवां छतां द्रव्य-द्रष्टिए बधा आत्मा ज्ञानमय भगवान छे एम पोताना
पुरुषार्थथी समभावनी द्रष्टिए जोतां पर्यायमां समभाव प्रगट थाय छे.
बीजा अनंत गुणोने पण जाणे छे. तेथी तेने सविकल्प अने साकार पण कहेवाय छे.
आ ज्ञान ते आत्मानो असाधारण गुण छे तेने परमभाव-ग्राहकनय पण कहेवाय छे.
ते सविकल्प एवो अहीं अर्थ लेवो. आ द्रष्टिए ज भगवानना केवळज्ञानने पण
सविकल्प कहेवाय छे.
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थईने परने जाणे छे तेमां परनी अपेक्षा नथी तेथी सर्वने जाणतां राग थाय के
विकल्प थाय के उपचार आवे छे एम वात ज नथी. स्व अने परनुं पूरुं जाणवुं-देखवुं
थाय एवी ज सर्वदर्शित्व अने सर्वज्ञत्व शक्ति छे.
छे ते समभाव छे. समभाव छे तेने ज खरी सामायिक होय छे.
अल्पताना व्यवहारनो अभाव करीने नहि पण तेने गौण करीने अभेद एकरूप ज्ञान
आनंदमय स्वभावने मुख्य करीने द्रष्टि करतां पर्यायमां समभाव प्रगट थाय छे.
त्यारे ज परम निर्जराना कारणरूप सामायिक चारित्रनो प्रकाश थाय छे.
ज नथी.
ज छे तेथी तेना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां भव न होय. द्रव्यमां भवनो अभावभाव,
भवनो अभावभाव छे. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे एम भगवाने कह्युं छे.
होय एम नथी, पण ते कांई जीवनुं कायमी स्वरूप नथी. पर तरफना झुकाववाळा
रागादिभाव पर्यायद्रष्टिनो
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अभावस्वरूप निज ज्ञानस्वभाव ज छे.
लखवानो विकल्प उठयो ते पण मारो स्वभाव नथी. ते तो पर्यायद्रष्टिनो विषय छे.
निश्चयथी तो हुं पण ज्ञानमय छुं अने बधा आत्माओ पण ज्ञानमय छे. आखो लोक
ज्ञानमय परमात्माथी भरेलो छे. बधानी सत्ता जुदी जुदी छे, सिद्धनी पण दरेक नी
सत्ता अलग-अलग छे. केम के मोक्ष थाय त्यां सत्तानो अभाव थतो नथी. विकारनो
अभाव थाय छे, तेथी मोक्षमां ज्योतमां ज्योत भळी जाय छे ए अन्यमतिनी वात
जूठी छे. दरेक सिद्ध जीवनी सत्ता जुदी-जुदी छे. एक क्षेत्रमां रहेवा छतां अनंत सिद्धोनी
सत्ता न्यारी-न्यारी छे. दरेकनो अस्तित्वगुण ज एवो छे के जेने लईने दरेकनुं
अनादि-अनंत स्वतंत्र अस्तित्व टकी रहे छे, कोईमां कोईनुं अस्तित्व भळी जतुं नथी.
जे सर्वने ज्ञानमय देखे तेने होय अने केम होय? के स्वभावनो आश्रय करवाथी होय.
थाय छे अने विषमद्रष्टि छूटी जाय छे. आ परमात्मा छे माटे राग करवो के आ
जैनदर्शननो विरोधी छे माटे द्वेष करवो ए वात ज आ स्वभावद्रष्टिमां नथी.
निज आत्मानी द्रष्टि करीने स्थिर थाय ते गिरिगूफा छे, बाकी बहारथी गिरिगूफामां
जईने बेसे तेथी शुं?
आत्मामां तुं तारा परमात्मपदने ध्याव! जेथी तुं साचा सुखनो अनुभव करी शकीश.
सो सामाइउ जाणि फुडु केवलि एम भणेइ ।। १००।।
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव.
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छे. परचीज, शुभभाव के क्षयोपशम ज्ञाननी महिमानी आडमां अज्ञानी आखा
चैतन्यदेवनी महिमाने चूकी जाय छे. मिथ्याद्रष्टि संयोगमां, विकारमां के अल्पज्ञ आदि
पर्यायमां ज पोतानुं होवापणुं स्वीकारे छे. तेथी तेनी असत् द्रष्टिमां राग-द्वेष साथे ज
वसेला छे. पोतामां पर्यायद्रष्टि छे एटले बीजा जीवोने पण पर्यायद्रष्टिथी जोईने राग-
द्वेष कर्या करे छे. मिथ्याद्रष्टिनुं उल्लसित वीर्य परमां ज रोकाई गयुं छे, त्यां ज सुख
माने छे अने जेणे भगवान आत्मानो भेटो कर्यो ते ९६००० राणीना वृंदमां पण सुख
मानतो नथी. तेनी द्रष्टिनी केटली किंमत! द्रष्टि आखी स्वभाव तरफ गुलांट खाई गई
छे तेने बहारमां क्यांय सुख भासतुं ज नथी.
अनिष्टनी वृत्ति ऊठे छे पण ते परने कारणे नहि अने स्वभावना कारणे पण नहि.
मात्र एक चारित्रना दोषने कारणे कमजोरी छे तेथी इष्ट-अनिष्टनी वृत्ति ऊठे छे पण
ते ज्ञेयमां बे भागला पाडतां नथी.
ए सर्वअवस्थाओ पुद्गलनी छे. (श्री इष्ट-उपदेश)
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सो सामाइउ जाणि फुडु केवलि एम भणेइ ।। १००।।
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव.
मिथ्याद्रष्टि परद्रव्य मने लाभ-नुकशान करे छे एम मानीने तेना प्रत्ये राग-द्वेष करे छे
अने ज्ञानी तो एम माने छे के कोई परद्रव्य मने लाभ-नुकशान करी शक्ता नथी.
सौने पोताना कर्म अनुसार संयोग-वियोग थाय छे, कोई कोईनो बगाड सुधार करी
शक्तुं नथी. आवी द्रढ श्रद्धा अने ज्ञानने कारणे ज्ञानीने परद्रव्य प्रत्ये राग-द्वेषनी बुद्धि
थती नथी.
दरेक कार्यो पोत-पोताना अंतरंग उपादानने कारणे थाय छे एम धर्मी माने छे.
जीवने जगतना दरेक कार्यो तेना कारणे थाय छे तेमां हुं फेरफार करुं एवी बुद्धि थती
नथी. दरेक पदार्थ तेना क्रमे परिणमता पोतानी अवस्थाना कार्यने करे छे, तेमां अनुकूळ
निमित्त जे होय ते होय ज छे एम जाणतां ज्ञानीने बीजाना कार्य में करी दीधां एवो
अहंकार थतो नथी अने बीजा मारा कार्य करी दे एवी अपेक्षा रहेती नथी.
न होय अने कारण विनानुं कार्य न होय. आवुं जाणतां ज्ञानीने परद्रव्य प्रत्ये विषमता
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समभाव रहे छे अने चारित्रनी नबळाई वश अल्प राग-द्वेष थाय तेने ज्ञानी
पोताना स्वभावमां खतवता नथी.
तेनी पर्यायमां थतां कार्यने पण व्यवहार तरीके जाणे छे. द्रव्य ते निश्चय छे अने पर्याय
ते व्यवहार छे. द्रव्य वगरनी पर्याय न होय-निश्चय वगरनो व्यवहार न होय. आवुं
जाणतां ज्ञानी पोतानी पर्यायमां थतां रागने पोताना स्वभावमां खतवता नथी.
वच्चे भेदज्ञान करवुं ते समभाव छे. आ अपेक्षाए ज्ञानी राग-द्वेष करतां नथी एम
कहेवाय छे. चारित्रनी नबळाईथी राग-द्वेष थाय छे तेनी अहीं गौणता छे.
सो बियऊ चारित्तु मुणि जो पंचम–गइ णेइ ।। १०१।।
ते बीजुं चारित्र छे, पंचम गतिकर तेह.
आत्माने आत्मामां स्थापवो तेने छेदोपस्थापना नामनुं बीजुं चारित्र कहेवाय छे एम
योगीन्द्रदेव कहे छे. आम तो, सामायिकमां बेठा होय अने तेमां कोई विकल्प आवी
जाय. दोष लागे तेने छेदीने फरी आत्मामां स्थिर थाय तेने छेदोपस्थापना कहेवाय छे.
पण अहीं तो योगीन्द्रदेवे अध्यात्मथी छेदोपस्थापनानुं स्वरूप कीधुं छे.
नये कूटस्थ कह्युं छे तेम मोक्षमां एकधारी स्थिरता होवाथी तेने पण ध्रुव कह्यो छे.
स्थिरता पलटे छे पण एकधारी एवी ने एवी थती रहे छे माटे तेने ध्रुव कही छे.
सो परिहार–विसुद्धि मुणि लहु पावहि सिव–सिद्धि ।। १०२।।
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ते परिहार विशुद्धि छे, शीघ्र लहो शिवसिद्धि. १०२.
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सो सुहुमु वि चारित्त मुणि, सो सासय–सुह–धामु ।। १०३।।
जाणो सूक्ष्म-चरित्र ते, जे शाश्वत सुखधाम. १०३.
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मोक्षनुं साक्षात् कारण छे.
समये शुद्धिनी वृद्धि थाय छे एवी आ वात बीजे क्यांय न होई शके.
तेने यथाख्यातचारित्र होय छे. आ चारित्र ज तेने अविनाशी सुखनुं साक्षात् कारण छे.
जागे तो तो आगळ ज न वधी शके.
कल्पीने के विरोधी कल्पीने कहेवुं ए कांई सज्जनतानी रीत छे? आ तो वीतराग
मार्ग छे भाई! तेमां तो शांतिथी, न्यायथी जेम होय तेम निर्णय करवो जोईए अने
जे सत्य नीकळे तेने कबूलवुं जोईए. आमां कोई पक्षनी वात नथी.
शब्दोमां न नीकळे तोपण न्यायथी तो समजवुं जोईए ने भाई! ‘सर्व गुणांश ते
सम्यक्त्व’ कहेतां तेमां चारित्रनो अंश आवी ज जाय छे.
खाधी-निज परमात्मानुं अवलोकन थयुं तो ते पोतामां ठर्या विना शी रीते थाय? ए
माया, लोभ-आदि चार कषायनो नाश थयो तो कांईक चारित्र प्रगट थाय के नहि?
भले ए देशचारित्र के सकलचारित्र नथी पण स्वरूपाचरणरूप चारित्र छे. स्वभावना
एथी आगळ वधीने चारित्र पूर्ण थाय तेने थयाख्यातचारित्र कहे छे अने तेरमां
गुणस्थाने चारित्रनी साथे अनंत आनंद प्रगट थाय त्यारे परम यथाख्यातचारित्र
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सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छई अप्पा जाणि ।। १०४।।
आचारज, उवझाय ने साधु निश्चय ते ज.
चतुष्टय त्रिकाळ पडयां छे.
आत्माना द्रव्य गुण-पर्यायने जाणे छे एटले के अर्हंतना द्रव्य-गुण-पर्याय साथे
पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायने मेळवे छे के मारामां पण अर्हंत जेवा द्रव्य-गुण छे. मारा
स्वभावमां अनंत ज्ञान-दर्शन, सुख आदि स्वभावो छे ते प्रगट थशे. जे होय ते प्रगट
थाय, न होय तो क्यांथी आवे? आहाहा! राग रहित निर्विकल्प श्रद्धा वडे हुं अर्हंत
जेवो ज छुं एवी प्रतीति थई शके छे.
तो तेमां एकाग्रता करवाथी पर्यायमां ते प्रगट थाय. पाणी न होय तो तृषा न छीपे,
तेम अंतरमां अर्हंतपद न होय तो पर्यायमां प्रगट क्यांथी थाय?