Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 41-44.

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२१०] [हुं
भगवान सर्वज्ञदेवे दरेक आत्माने ज्ञान अने आनंदस्वरूप जोयो छे. भगवाने
आत्माने रागवाळो, कर्मवाळो के शरीर आदिवाळो जोयो नथी. आवो आत्मा जे
स्वानुभवथी जाणे तेणे खरेखर आत्मा जाण्यो कहेवाय.
आत्मा पोताना स्वभाव सिवाय जगतना नानामां नाना पुद्गलो एटले
परमाणु अने स्कंधने पोताना करवा मागे तो अनंत पुरुषार्थथी पण थई शके तेम
नथी. तेम पुण्य-पापने पण पोताना करवा मागे तोपण अनंत पुरुषार्थ करे छतां
पोताना थई शक्ता नथी.
जेने पोतानुं हित करवुं होय तेणे आ बधुं समजवुं पडशे. तेने माटे भले समय
लागे पण समज्या वगर छूटको नथी. समजीने पहेलां तो निर्णय करे पछी अनुभव थाय.
तीर्थंकर भगवाननी ईच्छा विना जे दिव्यध्वनि छूटे छे तेमांथी गणधरदेव
सूत्ररूपे तेनी रचना करे छे तेनुं नाम आगम छे. आ आगममां एम कह्युं छे के
भाई! तुं तारा स्वभावमां राग अने कर्मने एक करवा मागीश तो ते एक थई शकशे
नहि. शरीरादि परद्रव्य तो आत्मा साथे एक समय पण तन्मय थई शकता नथी.
विकारी भाव एक समयनी पर्यायमां तन्मय छे पण तेने त्रिकाळी स्वभाव साथे
एकमेक-तन्मय करवा मागे तो थई शकता नथी. आत्मा तो त्रिकाळी ज्ञान-आनंदमां
तन्मय छे तेनी वर्तमान द्रष्टि करीने तेमां तन्मय थवुं ते जीवननुं कार्य छे. जीव पोते
पोताने प्रत्यक्ष करी शके एवो तेनामां गुण छे. पण आज सुधी क्यारेय जीवे पोताना
स्वभावने जोवानो प्रयत्न कर्यो नथी. स्वरूपनुं मंथन कर्युं नथी. बहारमां ने बहारमां
पोते आखो परमेश्वर खोवाई गयो छे.
आत्मामां एक ‘प्रकाश’ नामनो अनादि अनंत गुण एवो छे के जे पोताने प्रत्यक्ष
करी शके छे. राग विना आनंदनुं वेदन थई शके एवो ए गुणनो गुण (गुणनुं कार्य) छे.
लौकिकमां दाखलो आवे छे ने? सुरदासे कृष्णनो हाथ पकडयो तो श्रीकृष्ण तेनो
हाथ छोडावीने भागी गया त्यारे सुरदास कहे छे प्रभु! तुं मारा हाथथी छटकी गयो
पण मारा हृदयमां तारो वास छे त्यांथी तुं छटकी शके तेम नथी. तेम अहीं कहे छे के
भगवान आत्मा आनंद अने ज्ञानथी बहार क्यांय जई शके तेम नथी.
जेम कस्तूरीमृगनी डुंटीमां कस्तूरी छे पण बहार फांफां मारे छे तेम भगवान
आत्माना अंतरमां अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंद भर्यो छे तेनी सामे नजर कर्या विना
अज्ञानी जीव जेटलां पुण्य-पापना भाव करे छे ते रखडवा खाते छे पछी भले ते
अगियार अंग अने नव पूर्व भण्यो होय तोपण आत्माना भान विना तेनी कांई
किंमत नथी.
राग वडे के शास्त्रज्ञान वडे आत्मा जणाय-प्रत्यक्ष थाय एवो कोई आत्मामां
गुण ज नथी. आत्मा पोते ज पोताथी प्रत्यक्ष थाय एवो तेनामां अनादि-अनंत गुण
छे ते गुण वडे आ ज आत्मा छे एम प्रत्यक्ष वेदनपूर्वक जाणे त्यारे तेणे सर्व शास्त्रो
जाण्या कहेवाय.
भाई! आ मारग कोई जुदी जातनो छे. वीतराग परमेश्वरनो मार्ग छे.
परमात्मा कहे छे के विकल्प के रागथी तने कांई लाभ नथी. तुं तो तारा स्वरूपमां
जेटलो एकाग्र था तेटलो

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परमात्मा] [२११
तने संवर छे-लाभ छे. आत्माना वेदन सहित आत्मानुं ज्ञान करवुं ते ज मोक्षमार्ग छे
ते सिवाय बीजे क्यांय मोक्षमार्ग मानीश तो तुं छेतराई जईश.
मुनिराज कहे छे के शुद्धस्वरूपनी भावना करतां करतां आत्मा प्राप्त थई जाय
छे. शुद्धस्वरूपनुं वेदन करतां करतां आत्मा पूर्ण प्रत्यक्ष थई जाय छे. माटे शास्त्र-
वांचन करतां पण हेतु तो एक आत्मप्राप्तिनो ज राखवो. “लाख बातकी बात यही,
निश्चय उर लावो; तोडी सकल जग द्वंद-फंद, निज आतम ध्यावो.”
आत्मा पोताना स्वभावने पहोंचे-प्राप्त करे, रुचि करे, जाणे, वेदे त्यारे तेने
मोक्षमार्ग प्राप्त थयो कहेवाय! तेने ज सामायिक अने पौषध कहेवाय.
भाई! आवी तारा घरनी मीठी वात तने केम न रुचे? भूख लागी होय अने
पोचा पोचा माखण जेवा दहींथरा, खाजा वगेरे मळे तो केम न रुचे? रुचे ज. तेम
आ आत्मा कोण छे, केवो छे एनी जेने अंदरथी जिज्ञासा थई होय तेने आ वात केम
न रुचे? रुचे ज. मूळ तो अंतरथी भूख लागवी जोईए.
अहीं मुनिराजे दाखलो मूक्यो छे के माटी सहितनुं पाणी व्यवहारनयथी जोईए
तो मेलुं देखाय छे. पण खरेखर निश्चयथी ए माटीनी मेलपथी पाणीनी स्वच्छता जुदी
छे. निश्चयथी माटी माटी छे अने पाणी पाणी ज छे, बन्ने एक थयां नथी तेम
व्यवहारनयथी जुओ तो आत्माने कर्म शरीरादिनो संयोग छे पण परमार्थद्रष्टिथी जुओ
तो आत्माने राग अने कर्मनो लेप-संयोग छे ज नहि. आवी द्रष्टिथी आत्माने जोवो
ते सत्यद्रष्टि छे. ते ज आदर करवा योग्य छे. माटे, व्यवहारनयथी नवतत्त्व, अशुद्धता
आदि जाणवा. पण मूळ प्रयोजन तो शुद्ध आत्माने जाणवानुं ज राखवुं.
हवे योगीन्द्रदेव पुरुषार्थसिद्धिनो आधार आपीने सरस वात करे छे के अज्ञानीओने
समजाववा माटे व्यवहारनयनो उपदेश छे. पर्यायमां अशुद्धता छे पण ते तारा स्वभावमां
नथी. निश्चयथी संयोग अने संयोगीभावथी तुं पार छो. माटे व्यवहारनयना विषयने तुं
जाणजे. पण आदर तो निश्चयना विषयभूत द्रव्यस्वभावनो ज करजे.
एक नय अभेदने बतावे छे अने एक नय भेदने बतावे छे. परस्पर विरूद्ध बे
नय छे. ए ज अनेकांत छे, वस्तुना बन्ने धर्मो छे. भेद पण छे अने अभेद पण छे.
निश्चयद्रष्टिथी जुए तो आत्मा पोताने व्यवहार, भेद, विकल्पथी रहित ज जुए ए
निश्चयनयनो नियम छे अने भेद, विकल्प, आश्रय अने निमित्तने जुए ते व्यवहारनो
नियम छे. भेद निमित्त आदि व्यवहारनयनो विषय छे, नथी एम नथी. न होय तो
तो तीर्थ, गुणस्थान आदि कांई होय ज नहि. एम बने नहि अने निश्चय न होय तो
तो स्वाश्रय विना पोताने कांई लाभ ज न थाय. माटे बन्ने छे, ते बन्नेने न जाणे ते
ज्ञाता-द्रष्टा थई शकतो नथी.
जेम बाळकने बिलाडी बतावीने सिंहनुं ज्ञान कराववामां आवे छे पण जो तेने
क्यारेय सिंह न बतावे तो ते बिलाडीने ज सिंह मानी लेशे. तेम अज्ञानीने
व्यवहारनयथी एकेन्द्रिय ते जीव, पंचेन्द्रिय ते जीव एम बतावाय छे पण ते
एकेन्द्रियपणुं के पंचेन्द्रिय

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२१२] [हुं
आदिपणुं वस्तुना स्वरूपमां नथी. तेथी व्यवहारने ज निश्चय मानी ले तो ते तो
उपदेशने लायक ज नथी, केम के ते निश्चयने समजतो नथी.
एक जग्याए एवुं बन्युं हतुं के निशाळमां पाटिया उपर शिक्षके मच्छर दोरीने
विद्यार्थीओने बताव्युं हतुं. मच्छर तो नानो होय पण बाळकोने स्पष्ट देखाय ए माटे
शिक्षके चित्र मोटुं बनाव्युं हतुं ते बाळकोए जोयेलुं. बाळकोए मच्छर नजरे कदी जोयेल
नहि. तेथी एक दिवस गाममां हाथी निकळ्‌यो त्यां बाळकोने हाथी ज मच्छर जेवो
लाग्यो. शिक्षकने कहे के जुओ! गुरुजी आ मच्छर आव्यो. आ बनेलो दाखलो छे. पोते
जोई विचारीने नक्की कर्या वगरनी वस्तुमां आम बने; तेम अहीं अज्ञानी जीवो
निश्चयनुं यथार्थ स्वरूप ओळखता नथी तेथी व्यवहारने ज निश्चय मानी ले छे. भाई!
जो तारे तारा आत्मानुं हित करवुं होय तो, आत्मानुं जे स्वरूप छे तेने पहेलां जाण!
रुचिमां ले अने अनुभव कर! एटले के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट कर ते ज
तारो हितनो मार्ग-मोक्षमार्ग छे.
हवे अहीं ९६ मी गाथामां कहे छे के सम्यक्चारित्र-अनुभवमां परभावनो
त्याग होय छे.
जो णवि जाणइ अप्पु परु णवि परभाउ चएइ ।
सो जाणउ सत्थई सयल ण हु सिवसुक्खु लहेइ ।। ९६।।
निज-पररूपथी अज्ञ जन, जे न तजे परभाव;
जाणे कदी सौ शास्त्र पण, थाय न शिवपुर राव. ९६.
अज्ञानी जीव पोताना अभेद आत्मस्वरूपने जाणतो नथी अने परभाव स्वरूप
एवा जे राग-द्वेष पुण्य-पाप आदिने पोताना माने छे. परंतु आत्माना स्वभावथी ए
जुदा स्वभाववाळा छे. अहो! दया-दान-पूजा-भक्ति आदिना भाव पण परभाव छे,
मारो स्वभाव नथी. आ वात कोई दिवस सांभळी हती?
श्रोताः- दया-दानादि न करवां तो अमारे करवुं शुं?
पूज्य गुरुदेवः- शाश्वत अनंत गुणनो गोदाम आत्मा बिराजमान छे तेनी
ओळखाण करवी ए ज करवानुं छे.
त्रिलोकीनाथ परमात्मा पोकार करे छे के भाई! तुं त्रिकाळ शुद्ध भगवान छो
पण तें तारी नजरनी आळसे कदी हरि-आत्माने नीरख्यो नथी. लोकोमां कहेवत छे ने,
कांखमां छोकरुं होय अने कहे के मारुं छोकरुं क्यां गयुं? अरे! पण आ रह्युं. आम
नजर करने! एम भगवान कहे छे तुं परमात्मा छो अने तुं क्यां भगवानने शोधवा
नीकळ्‌यो? तारो भगवान तारी पासे छे. शिखरजी शेत्रुंजय, मंदिर के प्रतिमामां तारो
भगवान नथी.
बनारसीदासजी नाटक समयसारमां कहे छे के “ मेरो धनी नहि दूर देशांतर,
मोहीमें है मोही सुजत नीके.” अरे! भगवान! तारा स्वरूपनी तने खबर न पडे ए
ते कांई वात छे? अरे! तुं तने प्रत्यक्ष था एवो तारामां गुण छे. तुं ज्यां छो त्यां
शोधीश तो ज

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परमात्मा] [२१३
तने तारुं स्वरूप प्राप्त थशे. ज्यां तुं नथी त्यांथी केवी रीते मळे? पण आ जीव एवो
रांको थई गयो छे के तेने आवडुं मोटुं पोतानुं स्वरूप हशे एवो विश्वास बेसतो नथी.
जेम बाळकने पोताना निधाननुं भान नथी तेम अज्ञानीने पोताना अचिंत्य निधाननुं
भान नथी.
एक तरफ पोते आत्मा छे अने बीजी तरफ राग-द्वेष विकार आदि परभाव छे
ए बन्नेने जाणे तो, पोतानो आश्रय लईने परभावने छोडे. ज्ञान तो बन्नेनुं करवानुं
छे पण पोताना स्वभावने जाणीने ग्रहण करवानो छे अने परभावने जाणीने
छोडवानो छे.
स्व-परना ज्ञान वगर भले दरिया जेटलुं शास्त्रनुं ज्ञान होय तोपण भेदज्ञान
रहित जीव मोक्ष पामतो नथी.
श्रोताः- शास्त्र-स्वाध्यायथी निर्जरा थाय छे एम तो शास्त्रमां आवे छे!
पूज्य गुरुदेवः- ‘शास्त्र-स्वाध्यायथी ज्ञानीने असंख्यगुणी निर्जरा थाय छे’
एम धवलमां पाठ छे. शास्त्रमां अनेक जग्याए ए वात आवे पण तेनो अर्थ एम
नथी के शास्त्र तरफना विकल्पथी निर्जरा थाय छे. ज्ञानीने शास्त्र-स्वाध्याय करतां
करतां पण समये-समये घोलन आत्मा तरफनुं छे, तेने ढाळ आत्मामां छे तेनाथी
निर्जरा थाय छे. वीतरागताथी ज निर्जरा थाय. विकल्पथी कदी निर्जरा न थाय.
शास्त्रस्वाध्यायना विकल्पथी निर्जरा थती होय तो तो सर्वार्थसिद्धिना देवो ३३ सागर
सुधी ए ज करे छे तेने खूब निर्जरा थवी जोईए पण एम नथी. तेने तो गुणस्थान
पण वधतुं नथी. चोथुं ज गुणस्थान रहे छे. ए देवो पण ईच्छे छे के अमे क्यारे
मनुष्य थईने अंतरनी स्थिरता वधारी निर्जरा करीए? देवपर्यायमां तो तेने पुण्य घणुं
छे तेथी जेम पाणीनो प्रवाह होय त्यां खेती थती नथी केम के प्रवाहमां बीज ज अंदर
रहेतुं नथी तो ऊगे शी रीते? तेम ए देवोने सम्यग्दर्शन होवा छतां पुण्यनो प्रवाह
एटलो बधो छे के तेमां स्थिरतानुं बीज ऊगतुं नथी-निर्जरा थती नथी. ते ज रीते
जेम खारी जमीनमां बीज ऊगतुं नथी तेम नरक पर्यायमां-पापना प्रवाहमां नारकीने
कदाच सम्यग्दर्शन होय तोपण स्थिरतानुं बीज ऊगतुं नथी.
जाति अंधनो रे दोष नहि आकरो, जे नवी जाणे रे अर्थ,
मिथ्याद्रष्टि तेथी रे आकरो, करे अर्थना अनर्थ.
निश्चय-व्यवहार, उपादान-निमित्तथी वस्तुनुं जेवुं स्वरूप छे तेम नहि मानतां
विपरीत माननारो मिथ्याद्रष्टि जन्मांध करतां पण वधु आकरो छे. वीतरागनी पेढीए
बेसीने वीतरागना नामे जे तत्त्व कहे तेनी बहु जवाबदारी छे. वीतरागनो मार्ग
स्वाश्रयथी ज शरू थाय छे तेने बदले पराश्रयथी लाभ मानवो अने कहेवो तेनुं फळ
आकरुं छे भाई! तेथी अहीं ९६ मी गाथामां कह्युं के अनेक शास्त्र जाणवां छतां जेणे
अंतरमां शुद्ध-बुद्ध अविकार चैतन्यघन ते हुं अने रागादि विकार ते हुं नहि-एवुं
भेदज्ञान जेणे न कर्युं ते वीतराग मार्गने समज्यो ज नथी. तेथी ते शास्त्रने जाणवा
छतां मुक्तिने पात्र थतो नथी.

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२१४] [हुं
[प्रवचन नं. ४१]
विकल्पजाळ तजीने निज–परमात्मानुं लक्ष कर
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २२-७-६६]
श्री योगीन्द्रदेवकृत योगसार शास्त्र चाले छे. योगसारनो अर्थ एवो छे के
आत्मानुं जे वास्तविक स्वरूप छे तेमां एकाग्र थवानी क्रियाने अहीं योगसार कहे छे.
अनादिथी जीव पुण्य-पाप अने राग-द्वेषमां जोडाण करतो आव्यो छे ते दुःख
छे, संसार छे, तेनाथी विपरीत पोताना कायमी-त्रिकाळी स्वरूपमां एकाकार थवानी
क्रियाने योगसार कहे छे अने तेने ज मोक्षमार्ग कहेवाय छे.
हवे अहीं ९७ मी गाथामां मुनिराज अनंत सुख अथवा परम समाधि सुखनुं
साधन बतावे छे.
वज्जिय सयल वियप्पई परम–समाहि लहंति ।
जं वंदहिं साणंदु क वि सो सिव–सुक्ख भणंति ।। ९७।।
तजी कल्पना जाळ सौ, परम समाधिलीन,
वेदे जे आनंदने, शिवसुख कहेता जिन.
९७.
जुओ! अहीं सर्व विकल्पने छोडवानी वात करी छे. आत्मा पोताना आनंद,
ज्ञानादि अनंत शुद्ध स्वभावथी कदी रहित थतो नथी, छतां अनादिथी एनी दशामां
रागना विकल्पो-पुण्य-पापनी वासना छे तेने छोडवानी वात छे. स्वभावथी आत्मा
कदी खाली थयो नथी ते हकीकत छे; पण दशामां अनादिथी शुद्ध छे एम नथी. शुद्ध ज
होय तो तो शुद्ध करवानो प्रयत्न करवानो रहेतो ज नथी, पण पोते ज पोताना
स्वभावने भूलीने पर तरफ लक्ष करीने अनेक प्रकारना शुभाशुभ भावोनी दुःखरूप
दशा पोते ऊभी करे छे.
जेने पोताना आत्मानी दया आवे छे के अरे! हुं अनंतकाळथी रखडी रह्यो छुं.
हवे तो मारे मारुं हित करवुं छे-एम जेने अंदरथी भावना जागे तेने एम थाय के हुं
तो एक आत्मा छुं, मारे आ चार गतिना परिभ्रमण केवा? आ संसार तो अनंत
दुःखमय छे, तेमां रहेवुं मने शोभतुं नथी. आवी जेने भावना जागी छे तेने मुनिराज
कहे छे तुं पहेलां शुभाशुभ विकल्प जाळनुं लक्ष छोडी दे अने अनंत आनंद, शांति
अने समाधिथी भरपूर निज वस्तुस्वभावनुं लक्ष कर! तेनो विश्वास कर! तेनुं
सम्यग्दर्शन प्रगट कर!
जे अनादिथी विकारमां ज एकत्व अने सुख मानतो हतो तेणे हवे गुलांट मारी
अने मारा स्वभावमां ज शांति, आनंद अने सुख छे एम जेणे नक्की कर्युं तेने एम
लागे छे के मारा स्वभावना स्वाद पासे विकारनो स्वाद फीक्को छे. आम स्वभावनी
द्रष्टि थतां जे जीव विकल्पने छोडीने स्वभावमां स्थिर थाय छे ते परम समाधि अने
शांति प्राप्त करे छे.

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परमात्मा] [२१प
वस्तुनो स्वभाव सदा निर्दोष होय. सदोषता तो पर्यायमां होय. स्वभाव तो
निर्दोष कहो, समाधि स्वरूप कहो के वीतराग समरस स्वरूप कहो, तेवा स्वभावनो
अनुभव करवाथी जीव आत्माना आनंदने प्राप्त करे छे.
अहीं तो भाई! रोकडियो धंधो छे. जे काळे स्वभावनी द्रष्टि करे ते ज काळे
स्वभावनो अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थाय छे अने स्वभावथी विपरीत परद्रव्य तरफ लक्ष
करे छे तेने विकारना दुःखनुं वेदन थाय छे. पछी कर्म बंधाय अने तेनुं फळ मळे ए
तो बधी बहारना संयोगनी वात छे. समयसारनी १०२ गाथामां आवे छे के ‘जे
समये कर्ता ते ज समये जीव भोक्ता छे.’
श्रोताः- आप कहो छो के जीवना भावनुं फळ रोकडियुं छे पण अमे तो जोईए
छीए के लोको भजियां, पतरवेलियां, लाडवां खातां होय अने ल्हेर करतां होय छे, ते
भाव तो अशुभ छे तो तेने दुःख केम थतुं नथी?
पूज्य गुरुदेवः- अरे! ए ल्हेर करतां भले देखाय पण ए दुःख ज छे, पण
तेनुं तेने भान नथी. जेटलुं परलक्ष छे तेटलुं दुःख ज छे. ए दुःखदावानळनी
विकल्पजाळने छोडीने स्वभावनुं लक्ष करे तेने ज समरस अने शांति छे, सुख छे, तेने
ज धर्म प्रगट थयो कहेवाय. कह्युं छे के...
भटकंत द्वार द्वार लोकन के कुकर आशा धारी,
आतम अनुभव रसके रसिया ऊतरे न कबहू खुमारी,
आशा औरनकी क्या कीजे? ज्ञान सुधारस पीजे...
कूतरो बटकुं रोटलां माटे घेर घेर भटके छे तेम आ अज्ञानी मने कांईक सुख
आपोने! एम करी बायडी, छोकरा, धन आदि पासे कूतरानी जेम भटके छे, तेने कहे
छे भाई! तुं ज्ञानरसनो पिंड छो, आनंदनो सागर छो तेनो तुं स्वाद ले, ज्ञानरस पी!
अरे! अज्ञानी जीव सवारमां हाथमां दांतियो लईने माथुं ओळतो होय अने
अरीसो सामे राखीने जोतो जाय. जाणे आ शरीर सारुं लागे तो मने सुख थाय. कोई
मने सारो कहीने मान दे तो मने सुख थाय. आहाहा!...भगवान तुं क्यां भटक्यो?
सुधारसनो सागर तो तुं पोते छो! तेमां डूबकी मारवी छोडीने, आ तुं क्यां डूब्यो?
अहीं कहे छे के प्रभु! एक वार तो तुं गुलांट मार! आ बधां विकल्पो छोडी
स्वभावनी द्रष्टि कर तो तने अतीन्द्रिय आनंद आवशे. अहो! समाधिना पिंड थई
गयेला एवा वीतराग त्रिलोकनाथनी वाणीमां आवेली आ वातो छे. ए ज मुनि कहे
छे. आ कांई कोईना घरनी वात नथी.
ऊपजे मोह विकल्पथी, समस्त आ संसार;
अंतर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार.
श्रीमद्नी छेल्ली कडी छे. मोह विकल्पथी आ संसार ऊभो थयो छे. अंतरद्रष्टि
करतां ज ए मोहनो नाश थाय छे. शुभाशुभभावो तारा स्वभावमां नथी तेथी
स्वभावद्रष्टि करतां तेनो नाश थया वगर नहि रहे.

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२१६] [हुं
आत्मा आनंदनुं धोकडुं छे. शुभाशुभ विकल्पनो नाश करी स्वभावमां लीन थतां
ते धोकडामांथी आनंदनो नमूनो तने मळशे तेना उपरथी तने मोक्षना पूर्ण सुखनो
ख्याल आवशे.
आ तो योगसार छे ने! सारमां सार वात आमां मूकी छे. सुखी आत्मा ज
पूर्ण सुखनुं कारण थाय छे. दुःखी आत्मा सुखनुं कारण न थाय तेथी बहु परीषह
सहन करवाथी निर्जरा थाय ए वात रहेती नथी. परीषह सहन कर्यो तेमां तो तने
दुःख अने आकुळता थई, तेनाथी निर्जरा शी रीते थाय? सुखी आत्मा ज पूर्ण सुखने
साधी शके छे. सुखस्वभावी तो आत्मा त्रिकाळ छे पण तेनी द्रष्टि-ज्ञान अने रमणता
करतां जे सुखदशा प्रगट थाय छे ते पूर्ण सुखने साधे छे.
छढाळामां आवे छे के “आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखे आपको
कष्टदान.” जे चारित्रने कष्टदायक समजे छे, वेळुना कोळिया चाववा जेवुं कठण समजे
छे, तेने चारित्रनुं स्वरूप समजाणुं ज नथी. भाई! चारित्र तो आनंददाता छे तेने तुं
दुःखदाता कल्पे छे तो तुं चारित्रनुं स्वरूप समज्यो ज नथी.
प्रभु! तारी प्रभुता तो तारी पासे छे ने भाई! ए प्रभुतामां आनंदनी प्रभुता
पण तारी पासे छे. तारे दुःखदशाथी छूटी सुखदशा प्रगट करवी होय तो सम्यग्दर्शन-
ज्ञान-चारित्र प्रगट कर!
आत्मिक सुख प्राप्त करवानो एक ज उपाय छे के पोताना सुखस्वभावी आत्मामां
निर्विकल्प समाधि प्रगट करवी. प्रथम गाढ श्रद्धा करे के ‘हुं ज सिद्ध समान शुद्ध छुं.’ आ
श्रद्धा एवी होय के पछी इन्द्र नरेन्द्र कोई आवे अने फेरवे तो श्रद्धा न फरे.
मारो भगवान कदी मारा महिमावंत स्वभावथी खाली नथी. अनंत ज्ञान,
अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनंतगुणोनी अनंतताथी भरेलो हुं
महिमावंत पदार्थ छुं.-आवो द्रढ विश्वास आव्या विना तेमां ठरी शकातुं नथी. द्रढ
विश्वास आवे ते ज तेमां ठरी शके छे. जेटलो तेमां ठरे तेटलो आनंद प्रगट थाय छे.
प्रथम तो स्वभावनी रुचि क्यारे थाय?-के ते स्वभाव ज्यारे तेना ज्ञानमां
भासे त्यारे आत्मानी रुचि थाय. ज्ञानदशामां स्वभावनो भाव भासे त्यारे ज विश्वास
आवे अने त्यारे ज आमां ठरवाथी मारुं कल्याण थशे एम नक्की थाय. वस्तु स्वरूप
जेवुं छे तेवुं भावमां भासन थया वगर एटले ज्ञानमां भास्या वगर क्यांथी आवे?
माटे पहेलां भावभासन थवुं जोईए.
ज्ञानस्वभाव एटले सर्वज्ञस्वभाव. सर्वज्ञभगवाने आ स्वभाव पर्यायमां प्रगट करी
दीधो छे अने मारे पर्यायमां ते प्रगट थयो नथी पण स्वभावे तो हुं पण सर्वज्ञस्वभावी
छुं एम अंतरथी भावभासन थाय त्यारे साची श्रद्धा थाय छे अने साची श्रद्धा थाय त्यारे
ज साचुं चारित्र प्रगट थाय छे. ए वगरनुं चारित्र पण साचुं होतुं नथी.
समकितीने स्वानुभवनी कळा आवडी जाय छे. एकवार जेणे भगवान
आत्मामां जवानी केडी जोई लीधी ते फरी फरी जोयेलां मार्गे जईने स्वभावमां रमणता
करे छे. गृहस्थाश्रममां

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परमात्मा] [२१७
समकितीने मुनि जेटलो समय न मळे तोपण थोडो वखत तो धर्मी अनुभवनी धाराना
मार्गे जवानो समय काढीने सामायिकनो अभ्यास करे छे.
जेणे आत्मानो वास्तविक आनंद चाख्यो होय ते रागनो स्वाद आकुळता-
स्वरूप छे एम मींढवणी करी शके; पण जेणे आनंदनो स्वाद ज चाख्यो नथी एवो
अज्ञानी राग आकुळतास्वरूप छे एम मींढवणी-मेळवणी करी शकता नथी. तेथी
आकुळताने ज एटले के रागने ज पोतानुं स्वरूप माने छे.
दिगंबर संतोए बहुं टूंकामां घणो माल भरी दीधो छे, चारित्र द्वारा मूळ सत्ताने
अनुभवीने लखे छे ने! शाश्वत मार्गने जाते अनुभवीने तेनी वात मुनिराज लखे छे.
अहीं योगीन्द्रदेवे तत्त्वानुशासनना श्लोकनो आधार आप्यो छे के जेने आत्माना
धर्मध्यानमां आनंदनो अनुभव थयो नथी ते मूर्च्छावान अने मोही छे, कयांक मूर्च्छाई
गयो छे, तेथी आत्मानो आनंद आवतो नथी.
जेम घरमां पद्मणी जेवी स्त्री होय पण तेमां मन न लागतुं होय तो ते समजी
जाय छे के आनुं मन बीजे क्यांक छे, अहीं मन जामतुं नथी-एम ओळखी ले छे. तेम
अहीं कहे छे के परमात्मा आनंदनी मूर्ति छे तेनुं ध्यान करे छे पण आनंद नथी
आवतो तो समजी लेवुं के ते कयांक मूर्च्छाई गयो छे. क्यांक पुण्य-पापना प्रेममां
मूर्च्छाई गयो छे. जो न मूर्च्छायो होय तो ध्यान करे अने आनंद केम न आवे? आवे
ज. जे आत्मानुं दर्शन, ज्ञान अने रमणता करे छे, एकाग्रता करे छे, तेने वचनगोचर
एवो आत्मिक आनंद आवे ज छे.
आहाहा...! पोताना घरनी चीज पोते ले त्यारे थाय तेवुं छे, कोई आपी दे तेम नथी.
हवे कहे छे के आत्मध्यान परमात्मानुं कारण छे.
जो पिंडत्थु पयत्थु बुह रूवत्थु वि जिण–उत्तु ।
रूवातीतु मुणेहि लहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ९८।।
जे पिंडस्थ, पदस्थ ने रूपस्थ, रूपातीत;
जाणी ध्यान जिनोक्त ए, शीघ्र बनो सुपवित्र. ९८.
अहीं कहे छे के हे पंडित! वीतराग भगवाने आ चार प्रकारना ध्यान कह्यां छेः-
(१) पिंडस्थ एटले शरीरमां रहेला आत्मानुं ध्यान करवुं ते, (२) पदस्थ
एटले पांच पदमां रहेलां पंचपरमेष्ठीनो विचार करीने अंतरमां ध्यान करवुं, (३)
रूपस्थ एटले अरिहंत परमात्मानुं ध्यान करवुं ते अने (४) रूपातीत एटले रूपथी
रहित सिद्ध भगवाननो विचार करी अंतरमां जवुं ते. आ चार प्रकारना ध्यान द्वारा
स्वरूपमां एकाग्र थतां जीव अल्पकाळमां सिद्ध थई जाय छे. परमात्मपदने प्राप्त
करवानी आ कळा छे.
तत्त्वानुशासनमां कह्युं छे के जे भावथी, जे रूपथी आत्मज्ञानी आत्माने ध्यावे छे तेमां

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२१८] [हुं
ते तन्मय थई जाय छे, भगवान आत्मा आनंदस्वरूप अने पूरणज्ञान स्वरूप एवा
भावथी ने एवा स्वरूपथी तेनुं ध्यान करे छे तो ते दशा ते भावमां तन्मय थई जाय
छे. भगवान आत्मा पूरण शुद्ध आनंदस्वरूप छे अने ज्ञाननी मूर्ति छे एवा भावथी
ने एवा रूपथी जे आत्माने ध्यावे छे त्यारे ते वर्तमानदशा त्रिकाळभाव साथे तन्मय
थई जाय छे.
* कोई अति निंद्रावश मनुष्यने तेना मर्मस्थान
उपर मुदगरनी चोट मारे, अथवा अग्निना आतापथी
देहने जरा उष्णता लागे, अथवा क्यांय वाजिंत्रोना अवाज
सांभळे तो ते तुरत जागृत थई जाय छे. परंतु अविवेकी
जीवने तो पाप कर्मफळना उपरा उपरी उदयरूप मुदगरना
मार मर्मस्थान उपर पडया करे छे. महादुःखरूप त्रिविध
तापथी तेनो देह निरंतर बळी आज आ मर्यो, काल आ मर्यो,
फलाणो आम मर्यो अने फलाणो तेम मर्यो, एवा
यमराजना वाजिंत्रोना भयंकर शब्दो वारंवार सांभळे छे,
छतां ए महा अकल्याणकारक अनादि मोहनिंद्राने जराय
वेगळी करी शक्तो नथी, ए परम आश्चर्य छे.
(श्री आत्मानुशासन)

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परमात्मा] [२१९
[प्रवचन नं. ४२]
ज्ञानमय सर्व आत्माने परमात्मपणे देख
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २३-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र चाले छे. तेमां हवे ९९मी गाथामां योगीन्द्रदेव चारित्र
एटले समभाव कोने कहेवाय. कोने होय अने केम होय ते वात करे छे.
सव्वे जीवा णाणमया जो सम–भाव मुणेइ ।
सो सामइउ जाणि फुडु जिणवर एम भणेइ ।। ९९।।
सर्व जीव छे ज्ञानमय, एवो जे समभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराय.
९९.
श्रीमद् कहे छे ने के ‘सर्व जीव छे सिद्ध सम.’ ए ज वात अहीं योगीन्द्रदेव कहे
छे के ‘सर्व जीव छे ज्ञानमय.’ सर्व जीवो ज्ञानमय छे एम पोतानो आत्मा पण
ज्ञानमय छे एम जोतां समभाव प्रगट थाय छे.
पोते ज्ञानमय छे एम जोतां वीतरागता प्रगट थाय छे अने बीजा सर्व जीवो
ज्ञानमय छे एम जोतां आ ठीक छे अने आ अठीक छे एवी बुद्धि रहेती नथी. सर्व
जीवने ज्ञानमय न देखतां कर्मना वशे तेनी थयेली विविध पर्यायने देखीने ठीक-अठीक
बुद्धि करतो हतो तेनो अभाव थाय छे. ज्ञानावरणीने आधीन ज्ञाननुं ओछा-वधतापणुं
होय, दर्शनावरणीने आधीन दर्शननो क्षयोपशम ओछो-वधारे होय, मोहनीयने आधीन
मिथ्याभ्रांति अने रागादि होय अने अंतरायने आधीन थतां पोताने विकार आदि
देखाय, आयुष्य कर्मने आधीन दीर्घ के थोडुं आयुष्य होय, नामकर्मने आधीन सुडोळ के
बेडोळ शरीर देखाय, गोत्र कर्मने आधीन ऊंच-नीच दशा देखाय पण ते तो बधी
पर्याय छे. वेदनीयने आधीन शाता-अशातानो उदय देखाय पण ते तो बधो संयोग
छे, ते मात्र जाणवा लायक छे.
निज आत्मा अने पर सर्व आत्माने मात्र ज्ञाता-द्रष्टा-ज्ञानमय जोतां पर्यायना
फेरफार अने संयोगना फेरफार तो मात्र जाणवा लायक देखाय छे. कोईमां ठीक-अठीक
बुद्धि थती नथी, आ शेठ छे अने आ गरीब छे एम जोयुं ते तो वेदनीय कर्मने
आधीन मळेलां संयोगोने जोवानी वात छे, एवी संयोग आधीन द्रष्टि न करतां
स्वभावद्रष्टिथी बधाने ज्ञानमय जोनारा ज्ञानीने आ ठीक छे अने आ अठीक छे-एवा
राग-द्वेष थतां नथी.
आहाहा...! ‘सर्व जीव छे ज्ञानमय’ एमां आचार्यदेवे केटलुं भरी दीधुं छे!
भाव हो के अभाव हो पण निश्चयथी परम सत् प्रभु ज्ञानमय छे. तेमां ओछा-
वधतांपणानी पण वात नथी. सर्व जीव ज्ञानमय छे तेम हुं पण ज्ञानमय चैतन्यबिंब
स्वरूप छुं एवी द्रष्टि

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२२०] [हुं
थतां तेने अंतरना आश्रयमां वीतरागतानी ज उत्पत्ति थाय, तेने ज सामायिक अने
समभाव कहेवामां आवे छे.
स्वरूपे तो दरेक जीव ‘ज्ञानमय’ कहेतां समभाव स्वरूप ज छे पण तेनी अंदर
नजर पडतां समभाव पर्यायमां प्रगट थाय छे.
समयसारमां पण ११मी गाथामां कुंदकुंदाचार्य कहे छे के भूतार्थ एटले ज्ञानमय
आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने तेना ज आश्रये समभाव-चारित्र
प्रगट थाय छे. ज्ञानमय वस्तु अर्थात् वीतरागतामय अर्थात् निर्विकल्प
समरसीस्वभाव-एकरूप स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय, सम्यग्ज्ञान थाय,
सम्यक्चारित्र थाय, शुक्लध्यान थाय अने केवळज्ञान पण तेना ज आश्रये थाय छे.
समयसारमां बधां शास्त्रोनां बीजडां पडयां छे.
पोताना आत्मामां अने बीजा अनंता आत्मामां कर्मना वशे जे पर्यायमां
विषमता-विविधता थाय छे ते कांई वस्तुनुं मूळ स्वरूप नथी. वस्तुस्वरूपे तो बधा
ज्ञानमय छे एम जोतां आ ठीक छे के आ अठीक छे एवी वृत्ति ज ऊभी थती नथी.
व्यवहार अने पर्यायद्रष्टिथी जोवानी आंख बंध करीने वस्तुना कायमी असली
स्वभावनी द्रष्टिथी जुए तो पोताने पण ज्ञानमय जुए अने बधा पर जीवोने पण ए
समभावथी भरेलां भगवान ज जुए.
श्री योगीन्द्रदेव आ सामायिक अर्थात् समभावनी व्याख्या करे छे अने
भगवाननो आधार आपे छे के जिनवरदेव आम कहे छे.
जीव कर्ता थईने पोताना पुरुषार्थथी पोताने अने बधा जीवोने ‘ज्ञानमय’
जोवानी समभावद्रष्टि प्रगट करे छे. कर्मने वश थतां जीवने अनेक विषम पर्यायो थवा
छतां, तेने देखवां छतां द्रव्य-द्रष्टिए बधा आत्मा ज्ञानमय भगवान छे एम पोताना
पुरुषार्थथी समभावनी द्रष्टिए जोतां पर्यायमां समभाव प्रगट थाय छे.
सामायिकनी व्याख्या करतां आमां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने वीतरागभाव
त्रणेयनी व्याख्या आवी जाय छे.
ज्ञान सिवायना बीजा गुणो पोतानुं अस्तित्व धरावे छे पण पोताने के बीजा
गुणोने जाणता नथी तेथी तेने निर्विकल्प कहेवाय छे अने ज्ञान पोताने तो जाणे पण
बीजा अनंत गुणोने पण जाणे छे. तेथी तेने सविकल्प अने साकार पण कहेवाय छे.
आ ज्ञान ते आत्मानो असाधारण गुण छे तेने परमभाव-ग्राहकनय पण कहेवाय छे.
‘ज्ञानमय’ आत्मानी द्रष्टि करतां आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा थई जाय छे तेथी ‘ज्ञानमय’
आत्मानो निर्णय करतां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने समभावनी उत्पत्ति थाय छे.
ज्ञानने सविकल्प कह्युं तेनो अर्थ स्व-परने जाणे ते सविकल्प एम छे. सविकल्प
कहेतां तेमां राग छे एम नथी. स्व-परने न जाणे ते निर्विकल्प अने स्व-परने जाणे
ते सविकल्प एवो अहीं अर्थ लेवो. आ द्रष्टिए ज भगवानना केवळज्ञानने पण
सविकल्प कहेवाय छे.

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परमात्मा] [२२१
भगवान सर्वज्ञ छे. तेथी सर्वने जाणे छे तो सर्वमां परद्रव्यने जाणवुं ए कांई
विकल्प नथी. ए तो ज्ञाननी वीतरागी दशा छे. सर्वने जाणे छे माटे व्यवहार थई
गयो के राग थई गयो एम नथी. आत्मज्ञानमय सर्वज्ञत्वशक्ति छे. आत्म- ज्ञानमय
थईने परने जाणे छे तेमां परनी अपेक्षा नथी तेथी सर्वने जाणतां राग थाय के
विकल्प थाय के उपचार आवे छे एम वात ज नथी. स्व अने परनुं पूरुं जाणवुं-देखवुं
थाय एवी ज सर्वदर्शित्व अने सर्वज्ञत्व शक्ति छे.
निश्चयथी हुं ज्ञानमय छुं अने परजीवो पण ज्ञानमय छे एम जोतां समभाव
प्रगट थाय छे. परद्रव्यनी के रागनी अपेक्षा विना स्वना सामर्थ्यथी जे आ ज्ञान थाय
छे ते समभाव छे. समभाव छे तेने ज खरी सामायिक होय छे.
आठ कर्मोने वश थतां जीवनी ज्ञान आदिनी जे हीनाधिक अवस्था थाय छे ते
तो पर्यायद्रष्टिनो विषय छे. तेने अहीं निश्चयद्रष्टिमां गौण करी छे. भेद, राग अने
अल्पताना व्यवहारनो अभाव करीने नहि पण तेने गौण करीने अभेद एकरूप ज्ञान
आनंदमय स्वभावने मुख्य करीने द्रष्टि करतां पर्यायमां समभाव प्रगट थाय छे.
मारो स्वभाव तो ज्ञानमय, आनंदमय आदि स्वभावमय छे एम जाणीने जे
आत्मस्थ थाय छे तेने समभाव प्राप्त थाय छे. ते जीव आत्मानुभवमां आवी जाय छे
त्यारे ज परम निर्जराना कारणरूप सामायिक चारित्रनो प्रकाश थाय छे.
घणाए घणी सामायिक करी हशे पण आ तो कोई जुदी ज जातनी सामायिकनी
वात छे. आ एक समयनी सामायिक भवना अभावनुं फळ लावे छे.
स्वभाव अने स्वभाववाननी अभेदता जेणे द्रष्टिमां लीधी, ज्ञानमां जाणी अने
तेमां ठर्यो तेने भव होय ज नहि कारण के ज्ञानमात्र वस्तुमां भव अने भवनो भाव
ज नथी.
आ तो भाई! आचार्योना शब्दो छे. तेमां घणी गूढ गंभीरता भरी छे. एक
एक शब्दमां घणां ऊंडा भावो भर्या छे.
पोताना स्वभावना सामर्थ्यथी परने पण ज्ञानमय जोतां तेनी पर्यायमां
समभाव प्रगट थाय छे जे निर्जरानुं कारण छे.
आहाहा...द्रव्यमां भव केवा? गुणमां भव केवा? अने जे पर्याये ए द्रव्य-गुणनो
निर्णय कर्यो तेमां पण भव केवो? भगवान आत्मानो स्वभाव भवना अभावस्वरूप
ज छे तेथी तेना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां भव न होय. द्रव्यमां भवनो अभावभाव,
गुणमां पण भवनो अभावभाव अने तेना आश्रये प्रगटेली समभावनी पर्यायमां पण
भवनो अभावभाव छे. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे एम भगवाने कह्युं छे.
विकल्प रहित भावमां रहेवुं ते ज सामायिक छे, ते ज मुनिपद छे अने ते ज
रत्नत्रयनी एकतारूप मोक्षमार्ग छे. तेमां वच्चे नबळाईना रागादि विकल्प होय; न
होय एम नथी, पण ते कांई जीवनुं कायमी स्वरूप नथी. पर तरफना झुकाववाळा
रागादिभाव पर्यायद्रष्टिनो

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२२२] [हुं
विषय छे, मात्र जाणवा लायक छे, आदरवा लायक नथी. आदरणीय तो एक भवना
अभावस्वरूप निज ज्ञानस्वभाव ज छे.
अहो! मुनिओनी शी वात करवी? एक विकल्प आव्यो शास्त्र रचवानो, तेमां
थोडामां केटलुं भरी दीधुं छे! पण कहे छे के वाणी लखवानी क्रिया ए तो जडनी छे,
लखवानो विकल्प उठयो ते पण मारो स्वभाव नथी. ते तो पर्यायद्रष्टिनो विषय छे.
निश्चयथी तो हुं पण ज्ञानमय छुं अने बधा आत्माओ पण ज्ञानमय छे. आखो लोक
ज्ञानमय परमात्माथी भरेलो छे. बधानी सत्ता जुदी जुदी छे, सिद्धनी पण दरेक नी
सत्ता अलग-अलग छे. केम के मोक्ष थाय त्यां सत्तानो अभाव थतो नथी. विकारनो
अभाव थाय छे, तेथी मोक्षमां ज्योतमां ज्योत भळी जाय छे ए अन्यमतिनी वात
जूठी छे. दरेक सिद्ध जीवनी सत्ता जुदी-जुदी छे. एक क्षेत्रमां रहेवा छतां अनंत सिद्धोनी
सत्ता न्यारी-न्यारी छे. दरेकनो अस्तित्वगुण ज एवो छे के जेने लईने दरेकनुं
अनादि-अनंत स्वतंत्र अस्तित्व टकी रहे छे, कोईमां कोईनुं अस्तित्व भळी जतुं नथी.
आगळ त्रण प्रश्न कर्या हतां के सामायिक केवी होय, कोने होय अने केम होय?
तो कहे छे के आ उपर कही तेवी स्वभावनी द्रष्टिपूर्वकनी सामायिक होय, कोने होय-के
जे सर्वने ज्ञानमय देखे तेने होय अने केम होय? के स्वभावनो आश्रय करवाथी होय.
जे पोताना राग अने भेदने गौण करीने स्वभावने जुए छे ते बीजाने पण
तेना राग अने भेदने गौण करीने ज्ञानमय स्वभावने जुए छे तेने ज समभाव प्रगट
थाय छे अने विषमद्रष्टि छूटी जाय छे. आ परमात्मा छे माटे राग करवो के आ
जैनदर्शननो विरोधी छे माटे द्वेष करवो ए वात ज आ स्वभावद्रष्टिमां नथी.
योगीन्द्रदेव अमृताशितिनो आधार आपे छे के ‘ज्ञानी शुद्ध, पूर्ण, निर्विकल्प,
निरंजन निर्मोह निज आत्मसमाधिमां सुखामृत लक्षण गिरिगूफामां स्थित थाय छे.’
निज आत्मानी द्रष्टि करीने स्थिर थाय ते गिरिगूफा छे, बाकी बहारथी गिरिगूफामां
जईने बेसे तेथी शुं?
आचार्यदेवनी केटली करुणाद्रष्टि छे के शिष्यने ‘मित्र’ कहीने बोलावे छे. हे
मित्र! साम्यभावनी गिरिगूफामां बेसीने, निर्दोष पदमां समाधि बांधीने पोताना एक
आत्मामां तुं तारा परमात्मपदने ध्याव! जेथी तुं साचा सुखनो अनुभव करी शकीश.
हवे १००मी गाथामां पण मुनिराज सामायिकनी ज वात करे छे.
राय–रोस बे परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ ।
सो सामाइउ जाणि फुडु केवलि एम भणेइ ।। १००।।
राग-द्वेष बे त्यागीने, धारे समताभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव.
१००.
जे कोई जीव राग-द्वेषने त्यागीने एटले एकरूप शुद्ध आत्मानी द्रष्टिपूर्वक विषमताने
त्यागीने समताभावने धारे छे तेने प्रगटपणे सामायिक छे एम जिनवरदेव कहे छे.

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परमात्मा] [२२३
पोताने न्याल करवानो उपाय पोतामां ज छे. क्यांय बहार नथी. पण बहारनी
चीजना माहात्म्य आडे आत्मा तो कोई जाणे वस्तु ज नथी एम अज्ञानीने थई गयुं
छे. परचीज, शुभभाव के क्षयोपशम ज्ञाननी महिमानी आडमां अज्ञानी आखा
चैतन्यदेवनी महिमाने चूकी जाय छे. मिथ्याद्रष्टि संयोगमां, विकारमां के अल्पज्ञ आदि
पर्यायमां ज पोतानुं होवापणुं स्वीकारे छे. तेथी तेनी असत् द्रष्टिमां राग-द्वेष साथे ज
वसेला छे. पोतामां पर्यायद्रष्टि छे एटले बीजा जीवोने पण पर्यायद्रष्टिथी जोईने राग-
द्वेष कर्या करे छे. मिथ्याद्रष्टिनुं उल्लसित वीर्य परमां ज रोकाई गयुं छे, त्यां ज सुख
माने छे अने जेणे भगवान आत्मानो भेटो कर्यो ते ९६००० राणीना वृंदमां पण सुख
मानतो नथी. तेनी द्रष्टिनी केटली किंमत! द्रष्टि आखी स्वभाव तरफ गुलांट खाई गई
छे तेने बहारमां क्यांय सुख भासतुं ज नथी.
परज्ञेयमां बे भागला पाडे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. आ ठीक अने आ अठीक एवी
बुद्धि मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे. ज्ञानीने एवी बुद्धि न होय अस्थिरताने कारणे इष्ट-
अनिष्टनी वृत्ति ऊठे छे पण ते परने कारणे नहि अने स्वभावना कारणे पण नहि.
मात्र एक चारित्रना दोषने कारणे कमजोरी छे तेथी इष्ट-अनिष्टनी वृत्ति ऊठे छे पण
ते ज्ञेयमां बे भागला पाडतां नथी.
* मारुं मरण नथी तो मने डर कोनो? मने व्याधि
नथी तो मने पीडा केवी? हुं बाळक नथी, हुं युवान नथी.
ए सर्वअवस्थाओ पुद्गलनी छे. (श्री इष्ट-उपदेश)

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२२४] [हुं
[प्रवचन नं. ४३]
केवळज्ञानीनी जेम
निःशंकपणे निज–परमात्माने जाणता ज्ञानी
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २४-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र छे. तेमां १००मी गाथामां साची सामायिकना स्वरूपनुं
वर्णन चाले छे.
राय–रोस बे परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ ।
सो सामाइउ जाणि फुडु केवलि एम भणेइ ।। १००।।
राग-द्वेष बे त्यागीने, धारे समताभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव.
१००.
भगवान सर्वज्ञदेव कहे छे के जे राग-द्वेषनो त्याग करीने समभावने धारण करे
छे तेने साची सामायिक होय छे.
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे एवुं जेने भान थयुं तेने बीजा प्राणीओ प्रत्ये
समभाव वर्ते छे. धर्मीजीवनी द्रष्टि मिथ्याद्रष्टिनी द्रष्टि करतां ऊलटी थई गई छे.
मिथ्याद्रष्टि परद्रव्य मने लाभ-नुकशान करे छे एम मानीने तेना प्रत्ये राग-द्वेष करे छे
अने ज्ञानी तो एम माने छे के कोई परद्रव्य मने लाभ-नुकशान करी शक्ता नथी.
सौने पोताना कर्म अनुसार संयोग-वियोग थाय छे, कोई कोईनो बगाड सुधार करी
शक्तुं नथी. आवी द्रढ श्रद्धा अने ज्ञानने कारणे ज्ञानीने परद्रव्य प्रत्ये राग-द्वेषनी बुद्धि
थती नथी.
पोताना स्वभावने ज्ञाता-द्रष्टारूपे कबूलतो, जाणतो, ठरतो धर्मी जीव बीजा
जीवना जीवन-मरण, सुख-दुःखने कोई अन्य जीव करे छे एम मानतो नथी. जगतना
दरेक कार्यो पोत-पोताना अंतरंग उपादानने कारणे थाय छे एम धर्मी माने छे.
जेम सूर्य तेना कारणे ऊगे छे अने तेना कारणे आथमे छे तेमां कोईने एवो
विकल्प नथी आवतो के आ जल्दी ऊगे के जल्दी आथमी जाय तो सारूं. तेम धर्मी
जीवने जगतना दरेक कार्यो तेना कारणे थाय छे तेमां हुं फेरफार करुं एवी बुद्धि थती
नथी. दरेक पदार्थ तेना क्रमे परिणमता पोतानी अवस्थाना कार्यने करे छे, तेमां अनुकूळ
निमित्त जे होय ते होय ज छे एम जाणतां ज्ञानीने बीजाना कार्य में करी दीधां एवो
अहंकार थतो नथी अने बीजा मारा कार्य करी दे एवी अपेक्षा रहेती नथी.
जगतनुं क्युं द्रव्य नकामुं छे? एटले के कयुं द्रव्य पर्याय विनानुं छे? कोई द्रव्य
पर्याय विनानुं नथी. पर्याय एटले द्रव्यनुं कार्य अने द्रव्य तेनुं कारण. कार्य विनानुं कारण
न होय अने कारण विनानुं कार्य न होय. आवुं जाणतां ज्ञानीने परद्रव्य प्रत्ये विषमता

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परमात्मा] [२२प
उत्पन्न थती नथी, समभाव रहे छे. गृहस्थाश्रममां पण ज्ञानीने श्रद्धा-ज्ञानमां आवो
समभाव रहे छे अने चारित्रनी नबळाई वश अल्प राग-द्वेष थाय तेने ज्ञानी
पोताना स्वभावमां खतवता नथी.
योगीन्द्रदेव समयसारनां बंध-अधिकारना १७६ कळशनो आधार आपे छे.
सम्यग्ज्ञानी पोते पोताने अने बधा परद्रव्यना स्वभावने जेम छे तेम जाणे छे अने
तेनी पर्यायमां थतां कार्यने पण व्यवहार तरीके जाणे छे. द्रव्य ते निश्चय छे अने पर्याय
ते व्यवहार छे. द्रव्य वगरनी पर्याय न होय-निश्चय वगरनो व्यवहार न होय. आवुं
जाणतां ज्ञानी पोतानी पर्यायमां थतां रागने पोताना स्वभावमां खतवता नथी.
कोई लाकडी मारे अने पोते क्षमा राखे तो समभाव कहेवाय एम नथी. हुं
ज्ञानस्वभावी छुं अने पर्यायमां विषमभाव थाय छे ते मारो स्वभाव नथी एम बे
वच्चे भेदज्ञान करवुं ते समभाव छे. आ अपेक्षाए ज्ञानी राग-द्वेष करतां नथी एम
कहेवाय छे. चारित्रनी नबळाईथी राग-द्वेष थाय छे तेनी अहीं गौणता छे.
हवे छेदोपस्थापननी वात करे छे.
हिंसादिउ–परिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ ।
सो बियऊ चारित्तु मुणि जो पंचम–गइ णेइ ।। १०१।।
हिंसादिकना त्यागथी, आत्मस्थितिकर जेह;
ते बीजुं चारित्र छे, पंचम गतिकर तेह.
१०१.
जे कोई जीव हिंसा आदि पापना परिणामना अभावस्वभावस्वरूप आत्मामां
स्थिरता करे छे तेने बीजुं चारित्र छे जे पंचमगतिनुं कारण छे. विकारनो छेद करी
आत्माने आत्मामां स्थापवो तेने छेदोपस्थापना नामनुं बीजुं चारित्र कहेवाय छे एम
योगीन्द्रदेव कहे छे. आम तो, सामायिकमां बेठा होय अने तेमां कोई विकल्प आवी
जाय. दोष लागे तेने छेदीने फरी आत्मामां स्थिर थाय तेने छेदोपस्थापना कहेवाय छे.
पण अहीं तो योगीन्द्रदेवे अध्यात्मथी छेदोपस्थापनानुं स्वरूप कीधुं छे.
मोक्षनुं साक्षात् कारण तो स्वरूपमां लीनतारूप चारित्र छे तेथी धर्मनुं मूळ
चारित्र कह्युं छे पण ते चारित्र दर्शन-ज्ञान विना होतुं नथी.
स्थिर-बिंब भगवान आत्मामां स्थिरतानो अभ्यास थतां पछी कायमी
स्थिरता-ध्रुवदशा-पंचमगति प्रगट थई जाय छे. पंचास्तिकायमां केवळज्ञानने पण एक
नये कूटस्थ कह्युं छे तेम मोक्षमां एकधारी स्थिरता होवाथी तेने पण ध्रुव कह्यो छे.
स्थिरता पलटे छे पण एकधारी एवी ने एवी थती रहे छे माटे तेने ध्रुव कही छे.
मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मद्ंसण–सुद्धि ।
सो परिहार–विसुद्धि मुणि लहु पावहि सिव–सिद्धि ।। १०२।।

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२२६] [हुं
मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यग्दर्शन शुद्धि;
ते परिहार विशुद्धि छे, शीघ्र लहो शिवसिद्धि. १०२.
अहीं मुनिराजे अध्यात्मथी परिहारविशुद्धिनी व्याख्या करी छे के जेणे मिथ्यात्व,
अव्रत, कषाय आदिनो परिहार करीने सम्यग्दर्शननी शुद्धि प्रगट करी छे तेने
परिहारविशुद्धि छे.
अनादिथी जे स्वभावनो अनादर करतो हतो अने पुण्य-पाप आदिनो ज
एकान्ते आदर करतो हतो तेने छोडीने हवे जे परमानंदस्वरूप निज आत्म-
स्वभावनो आदर-सत्कार करे छे एटले के सम्यग्दर्शननी शुद्धि प्रगट करे छे तेने
परिहारविशुद्धि छे.
अष्टपाहुडमां सम्यग्दर्शन उपर जोर देतो एक श्लोक आवे छे के ‘समकितमां
परिणत थयेलो आठ कर्म नाश करे छे.’ स्वरूप जे पूरण...पूरण श्रद्धा थई छे तेना
वलणमां तेनुं ने तेनुं परिणमन चालतां आठेय कर्मोनो नाश थई जाय छे.
तेम अहीं कहे छे के भगवान परमानंदस्वरूपमां-अनंत गुणना गोदाममां थाप
मारीने ज्यां स्वरूपनो आदर प्रगट करे छे त्यां बीजा सर्व भावोनो परिहार थई जाय
छे. मिथ्यात्वना परिहार उपरांत राग-द्वेषनो पण ज्यां परिहार थयो एटले के त्याग
थयो-अभाव थयो अने स्वरूपनी प्रतीति-ज्ञान अने स्थिरता प्रगट थई तेने अहीं
‘परिहारविशुद्धि’ नामनुं चारित्र कह्युं छे. अहीं पण सम्यग्दर्शन उपर वधारे जोर
आप्युं छे. केम के सम्यग्दर्शन विना धर्ममां एक डगलुं पण आगळ चाली शकातुं नथी.
जेने द्रष्टिमां निज परमात्मस्वरूपनो भेटो थयो तेने खरेखर श्रद्धा-ज्ञानमां
परमात्मानो साक्षात्कार थयो छे.
दिगंबर आचार्योए भिन्न भिन्न ग्रंथमां भिन्न भिन्न विधिए आत्माने
गायो छे. अहीं अध्यात्मथी ‘परिहारविशुद्धि’ नो शब्दार्थ कर्यो छे. खरेखर परिहार-
विशुद्धि तो मुनिने होय छे पण अहीं सम्यग्दर्शननी शुद्धि अने मिथ्यात्वादिना
परिहारने ‘परिहारविशुद्धि’ कही दीधी छे.
सम्यग्ज्ञानीने परिहारविशुद्धि ए रीते छे के तेने स्वभावमां आदरमां बहारना
कोई पदार्थनी विस्मयता लागती नथी. पदार्थनी यथार्थ स्थितिना ज्ञानने लीधे तेने
कोई पदार्थमां विस्मयता के खेद थतो नथी, तेथी छए द्रव्यना मूळ गुण अने पर्यायना
स्वरूपने केवळज्ञानीनी जेम शंका रहित यथार्थ जाणे छे. ज्ञानीने श्रुतज्ञान छे तेथी
परोक्ष ज्ञान छे पण परोक्ष रीते, केवळज्ञानी जेटलुं अने जेवुं जाणे छे तेटलुं अने तेवुं
ज ज्ञानी जाणे छे पण क्यांय विस्मयता लागती नथी.
अहाहाहा! आत्माना एक ज्ञान गुणनी एक पर्यायनी केटली ताकात छे के एक
समयमां दरेक द्रव्यने तेना अनंत गुण पर्याय सहित जाणी ले छे. एक श्रद्धानी पर्याय
एवी छे के ते बधानी श्रद्धा करी ले छे. आवी तो एक पर्यायनी ताकात छे तो
आत्मानी केटली ताकात? आवा आत्माने जे जाणे तेणे खरेखर आत्माने जाण्यो
कहेवाय. ज्ञानी आवा भगवान आत्माने केवळज्ञानीनी जेम निःशंकपणे जाणे छे.

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परमात्मा] [२२७
आवा द्रढ ज्ञान अने वैराग्यधारी सम्यग्द्रष्टि जोके पूर्वकर्मना उदयथी
गृहस्थाश्रममां दरेक कार्य करतां देखाय छे तोपण ते कार्योने ते आसक्तिभावथी करतां
नथी. रागने रोग जाणे छे, मारा पुरुषार्थनी गति एटली विपरीत छे माटे राग थाय
छे एम जाणे छे. राग ए मारा स्वभावनी जात नथी. तेम कर्म पण राग करावतुं
नथी. मारा ज पुरुषार्थनी खामीथी राग थाय छे एम जाणे छे.
ज्ञानी जाणे छे के आ मने सत्नुं स्थापन करवानो-नयथी मुख्य-गौण करवानो
विकल्प ऊठे छे ते पण राग छे-प्रशस्त कषायनो अंश छे. वीतराग अमृतरसमां ए
अंश पण मने पालवतो नथी. आंखमां कदाच कणुं समाय पण मारा वीतरागरसमां
आ राग पोषातो नथी-समातो नथी.
आम, ज्ञानी गृहस्थाश्रममां रह्यां छतां-गृहस्थाश्रमना कार्यो करतां होवा छतां
तेमां एकाकार थतां नथी, लीन थतां नथी. चारित्रनी कमजोरीथी थतां रागने-
विषमभावने पोताना समस्वभावथी विरुद्ध होवाथी रोग जाणे छे.
सम्यग्दर्शननी शुद्धता ए ज मोक्ष उपायनुं मूळ छे. सम्यग्दर्शनमां सम-
स्वभावी भगवान आत्मानी सम्यक् प्रतीतिनुं जोर एटलुं छे के ते ज वीतराग
यथाख्यातचारित्र, केवळज्ञान अने मोक्षनुं कारण बने छे.
आनंदघनजी एक स्तुतिमां लखे छे के “गगनमंडळमां गौआ वियाणी, वसुधा
दूध जमाया, माखण था सो वीरला पाया, छाशे जगत भरमाया.” कहे छे माखण तो
विरला ज्ञानी खाई गया अने जगत आखुं तो छाशमां भरमाणुं छे. आ स्तुति
उपरथी शेठियाए एक लीटी लखी छे के ‘आतम गगनमें ज्ञान ही गंगा, जामे अमृत
वासा, सम्यग्द्रष्टि भर भर पीवे मिथ्याद्रष्टि जाय प्यासा...’
आवा समस्वरूपमां लीन ज्ञानीने क्यारेय परपदार्थमां इष्ट-अनिष्टपणानो राग
आवी जाय छे तेनो परिहार करीने ते फरी स्वरूपमां लीन थाय छे तेनुं नाम
परिहारविशुद्धि छे.
अहीं अमृतचंद्र आचार्यकृत तत्त्वार्थसारनो दाखलो आप्यो छे. ‘ज्यां प्राणीओना
घातनो विशेषपणे त्याग होय अने चारित्रनी विशुद्धि होय तेने परिहारविशुद्धि चारित्र
कहेवाय छे.
हवे यथाख्यातचारित्रनी व्याख्या आपे छे.
सुहुमहं लोहहं जो विलउ जो सुहुमु वि परिणामु ।
सो सुहुमु वि चारित्त मुणि, सो सासय–सुह–धामु ।। १०३।।
सूक्ष्म लोभना नाशथी, जे सुक्षम परिणाम;
जाणो सूक्ष्म-चरित्र ते, जे शाश्वत सुखधाम. १०३.
यथाख्यातचारित्र एटले पूर्ण चारित्र अर्थात् उत्कृष्ट चारित्र. यथाख्यात एटले
अंतरस्वभावमां जेवुं अकषाय-अविकारी, वीतराग समभावस्वरूप चारित्र प्रसिद्ध छे
तेवुं ज पर्यायमां यथार्थमां प्रसिद्ध थवुं तेने यथाख्यात नामनुं वीतराग चारित्र कहेवाय
छे अने ते चारित्र ज अविनाशी सुखनुं स्थान छे.

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२२८] [हुं
दशमां गुणस्थाने जे सूक्ष्म लोभ छे तेनो पण नाश थईने जे सूक्ष्म वीतरागी
परिणाम उत्पन्न थाय छे तेने सूक्ष्म चारित्र कहे छे. ते ज यथाख्यात- चारित्र छे, ते
मोक्षनुं साक्षात् कारण छे.
चारित्रनी शरूआत थया पछी शुद्धिनी वृद्धि थाय छे तेना सामायिक,
छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, यथाख्यातचारित्र आदि आ बधां प्रकार छे. समये
समये शुद्धिनी वृद्धि थाय छे एवी आ वात बीजे क्यांय न होई शके.
आ तो बधी आत्मारामने भेटवानी वातो छे. निजपद रचे सो ‘राम’ कहीए,
कर्म कसे तेने कृष्ण कहीए. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा पोताना आत्मबागमां रमे
तेने यथाख्यातचारित्र होय छे. आ चारित्र ज तेने अविनाशी सुखनुं साक्षात् कारण छे.
क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थानमां मिथ्यात्वनी त्रण प्रकृति अने चार
अनंतानुबंधीनी प्रकृतिनो नाश थईने स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट थई जाय छे. ते
चारित्रनी पूर्णता तो यथाख्यातचारित्रथी थाय छे पण चोथामां तेना अंशरूप कणिका न
जागे तो तो आगळ ज न वधी शके.
अरे! आ तो तत्त्वना निर्णयनो विषय छे, तेमां समभावे शांतिथी वीतरागी
चर्चा करीने निर्णय करवो जोईए. तेमां एक-बीजाने खोटा पाडवानी वात न होय
भाई! कोईनी भूल होय तोपण तेने बीजी रीते समजावीने कहेवुं जोईए. तेने द्वेषी
कल्पीने के विरोधी कल्पीने कहेवुं ए कांई सज्जनतानी रीत छे? आ तो वीतराग
मार्ग छे भाई! तेमां तो शांतिथी, न्यायथी जेम होय तेम निर्णय करवो जोईए अने
जे सत्य नीकळे तेने कबूलवुं जोईए. आमां कोई पक्षनी वात नथी.
चोथा गुणस्थाने स्वरूपाचरण चारित्र होय ए वात तो टोडरमलजी,
गोपालदासजी बरैया, राजमलजी वगेरे बधानां शास्त्रोमां आवे छे अने कदाच सीधा
शब्दोमां न नीकळे तोपण न्यायथी तो समजवुं जोईए ने भाई! ‘सर्व गुणांश ते
सम्यक्त्व’ कहेतां तेमां चारित्रनो अंश आवी ज जाय छे.
मिथ्याद्रष्टिने पोताना ज्ञायकपणानुं भान न हतुं तेथी शरीरादि अने राग-
द्वेषादि भावोमां पोतापणानी श्रद्धा-ज्ञान अने लीनता हता. हवे ज्यां श्रद्धाए गुलांट
खाधी-निज परमात्मानुं अवलोकन थयुं तो ते पोतामां ठर्या विना शी रीते थाय? ए
ठरे छे एनुं ज नाम भगवान स्वरूपाचरणचारित्र कहे छे. अनंतानुबंधीनां क्रोध, मान,
माया, लोभ-आदि चार कषायनो नाश थयो तो कांईक चारित्र प्रगट थाय के नहि?
भले ए देशचारित्र के सकलचारित्र नथी पण स्वरूपाचरणरूप चारित्र छे. स्वभावना
स्वाद वगर श्रद्धा क्यांथी थाय? ए स्वभावनो स्वाद ते स्वरूपा- चरणचारित्र छे,
एथी आगळ वधीने चारित्र पूर्ण थाय तेने थयाख्यातचारित्र कहे छे अने तेरमां
गुणस्थाने चारित्रनी साथे अनंत आनंद प्रगट थाय त्यारे परम यथाख्यातचारित्र
कहेवाय छे. आ चारित्र ज साक्षात् मोक्षनुं कारण छे.

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परमात्मा] [२२९
[प्रवचन नं. ४४]
गुरु आदेशः
देहवासी निज–परमात्मामां अने
सर्वज्ञ–परमात्मामां फेर न जाण!
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २६-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र चाले छे. तेनी १०४ गाथा चाले छे. योगीन्द्रदेव कहे छे
के आत्मा पोते ज पंच-परमेष्ठी छे.
अरहंतु वि सो सिद्धु फुडु सो आयरिउ वियाणि ।
सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छई अप्पा जाणि ।। १०४।।
आत्मा ते अर्हंत छे, सिद्ध निश्चये ए ज;
आचारज, उवझाय ने साधु निश्चय ते ज.
१०४.
निश्चयद्रष्टि अर्थात् यथार्थ द्रष्टिथी जुओ तो, आत्मा ज अर्हंत छे एम जाणो.
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य आदिना पर्यायो आत्माना ध्रुवपदमां-अंतरमां शक्तिरूपे पडी छे.
आत्मामां वर्तमान दशामां अल्पज्ञान, अल्पदर्शन अने राग-द्वेषादिनी
विपरीतता छे. ए तो क्षणिक अवस्था छे पण अंतरमां तो, अर्हंतना जेवा अनंत
चतुष्टय त्रिकाळ पडयां छे.
प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां आवे छे के अर्हंतनुं द्रव्य एटले शक्तिवान,
तेना गुण एटले शक्ति अने तेनी वर्तमान अवस्थाने जे जाणे छे ते पोताना
आत्माना द्रव्य गुण-पर्यायने जाणे छे एटले के अर्हंतना द्रव्य-गुण-पर्याय साथे
पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायने मेळवे छे के मारामां पण अर्हंत जेवा द्रव्य-गुण छे. मारा
स्वभावमां अनंत ज्ञान-दर्शन, सुख आदि स्वभावो छे ते प्रगट थशे. जे होय ते प्रगट
थाय, न होय तो क्यांथी आवे? आहाहा! राग रहित निर्विकल्प श्रद्धा वडे हुं अर्हंत
जेवो ज छुं एवी प्रतीति थई शके छे.
भगवान आत्मा एटले कारण परमात्मामां अर्हंतपदनुं कारण पडयुं छे ते प्रगट
थाय छे. तृषा लागी होय तो, पाणी होय तो तृषा छीपे. तेम अर्हंतपद अंतरमां होय
तो तेमां एकाग्रता करवाथी पर्यायमां ते प्रगट थाय. पाणी न होय तो तृषा न छीपे,
तेम अंतरमां अर्हंतपद न होय तो पर्यायमां प्रगट क्यांथी थाय?
अहीं योगसारनी आ १०४ गाथामां जे वात छे ए ज वात मोक्षपाहुडनी १०४
मी गाथामां छे, तेनो अहीं आधार आप्यो छे.
अरे! आ तत्त्वनो भरोसो पण केम थाय? भाई! तारी दशामां भले
अल्पज्ञान हो