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अंदरमां छे, पर्यायमां भले अल्पवीर्य छे पण आत्मा अनंतवीर्यनुं धाम छे, पर्यायमां
राग-द्वेषनी विपरीतता होवा छतां आत्मा वीतराग आनंदनो कंद छो. तुं नानो नथी
भाई! तुं मोटो छो. तुं पोते अर्हंतस्वरूपे बिराजमान छो विश्वास कर!
वस्तुनो स्वभाव छे कांई कल्पनाथी वात वधारीने तने कहेतां नथी. वस्तु जेवी छे
तेवी तने कहीए छीए.
आचार्य ते वीतरागीपर्याये परिणमेलुं पद छे. एवी पर्यायो पण तारा अंतरमां छे माटे
तुं आचार्यनुं खरुं स्वरूप ओळखी तेमां लीन थई जा, तो तुं पोते आचार्य बनी
जईश. उपाध्याय स्वरूप पण तुं ज छो भाई! वीतरागी द्रव्य, वीतरागी गुण अने
गुणस्थान प्रमाणे प्रगटेली वीतरागी पर्याय सहितनुं द्रव्य ते उपाध्याय छे. एवा
उपाध्याय स्वरूप आत्मानुं ध्यान करवुं.
आनंदने अनुभवे छे ने! ए ज तेनुं ध्यान कहो के अनुभव कहो, एक ज छे.
प्रवचनसारनी ज्ञेय अधिकारनी छेल्ली गाथाओमां आ वात आवे छे.
पंचपरमेष्ठी स्वरूप छे तेथी आत्मानुं ध्यान करतां तेमां पांचेय परमेष्ठीनुं ध्यान
गर्भीत छे.
पर्याये परिणमेला छे, तेनुं लक्ष करवुं. आचार्यनुं लक्ष करतां तेमनां विकल्प, वाणी अने
रागथी रंजित परिणाम लक्षमां न लेवा, पण तेनो आत्मा जे वीतरागी पर्यायरूपे
परिणमेलो छे
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लेतां मात्र तेमनी आत्म-आराधनानी क्रिया आराधवालायक छे.
मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे छे पण निश्चय मोक्षमार्ग एक ज छे. तेथी मोक्षना
अर्थीने उचित छे के आ एक स्वानुभवरूप मोक्षमार्गनुं सेवन करे.
महान द्रष्टि छे तेना वडे महान एवा भगवान आत्मानी श्रद्धा थाय त्यारे तेमां रमण
क्यां करवुं तेनुं भान थाय छे. आवुं सम्यग्दर्शन थया पछी पण अमृतचंद्र आचार्य ८०
मी गाथामां कहे छे के प्रमादरूपी चोर मारी संपदा लूंटी न जाय ते माटे हुं सावधान
रहुं छुं-प्रमाद छोडीने पुरुषार्थनी केड बांधीने बेठो छुं.
आत्मामां ज पडयुं छे भाई! भगवानने याद करवा ए तो राग छे पण रागरहित
निजस्वरूपनुं शरण ले त्यारे खरुं अरिहंत अने सिद्धनुं शरण लीधुं कहेवाय.
सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्धु ।। १०५।।
ब्रह्मा, ईश्वर, जिन ते, सिद्ध, अनंत पण ते ज. १०प.
गुण छे अने एटली ज तेनी पर्यायो छे-आवो आत्मा वेदांत आदि कोई मतमां कह्यो
नथी. अज्ञानीओए तो असर्वांशमां सर्वांश मान्युं छे. अहीं तो सर्वांशे आखी चीज
जेवी छे तेवी कहेवाय छे. आवो जे आत्मा छे ते पांच परमेष्ठीरूपे परिणमे छे तेने ज
अहीं ब्रह्मा, विष्णु अने महेश कह्यो छे.
कोई ब्रह्मा आदि नथी. अरे भाई! आ तो वस्तुनी स्थिति छे. भगवाने जोयुं बीजुं
अने कह्युं बीजुं एवुं नथी. छ प्रकारना द्रव्यो जेवा जोयां तेवा ज भगवाने कह्यां छे.
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ज्ञान ज्ञेय प्रमाण छे, माटे आत्मा लोकालोक प्रमाण छे एटले के क्षेत्रथी नहि पण
केवळज्ञाननी अपेक्षाए आत्मा लोकालोक व्यापक छे माटे आत्मा ज विष्णु छे.
ज्ञानरूपे परिणमे छे अने एवी एवी अनंती शक्तिओ आत्मामां रहेली छे माटे
आत्मा माने छे ते मान्यता तद्न खोटी अज्ञानभाव छे...संसारभाव छे.
सुधी आपणे केम नक्की करी शकीए? पण एमणे जे अभिप्रायो कह्यां छे ते उपरथी
तो ते मुक्ति पाम्यां नथी. श्रीमद्ने २७ वर्ष थया हता त्यारे गांधीजीए २७ प्रश्नो
पूछयां हतां तेमां एक आ प्रश्न हतो.
लीन छे अने पोताना स्वरूपना कर्ता छे माटे ब्रह्मा छे. जगतना कर्ता कोई ब्रह्मा नथी.
तेनुं ध्यान करवुं तेनुं नाम खरेखर ध्यान अने संवर-निर्जरा छे.
ईश्वर आदि नामो अपाय छे.
देहहं मज्झहिं सो वसइ तासु ण विज्जइ भेउ ।। १०६।।
देहवासी आ जीवमां ने तेमां नथी फेर.
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अने तारामां फेर होय पण वस्तुद्रष्टिए तारा आ देहवासी देवमां अने निरंजन
परमात्मामां कांई फेर नथी.
गोठतो नथी, बीजा बधाने तो गोठे छे. बधां पहेलां पोताना मोढामां कोळियो मूके
पछी बीजाना मोढामां मूके त्यारे अहीं तो भगवानने मान जोईतुं नथी. भगवान कहे
छे के तुं अमारुं लक्ष करीश तो तने राग थशे. तुं तारुं लक्ष कर! अमारी भक्तिथी
तारुं कल्याण नहि थाय. तुं तारो आश्रय कर तो तारुं कल्याण थशे. तारा देहमां
परमात्मा जेवो ज भगवान बिराजमान छे माटे तुं परमात्मामां अने तारामां भेद न
जाण!
अतिशय पागल मनुष्यनी चेष्टा समान छे. कारण के ते
शोक करवाथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी परंतु तेनाथी
केवळ ए थाय छे के ते मूढ बुद्धिवाळा मनुष्यना धर्म
अर्थ अने कामरूपथी पुरुषार्थ आदि ज नष्ट थाय छे.
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स्वरूप वर्णव्युं. हवे योगीन्द्रदेव कहे छे के एवा जे परमात्मा छे तेमां अने आ देहवासी
जीवमां कांई फेर नथी.
देहहं मज्झहिं सो वसइ तासु ण विज्जइ भेउ ।। १०६।।
देहवासी आ जीवमां ने तेमां नथी फेर.
परमात्मा छे एम साधक जीवे वस्तुनी निश्चयद्रष्टि करवी.
द्रव्यस्वभावमां ए कोई भेदो नथी. द्रव्यस्वभावे आत्मा परमात्मा ज छे एम निश्चय
करवो. जे कांई भेद देखाय छे ते व्यवहारथी छे पण परमार्थ वस्तुद्रष्टिए जोतां वस्तुमां
ए कोई भेदो नथी.
परमात्मा तरीके जोवा. कारण के समभाव ए ज मोक्षनो उपाय छे. वस्तु एक ज्ञानघन
शुद्ध ज छे एम अंतरमां जोवुं, जाणवुं अने अनुभववुं ते मोक्षनो उपाय छे.
वर्तमान अल्पज्ञ-परिणाम अने पुण्य-पापना परिणाममां आत्मबुद्धि करे छे ते
स्वरूपथी भ्रष्ट थाय छे अने मिथ्यात्व, कषायादिने ग्रहण करे छे.
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वस्तु अभेद छे पण तेनो अर्थ एम नथी के आत्मा असंख्यप्रदेशी छे ते व्यवहारथी
छे. असंख्य प्रदेश तो निश्चयथी छे पण तेनो भेद-विचार करवो ते व्यवहार छे. ४७
शक्तिमां एक ‘नियतप्रदेशत्व’ शक्ति छे एटले असंख्य प्रदेश नियत छे. पण
अभेदद्रष्टिमां भेद देखाता नथी. अभेदमां भेद नथी एम नथी पण अभेदद्रष्टिमां
भेदनुं लक्ष करे तो विकल्प ऊठे अने राग थाय तो अभेद्रष्टि ज रहेती नथी.
व्यवहारने भूली जवानो नथी पण गौण करीने स्वभावनी द्रष्टि करवानी छे.
व्यवहारनो अभाव करे तो ते वस्तु ज न रहे. वीतरागशासन आवुं छे भाई!
अप्पा–दंसणि ते वि फुडु एहउ जाणि णिभंतु ।। १०७।।
ते आतमदर्शन थकी, एम जाण निर्भ्रान्त.
लीधी छे. अनंत सिद्ध थया, अनंत सिद्ध थशे अने वर्तमानमां सिद्ध थाय छे ते बधा
आत्मअनुभवथी ज थाय छे. त्रणेय काळमां एक ज मार्ग छे ए वात आमां आवी गई.
‘एक होय त्रणकाळमां, परमारथनो पंथ’ आ वातने संदेह रहितपणे तुं मान!
करवो ते मोक्षमार्ग छे.
अनुभव मारग मोक्षनो, अनुभव मोक्षस्वरूप.
प्राप्तिरूपी कार्यने पामे छे. वज्रवृषभनाराच संहनन अने मनुष्यपणुं कांई केवळज्ञानना
कार्यरूपे परिणमतुं
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परिणमी जाय छे.
आत्माना मोक्ष माटे आत्मानी श्रद्धा, ज्ञान अने अनुभव ज मोक्षमार्ग छे. उपादान
पोते ज कार्यरूपे परिणमी जाय छे. साथे निमित्त-व्यवहार होय छे तेनी ना नथी पण
तेनुं लक्ष छोडे-आश्रय छोडे, त्यारे ज मोक्षमार्गनी शरूआत छे.
तेम सिद्धपणानी पर्यायनी सीधी सडक आत्मानी श्रद्धा-ज्ञान अने शांतिपूर्वक अनुभव
करवो ते छे. मोक्षमहेलना पूर्णकार्य सुधी कारण चाल्युं जाय छे.
छे. आ बधां द्रष्टांतो सिद्धांतने सिद्ध करवा माटे देवाय छे.
आ सिवाय बीजी कोई सडक ज नथी गली पण नथी.
श्रोताः- तो पछी भगवाननी भक्ति करे कोण?
पूज्य गुरुदेवः- ज्यां सुधी वीतराग थाय नहि त्यां सुधी पूर्णानंदना आश्रयनी
शुभभाव आव्या वगर रहेतो नथी एम कहेवाय पण खरेखर तो ते काळे ते शुभभाव
आव्या वगर रहेतो नथी-एवी ज वस्तुस्थिति छे.
जुओ तो उत्पाद-व्यय ते ध्रुवनुं परिणमन छे. द्रव्यद्रष्टिथी द्रव्य परिणमतुं नथी. तेथी ज
तेने सद्रश कह्युं छे एटले जेवुं छे तेवुं ज त्रिकाळ रहे छे. परिणमे छे ते पर्याय छे. द्रव्य
तो अपरिणामी छे, पर्याय तेनुं लक्ष करे छे. अनित्य पर्याय वडे ध्रुवनुं लक्ष थाय छे.
व्यवहारनयनी अपेक्षाए छे. पारिणामिक स्वभाव छे ते तो त्रिकाळ एकरूप छे, तेमां
कांई ओछुं नथी, विशेष नथी, भेद नथी अने परिणमन पण नथी पण तेनुं लक्ष
पर्यायथी थाय छे. लक्ष करनार पर्याय छे अने लक्ष द्रव्यनुं छे. आम सद्रश वस्तु ते
निश्चयनयनो विषय छे. विसद्रश
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अप्पा–संबोहण कया दोहा इक्क–मणेण ।। १०८।।
एकचित्त दोहा रचे, निज संबोधन काज. १०८.
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आचारज, पाठक, यति, नमूं नमूं सुखदान.
परम भाव परकाशका कारण आत्मविचार,
जिंह निमित्तसे होय सो वंदनिक वारंवार.