Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Ishtopdesh: ,,; Introduction; Avrutti; Param Pujya Adhyatmamoorti Sadgurudevshree Kanjiswami; Prakashakiy Nivedan; PrakAshakiy nivedan (trutiy Avrutti); Anuvadaknu vaktvya; Anukramanika; Shastra Swadhyayka Prarambhik Manglacharan; Shlok: 1-2.

Next Page >


Combined PDF/HTML Page 1 of 8

 


Page -12 of 146
PDF/HTML Page 2 of 160
single page version

background image
भगवानश्रीकुंदकुंद-कहानजैनशास्त्रमाळा, पुष्प-१११
परमात्मने नमः
ः प्रकाशकः
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
ः अनुवादकः
छोटालाल गुलाबचंद गांधी (सोनासण)
बी. ए. (ओनर्स), एस. टी. सी.
मूळ श्लोको, गुजराती पद्यानुवाद
पंडित श्री आशाधर द्वारा विरचित संस्कृत टीका,
तेनो गुजराती अनुवाद तथा
श्री धन्यकुमारजी जैन,(एम.ए.) द्वारा थयेल हिन्दी टीका सहित
श्रीमत्पूज्यपादस्वामिविरचित
इष्टोपदेश

Page -11 of 146
PDF/HTML Page 3 of 160
single page version

background image
प्रथम आवृत्तिप्रतः २०००वि. सं. २०२५
द्वितीय आवृत्तिप्रतः १२००वि. सं. २०४४
तृतीय आवृत्तिप्रतः २०००वि. सं. २०५१
चतुर्थ आवृत्तिप्रतः १५००वि. सं. २०६६
मुद्रक
कहान मुद्रणालय
सोनगढ (सौराष्ट्र)
(02846) 244081
किंमत रुा. २०=००
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रूा. ५१=०० थाय छे. अनेक मुमुक्षुओनी आर्थिक
सहायथी आ आवृत्तिनी किंमत रूा. ४०=०० थाय छे. तेमांथी ५०%
श्री घाटकोपर दिगंबर जैन मुमुक्षु मंडळ, मुंबई तरफथी किंमत घटाडवामां आवता
आ शास्त्रनी किंमत रूा. २०=०० राखवामां आवी छे.
इष्टोपदेशना


स्थायी प्रकाशन-पुरस्कर्ता

स्व. हीराबेन नाथालाल शाह-परिवार, यु.एस.ए.
( 2 )


Page -9 of 146
PDF/HTML Page 5 of 160
single page version

background image
प्रकाशकीय निवेदन
श्री पूज्यपादाचार्यदेव रचित, समाधिनी प्राप्ति करावनारो, अत्युत्तम ग्रन्थ ‘श्री
समाधितंत्र-समाधिशतक’, श्री प्रभाचन्द्राचार्यकृत संस्कृत टीका सहित, गुजराती अनुवादरुपे
आ संस्था द्वारा पहेलां इ.स. १९६६मां प्रसिद्ध थयो छे अने जिज्ञासु भाइ-बहेनोए तेने सारो
आवकार आयो छे. तेनाथी प्रेरणा पामी, ते आचार्यभगवाननी भेदज्ञानमूलक बीजी कृति
‘इष्टोपदेश’, गुजराती अनुवाद सहित, प्रकाशित करतां अत्यानंद थाय छे.
वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा इष्ट(हित)ना उपदेष्टा छे. ते सर्वज्ञवाणी अनुसारे श्री
पूज्यपादाचार्यदेवे ‘इष्टोपदेश’नी रचना करी छे अने तेने अनुसरीने वर्तमानमां
शुद्धस्वरुपजीवी आत्मज्ञ संत पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी, अमोघ आत्मस्पर्शी प्रवचनो
द्वारा निरंतर इष्टोपदेश आपी, आपणने उपकृत करी रह्या छे ते बदल तेमनां पावन
चरणारविंदमां अत्यंत भक्तिभावे नमस्कार!
जेम ‘समाधितंत्र’नो गुजराती अनुवाद सद्धर्मप्रेमी भाइश्री छोटालाल गुलाबचंद गांधी
बी.ए. (ओनर्स), एस.टी.सी. (सोनासणवाळा)ए कर्यो छे तेम आ ‘इष्टोपदेश’नो गुजराती
अनुवाद पण तेमणे ज तैयार करी आयो छे. (तेमनो परिचय ‘समाधितंत्र’ना प्रकाशकीय
निवेदनमां आयो छे.) आ अनुवाद तेमणे जिनप्रवचन प्रत्येनी भक्तिथी प्रेराइने
प्रमुदितभावे, तद्दन निःस्पृहतापूर्वक करी आयो छे. इष्टोपदेशना भावो जाळवी राखवा तेमणे
अत्यंत चीवट राखी छे. ते माटे आ संस्था तेमनी अत्यंत ऋणी छे अने तेमने धन्यवाद आपवा
साथे तेमना प्रत्ये आभार प्रदर्शित करे छे.
ता. ८-२-१९६८साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
( 3 )

Page -8 of 146
PDF/HTML Page 6 of 160
single page version

background image
प्रकाशकीय निवेदन
(तृतीय आवृत्ति)
वीतराग जिनप्रवचनना सूक्ष्म रहस्योथी भरपूर एवा आ ‘इष्टोपदेश’ नामना लघुग्रंथ
उपर, अध्यात्मतत्त्वानुभवी सन्मार्गप्रकाशक परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए आपेलां
अध्यात्मरहस्यभरपूर, अर्थगंभीर तेमज ज्ञानवैराग्यप्रेरक अद्भुत प्रवचनो ‘आत्मधर्म’
मासिक पत्रमां प्रकाशित थयां छे, जे वांचीने, अनेक मुमुक्षुहृदयो प्रभावित थवाथी, केटलाक
मुमुक्षु महानुभावोनी घणा वखतथी अप्राय एवा आ गुजराती संस्करणनी त्रीजी आवृत्ति
छपाववानी मांगणी हती.
अध्यात्मयुप्रवर्तक परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनी पवित्र साधनाभूमि
अध्यात्मतीर्थधाम सुवर्णपुरीमां (सोनगढमां) स्वानुभवविभूषित प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री
चंपाबेननी आत्मसाधना तेमज देवगुरुभक्तिभीनी मंगळ छाया तळे पूर्ववत् जे अनेकविध
धार्मिक गतिविधि प्रवर्ते छे तेना एक अंगरुप सत्साहित्यप्रकाशनविभाग द्वारा जे आर्षप्रणीत
मूळ शास्त्रो तथा प्रवचनग्रंथो वगेरे प्रकाशित करवामां आवे छे ते पैकीनुं आ, ‘इष्टोपदेश’ना
गुजराती संस्करणनी त्रीजी आवृत्तिरुप पुनःप्रकाशन छे.
आ आवृत्तिमां परमश्रुतप्रभावक मंडळ, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास द्वारा प्रकाशित
इष्टोपदेश ग्रंथमांथी श्री धन्यकुमारजी जैन कृत हिन्दी टीकानो पण समावेश करवामां आव्यो छे.
पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीए आ ग्रंथ उपर कल्याणकारी प्रवचनो कर्यां ते समये तेओश्री
समक्ष आ हिन्दी टीका होवाथी मुमुक्षुओने प्रवचनो सांभळवामां अने समजवामां सुलभता रहे
ते हेतुथी आ आवृत्तिमां हिन्दी टीकानो पण समावेश करवामां आव्यो छे. ते बदल अमो
उपरोक्त संस्थानो पण आभार मानीए छीए.
आ आवृत्तिनुं सुंदर मुद्रण वगेरे करी आपवा बदल ‘कहान मुद्रणालय’ना संचालकनो
आभार मानीए छीए.
मुमुक्षु आमांथी सम्यक्प्रकारे इष्ट उपदेश ग्रहण करी सर्व आकुलतारुप दुःखनो नाश
करी निराकुलतारुप सुखनी प्राप्ति करे ए ज भावना.
आसो वद अमास (दीपावली)
भगवान महावीर निर्वाणकल्याणक दिन
वि.सं. २०६५
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
( 4 )

Page -7 of 146
PDF/HTML Page 7 of 160
single page version

background image
अनुवादकनुं वक्तव्य
श्री पूज्यपादाचार्य रचित ‘इष्टोपदेश’ नामनो आ आध्यात्मिक ग्रन्थ भेदज्ञान माटे
अने आत्मानुभव माटे बहु उपयोगी होवाथी तेनो गुजराती अनुवाद आपनी आगळ रजू
करुं छुं.
ग्रन्थना नामनी सार्थकता
‘‘जे वडे सुख पजे वा दुःख विणसे ए कार्यनुं नाम प्रयोजन छे. ए प्रयोजननी
जेनाथी सिद्धि थाय ते ज आपणुं इष्ट छे. हवे आ अवसरमां अमने वीतराग विशेषज्ञाननुं
होवुं ए ज प्रयोजन छे, कारण एनाथी निराकुल सत्य सुखनी प्राप्ति थाय छे अने सर्व
आकुलतारुप दुःखनो नाश थाय छे.(मोक्षमार्ग प्रकाशक गु. आ. पृ. ७)
पंडित दौलतरामजीए ‘छहढाला’मां कह्युं छे केः—
‘‘आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता विन कहिए,
आकुलता शिवमांही न तात, शिवमग लाग्यो चहिए.’’ (३-१)
—आत्मानुं हित सुख छे अने ते आकुळता रहित छे. मोक्षमां आकुळता नथी, तेथी
मोक्षना मार्गमां-तेना उपायमां लाग्या रहेवुं जोइए.
मोक्ष अने तेनो उपाय-ए आपणुं इष्ट छे. तेनो उपदेश आचार्ये यथावत् आ
ग्रन्थमां कर्यो छे, तेथी आ ग्रन्थनुं नाम ‘इष्टोपदेश’—ए सर्वथा योग्य छे.
ग्रन्थनी उपयोगिता
आचार्ये आ ग्रन्थना श्लोक ५१मां कह्युं छे केः-
‘‘पूर्वोक्त प्रकारे ‘इष्टोपदेश’नुं सम्यक् प्रकारे अध्ययन करी, सारी रीते चिंतवन
करीने जे भव्य धीमान् पुरुष आत्मज्ञानना बळथी मान-अपमानमां समताभाव धारण करीने
तथा बाह्य पदार्थोमां विपरीत अभिनिवेशनो त्याग करीने नगर या वनमां विधिपूर्वक वसे
छे ते उपमारहित मुकित-लक्ष्मीने प्राप्त करे छे.’’
ग्रन्थनी विशेषता
आ नानकडो आध्यात्मिक ग्रन्थ छे, परंतु तेमां आचार्ये गागरमां सागर भरी दीधो
छे. तेमां भेदविज्ञानपूर्वक शुद्धात्मानी अनुभूति केवी रीते थाय तेनो मार्ग-उपाय चींध्यो छे.
ए तेनी विशेषता छे.
वळी आ ग्रन्थमां नीचेनी सारभूत बाबतोनो पण निर्देश करवामां आव्यो छेः-
१.उपादान वस्तुनी सहज निजशक्ति छे अने निमित्त तो संयोगरुप कारण छे. कार्य
( 5 )

Page -6 of 146
PDF/HTML Page 8 of 160
single page version

background image
पोताना उपादानथी ज थाय छे. ते वखते तेने अनुकूळ निमित्त होय ज. तेने
शोधवानी या मेळववानी व्यग्रतानी जरुर होय ज नहि.(श्लोक-२)
२.शुद्धात्मानी प्राप्ति-अनुभव न थाय त्यां सुधी पापभावथी बचवा माटे हेयबुद्धिए
पुण्यभाव आवे छे, परंतु ते पण बंधनुं कारण छे एम समजवुं.
(श्लोक-३ अने भावार्थ)
३.मोक्ष माटे प्रवृत्ति करनारने स्वर्गनुं सुख स्हेजे प्राप्त थाय छे. (श्लोक-४)
४.संसारी जीवोनां सुख-दुःख केवळ वासनामात्र ज होय छे. ते सुख-दुःखरुप भोगो
आपत्ति-काले रोग समान उद्वेग पमाडे छे.(श्लोक-६)
कोइ वस्तु सुख-दुःखरुप नथी, परंतु अज्ञानताने लीधे तेमां इष्ट-अनिष्टनी कल्पना
करी जीव राग-द्वेष करी सुख-दुःख अनुभवे छे.
५.मोहथी आ.छादित ज्ञान पोताना स्वभावने प्राप्त थतुं नथी.(श्लोक-७)
६.शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु आदि आत्माथी अन्य (भिन्न) स्वभाववाळां
छे अने आत्माथी प्रत्यक्ष भिन्न छे, छतां मूढ जीव (बहिरात्मा) तेमने पोतानां माने
छे, तेमां आत्मबुद्धि करे छे.(श्लोक-८)
७.मिथ्यात्वयुक्त राग-द्वेष-ए संसार-समुद्रमां बहु लांबा काळ सुधी भ्रमणनुं कारण छे.
(श्लोक-११)
८.दावानळथी बळता वननी मध्यमां वृक्ष उपर बेठेला मनुष्यनी जेम मूढ जीव अन्यनी
माफक पोते पण कोइ दिवस विपत्तिमां आवी पडशे ते विचारतो नथी. (श्लोक-१४)
९.जे ममतावाळो छे ते संसारमां बंधाय छे अने जे ममतारहित छे ते संसारथी छूटे
छे.(श्लोक-२६)
१०.ज्ञानीने मृत्युनो, रोगनो, बाल्यावस्थानो ने वृद्धावस्थानो भय होतो नथी, कारण
के ते समजे छे के ते सर्व पौद्गलिक छे.(श्लोक-२९)
११.ज्ञानी विचारे छे के सर्व पुद्गलोने में मोहवशात् अनेकवार भोगवी भोगवीने
छोड्या हवे ए ऊं.छष्ट पदार्थोमां मने कांइ स्पृहा नथी.(श्लोक-३०)
१२.वस्तुतः आत्मा ज आत्मानो गुरु छे.(श्लोक-३४)
१३.जे अज्ञानी छे ते कोइथी ज्ञानी थइ शकतो नथी अने जे ज्ञानी छे ते कोइथी अज्ञानी
थइ शकतो नथी गुरु आदि तो धर्मास्तिकायवत् निमित्तमात्र छे.(श्लोक-३५)
१४.कार्यनी उत्पत्ति स्वाभाविक गुणनी (पोताना उपादाननी) अपेक्षा राखे छे सेंकडो
उपायो करवा छतां बगलाने पोपटनी जेम शीखवाडी शकातुं नथी.
(श्लोक-३५नी टीका)
( 6 )

Page -5 of 146
PDF/HTML Page 9 of 160
single page version

background image
१५.जेम जेम आत्मानुभव थतो जाय छे, तेम तेम सुलभ विषयो पण रुचता नथी अने
जेम जेम विषयो प्रत्ये अरुचि थाय छे, तेम तेम आत्मानुभवनी परिणति वृद्धि पामती
जाय छे.(श्लोक-३७-३८)
१६.ध्यान-परायण योगीने पोताना देहनुं पण भान होतुं नथी.(श्लोक-४२)
१७.पर ते पर छे, तेनो आश्रय करवाथी दुःख छे अने आत्मा ते आत्मा छे तेनाथी
सुख छे. तेथी महात्माओ आत्मार्थे ज उद्यम करे छे.(श्लोक-४५)
१८.जे अज्ञानी पुद्गलने अभिनंदे छे तेनो केडो (पीछो) चार गतिमां पुद्गल कदी छोडतुं
नथी.(श्लोक-४६)
१९.अविद्याने दूर करवावाळी महान् उत्कृष्ट ज्ञानज्योति छे. मुमुक्षुओए तेना संबंधमां
पृ.छा करवी, तेनी ज वांछा करवी अने तेनो ज अनुभव करवो जोइए. (श्लोक-
४९)
२०.जीव अन्य छे अने पुद्गल अन्य छे-ए तत्त्वकथननो सार छे. बीजुं जे कांइ कहेवामां
आव्युं छे ते बधो ज तेनो विस्तार छे.(श्लोक-५०)
ग्रन्थकर्ता श्री पूज्यपादस्वामी
तेओ कर्णाटक प्रांतना रहीश ब्राह्मणकुलोत्पन्न प्रखर विद्वान् हता. तेओ विद्वान्
हता एटलुं ज नहि पण उ.च कोटिना संयमी हता. तेओ भारत-भूमिमां छठ्ठा सैकाना
पूर्वार्धमां थइ गया—एम विद्वान पंडितोनुं मानवुं छे.
तेमने व्याकरण, न्याय, छंद, ज्योतिष आदिनुं तथा वैद्यक, सैद्धांतिक, साहित्यिक
अने आध्यात्मिक विषयोनुं तलस्पर्शी ज्ञान हतुं. वळी तेमनी विवेचन-शक्ति पण प्रगाढ
हती.
तेमनी कृतिओमां खास करीने जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश
आदि ग्रन्थो, ते ते विषयोमां जैनसमाजमां बहु आधारभूत गणाय छे. आथी जैनसमाज
उपर तेमनो महान उपकार छे.
तेमनी भाषाशैली सरळ अने लालित्यपूर्ण छे तेम ज हृदयस्पर्शी छे. तेमना
जीवनसंबंधी ‘समाधितंत्र’नी प्रस्तावनामां सविस्तार उल्लेख करवामां आव्यो छे. त्यांथी
जाणी लेवा विनंती छे.
संस्कृत टीकाकार पंडितप्रवर श्री आशाधरजी
जन्म-जन्मस्थळ
मारवाडनो मुलक जे सपादलक्ष नामथी जाणीतो हतो तेना मंडळकर नगरमां विद्वान
ऋषितुल्य कवि आशाधरजीनो जन्म लगभग वि.सं. १२३० थी ३५ सुधीमां थयो हतो.
( 7 )

Page -4 of 146
PDF/HTML Page 10 of 160
single page version

background image
माता-पिता-पत्नी-पुत्र
जेमना पितानुं नाम श्री सल्लक्षण हतुं. तेओ जैनकुळना वाधेरमाल वंशना हता.
तेमनी मातानुं नाम श्रीरत्नी हतुं.
तेओ ‘सरस्वती पुत्र’ बिरुदने योग्य हता. तेमनी पत्नीनुं नाम सरस्वती अने
तेमना एकना एक पुत्रनुं नाम छाहड हतुं. ते अर्जुन राजानो मित्र हतो. ते पण विद्वान
अने गुणवान हतो.
पंडितजी ए काळना कालिदास कवि समान हता तेओ जन्मथी असाधारण प्रज्ञावाळा
हता.
ज्यारे म्ले.छ राजा शाहबुद्दिन घोरीए पृथ्वीराजने हरावी दिल्हीमां पोतानी
राजधानी स्थापी, त्यारे सपादलक्ष देशमां मुसलमानी राज्य व्यापी गयुं. ते अरसामां एटले
सं. १२४९मां मुसलमानोना त्रासथी बचवा पोताना परिवार साथे सपादलक्ष देश छोडी
माळवानी राजधानी धारानगरीमां तेओ आवी वस्या. ते वखते माळवामां परमार वंशना
प्रतापी राजा विन्ध्यवर्मानुं राज्य हतुं. त्यां धर्म, अर्थ अने काम-ए त्रण पुरुषार्थनी साधना
करवानी सारी तक मळी.
धारानगरीमां पं. धरसेनना शिष्य पं. महावीर पासे आशाधरजीए जैनेन्द्र
व्याकरणनुं अध्ययन कर्युं हतुं. तेओ व्याकरण, न्याय, काव्य अने धर्मशास्त्रादिना विषयमां
पारंगत हता अने ते ते विषयोमां सेंकडो शिष्योने तेमणे निष्णात बनाव्या हता. तेओ
गृहस्थ हता छतां मोटा मोटा अनेक मुनिओ तेमनी पासे विद्याध्ययन करीने पोतानी
विद्यातृष्णा तृप्त करता हता.
तेमना रचेला ग्रन्थोमां जिनयज्ञकल्प, सागारधर्मामृत अने अनगारधर्मामृत-ए त्रण
ग्रन्थो दि. जैन संप्रदायमां सुप्रसिद्ध छे. तेमणे पोताना पिताना आदेशथी ‘अध्यात्मरहस्य’
नामना आध्यात्मिक ग्रन्थनी पण रचना करी हती.
तेमणे मूलाचार, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, भूपाल-चतुवशति स्तवन,
सहस्रनाम स्तवन, जिनयज्ञकल्पदीपका, त्रिषष्ठिस्मृति आदि ग्रन्थोनी टीकाओ रची छे. तेमने
वैद्यकनुं पण उत्तम ज्ञान हतुं.
तेमनी रचेली ‘इष्टोपदेश’नी संस्कृत टीकानो अहीं अक्षरशः गुजराती अनुवाद
करवामां आव्यो छे.
ग्रन्थकार अने टीकाकारना भावने वधु स्पष्ट करवा माटे अनुवाद साथे भावार्थ तथा
‘विशेष’ पण आपवामां आव्यो छे. दरेक श्लोकनो गुजराती पद्यानुवाद पण नीचे उमेरवामां
आव्यो छे.
आभार
संस्कृत टीकानी भाषा तो सरल छे, छतां कोइ कोइ ठेकाणे टीकाकारनो भाव स्पष्ट
( 8 )

Page -3 of 146
PDF/HTML Page 11 of 160
single page version

background image
समजायो नथी त्यां विद्वान पंडितवर्य श्रीयुत हिंमतलाल जे. शाहनी मददथी तेने योथायोग्य
स्पष्ट करवा अहीं प्रयत्न कर्यो छे. तेमनी सहाय माटे हुं तेमनो अत्यंत ऋणी छुं.
आ अनुवाद तेना योग्य काळे तेना कारणे प्रगट थाय छे, तेमां परम अध्यात्ममूर्ति
परमपूज्य श्री कानजीस्वामीनो धारावाही आध्यात्मिक प्रसाद शुभ निमित्तरुप छे. एम हुं
विनयभावे स्वीकारी तेओश्रीने साभार वंदन करुं छुं. भक्तामर-स्तोत्रमां कह्युं छे केः-
‘यत् कोकि लः कि ल मधो मधुरं विरौति,
तच्चाम्रचारुक लिकानिक रैक हेतुः। ’
भाव ए छे के वसंतऋतुमां कोयल जे मधुरपणे टहूके छे, तेमां आंबाना महोरनी
चारु मंजरी एक हेतु छे-निमित्तकारण छे, तेम आ इष्टोपदेश काव्यमंजरीना उद्घाटनमां
उपरोक्त महा आत्मज्ञ संतनो सदुपदेश पण निमित्त छे. आथी तेओश्री प्रत्ये बहुमान
दर्शाववा सहज प्रेरणा थाय ए स्वाभाविक छे.
धर्मवत्सल मुरब्बी मान्यवर श्रीयुत रामजीभाइ माणेकचंद दोशी वकीले तथा
सद्धर्मप्रेमी सौजन्यमूर्ति श्रीयुत खीमचंदभाइ जे. शेठे—बन्नेए पोताना अमूल्य समयनो
भोग आपी आ अनुवाद बराबर तपासी लइ जे मार्गदर्शन कर्युं छे ते माटे हुं तेओश्रीनो
अत्यंत आभारी छुं, तेओश्रीनी सहाय अने सहानुभूति विना आ अनुवादनुं कार्य प्रकाशमां
आववुं मुश्केल हतुं.
ब्र. गुलाबचंदभाइए ‘इष्टोपदेश’नो गुजराती अनुवाद तपासी जइ तेमां योग्य
सुधारो-वधारो करी जे सुंदरता आणी छे तथा छपाववाना कार्यमां सलाह-सूचन अने मदद
करी जे वात्सल्यभाव दर्शाव्यो छे ते भूली शकाय तेम नथी. तेमनो पण हुं आभार मानुं
छुं.
आ अनुवाद-कार्यना प्रकाशनमां जे सज्जनो तरफथी मने प्रत्यक्ष या परोक्ष
प्रोत्साहन अने सहाय मळी छे ते सर्वेनो हुं समग्रपणे आभार मानुं छुं.
अनुवादक
छोटालाल गु. गांधी (सोनासण)
बी.ए.(ओनर्स). एस.टी.सी.
( 9 )

Page -2 of 146
PDF/HTML Page 12 of 160
single page version

background image
विषयानुक्रमणिका
श्लोक विषयपृष्ठ
( 10 )
ग्ूुॅज्ञ्ुॅरि्
विषयानुक्रमणिका
मंगलाचरण (सिद्धात्माने नमस्कार) ------------------------------------------------------- २
२.स्वस्वरुपनी प्राप्ति केवी रीते थाय ---------------------------------------------------------- ४
३.व्रतादिनुं अनुष्ठान निरर्थक नथी. ----------------------------------------------------------- ८
४.मोक्षार्थीने स्वर्गादिनुं सुख पण सुलभ होय छे ------------------------------------------ ११
५.आत्मभक्तिथी स्वर्गनी प्राप्ति थतां, त्यां शुं फळ मळे छे? ------------------------------- १४
६.सांसारिक सुखनी अवास्तविकता --------------------------------------------------------- १७
७.वासनाजन्य सुख-दुःखनी यथार्थ प्रतीति केम थती नथी? -------------------------------- २२
८.शरीरादिने मूढ केवां माने छे? शाथी? --------------------------------------------------- २५
९.हितकारक मनाता स्त्री-पुत्रादिना संयोगनुं द्रष्टांत ---------------------------------------- २८
१०.अहित वर्ग कोपने पात्र नथी तेनुं द्रष्टांत ------------------------------------------------ ३१
११.हित-अहित पदार्थोमां राग-द्वेष करवानुं परिणाम --------------------------------------- ३३
१२.सांसारिक सुखनुं वास्तविक स्वरुप ------------------------------------------------------- ३८
१३.संसारी जीवो शानाथी सुख माने छे? ---------------------------------------------------- ४०
१४.कष्टदायक संपदाने लोको केम छोडता नथी? ---------------------------------------------- ४३
१५.धनार्थी आगामी आपदाने देखतो नथी --------------------------------------------------४५
१६.जेनाथी पुण्योपार्जन थाय ते धन निंद्य केम होइ शके? ---------------------------------- ४७
१७.भोगोपभोगने माटे पण धननी साधना प्रशस्य नथी ------------------------------------ ५१
१८.कायसंबंधी विचार ----------------------------------------------------------------------- ५६
१९.धनादिथी शुं आत्म-उपकार थइ शकशे? ------------------------------------------------- ५८
२०.ध्यानथी सांसारिक सुखनी अने मोक्ष-सुखनी
प्राप्त थती होय तो विवेकी कोनी पसंदगी करशे? ----------------------------------------- ६१
२१.आत्मानुं स्वरुप -------------------------------------------------------------------------- ६३
२२.आत्मानी उपासना केवी रीते करवी? ---------------------------------------------------- ६८
२३.आत्मानी उपासनानुं प्रयोजन शुं? ------------------------------------------------------- ७२
२४.आत्मामां लीन ज्ञानीने शुं लाभ थाय छे? ----------------------------------------------- ७४
२५.ध्यान-ध्येयरुप आत्माने संयोगादिना संबंधनो अभाव छे ------------------------------- ८०
२६.बंध-मोक्षनुं कारण ------------------------------------------------------------------------ ८४
२७.निर्ममत्वभावना चिंतवननो उपाय ---------------------------------------------------- ८८
२८.दुःखना कारणभूत देहादिना परित्यागनो निर्देश ----------------------------------------- ९०

Page -1 of 146
PDF/HTML Page 13 of 160
single page version

background image
श्लोकविषयपृष्ठ
( 11 )
२९.कइ भावनाथी जन्म-मरणनां दुःख दूर थाय? ------------------------------------------- ९३
३०.उि.छष्ट भोगोमां ज्ञानीने केम स्पृहा होय? --------------------------------------------- ९५
३१.पुद्गल कर्मोनो बंध जीव साथे केवी रीते थाय छे? -------------------------------------- ९७
३२.परोपकारी मटी स्वोपकारी बन. ------------------------------------------------------- १०१
३३.स्व-परना भेदविज्ञाननो उपाय अने तेनुं फळ ----------------------------------------- १०३
३४.आत्मा ज आत्मानो गुरु केम छे? ----------------------------------------------------- १०५
३५.आत्मा सिवाय अन्य गुरु निमित्तमात्र छे. -------------------------------------------- १०८
३६.आत्मस्वरुपना अभ्यासनो उपाय ----------------------------------------------------- ११२
३७.योगीने स्व-परनी संवित्ति छे ते जाणवानो उपाय. ------------------------------------ ११५
३८.विषयो प्रत्येनी अरुचि-ए आत्मसंवित्तिनुं चि छे ---------------------------------- ११७
३९.आत्मसंवित्तिना अन्य चिो ----------------------------------------------------------- ११९
४०.आत्मसंवित्तिना अन्य चिो ----------------------------------------------------------- १२१
४१.आत्मतत्त्वमां स्थिर थयेला योगीनुं स्वरुप --------------------------------------------- १२३
४२.योगीने स्वदेह प्रत्ये पण लक्ष होतुं नथी. ---------------------------------------------- १२५
४३.योगीने आवी अवस्था केम थाय छे? -------------------------------------------------- १२७
४४.स्वात्मानुभवमां रति होवाथी योगीने अन्य प्रवृत्तिमां अभाव ------------------------ १२९
४५.महात्माओ शाने माटे उद्यमी होय छे? शाथी? ---------------------------------------- १३०
४६.देहादिने अभिवंदवानुं फळ ------------------------------------------------------------ १३२
४७.स्वात्मध्याननुं फळ --------------------------------------------------------------------- १३४
४८.आत्मानंदनुं कार्य ----------------------------------------------------------------------- १३५
४९.आत्मज्योति माटे मुमुक्षुए शुं करवुं? ------------------------------------------------- १३६
५०.जीव-पुद्गलनुं भेदज्ञान ते ज तत्त्वसंग्रह छे बाकी बधो तेनो विस्तार छे ------------- १३८
५१.शास्त्र-अध्ययननुं साक्षात् अने परंपरा फळ. ------------------------------------------- १४०
टीका-प्रशस्ति -------------------------------------------------------------------------- १४२
पद्यानुक्रमसूची -------------------------------------------------------------१५८

Page 0 of 146
PDF/HTML Page 14 of 160
single page version

background image
नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्र-स्वाध्यायका प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं,
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीइष्टोपदेशनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीपूज्यपादस्वामिविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
।।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।।।

Page 1 of 146
PDF/HTML Page 15 of 160
single page version

background image
श्रीमद्देवनन्द्यपरनामपूज्यपादस्वामिविरचितः
इष्टोपदेशः
(पंडितश्रीआशाधरविनिर्मितसंस्कृतटीकासहितश्च)
टीकाकारस्य मंगलाचरणम्
परमात्मानमानम्य मुमुक्षुः स्वात्मसंविदे
इष्टोपदेशमाचष्टे स्वशक्त्याशाधरः स्फु टम् ।।
तत्रादौ यो यद्गुणार्थी स तद्गुणोपेतं पुरुषविशेषं नमस्करोतीति परमात्मगुणार्थी ग्रन्थकर्त्ता
परमात्मानं नमस्करोति
जो जिस गुणको चाहनेवाला हुआ करता है, वह उस उस गुण संपन्न पुरुष
विशेषको नमस्कार किया करता है यह एक सामान्य सिद्धान्त है परमात्माके गुणोंको
चाहनेवाले ग्रन्थकार पूज्यपादस्वामी हैं, अतः सर्वप्रथम वे परमात्माको नमस्कार करते हैं
अर्थजिसको सम्पूर्ण कर्मोंके अभाव होने पर स्वयं ही स्वभावकी प्राप्ति हो गई
है, उस सम्यक्ज्ञानरूप परमात्माको नमस्कार हो
श्रीमद् देवनन्दीअपरनामपूज्यपादस्वामी विरचित
£ष्टोपदेश
(श्री पंडित आशाधरकृत संस्कृतटीका सहित)
गुजराती अनुवाद
सं. टीकाकारनुं मंगलाचरण
अर्थ :निज आत्मसंवेदन माटे परमात्माने नमीने पोतानी शक्ति अनुसार मुमुक्षु
पं. आशाधर (टीका द्वारा) ‘इष्टोपदेश’ स्पष्ट समजावे छे.
टीका :तेनी (ग्रन्थनी) आदिमां, जे जे गुणोनो अर्थी छे ते ते गुणोयुक्त
पुरुषविशेषने नमस्कार करे छे. तेथी परमात्माना गुणोना अर्थी ग्रन्थकर्ता (श्री
पूज्यपादस्वामी) परमात्माने नमस्कार करे छे.

Page 2 of 146
PDF/HTML Page 16 of 160
single page version

background image
तद्यथा
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।।।।
टीकाअस्तु भवतु किं तत् ? नमःनमस्कारः, कस्मै, तस्मै परमात्मने परमः
अनाध्येयाप्रहेयातिशयत्वात्सकलसंसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा चेतनः परमात्मा तस्मै किं
विशिष्टाय संज्ञानरूपाय सम्यक्सकलार्थसाक्षात्कारित्वादिवदत्यन्तसूक्ष्मत्वादीनामपि लाभात्कर्म-
हन्तृत्वादेरपि विकारस्य त्यागाच्च सम्पूर्णज्ञानं स्वपरावबोधस्तदेवरूपं यस्य तस्मै
एवमाराध्य-
स्वरूपमुक्त्वा तत्प्राप्त्युपायमाह यस्याभूत्काऽसौ ?स्वभावाप्तिःस्वभावस्य निर्मलनिश्चलचिद्रूप-
स्य आप्तिर्लब्धिः कथंचित्तादात्म्यपरिणतिःकृतकृत्यतया स्वरूपेऽवस्थितिरित्यर्थः केन, स्वयं
स्वयं कर्म सब नाश करि, प्रगटायो निजभाव
परमातम सर्वज्ञको, वंदो करि शुभ भाव ।।।।
विशदार्थजिसे आत्माकी परतन्त्रता (पराधीनता)के कारणभूत द्रव्य एवं भावरूप
समस्त कर्मोंके, सम्पूर्ण रत्नत्रयात्मक स्वरूपके द्वारा, सर्वथा नष्ट हो जानेसे निर्मल निश्चल
चैतन्यरूप स्वभाव (कथंचित् तादात्म्य परिणति)की प्राप्ति हो गई है, उस सम्पूर्ण
ते आ प्रमाणे छेः
सकल कर्मनो क्षय करी, पाम्या स्वयं स्वभाव,
सर्वज्ञानी परमात्मने, नमुं करी बहु भाव. १.
अन्वयार्थ :[यस्य ] जेमने, [कृत्स्न कर्मणः अभावे ] संपूर्ण कर्मोनो अभाव थतां,
[स्वयं स्वभावाप्तिः ] स्वयं स्वभावनी प्राप्ति थई गई छे, [तस्मै ] ते [संज्ञानरूपाय ]
सम्यक्ज्ञानरूप [परमात्मने ] परमात्माने [नमः अस्तु ] नमस्कार हो.
टीका :हो. शुं ते? नमस्कार. कोने? ते परमात्माने. अनारोपी अप्रतिहत
अतिशयपणाने लीधे परम एटले सकल संसारी जीवोथी उत्कृष्ट अने आत्मा एटले चेतन
तेवा परमात्माने. केवा (परमात्माने)? सम्यक्ज्ञानरूप (परमात्माने)सम्यक् प्रकारे सर्व
पदार्थोनो साक्षात्कार करवाथी अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ आदिने जाणवाथी तथा कर्मोना
विनाशादिथी, विकारना त्यागने लीधे (प्राप्त थयुं छे) संपूर्णज्ञान
स्वपरज्ञानते ज जेनुं
स्वरूप छेतेमने.
२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

Page 3 of 146
PDF/HTML Page 17 of 160
single page version

background image
सम्पूर्णरत्नत्रयात्मनात्मना क्क सति, अभावे शक्तिरूपतया विनाशे कस्य, कृत्स्नकर्मणः
कृत्स्नस्य सकलस्य द्रव्यभावरूपस्य कर्मणः आत्मपारतंत्र्यनिमित्तस्य ।।।।
अथ शिष्यः प्राहस्वस्य स्वयं स्वरूपोपलब्धिः कथमिति ? स्वस्यात्मनःस्वयमात्मना
केवलज्ञानस्वरूप आत्माको जो कि मुख्य एवं अप्रतिहत अतिशयवाला होनेसे समस्त
सांसारिक प्राणियोंसे उत्कृष्ट है, नमस्कार हो
।।।।
‘‘स्वयं स्वभावाप्तिः’’ इस पदको सुन शिष्य बोलाकि ‘‘आत्माको स्वयं ही
सम्यक्त्व आदिक अष्ट गुणोंकी अभिव्यक्तिरूप स्वरूपकी उपलब्धि (प्राप्ति) कैसे (किस
उपायसे) हो जाती है ? क्योंकि स्व-स्वरूपकी स्वयं प्राप्तिको सिद्ध करनेवाला कोई दृष्टान्त
ए रीते आराध्यनुं (परमात्मानुं) स्वरूप कहीने तेनी प्राप्तिनो उपाय कहे छे
जेमने थई. शुं ते? स्वभावनी प्राप्तिअर्थात् स्वभावनी एटले निर्मळ निश्चल
चिद्रूपतेनी प्राप्ति-लब्धि, कथंचित् तादात्म्य परिणति; कृतकृत्यपणाने लीधे स्वरूपमां
अवस्थितिएवो अर्थ छे. शा वडे? स्वयं संपूर्ण रत्नत्रयात्मक आत्मा वडे. शुं थतां?
अभाव थतां अर्थात् शक्तिरूपपणे विनाश थतां. कोनो? संपूर्ण कर्मनोअर्थात् आत्मानी
परतंत्रताना निमित्तभूत द्रव्यभावरूप समस्त कर्मोनो.
भावार्थ :सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पूर्णता वडे आत्मानी परतंत्रताना कारणभूत
समस्त कर्मोनोज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मोनो राग-द्वेषादि भावकर्मोनो अने शरीरादि
नोकर्मोनोजेमने सर्वथा अभाव छे अने जेमणे पोताना चिदानंद, विज्ञानघन, निर्मळ,
निश्चल, टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप स्वभावने प्राप्त कर्यो छे; तेवा पोताना आराध्य सिद्ध
परमात्माने आचार्ये नमस्कार कर्या छे.
अष्टकर्मरहित, अष्टगुणसहित, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन परमात्मा ते आराधकने माटे
संपूर्णतानो आदर्श छे. ते आदर्शने पोतानामां मूर्तिमंत करवो ते नमस्कार करवानो हेतु छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते ज सिद्धस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय छे. एम
आचार्ये गर्भितपणे आ श्लोकमां दर्शाव्युं छे. १.
हवे शिष्य कहे छे,‘‘पोताने स्वयं स्वरूपनी प्राप्ति केवी रीते थाय? पोताना
आत्माने स्वयं एटले आत्मा वडे स्वरूपनी अर्थात् सम्यक्त्वादि आठ गुणोनी
अभिव्यक्तिरूप (प्रगटतारूप) उपलब्धि (प्राप्ति) केवी रीते एटले क्या उपाय वडे थाय
छे? कारण के द्रष्टान्तनो अभाव छे.’’
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३

Page 4 of 146
PDF/HTML Page 18 of 160
single page version

background image
स्वरूपस्य सम्यक्त्वादिगुणाष्टकाभिव्यक्तिरूपस्य उपलब्धिः कथं केनोपायेन दृष्टान्ताभावादिति ?
आचार्यः समाधत्ते
योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता
द्रव्यादि-स्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ।।।।
टीकामता अभिप्रेता लोकैः कासौ ? स्वर्णता सुवर्णभावः कस्य, दृषदः
शिष्यने पूछवानो आशय ए छे के स्वस्वरूपनी स्वयं प्राप्तिने सिद्ध करे, तेवा
द्रष्टान्तनो अभाव छे, तो द्रष्टांत विना ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ए कथनने साचुं केवी रीते
मानी शकाय?
आचार्य तेनुं समाधान करे छे
योग्य उपादाने करी, पत्थर सोनुं थाय,
तेम सुद्रव्यादि करी, जीव शुद्ध थई जाय.
अन्वयार्थ :[यथा ] जेम [योग्योपादानयोगेन ] योग्य उपादान (कारण)ना योगथी
[दृषदः ] पाषाणने (सुवर्ण पाषाणने) [स्वर्णता ] सुवर्णपणुं [मता ] मानवामां आव्युं छे,
[तथा ] तेम [आत्मनः अपि ] आत्माने पण [द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तौ ] सुद्रव्य-क्षेत्रादि वा स्वद्रव्य-
क्षेत्रादिनी सम्पत्ति होतां [आत्मता ] आत्मपणुं अर्थात् निर्मळ निश्चल चैतन्यभाव [मता ]
मानवामां आव्यो छे.
टीका :लोको माने छेअभिप्राय धरावे छे. शुं ते (माने छे)? स्वर्णता
सुवर्णभाव. कोने (माने छे)? पाषाणने अर्थात् जेमां सुवर्ण प्रगट थवानी योग्यता छे तेवा
नहीं पाया जाता है, और बिना दृष्टान्तके उपरिलिखित कथनको कैसे ठीक माना जा सकता
है ? आचार्य इस विषयमें समाधान करते हुए लिखते हैं कि
स्वर्ण पाषाण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय
सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय ।।।।
अर्थयोग्य उपादान कारणके संयोगसे जैसे पाषाणविशेष स्वर्ण बन जाता है, वैसे
जइसोहण जोएणं सुद्धं हेमं हवइ जह तह य
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ।।२४।।(मोक्षपाहुड)
४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

Page 5 of 146
PDF/HTML Page 19 of 160
single page version

background image
सुवर्णाविर्भावयोग्यपाषाणस्य केन, योग्यानां सुवर्णपरिणामकरणोचितानां उपादानानां कारणानां
योगेन मेलापकेन संपत्त्या यथा एवमात्मनोऽपि पुरुषस्यापि न केवलं दृषदः इत्यपि शब्दार्थः
मता कथिता कासौ ? आत्मताआत्मनो जीवस्य भावो निर्मलनिश्चलचैतन्यम् कस्यां सत्यां ?
द्रव्यादिस्वादिसंपत्तौ द्रव्यमन्वयिभावः आदिर्येषां क्षेत्रकालभावानां ते च ते स्वादयश्च सुशब्दः
स्वशब्दो वा आदिर्येषां ते स्वादयो द्रव्यादयश्च स्वादयश्च इच्छातो विशेषणविशेष्यभावः इति
समासः सुद्रव्यं सुक्षेत्रं सुकालः सुभाव इत्यर्थः सुशब्दः प्रशंसार्थः प्राशस्त्यं चात्र प्रकृत-
पाषाणने. शा वडे? जेम योग्य एटले सुवर्णना परिणाम करवाने उचित उपादान कारणोना
योगथी एटले मेलापथी
सम्पत्तिथी (सुवर्णतानो आविर्भाव माने छे) तेम आत्माने पण
एटले पुरुषने पण [केवळ पाषाणने नहि, पुरुषने पणएम अपि शब्दनो अर्थ छे.]
मानवामां आवे छेकहेवामां आवे छे. शुं ते (मानवामां आवे छे)? आत्मताआत्मानो
जीवनो भावनिर्मळ निश्चल चैतन्यभाव. शुं होतां? द्रव्यादि स्वादिनी सम्पत्ति होतां; द्रव्य
अन्वयिभाव, आदिजे क्षेत्र-काल-भाव छे तेनी आदिमांद्रव्य छे ते (द्रव्यादि) तथा
स्वादि एटले सुशब्द अथवा स्वशब्द जेमनी आदिमां ते सुआदि द्रव्यादि वा स्वादि
द्रव्यादि
इच्छानुसार विशेषण-विशेष्यभावरूप समाससुभाव एवो अर्थ छे. सुशब्द
प्रशंसाना अर्थमां छे. प्रकृत (मुख्य) कार्यनुं उपयोगीपणुं ते प्रशस्यपणुं छे. द्रव्यादि-स्वादिनी
एटले स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावनी सम्पत्ति एटले संपूर्णता
ते होतां (आत्माने निर्मळ
चैतन्यस्वरूप आत्मानी प्राप्ति थाय छे.)
भावार्थ :अनादि काळथी सुवर्ण पाषाणमां शक्तिरूपे सुवर्ण विद्यमान छे. तेने जेम
स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप योग्य उपादान कारणनो (कार्योत्पादनना समर्थ कारणनो) योग
बनतां ते सुवर्ण व्यक्तिरूपे प्रगट थाय छे, तेम आ आत्मामां पण शुद्ध निश्चयनयथी
केवळज्ञान दर्शनादि स्वभाववाळो परमात्मा शक्तिरूपे रहेलो छे. तेने स्वद्रव्यादिरूप कारणनो
योग बनतां, ते व्यक्तिरूपे स्वयं परमात्मा बने छे
अर्थात् आ आत्मा निज
ही सुद्रव्य सुक्षेत्र आदि रूप सामग्रीके मिलने पर जीव भी चैतन्यस्वरूप आत्मा हो जाता है
विशदार्थयोग्य (कार्योत्पादनसमर्थ) उपादान कारणके मिलनेसे
पाषाणविशेषजिसमें सुवर्णरूप परिणमने (होने)की योग्यता पाई जाती है वह जैसे स्वर्ण
बन जाता है, वैसे ही अच्छे (प्रकृत कार्यके लिए उपयोगी) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी
सम्पूर्णता होने पर जीव (संसारी आत्मा) निश्चल चैतन्यस्वरूप हो जाता है
दूसरे शब्दोंमें,
संसारी प्राणी जीवात्मासे परमात्मा बन जाता है
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५

Page 6 of 146
PDF/HTML Page 20 of 160
single page version

background image
उपादानशक्तिथी ज परमात्मा बने छे.
विशेष
निज उपादानथी ज कार्य थाय छे. ते संबंधमां समाधितंत्र श्लोक (९९)नी टीकामां
टीकाकार लखे छे के‘‘.....परमार्थे स्वतः ज (पोतानी मेळे ज)आत्माथी ज
(परमात्मपदनी प्राप्ति थाय छे) पण गुरु आदि बाह्य निमित्तो वडे नहि...’’
प्रस्तुत श्लोकमां ‘स्वतः एव’ शब्दो घणा अर्थसूचक छे. ते बतावे छे के परमात्मानी
प्राप्ति, पोतानाथी ज पोतानामांथी ज पोताना पुरुषार्थथी ज थाय छे. तेमां तीर्थंकर भगवान
आदिनी दिव्यध्वनि, गुरुनो उपदेशादि बाह्य निमित्तो होवा छतां ते निमित्तोथी निरपेक्षपणे
परमपदनी प्राप्ति थाय छे.
निमित्त होवा छतां, निमित्तथी निरपेक्ष उपादाननुं परिणमन होय छे. विकारी अने
अविकारी पर्याय संबंधमां जयधवल पुस्तक ७मां कह्युं छे के
वज्झकारणणिरवेक्खे वथ्थुपरिणामो।
वस्तुनुं परिणाम बाह्य कारणोथी निरपेक्ष होय छे.(पृ. ११७पेरा २४४)
उपादान वस्तुनी सहज शक्ति छे अने निमित्त तो संयोगरूप कारण छे. कार्य पोताना
उपादानमांथी ज थाय. ते वखते तेने अनुकूळ निमित्त होय ज. तेने शोधवानी या तेने भेगुं
करवानी व्यग्रतानी जरूर होय ज नहि. २
पछी शिष्य कहे छे, ‘‘भगवान्! तो व्रतादि निरर्थक ठरशे. जो सुद्रव्यादिरूप सामग्री
होतां ज आ (संसारी) आत्मा पोताना आत्मस्वरूपने प्राप्त करशे, तो व्रतो एटले
हिंसाविरति जेनी आदिमां छे ते समिति आदि निरर्थक-निष्फळ बनशे, कारण के (आपना
कथनानुसार) वांछित स्वात्मानी उपलब्धि (प्राप्ति) सुद्रव्यादि
सम्पत्तिनी अपेक्षा राखे छे
एवो अर्थ छे (अर्थात् स्वद्रव्यादि स्वचतुष्टयरूप सामग्रीथी ज स्वस्वरूपनी उपलब्धि थई
शंकाइस कथनको सुन शिष्य बोला कि भगवन् ! यदि अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भावरूप सामग्रीके मिलनेसे ही आत्मा स्व स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, तब फि र व्रत समिति
कार्योपयोगित्वं द्रव्यादिस्वादीनां सम्पत्तिः संपूर्णता, तस्यां सत्याम् ।।।।
अथ शिष्यः प्राहतर्हि व्रतादीनामानर्थक्यमिति भगवन् ! यदि सुद्रव्यादिसामग्रयां
सत्यामेवायमात्मा स्वात्मानमुपलप्स्यते तर्हि व्रतानि हिंसाविरत्यादीनि आदयो येषां समित्यादीनां
६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-