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आ शास्त्रनी किंमत रूा. २०=०० राखवामां आवी छे.
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तच्चाम्रचारुक लिकानिक रैक हेतुः। ’
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीइष्टोपदेशनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीपूज्यपादस्वामिविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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पूज्यपादस्वामी) परमात्माने नमस्कार करे छे.
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हन्तृत्वादेरपि विकारस्य त्यागाच्च सम्पूर्णज्ञानं स्वपरावबोधस्तदेवरूपं यस्य तस्मै
चैतन्यरूप स्वभाव (कथंचित् तादात्म्य परिणति)की प्राप्ति हो गई है, उस सम्पूर्ण
विनाशादिथी, विकारना त्यागने लीधे (प्राप्त थयुं छे) संपूर्णज्ञान
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सांसारिक प्राणियोंसे उत्कृष्ट है, नमस्कार हो
उपायसे) हो जाती है ? क्योंकि स्व-स्वरूपकी स्वयं प्राप्तिको सिद्ध करनेवाला कोई दृष्टान्त
परमात्माने आचार्ये नमस्कार कर्या छे.
अभिव्यक्तिरूप (प्रगटतारूप) उपलब्धि (प्राप्ति) केवी रीते एटले क्या उपाय वडे थाय
छे? कारण के द्रष्टान्तनो अभाव छे.’’
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है ? आचार्य इस विषयमें समाधान करते हुए लिखते हैं कि
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योगथी एटले मेलापथी
द्रव्यादि
एटले स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावनी सम्पत्ति एटले संपूर्णता
बनतां ते सुवर्ण व्यक्तिरूपे प्रगट थाय छे, तेम आ आत्मामां पण शुद्ध निश्चयनयथी
केवळज्ञान दर्शनादि स्वभाववाळो परमात्मा शक्तिरूपे रहेलो छे. तेने स्वद्रव्यादिरूप कारणनो
योग बनतां, ते व्यक्तिरूपे स्वयं परमात्मा बने छे
सम्पूर्णता होने पर जीव (संसारी आत्मा) निश्चल चैतन्यस्वरूप हो जाता है
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आदिनी दिव्यध्वनि, गुरुनो उपदेशादि बाह्य निमित्तो होवा छतां ते निमित्तोथी निरपेक्षपणे
परमपदनी प्राप्ति थाय छे.
करवानी व्यग्रतानी जरूर होय ज नहि. २
हिंसाविरति जेनी आदिमां छे ते समिति आदि निरर्थक-निष्फळ बनशे, कारण के (आपना
कथनानुसार) वांछित स्वात्मानी उपलब्धि (प्राप्ति) सुद्रव्यादि