Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 3-8.

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तेषामानर्थक्यं निष्फलत्वं स्यादभिप्रेतायाः स्वात्मोपलब्धेः सुद्रव्यादिसम्पत्त्यपेक्षत्वादित्यर्थः
अत्राचार्यो निषेधमाहतन्नेति वत्स ! यत्त्वया शंकितं व्रतादीनामानर्थक्यं तन्न भवति
तेषामपूर्वाशुभकर्मनिरोधेनोपार्जिताशुभकर्मैकदेशक्षपणेन च सफलत्वात्तद्विषयरागलक्षणशुभोपयोग-
जनितपुण्यस्य च स्वर्गादिपदप्राप्तिनिमित्तत्वादेव
एतदेव च व्यक्तीकर्त्तुं वक्ति
जशे, तो अहिंसादि व्रतोनुं तथा समिति आदिनुं अनुष्ठान निरर्थक थई जशे.)
अहीं, आचार्य तेनो निषेध करी कहे छे केः
‘‘हे वत्स! तेम नथी. तें जे व्रतादिनी निष्फळता विषे शंका करी छे ते ठीक नथी,
कारण के नवां अशुभ कर्मोना निरोधथी अने उपार्जित अशुभ कर्मोना एकदेश क्षपणथी
तेओ सफळ छे, एटलुं ज नहि पण ते विषय संबंधी (व्रत संबंधी) अनुरागरूप
शुभोपयोगथी उत्पन्न पुण्य, स्वर्गादि पदनी प्राप्तिमां निमित्त होवाथी तेमनी (व्रतादिनी)
सफळता छे. आने ज (आ वातने ज) स्पष्ट करवा आचार्य कहे छे
[सुद्रव्यादिना योगथी धर्मीने जेटला अंशे शुद्धि प्रगटे तेटला अंशे तो नवां कर्मोनो
निरोध थाय छे, पण अशुभभावथी बचवा माटे अस्थिरताने लीधे जेटला अंशे व्रतादिनो
शुभभाव आवे छे, तेटला अंशे तेना निमित्ते पुण्यकर्मनो बंध थाय छे अने पूर्वोपार्जित
अशुभ कर्मोमांथी केटलाक कर्मोनुं संक्रमण थई शुभकर्म
पुण्यकर्मरूपे परिणमे छे.
पुण्यकर्मना फलस्वरूप स्वर्गादिनी प्राप्ति थाय छे. तेथी व्रतादिनी, ए अपेक्षाए
सफळता छे, परंतु तेनाथी संवर-निर्जरा नहि थती होवाथी तेनी, ए अपेक्षाए असफळता
छे.]
आदिका पालन करना निष्फल (निरर्थक) हो जाएगा व्रतोंका परिपालन कर व्यर्थमें ही
शरीरको कष्ट देनेसे क्या लाभ ?
समाधानआचार्य उत्तर देते हुए बोलेहे वत्स ! जो तुमने यह शंका की
है कि व्रतादिकोंका परिपालन निरर्थक हो जाएगा, सो बात नहीं है, कारण कि वे व्रतादिक
नवीन शुभ कर्मोंके बंधके कारण होनेसे, तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मोंके एकदेश क्षयके
कारण होनेसे सफल एवं सार्थक हैं
इतना ही नहीं, किन्तु व्रतसम्बन्धी अनुरागलक्षणरूप
शुभोपयोग होनेसे पुण्यकी उत्पत्ति होती है और वह पुण्य स्वर्गादिक पदोंकी प्राप्तिके लिए
निमित्त कारण होता है इसलिए भी व्रतादिकोंका आचरण सार्थक है इसी बातको प्रगट
करनेके लिए आचार्य आगेका श्लोक कहते हैं।।।।
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ७

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छाया आतप स्थित जो, जन पामे सुख दुःख,
तेम देवपद व्रत थकी, अव्रते नारक दुःख. ३.
अन्वयार्थ :[व्रतैः ] व्रतो द्वारा [दैव पदं ] देवपद प्राप्त करवुं [वरं ] सारुं छे, [बत ]
पण अरे [अव्रतैः ] अव्रतो द्वारा [नारकं पदं ] नरक-पद प्राप्त करवुं [न वरं ] सारुं नथी.
जेम [छायातपस्थयोः ] छाया अने तापमां बेसी [प्रतिपालयतोः ] (मित्रनी) राह जोनारा बंने
(पुरुषो)मां [महान् भेदः ] मोटो तफावत छे, तेम (व्रत अने अव्रतनुं आचरण करनार बंने
पुरुषोमां मोटो तफावत छे.)
टीका :सारुं हो. शुं ते (सारुं हो)? पद-स्थान. केवुं (पद)? देवोनुं पद अर्थात्
स्वर्ग, क्या हेतुओ द्वारा? व्रतो द्वारा, कारण के व्रतादि विषय संबंधी रागथी उत्पन्न
पुण्योथी स्वर्गादिपदरूप अभ्युदयनो संबंध होय छे, जे सकल जनोमां सुप्रसिद्ध छे.
त्यारे शिष्ये आशंका करी कह्युं, ‘‘अव्रतो पण तेवा प्रकारनां हशे?’’
वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्बत नारकम्
छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।।।
टीकावरं भवतु किं तत् ? पदं स्थानं किं विशिष्टं ? दैवं देवानामिदं दैवं, स्वर्गः
कैर्हेतुभिर्व्रतादिविषयरागजनितपुण्यैः तेषां स्वर्गादिपदाभ्युदयनिबंधनत्वेन सकलजनसुप्रसिद्धत्वात्
तहर्यऽव्रतान्यपि तथाविधानि भविष्यन्तीत्याशंक्याहनेत्यादि न वरं भवति किं तत् ? पदं
किंविशिष्टं ? नारकं नरकसंबंधि कैः ? अव्रतैः हिंसादिपरिणामजनितपातकेः, बतेति खेदे कष्टे
वा तर्हि व्रताव्रतनिमित्तयोरपि देवनारकपक्षयोः साम्यं भविष्यतीत्याशंकायां तयोर्महदन्तरमिति
दृष्टान्तेन प्रकटयन्नाह
मित्र राह देखत खड़े, इक छाया इक धूप
व्रतपालनसे देवपद, अव्रत दुर्गति कूप ।।।।
अर्थव्रतोंके द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतोंके द्वारा नरक-
पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है जैसे छाया और धूपमें बैठनेवालोंमें अन्तर पाया जाता
है, वैसे ही व्रत और अव्रतके आचरण व पालन करनेवालोंमें फर्क पाया जाता है
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं
छायातवट्टियाणं पउवालंताण गुरुभेयं ।।२५।।(मोक्षपाहुडे)
८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

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‘ना, इत्यादि.’ ते सारुं नथी. शुं ते? पद. केवुं (पद)? नरक संबंधी (पद) शा
वडे (प्राप्त थयेलुं), अव्रतोथी अर्थात् हिंसादि परिणामथी उत्पन्न थयेला पापो वडे (प्राप्त
थयेलुं) [
‘बत’ शब्द खेदकष्टना अर्थमां छे] ‘अरे! तो व्रत अने अव्रत जेनुं निमित्त छे
तेवां देव अने नारक ए बे पक्षोमां समानता आवशे.’ एवी (शिष्यनी) आशंका थतां ‘ते
बंनेमां तफावत छे,’ एम छाया इत्यादि द्रष्टान्त द्वारा प्रगट करी (आचार्य) कहे छे
कोण ते? भेदअन्तर. केवो? महानमोटो, कोण बेउ वच्चे? बे पथिको वच्चे. शुं करता?
पोताना कार्यना अंगे नगरमां गयेला अने त्यांथी पाछा आवता पोताना त्रीजा साथीनी
मार्गमां प्रतीक्षा करता
राह जोता. ते बन्ने केवा होई? छाया अने तापमां बेठेला होई.
[छाया अने आतपते छायातप, तेमां बेठेला]. एनो अर्थ आ प्रमाणे छेःत्रीजा
(साथीना) आगमनकाल सुधी, जेम छायामां बेठेलो (पथिक) सुखेथी बेसे छे अने तापमां
बेठेलो (पथिक) दुःखथी बेसे छे, तेम ज्यां सुधी सुद्रव्यादि मुक्तिनां कारणो प्राप्त थाय,
त्यां सुधी व्रतादि आचरण करनार ते आत्मा
जीव स्वर्गादि स्थानोमां सुखथी रहे छे अने
बीजो (अव्रतादि आचरनार) नरकादि स्थानोमां दुःखथी रहे छे.
भावार्थ :जेम छायामां बेसी पोताना मित्रनी राह जोनार मुसाफर सुखी थाय
छे अने तडकामां बेसी तेनी राह जोनार बीजो मुसाफर दुःखी थाय छे, तेम सम्यग्द्रष्टि
जीव ज्यारे निर्विकल्प दशामां रही शकतो नथी, त्यारे तेने हेयबुद्धिए व्रतादिपालननो
शुभभाव आवे छे अने ते शुभभावना निमित्ते ते स्वर्गादिस्थानोमां सुख भोगवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने नरकमां जवा जेवा भाव थता ज नथी; परंतु हिंसादि अव्रतना अशुभ भाव
छायेत्यादि भवति कोऽसौ ? भेदः अन्तरं किंविशिष्टो ? महान् बृहन् कयोः ?
पथिकयोः किं कुर्वतोः ? स्वकार्यशान्नगरांतर्गतं तृतीयं स्वसार्थिकमागच्छन्तं पथि प्रतिपालयतोः
प्रतीक्षमाणयोः किंविशिष्टयोः सतोः ? छायातपस्थयोः छाया च आतपश्च छायातपौ तयोः
स्थितयोः अयमर्थो यथैव छायास्थितस्तृतीया गमनकालं यावत्सुखेन तिष्ठति आतपस्थितश्च
विशदार्थअपने कार्यके वशसे नगरके भीतर गए हुए तथा वहाँसे वापिस
आनेवाले अपने तीसरे साथीकी मार्गमें प्रतीक्षा करनेवाले, जिनमेंसे एक तो छायामें बैठा
हुआ है और दूसरा धूपमें बैठा हुआ है
दो व्यक्तियोंमें जैसे बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात्
छायामें बैठनेवाला तीसरे पुरुषके आने तक सुखसे बैठा रहता है, और धूपमें बैठनेवाला
दुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है
उसी तरह जब तक मुक्तिके कारणभूत अच्छे
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिक प्राप्त होते हैं, तब तक व्रतादिकोंका आचरण करनेवाला
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ९

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स्वर्गादिक स्थानोंमें आनन्दके साथ रहता है दूसरा व्रतादिकोंको न पालता हुआ असंयमी
पुरुष नरकादिक स्थानोंमें दुःख भोगता रहता है अतः व्रतादिकोंका परिपालन निरर्थक
नहीं, अपितु सार्थक है
शंकायहाँ पर शिष्य पुनः प्रश्न करता हुआ कहता है‘‘यदि उपरिलिखित
कथनको मान्य किया जाएगा, तो चिद्रूप आत्मामें भक्ति भाव (विशुद्ध अंतरंग अनुराग)
करना अयुक्त ही हो जाएगा ? कारण कि आत्मानुरागसे होनेवाला मोक्षरूपी सुख तो
योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिरूप सम्पत्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत
दूर हो जाएगा और बीचमें ही मिलनेवाला स्वर्गादि-सुख व्रतोंके साहाय्यसे मिल जाएगा
तब फि र आत्मानुराग करनेसे क्या लाभ ? अर्थात् सुखार्थी साधारण जन आत्मानुरागकी
ओर आकर्षित न होते हुए, व्रतादिकोंकी ओर ही अधिक झुक जाएँगे
करनार मिथ्याद्रष्टि जीव नरकादि स्थानोमां दुःख भोगवे छे.
माटे व्रतादिनुं पालन स्वर्गादिसुखनी अपेक्षाए सार्थक छे. ३
हवे शिष्य फरीथी आशंका करे छे
एवी रीते आत्मानी भक्ति अयुक्त (अयोग्य) ठरशे, अर्थात् भगवान्! ए रीते
मोक्षसुख चिरभावी (लांबा काळे साध्य) थशे अने व्रतोथी साध्य संसारनुं सुख तो सिद्ध
छे, तेथी चिद्रूप आत्मामां भक्तिभाव अर्थात् विशुद्ध अंतरंग अनुराग करवो अयुक्त
अघटित बनशे, कारण के तेनाथी साध्य मोक्षसुख सुद्रव्यादि सामग्रीनी अपेक्षा राखतुं
होवाथी दूरवर्ती थशे अने व्रतो द्वारा अवान्तर (वचमां) प्राप्त स्वर्गादिनुं सुख एक
साध्य थशे.
दुःखेन तिष्ठति तथा व्रतादि कुर्वन् स आत्मा जीवः सद्रव्यादयो मुक्तिहेतवो यावत्संपद्यन्ते
तावत्स्वर्गादिपदेषु सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेषु दुःखेनेति
अथ विनेयः पुनराशंकतेएवमात्मनि भक्तिरयुक्ता स्यादिति भगवन्नैवं
चिरभाविमोक्षसुखस्य व्रतसाध्ये संसारसुखे सिद्धे सत्यात्मनि चिद्रूपे भक्तिर्भाव-विशुद्ध
आंतरोऽनुरागोअयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्भवेत् तत्साध्यस्य मोक्षसुखस्य सुद्रव्यादिसंपत्त्यपेक्षया
दूरवर्तित्वादवांतरप्राप्तस्य च स्वर्गादिसुखस्य व्रतैकसाध्यत्वात्
१० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

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समाधानशंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले, ‘‘व्रतादिकोंका आचरण
करना निरर्थक नहीं है ’’ (अर्थात् सार्थक है) इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म-भक्तिको
अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है इसी कथनकी पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते
हैंः।।।।
आत्मभाव यदि मोक्षपद, स्वर्ग है कितनी दूर
दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर ।।।।
अर्थआत्मामें लगा हुआ जो परिणाम भव्य प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करता है, उस
अत्राप्याचार्यः समाधत्तेतदपि नेति न केवलं व्रतादिनामानर्थक्यं न भवेत् किं तर्हि
तदप्यात्मभक्त्यनुपपत्तिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यर्थः यतः
यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी
यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ।।।।
टीकायत्रात्मनि विषये प्रणिधानं, भावः कर्त्ता, दत्ते प्रयच्छति किं ? तच्छिवं मोक्षं,
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११
अहीं पण आचार्य समाधान करे छे
ते पण नथी, कारण के व्रतादिनी निष्फळता नहि बने, एटलुं ज नहि परंतु तेम
छतां तुं जे आत्मभक्तिने अयुक्त बतावे छे ते पण ठीक नथी, एवो अर्थ छे, कारण
के
आत्मभावथी मोक्ष ज्यां, त्यां स्वर्ग शुं दूर,
भार वहे जे कोश बे, अर्ध कोश शुं दूर. ४.
अन्वयार्थ :[यत्र ] ज्यां [भावः ] आत्मभाव (भव्य जीवोने) [शिवं ] मोक्ष
[दत्ते ] आपे छे, [तत्र ] त्यां [द्यौः ] स्वर्ग [कियद्दूरवर्तिनो ] केटलुं दूर छे? (कंई दूर नथी
अर्थात् नजीक छे). [यः ] जे (मनुष्य) भारने [गव्यूतिं ] बे कोश सुधी [आशु ] जलदी
[नयति ] लई जाय छे, [सः ] ते (मनुष्य) ते भारने [क्रोशार्धे ] अर्धो कोश लई जतां [किं
सीदति ] शुं थाकी जशेखिन्न थशे? (ना, खिन्न थशे नहि).
टीका :ज्यां एटले आत्मविषयमां भाव(आत्मध्यान) आपे छेप्रदान करे छे;
भव्य जीवने शिव एटले मोक्ष (आपे छे). मोक्ष प्रदान करवामां समर्थ ते

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१२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भावकाय भव्यायेति शेषः तस्यात्मविषयस्य शिवदानसमर्थस्य द्यौः स्वर्गः कियद्ररवर्तिनी ?
कियदूरे किंपरिमाणे व्यवहितदेशे वर्तते ? निकट एव तिष्ठतीत्यर्थः स्वात्मध्यानोपात्तपुण्यस्य
तदेकफलत्वात् तथा चोक्तं [तत्त्वानुशासने ]
गुरुपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितैः
अनंतशक्तिरात्मायं भुक्तिं मुक्तिं च यच्छति ।।१९६।।
ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमांगस्य मुक्तये
तद्व्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ।।१९७।।
मोक्ष देनेमें समर्थ आत्मपरिणामके लिए स्वर्ग कितनी दूर है ? न कुछ वह तो उसके
निकट ही समझो अर्थात् स्वर्ग तो स्वात्मध्यानसे पैदा किये हुए पुण्यका एक फलमात्र
है ऐसा कथन अन्य ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है तत्त्वानुशासनमें कहा है :
‘‘गुरुपदेशमासाद्य’’
‘‘गुरुके उपदेशको प्राप्त कर सावधान हुए प्राणियोंके द्वारा चिन्तवन किया गया यह
अनन्त शक्तिवाला आत्मा चिंतवन करनेवालेको भुक्ति और मुक्ति प्रदान करता है इस
आत्माको अरहंत और सिद्धके रूपमें चिंतवन किया जाय, तो यह चरमशरीरीको मुक्ति
प्रदान करता है और यदि चरमशरीरी न हो तो उसे वह आत्म-ध्यानसे उपार्जित पुण्यकी
सहायतासे भुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्त्यादिके भोगों)को प्रदान करनेवाला होता है
’’
आत्मभावने स्वर्ग केटलुं दूर? केटले दूर एटले केटले छेटे आवेला प्रदेशे वर्ते? निकट ज
रहे
एवो अर्थ छे, कारण के स्वात्मध्यान साथे उपार्जित पुण्यनुं ते एक फळ छे.
वळी, तत्त्वानुशासनमां कह्युं छे केः
‘गुरुनो उपदेश प्राप्त करी सावधान थयेला प्राणीओ द्वारा ध्याववामां आवेलो आ
अनंतशक्तिवाळो आत्मा (आत्मध्यान करनारने) भुक्ति (भोगो) अने मुक्ति प्रदान करे
छे.’......(श्लो. १९६).
‘आ आत्मा, अरिहंत अने सिद्धना रूपे चिंतववामां (ध्याववामां) आवतां, चरम
शरीरीने मुक्ति प्रदान करे छे अने तेना ध्यान साथे पुण्य उपार्जित करनार अन्यने ते
भुक्ति (अर्थात् स्वर्ग, चक्रवर्त्यादिना भोगो) प्रदान करे छे.’.......(श्लो. १९७).

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३
अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन स्पष्टयन्नाहय इत्यादि यो वाहीको नयति, प्रापयति किं ?
स्ववाह्यं भारं कां, गव्यूतिं क्रोशयुगं कथं, आशु शीघ्रं स किं क्रोशार्द्धे स्वभारं नयन् सीदति
खिद्यते ? न खिद्यत इत्यर्थः महाशक्तावल्पशक्तः सुघटत्वात्
अथैवमात्मभक्तेः स्वर्गगतिसाधनत्वेऽपि समर्थिते प्रतिपाद्यस्तत्फलजिज्ञासया गुरुं
श्लोककी नीचेकी पंक्तिमें उपरिलिखित भावको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं
देखो जो भारको ढोनेवाला अपने भारको दो कोस तक आसानी और शीघ्रताके
साथ ले जा सकता है, तो क्या वह अपने भारको आधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा ?
नहीं
भारको ले जाते हुए खिन्न न होगा बड़ी शक्तिके रहने या पाये जाने पर अल्प
शक्तिका पाया जाना तो सहज (स्वाभाविक) ही है
इस प्रकारसे आत्म-शक्तिको जब कि स्वर्ग-सुखोंका कारण बतला दिया गया, तब
आ ज अर्थने द्रष्टान्त द्वारा स्पष्ट करीने कहे छे(य इत्यादि.....)
जे एटले भारवाहक लई जाय छे; शुं? पोताने ऊंचकवानो भार. क्यां सुधी?
बे कोश सुधी. केवी रीते? शीघ्रजलदी; ते शुं पोताना भारने अर्धो कोश लई जतां खेद
पामशे? नहि खेद पामेएवो अर्थ छे, कारण के महा शक्तिमां अल्प शक्तिनो (समावेश)
सारी रीते घटे छे(अर्थात् महाशक्तिवाळाने अल्पशक्ति सहज होय छे).
भावार्थ :जे शुद्धोपयोगरूप आत्मपरिणाममां मोक्षसुख प्राप्त करवानुं सामर्थ्य छे,
ते भूमिकामां रहेला शुभरागथी स्वर्गादिनी प्राप्ति सहज होय छे. जे माणस एक मणनो
बोजो बे कोश लई जई शके तेटली ताकातवाळो छे, ते शुं ते बोजो अर्धो कोश लई जतां
थाकी जशे? नहि ज थाके; तेवी रीते जे जीवे पूर्णताना लक्षे
मोक्षसुख माटे पुरुषार्थ आदर्यो
छे, तेने शुं स्वर्गादिनी प्राप्ति मुश्केल छे? ना; ते सुलभ ज छे.
जे जीव चरमशरीरी छे, एटले के ते भवे ज मोक्ष प्राप्त करवानी लायकातवाळो
छे, तो आत्मध्यानादिना उग्र पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष सुख पामे छे, परंतु जे जीवो
अचरमशरीरी छे
एटले के ते भवे मोक्ष प्राप्त करी शके तेम नथी, तेओ अरिहंत
सिद्धरूपे पोताना आत्मानुं ध्यान करी ते भूमिकामां जे पुण्य उपार्जन करे छे, तेना
फळस्वरूप तेमने स्वर्ग
चक्रवर्त्यादिनी विभूति प्राप्त थाय छे. ए रीते आत्मध्यानादिथी
भुक्ति अने मुक्तिनी प्राप्ति थाय छे. ४
ए रीते आत्मभक्तिमां स्वर्गगतिनुं पण साधनपणुं छे एवुं समर्थन करवामां

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१४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पृच्छतिस्वर्गे गतानां किं फलमिति स्पष्टं गुरूत्तरयति
हृषीकजमनातङ्कं दीर्घकालोपलालितम्
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ।।।।
टीकावत्स ! अस्ति, किं तत् ? सौख्यं शर्म केषां ? नाकौकसां देवानां, न पुनः
स्वर्गेऽपि जातानामेकेन्द्रियाणां क्व वसतां ? नाके स्वर्गे, न पुनः क्रीडादिवशाद्रमणीयपर्वतादौ
शिष्य पुनः कुतुहूलकी निवृत्तिके लिए पूछता है, कि ‘‘स्वर्गमें जानेवालोंको क्या फल मिलता
है ?’’
।।।।
इन्द्रियजन्य निरोगमय, दीर्घकाल तक भोग्य
स्वर्गवासि देवानिको, सुख उनही के योग्य ।।।।
अर्थस्वर्गमें निवास करनेवाले जीवोंको स्वर्गमें वैसा ही सुख होता है, जैसा कि
स्वर्गमें रहनेवालों (देवों)को हुआ करता है, अर्थात् स्वर्गमें रहनेवाले देवोंका ऐसा अनुपमेय
(उपमा रहित) सुख हुआ करता है, कि उस सरीखा अन्य सुख बतलाना कठिन ही है
वह
सुख इन्द्रियोंसे पैदा होनेवाला, आंतकसे रहित और दीर्घ काल तक बना रहनेवाला होता है
आवतां शिष्य तेना फळनी जिज्ञासाथी गुरुने पूछे छे‘‘स्वर्गे जनाराओने शुं फळ मळे
छे?’’
आचार्य तेनो स्पष्ट रीते उत्तर आपतां कहे छेः
इन्द्रियजन्य निरामयी, दीर्घकाल तक भोग्य,
भोगे सुरगण स्वर्गमां, सौख्य सुरोने योग्य.
अन्वयार्थ :[नाके नाकौकसाम् ] स्वर्गमां वसनार देवोने जे [सौख्यं ] सुख होय
छे ते [नाके नाकौकसाम् इव ] स्वर्गमां रहेला देवोना जेवुं [हृषीकजं ] इन्द्रियजनित,
[अनातङ्कं ] आतंक (शत्रुआदि द्वारा उत्पन्न थनार दुःख) रहित, [दीर्घकालोपलालितं ] दीर्घ
काल सुधी (तेत्रीस सागर पर्यंत) भोगववामां आवे तेवुं होय छे.
टीका :हे वत्स! छे. शुं ते? सुखशर्म, कोने (छे)? स्वर्गमां वसता देवोने,
नहि के स्वर्गमां पण उत्पन्न थयेला एकेन्द्रिय जीवोने; क्यां वसता? स्वर्गमां, नहि के
क्रीडादिकना कारणे रमणीय पर्वतादिमां (वसता). शुं ते अतीन्द्रिय (सुख) छे? (उत्तरमां)
कहे छे
‘ना’ इन्द्रियोथी उत्पन्न थयेलुं, इच्छानी अनन्तर इन्द्रियो द्वारा उपस्थित थयेलुं

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १५
किमतीन्द्रियं ? तन्नेत्याहहृषीकजं हृषीकेभ्यः समीहितानन्तरमुपस्थितं निजं निजं विषय-
मनुभवद्भयः स्पर्शनादींद्रियेभ्यः सर्वांगीणाह्लादनाकारतया प्रादुर्भूतं तथापि राज्यादिसुखवत्सातंकं
भविष्यतीत्याशंकापनोदार्थमाह
अनातंकं, न विद्यते आतंकः प्रतिपक्षादिकृतश्चित्तक्षोभो यत्र
तथापि भोगभूमिजसुखवदल्पकालभोग्यं भविष्यतीत्याशंकायामाहदीर्घकालोपलालितंदीर्घ-
कालं सागरोपमपरिछिन्नकालं यावदुपलालितमाज्ञाविधेयदेवदेवीर्विलासिनीभिः क्रियमाणोपचारत्वा-
विशदार्थहे बालक ! स्वर्गमें निवास करनेवालोंको न कि स्वर्गमें पैदा होनेवाले
एकेन्द्रियादि जीवोंको स्वर्गमें, न कि क्रीड़ादिकके वशसे रमणीक पर्वतादिमें ऐसा सुख
होता है, जो चाहनेके अनन्तर ही अपने विषयको अनुभव करनेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियोंसे
सर्वांगीण हर्षके रूपमें उत्पन्न हो जाता है। तथा जो आतंक (शत्रु आदिकोंके द्वारा किये
गये चित्तक्षोभ)से भी रहित होता है, अर्थात् वह सुख राज्यादिकके सुखके समान
आंतकसहित नहीं होता है
वह सुख भोगभूमिमें उत्पन्न हुए सुखकी तरह थोड़े कालपर्यन्त
भोगनेमें आनेवाला भी नहीं है वह तो उल्टा, सागरोपम काल तक, आज्ञामें रहनेवाले
देव-देवियोंके द्वारा की गई सेवाओंसे समय-समय बढ़ा चढ़ा ही पाया जाता है
स्वर्गमें निवास करनेवाले प्राणियोंका (देवोंका) सुख स्वर्गवासी देवोंके समान ही
हुआ करता है इस प्रकारसे कहने या वर्णन करनेका प्रयोजन यही है, कि यह सुख
अनन्योपम है अर्थात् उसकी उपमा किसी दूसरेको नहीं दी जा सकती है लोकमें जब
किसी चीज़की अति हो जाती है, तो उसके द्योतन करनेके लिए ऐसा ही कथन किया
अर्थात् पोतपोताना विषयने अनुभवती स्पर्शनादि इन्द्रियो द्वारा सर्वांगीण (सर्व अंगोमां
व्यापक) हर्षरूपे प्रगट थयेलुं(ते सुख छे).
वळी ते सुख राज्यादिना सुख जेवुं आतंक (चित्तक्षोभ) वाळुं हशे? ते आशंकाना
समाधानार्थे (आचार्य) कहे छे
(ते सुख) अनातंक एटले जेमां आतंक एटले शत्रुआदिकृत चित्तक्षोभ न होय तेवुं
छे.
तथापि ते सुख शुं भोगभूमिमां उत्पन्न थयेला सुखनी माफक अल्प काल भोगववा
योग्य हशे? तेवी आशंका थतां (आचार्य) कहे छे
(ते सुख) दीर्घ काल सुधी भोगववामां आवे छे; दीर्घ काल एटले सागरोपमथी
जणाता काल सुधी; उपलालित एटले आज्ञाकारी देवदेवीओ अर्थात् स्वर्गनी विलासिनीओ
द्वारा करवामां आवती सेवाओथी उत्कर्ष (वृद्धि) पामतुं (सुख).

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१६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दुत्कर्षं प्रापितम् तर्हि क्व केषामिव तदित्याह, नाके नाकौकसामिव स्वर्गे देवानां यथा
अनन्योपममित्यर्थः
अत्र शिष्यः प्रत्यवतिष्ठतेयदि स्वर्गेऽपि सुखमुत्कृष्टं किमपवर्गप्रार्थनयेति भगवन् !
यदि चेत्स्वर्गेऽपि न केवलमपवर्गेसुखमस्ति, कीदृशं ? उत्कृष्टं मर्त्यादिसुखातिशायि, तर्हि
किं कार्यं ? कया ? अपवर्गस्य मोक्षस्य प्रार्थनयाअपवर्गो मे भूयादित्यभिलाषेण
जाता है, जैसे ‘‘भैया ! राम-रावणका युद्ध तो राम-रावणके युद्ध समान ही था
रामरावणोर्युद्धं रामरावणयोरिव ’’
अर्थात् इस पंक्तिमें युद्ध सम्बन्धी भयंकरताकी पराकाष्ठाको जैसा द्योतित किया गया
है ऐसा ही सुखके विषयमें समझना चाहिए ।।।।
शंकाइस समाधानको सुन, शिष्यको पुनः शंका हुई और वह कहने लगा
‘‘भगवन् ! न केवल मोक्षमें, किन्तु यदि स्वर्गमें भी, मनुष्यादिकोंसे बढ़कर उत्कृष्ट सुख
पाया जाता है, तो फि र ‘‘मुझे मोक्षकी प्राप्ति हो जावे’’ इस प्रकारकी प्रार्थना करनेसे क्या
लाभ ?’’
‘त्यारे क्यां कोना जेवुं ते (सुख) छे?’एम (शिष्ये) पूछ्युं.
स्वर्गमां निवास करनारा देवोनुं सुख, स्वर्गवासी देवोना (सुख) जेवुं होय छे,
अर्थात् ते सुख अनन्योपम (जेनी उपमा बीजा कोई साथे थई शके नहि तेवुं) होय छे,
तेवो अर्थ छे.
भावार्थ :आ स्वर्गीय सुख अतीन्द्रिय नथी पण इन्द्रियजनित छे, छतां ते
इन्द्रियजनित सुखोमां अनुपम छे, कारण के राज्यादिना सुख जेवुं चित्तक्षोभ करे तेवुं नथी
अने देवो ते सुख पोतानी देवीओ साथे सागरोपम काल सुधी भोगवे छे; भोगभूमिना
सुख जेवुं ते अल्पकालीन नथी. ५.
अहीं शिष्य पूर्वपक्ष लई पूछे छे, ‘‘जो स्वर्गमां पण सुख उत्कृष्ट होय तो मोक्ष
माटे प्रार्थनानी शी जरूर? भगवन्! न केवल मोक्षमां, किन्तु स्वर्गमां पण सुख होय
केवुं? उत्कृष्टमनुष्यादिना सुखने टपी जाय तेवुं होयतो (तेनुं) शुं प्रयोजन? कोनुं?
‘मने मोक्ष हो (मोक्षनी प्राप्ति हो)’ एवी अपवर्ग एटले मोक्षनी अभिलाषारूप प्रार्थनानुं
(शुं प्रयोजन)?

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १७
एवं च संसारसुखे एव निर्बन्धं कुर्वन्तं प्रबोध्यं तत्सुखदुःखस्य भ्रांतत्वप्रकाशनाय आचार्यः
प्रबोधयति
वासनामात्रमेवैतत्सुखं दुःखं च देहिनाम्
तथाह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ।।।।
टीकाएतत् प्रतीयमानमैंद्रियकं सुखं दुःखं चास्ति कीदृशं ? वासनामात्रमेव,
जीवस्योपकारकत्वापकारकत्वाभावेन परमार्थतो देहादावुपेक्षणीये तत्त्वानवबोधादिदं
ममेष्टमुपकारकत्वादिदं चानिष्टमपकारकत्त्वादिति विभ्रमाज्जातः संस्कारो वासना,
संसार सम्बन्धी सुखमें ही सुखका आग्रह करनेवाले शिष्यको ‘संसार सम्बन्धी सुख
और दुःख भ्रान्त हैं यह बात बतलानेके लिए आचार्य आगे लिखा हुआ श्लोक कहते
हैं
विषयी सुख दुःख मानते, है अज्ञान प्रसाद
भोग रोगवत् कष्टमें, तन मन करत विषाद ।।।।
अर्थदेहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पना (वासना
या संस्कार) जन्य ही है देखो ! जिन्हें लोकमें सुख पैदा करनेवाला समझा जाता है,
एवी रीते संसार संबंधी सुखनो ज आग्रह राखता शिष्यने संसार संबंधी
सुखदुःखनुं भ्रान्तिपणुं प्रकाशवा माटे आचार्य प्रबोधे छे (समजावे छे)ः
सुखदुःख संसारीनां, वासना जन्य तुं मान,
आपदमां दुःखकार ते, भोगो रोग समान.
अन्वयार्थ :[देहिनां ] देहधारीओनां [एतत् सुखं दुःख च ] ते सुख तथा दुःख
[वासनामात्रम् एव ] केवल वासनामात्र ज होय छे. [तथा हि ] वळी [एते भोगाः ] ते (सुख-
दुःखरूप) (भोगो) [आपदि ] आपत्तिना समये [रोगाः इव ] रोगोनी जेम (प्राणीओने)
[उद्वेजयन्ति ] उद्वेलित (आकुलित) करे छे.
टीका :प्रतीति करवामां आवतां ते इन्द्रियजनित सुखदुःख छे. (ते) केवां छे?
(ते) केवल वासनामात्र ज छे. जीवने (देहादि पदार्थो) उपकारक तथा अपकारक नहि
होवाथी, परमार्थे देहादि (पदार्थ) विषे ते उपेक्षणीय छे. तेमां तत्त्वज्ञानना अभावे, ‘आ

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१८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इष्टानिष्टार्थानुभवानन्तरमुद्भूतः स्वसंवेद्य आभिमानिकः परिणामः वासनैव, न
स्वाभाविकमात्मस्वरूपमित्यन्ययोगव्यवच्छेदार्थो मात्र इति, स्वयोगव्यवस्थापकश्चैव शब्दः
केषामेतदेवंभूतमस्तीत्याहदेहिनांदेह एवात्मत्वेन गृह्यमाणो अस्ति येषां ते देहिनो
बहिरात्मानस्तेषाम् एतदेव समर्थयितुमाहतथा हीत्यादि उक्तार्थस्य दृष्टान्तेन समर्थनार्थस्तथा
हीति शब्द उद्वेजयन्ति उद्वेगं कुर्वन्ति, न सुखयन्ति, के ते ? एते सुखजनकत्वेन लोके प्रतीता
भोगा रमणीयरमणीप्रमुखाः इन्द्रियार्थाः क इव ? रोगा इव ज्वरादिव्याधयो यथा कस्यां
सत्यामापाददुर्निवारवैरिप्रभृतिसंपादितदौर्मनस्य लक्षणायां विपदि तथा चोक्तम्
ऐसे कमनीय कामिनी आदिक भोग भी आपत्ति (दुर्निवार, शत्रु आदिके द्वारा की गई
बेचेनी)के समयमें रोगों (ज्वरादिक व्याधियों)की तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले
होते हैं
यही बात सांसारिक प्राणियोंके सुख-दुःखके सम्बन्धमें है
मने उपकारक होवाथी इष्ट छे अने अपकारक होवाथी अनिष्ट छे’ एवा विभ्रमथी उत्पन्न
थयेलो संस्कार ते वासना छे. ते (वासना) इष्ट
अनिष्ट पदार्थोना अनुभवना अनन्तरे
उत्पन्न थयेलो स्वसंवेद्य अभिमानयुक्त परिणाम छे. ते वासना ज छे, स्वाभाविक
आत्मस्वरूप नथी.
एम अन्यना योगनो व्यवच्छेद (अभाव) दर्शाववाना अर्थमां ‘मात्र’ शब्द छे अने
स्वनो योग (संबंध) जणाववाना अर्थमां ‘एव’ शब्द छे.
(शिष्ये) पूछ्युंआवुं (सुखदुःख) कोने होय छे? देहधारीओने अर्थात् देहने
ज जेओ आत्मा तरीके ग्रहण करे छे, ते देही बहिरात्माओतेमने (तेवी सुखदुःखनी
कल्पना होय छे).
आना ज समर्थनमां कहे छेतथाहित्यादि
उक्त अर्थना द्रष्टान्त द्वारा समर्थन माटे ‘तथाहि’ शब्द छे.
उद्वेलित करे छे, एटले उद्वेग करे छेसुखी करता नथी. कोण ते? ‘ते सुख उत्पन्न
करे छे’ एम लोकमां प्रतीत थयेला (मानवामां आवेला) भोगोअर्थात् रमणीय स्त्री आदि
इन्द्रियपदार्थो. कोनी माफक (उद्वेग करे छे)? रोगोनी माफकज्वरादि व्याधिओनी जेम.
शुं होतां? आपत्ति आवी पडतांअर्थात् दुर्निवार शत्रु आदि द्वारा करवामां आवेली
चित्तक्षोभ लक्षणवाळी विपत्ति आवी पडतां; तथा कह्युं छे के

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १९
‘‘मुञ्चांङ्गं ग्लपयस्यलं क्षिप कुतोऽप्यक्षाश्च विद्भात्यदो,
दूरे धेहि न हृष्य एव किमभूरन्या न वेत्सि क्षणम्
स्थेयं चेद्धि निरुद्धि गामिति तबोद्योगे द्विषः स्त्री क्षिपं
त्याश्लेषक्रमुकांगरागललितालापैर्विधित्सू रतिम् (?) ।।’’
विशदार्थये प्रतीत (मालूम) होनेवाले जितने इन्द्रियजन्य सुख व दुःख हैं, वे
सब वासनामात्र ही हैं देहादिक पदार्थ न जीवके उपकारक ही हैं और न अपकारक ही
अतः परमार्थसे वे (पदार्थ) उपेक्षणीय ही हैं किंतु तत्त्वज्ञान न होनेके कारणयह मेरे
लिए इष्ट हैउपकारक होनेसे’ तथा ‘यह मेरे लिए अनिष्ट हैअपकारक होनेसे ऐसे
विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कार जिन्हें वासना भी कहते हैंइस जीवके हुआ करते हैं अतः
ये सुख-दुःख विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कारमात्र ही हैं, स्वाभाविक नहीं ये सुख-दुःख
उन्हींको होते हैं, जो देहको ही आत्मा माने रहते हैं ऐसा कथन अन्यत्र भी पाया जाता
है‘‘मुंचांगं’’
अर्थइस श्लोकमें दम्पतियुगलके वार्तालापका उल्लेख कर यह बतलाया गया
है, कि ‘वे विषय जो पहिले अच्छे मालूम होते थे, वे ही मनके दुःखी होने पर बुरे मालूम
होते हैं
घटना इस प्रकार हैपति-पत्नी दोनों परस्परमें सुख मान, लेटे हुए थे कि
पति किसी कारणसे चिंतित हो गया पत्नी पतिसे आलिंगन करनेकी इच्छासे अंगोंको
चलाने और रागयुक्त वचनालाप करने लगी किन्तु पति जो कि चिंतित था, कहने लगा
‘‘मेरे अंगोंको छोड़, तू मुझे संताप पैदा करनेवाली है हट जा तेरी इन क्रियाओंसे मेरी
छातीमें पीड़ा होती है दूर हो जा मुझे तेरी चेष्टाओंसे बिलकुल ही आनन्द या हर्ष नहीं
हो रहा है ’’
[आ श्लोकमां एक युगलना वार्तालाप द्वारा ए बताव्युं छे, के जे विषयो पहेलां
सुखकर लागता हता, ते हवे मन दुःखी थतां दुःखकर लागे छे. चिंतामग्न पति पोतानी
स्त्रीने कहेवा लाग्यो
]
‘‘मारा अंगने छोड, तुं मने संताप पेदा करे छे, हठी जा, मने आनंद थतो नथी;
तारी आ क्रियाओथी मारी छातीमां पीडा थाय छे, दूर जा; त्यारे पत्नी टोणो मारती कहे
छे, ‘‘शुं बीजी स्त्री साथे प्रीति करी छे?’’ पति कहे छे, ‘‘तुं समय जोती नथी. जो धैर्य
होय तो प्रयत्नथी इन्द्रियोने वशमां राख’’
एम कही ते पत्नीने दूर करी दे छे.

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२० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अपि च‘रम्यं हर्म्यं चन्दनं चन्द्रपादा, वेणुर्वीणा यौवनस्था युवत्यः
नैते रम्या क्षुत्पिपासार्दितानां, सर्वारंभास्तंदुलाः प्रस्थमूलाः ।।
तथा‘आतपे धृतिमता सह वध्वा यामिनीविरहिणा विहगेन
सेहिरे न किरणाहिमरश्मेर्दुःखिते मनसि सर्वमसह्यम् ।।’’
‘‘मुञ्चाङ्गं........’’
‘‘रम्यं हर्म्यं’’
रमणीक महल, चन्दन, चन्द्रमाकी किरणें (चाँदनी), वेणु, वीणा तथा यौवनवती
युवतियाँ (स्त्रियाँ) आदि योग्य पदार्थ भूख-प्याससे सताये हुए व्यक्तियोंको अच्छे नहीं
लगते
ठीक भी है, अरे ! सारे ठाटबाट सेरभर चाँवलोंके रहने पर ही हो सकते हैं
अर्थात् पेटभर खानेके लिए यदि अन्न मौजूद है, तब तो सभी कुछ अच्छा ही अच्छा लगता
है
अन्यथा (यदि भरपेट खानेको न हुआ तो) सुन्दर एवं मनोहर गिने जानेवाले पदार्थ
भी बूरे लगते हैं इसी तरह और भी कहा है :
‘‘एक पक्षी (चिरबा) जो कि अपनी प्यारी चिरैयाके साथ रह रहा था, उसे धूपमें
रहते हुए भी संतोष और सुख मालूम होता था रातके समय जब वह अपनी चिरैयासे
बिछुड़ गया, तब शीतल किरणवाले चन्द्रमाकी किरणोंको भी सहन (बरदाश्त) न कर
सका
उसे चिरैयाके वियोगमें चन्द्रमाकी ठंडी किरणें सन्ताप व दुःख देनेवाली ही प्रतीत
होने लगीं ठीक ही है, मनके दुःखी होने पर सभी कुछ असह्य हो जाता है, कुछ भी
भला या अच्छा मालूम नहीं होता ’’
वळी. ‘‘रम्यं हर्म्ये.....’’
सुंदर महेल, चंदन, चांदनी (चंद्रना किरणो), वेणु, वीणा तथा यौवनवती युवतिओ
वगेरे, भूख तरसथी पीडाती व्यक्तिओने रम्य (मजानां) लागतां नथी, कारण के (जीवोना)
सर्व आरंभोमां तन्दुलप्रस्थ ए मूळ वात छे. (अर्थात् घरमां भोजन माटे तन्दुल होय
तो आ बधा पदार्थो सुन्दर लागे छे, नहि तो नहि.)
वळी, ‘‘आतपे धृतिमता.......’’
एक पक्षी पोतानी प्रिया साथे तडकामां रहेवा छतां सुख मानतुं हतुं, परंतु रात्रे
ज्यारे ते पोतानी प्रियाथी विखूटुं पडी गयुं, त्यारे तेना वियोगमां चंद्रनां किरणो पण तेने
संताप देतां लाग्यां; कारण के मन दुःखी थतां बधुं असह्य थई पडे छे; सारुं लागतुं नथी;
इत्यादि.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २१
इत्यादिअतो ज्ञायते ऐन्द्रियंकं सुखं वासनामात्रमेव, नात्मनः
स्वाभाविकानाकुलत्वस्वभावम् कथमन्यथा लोके सुखजनकत्वेन प्रतीतानामपि भावानां
दुःखहेतुत्वम् ? एवं दुःखमपि ।।
इन सबसे मालूम पड़ता है, कि इन्द्रियोंसे पैदा होनेवाला सुख वासनामात्र ही है
आत्माका स्वाभाविक एवं अनाकुलतारूप सुख वासनामात्र नहीं है, वह तो वास्तविक है
यदि इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र-विभ्रमजन्य न होता, तो संसारमें जो पदार्थ सुखके पैदा
करनेवाले माने गये हैं, वे ही दुःखके कारण कैसे हो जाते ? अतः निष्कर्ष निकला कि
देहधारियोंका सुख केवल काल्पनिक ही है और इसी प्रकार उनका दुःख भी काल्पनिक
है
।।।।
तेथी जणाय छे, के इन्द्रियजनित सुख वासनामात्र ज छे; ते आत्मानुं स्वाभाविक
अनाकुल स्वभाववाळुं नथी, नहि तो संसारमां जे पदार्थो सुखजनक मानवामां आवे छे
ते दुःखनुं कारण केम बने? एम ते (इन्द्रिय
सुख) पण दुःख ज छे.
भावार्थ :अज्ञानी जीवोने जे सुखदुःख होय छे, ते इन्द्रियजनित छे
वासनामात्र ज छे.
‘देहादि पदार्थो मने उपकारक छे, माटे इष्ट छे अने तेओ मने अपकारक
अहितकारक छे (एम कोईक वार माने छे), माटे अनिष्ट छे’एवी विभ्रमरूप कल्पनाथी
उत्पन्न थयेलो संस्कार ते वासना छे.
अज्ञानी जीव, आवी वासनाना कारणे भोगोना निमित्ते उत्पन्न थयेला इन्द्रियजनित
सुखमां भ्रमथी वास्तविक (साचा) सुखनी कल्पना करे छे.
आ भोगो रोग समान छे. तेओ दुःखना समये रोगोनी जेम आकुलताउद्वेगतानां
निमित्त थाय छे. कोई कारणथी मन दुःखी होय अर्थात् चित्तक्षोभ होय, तो सुंदर भोगो
पण उद्वेगकारक लागे छे; तेओ असह्य लागे छे. भूखतरसथी पीडाता मनुष्यने सुंदर महेल,
चंदन, चंद्रनां किरण, युवतीओ वगेरे सुंदर पदार्थो पण दुःखकर लागे छे.
इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र अथवा कल्पनाजनित छे. ते आत्मानुं स्वाभाविक
अनाकुलरूप सुख नथी, पण वास्तवमां ते दुःख ज छे, तेथी तेमां वास्तविक सुखनी कल्पना
करवी व्यर्थ छे.
जो इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्रविभ्रमजन्य न होय तो आ संसारमां जे पदार्थ
कयारेक सुखदायक मनाय छे, ते ज क्यारेक दुःखदायक केम मनाय? तेथी अज्ञानी जीवोनुं
सुख
दुःख केवळ वासनामात्र छे, बन्ने दुःख छे. ६.

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२२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अत्राह पुन शिष्य :एते सुखदुःखे खलु वासनामात्रे कथं न लक्ष्येते इति खल्विति
वाक्यालंकारे निश्चये वा कथं केन प्रकारेण न लक्ष्येते न संवेद्येते लोकैरिति शेषः शेषं
स्पष्टम्
अत्राचार्यः प्रबोधयति
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ।।।।
टीकानहि नैव लभते परिच्छिनत्ति घातूनामनेकार्थत्वाल्लभेर्ज्ञानेपि वृत्तिस्तथा च लोको
शंकाऐसा सुन शिष्य पुनः कहने लगा कि ‘‘यदि ये सुख और दुःख वासनामात्र
ही हैं, तो वे लोगोंको उसी रूपमें क्यों नहीं मालूम पड़ते हैं ? आचार्य समझाते हुए बोले
मोहकर्मके उदयसे, वस्तुस्वभाव न पात
मदकारी कोदों भखे, उल्टा जगत लखात ।।।।
अर्थमोहसे ढका हुआ ज्ञान, वास्तविक स्वरूपको वैसे ही नहीं जान पाता है,
जैसे कि मद पैदा करनेवाले कोद्रव (कोदों)के खानेसे नशैल-बे-खबर हुआ आदमी
पदार्थोंको ठीक-ठीक रूपसे नहीं जान पाता है
अहीं, शिष्य फरीथी कहे छे‘‘जो ते सुखदुःख खरेखर [‘खलु’ शब्द वाक्यालंकार
या निश्चयना अर्थमां छे.] वासनामय होय, तो (लोकोने) ते (वासनामात्र छे एम) केम मालूम
पडतुं नथी? अर्थात् लोकोने ते केम संवेदनमां आवतुं नथी? शेष स्पष्ट छे.
अहीं, आचार्य समजावे छे
मोहे आवृत ज्ञान जे, पामे नहीं निजरूप,
कोद्रवथी जे मत्त जन, जाणे न वस्तुस्वरूप. ७.
अन्वयार्थ :[यथा ] जेम [मदनकोद्रवैः ] मद उत्पन्न करनार कोद्रवोथी (कोद्रवना
निमित्तथी) [मत्तः पुमान् ] उन्मत्त (पागल) बनेलो माणस [पदार्थानां ] पदार्थोनुं [स्वभावं ]
यथार्थ स्वरूप [न लभते ] जाणतो नथी, [तथा एव ] तेम ज [मोहेन ] मोहथी [संवृतं ]
आच्छादित थयेलुं [ज्ञानं ] ज्ञान [स्वभावं ] वास्तविक स्वरूपने [न हि लभते ] जाणतुं नथी.
टीका :न हि एटले खरेखर प्राप्त करतुंजाणतुं नथी. (धातुओना अनेक अर्थ
होवाथी ‘लभ्’ शब्द मेळववाना अर्थमां अने ज्ञानना अर्थमां पण वपराय छे; जेम के लोक

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २३
वक्ति मयास्य चित्तं लब्धमिति किं तत् कर्तृज्ञानं धर्मधर्मिणोः कथंचित्तादात्म्यादर्थग्रहण-
व्यापारपरिणत आत्मा कं ? स्वभावं, स्वोऽसाधारणोअन्योऽन्यव्यतिकरे सत्यपि व्यक्त्यंतरेभ्यो
विवक्षितार्थस्य व्यावृत्तप्रत्ययहेतुर्भावो धर्मः स्वभावस्तं केषाम् ? पदार्थानां सुखदुःखशरीरादीनां
किंविशिष्टं सत् ज्ञानं ? संवृत्तं प्रच्छादितं वस्तुयाथात्म्यप्रकाशने अभिभूतसामर्थ्यम् केन ?
मोहेनमोहनीयकर्मणो विपाकेन
तथा चोक्तम् [लघीयस्त्रये ]
विशदार्थमोहनीयकर्मके उदयसे ढका हुआ ज्ञानवस्तुओंके यथार्थ (ठीक
ठीक) स्वरूपका प्रकाशन करनेमें दबी हुई सामर्थ्यवाला ज्ञान, सुख, दुःख, शरीर आदिक
पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है
परस्परमें मेल रहने पर भी किसी विवक्षित (खास)
पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जुदा जतलानेके लिए कारणीभूत धर्मको (भावको) स्व-असाधारण
भाव कहते हैं
अर्थात् दो अथवा दोसे अधिक पदार्थोंके बीच मिले रहने पर भी जिस
असाधारण भाव (धर्म)के द्वारा किसी खास पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जुदा जान सके, उसी
धर्मको उस पदार्थका स्वभाव कहते हैं
ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है‘‘मलविद्ध’’
कहे छे, ‘में तेनुं मन मेळव्युंजाण्युं’) कोण ते (जाणतुं नथी)? ज्ञान (कर्ता) अर्थात् धर्म
अने धर्मीना कथंचित् तादात्म्यपणाने लीधे अर्थने ग्रहण करवाना (जाणवाना) व्यापारमां
परिणत आत्मा.
कोने (जाणतुं नथी)? स्वभावने; स्व एटले असाधारण; परस्पर भिन्न होवा छतां
(एकठा मळेला पदार्थोमांथी) विवक्षित (खास) पदार्थने अन्य पदार्थोथी व्यावर्त (भिन्न)
बताववामां कारणभूत भाव, ते धर्म
ते स्वभाव, तेने.
(बे अथवा बेथी अधिक मळेला पदार्थोमांथी कोई खास पदार्थने अन्य पदार्थोथी
भिन्न बतावनार असाधारण भाव (धर्म) तेने ते पदार्थनो स्वभाव कहे छे).
कोना (स्वभावने)? सुखदुःखशरीरादि पदार्थोना (स्वभावने). ते ज्ञान केवुं छे?
ढंकायेलुंआच्छादित थयेलुंअर्थात् वस्तुना यथार्थ स्वरूपना प्रकाशमां जेनुं सामर्थ्य
अभिभूत थयुं छे (पराभव पाम्युं छे) तेवुं (ते ज्ञान). कोनाथी (अभिभूत थयुं छे)?
मोहथी
मोहनीय कर्मना विपाकथी (उदयथी)(अर्थात् मोहनीयकर्मना उदयमां जोडावाथी
ते ज्ञान आच्छादित थयुं छे).
वळी, (लधीयस्त्रयमां) कह्युं छे के‘मलविद्ध०’

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२४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
मलविद्घमणेर्व्यक्तिर्यथा नैकप्रकारतः
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथा नैकप्रकारतः ।।
नन्वमूर्तस्यात्मन कथं मूर्तेन कर्मणाभिभवो युक्तः ? इत्यत्राहमत्त इत्यादि यथा नैव
लभते कोऽसौ ? पुमान् व्यवहारी पुरुषः कं ? पदार्थानां घटपटादीनां स्वभावम् किंविशिष्टः
सन् ? मत्तः जनितमदः कैः ? मदनकोद्रवैः ।।
‘‘मल सहित मणिका प्रकाश (तेज) जैसे एक प्रकारसे न होकर अनेक प्रकारसे
होता है, वैसे ही कर्मसम्बद्ध आत्माका प्रतिभास भी एक रूपसे न होकर अनेक रूपसे
होता है
’’
यहाँ पर किसीका प्रश्न है कि
अमूर्त्त आत्माका मूर्तिमान् कर्मोंके द्वारा अभिभव (पैदा) कैसे हो सकता है ?
उत्तरस्वरूप आचार्य कहते हैं किः
‘‘नशेको पैदा करनेवाले कोद्रव-कोदों धान्यको खाकर जिसे नशा पैदा हो गया
है, ऐसा पुरुष घट-पट आदि पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान सकता, उसी प्रकार कर्मबद्ध
आत्मा पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है
अर्थात् आत्मा व उसका ज्ञान गुण यद्यपि
अमूर्त्त है, फि र भी मूर्तिमान् कोद्रवादि धान्योंसे मिलकर वह बिगड़ जाता है उसी प्रकार
अमूर्त्त आत्मा मूर्त्तिमान् कर्मोंके द्वारा अभिभूत हो जाता है और उसके गुण भी दबे जा
सकते हैं
।।।।
जेवी रीते मळवाळा मणिनो प्रकाश एक प्रकारनो नहि होतां (अनेक प्रकारे होय
छे,) तेवी रीते कर्मसंबद्ध आत्मानी विज्ञप्ति एक प्रकारे नहि होतां अनेक रूपे होय छे.
(कर्म
मळथी आवृत्त ज्ञान खंडखंडरूप होई अनेकरूप होय छे).
शिष्ये प्रश्न कर्यो‘अमूर्त आत्मानो, मूर्त कर्म द्वारा अभिभव (पराभव) थवो
केवी रीते योग्य छे?’
तेना उत्तरस्वरूप आचार्य कहे छे‘मत्त इत्यादि०’
जेम जाणतो ज नथी. कोण ते? पुरुष एटले व्यवहारी पुरुष. कोने (जाणतो
नथी)? घटपटादि पदार्थोना स्वभावने. केवो थयेलो (ते पुरुष)? उन्मत्त (पागल)
थयेलोघेनमां आवेलो. शा वडे? मद उत्पन्न करनार कोद्रवोथी (कोद्रवोना निमित्तथी).
भावार्थ :जेम मादक कोद्रव (कोदरा)ना निमित्ते माणस पोतानी योग्यताथी

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २५
पुनराचार्य एव प्राहविराधक इत्यादि यावत् ‘स्वभावमनासादयन्
विसदृशान्यवगच्छतीति’शरीरादीनां स्वरूपमलभमानः पुरुषः शरीरादीनि अन्यथाभूतानि
प्रतिपद्यत इत्यर्थः
अमुमेवार्थं स्फु टयति
वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः
सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ।।।।
शरीर आदिकोंके स्वरूपको न समझता हुआ आत्मा शरीरादिकोंको किसी दूसरे
रूपमें ही मान बैठता है
इसी अर्थको आगेके श्लोकमें स्पष्टरीत्या विवेचित करते हैं
पुत्र मित्र घर तन तिया, धन रिपु आदि पदार्थ
बिल्कुल निजसे भिन्न हैं, मानत मूढ़ निजार्थ ।।।।
अर्थयद्यपि शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु आदि सब अन्य स्वभावको
उन्मत्त (पागल) बनी जाय छे, तेनुं ज्ञान पण मूर्छित थई जाय छे, तेने हेयउपादेयनो
कांई पण विवेक रहेतो नथी, तेम आ व्यवहारी (अज्ञानी) आत्म स्वस्वरूपथी च्युत थाय
छे, तेने हेय
उपादेयनो कांई विवेक रहेतो नथी, ते पोतानाथी सर्वथा भिन्न धनादि
संपदामां तथा देहस्त्रीपुत्रमित्रादिकमां आत्मकल्पना करे छेतेमने पोतानां माने छे
अने अत्यंत दुःखकर सांसारिक भोगोना भावने पण सुखकर माने छे. तेनुं ज्ञान, मोहथी
पराभव पामेलुं होवाथी, सुख
दुःख शरीरादि पदार्थोना यथार्थ स्वरूपने जाणतुं नथी
अर्थात् पदार्थोने विपरीत स्वरूपे जाणे छे. ७
फरीथी आचार्य ज कहे छे‘विराधक इत्यादि यावत्’(दशमा श्लोक सुधी) पोताना
स्वभावने प्राप्त नहि करनार (अर्थात् शरीर वगेरेनुं स्वरूप नहि जाणनार) पुरुष
शरीरादिने अन्यथा (अन्य प्रकारे) माने छे
एवो अर्थ छे.
आ ज अर्थनी (आचार्य) स्पष्टता करे छे
तन, धन, घर, स्त्री, मित्रअरि, पुत्रादि सहु अन्य,
परभावोमां मूढ जन, माने तेह अनन्य.
अन्वयार्थ :[वपुः ] शरीर, [गृहं ] घर, [धनं ] धन, [दाराः ] स्त्री, [पुत्राः ] पुत्रो,

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२६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीकाप्रपद्यते कोऽसौ ? मूढः स्वपरविवेकज्ञानहीनः पुमान् कानि, वपुर्गृहादीनि
वस्तूनि किंविशिष्टानि ? स्वानि स्वश्चात्मा स्वानि चात्मीयानि स्वानि एकशेषाश्रयणादेकस्य
स्वशब्दस्य लोपः अयमर्थो दृढतममोहाविष्टो देहादिकमात्मानं प्रपद्यतेआत्मत्वेनाभ्युपगच्छति
दृढतरमोहाविष्टश्च आत्मीयत्वेन किं विशिष्टानि सन्ति स्वानि प्रपद्यत इत्याह
सर्वथान्यस्वभावानिसर्वेण द्रव्यक्षेत्रकालभाव लक्षणेन प्रकारेण स्वस्वभावादन्यो भिन्नः
स्वभावो येषां तानि किं किमित्याहवपुः शरीरं तावदचेतनत्वादिस्वभावं प्रसिद्धमस्ति एवं गृहं
धनं दारा भार्याः पुत्राः आत्मजाः मित्राणि सुह्रदः शत्रवोऽमित्राः
लिए हुए पर-अन्य हैं, परन्तु मूढ़ प्राणी मोहनीयकर्मके जालमें फसकर इन्हें आत्माके समान
मानता है
विशदार्थस्व और परके विवेकज्ञानसे रहित पुरुष शरीर आदिक पर पदार्थोंको
आत्मा व आत्माके स्वरूप ही समझता रहता है अर्थात् दृढ़तम मोहसे वश प्राणी
देहादिकको (जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव लक्षणरूप हरेक प्रकारसे आत्मस्वभावसे भिन्न
स्वभाववाले हैं) ही आत्मा मानता है और दृढ़तर मोहवाला प्राणी, उन्हीं व वैसे ही
शरीरादिकको आत्मा नहीं, अपि तु आत्माके समान मानता रहता है
।।।।
[मित्राणि ] मित्रो, [शत्रवः ] शत्रुओ [सर्वथा अन्य स्वभावानि ] सर्वथा (चैतन्यस्वभावथी) भिन्न
स्वभाववाळां छे, [किन्तु ] छतां [मूढः ] अज्ञानी जीव [तानि ] तेमने [स्वानि ] पोतानां
[प्रपद्यते ] माने छे.
टीका :माने छे (समजे छे). कोण ते? मूढ अर्थात् स्वपरना विवेकज्ञानथी
रहित पुरुष, कोने (माने छे)? शरीर, गृह आदि वस्तुओने; केवा प्रकारनी (माने छे)?
पोतानी (माने छे). स्व एटले निज आत्मा,
स्वानि एटले आत्मीय स्व. [एकशेष समासने
लीधे एक ‘स्व’ शब्दनो लोप थयो छे]. आनो अर्थ ए छे केद्रढतम मोहथी आविष्ट
(मोहाभिभूत) प्राणी देहादिकने आत्मा माने छे, एटले के तेमने आत्मस्वरूप समजे छे
अने द्रढत्तर मोहथी आविष्ट प्राणी (तेमने) आत्मीय (एटले आत्मानां) माने छे.
(शिष्य) पूछे छेकेवा प्रकारनी वस्तुओने पोतानी माने छे? सर्वथा (सर्व प्रकारे)
अन्य (भिन्न) स्वभाववाळी (वस्तुओने)अर्थात् द्रव्यक्षेत्रकाळभावरूप सर्व प्रकारे
स्वस्वभावथी अन्य एटले भिन्न जेनो स्वभाव छे तेवी (वस्तुओने). वळी पूछ्युं, ‘‘कई
कई (वस्तुओ)’’ प्रथम तो वपु एटले शरीर जे अचेतनत्वादि स्वभाववाळुं प्रसिद्ध छे ते,
तेम ज घर, धन, दारा, स्त्री (भार्या), पुत्रो (आत्मजो), मित्रो (सुहृदो) अने शत्रुओ
(अमित्रो) वगेरे.