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जनितपुण्यस्य च स्वर्गादिपदप्राप्तिनिमित्तत्वादेव
तेओ सफळ छे, एटलुं ज नहि पण ते विषय संबंधी (व्रत संबंधी) अनुरागरूप
शुभोपयोगथी उत्पन्न पुण्य, स्वर्गादि पदनी प्राप्तिमां निमित्त होवाथी तेमनी (व्रतादिनी)
सफळता छे. आने ज (आ वातने ज) स्पष्ट करवा आचार्य कहे छे
शुभभाव आवे छे, तेटला अंशे तेना निमित्ते पुण्यकर्मनो बंध थाय छे अने पूर्वोपार्जित
अशुभ कर्मोमांथी केटलाक कर्मोनुं संक्रमण थई शुभकर्म
छे.]
नवीन शुभ कर्मोंके बंधके कारण होनेसे, तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मोंके एकदेश क्षयके
कारण होनेसे सफल एवं सार्थक हैं
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पुण्योथी स्वर्गादिपदरूप अभ्युदयनो संबंध होय छे, जे सकल जनोमां सुप्रसिद्ध छे.
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थयेलुं) [
बंनेमां तफावत छे,’ एम छाया इत्यादि द्रष्टान्त द्वारा प्रगट करी (आचार्य) कहे छे
मार्गमां प्रतीक्षा करता
बेठेलो (पथिक) दुःखथी बेसे छे, तेम ज्यां सुधी सुद्रव्यादि मुक्तिनां कारणो प्राप्त थाय,
त्यां सुधी व्रतादि आचरण करनार ते आत्मा
जीव ज्यारे निर्विकल्प दशामां रही शकतो नथी, त्यारे तेने हेयबुद्धिए व्रतादिपालननो
शुभभाव आवे छे अने ते शुभभावना निमित्ते ते स्वर्गादिस्थानोमां सुख भोगवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने नरकमां जवा जेवा भाव थता ज नथी; परंतु हिंसादि अव्रतना अशुभ भाव
हुआ है और दूसरा धूपमें बैठा हुआ है
दुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है
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करना अयुक्त ही हो जाएगा ? कारण कि आत्मानुरागसे होनेवाला मोक्षरूपी सुख तो
योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिरूप सम्पत्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत
दूर हो जाएगा और बीचमें ही मिलनेवाला स्वर्गादि-सुख व्रतोंके साहाय्यसे मिल जाएगा
ओर आकर्षित न होते हुए, व्रतादिकोंकी ओर ही अधिक झुक जाएँगे
छे, तेथी चिद्रूप आत्मामां भक्तिभाव अर्थात् विशुद्ध अंतरंग अनुराग करवो अयुक्त
होवाथी दूरवर्ती थशे अने व्रतो द्वारा अवान्तर (वचमां) प्राप्त स्वर्गादिनुं सुख एक
साध्य थशे.
तावत्स्वर्गादिपदेषु सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेषु दुःखेनेति
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के
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प्रदान करता है और यदि चरमशरीरी न हो तो उसे वह आत्म-ध्यानसे उपार्जित पुण्यकी
सहायतासे भुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्त्यादिके भोगों)को प्रदान करनेवाला होता है
रहे
छे.’......(श्लो. १९६).
भुक्ति (अर्थात् स्वर्ग, चक्रवर्त्यादिना भोगो) प्रदान करे छे.’.......(श्लो. १९७).
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नहीं
बोजो बे कोश लई जई शके तेटली ताकातवाळो छे, ते शुं ते बोजो अर्धो कोश लई जतां
थाकी जशे? नहि ज थाके; तेवी रीते जे जीवे पूर्णताना लक्षे
अचरमशरीरी छे
फळस्वरूप तेमने स्वर्ग
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है ?’’
(उपमा रहित) सुख हुआ करता है, कि उस सरीखा अन्य सुख बतलाना कठिन ही है
क्रीडादिकना कारणे रमणीय पर्वतादिमां (वसता). शुं ते अतीन्द्रिय (सुख) छे? (उत्तरमां)
कहे छे
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भविष्यतीत्याशंकापनोदार्थमाह
सर्वांगीण हर्षके रूपमें उत्पन्न हो जाता है। तथा जो आतंक (शत्रु आदिकोंके द्वारा किये
गये चित्तक्षोभ)से भी रहित होता है, अर्थात् वह सुख राज्यादिकके सुखके समान
आंतकसहित नहीं होता है
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लाभ ?’’
तेवो अर्थ छे.
अने देवो ते सुख पोतानी देवीओ साथे सागरोपम काल सुधी भोगवे छे; भोगभूमिना
सुख जेवुं ते अल्पकालीन नथी. ५.
(शुं प्रयोजन)?
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होवाथी, परमार्थे देहादि (पदार्थ) विषे ते उपेक्षणीय छे. तेमां तत्त्वज्ञानना अभावे, ‘आ
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बेचेनी)के समयमें रोगों (ज्वरादिक व्याधियों)की तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले
होते हैं
थयेलो संस्कार ते वासना छे. ते (वासना) इष्ट
आत्मस्वरूप नथी.
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दूरे धेहि न हृष्य एव किमभूरन्या न वेत्सि क्षणम्
होते हैं
स्त्रीने कहेवा लाग्यो
छे, ‘‘शुं बीजी स्त्री साथे प्रीति करी छे?’’ पति कहे छे, ‘‘तुं समय जोती नथी. जो धैर्य
होय तो प्रयत्नथी इन्द्रियोने वशमां राख’’
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लगते
है
सका
सर्व आरंभोमां तन्दुलप्रस्थ ए मूळ वात छे. (अर्थात् घरमां भोजन माटे तन्दुल होय
तो आ बधा पदार्थो सुन्दर लागे छे, नहि तो नहि.)
संताप देतां लाग्यां; कारण के मन दुःखी थतां बधुं असह्य थई पडे छे; सारुं लागतुं नथी;
इत्यादि.
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करनेवाले माने गये हैं, वे ही दुःखके कारण कैसे हो जाते ? अतः निष्कर्ष निकला कि
देहधारियोंका सुख केवल काल्पनिक ही है और इसी प्रकार उनका दुःख भी काल्पनिक
है
ते दुःखनुं कारण केम बने? एम ते (इन्द्रिय
करवी व्यर्थ छे.
सुख
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पदार्थोंको ठीक-ठीक रूपसे नहीं जान पाता है
पडतुं नथी? अर्थात् लोकोने ते केम संवेदनमां आवतुं नथी? शेष स्पष्ट छे.
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पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है
भाव कहते हैं
धर्मको उस पदार्थका स्वभाव कहते हैं
परिणत आत्मा.
बताववामां कारणभूत भाव, ते धर्म
मोहथी
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होता है
उत्तरस्वरूप आचार्य कहते हैं किः
आत्मा पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है
सकते हैं
(कर्म
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छे, तेने हेय
पराभव पामेलुं होवाथी, सुख
शरीरादिने अन्यथा (अन्य प्रकारे) माने छे
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मानता है
स्वभाववाले हैं) ही आत्मा मानता है और दृढ़तर मोहवाला प्राणी, उन्हीं व वैसे ही
शरीरादिकको आत्मा नहीं, अपि तु आत्माके समान मानता रहता है
पोतानी (माने छे). स्व एटले निज आत्मा,
अने द्रढत्तर मोहथी आविष्ट प्राणी (तेमने) आत्मीय (एटले आत्मानां) माने छे.
तेम ज घर, धन, दारा, स्त्री (भार्या), पुत्रो (आत्मजो), मित्रो (सुहृदो) अने शत्रुओ
(अमित्रो) वगेरे.