Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 9-15.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २७
उत्थानिकाशरीर आदिक पदार्थ जो कि मोहवान् प्राणीके द्वारा उपकारक एवं
हितू समझे जाते हैं, वे सब कैसे हैं, इसको आगे श्लोकमें उल्लिखित दृष्टांत द्वारा दिखाते
हैं :
भावार्थ :स्वपरना भेदविज्ञानथी रहित मूढ जीवो, द्रव्यक्षेत्रकाळभावरूपे
आत्मस्वभावथी सर्वथा भिन्न स्वभाववाळां जे शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि
पदार्थो छे; तेमने स्व तथा आत्मीय (स्वीय)
पोतानां माने छे.
असद्भूत व्यवहारनये आ बधां, जीवनां कहेवामां आवे छे एटले के ए बधांनो
संयोग जीवने छे खरो, पण ते जीवथी सर्वथा भिन्न छे; ते दर्शाववा माटे प्रस्तुत मूळ
गाथामां तेम ज टीकामां सर्वथा शब्द वापर्यो छे.
आ रीते मूढ जीवो पोताना आत्मस्वभावथी सर्वथा भिन्न स्वभाववाळा पदार्थोमां
आत्मबुद्धि अने आत्मीयबुद्धि करी दुःखी थाय छे.
समाधितंत्रश्लोक ५६मां पण कह्युं छे के
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति
अज्ञानी जीव, अनात्मीयभूत एटले आत्मीय नहि एवां स्त्रीपुत्रादिकमां, ‘ए मारां
छे’ अने अनात्मभूत एटले आत्मभूत नहि एवा शरीरादिकमां, ‘ए हुं छुं’ एवो
अध्यवसाय (विपरीत मान्यता) करे छे. ८
अहीं, हितवर्गने उद्देशीने द्रष्टान्त छे.
अहीं, एटले शरीरादि मध्ये जे हितकारक एटले उपकारक स्त्री आदिनो वर्ग एटले
गण (समूह) छे, तेमने उद्देशीने एटले तेमने विषय करीने (ते केवां छे ते समजाववा
माटे) अमे द्रष्टान्त एटले उदाहरण आपीए छीए. ते आ प्रमाणे छे
[शरीरादि पदार्थो जेने मोहवान प्राणी उपकारक वा हितकारक माने छे, ते बधा
केवा छे ते द्रष्टांत द्वारा आचार्य समजावे छे.]
अत्र हितवर्गमुद्दिश्य दृष्टान्तः
अत्रैतेषु वपुरादिषु मध्ये हितानामुपकारकाणां दारादीनां वर्गो गणस्तमुद्दिश्य विषयीकृत्य
दृष्टान्त उदाहरणं प्रदर्श्यते अस्माभिरिति शेषः
तद्यथा

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२८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसन्ति नगे नगे
स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे ।।।।
टीकासंवसन्ति मिलित्वा रात्रिं यावन्निवासं कुर्वन्ति के ते ? खगाः पक्षिणः क्व
क्व ? नगे नगे वृक्षे वृक्षे किं कृत्त्वा ? एत्य आगत्य केभ्यो ? दिग्देशेभ्यः, दिशः पूर्वादयो
दश, देशस्तस्यैकदेशो अङ्गवङ्गादयस्तेभ्योऽवधिकृतेभ्यः तथा यान्ति गच्छन्ति के ते ? स्वगाः
दिशा देशसे आयकर, पक्षी वृक्ष बसन्त
प्रात होत निज कार्यवश, इच्छित देश उड़न्त ।।।।
अर्थदेखो, भिन्न-भिन्न दिशाओं व देशोंसे उड़ उड़कर आते हुए पक्षिगण वृक्षों
पर आकर रैनबसेरा करते हैं और सबेरा होने पर अपने-अपने कार्यके वशसे भिन्न-भिन्न
दिशाओं व देशोंमें उड़ जाते हैं
विशदार्थजैसे पूर्व आदिक दिशाओं एवं अंग, बंग आदि देशोंसे उड़कर पक्षिगण
वृक्षों पर आ बैठते हैं, रात रहने तक वहीं बसेरा करते हैं और सबेरा होने पर अनियत
दिशा व देशकी ओर उड़ जाते हैं
उनका यह नियम नहीं रहता है कि जिस देशसे आये
दिशादेशथी आवीने, पक्षी वृक्षे वसन्त,
प्रातः थतां निज कार्यवश, विधविध देश उडन्त.
अन्वयार्थ :[खगाः ] पक्षीओ [दिग्देशेभ्यः ] (पूर्वादि) दिशाओथी अने (अंग,
बंग आदि) देशोथी [एत्य ] आवीने [नगे नगे ] वृक्षो उपर [संवसन्ति ] निवास करे छे अने
[प्रगे प्रगे ] प्रातःकाल थतां [स्वस्वकार्यवशात् ] पोतपोताना कार्यवशात् [देशे दिक्षु ] (जुदा जुदा)
देशो अने दिशाओमां [यान्ति ] चाल्यां जाय छे.
टीका :संवास करे छे एटले एकठा थई रात सुधी निवास करे छे. कोण ते?
पक्षीओ. क्यां क्यां (निवास करे छे)? वृक्षो उपर. शुं करीने? आवीने. क्यांथी (आवीने)?
दिशाओ अने देशोथी; दिशाओ एटले पूर्वादि दश दिशाओ; देश एटले तेनो एक भाग
अंग, बंग आदि; ते अवधिकृत (मर्यादित)देशोथी (आवे छे) तथा जाय छे. कोण ते?
पक्षीओ. क्यां (जाय छे?) दिशाओमां अर्थात् दिशाओ अने देशोमां. प्राप्त करेला स्थानथी
तेमनो जवानो नियम ऊलटो छे एवो निर्देश छे, अर्थात् जवाना नियमनो अभाव छे.
एवो अर्थ छे. जे जे दिशाएथी आव्यां ते ते ज दिशामां जाय अने जे देशथी आव्यां
ते ते ज देशमां जाय
एवो नियम नथी, तो केम छे? ज्यां त्यां इच्छानुसार तेओ जाय

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २९
कासु ? दिक्षु दिग्देशेष्विति; प्राप्तेर्विपर्ययनिर्द्देशो गमननियमनिवृत्त्यर्थस्तेन, यो यस्याः दिशः
आयातः स तस्यामेव दिशि गच्छति यश्च यस्माद्देशादायात् स तस्मिन्नेवदेशे गच्छतीति नास्ति
नियमः
किं तर्हि ? यत्र क्वापि यथेच्छं गच्छतीत्यर्थः कस्मात् स्वस्वकार्यवशात्
निजनिजकरणीयपारतंत्र्यात् कदा कदा ? प्रगे प्रगे प्रातः प्रातः एवं संसारिणो जीवा अपि
नरकादिगतिस्थानेभ्य आगत्य कुले स्वायुःकालं यावत् संभूय तिष्ठन्ति तथा निजनिजपारतन्त्र्यात्
देवगत्यादिस्थानेष्वनियमेन स्वायुःकालान्ते गच्छन्तीति प्रतीहि
कथं भद्र ! तव दारादिषु
हितबुद्धया गृहीतेषु सर्वथान्यस्वभावेषु आत्मात्मीयभावः ? यदि खलु एते त्वदात्मका स्युः तदा
त्वयि तदवस्थे एव कथमवस्थान्तरं गच्छेयुः यदि च एते तावकाः स्युस्तर्हि कथं त्वत्प्रयोगमंतरेणैव
यत्र क्वापि प्रयान्तीति मोहग्रहावेशमपसार्य यथावत्पश्येति दार्ष्टान्ते दर्शनीयम्
।।
हों उसी ओर जावें वे तो कहींसे आते हैं और कहींको चले जाते हैंवैसे संसारी जीव भी
नरकगत्यादिरूप स्थानोंसे आकर कुलमें अपनी आयुकाल पर्यन्त रहते हुए मिल-जुलकर रहते
हैं, और फि र अपने अपने कर्मोंके अनुसार, आयुके अंतमें देवगत्यादि स्थानोंमें चले जाते हैं
हे भद्र ! जब यह बात है तब हितरूपसे समझे हुए, सर्वथा अन्य स्वभाववाले स्त्री आदिकोंमें
तेरी आत्मा व आत्मीय बुद्धि कैसी ? अरे ! यदि ये शरीरादिक पदार्थ तुम्हारे स्वरूप होते
तो तुम्हारे तद्वस्थ रहते हुए, अवस्थान्तरोंको कैसे प्राप्त हो जाते ? यदि ये तुम्हारे स्वरूप
नहीं अपितु तुम्हारे होते तो प्रयोगके बिना ही ये जहाँ चाहे कैसे चले जाते ? अतः मोहनीय
पिचाशके आवेशको दूर हटा ठीक ठीक देखनेकी चेष्टा कर
।।।।
छे. शाथी (जाय छे)? पोतपोताना कार्यवशात् अर्थात् पोतपोताने करवा योग्य कार्यनी
पराधीनताने लीधे. क्यारे क्यारे (जाय छे)? सवारे, सवारे.
ए प्रमाणे संसारी जीवो पण नरकादि गतिस्थानोथी आवीने कुळमां (कुटुंबमां)
पोताना आयुकाळ सुधी एकठा थईने रहे छे अने पोताना आयुकाळना अंते पोतपोतानी
पराधीनताने लीधे अनियमथी (नियम विना) देवगति आदि स्थानोमां चाल्या जाय छे
एम प्रतीति (विश्वास) कर.
तो हे भद्र! हितबुद्धिए ग्रहेलां (अर्थात् आ हितकारक छे एम समजीने पोतानां
मानेलां) स्त्री आदि जे सर्वथा भिन्न स्वभाववाळां छे, तेमां तारो आत्मा तथा आत्मीयभाव
केवो? जो खरेखर तेओ (शरीरादिक) तारा आत्मस्वरूप होय, तो तुं ते अवस्थामां ज
होवा छतां तेओ बीजी अवस्थाने केम प्राप्त थाय छे? जो तेओ तारां होय तो तारा
प्रयोग विना तेओ ज्यां
त्यां केम चाल्यां जाय छे? माटे मोहजनित आवेशने हठावीने
जेम (वस्तुस्वरूप) छे, तेम जोएम दार्ष्टान्तमां समजवा योग्य छे.

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३० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अहितवर्गेऽपि दृष्टान्तः प्रदर्श्यते अस्माभिरिति योज्यम् :
उत्थानिकाआचार्य आगेके श्लोकमें शत्रुओंके प्रति होनेवाले भावोंको ‘ये हमारे
शत्रु हैं’ ‘अहितकर्ता हैं’ आदि अज्ञानपूर्ण बतलाते हुए उसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं, साथ
ही ऐसे भावोंको दूर करनेके लिए प्रेरणा भी करते हैं :
भावार्थ :जेवी रीते पक्षीओ जुदी जुदी दिशा अने देशोथी आवी रात्रे वृक्ष
उपर एकठां निवास करे छे अने सवारे पोतपोताना कार्य अंगे इच्छानुसार कोई देश
या दिशामां ऊडी जाय छे, तेवी रीते संसारी जीवो नरकगति आदिरूप स्थानोथी आवी
एक कुटुंबमां जन्म ले छे अने त्यां पोताना आयुकाल सुधी कुटुंबीजनो साथे रहे छे,
पछी पोतानी आयु पूरी थतां तेओ पोतपोतानी योग्यतानुसार देवगति आदि स्थानोमां
चाल्या जाय छे.
जेम पक्षीओ जे दिशाएथी अने देशमांथी आवे ते ज दिशादेशमां पाछा जाय
एवो कोई नियम नथी, तेम संसारी जीवो पण आयु पूरी थतां जे गतिमांथी आव्या
हता ते ज गति
स्थानोमां फरी जाय एवो कोई नियम नथी; पोतपोतानी
योग्यतानुसार नवी गतिमां जाय छे.
आचार्य शिष्यने बोधरूपे कहे छे, ‘‘हे भद्र! शरीरादि पदार्थो ताराथी सर्वथा
भिन्न स्वभाववाळा छे. जो तेओ तारा होय, तो बन्ने जुदा पडी केम चाल्या जाय
छे? जो तेओ तारा आत्मस्वरूप होय तो आत्मा तो तेना त्रिकाली स्वरूपे तेनो ते
ज रहे छे अने तेनी साथे शरीरादि संयोगी पदार्थो तो तेना ते रहेता नथी. जो
तेओ आत्मस्वरूप होय तो आत्मानी साथे ज रहेवां जोईए पण तेम तो जोवामां
आवतुं नथी; माटे तेमने आत्मस्वरूप मानवा ते भ्रम छे अर्थात् शरीरादि पर पदार्थोमां
हितबुद्धिए आत्मभाव या आत्मीयभाव करवो ते अज्ञानता छे. वस्तुस्वरूप समजी
आत्मभाव वा आत्मीयभावनो परित्याग करवो ते श्रेयस्कर छे.’’ अहीं पण ‘सर्वथा’
संबंधी आ पूर्वेनी गाथामां जेम कह्युं छे तेम समजवुं.
अहित वर्ग संबंधमां पण अमे द्रष्टान्त आपीशुंएम योजवुं. (अर्थात् शत्रुओ
प्रति ‘आ अमारो शत्रु छेअहितकर्ता छे’एवो भाव अज्ञानजनित छे, ते द्रष्टान्त
द्वारा आचार्य बतावे छे.)

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३१
विराधकः कथं हंत्रे जनाय परिकुप्यति
त्र्यङ्गुलंपातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते ।।१०।।
टीकाकथमित्यरुचौ न श्रद्दधे कथं परिकुप्यति समन्तात् क्रुध्यति कोऽसौ ?
विराधकः अपकारकर्त्ता जनः कस्मै हन्त्रे जनाय प्रत्यपकारकाय लोकाय
‘सुखं वा यदि दुःखं येन यस्य कृतं भुवि
अवाप्नोति स तत्तस्मादेष मार्गः सुनिश्चितः ।।
अपराधी जन क्यों करे, हन्ता जनपर क्रोध
दो पग अंगुल महि नमे, आपहि गिरत अबोध ।।१०।।
अर्थजिसने पहिले दूसरेको सताया या तकलीफ पहुँचाई है, ऐसा पुरुष उस
सताये गये और वर्तमानमें अपनेको मारनेवालेके प्रति क्यों गुस्सा करता है ? यह कुछ
जँचता नहीं
अरे ! जो त्र्यङ्गुलको पैरोंसे गिराएगा वह दंडेके द्वारा स्वयं गिरा दिया
जायगा
विशदार्थदूसरेका अपकार करनेवाला मनुष्य, बदलेमें अपकार करनेवालेके प्रति
क्यों हर तरहसे कुपित होता है ? कुछ समझमें नहीं आता
अपराधी जन कां करे, हन्ता जन पर क्रोध?
पगथी त्र्यंगुल पाडतां, दंडे पडे अबोध. १०
अन्वयार्थ :[विराधकः ] विराधक (जेणे पहेलां बीजाने हेरान कर्यो हतोदुःख
आप्युं हतुंएवो पुरुष) [हन्त्रे जनाय ] (वर्तमानमां) पोताने मारनार माणस प्रत्ये [कथं
परिकुष्यति ] केम गुस्सो करे छे? (अरे देखो!) [त्र्यंङ्गुलं ] त्र्यंगुलने [पद्भ्यां ] पगोथी
[पातयन् ] नीचे पाडनार (मनुष्य) [स्वय ] स्वयं [दण्डेन ] दंड वडे (त्र्यंगुलना दंड वडे)
[पात्यते ] नीचे पडाय छे.
टीका :[अरुचि(अणगमाना) अर्थमां कथम् शब्द छे]. मने श्रद्धामां बेसतुं
नथी (मने समजवामां आवतुं नथी) के केम परिकोप करे छे अर्थात् सर्वप्रकारे केम
कोपायमान थाय छे? कोण ते? विराधक एटले अपकार करनार माणस. कोना उपर (कोप
करे छे)? हणनार माणस उपर एटले सामो अपकार करनार लोक उपर.
‘संसारमां ए सुनिश्चित रीति छे के जे जेने सुख के दुःख आपे छे, ते तेना तरफथी
ते (सुख के दुःख) पामे छे.

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३२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इत्यभिधानादन्याय्यमेतदिति भावः अत्र दृष्टान्तमाचष्टे त्र्यंगुलमित्यादिपात्यते भूमौ
क्षिप्यते कोऽसौ ? यः कश्चिदसमीक्ष्यकारी जनः, केन ? दण्डेन हस्तधार्यकाष्ठेन कथं ?
स्वयंपात्यते प्रेरणमन्तरेणैव किं कुर्वन् ? पातयन् भूमिं प्रति नामयन् किं तत् ? त्र्यङ्गुलं
अङ्गुलित्रयाकारं कच्चराद्याकर्षणावयवम् काभ्यां ? पादाभ्यां, ततोऽहिते प्रीतिरहिते चाप्रीतिः
स्वहितैषिणा प्रेक्षावता न करणीया
भाई ! सुनिश्चित रीति या पद्धति यही है, कि संसारमें जो किसीको सुख या दुःख
पहुँचाता है, वह उसके द्वारा सुख और दुःखको प्राप्त किया करता है जब तुमने किसी
दूसरेको दुःख पहुँचाया है तो बदलेमें तुम्हें भी उसके द्वारा दुःख मिलना ही चाहिए इसमें
गुस्सा करनेकी क्या बात है ? अर्थात् गुस्सा करना अन्याय है, अयुक्त है इसमें दृष्टान्त
देते हैं कि जो बिना विचारे काम करनेवाला पुरुष है वह तीन अंगुलीकी आकारवाले कूड़ा
कचरा आदिके समेटनेके काममें आनेवाले ‘अंगुल’ नामक यंत्रको पैरोंले जमीन पर गिराता
है, तो यह बिना किसी अन्यकी प्रेरणाके स्वयं ही हाथमें पकड़े हुए डंडेसे गिरा दिया जाता
है
इसलिए अहित करनेवाले व्यक्तिके प्रति, अपना हित चाहनेवाले बुद्धिमानोंको, अप्रीति,
अप्रेम या द्वेष नहीं करना चाहिए ।।१०।।
(अर्थात् सामो अपकार करनार पुरुष उपर कोप करवो) ते अन्याययुक्त छे
(अयोग्य छे)एवो आ कथननो भाव छे.
अहीं (आ बाबतमां) द्रष्टान्त कहे छेत्र्यङ्गुलमित्यादि०’
पाडवामां आवे छे, एटले (कोईथी) भूमि उपर पटकवामां आवे छे. कोण ते?
कोई अविचार्युं काम करनार माणस. कोना वडे (पाडवामां आवे छे)? दंड वडे अर्थात्
हाथमां राखेला काष्ट (लाकडा) वडे. केवी रीते? स्वयं पाडवामां आवे छे
(कोईनी) प्रेरणा
विना ज. शुं करतां? (नीचे) पाडतां एटले भूमि तरफ नमावतां. शुं (नमावतां)? त्र्यंगुलने
अर्थात् त्रण आंगळांना आकारवाळां कूडा
कचरादिने खेंचनार यंत्रने. शा वडे? बे पग वडे.
माटे अहित करनार अर्थात् प्रीतिरहित व्यक्ति प्रत्ये, पोतानुं हित इच्छनार
बुद्धिमान (पुरुषे) अप्रीति एटले द्वेष करवो जोईए नहि.
भावार्थ :मनुष्य माटी खोदवा के कचरो खेंचवा माटे त्र्यंगुलने नीचे पाडे छे,
त्यारे तेने पण स्वयं नीचे पडवुं पडे छे, कारण के तेनो दंड (हाथो) नानो होय छे. ते
त्र्यंगुलने नीचे पाडे छे तो त्र्यंगुलनो दंड पण तेने नीचे पाडे छे; तेम जो तमे कोईने दुःखी
करो अने बीजो कोई तमने दुःखी करे अने तेना उपर गुस्से थाओ
, ए केटलो अन्याय

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३३
अत्र विनेयः पृच्छति हिताहितयो रागद्वेषौ कुर्वन् किं कुरुते ? इति दारादिषु रागं शत्रुषु
च द्वेषं कुर्वाणः पुरुषः किमात्मनेऽहितं कार्यं करोति येन तावदकार्यतयोपदिश्यते इत्यर्थः
अत्राचार्य, समाधत्ते
रागद्वेषद्वयी दीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ।।११।।
यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है, कि स्त्री आदिकोंमें राग और शत्रुओंमें द्वेष करनेवाला
पुरुष अपना क्या अहितबिगाड़ करता है ? जिससे उनको (राग-द्वेषोंको) अकारणीय
न करने लायक बतलाया जाता है ? आचार्य समाधान करते हैं :
मथत दूध डोरीनितें, दंड फि रत बहु बार
राग द्वेष अज्ञानसे, जीव भ्रमत संसार ।।११।।
अर्थयह जीव अज्ञानसे राग-द्वेषरूपी दो लम्बी डोरियोंकी खींचतानीसे संसाररूपी
समुद्रमें बहुत काल तक घूमता रहता हैपरिवर्तन करता रहता है
छे? कारण के ‘संसारमां ए सुनिश्चित वात छे के जे कोई माणस बीजाने सुख या दुःख
आपे छे, तेने बीजा तरफथी सुख या दुःख ज प्राप्त थाय छे.
माटे पोतानुं हित चाहनार बुद्धिमान पुरुषे अहित करनार व्यक्ति प्रत्ये अप्रीति
के द्वेष करवो योग्य नथी. १०.
अहीं, शिष्य पूछे छेहित अने अहित करनाराओ प्रत्ये रागद्वेष करनार शुं
करे छे? (स्त्री, आदि प्रत्ये राग अने शत्रुओ प्रत्ये द्वेष करनार पुरुष पोतानुं शुं अहित
कार्य करे छे, जेथी राग
द्वेष करवा योग्य नथीएम तेने उपदेशवामां आवे छे?
अहीं, आचार्य समाधान करे छे
दीर्घ दोर बे खेंचतां, भमे दंड बहु वार,
रागद्वेष अज्ञानथी, जीव भमे संसार. ११.
अन्वयार्थ :[असौ जीवः ] आ जीव [अज्ञानात् ] अज्ञानथी [रागद्वेषद्वयी-
दीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा ] रागद्वेषरूपी बे लांबी दोरीओनी (नेतरांनी) खेंचताणना कार्यथी
[संसाराब्धौ ] संसार समुद्रमां [सुचिरं ] बहु लांबा काळ सुधी [भ्रमति ] घूमतो रहे छेभमतो
रहे छे.

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३४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीकाभ्रमति संसरति कोऽसौ ? असौ जीवश्चेतनः क्व ? संसाराब्धौसंसारः
द्रव्यपरिवर्तनादिरूपो भवोऽब्धिः समुद्र इव दुःखहेतुत्वाद् दुस्तरत्त्वाच्च तस्मिन् कस्मात् ?
अज्ञानात् देहादिष्वात्मविभ्रमात् कियत्कालं, सुचिरं अतिदीर्घकालम् केन ? रागेत्यादि रागः
इष्टे वस्तुनि प्रीतिः द्वेषश्चानिष्टेऽप्रीतिस्तयोर्द्वयी रागद्वेषयोः शक्तिव्यक्तिरूपतया युगपत्
प्रवृत्तिज्ञापनार्थं द्वयीग्रहणं, शेषदोषाणां च तद्द्वयप्रतिबद्धत्वबोधनार्थं
तथा चोक्तम् [ज्ञानार्णवे ]
यत्र रागः पदं धत्ते, द्वेषस्तत्रेति निश्चयः
उभावेतौ समालम्ब्य विक्रमत्यधिकं मनः ।।२३।।
विशदार्थद्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंचपरावर्तनरूप संसार, जिसे दुःखका
कारण और दुस्तर होनेसे समुद्रके समान कहा गया है, उसमें अज्ञानसे-शरीरादिकोंमें
आत्मभ्रान्तिसे-अतिदीर्घ काल तक घूमता (चक्कर काटता) रहता है
इष्ट वस्तुमें प्रीति होनेको
राग और अनिष्ट वस्तुमें अप्रीति होनेको द्वेष कहते हैं उनकी शक्ति और व्यक्तिरूपसे हमेशा
प्रवृत्ति होती रहती है, इसलिए आचार्योंने इन दोनोंकी जोड़ी बतलाई है बाकीके दोष इस
जोड़ीमें ही शामिल है, जैसा कि कहा गया है :‘‘यत्र रागः पदं धत्ते’’
‘‘जहाँ राग अपना पाँव जमाता है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है या हो जाता है,
टीका :भमे छे एटले संसरण करे छे. कोण ते? ते जीवचेतन. क्यां (भमे
छे)? संसारसमुद्रमां, संसार एटले द्रव्यपरिवर्तनादिरूप भव, जे दुःखनुं कारण अने
दुस्तर होवाथी अब्धि एटले समुद्र जेवो छेतेमां. शा कारणथी भमे छे? अज्ञानने लीधे
अर्थात् देहादिमां आत्मविभ्रमना कारणे. केटला काळ सुधी (भमे छे)? सुचिर एटले बहु
लांबा काळ सुधी. शाथी?
‘रागेत्यादि०’ राग इत्यादिथी.
राग एटले इष्ट वस्तुमां प्रीति अने द्वेष एटले अनिष्ट वस्तुमां अप्रीति, ते बंनेनुं
युगल. रागद्वेषनी प्रवृत्ति, शक्तिरूपे तथा व्यक्तिरूपे हंमेशां एकीसाथे होय छे; ते
जणाववा माटे तथा बाकीना दोषो पण ते (बंनेना) युगलमां गर्भित छे (अर्थात् सामेल
छे
ते साथे संबंध राखे छे) ते बताववा माटे (आचार्ये) ते बंनेनुं (रागद्वेषनुं युगल)
ग्रहण कर्युं छे.
वळी, ‘ज्ञानार्णव’मां कह्युं छे के
‘ज्यां राग पोतानो पग जमावे छे (राखे छे) त्यां द्वेष अवश्य होय छे. ते बंनेना

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३५
अपि चआत्मनि सति परसंज्ञा, स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ
अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाश्च जायन्ते ।।
सा दीर्धनेत्रायतमन्थाकर्षणपाश इव भ्रमणहेतुत्वात्तस्यापकर्षणकर्मजीवस्य रागादिरूपतया
परिणमनं नेत्रस्यापकर्षणत्वाभिभुखानयनं तेन अत्रोपमानभूतो मन्थदण्ड आक्षेप्यस्तेन यथा
नेत्राकर्षणव्यापारेण मन्थाचलः समुद्रे सुचिरं भ्रान्तो लोके प्रसिद्धस्तथा स्वपरविवेकानवबोधात्
यदुद्भूतेन रागादिपरिणामेन कारणकार्योपचारात्तज्जनितकर्मबन्धेन अनादिकालं संसारे भ्रान्तो
यह निश्चय है इन दोनों (राग-द्वेष)के आलम्बनसे मन अधिक चंचल हो उठता है और
जितने दोष हैं, वे सब राग-द्वेषके संबद्ध हैं,’’ जैसा कि कहा गया है‘‘आत्मनि सति
परसंज्ञा’’
‘‘निजत्वके होने पर परका ख्याल हो जाता और जहाँ निज-परका विभाग (भेद) हुआ
वहाँ निजमें रागरूप और परमें द्वेषरूप भाव हो ही जाते हैं बस इन दोनोंके होनेसे अन्य
समस्त दोष भी पैदा होने लग जाते हैं, कारण कि वे सब इन दोनोंके ही आश्रित हैं ’’
वह राग-द्वेषकी जोड़ी तो हुई मंथानीके डंडेको घुमानेवाली रस्सीके फाँसाके समान
और उसका घूमना कहलाया जीवका रागादिरूप परिणमन सो जैसे लोकमें यह बात
प्रसिद्ध है कि नेतरीके खींचा-तानीसे जैसे मंथराचल पर्वतको समुद्रमें बहुत काल तक भ्रमण
(राग-द्वेषना) अवलंबनथी मन अधिक विकारी बने छे (क्षोभ पामे छेचंचळ बने
छे).’ (२३)
वळी, ज्यां मारापणानो भाव आवे छे, त्यां परसंज्ञा (पर तरफनो भाव) आवे
छे. स्वपरना विभागने लीधे राग-द्वेष होय छे, (अर्थात् ज्यां आ मारुं छे अने ए
बीजानुं छेएवो स्वपरनो विभागभेद छे, त्यां स्वमां रागरूप अने परमां द्वेषरूप भाव
थाय छे). आ बंने दोषो साथे संबंध राखता (अन्य) सर्व दोषो उत्पन्न थाय छे (अर्थात्
अन्य सर्व दोषोनुं मूळ राग-द्वेष छे).
जेने मन्थनदंडना भ्रमणनुं कारण तेने खेंचवामां पाशरूप दीर्घनेतरां (दोरी)ना
आकर्षणनी (खेंचताणनी) क्रिया छे, तेम जीवने (संसारमां) भ्रमणनुं कारण तेनुं रागादिरूप
परिणमवुं ते छे. नेतरांना आकर्षणथी अभिमुख लावेलो उपमानभूत (जेनी साथे जीवनी
सरखामणी छे तेवो) मंथनदंड भमवा योग्य छे.
लोकमां ए वात प्रसिद्ध छे, के नेतरां (दोरीओ)नी खेंचताणनी क्रियाथी (आकर्षणनी
क्रियाथी) जेम मंथराचल पर्वत समुद्रमां बहु लांबा काळ सुधी घूमतो रह्यो, तेम स्वपरना

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३६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भ्रमति भ्रमिष्यति भ्रमतीत्यवतिष्ठन्ते पर्वता इत्यादिवत् नित्यप्रवृत्ते लटा विधानात्
उक्तं च[पंचत्थिपाहुडे ]
‘जो खलुं संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो
परिणामादो कम्मं कम्मादो हवदि गदिसु गदी ।।१२८।।
गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते
तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।।१२९।।
करना पड़ा उसी तरह स्वपर विवेकज्ञान न होनेसे रागादि परिणामोंके द्वारा जीवात्मा
अथवा कारणमें कार्यका उपचार करनेसे, रागादि परिणामजनित कर्मबंधके द्वारा बँधा हुआ
संसारीजीव, अनादिकालसे संसारमें घूम रहा है, घूमा था और घूमता रहेगा
मतलब यह
है कि ‘रागादि परिणामरूप भावकर्मोंसे द्रव्यकर्मोंका बन्ध होता’ ऐसा हमेशासे चला आ
रहा है और हमेशा तक चलता रहेगा
सम्भव है कि किसी जीवके यह रुक भी जाय
जैसा कि कहा गया है :‘‘जो खलु संसारत्थो’’
‘‘जो संसारमें रहनेवाला जीव है, उसका परिणाम (राग-द्वेष आदिरूप परिणमन)
होता है, उस परिणामसे कर्म बँधते हैं बँधे हुए कर्मोंके उदय होनेसे मनुष्यादि गतियोंमें
गमन होता है, मनुष्यादि गति प्राप्त होनेवालेको (औदारिक आदि) शरीरका जन्म(संबंध)
होता है, शरीर होनेसे इन्द्रियोंकी रचना होती है, इन इन्द्रियोंसे विषयों (रूप रसादि)का
विवेकज्ञानना अभावे उत्पन्न थयेला रागादि परिणामोथी अर्थात् कारणमांरागादिमां
(कार्यनो) द्रव्यकर्मनो उपचार करवाथीतेना निमित्ते उत्पन्न थयेला कर्मबंधथी संसारी जीव
अनादि काळथी संसारमां भमतो रह्यो छे, भमे छे अने भमशे.
[भमतो रहे छे एटले पर्वतो इत्यादिवत् (भ्रमण क्रियामां) ते अवस्था पामे छे.]
वळी, ‘पंचास्तिकाय’मां कह्युं छे के
‘जे खरेखर संसारस्थित जीव छे ते तेनाथी परिणाम पामे छे (अर्थात् तेने राग
द्वेषरूप स्निग्ध परिणाम थाय छे), परिणामथी कर्म अने कर्मथी गतिओमां गमन थाय
छे.’........(१२८)
‘गति प्राप्त (जीव)ने देह थाय छे, देहथी इन्द्रियो थाय छे, इन्द्रियोथी विषयग्रहण
अने विषयग्रहणथी राग अथवा द्वेष थाय छे.’.......(१२९)

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३७
जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालंमि
इदि जिणवरेहिं भणियं अणाइणिहणो सणिहणो वा ।।१३०।।
ग्रहण होता है, उससे फि र राग और द्वेष होने लग जाते हैं इस प्रकार जीवका संसाररूपी
चक्रवालमें भवपरिणमन होता रहता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है जो अनादिकालसे होते
हुए अनन्तकाल तक होता रहेगा, हाँ किन्हीं भव्यजीवोंके उसका अन्त भी हो जाता
है
’’ ।।११।।
‘ए प्रमाणे भाव, संसारचक्रमां जीवने अनादिअनंत अथवा अनादिसांत थया
करे छेएम जिनवरोए कह्युं छे.’.......(१३०)
(ए स्निग्ध परिणाम अभव्य जीवोने अनादिअनंत होय छे अने केटलाक भव्य
जीवोने ते अनादिसांत होय छे एटले के ते परिणामनो अंत पण आवे छे.)
भावार्थ :आ लोकमां ए कथा प्रसिद्ध छे के देवोए मंथराचल पर्वतने मंथन
दंड बनावी बे नेतरांथी तेनी खेंचताण करी समुद्रनुं मंथन कर्युं, तेम आ जीव, द्रव्यक्षेत्र
काळभवभावरूपपंचपरावर्तनरूपसंसारसमुद्रमां अज्ञानजनित रागद्वेषरूपी नेतरांनी
आकर्षणक्रियाथी अनादिकाळथी घूमतो रह्यो छे.
कोई पण वस्तु इष्ट के अनिष्ट नथी छतां जे वस्तु इष्ट लागे छे तेमां ते राग
करे छे अने जे अनिष्ट लागे छे तेमां द्वेष करे छे. देहादि पदार्थोमां आत्मभ्रान्ति ते ज
राग
द्वेषनुं मूळकारण छे.
रागद्वेष बंने शक्तिव्यक्ति अपेक्षाए युगपत् (एकी साथे) होय छे. ज्यां एक
प्रति राग प्रगटरूपे (व्यक्तरूपे) होय, त्यां बीजा प्रत्ये द्वेष पण शक्तिरूपे होय ज. एम
बंनेनो परस्पर अविनाभावसंबंध छे.
रागद्वेष बीजा अनेक दोषोनुं मूळ छे. तेनाथी मन अति विह्वळ अने चंचळ बने
छे.
वळी, संसारचक्रनुं मूळकारण मिथ्यात्व अने रागद्वेष ज छे, कारण के तेना निमित्ते
कर्मबंध, कर्मबंधथी गतिप्राप्ति, गतिथी शरीर, शरीरथी इन्द्रियो, इन्द्रियोथी विषयग्रहण
अने विषयग्रहणथी रागद्वेष अने वळी राग द्वेषथी कर्मबंध थाय छेएम संसारचक्र चाल्या
ज करे छे. ११.

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३८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ प्रतिपाद्यः पर्यनुयुङ्क्ते‘तस्मिन्नपि यदि सुखी स्यात् को दोष ? इति’ भगवन् !
संसारेपि न केवलं मोक्ष इत्यपि शब्दार्थः चेञ्जीवः सुखयुक्तो भवेत् तर्हि को दोषो न कश्चित्
दोषो दुष्टत्वं संसारस्य सर्वेषां सुखस्यैव आप्तुमिष्टत्वात् येन संसारच्छेदाय सन्तो यतेरन्निति
अत्राह, वत्स !
विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिबाह्यते
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुरा विपदः पुरः ।।१२।।
उत्थानिकायहाँ पर शिष्य पूछता है, कि स्वामिन् ! माना कि मोक्षमें जीव सुखी
रहता है किन्तु संसारमें भी यदि जीव सुखी रहे तो क्या हानि है ?कारण कि संसारके
सभी प्राणी सुखको ही प्राप्त करना चाहते हैं जब जीव संसारमें ही सुखी हो जाय तो
फि र संसारमें ऐसी क्या खराबी है ? जिससे कि संत पुरुष उसके नाश करनेके लिये प्रयत्न
किया करते हैं ? इस विषयमें आचार्य कहते हैं
हे वत्स
जबतक एक विपद टले, अन्य विपद बहु आय
पदिका जिमि घटियंत्र में, बार बार भरमाय ।।१२।।
अर्थजब तक संसाररूपी पैरसे चलाये जानेवाले घटीयंत्रमें एक पटली सरीखी
हवे शिष्य पूछे छे‘भगवन्! जो तेमां पण (संसारमां पण) जीव सुखी रहेतो
होय तो शो दोष? केवळ मोक्षमां ज सुखी रहे एम केम?एवो पण शब्दार्थ छे. जो
जीव संसारमां पण सुखी थाय तो शो दोष? कोई दोष नहि, कारण के संसारना सर्व
जीवोने सुखनी ज प्राप्ति इष्ट छे, तो पछी संत पुरुषो संसारना नाश माटे केम प्रयत्न
करे छे?
[अर्थात् जो संसारमां ज सुखनी प्राप्ति थती होय, तो संसारमां एवो शो दोष
छे, के तेथी संत पुरुषो तेना नाश माटे प्रयत्न करे छे?]
आ विषयमां आचार्य कहे छेवत्स!
एक विपदने टाळतां, अन्य विपद बहु आय,
पदिका ज्यम घटियंत्रमां, एक जाय बहु आय. १२.
अन्वयार्थ :[भवपदावर्ते ] संसाररूपी (पगथी चलाववामां आवता) घटीयंत्रमां
[पदिका इव ] एक पाटली समान [विपत् ] एक विपत्ति [यावत् अतिबाह्यते तावत् ] दूर कराय

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ३९
टीकायावदतिबाह्यते अतिक्रम्यते; प्रेर्यते कासौ ? विपत् सहजशारीरमान-
सागन्तुकानामापदां मध्ये या काप्येका विवक्षिता आपत् जीवेनेति शेषः क्व ? भवपदावर्ते
भवः संसारः पदावर्त इवपादचाल्यघटीयन्त्रमिवभूयो भूयः परिवर्त्तमानत्वात् केव,
पदिकेवपादाक्रान्तदण्डिका यथा तावद्भवति काः ? अन्या अपूर्वाः प्रचुराःबह्वो विपदः
आपदः पुरो अग्रे जीवस्य पदिका इव, काछिकस्येति सामर्थ्यं योज्यं अतो जानीहि दु
खैकनिबन्धन विपत्तिनिरन्तरत्वात् संसारस्यावश्यविनाश्यत्त्वम् ।।
एक विपत्ति भुगतकर तय की जाती है, उसी समय दूसरी-दूसरी बहुतसी विपत्तियाँ सामने
आ उपस्थित हो जाती हैं
विशदार्थपैरसे चलाये जानेवाले घटीयंत्रको पदावर्त कहते हैं, क्योंकि उसमें
बार बार परिवर्तन होता रहता है सो जैसे उसमें पैरसे दबाई गई लकड़ी या पटलीके
व्यतीत हो जानेके बाद दूसरी पटलियाँ आ उपस्थित होती हैं, उसी तरह संसाररूपी
पदावर्तमें एक विपत्तिके बाद दूसरी बहुतसी विपत्तियाँ जीवके सामने आ खड़ी होती हैं
इसलिये समझो कि एकमात्र दुःखोंकी कारणीभूत विपत्तियोंका कभी भी अन्तर न
पड़नेके कारण यह संसार अवश्य ही विनाश करने योग्य है अर्थात् इसका अवश्य नाश
करना चाहिए ।।१२।।
ते पहेलां तो [अन्याः ] बीजी [प्रचुराः ] घणी [विपदः ] विपत्तिओ [पुरः भवन्ति ] सामे
उपस्थित थाय छे.
टीका :दूर कराय छेअतिक्रमाय छेप्रेराय छे ते पहेलां, कोण ते? विपत्ति
(दुःख)अर्थात् सहज शारीरिक या मानसिक आवी पडती आपदाओमां कोई एक विवक्षित
(खास) आपदा. [‘जीव द्वारा’ ए शब्द अध्याहार छे.] क्यां? भव पदावर्तमांभव एटले
संसार अने पदावर्त एटले पगथी चलाववामां आवतुं घटीयंत्र, कारण के तेमां वारंवार
परिवर्तन थतुं रहे छे,
घटीयंत्र जेवा संसारमां. कोनी माफक? पदाक्रान्त (पग मूकी
चलाववामां आवती) पाटलीनी जेम (दूर कराय ते पहेलां अर्थात् एक पाटली व्यतीत थाय
ते पहेलां बीजी पाटली) उपस्थित थाय छे. कोण? (उपस्थित थाय छे.) अन्य एटले अपूर्व
अने प्रचुर एटले बहु विपत्तिओ
आपदाओ, जीवनी सामे, जेम नदीमां काछिकनी*
सामे पाटलीओ (उपस्थित थाय छे तेम.)एम सामर्थ्यथी समजवुं.
* काछिकनदी उपरनुं प्राणी.

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४० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पुनः शिष्य एवाह‘न हि सर्वे विपद्वन्तः ससंपदोपि दृश्यन्त इति’ भगवन् ! समस्ता
अपि संसारिणो न विपत्तियुक्ताः सन्ति सश्रीकाणामपि केषांचिद् दृश्यमानत्वादिति
अत्राह
दुरर्ज्येनासुरक्ष्येण नश्वरेण धनादिना
स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ।।१३।।
फि र शिष्यका कहना है कि, भगवन् ! सभी संसारी तो विपत्तिवाले नहीं हैं, बहुतसे
सम्पत्तिवाले भी दिखनेमें आते हैं इसके विषयमें आचार्य कहते हैं :
कठिन प्राप्त संरक्ष्य ये, नश्वर धन पुत्रादि
इनसे सुखकी कल्पना, जिमि घृतसे ज्वर व्याधि ।।१३।।
तेथी, दुःखना कारणभूत अनेक विपत्तिओ निरंतर आवती होवाथी संसार अवश्य
विनाश करवा योग्य छे. एम तुं जाण.
भावार्थ :संसार घटीयंत्र जेवो छे. घटीयंत्रने तेनी पाटलीओ उपर पग मूकी गोळ
गोळ चलाववामां आवे छे. पगथी एक पाटली दूर कराय के तरत ज बीजी पाटलीओ एक
पछी एक यंत्र चलावनारनी सामे उपस्थित (हाजर) थाय छे, तेम संसारमां एक विपत्ति
(आपदा) दूर कराय के तरत ज बीजी अनेक विपत्तिओ तेनी सामे हाजर ज थाय छे.
माटे संसार अवश्य नाश करवा योग्य छे. संसार प्रत्येनी रुचिनो त्याग थतां अर्थात्
तेना तरफ उपेक्षाबुद्धि थतां संसारनो अभाव थई जाय छे. पर पदार्थो प्रत्ये ममत्वभाव,
अहंभाव, कर्तृत्वभाव तथा राग द्वेषादिरूप भाव
ए आंतरिक संसार छे,अज्ञानताए
ऊभो करेलो संसार छे. आत्मस्वभावनी सन्मुखताए तेनो नाश थतां बाह्य संयोगरूप
संसारनो पण स्वयं अभाव थई जाय छे. १२.
फरीथी शिष्य ज बोले छे‘भगवन्! बधाय विपत्तिवाळा होता नथी,
सम्पत्तिवाळा (सुखी) पण जोवामां आवे छेअर्थात् बधाय संसारीओ विपत्तिवाळा
(दुःखी) होता नथी, कारण के केटलाक लक्ष्मीवाळा (सुखी) लोक पण जोवामां आवे छे.’
तेना उत्तरमां आचार्य कहे छे
ज्वरपीडित ज्यम घी वडे, माने निजने चेन,
कष्टसाध्य धन आदिथी, माने मूढ सुख तेम. १३.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ४१
टीकाभवति कोऽसौ, जनो लोकः किंविशिष्टः, कोपि निर्विवेको, न सर्वः
किंविशिष्टो भवति, स्वस्थंमन्यः स्वस्थमात्मानं मन्यमानो अहं सुखीति मन्यत इत्यर्थः केन
कृत्वा, धनादिना द्रव्यकामिन्यादीष्टवस्तुजातेन किंविशिष्टेन, दुरर्ज्येनअपायबहुलत्वाद्
दुर्ध्यानावेशाच्च दुःखेन महता कष्टेनार्जित इति दुरर्ज्येनतथा असुरक्ष्येण दुस्त्राणेन
यन्ततोरक्ष्यमाणस्याप्यपायस्यावश्यंभावित्वात् तथा नश्वरेण रक्ष्यमाणस्यापि विनाशसंभवाद-
अर्थजैसे कोई ज्वरवाला प्राणी घीको खाकर या चिपड़ कर अपनेको स्वस्थ
मानने लग जाय, उसी प्रकार कोई एक मनुष्य मुश्किलसे पैदा किये गये तथा जिसकी
रक्षा करना कठिन है और फि र भी नष्ट हो जानेवाले हैं, ऐसे धन आदिकोंसे अपनेको
सुखी मानने लग जाता है
विशदार्थजैसे कोई एक भोला प्राणी जो सामज्वर (ठंड देकर आनेवाले
बुखार)से पीड़ित होता है, वह बुद्धिके ठिकाने न रहनेसेबुद्धिके बिगड़ जानेसे घी को
खाकर या उसकी मालिश कर लेनेसे अपने आपको स्वस्थ-नीरोग मानने लगता है, उसी
तरह कोई कोई (सभी नहीं) धन, दौलत, स्त्री आदिक जिनका कि उपार्जित करना कठिन
अन्वयार्थ :जेम [ज्वरवान् ] कोई ज्वरग्रस्त (तावथी पीडातो) माणस [सर्पिषा ]
घीथी (एटले घी पीने वा शरीरे चोपडीने) [स्वस्थंमन्यः भवति ] पोताने स्वस्थ (नीरोगी)
माने छे, [इव ] तेम [कः अपि जनः ] कोई एक मनुष्य [दुरर्ज्यन ] मुश्केलीथी (कष्टथी) पेदा
करेला (कमायेला) [असुरक्ष्येण ] जेनी सारी रीते सुरक्षा करवी अशक्य छे एवा [नश्वरेण ]
नश्वर (नाशवान) [धनादिना ] धन आदिथी [स्वस्थंमन्यः भवति ] पोताने सुखी माने छे.
टीका :थाय छे. कोण ते? माणसलोक. केवो (माणस)? कोई एक विवेकहीन,
(किन्तु) बधा नहि, केवो थाय छे? पोताने स्वस्थ (नीरोग) माने छे; हुं सुखी छुं एम
माने छे
एवो अर्थ छे. शा वडे करीने? धनादि वडे अर्थात् द्रव्य, स्त्री आदि इष्ट
वस्तुओना समुदाय वडे. केवा (धनादि) वडे? दुःखथी अर्जित एटले बहु कष्टपणाना कारणे
तथा दुर्ध्यानना आवेशथी कष्टथी
महाक्लेशथी उपार्जित (कमायेल) तथा यत्नथी रक्षवा छतां
अवश्यंभावी नाशने लीधे मुश्केलीए रक्षित तथा नश्वर अर्थात् रक्षा पामेला धननो पण
विनाश संभवित होवाथी अशाश्वत
एवा (धनादि वडे).
आ विषयमां द्रष्टान्त आपे छे‘ज्वरेत्यादि०’
[अहीं ‘इव’ शब्द ‘यथा’ना अर्थमां छे.]

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४२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शाश्वतेन अत्र दृष्टान्तमाह ज्वरेत्यादि इव शब्दो यथार्थे यथा कोऽपि मुग्धो ज्वरवान् अतिशये
मतेर्विनाशात् सामज्वरार्त सर्पिषा घृतेन पानाद्युपयुक्तेन स्वस्थंमन्यो भवति निरामयमात्मानं
मन्यते ततो बुद्धयस्व दुरुपार्ज्यदुरक्षणभङ्गुरद्रव्यादिना दुःखमेव स्यात्
उक्तं च
‘‘अर्थस्योपार्जने दुःखमर्जितस्य च रक्षणे
आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं दुःखभाजनम् ।।’’
तथा जो रक्षा करते भी नष्ट हो जानेवाले हैंऐसे इष्ट वस्तुओंमें अपने आपको ‘मैं सुखी
हूँ’ ऐसा मानने लग जाते हैं, इसलिए समझो कि जो मुश्किलोंसे पैदा किये जाते तथा
जिनकी रक्षी बड़ी कठिनाईसे होती है, तथा जो नष्ट हो जाते, स्थिर नहीं रहते ऐसे
धनादिकोंसे दुःख ही होता है, जैसा कि कहा है
‘‘अर्थस्योपार्जने दुःखं
’’
धनके कमानेमें दुःख, उसकी रक्षा करनेमें दुःख, उसके जानेमें दुःख, इस तरह
हर हालतमें दुःखके कारणरूप धनको धिक्कार हो’
जेम कोई एक मूर्ख ज्वरपीडित मनुष्य अर्थात् सामज्वरपीडित (टाढिया ताववाळो)
मनुष्य, बुद्धिना अतिशय बगाडथी, पानादिमां (पीवा वगेरेमां) उपयुक्त (उपयोगमां
लीधेला) घी वडे पोताने स्वस्थ (नीरोगी) माने छे अर्थात् पोतानी जातने रोगरहित माने
छे, तेम मुश्केलीथी उपार्जित, कष्टथी रक्षित अने क्षणभंगुर [क्षणमां नाश पामता]
एवा
द्रव्यादि वडे दुःख ज होई शकेएम तुं समज. कह्युं छे के
धनना उपार्जनमां दुःख, उपार्जित धननी रक्षा करवामां दुःख, ते आवे तोय दुःख
अने जाय तोय दुःख; माटे दुःखना भाजनरूप (कारणरूप) ते धनने धिक्कार हो.
भावार्थ :जेम सामज्वरथी पीडित कोई एक मूर्ख जन घीना उपयोग वडे पोताने
स्वस्थ (नीरोगी) माने छे, तेम कोई एक माणस महा मुश्केलीथी अने दुःखथी उपार्जित
तथा रक्षित एवा क्षणभंगुर धनादि वडे पोताने सुखी माने छे.
सामज्वरमां घीनो उपयोग करवाथी ताव मटवाने बदले वधे छे, तेम धनादिनी
ममताथी सुखने बदले दुःख वधे छे, कारण के तेने उपार्जन करवामां दुःख, तेने साचववामां
दुःख अने तेनो नाश थतां (वियोग थतां) पण दुःख थाय छे. एम दरेक हालतमां धन
दुःखनुं ज निमित्तकारण छे. माटे लक्ष्मीवान लोको धनादिथी सुखी छे
, एम मानवुं ते
भ्रममूलक छे. १३

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ४३
‘भूयोऽपि विनेयः पृच्छति ’ ‘एवंविधां संपदां कथं न त्यजतीति ’ अनेन
दुरर्जत्वादिप्रकारेण लोकद्वयेऽपि दुःखदां धनादिसंपत्तिं कथं न मुञ्चति जनः कथमिति
विस्मयगर्भे प्रश्ने
अत्र गुरुरुत्तरमाह;
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत् ।।१४।।
शंकाफि र भी शिष्य पूछता है कि बड़े आश्चर्यकी बात है, कि जब ‘मुश्किलोंसे
कमाई जाती’ आदि हेतुओंसे धनादिक सम्पत्ति दोनों लोकोंमें दुःख देनेवाली है, तब ऐसी
सम्पत्तिको लोग छोड़ क्यों नहीं देते ? आचार्य उत्तर देते हैं
परकी विपदा देखता, अपनी देखे नाहिं
जलते पशु जा वन विषैं, जड़ तरुपर ठहराहिं ।।१४।।
अर्थजिसमें अनेकों हिरण दावानलकी ज्वालासे जल रहे हैं, ऐसे जंगलके मध्यमें
फरीथी शिष्य पूछे छेआश्चर्य छे के आवा प्रकारनी संपदाने (लोको) केम छोडता
नथी? अर्थात् दुःखथी उपार्जितवगेरे कारणोथी बंने लोकमां (आ लोकमां अने परलोकमां)
पण दुःखदायकएवी धनादिसंपत्तिने लोक केम छोडता नथी? [‘कथम्’ शब्द
विस्मयगर्भित प्रश्न सूचवे छे.]
आचार्य तेनो उत्तर आपे छे
देखे विपत्ति अन्यनी, निजनी देखे नाहि,
बळतां पशुओ वन विषे, देखे तरु पर जाई. १४.
अन्वयार्थ :[दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत् ] (दावानलनी ज्वालाथी) बळी
रहेला मृगोथी छवायेला वननी मध्यमां वृक्ष उपर बेठेला मनुष्यनी जेम [मूढः ] (संसारी)
मूढ प्राणी [परेषाम् इव ] बीजाओनी (विपत्तिनी) जेम [आत्मनः विपत्तिं ] पोतानी विपत्तिने
[न ईक्षते ] जोतो नथी.
*परस्येव न जानाति विपत्तिं स्वस्य मूढधीः
वने सत्वसमाकीर्णे दह्यमाने तरुस्थवत् ।।
(ज्ञानावर्णवेश्रीशुभचन्द्रः )

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४४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीकानेक्षते न पश्यति कोऽसौ ? मूढो धनाद्यासक्त्या लुप्तविवेको लोकः कां ?
विपत्तिं चौरादिना क्रियमाणां धनापहाराद्यापदां कस्य ? आत्मनः स्वस्य केषामिव, परेषामिव
यथा इमे विपदा आक्रम्यन्ते तथाहमप्याक्रन्तव्य इति न विवेचयतीत्यर्थः क इव ? प्रदह्यमानैः
दावानलज्वालादिभिर्भस्मीक्रियमाणैर्मृगैर्हरिणादिभिराकीर्णस्य संकुलस्य वनस्यांतरे मध्ये वर्तमानं तरुं
वृक्षमारूढो जनो यथा आत्मनो मृगाणामिव विपत्तिं न पश्यति
वृक्ष पर बैठे हुए मनुष्यकी तरह यह संसारी प्राणी दूसरोंकी तरह अपने ऊपर आनेवाली
विपत्तियोंका ख्याल नहीं करता है
विशदार्थधनादिकमें आसक्ति होनेके कारण जिसका विवेक नष्ट हो गया है,
ऐसा यह मूढ़ प्राणी चोरादिकके द्वारा की जानेवाली, धनादिक चुराये जाने आदिरूप अपनी
आपत्तिको नहीं देखता है, अर्थात् वह यह नहीं ख्याल करता कि जैसे दूसरे लोग
विपत्तियोंके शिकार होते हैं, उसी तरह मैं भी विपत्तियोंका शिकार बन सकता हूँ
इस
वनमें लगी हुई यह आग इस वृक्षको और मुझे भी जला देगी जैसे ज्वालानलकी
ज्वालाओंसे जहाँ अनेक मृगगण झुलस रहे हैंजल रहे हैं, उसी वनके मध्यमें मौजूद वृक्षके
ऊपर चढ़ा हुआ आदमी यह जानता है कि ये तमाम मृगगण ही घबरा रहे हैंछटपटा
रहे हैं, एवं मरते जा रहे हैं, इन विपत्तियोंका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं तो सुरक्षित
हूँ
विपत्तियोंका सम्बन्ध दूसरोंकी सम्पत्तियोंसे है, मेरी सम्पत्तियोंसे नहीं है ।।१४।।
टीका :देखतो नथीजोतो नथी. कोण ते? मूढ अर्थात् धनादिनी आसक्तिथी
विवेकहीन बनेलो लोक. कोने (देखतो नथी)? विपत्तिनेअर्थात् चोर वगेरेथी करवामां
आवती धनअपहरण आदिरूप आपदाने. कोनी? आत्मानीपोतानी. कोनी माफक?
बीजाओनी माफक. जेम आ (मृगो) आपदाथी (संकटथी) घेराई गयां छे, तेम हुं पण
(विपत्तिथी) घेराई जईश (विपत्तिनो भोग बनीश) एम ते ख्याल करतो नथी
एवो अर्थ
छे. कोनी माफक? बळी जतादावानलनी ज्वाळाओथी भस्मीभूत बनतामृगोथी
हरिणादिथी भरेला वननी मध्यमां आवेला वृक्ष उपर बेठेला मनुष्यनी माफक; ते (मनुष्य)
मृगोनी विपत्तिनी जेम पोतानी विपत्तिने देखतो नथी.
भावार्थ :मृग आदि अनेक प्राणीओथी भरेला वनमां आग लागतां, तेनाथी
बचवा माटे कोई माणस वननी मध्यमां आवेला वृक्ष उपर चढीने बेसे छे अने अग्निनी
ज्वाळाओथी भस्मीभूत बनतां प्राणीओने नीहाळे छे. ते वखते एम धारे छे के, ‘हुं तो
वृक्ष उपर सहीसलामत छुं.’ अग्नि मने नुकशान करशे नहि; परंतु ते अज्ञानीने खबर
नथी के अग्नि थोडी वारमां वृक्षने अने तेने पण भरखी जशे. ए प्रमाणे मूढ जीव,

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ४५
पुनराह शिष्यः कुत एतदिति, भगवन् ! कस्माद्धेतोरिदं सन्निहिताया अपि विपदो अदर्शनं
जनस्य
गुरुराहलोभादिति, वत्स ! धनादिगार्ध्यात्पुरोवर्तिनीमप्यापदं धनिनो न पश्यन्ति
यतः
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गम्
वाञ्छतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम् ।।१५।।
फि र भी शिष्यका कहना है कि, भगवन् ! क्या कारण है कि लोगोंको निकट आई
हुई भी विपत्तियाँ दिखाई नहीं देती ? आचार्य जवाब देते हैं‘‘लोभात्’’ लोभके कारण,
हे वत्स ! धनादिककी गृद्धता-आसक्तिसे धनी लोग सामने आई हुई भी विपत्तिको नहीं
देखते हैं, कारण कि
आयु क्षय धनवृद्धि को, कारण काल प्रमान
चाहत हैं धनवान धन, प्राणनिते अधिकान ।।१५।।
अर्थकालका व्यतीत होना, आयुके क्षयका कारण है और कालान्तरके माफि क
ब्याजके बढ़नेका कारण है, ऐसे कालके व्यतीत होनेको जो चाहते हैं, उन्हें समझना चाहिए
कि अपने जीवनसे धन ज्यादा इष्ट है
धनादिकना कारणे बीजाओ उपर आवती आपत्तिओने देखवा छतां पोताने सहीसलामत
माने छे अने कदी विचार पण करतो नथी
, के तेवी विपत्तिओ मोडीवहेली तेना उपर
पण आवी पडशे अने कालाग्नि तेने पण भरखी जशे. १४.
फरी शिष्य कहे छेएम केम? भगवन्! कया कारणथी नजीक आवेली
आपदाओने पण माणस देखतो नथी?
गुरु कहे छे‘लोभना कारणे’, हे वत्स! धनादिनी गृद्धि एटले आसक्तिथी
धनिको, सामे (आगळ) उपस्थित (आवी पडेली) आपदाने पण देखता नथी, कारण के
आयुक्षय धनवृद्धिनुं, कारण काळ ज जाण,
प्राणोथी पण लक्ष्मीने, इच्छे धनी अधिकान. १५.
अन्वयार्थ :[कालस्य निर्गमं ] कालनुं निर्गमन (व्यतीत थवुं) ते [आयुर्वृद्धि-
क्षयोत्कर्षहेतुं ] आयुना क्षयनुं तथा (कालनी) वृद्धि, उत्कर्षनुं (व्याज वृद्धिनुं) (कारण छे)

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४६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीकावर्तते किं तद्धनं किं विशिष्टं ? इष्टमभिमतं कथं, सुतरां अतिशयेन
कस्माज्जीवितात्प्राणेभ्यः केषां ? धनिनां, किं कुर्वंतां ? वाञ्छतां कं, निर्गमं अतिशयेन गमनं
कस्य, कालस्य किं विशिष्टं ? आयुरित्यादि आयुः क्षयस्य वृद्धयुत्कर्षस्य च कालान्तरवर्द्धनस्य
कारणम् अयमर्थो, धनिनां तथा जीवितव्यं नेष्टं यथा धनं कथमन्यथा जीवितक्षयकारणमपि
धनवृद्धिहेतुं कालनिर्गमं वाञ्छन्ति अतो ‘धिग्धनम्’ एवंविधव्यामोहहेतुत्वाद्
विशदार्थमतलब यह है कि धनियोंको अपना जीवन उतना इष्ट नहीं, जितना
कि धन धनी चाहता है कि जितना काल बीत जाएगा, उतनी ही ब्यातकी आमदानी बढ़
जाएगी वह यह ख्याल नहीं करता कि जितना काल बीत जाएगा उतनी ही मेरी आयु
(जीवन) घट जाएगी वह धनवृद्धिके ख्यालमें जीवन (आयु) विनाशकी ओर तनिक भी
लक्ष्य नहीं देता इसलिए मालूम होता है कि धनियोंको जीवन (प्राणों) की अपेक्षा धन
ज्यादा अच्छा लगता है इस प्रकारके व्यामोहका कारण होनेसे धनको धिक्कार है ।।१५।।
[वाञ्छतां धनिनाम् ] एम इच्छता धनिकोने [जीवितात् ] पोताना जीवन करतां [धनं ] धन
[सुतरां ] अतिशय (घणुं ज) [इष्टं ] (वहालुं) होय छे.
टीका :होय छे. शुं ते? धन. केवुं (होय छे)? इष्टप्रिय. केवी रीते? बहु
अतिशयपणे; कोनाथी? पोताना जीवननीप्राणथी, कोने (वहालुं होय छे)? धनिकोने.
शुं करता? इच्छता. शुं (इच्छता)? निर्गमननेअतिशयपणे गमनने, कोना (गमनने)?
कालना. केवा प्रकारनुं? आयु इत्यादि. (कालनुं गमन ते) आयुक्षयनुं कारण अने वृद्धि
(व्याज)ना उत्कर्षनुं कारण छे अर्थात् कालनुं अन्तर (व्याजनी आमदानीमां) वृद्धिनुं कारण
छे
एवो अर्थ छे. धनिकोने जेवुं धन इष्ट (वहालुं) होय छे तेवुं जीवितव्य इष्ट होतुं
नथी. नहि तो जीवनना क्षयनुं कारण होवा छतां धनवृद्धिना कारणरूप कालनिर्गमनने तेओ
केम इच्छे? माटे धन आवा व्यामोहनुं कारण होवाथी तेने धिक्कार हो!
भावार्थ :जेम जेम काल व्यतीत थाय छे तेम तेम आयु ओछुं थतुं जाय छे,
पण ते कालनुं अन्तर धनिकने व्याज वगेरेनी आमदानीमां वधारो करवानुं कारण बने छे,
तेथी तेने (कालगमनने) ते उत्कर्षनुं (आबादीनुं) कारण गणे छे.
जे धनिको लोभवश व्याज वगेरेनी कमाणी करवा माटे कालनुं निर्गमन इच्छे छे
तेओ पोताना जीवन करतां धनने वधारे वहालुं गणे छे, कारण के तेओ एम समजे छे
के कालना निर्गमनथी जेम दिवसो वधशे तेम व्याज वगेरे वधशे, पण तेटला दिवसो तेमना
आयुमांथी ओछा थशे तेनुं तेमने भान होतुं नथी. तेओ धनवृद्धिना लोभमां पोताना