Page 27 of 146
PDF/HTML Page 41 of 160
single page version
हैं :
पदार्थो छे; तेमने स्व तथा आत्मीय (स्वीय)
गाथामां तेम ज टीकामां सर्वथा शब्द वापर्यो छे.
अध्यवसाय (विपरीत मान्यता) करे छे. ८
अहीं, एटले शरीरादि मध्ये जे हितकारक एटले उपकारक स्त्री आदिनो वर्ग एटले
माटे) अमे द्रष्टान्त एटले उदाहरण आपीए छीए. ते आ प्रमाणे छे
Page 28 of 146
PDF/HTML Page 42 of 160
single page version
दिशाओं व देशोंमें उड़ जाते हैं
दिशा व देशकी ओर उड़ जाते हैं
दिशाओ अने देशोथी; दिशाओ एटले पूर्वादि दश दिशाओ; देश एटले तेनो एक भाग
तेमनो जवानो नियम ऊलटो छे एवो निर्देश छे, अर्थात् जवाना नियमनो अभाव छे.
एवो अर्थ छे. जे जे दिशाएथी आव्यां ते ते ज दिशामां जाय अने जे देशथी आव्यां
ते ते ज देशमां जाय
Page 29 of 146
PDF/HTML Page 43 of 160
single page version
आयातः स तस्यामेव दिशि गच्छति यश्च यस्माद्देशादायात् स तस्मिन्नेवदेशे गच्छतीति नास्ति
नियमः
देवगत्यादिस्थानेष्वनियमेन स्वायुःकालान्ते गच्छन्तीति प्रतीहि
त्वयि तदवस्थे एव कथमवस्थान्तरं गच्छेयुः यदि च एते तावकाः स्युस्तर्हि कथं त्वत्प्रयोगमंतरेणैव
यत्र क्वापि प्रयान्तीति मोहग्रहावेशमपसार्य यथावत्पश्येति दार्ष्टान्ते दर्शनीयम्
हैं, और फि र अपने अपने कर्मोंके अनुसार, आयुके अंतमें देवगत्यादि स्थानोंमें चले जाते हैं
तेरी आत्मा व आत्मीय बुद्धि कैसी ? अरे ! यदि ये शरीरादिक पदार्थ तुम्हारे स्वरूप होते
तो तुम्हारे तद्वस्थ रहते हुए, अवस्थान्तरोंको कैसे प्राप्त हो जाते ? यदि ये तुम्हारे स्वरूप
नहीं अपितु तुम्हारे होते तो प्रयोगके बिना ही ये जहाँ चाहे कैसे चले जाते ? अतः मोहनीय
पिचाशके आवेशको दूर हटा ठीक ठीक देखनेकी चेष्टा कर
पराधीनताने लीधे. क्यारे क्यारे (जाय छे)? सवारे, सवारे.
पराधीनताने लीधे अनियमथी (नियम विना) देवगति आदि स्थानोमां चाल्या जाय छे
केवो? जो खरेखर तेओ (शरीरादिक) तारा आत्मस्वरूप होय, तो तुं ते अवस्थामां ज
होवा छतां तेओ बीजी अवस्थाने केम प्राप्त थाय छे? जो तेओ तारां होय तो तारा
प्रयोग विना तेओ ज्यां
Page 30 of 146
PDF/HTML Page 44 of 160
single page version
ही ऐसे भावोंको दूर करनेके लिए प्रेरणा भी करते हैं :
या दिशामां ऊडी जाय छे, तेवी रीते संसारी जीवो नरकगति आदिरूप स्थानोथी आवी
एक कुटुंबमां जन्म ले छे अने त्यां पोताना आयुकाल सुधी कुटुंबीजनो साथे रहे छे,
पछी पोतानी आयु पूरी थतां तेओ पोतपोतानी योग्यतानुसार देवगति आदि स्थानोमां
चाल्या जाय छे.
हता ते ज गति
छे? जो तेओ तारा आत्मस्वरूप होय तो आत्मा तो तेना त्रिकाली स्वरूपे तेनो ते
ज रहे छे अने तेनी साथे शरीरादि संयोगी पदार्थो तो तेना ते रहेता नथी. जो
तेओ आत्मस्वरूप होय तो आत्मानी साथे ज रहेवां जोईए पण तेम तो जोवामां
आवतुं नथी; माटे तेमने आत्मस्वरूप मानवा ते भ्रम छे अर्थात् शरीरादि पर पदार्थोमां
हितबुद्धिए आत्मभाव या आत्मीयभाव करवो ते अज्ञानता छे. वस्तुस्वरूप समजी
आत्मभाव वा आत्मीयभावनो परित्याग करवो ते श्रेयस्कर छे.’’ अहीं पण ‘सर्वथा’
संबंधी आ पूर्वेनी गाथामां जेम कह्युं छे तेम समजवुं.
Page 31 of 146
PDF/HTML Page 45 of 160
single page version
जँचता नहीं
कोपायमान थाय छे? कोण ते? विराधक एटले अपकार करनार माणस. कोना उपर (कोप
करे छे)? हणनार माणस उपर एटले सामो अपकार करनार लोक उपर.
Page 32 of 146
PDF/HTML Page 46 of 160
single page version
कचरा आदिके समेटनेके काममें आनेवाले ‘अंगुल’ नामक यंत्रको पैरोंले जमीन पर गिराता
है, तो यह बिना किसी अन्यकी प्रेरणाके स्वयं ही हाथमें पकड़े हुए डंडेसे गिरा दिया जाता
है
हाथमां राखेला काष्ट (लाकडा) वडे. केवी रीते? स्वयं पाडवामां आवे छे
अर्थात् त्रण आंगळांना आकारवाळां कूडा
त्र्यंगुलने नीचे पाडे छे तो त्र्यंगुलनो दंड पण तेने नीचे पाडे छे; तेम जो तमे कोईने दुःखी
करो अने बीजो कोई तमने दुःखी करे अने तेना उपर गुस्से थाओ
Page 33 of 146
PDF/HTML Page 47 of 160
single page version
आपे छे, तेने बीजा तरफथी सुख या दुःख ज प्राप्त थाय छे.
कार्य करे छे, जेथी राग
Page 34 of 146
PDF/HTML Page 48 of 160
single page version
आत्मभ्रान्तिसे-अतिदीर्घ काल तक घूमता (चक्कर काटता) रहता है
लांबा काळ सुधी. शाथी?
छे
Page 35 of 146
PDF/HTML Page 49 of 160
single page version
अन्य सर्व दोषोनुं मूळ राग-द्वेष छे).
परिणमवुं ते छे. नेतरांना आकर्षणथी अभिमुख लावेलो उपमानभूत (जेनी साथे जीवनी
सरखामणी छे तेवो) मंथनदंड भमवा योग्य छे.
Page 36 of 146
PDF/HTML Page 50 of 160
single page version
संसारीजीव, अनादिकालसे संसारमें घूम रहा है, घूमा था और घूमता रहेगा
रहा है और हमेशा तक चलता रहेगा
होता है, शरीर होनेसे इन्द्रियोंकी रचना होती है, इन इन्द्रियोंसे विषयों (रूप रसादि)का
वळी, ‘पंचास्तिकाय’मां कह्युं छे के
छे.’........(१२८)
Page 37 of 146
PDF/HTML Page 51 of 160
single page version
है
राग
बंनेनो परस्पर अविनाभावसंबंध छे.
Page 38 of 146
PDF/HTML Page 52 of 160
single page version
किया करते हैं ? इस विषयमें आचार्य कहते हैं
जीवोने सुखनी ज प्राप्ति इष्ट छे, तो पछी संत पुरुषो संसारना नाश माटे केम प्रयत्न
करे छे?
Page 39 of 146
PDF/HTML Page 53 of 160
single page version
आ उपस्थित हो जाती हैं
पदावर्तमें एक विपत्तिके बाद दूसरी बहुतसी विपत्तियाँ जीवके सामने आ खड़ी होती हैं
परिवर्तन थतुं रहे छे,
ते पहेलां बीजी पाटली) उपस्थित थाय छे. कोण? (उपस्थित थाय छे.) अन्य एटले अपूर्व
अने प्रचुर एटले बहु विपत्तिओ
Page 40 of 146
PDF/HTML Page 54 of 160
single page version
पछी एक यंत्र चलावनारनी सामे उपस्थित (हाजर) थाय छे, तेम संसारमां एक विपत्ति
(आपदा) दूर कराय के तरत ज बीजी अनेक विपत्तिओ तेनी सामे हाजर ज थाय छे.
अहंभाव, कर्तृत्वभाव तथा राग द्वेषादिरूप भाव
संसारनो पण स्वयं अभाव थई जाय छे. १२.
Page 41 of 146
PDF/HTML Page 55 of 160
single page version
रक्षा करना कठिन है और फि र भी नष्ट हो जानेवाले हैं, ऐसे धन आदिकोंसे अपनेको
सुखी मानने लग जाता है
तरह कोई कोई (सभी नहीं) धन, दौलत, स्त्री आदिक जिनका कि उपार्जित करना कठिन
माने छे
तथा दुर्ध्यानना आवेशथी कष्टथी
विनाश संभवित होवाथी अशाश्वत
Page 42 of 146
PDF/HTML Page 56 of 160
single page version
जिनकी रक्षी बड़ी कठिनाईसे होती है, तथा जो नष्ट हो जाते, स्थिर नहीं रहते ऐसे
धनादिकोंसे दुःख ही होता है, जैसा कि कहा है
लीधेला) घी वडे पोताने स्वस्थ (नीरोगी) माने छे अर्थात् पोतानी जातने रोगरहित माने
छे, तेम मुश्केलीथी उपार्जित, कष्टथी रक्षित अने क्षणभंगुर [क्षणमां नाश पामता]
तथा रक्षित एवा क्षणभंगुर धनादि वडे पोताने सुखी माने छे.
दुःख अने तेनो नाश थतां (वियोग थतां) पण दुःख थाय छे. एम दरेक हालतमां धन
दुःखनुं ज निमित्तकारण छे. माटे लक्ष्मीवान लोको धनादिथी सुखी छे
Page 43 of 146
PDF/HTML Page 57 of 160
single page version
सम्पत्तिको लोग छोड़ क्यों नहीं देते ? आचार्य उत्तर देते हैं
Page 44 of 146
PDF/HTML Page 58 of 160
single page version
वृक्षमारूढो जनो यथा आत्मनो मृगाणामिव विपत्तिं न पश्यति
विपत्तियोंका ख्याल नहीं करता है
आपत्तिको नहीं देखता है, अर्थात् वह यह नहीं ख्याल करता कि जैसे दूसरे लोग
विपत्तियोंके शिकार होते हैं, उसी तरह मैं भी विपत्तियोंका शिकार बन सकता हूँ
हूँ
(विपत्तिथी) घेराई जईश (विपत्तिनो भोग बनीश) एम ते ख्याल करतो नथी
मृगोनी विपत्तिनी जेम पोतानी विपत्तिने देखतो नथी.
ज्वाळाओथी भस्मीभूत बनतां प्राणीओने नीहाळे छे. ते वखते एम धारे छे के, ‘हुं तो
वृक्ष उपर सहीसलामत छुं.’ अग्नि मने नुकशान करशे नहि; परंतु ते अज्ञानीने खबर
नथी के अग्नि थोडी वारमां वृक्षने अने तेने पण भरखी जशे. ए प्रमाणे मूढ जीव,
Page 45 of 146
PDF/HTML Page 59 of 160
single page version
देखते हैं, कारण कि
कि अपने जीवनसे धन ज्यादा इष्ट है
माने छे अने कदी विचार पण करतो नथी
Page 46 of 146
PDF/HTML Page 60 of 160
single page version
(व्याज)ना उत्कर्षनुं कारण छे अर्थात् कालनुं अन्तर (व्याजनी आमदानीमां) वृद्धिनुं कारण
छे
केम इच्छे? माटे धन आवा व्यामोहनुं कारण होवाथी तेने धिक्कार हो!
तेथी तेने (कालगमनने) ते उत्कर्षनुं (आबादीनुं) कारण गणे छे.
के कालना निर्गमनथी जेम दिवसो वधशे तेम व्याज वगेरे वधशे, पण तेटला दिवसो तेमना
आयुमांथी ओछा थशे तेनुं तेमने भान होतुं नथी. तेओ धनवृद्धिना लोभमां पोताना