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कथंचिद्धनमुपार्ज्य पात्रादौ च नियोज्य सुखाय पुण्यमुपार्ज नीयमिति
कारण हैं, वे सब धनके बिना हो नहीं सकती
तो पुण्यना साधनरूप धन केवी रीते निंदवा योग्य छे? ते तो प्रशस्य (स्तुतिपात्र) ज छे.
माटे कोई रीते धनोपार्जन करी (धन कमाईने) पात्रादिमां वापरी सुख माटे पुण्य
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कमाना चाहिए’। नौकरी, खेती आदि करके धन कमाता है, समझना चाहिए कि वह ‘स्नान
कर डालूँगा’ ऐसा विचार कर अपने शरीरको कीचड़से लिप्त करता है
कर डाले, तो वह बेवकूफ ही गिना जाएगा
क्षयने माटे.
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कल्याणके लिये पात्रदानादिक करे तो करे
कमावानी प्रवृत्ति करनार मनुष्य पण तेवो छे (अविचारी छे). कोईने पण शुद्ध वृत्तिथी
(दानतथी) धनोपार्जन संभवतुं नथी.
रहे छे) (जेम वर्षाॠतुमां नदीओमां मेला पाणीनुं पूर आवे छे, तेम अन्यायथी उपार्जित
धनथी धनमां घणो वधारो थाय छे).
करी लईश’ एम समजी पोताना शरीर उपर कादव चोपडनार मूर्ख माणस जेवो छे.
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भविष्यति
नहीं हो सकते, इसलिए उनके लिए धन होना ही चाहिए, और इस तरह धन प्रशंसनीय
माना जाना चाहिए
उचित नहीं, यह पहिले ही बताया जा चुका है
दानादिथी उपार्जित पुण्यथी नाश पामशे, पण आ एनो भ्रम छे.
पूजा
विना सुखना कारणरूप भोग
तो कारण ए छे केः
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अनुसरे छे (जेनाथी हित थाय तेनुं ज अनुसरण करे छे).’
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बढ़ी हुई तृष्णाके कारण होते हैं, जैसा कि कहा गया है :
जाएँ
त्यारे कहे छे के भोगववामां आवता भोगो तो सुखनुं कारण छे, तेथी ते सेववा योग्य
छे. तो (जवाबमां) कहे छे के
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नहीं हटती,’’ जैसा कि कहा भी है
छे. कह्युं छे के
एवी कोई (विचित्र) बळजबराई (बलवानपणुं) छे!’
दुःखोने अनुभववा छतां) तेनुं मन चेततुं ज नथी’
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तत्त्वज्ञानी पुरुष भोगोंको त्याज्य-छोड़ने योग्य समझते हुए ही सेवन करते हैं
वशमें कर, शीघ्र ही अपने (आत्म) कार्य करनेके लिये कटिबद्ध-तैयार हो जाता है
उदय मंद पडी गयो छे, तेवो ते (ज्ञानी) ज्ञान अने वैराग्यनी भावनाथी इन्द्रिय
उत्साहित थाय छे; तथा कह्युं छे के
शत्रु छे, आ देश छे, आ काल छे
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देश है, यह काल है, इन सब बातों पर ख्याल देते हुए बुद्धिमान् पुरुष प्रयत्न किया
करता है
भोगववानी इच्छा थाय छे अने तेथी चित्त व्याकुल रहे छे. अतृप्तिवश तेने (भोगोने)
छोडवानो भाव थतो नथी.
कदी तृप्त थती नथी, किन्तु वधती जाय छे.
छे (
श्रद्धा अने ज्ञानमां तेओ ते रागने अहितकर माने छे, तेथी जेवी रीते अज्ञानी भोगोने
हितकर समजी तेने एकताबुद्धिथी भोगवे छे, तेवी रीते ज्ञानीने भोगववानो भाव नथी.
तेने पर द्रव्यना स्वामीपणानो तथा कर्तापणानो अभिप्राय नथी. रागरूप परिणमन छे ते
चारित्रनी नबळाईथी छे. तेनो ते ज्ञाता छे, तेथी अज्ञानरूप कर्तापणुं के भोक्तापणुं तेने
नथी. ए अपेक्षाए ज्ञानी भोगोने सेवतो *होवा छतां ते सेवतो नथी, कारण के
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‘इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेष क्रमो, व्ययोयमनुषङ्गजं फलमिदं दशेयं मम
जाता है
है, अतः उसको भोगोपभोगोंको चाहना व्यर्थ है !
राग देखाय छे, तेनो अभिप्रायमां तेने निषेध छे. १७
तेनुं लक्षण (स्वरूप) आगळ बताववामां आवे छे, एवो अर्थ छे ते आ प्रमाणे छेः
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प्रार्थना आकाङ्क्षा तेषामेव वृथा व्यर्था केनचिदुपायेन निवारितेऽपि एकस्मिन्नपाये क्षणे
क्षणेऽपरापरापायोपनिपातसम्भवात्
संतापोंकर सहित है
दूर भी किया जाय तो क्षण
वस्तुओ पण अपवित्र थई जाय छे. एम छे तेथी तेने माटे अर्थात् ते सतत बाधावाळी
काया उपर पवित्र वस्तुओथी उपकार करवा माटे प्रार्थना एटले आकांक्षा (करवी) वृथा
एटले व्यर्थ छे, कारण के कोई उपायथी एकाद बाधा दूर करवामां आवे, छतां प्रतिक्षण
(क्षण
आवा घृणित शरीरने सारुं राखवानी द्रष्टिए भोगोपभोगनी सामग्रीनी इच्छा करवी ते
निरर्थक छे.
राखवानी बुद्धिए भोगोपभोगनी सामग्रीनी चिंता के इच्छा रहेती नथी. १८.
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तपश्चरणेनेत्यपि शब्दार्थः
उपकार तो केवल उपवास आदि तपश्चर्यासे ही नहीं, बल्कि धनादि पदार्थोंसे भी हो
जायगा
उपकार केवळ उपवास आदि तपश्चर्याथी ज नहि, किन्तु धनादिथी पण थशे, आत्मानो
एटले जीवनो उपकार एटले अनुग्रह थशे एवो अर्थ छे.
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पकारकं स्यादतो जानीहि जीवस्य धनादिना नोपकारगन्धोप्यस्ति धर्मस्यैव तदुपकारत्वात्
है, वही आचरण या अनुष्ठान शरीरमें ग्लानि शिथिलतादि भावोंको कर देता है, अतः उसके
लिए अपकारक है, उसे कष्ट व हानि पहुँचानेवाला है
देहने ग्लानि आदिनुं कारण होवाथी अपकारक छे; अने वळी जे धनादिक, भोजनादिकना
उपयोग द्वारा क्षुधादि पीडाने नाश करवानुं कारण होवाथी शरीरने उपकारक छे, ते (धनना)
उपार्जनादिकमां पाप उत्पन्न थतुं होवाथी अने ते पाप दुर्गतिना दुःखनुं कारण होवाथी,
जीवने अपकारक छे. माटे धनादिक द्वारा जीवने उपकारनी गंध पण नथी, किन्तु धर्मनो
ज तेना उपर उपकार छे, एम जाण.
उत्पन्न थाय छे, तेथी शरीरने ते अपकारक (अहितकर) छे.
प्राप्ति थाय छे, तेथी धनादिक जीवने अपकारक
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आसानीसे कर दिया जाता है, जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है
अपायोने (बाधाओने) दूर करवा पण मुश्केल नथी
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जाते हैं, तो कहो, दोनोंमेंसे किसकी ओर विवेकी लोभके नाश करनेके विचार करनेमें
चतुर
(चिंतामणि छे) अने बीजी बाजुए एटले बीजा पक्षे खराब वा हलको खलीनो (खोळनो)
टुकडो छे. ते बेउ
आदर करशे? तेथी आ लोक संबंधी फळनी अभिलाषा छोडी परलोक संबंधी (लोकोत्तर)
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करना चाहिए
है ? आचार्य कहते हैं
ज आदर करशे; तेवी रीते धर्मी जीव, खोळना टुकडा समान आ लोक संबंधी पराधीन
इन्द्रियजनित सुख जे वास्तवमां दुःख छे तेनो आदर छोडी धर्म
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जानाति
तरह अनुभवमें आया हुआ है
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और बौद्धोंका ‘नैरात्म्यवाद’ भी खंडित हो गया
है’ उनका खंडन हो गया
उसका खण्डन हो गया
केम संभवे?) एवी शंकानुं समाधान करतां आचार्य कहे छे
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कि वह आत्मा ‘स्वसंवेदन
हैं
सम्पूर्णतया प्रकट वह आत्मा योगिजनोंको एकदेश विशदरूपसे अनुभवमें आता है
ते योगीओने एकदेश विशदरूपथी अनुभववामां आवे छे.
प्रमाणे छेः
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छे.
थवानी होय अने थती होय तेम ज ते ते पर्यायोने अनुकूळ जे जे बाह्य निमित्तो होय,
ते बधांने केवळी भगवान एकी साथे जेम छे तेम जाणे छे. एवुं तेमना ज्ञाननुं अचिन्त्य
सामर्थ्य छे.
निश्चित
अकंपपणे (ज्ञानने) अर्पता एवा (ते पर्यायो) विद्यमान ज छे.’’ (गाथा
छे.’’ (गा. ३७