Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 16-21.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ४७
अत्राह शिष्यः ‘कथं धनं निन्द्यं ? येन पुण्यमुपार्ज्यते इति’ पात्रदानदेवार्चनादिक्रियायाः
पुण्यहेतोर्धनं विना असंभवात् पुण्यसाधनं धनं कथं निन्द्यं ? किं तर्हि प्रशस्यमेवातो यथा
कथंचिद्धनमुपार्ज्य पात्रादौ च नियोज्य सुखाय पुण्यमुपार्ज नीयमिति
अत्राह
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः
स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलम्पति ।।१६।।
यहाँ पर शिष्यका कहना है कि धन जिससे पुण्यका उपार्जन किया जाता है, वह
निंद्य-निंदाके योग्य क्यों है ? पात्रोंको दान देना, देवकी पूजा करना, आदि क्रियाएँ पुण्यकी
कारण हैं, वे सब धनके बिना हो नहीं सकती
इसलिए पुण्यका साधनरूप धन निंद्य क्यों ?
वह तो प्रशंसनीय ही है इसलिए जैसे बने वैसे धनको कमाकर पात्रादिकोंमें देकर सुखके
लिए पुण्य संचय करना चाहिए इस विषयमें आचार्य कहते हैं
पुण्य हेतु दानादिको, निर्धन धन संचेय
स्नान हेतु निज तन कुधी, कीचड़से लिम्पेय ।।१६।।
अर्थजो निर्धन, पुण्यप्राप्ति होगी इसलिए दान करनेके लिए धन कमाता या
जोड़ता है, वह ‘स्नान कर लूँगा’ ऐसे ख्यालसे अपने शरीरको कीचड़से लपेटता है
जीवन(आयु)ना विनाश तरफ लक्ष आपता नथी. आम व्यामोहनुं कारण होवाथी धन
धिक्कारने पात्र छे. १५.
अहीं, शिष्य कहे छेजेनाथी पुण्यनुं उपार्जन थाय छे ते धन निन्द्य (निन्दाने
योग्य), केम? पुण्यना हेतुरूप पात्र दान, देवार्चनादि क्रियाओ धन विना असंभवित छे.
तो पुण्यना साधनरूप धन केवी रीते निंदवा योग्य छे? ते तो प्रशस्य (स्तुतिपात्र) ज छे.
माटे कोई रीते धनोपार्जन करी (धन कमाईने) पात्रादिमां वापरी सुख माटे पुण्य
उपार्जन
करवुं जोईए.
अहीं, आचार्य कहे छे
दानहेतु उद्यम करे, निर्धन धन संचेय,
देहे कादव लेपीने, माने ‘स्नान करेय’. १६.
अन्वयार्थ :[यः ] जे [अवित्तः ] निर्धन [श्रेयसे ] पुण्यनी प्राप्ति अर्थे [त्यागाय ]

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४८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीकायोऽवित्तो निर्धनः सन् संचिनोति सेवाकृष्यादिकर्मणोपार्जयति किं ? तद्वित्तं
धनं कस्मै ? त्यागाय पात्रदानदेवपूजाद्यर्थं त्यागायेत्यस्य देवपूजाद्युपलक्षणार्थत्वात् कस्मै
त्यागः ? श्रेयसे अपूर्वपुण्याय पूर्वोपात्तपापक्षयाय यस्य तु चक्रवर्त्यादेरिवायत्नेन धनं सिद्धयति
स तेन श्रयोऽर्थं पात्रदानादिकमपि करोत्विति भावः स किं करोतीत्याह विलिम्पति विलेपनं
करोति कोऽसौ ? सः किं तत् ? स्वशरीरं केन ? पङ्केन कर्दमेन कथं कृत्वेत्याह
स्नास्यामीति अयमर्थो, यथा कश्चिन्निर्मलाङ्गं स्नानं करिष्यामीति पङ्केन विलिम्पन्नसमीक्षकारी
अर्थजो निर्धन ऐसा ख्याल करे कि ‘पात्रदान, देवपूजा आदि करनेसे नवीन
पुण्यकी प्राप्ति और पूर्वोपार्जित पापकी हानि होगी, इसलिए पात्रदानादि करनेके लिए धन
कमाना चाहिए’। नौकरी, खेती आदि करके धन कमाता है, समझना चाहिए कि वह ‘स्नान
कर डालूँगा’ ऐसा विचार कर अपने शरीरको कीचड़से लिप्त करता है
खुलासा यह है
कि जैसे कोई आदमी अपने निर्मल अंगको ‘स्नान कर लूँगा’का ख्याल कर कीचड़से लिप्त
कर डाले, तो वह बेवकूफ ही गिना जाएगा
उसी तरह पापके द्वारा पहिले धन कमा
लिया जाय, पीछे पात्रदानादिके पुण्यसे उसे नष्ट कर डालूँगा, ऐसे ख्यालसे धनके कमानेमें
दान करवा माटे [वित्तं ] धननो [संचिनोति ] संचय करे छे, [सः ] ते [स्नास्यामि इति ] ‘स्नान
करी लईश’ एम समजी [स्वशरीरं ] पोताना शरीरने [पद्केन ] कादवथी [विलिम्पति ] खरडे
छे(अर्थात् पोताना शरीरे कादव लपेडे छे.)
टीका :जे पैसा विनानो एटले निर्धन छे, ते नोकरी, खेती आदि कार्यथी संचय
करे छेउपार्जन करे छे. शुं ते (संचय करे छे)? वित्त एटले धन. शा माटे? त्याग माटे
अर्थात् पात्रदान, देवपूजा आदि (कार्य) माटे; कारण के ‘त्याग’ शब्दमां देवपूजादिनो अर्थ
गर्भित छे. शाने माटे त्याग? कल्याण एटले अपूर्व पुण्यने माटे अने पूर्वोपार्जित पापना
क्षयने माटे.
जेने चक्रवर्ती आदिनी माफक यत्न विना धननी सिद्धि (प्राप्ति) होय छे, तो ते
धनथी पुण्यार्थे पात्रदानादिक करेएवो भाव छे.
(शिष्य) पूछे छे‘ते शुं करे छे?’ लपेडे छेखरडे छे (चोपडे छे). कोण ते?
ते (त्याग करनार). कोने (खरडे छे)? पोताना शरीरने. शा वडे? पंक वडेकादव वडे.
(शिष्य) पूछे छे‘शुं समजीने?’ ‘स्नान करी लईश’ एम समजीने, आनो अर्थ
ए छे केजेम कोई एक (मनुष्य), ‘स्नान करी लईश’ एम समजी पोताना निर्मळ
(स्वच्छ) अंगने (शरीरने) कादवथी खरडे छे, ते अविचारी (मूर्ख) छे, तेम पापथी

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ४९
तथा पापेन धनमुपार्ज्य पात्रदानादिपुण्येन क्षपयिष्यामीति धनार्जने प्रवर्तमानोऽपि न च
शुद्धवृत्त्या कस्यापि धनार्जनं संभवति
तथा चोक्तम् [आत्मानुशासने ]
‘‘शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न संपदः
नहि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिंधवः ।।’’
लगा हुआ व्यक्ति भी समझना चाहिए संस्कृतटीकामें यह भी लिखा हुआ है कि, चक्रवर्ती
आदिकोंकी तरह जिसको बिना यत्न किये हुए धनकी प्राप्ति हो जाय, तो वह उस धनसे
कल्याणके लिये पात्रदानादिक करे तो करे
फि र किसीको भी धनका उपार्जन, शुद्ध वृत्तिसे हो भी नहीं सकता, जैसा कि
श्रीगुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनमें कहा है‘‘शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते’’
अर्थ‘‘सत्पुरुषोंकी सम्पत्तियाँ, शुद्ध ही शुद्ध धनसे बढ़ती हैं, यह बात नहीं है
देखो, नदियाँ स्वच्छ जलसेही परिपूर्ण नहीं हुआ करती हैं वर्षामें गँदे पानीसे भी भरी
रहती हैं’’ ।।१६।।
धनोपार्जित करी पात्रदानादिना पुण्यथी तेनो (पापनो) नाश करीश, एम समजी धन
कमावानी प्रवृत्ति करनार मनुष्य पण तेवो छे (अविचारी छे). कोईने पण शुद्ध वृत्तिथी
(दानतथी) धनोपार्जन संभवतुं नथी.
वळी, ‘आत्मानुशासन’मां कह्युं छे के
सत्पुरुषोनी सम्पत्ति शुद्ध धनथी (न्यायोपार्जित धनथी) वधती नथी. नदीओमां कदी
पण स्वच्छ पाणीनुं पूर आवतुं नथी. (अर्थात् ते वर्षाॠतुमां मेला पाणीथी ज भरपूर
रहे छे) (जेम वर्षाॠतुमां नदीओमां मेला पाणीनुं पूर आवे छे, तेम अन्यायथी उपार्जित
धनथी धनमां घणो वधारो थाय छे).
भावार्थ :‘पूजापात्रदानादिमां धन खर्च करवाथी नवीन पुण्यथी प्राप्ति थशे
अने पूर्वोपार्जित पापनो क्षय थशे’एम समजी धनहीन माणस दान माटे नोकरी, खेती
आदि कार्य करी धन कमाय छे. (धन कमावानो भाव स्वयं पापभाव छे.) ते माणस, ‘स्नान
करी लईश’ एम समजी पोताना शरीर उपर कादव चोपडनार मूर्ख माणस जेवो छे.
जेम कोई माणस पोताना निर्मळ शरीर उपर कादव चोपडी पछी स्नान करे तो
ते मूर्ख गणाय छे, तेम कोई माणस धन कमाई ते धन दानादिमां खर्च करे तो ते माणस

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५० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पुनराह शिष्यः ‘भोगोपभोगायेति ’ भगवन् ! यद्येवं धनार्जनस्य पापप्रायतया
दुःखहेतुत्वात् धनं निन्द्यं, तर्हि धनं विना सुखहेतोर्भोगोपभोगस्यासंभवात्तदर्थं स्यादिति प्रशस्यं
भविष्यति
भोगो भोजनताम्बूलादिः उपभोगो वस्तु कामिन्यादिः भोगोश्चोपभोगाश्च
भोगोपभोगं तस्मै अत्राह गुरुः तदपि नेति न केवलं पुण्यहेतुतया धनं प्रशस्यमिति यत्त्वयोक्तं
तदुक्तरीत्या न स्यात् किं तर्हि ? भोगोपभोगार्थं धनं तत्साधनं प्रशस्यमिति यत्त्वया संप्रत्युच्यते
तदपि न स्यात् कुत इति चेत्, यतः
उत्थानिकाफि र शिष्य कहता है कि भगवन् ! धनके कमानेमें यदि ज्यादातर पाप
होता है, और दुःखका कारण होनेसे धन निंद्य है, तो धनके बिना भोग और उपभोग भी
नहीं हो सकते, इसलिए उनके लिए धन होना ही चाहिए, और इस तरह धन प्रशंसनीय
माना जाना चाहिए
इस विषयमें आचार्य कहते हैं कि ‘यह बात भी नहीं है’ अर्थात् ‘पुण्यका
कारण होनेसे धन प्रशंसनीय है,’ यह जो तुमने कहा था, सो वैसा ख्याल कर धन कमाना
उचित नहीं, यह पहिले ही बताया जा चुका है
‘भोग और उपभोगके लिए धन साधन है,’
यह जो तुम कह रहे हो, सो भी बात नहीं है, यदि कहो क्यों ? तो उसके लिये कहते हैं :
पण तेना जेवो ज मूर्ख छे, कारण के ते एम समजे छे के धनोपार्जनमां जे पाप थशे ते
दानादिथी उपार्जित पुण्यथी नाश पामशे, पण आ एनो भ्रम छे.
जेम वर्षाॠतुमां नदीओ मेला पाणीथी ज उभराय छे, तेम पापभावी धननुं उपार्जन
थाय छे. माटे धनोपार्जन करवानो पापभाव करवो अने पछी ते धनने पुण्योपार्जन माटे
पूजा
पात्रदानादि शुभकार्यमां ‘हुं ते खर्चीश’ एवो अज्ञानभाव करवो मूढता छे. १६.
शिष्य फरीथी कहे छे‘भोग अने उपभोगने माटे’ हे भगवन्! जो ए रीते
धनोपार्जनमां प्रायः पाप होय, धन दुःखनुं कारण होय अने तेथी ते निंद्य होय, तो धन
विना सुखना कारणरूप भोग
उपभोग असंभवित बने; तेथी ते (भोगउपभोग) माटे
धन होय तो ते प्रशंसनीय छे.
भोजन, ताम्बुल आदि ते भोग छे अने वस्तु, स्त्री आदि उपभोग छे. भोग
अने उपभोगते भोगोपभोगते माटे (धन होवुं योग्य छे, एम शिष्यनी दलील छे).
अहीं, आचार्य कहे छेते वात पण नथी. ‘पुण्यना कारणे धन प्रशंसनीय छेएम
जे तें कह्युं ते रीते (प्रशंसनीय) होई शके नहि. वळी भोगउपभोग माटे तेनुं (धननुं)
साधन प्रशंसनीय छे, एम जे तें हमणां कह्युं ते पण केम बनी शके? जो तुं कहे, ‘केम?’
तो कारण ए छे केः

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५१
आरम्भे तापकान्प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान्
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधी ।।१७।।
टीकाको, न कश्चित् सुधीर्विद्वान् सेवते इन्द्रियप्रणालिकयानुभवति कान्
भोगोपभोगान्
उक्तं च
‘‘तदात्त्वे सुखसंज्ञेषु भोगेष्वज्ञोऽनुरज्यते
हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ।।’’
भोगार्जन दुःखद महा, भोगत तृष्णा बाढ़
अंत त्यजत गुरु कष्ट हो, को बुध भोगत गाढ़ ।।१७।।
अर्थआरंभमें संतापके कारण और प्राप्त होने पर अतृप्तिके करनेवाले तथा अन्तमें
जो बड़ी मुश्किलोंसे भी छोड़े नहीं जा सकते, ऐसे भोगोपभोगोंको कौन विद्वान्समझदार-
ज्यादती व आसक्तिके साथ सेवन करेगा ?
विशदार्थभोगोपभोग कमाये जानेके समय, शरीर इन्द्रिय और मनको क्लेश
पहुँचानेका कारण होते हैं यह सभी जन जानते हैं कि गेहूँ, चना, जौ आदि अन्नादिक
भोग्य द्रव्योंके पैदा करनेके लिये खेती करनेमें एड़ीसे चोटी तक पसीना बहाना आदि दुःसह
भोगार्जन दुःखद महा, पाम्ये तृष्णा अमाप,
त्यागसमय अति कष्ट ज्यां, को सेवे धीमान? १७.
अन्वयार्थ :[आरम्भे ] आरंभमां [तापकान् ] संताप करनार, [प्राप्तौ अतृप्ति-
प्रतिपादकान् ] प्राप्त थतां अतृप्ति करनार अने [अन्ते सुदुस्त्यजान् ] अंतमां महा मुश्केलीथी
पण छोडी न शकाय तेवा [कामान् ] भोगोपभोगोने [कः सुधीः ] कोण बुद्धिशाळी [कामं ]
आसक्तिथी [सेवते ] सेवशे?
टीका :कोण? कोई बुद्धिशाळीविद्वान् सेवशे नहि अर्थात् इन्द्रियो द्वारा
भोगवशे नहि. कोने? भोगोपभोगोने. कह्युं छे के‘तदात्त्वेसुखसंज्ञेषु........’
ते वखते सुख नामथी ओळखाता भोगोमां अज्ञानी (हेयउपादेयनो विवेक नहि
करनार) अनुराग करे छे, परंतु परीक्षाप्रधानी जनो बराबर परीक्षा करीने हितने ज
अनुसरे छे (जेनाथी हित थाय तेनुं ज अनुसरण करे छे).’

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५२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कथं भूतान्, तापकान् देहेन्द्रियमनः क्लेशहेतून् क्व ? आरम्भे उत्पत्त्युपक्रमे
अन्नादिभोग्यद्रव्यसंपादनस्य कृष्यादिक्लेशबहुलतायाः सर्वजनसुप्रसिद्धत्वात् तर्हि भुज्यमानाः
कामाः सुखहेतवः सन्तीतिसेव्यास्ते इत्याह, प्राप्तावित्यादि प्राप्तौ इन्द्रियेण सम्बन्धे सति अतृप्तेः
सुतृष्णायाः प्रतिपादकान् दायकान्
उक्तं च [ज्ञानार्णवे २०३० ]
‘‘अपिं संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा
तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति ।।’’
क्लेश हुआ करते हैं कदाचित् यह कहो कि भोगे जा रहे भोगोपभोग तो सुखके कारण
होते हैं ! इसके लिये यह कहना है कि इन्द्रियोंके द्वारा सम्बन्ध होने पर वे अतृप्ति यानी
बढ़ी हुई तृष्णाके कारण होते हैं, जैसा कि कहा गया है :
‘‘अपि संकल्पिता; कामाः’’
‘‘ज्यों ज्यों संकल्पित किए हुए भोगोपभोग, प्राप्त होते जाते हैं, त्यों त्यों मनुष्योंकी
तृष्णा बढ़ती हुई सारे लोकमें फै लती जाती है मनुष्य चाहता है, कि अमुक मिले उसके
मिल जाने पर आगे बढ़ता है, कि अमुक और मिल जाय उसके भी मिल जाने पर
मनुष्यकी तृष्णा विश्वके समस्त ही पदाथोंको चाहने लग जाती है कि वे सब ही मुझे मिल
जाएँ
परंतु यदि यथेष्ट भोगोपभोगोंको भोगकर तृप्त हो जाय तब तो तृष्णारूपी सन्ताप
ठण्डा पड़ जाएगा ! इसलिए वे सेवन करने योग्य हैं आचार्य कहते हैं कि वे भोग लेने
केवा (भोगोपभोगोने)? संताप करनार अर्थात् देह, इन्द्रियो अने मनने क्लेशना
कारणरूप. क्यारे? आरंभमांउत्पत्तिना क्रममां, कारण के अन्नादि भोग्य द्रव्य (वस्तु)
संपादन करवामां खेती आदि संबंधी बहु क्लेश रहे छे ए सर्व जनोमां सुप्रसिद्ध छे.
त्यारे कहे छे के भोगववामां आवता भोगो तो सुखनुं कारण छे, तेथी ते सेववा योग्य
छे. तो (जवाबमां) कहे छे के
प्राप्तावित्यादिप्राप्ति समये एटले इन्द्रियो साथे संबंध थतां
ते (भोगो) अतृप्ति करनार अर्थात् बहु तृष्णा उत्पन्न करनार छे. कह्युं छे के‘अपि
संकल्पिताः’
‘जेम जेम संकल्पित (कल्पेला) भोगोपभोग प्राप्त थाय छे, तेम तेम मनुष्योनी
तृष्णा (वधी जई) बधा विश्वमां फेलाई जाय छे.’
(शिष्य) कहे छेत्यारे इच्छा प्रमाणे ते (भोगोपभोगने) भोगवीने तृप्त थतां,
तृष्णारूपी संताप शमी जशे. तेथी ते सेववा योग्य छे.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५३
तर्हि यथेष्टं भुक्त्वा तृप्तेषु तेषु तृष्णासंतापः शाम्यतीति सेव्यास्ते इत्याह अन्ते
सुदुस्त्यजान् भुक्तिप्रान्ते त्यक्तुमशक्यान् सुभुक्तेष्वपि तेषु मनोव्यतिषङ्गस्य दुर्निवारत्वात्
उक्तं च(श्री चन्द्रप्रभकाव्ये)
‘‘दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि तृप्येदुदधिर्नदीशतैः
न तु कामसुखैः पुमानहो बलवत्ता खलु कापि कर्मणः ।।
अपि चकिमपींदं विषयमयं विषमतिविषमं पुमानयं येन
प्रसभमनुभूय मनो भवे भवे नैव चेतयते ।।’’
पर अन्तमें छोड़े नहीं जा सकते, अर्थात् उनके खूब भोग लेने पर भी मनकी आसक्ति
नहीं हटती,’’ जैसा कि कहा भी है
‘‘दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि’’
‘‘यद्यपि अग्नि, घास, लकड़ी आदिके ढेरसे तृप्त हो जाय समुद्र, सैकड़ों नदियोंसे
तृप्त हो जाय, परंतु वह पुरुष इच्छित सुखोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता अहो ! कर्मोंकी
कोई ऐसी ही सामर्थ्य या जबर्दस्ती है ’’ और भी कहा है :‘‘किमपीदं विषयमयं’’
‘‘अहो ! यह विषयमयी विष कैसा गजबका विष है, कि जिसे जबर्दस्ती खाकर यह
मनुष्य, भव भवमें नहीं चेत पाता है ’’
(आचार्य) कहे छेअंते ते छोडवा मुश्केल छे अर्थात् भोगव्या पछी तेओ छोडवा
अशक्य छे, कारण के तेमने सारी रीते भोगववा छतां, मननी आसक्ति निवारवी मुश्केल
छे. कह्युं छे के
‘दहन....’.
जोके अग्नि, घास, लाकडां आदिना ढगलाथी तृप्त थई जाय अने समुद्र, सेंकडो
नदीओथी तृप्त थई जाय, परंतु पुरुष इच्छित सुखोथी तृप्त थतो नथी. अहो? कर्मनी
एवी कोई (विचित्र) बळजबराई (बलवानपणुं) छे!’
वळी, कह्युं छे के‘किमपीदं......’
‘अहो! आ विषयमयी विष केवुं अति विषम (भयंकर) छे, के जेथी आ पुरुष
तेनो भव भवमां अत्यंत अनुभव करवा छतां (विषय सुखना अनुभवथी उत्पन्न थतां
दुःखोने अनुभववा छतां) तेनुं मन चेततुं ज नथी’
शिष्य पूछे छेतत्त्वज्ञानीओए पण भोगो न भोगव्या होय, एम सांभळवामां
आव्युं नथी (अर्थात् तत्त्वज्ञानीओ पण भोगो भोगवे छे ए जाणीतुं छे); तो ‘कोण

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५४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इस तरह आरम्भ, मध्य और अन्तमें क्लेश-तृष्णा एवं आसक्तिके कारणभूत इन
भोगोपभोगोंको कौन बुद्धिमान् इन्द्रियरूपी नलियोंसे अनुभवन करेगा ? कोई भी नहीं
यहाँ पर शिष्य शंका करता है कि तत्त्वज्ञानियोंने भोगोंको न भोगा हो यह बात
सुननेमें नहीं आती है अर्थात् बड़े बड़े तत्त्वज्ञानियोंने भी भोगोंको भोगा है, यही प्रसिद्ध
है तब ‘भोगोंको कौन बुद्धिमान-तत्त्वज्ञानी सेवन करेगा ?’ यह उपदेश कैसे मान्य किया
जाय ? इस बात पर कैसे श्रद्धान किया जाय ? आचार्य जवाब देते हैंकि हमने उपर्युक्त
कथनके साथ ‘‘कामं अत्यर्थं’’ आसक्तिके साथ रुचिपूर्वक यह भी विशेषण लगाया है
तात्पर्य यह है, कि चारित्रमोहके उदयसे भोगोंको छोड़नेके लिये असमर्थ होते हुए भी
तत्त्वज्ञानी पुरुष भोगोंको त्याज्य-छोड़ने योग्य समझते हुए ही सेवन करते हैं
और जिसका
मोहोदय मंद पड़ गया है, वह ज्ञान-वैराग्यकी भावनासे इन्द्रियोंको रोककर, इन्द्रियोंको
वशमें कर, शीघ्र ही अपने (आत्म) कार्य करनेके लिये कटिबद्ध-तैयार हो जाता है
जैसा कि कहा गया हैइदं फलमियं क्रिया’’
बुद्धिमान भोगोने सेवशे (भोगवशे’एवा उपदेशमां केवी रीते श्रद्धा कराय? (अर्थात्
एवो उपदेश केवी रीते मनाय?......)
आचार्य कहे छे(ज्ञानी) ‘कामम्’ एटले अतिशयपणे (आसक्तिपूर्वकरुचिपूर्वक
ते सेवतो नथी) अहीं तात्पर्य ए छे के
चारित्रमोहना उदयथी भोगोने छोडवा असमर्थ होवा छतां, तत्त्वज्ञानी भोगोने
हेयरूपे समजीने (एटले तेओ छोडवा योग्य छे एम समजीने) सेवे छे. जेनो मोहनो
उदय मंद पडी गयो छे, तेवो ते (ज्ञानी) ज्ञान अने वैराग्यनी भावनाथी इन्द्रिय
समूहने
वश करी (इन्द्रियो तरफना वलणने संयमित करी) एकाएक (शीघ्र) आत्मकार्य माटे
उत्साहित थाय छे; तथा कह्युं छे के
‘इदंफलमियं......’
‘आ फल छे, आ क्रिया छे, आ करण छे, आ क्रम छे, आ व्यय (हानिखर्च)
छे, आ आनुषंगिक (भोगोने अनुसरतुं) फल छे, आ मारी दशा छे, आ मित्र छे, आ
शत्रु छे, आ देश छे, आ काल छे
ए सर्व वातो उपर पूरो ख्याल राखी बुद्धिमान्
पुरुष प्रयत्न करे छे, परंतु बीजो (कोई मूर्ख) तेम करतो नथी.’
आचार्य फरीथी कहे छे‘यदर्थमेतदेवंविधमिति’.
भावार्थ :आदि, मध्य अने अंतमां भोगोपभोग क्लेश, तृष्णा अने आसक्तिना
कारणभूत छे. भोग्य वस्तुओने प्राप्त करवामां कृषि, नोकरी आदि कारणोथी आरंभमां

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५५
ननु तत्त्वविदोपि भोगानभुक्तवन्तो न श्रूयन्त इति कामान् कः सेवते सुधीरित्युपदेशः
कथं श्रद्धयत इत्याह काममिति अत्यर्थं इदमत्र तात्पर्यं चारित्रमोहोदयात् भोगान्
त्यक्तुमशक्नुवन्नपि तत्त्वज्ञो हेयरूपतया कामान्पश्यन्नेव सेवते मन्दीभवन्मोहोदयस्तु
ज्ञानवैराग्यभावनया करणग्रामं संयम्य सहसा स्वकार्यायोत्सहंत एव
‘‘यह फल है, यह क्रिया है, यह करण है, यह क्रम-सिलसिला है, यह खर्च है,
यह आनुषंगिक (ऊपरी) फल है, यह मेरी अवस्था है, यह मित्र है, यह शत्रु है, यह
देश है, यह काल है, इन सब बातों पर ख्याल देते हुए बुद्धिमान् पुरुष प्रयत्न किया
करता है
मूर्ख ऐसा नहीं करता ’’ ।।१७।।
शरीर, इन्द्रियो अने मन संबंधी क्लेश थाय छेअत्यंत कष्ट पडे छे. ज्यारे भोग्य वस्तुओ
मुश्केलीथी प्राप्त थाय छे, त्यारे तेने भोगववा छतां तृप्ति थती नथी, फरी फरी ते
भोगववानी इच्छा थाय छे अने तेथी चित्त व्याकुल रहे छे. अतृप्तिवश तेने (भोगोने)
छोडवानो भाव थतो नथी.
जेम अग्निमां गमे तेटलां काष्ठतृण नाखो, तोपण ते तृप्त थती नथी अने समुद्र
सेंकडो नदीओनां पाणीथी पण तृप्त थतो नथी, तेम मनुष्यनी तृष्णा अनेक भोगोथी पण
कदी तृप्त थती नथी, किन्तु वधती जाय छे.
क्लेशजनक, अतृप्तिकारक अने आसक्तिने लीधे छोडवा मुश्केलएवा भोगोने कोण
बुद्धिमान् पुरुष सेवशे? अर्थात् कोई बुद्धिमान् सेवशे नहि.
अहीं शिष्यनो प्रश्न छे, के जो भोगो भोगववानो भाव अहितकर होय अने
ते सेववा योग्य नथीएवो जो तमारो उपदेश होय तो भरत जेवा ज्ञानी पुरुषोने पण
भोगो भोगवता सांभळवामां आव्या छे. तो आ वात आपना उपदेश साथे असंगत ठरे
छे (
बंध बेसती नथी). तेनुं केम?
आचार्य समाधान करे छे केजोके ज्ञानी पुरुषो चारित्रमोहनीय कर्मना उदयवश
भोगोने भोगववानो भाव छोडवा असमर्थ छे, परंतु तेमने ते प्रति आन्तरिक राग नथी.
श्रद्धा अने ज्ञानमां तेओ ते रागने अहितकर माने छे, तेथी जेवी रीते अज्ञानी भोगोने
हितकर समजी तेने एकताबुद्धिथी भोगवे छे, तेवी रीते ज्ञानीने भोगववानो भाव नथी.
तेने पर द्रव्यना स्वामीपणानो तथा कर्तापणानो अभिप्राय नथी. रागरूप परिणमन छे ते
चारित्रनी नबळाईथी छे. तेनो ते ज्ञाता छे, तेथी अज्ञानरूप कर्तापणुं के भोक्तापणुं तेने
नथी. ए अपेक्षाए ज्ञानी भोगोने सेवतो *होवा छतां ते सेवतो नथी, कारण के
* जुओ, श्री समयसार गा. १९५, १९६, १९७.

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५६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तथा चोक्तम्
‘इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेष क्रमो, व्ययोयमनुषङ्गजं फलमिदं दशेयं मम
अयं
सुहृदयं द्विषन् प्रयतदेशकालाविमाविति प्रतिवितर्कयन् प्रयतते बुधो नेतरः
किंच ‘यदर्थमेतदेवंविधमिति ’ भद्र ! यत्कायलक्षणं वस्तुसंतापाद्युपेतं कर्तुकामेन भोगाः
प्रार्थ्यन्ते तद्द्वक्ष्यमाणलक्षणमित्यर्थः स एवंविध इति पाठः तद्यथा
भवन्ति प्राप्त यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि
स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ।।१८।।
उत्थानिकाआचार्य फि र और भी कहते हैं कि जिस (काय) के लिए सब
कुछ (भोगोपभोगादि) किया जाता है वह (काय) तो महा अपवित्र है, जैसा कि आगे बताया
जाता है
शुचि पदार्थ भी संग ते, महा अशुचि हो जाँय
विघ्न करण नित काय हित, भोगेच्छा विफलाय ।।१८।।
अर्थजिसके सम्बन्धको पाकर-जिसके साथ भिड़कर पवित्र भी पदार्थ अपवित्र
हो जाते हैं, वह शरीर हमेशा अपायों, उपद्रवों, झंझटों, विघ्नों एवं विनाशों कर सहित
है, अतः उसको भोगोपभोगोंको चाहना व्यर्थ है !
भोगववानी क्रिया वखते पण तेनुं ज्ञानरूप परिणमन छूटतुं नथी. अस्थिरताने लीधे जे
राग देखाय छे, तेनो अभिप्रायमां तेने निषेध छे. १७
आचार्य फरीथी कहे छेवळी, जेना माटे ते छे ते आ प्रकारे छेअर्थात् ‘भद्र!
जे शरीरना माटे तुं (अनेक) दुःखो वेठी (भोगोपभोगनी) वस्तुओ प्राप्त करवा इच्छे,
तेनुं लक्षण (स्वरूप) आगळ बताववामां आवे छे, एवो अर्थ छे ते आ प्रमाणे छेः
शुचि पदार्थ जस संगथी, महा अशुचि थई जाय,
विघ्नरूप तस काय हिय, इच्छा व्यर्थ जणाय. १८.
अन्वयार्थ :[यत्संगं ] जेनो संग [प्राप्य ] पामी [शुचीनि अपि ] पवित्र पदार्थो
पण [अशुचीनि ] अपवित्र [भवन्ति ] थई जाय छे, [सः कायः ] ते शरीर [सततापायः ] हंमेशां
बाधाओ (उपद्रव) सहित छे; तेथी [तदर्थं ] तेना माटे [प्रार्थना ] (भोगोपभोगनी) प्रार्थना
(आकांक्षा) करवी [वृथा ] व्यर्थ छे.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५७
वर्तते कोऽसौ, सःकायःशरीरम् किंविशिष्टः ? संततापायः नित्यक्षुधाद्युपतापः
क, इत्याहयत्संगे येन कायेन सह संबन्धं प्राप्य लब्ध्वा शुचीन्यपि पवित्ररम्याण्यपि
भोजनवस्त्रादिवस्तुन्यशुचीनि भवन्ति यतश्चैवं ततस्तदर्थं तं संततापायं कायं शुचिवस्तुभिरुपकर्तुं
प्रार्थना आकाङ्क्षा तेषामेव वृथा व्यर्था केनचिदुपायेन निवारितेऽपि एकस्मिन्नपाये क्षणे
क्षणेऽपरापरापायोपनिपातसम्भवात्
पुनरप्याह शिष्य :‘तर्हि धनादिनाप्यात्मोपकारो भविष्यतीति ’ भगवन् !
विशदार्थजिस शरीरके साथ सम्बन्ध करके पवित्र एवं रमणिक भोजन, वस्त्र
आदिक पदार्थ अपवित्र घिनावने हो जाते हैं, ऐसा वह शरीर हमेशा भूख, प्यास आदि
संतापोंकर सहित है
जब वह ऐसा है तब उसको पवित्र अच्छे-अच्छे पदार्थोंसे भला
बनानेके लिये आकांक्षा करना व्यर्थ है, कारण कि किसी उपायसे यदि उसका एकाध अपाय
दूर भी किया जाय तो क्षण
क्षणमें दूसरेदूसरे अपाय आ खड़े हो सकते हैं ।।१८।।
उत्थानिकाफि र भी शिष्यका कहना है कि भगवन् कायके हमेशा अपायवाले
टीका :वर्ते छे. कोण ते? ते कायशरीर. केवुं (शरीर)? सतत (हंमेशा)
बाधावाळुं अर्थात् नित्य क्षुधादि बाधावाळुं छे. (शिष्य) पूछे छे‘‘ते कोण छे?’’ जेना
संगे अर्थात् जे शरीरनी साथे संबंध करीने (पामीने) पवित्र तथा रमणीय भोजन, वस्त्रादि
वस्तुओ पण अपवित्र थई जाय छे. एम छे तेथी तेने माटे अर्थात् ते सतत बाधावाळी
काया उपर पवित्र वस्तुओथी उपकार करवा माटे प्रार्थना एटले आकांक्षा (करवी) वृथा
एटले व्यर्थ छे, कारण के कोई उपायथी एकाद बाधा दूर करवामां आवे, छतां प्रतिक्षण
(क्षण
क्षण) बीजी बीजी बाधाओ आवी पडे तेवी संभावना छे.
भावार्थ :शरीर प्रत्येनो राग हंमेशां संतापजनक छे, कारण के तेना अंगे क्षुधा
तृषादि अनेक वेदनाओ उत्पन्न थाय छे, ते रोगनुं घर छे अने पवित्र तथा सुंदर भोजन
वस्त्रादि वस्तुओ पण तेना संपर्कथी मलिन, दुर्गंधित अने अपवित्र थई जाय छे.
आवा घृणित शरीरने सारुं राखवानी द्रष्टिए भोगोपभोगनी सामग्रीनी इच्छा करवी ते
निरर्थक छे.
वास्तवमां शरीरादि संतापनुं कारण नथी, परंतु तेना प्रत्येनो ममत्वभाव एकताबुद्धि
ते ज संतापनुं खरुं कारण छे. जेने शरीर प्रत्ये ममत्वभाव नथी, तेने शरीरने सारुं
राखवानी बुद्धिए भोगोपभोगनी सामग्रीनी चिंता के इच्छा रहेती नथी. १८.
फरीथी शिष्य कहे छेत्यारे धनादिथी पण आत्मानो उपकार थशे, अर्थात् भगवन्!

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५८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
संततापायतया कायस्य धनादिना यद्युपकारो न स्यात्तर्हि धनादिनापि न केवलमनशनादि-
तपश्चरणेनेत्यपि शब्दार्थः
आत्मनो जीवस्योपकारोऽनुग्रहो भविष्यतीत्यर्थः
गुरुराह तन्नेति यत्त्वया धनादिना आत्मोपकारभवनं संभाज्यते तन्नास्ति यतः
यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम्
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ।।१९।।
होनेसे यदि धनादिकके द्वारा कायका उपकार नहीं हो सकता, तो आत्माका
उपकार तो केवल उपवास आदि तपश्चर्यासे ही नहीं, बल्कि धनादि पदार्थोंसे भी हो
जायगा
आचार्य उत्तर देते हुए बोले, ऐसी बात नहीं है कारण कि
आतम हित जो करत है, सो तनको अपकार
जो तनका हित करत है, सो जियको अपकार ।।१९।।
अर्थजो जीव (आत्मा)का उपकार करनेवाले होते हैं, वे शरीरका अपकार (बुरा)
करनेवाले होते हैं जो चीजें शरीरका हित या उपकार करनेवाली होती हैं, वही चीजें
आत्माका अहित करनेवाली होती हैं
शरीर सतत बाधानुं कारण होवाथी तेना उपर धनादिथी उपकार न थाय, तो आत्मानो
उपकार केवळ उपवास आदि तपश्चर्याथी ज नहि, किन्तु धनादिथी पण थशे, आत्मानो
एटले जीवनो उपकार एटले अनुग्रह थशे एवो अर्थ छे.
गुरु कहे छेतेम नथी अर्थात् धनादिथी तुं आत्मानो उपकार थवो माने छे, पण
तेम नथी, कारण केः
जे आत्माने हित करे, ते तनने अपकार,
करे हित जे देहने, ते जीवने अपकार. १९.
अन्वयार्थ :[यत् ] जे [जीवस्य उपकाराय ] जीवने (आत्माने) उपकारक छे, [तद् ]
ते [देहस्य अपकारक ] देहने अपकारक [भवति ] छे [तथा ] अने [यद् ] जे [देहस्य उपकाराय ]
देहने उपकारक छे, [तद् ] ते [जीवस्य अपकारकं ] जीवने अपकारक [भवति ] छे.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ५९
टीकायदनशनादितपोऽनुष्ठानं जीवस्य पूर्वापूर्वपापक्षणनिवारणाभ्यामुपकाराय
स्यात्तद्देहस्यापकारकं ग्लान्यादिनिमित्तत्वात् यत्पुनर्घनादिकं देहस्य भोजनाद्युपयोगेन
क्षुधाद्युपतापक्षयत्वादुपकाराय स्यात्तज्जीवस्योपार्जनादौ पापजनकत्वेन दुर्गति दुःखनिमित्तत्वाद-
पकारकं स्यादतो जानीहि जीवस्य धनादिना नोपकारगन्धोप्यस्ति धर्मस्यैव तदुपकारत्वात्
विशदार्थदेखो जो अनशनादि तपका अनुष्ठान करना, जीवके पुराने व नवीन
पापोंको नाश करनेवाला होनेके कारण, जीवके लिये उपकारक है, उसकी भलाई करनेवाला
है, वही आचरण या अनुष्ठान शरीरमें ग्लानि शिथिलतादि भावोंको कर देता है, अतः उसके
लिए अपकारक है, उसे कष्ट व हानि पहुँचानेवाला है
और जो धनादिक हैं, वे
भोजनादिकके उपयोग द्वारा क्षुधादिक पीड़ाओंको दूर करनेमें सहायक होते हैं अतः वे
शरीरके उपकारक हैं किन्तु उसी धनका अर्जनादिक पापपूर्वक होता है व पापपूर्वक
होनेसे दुर्गतिके दुःखोंकी प्राप्तिके लिये कारणीभूत है अतः वह जीवका अहित या बुरा
करनेवाला है इसलिए यह समझ रक्खो कि धनादिकके द्वारा जीवका लेशमात्र भी उपकार
नहीं हो सकता उसका उपकारक तो धर्म ही है उसीका अनुष्ठान करना चाहिए
अथवा कायका हित सोचा जाता है, अर्थात् कायके द्वारा होनेवाले उपकारका विचार
किया जाता है देखिये कहा जाता है कि ‘‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’ शरीर धर्म-
टीका :जे अनशनादि तपनुं अनुष्ठान, जीवनां जूनां अने नवां पापोनो नाश
करवामां तथा दूर करवामां कारणभूत होवाथी जीवने उपकारक छे, ते (तपादि आचरण)
देहने ग्लानि आदिनुं कारण होवाथी अपकारक छे; अने वळी जे धनादिक, भोजनादिकना
उपयोग द्वारा क्षुधादि पीडाने नाश करवानुं कारण होवाथी शरीरने उपकारक छे, ते (धनना)
उपार्जनादिकमां पाप उत्पन्न थतुं होवाथी अने ते पाप दुर्गतिना दुःखनुं कारण होवाथी,
जीवने अपकारक छे. माटे धनादिक द्वारा जीवने उपकारनी गंध पण नथी, किन्तु धर्मनो
ज तेना उपर उपकार छे, एम जाण.
भावार्थ : निश्चय अनशनादि तपना अनुष्ठानथी जूनां तथा नवां कर्मोनो अभाव
थाय छे, तेथी ते जीवने उपकारक छे, परंतु ते तपादिना अनुष्ठानथी शरीरमां शिथिलतादि
उत्पन्न थाय छे, तेथी शरीरने ते अपकारक (अहितकर) छे.
भोजनादिना भोग द्वारा क्षुधादि पीडाओने दूर करवामां धनादिक निमित्त छे, तेथी
शरीरने उपकारक छे, परंतु ते धन कमावामां पाप थाय छे अने पापथी दुर्गतिनां दुःखोनी
प्राप्ति थाय छे, तेथी धनादिक जीवने अपकारक
अहितकर छे.

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६० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अत्राह शिष्यः तर्हि कायस्योपकारश्चिन्त्यते इति भगवन् ! यद्येवं तर्हि ‘शरीरमाद्यं खलु
धर्मसाधनम्’ इत्यभिधानात्तस्यापायनिरासाय यत्नः क्रियते न च कायस्यापायनिरासो दुष्कर इति
वाच्यम् ध्यानेन तस्यापि सुकरत्वात् तथा चोक्तम् [तत्त्वानुशासने ]
‘‘यदात्रिकं फलं किंचित्फलमामुत्रिकं च यत्
एतस्य द्विगुणस्यापि ध्यानमेवाग्रकारणम्’’ ।।२१७।।
‘झाणस्स ण दुल्लहं किंपीति च’अत्र गुरुः प्रतिषेधमाह तन्नेति ध्यानेन
कायस्योपकारो न चिन्त्य इत्यर्थः
सेवनका मुख्य साधन-सहारा है इतना ही नहीं, उसमें यदि रोगादिक हो जाते हैं, तो
उनके दूर करनेके लिये प्रयत्न भी किये जाते हैं कायके रोगादिक अपायोंका दूर किया
जाना मुश्किल भी नहीं है, कारण कि ध्यानके द्वारा वह (रोगादिकका दूर किया जाना)
आसानीसे कर दिया जाता है, जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है
‘‘यत्रादिकं फलं
किंचित् ।।१९।।
जो इस लोक सम्बन्धि फल हैं, या जो कुछ परलोक सम्बन्धी फल हैं, उन दोनों ही
फलोंका प्रधान कारण ध्यान ही है मतलब यह है कि ‘‘झाणस्स ण दुल्लहं किं पीति च’’
ध्यानके लिये कोई भी व कुछ भी दुर्लभ नहीं है, ध्यानसे सब कुछ मिल सकता है इस विषयमें
आचार्य निषेध करते हैं, कि ध्यानके द्वारा कायका उपकार नहीं चिंतवन करना चाहिए
माटे समजवुं के धनादिक द्वारा जीवने लेशमात्र उपकार थतो नथी, जीवनो उपकार
तो निश्चय आत्मधर्मथी ज थाय छे. १९.
अहीं शिष्य कहे छेत्यारे शरीरना उपकार संबंधी विचार करवामां आवे छे,
भगवन्! जो एम होय तो, ‘शरीर खरेखर धर्मनुं आद्य साधन छे’ए कथनथी तेनो
(रोगादिथी) नाश थतो अटकाववाने प्रयत्न करवामां आवे छे अने शरीरना (रोगादिक)
अपायोने (बाधाओने) दूर करवा पण मुश्केल नथी
एम वाच्य छे, कारण के ध्यान द्वारा ते
(रोगादिकनुं दूर करवुं) सहेलाईथी कराय छे; तथा ‘तत्त्वानुशासन’ श्लोक २१७मां कह्युं छे के
‘जे आ लोक संबंधी फळ छे अने जे परलोक संबंधी फळ छेते बंने फळोनुं प्रधान
कारण ध्यान ज छे.’ ‘ध्यानने माटे कांईपण दुर्लभ नथी.’
आ विषयमां आचार्य निषेध करी कहे छे‘तेम नथी; ध्यान द्वारा शरीरनो उपकार
चिंतववो जोईए नहि’एवो अर्थ छे.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ६१
इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इतः पिण्याकखण्डकम्
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ।।२०।।
टीकाअस्ति कोऽसौ ? चिन्तामणि चिंतितार्थप्रदो रत्नविशेषः किं विशिष्टो ?
दिव्यो देवेनाधिष्ठितः क्व, इत अस्मिन्नेकस्मिन् पक्षे इतश्चान्यस्मिन् पक्षे पिण्याकखण्डकं
कुत्सितमल्पं वा खलखण्डकमस्ति एते च उभे द्वे अपि यदि ध्यानेन लभ्येते अवश्यं लभ्येते
तर्हि कथय क्व द्वयोर्मध्ये कतरस्मिन्नेकस्मिन् विवेकिनो लोभच्छेदविचारचतुरा आद्रियन्तां आदरं
इत चिंतामणि है महत, उत खल टूक असार
ध्यान उभय यदि देत बुध, किसको मानत सार ।।२०।।
अर्थइसी ध्यानसे दिव्य चिंतामणि मिल सकता है, इसीसे खलीकें टुकड़े भी
मिल सकते हैं जब कि ध्यानके द्वारा दोनों मिल सकते हैं, तब विवेकी लोक किस ओर
आदरबुद्धि करेंगे ?
विशदार्थएक तरफ तो देवाधिष्ठित चिन्तित अर्थको देनेवाला चिन्तामणि और
दूसरी ओर बुरा व छोटासा खलीका टुकड़ा, ये दोनों भी यदि ध्यानके द्वारा अवश्य मिल
जाते हैं, तो कहो, दोनोंमेंसे किसकी ओर विवेकी लोभके नाश करनेके विचार करनेमें
चतुर
पुरुष आदर करेंगे ? इसलिए इस लोक सम्बन्धी फल कायकी नीरोगता आदिकी
छे चिंतामणि दिव्य ज्यां, त्यां छे खोळ असार,
पामे बेउ ध्यानथी, बुध माने शुं सार? २०.
अन्वयार्थ :[इतः दिव्यः चिन्तामणिः ] एक बाजु दिव्य चिंतामणि छे, [इतः च
पिण्याकखण्डकम् ] अने बीजी बाजु खलीनो (खोळनो) टुकडो छे; [चेत् ] जो [ध्यानेन ] ध्यान
द्वारा [उभे ] बन्ने [लभ्ये ] मळी शके तेम छे, तो [विवेकिनः ] विवेकी जनो [क्व आद्रियन्ताम् ]
कोनो आदर करशे?
टीका :छे. कोण ते? चिन्तामणि अर्थात् चिन्तित पदार्थ देनार रत्नविशेष. केवो
(चिन्तामणि)? दिव्य अर्थात् देव द्वारा अधिष्ठित. क्यां? एक बाजुए एटले एक पक्षे
(चिंतामणि छे) अने बीजी बाजुए एटले बीजा पक्षे खराब वा हलको खलीनो (खोळनो)
टुकडो छे. ते बेउ
बन्ने पण जो ध्यानथी प्राप्त थायअवश्य मळी जायतो कहो
बन्नेमांथी कया एकमां, विवेकी जनो अर्थात् लोभनो नाश करवाना विचारमां चतुर पुरुषो,
आदर करशे? तेथी आ लोक संबंधी फळनी अभिलाषा छोडी परलोक संबंधी (लोकोत्तर)

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६२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कुर्वन्तु तदैहिकफलाभिलाषं त्यकत्वा आमुत्रिकफलसिद्धयर्थमेवात्मा ध्यातव्यः उक्तं च
[तत्त्वानुशासने ]
‘‘यद्धयानं रौद्रमार्त्तं वा यदैहिकफलार्थिनाम्
तस्मादेतत्परित्यज्य धर्म्यं शुक्लमुपास्यताम् ।।’’
अथैवमुद्वोधितश्रद्धानो विनेयः पृच्छति स आत्मा कीदृश इति यो
युष्माभिर्ध्यतव्यतयोपदिष्टः पुमान् स किंस्वरूप इत्यर्थः गुरुराहः
अभिलाषाको छोड़कर परलोक सम्बन्धी फलकी सिद्धि-प्राप्तिके लिये ही आत्माका ध्यान
करना चाहिए
कहा भी है कि, ‘‘यद् ध्यानं रौद्रमार्तं वा’’ ।।२०।।
‘‘वह सब रौद्रध्यान या आर्त्तध्यान है, जो इसलोक सम्बन्धी फलके चाहनेवालेको
होता है इसलिए रौद्र व आर्त्तध्यानको छोड़कर धर्मध्यान व शुक्लध्यानकी उपासना करनी
चाहिए ’’
अब वह शिष्य जिसे समझाये जानेसे श्रद्धान उत्पन्न हो रहा है, पूछता है कि जिसे
आपने ध्यान करने योग्य रूपसे बतलाया है, वह कैसा है ? उस आत्माका क्या स्वरूप
है ? आचार्य कहते हैं
फळनी सिद्धि माटे ज आत्मानुं ध्यान करवुं जोईए. ‘तत्त्वानुशासन’श्लोक. २२०मां कह्युं
छे के
‘जे रौद्रध्यान अने आर्तध्यान छे ते आ लोक संबंधी फळनी इच्छा करनाराओने
होय छे. तेथी तेनो त्याग करीने धर्मध्यान अने शुक्लध्याननी उपासना करवी जोईए.’
भावार्थ :एक बाजु चिन्तामणि रत्न छे अने बीजी बाजुए खोळनो टुकडो छे.
बन्नेनी प्राप्ति ध्यानथी थाय छे, परंतु ए बन्ने चीजोमांथी विवेकी पुरुष चिन्तामणि रत्ननो
ज आदर करशे; तेवी रीते धर्मी जीव, खोळना टुकडा समान आ लोक संबंधी पराधीन
इन्द्रियजनित सुख जे वास्तवमां दुःख छे तेनो आदर छोडी धर्म
शुक्लरूप ध्याननी
आराधना द्वारा चिन्तामणि समान वास्तविक आत्मिक सुखनी प्राप्ति करवानुं पसंद करशे.
माटे आर्त अने रौद्रए बन्ने ध्यानोनो परित्याग करी, आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे
धर्म अने शुकलए बन्ने ध्यानोनी उपासना करवी जोईए. २०.
‘ध्यान करवा योग्य छे,’ एवो आपे जेनो उपदेश आप्यो छे ते आत्मानुं स्वरूप
शुं छे? एवो अर्थ छे. गुरु कहे छेः

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ६३
स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः
अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ।।२१।।
टीकाअस्ति ! कोऽसौ ? आत्मा कीद्दशः, लोकालोकविलोकनः लोको
जीवाद्याकीर्णमाकाशं ततोऽन्यदलोकः तौ विशेषेण अशेषविशेषनिष्ठतया लोक्यते पश्यति
जानाति
एतेन ‘‘ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा’’ इति सांख्यमतं, बुद्धयादिगुणोज्झितः पुमानिति
यौगमतं च प्रत्युक्तम् प्रतिध्वस्तश्च नैरात्म्यवादो बौद्धानाम् पुन कीदृशः ? अत्यन्तसौख्यवान्
निज अनुभवसे प्रगट है, नित्य शरीरप्रमान
लोकालोक निहारता, आतम अति सुखवान ।।२१।।
अर्थआत्मा लोक और अलोकको देखने जाननेवाला, अत्यन्त अनंत सुख
स्वभाववाला, शरीरप्रमाण, नित्य, स्वसंवेदनसे तथा कहे हुए गुणोंसे योगिजनों द्वारा अच्छी
तरह अनुभवमें आया हुआ है
विशदार्थजीवादिक द्रव्योंसे घिरे हुए आकाशको लोक और उससे अन्य सिफ र्
आकाशको अलोक कहते हैं इन दोनोंको विशेषरूपसे उनके समस्त विशेषोंमें रहते हुए
जो जाननेदेखनेवाला है, वह आत्मा है ऐसा कहनेसे ‘‘ज्ञानशून्यचैतन्यमात्रमात्मा’’ ज्ञानसे
शून्य सिफ र् चैतन्यमात्र ही आत्मा है, ऐसा सांख्यदर्शन तथा ‘‘बुद्ध्यादिगुणोज्झितः पुमान्’’
निज अनुभवथी प्रगट जे, नित्य शरीर प्रमाण,
लोकालोक विलोकतो, आत्मा अतिसुखवान. २१.
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [लोकालोकविलोकनः ] लोक अने अलोकनो ज्ञाता
द्रष्टा, [अत्यन्तसौख्यवान् ] अत्यन्तअनंतसुखस्वभाववाळो, [तनुमात्रः ] शरीर प्रमाण,
[निरत्ययः ] अविनाशी (नित्य) अने [स्वसंवेदनसुव्यक्तः अस्ति ] स्वसंवेदन द्वारा सारी रीते
व्यक्त (प्रगट) छे(अर्थात् स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे).
टीका :छे. कोण ते? आत्मा. केवो (आत्मा)? लोक अने अलोकनो ज्ञाता
द्रष्टाअर्थात् जीवादि द्रव्योथी व्याप्त आकाश ते लोक अने तेनाथी अन्य (आकाश) ते
अलोकते बंनेने विशेषरूपथी अर्थात् अशेषरूपे (कांई पण बाकी राख्या वगर) परिपूर्णरूपे
जे अवलोके छेदेखे छेजाणे छे, ते एनाथी (एम कहीने)
‘ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा’
ज्ञानशून्य चैतन्यमात्र ज आत्मा छेएवा सांख्यमतनुं तथा
‘बुद्धयादिगुणोज्झितः पुमानिति’

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६४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अनन्तसुखस्वभावः एतेन सांख्ययौगतन्त्रं प्रत्याहतम् पुनरपि कीदृशस्तनुमात्रः
स्वोपात्तशरीरपरिमाणः एतेन व्यापकं वटकणिकामात्रं चात्मानं वदन्तौ प्रत्याख्यातौ
पुनरपिकीदृशः, निरत्ययः द्रव्यरूपतया नित्यः एतेन गर्भादिमरणपर्यन्तं जीवं प्रतिजानानश्चार्वाको
निराकृतः ननु प्रमाणसिद्धे वस्तुन्येवं गुणवादः श्रेयान्न चात्मनस्तथा प्रमाण-
सिद्धत्त्वमस्तीत्याशंकायामाह स्वसंवेदनसुव्यक्त इति [उक्तं च तत्त्वानुशासने ]
बुद्धि सुख-दुःखादि गुणोंसे रहित पुरुष है, ऐसा योगदर्शन खंडित हुआ समझना चाहिए
और बौद्धोंका ‘नैरात्म्यवाद’ भी खंडित हो गया
फि र बतलाया गया है कि ‘वह आत्मा
सौख्यवान् अनंत सुखस्वभाववाला है’। ऐसा कहनेसे सांख्य और योगदर्शन खंडित हो गया
फि र कहा गया कि वह ‘‘तनुमात्रः’’ ‘अपने द्वारा ग्रहण किये गये शरीरपरिमाणवाला है’
ऐसा कहनेसे जो लोग कहते हैं कि ‘आत्मा व्यापक है’ अथवा ‘आत्मा वटकणिका मात्र
है’ उनका खंडन हो गया
फि र वह आत्मा ‘‘निरत्ययः’’ ‘द्रव्यरूपसे नित्य है’ ऐसा
कहनेसे, जो चार्वाक यह कहता था कि ‘‘गर्भसे लगाकर मरणपर्यन्त ही जीव रहता है,’’
उसका खण्डन हो गया
यहाँ पर किसीकी यह शंका है कि प्रमाणसिद्ध वस्तुका ही गुण-गान करना उचित
है; परन्तु आत्मामें प्रमाणसिद्धता ही नहीं हैवह किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है तब ऊपर
बुद्धि आदि (बुद्धि, सुख, दुःख आदि) गुणोथी रहित पुरुष (आत्मा छे)एवा
योगमतनुं खंडन कर्युं तथा बौद्धोना ‘नैरात्म्यवाद’नुं पण खंडन थई गयुं.
वळी (आत्मा) केवो छे? अत्यंत सौख्यवान् अर्थात् अनंतसुखस्वभावी छे. तेनाथी
(एम कहेवाथी) सांख्य अने योग मत (दर्शन)नुं खंडन थयुं; वळी (आत्मा) केवो छे?
‘तनमात्रः’ एटले पोते ग्रहण करेला शरीर प्रमाण छे. तेनाथी (ए कथनथी) आत्मा व्यापक
छे अथवा ‘वटकणिकामात्रं’ छे, अर्थात् ‘आत्मा वडना बीज जेवो अत्यंत नानो छे’एवुं
कहेनाराओनुं खंडन कर्युं. वळी (ते आत्मा) केवो छे? ‘निरत्ययः’ एटले द्रव्यरूपे आत्मा
नित्य छे. तेनाथी ‘गर्भादिथी मरण पर्यंत ज जीव रहे छे’एवुं कहेनार चार्वाकनुं खंडन
कर्युं.
शिष्यनी आशंका छे केप्रमाणसिद्ध वस्तुनो ज एवो गुणवाद ठीक (उचित) छे,
परंतु आत्मानी तेवी प्रमाणसिद्धता तो नथी, (तो उपरोक्त विशेषणोथी आत्मानो गुणवाद
केम संभवे?) एवी शंकानुं समाधान करतां आचार्य कहे छे
१. अभावात्मको मोक्षः ।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ६५
‘‘वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः
तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम् ।।१६१।।’’
इत्येवंलक्षणस्वसंवेदनप्रत्यक्षेण सकलप्रमाणधुर्येण सुष्ठु उक्तैश्च गुणैः संपूर्णतया व्यक्तः
विशदतयानुभूतो योगिभि त्वेकदेशेन
कहे हुए विशेषणोंसे किसका और कैसा गुणवाद ? ऐसी शंका होने पर आचार्य कहते हैं
कि वह आत्मा ‘स्वसंवेदन
सुव्यक्त है,’ स्वसंवेदन नामक प्रमाणके द्वारा अच्छी तरह प्रगट
है ‘‘वेद्यत्वं वेदकत्वं च’’
‘‘जो योगीको खुदका वेद्यत्व व खुदके द्वारा वेदकत्व होता है, बस, वही स्वसंवेदन
कहलाता है अर्थात् उसीको आत्माका अनुभव व दर्शन कहते हैं अर्थात् जहाँ आत्मा
ही ज्ञेय और आत्मा ही ज्ञायक होता है, चैतन्यकी उस परिणतिको स्वसंवेदन प्रमाण कहते
हैं
उसीको आत्मानुभव व आत्मदर्शन भी कहते हैं इस प्रकारके स्वरूपवाले स्वसंवेदन-
प्रत्यक्ष (जो कि सब प्रमाणोंमें मुख्य या अग्रणी प्रमाण है) से तथा कहे हुए गुणोंसे
सम्पूर्णतया प्रकट वह आत्मा योगिजनोंको एकदेश विशदरूपसे अनुभवमें आता है
’’ २१।।
ते आत्मा ‘स्वसंवेदनसुव्यक्तः’ स्वसंवेदन द्वारा सारी रीते व्यक्त छे (अर्थात् आत्मा
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे), तेथी ते संभवे छे.
‘तत्त्वानुशासन’श्लो. १६१मां कह्युं छे के
‘योगीने पोताना आत्मानुं आत्मा द्वारा जे वेद्यपणुं तथा वेदकपणुं छे, तेने
स्वसंवेदन कहे छे. ते आत्मानो अनुभव वा दर्शन छे.’
आवा प्रकारना लक्षणवाळो स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आत्मा जे सर्व प्रमाणोमां मुख्य आ
अग्रणी प्रमाण छे, तेनाथी तथा उक्त गुणोथी सारी रीते संपूर्णपणे व्यक्त (प्रगट) छे,
ते योगीओने एकदेश विशदरूपथी अनुभववामां आवे छे.
भावार्थ :आ श्लोकमां आचार्ये, (१) लोकअलोकने जाणनार, (२) अत्यंत
अनन्तसुखस्वभाववाळो, (३) शरीर प्रमाण, (४) अविनाशी अने (५) स्वसंवेदनगम्य
आत्मानां आवां पांच विशेषणो आपी आत्मानी विशिष्ठता दर्शावी छे. तेनी स्पष्टता आ
प्रमाणे छेः
(१) सर्वज्ञनो आत्मा लोकालोकने जाणे छे. ए व्यवहारनयनुं कथन छे, पण तेनो
अर्थ ए नथी के तेओ जाणता ज नथी. तेओ जाणे तो छे, परंतु पर पदार्थोनी साथे एकता

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६६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
करी (एकमेक थई) जाणता नथी. जो तेओ एकता करी जाणे तो तेओ अन्य जीवोना राग
द्वेषना कर्ता अने ते जीवोना सुखदुःखना भोक्ता थायजे कदी बने नहि.
दर्पणनी जेम आत्मामां (ज्ञानमां) एवी निर्मळता छे के त्रण लोकना सर्व पदार्थो
तेमां प्रतिबिंबित थाय छे. तेथी पोताना आत्माने जाणतां बधा पदार्थो तेमां जणाई जाय
छे.
केवळज्ञाननी एक समयनी पर्याय, त्रण लोकना अनंत पदार्थो, तेमना प्रत्येकना
अनंतअनंत गुणो अने दरेक गुणनी त्रिकालवर्ती अनंतअनंत पर्यायोने, युगपत् (एकी
साथे) जेम छे तेम जाणे छे; अर्थात् जे द्रव्यनी जे पर्याय जे काले जे क्षेत्रे थई गई होय,
थवानी होय अने थती होय तेम ज ते ते पर्यायोने अनुकूळ जे जे बाह्य निमित्तो होय,
ते बधांने केवळी भगवान एकी साथे जेम छे तेम जाणे छे. एवुं तेमना ज्ञाननुं अचिन्त्य
सामर्थ्य छे.
सर्वज्ञनी शक्ति विषे श्री प्रवचनसारमां कह्युं छे केः
‘‘.....हवे, एक ज्ञायकभावनो सर्व ज्ञेयोने जाणवानो स्वभाव होवाथी, क्रमे प्रवर्तता,
अनंत, भूतवर्तमानभावि विचित्र पर्यायसमूहवाळां, अगाधस्वभाव अने गंभीर एवां
समस्त द्रव्यमात्रनेजाणे के ते द्रव्यो ज्ञायकमां कोतराई गयां होय, चीतराई गयां होय, दटाई
गयां होय, खोदाई गयां होय, डूबी गयां होय, समाई गयां होय, प्रतिबिंबित थयां होय एम
एक क्षणमां ज जे (शुद्ध आत्मा) प्रत्यक्ष करे छे......’’ (गाथा २००टीका)
‘‘ते (जीवादि) द्रव्य जातिओना समस्त विद्यमान अने अविद्यमान पर्यायो,
तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायोनी माफक, विशिष्टतापूर्वक (पोतपोताना भिन्नभिन्न स्वरूपे)
ज्ञानमां वर्ते छे. (गाथा३७)
‘‘जे (पर्यायो) अद्यापि उत्पन्न थया नथी तथा जे उत्पन्न थईने विलय पामी गया
छे, ते (पर्यायो) खरेखर अविद्यमान होवा छतां, ज्ञान प्रति नियत होवाथी (ज्ञानमां
निश्चित
स्थिरचोंटेलां होवाथी, ज्ञानमां सीधां जणातां होवाथी) ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तता थका,
पत्थरना स्तंभमां कोतराएला भूत अने भावि देवोनी (तीर्थंकरदेवोनी) माफक पोतानुं स्वरूप
अकंपपणे (ज्ञानने) अर्पता एवा (ते पर्यायो) विद्यमान ज छे.’’ (गाथा
३८ टीका)
‘‘.....आ रीते आत्मानी अद्भूत ज्ञानशक्ति अने द्रव्योनी अद्भुत ज्ञेयत्वशक्तिने
लीधे केवळज्ञानमां समस्त द्रव्योना त्रणे काळना पर्यायोनुं एक ज समये भासवुं अविरुद्ध
छे.’’ (गा. ३७
भावार्थ)