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अने (३) केवळज्ञान निष्कंप
मुक्त थाय छे अर्थात् स्वात्मोपलब्धिने प्राप्त करे छे, त्यारे ते गुणनो पूर्ण विकास थतां
आत्मा अनंतसुखस्वभावरूप परिणमे छे.
छे. तोपण सिद्ध अवस्थामां संकोच
अन्तर्बाह्य जल्पो अथवा संकल्पोनो परित्याग करी आत्मस्वरूपनुं आत्मा द्वारा आत्मामां ज
जे अनुभव या वेदन थाय छे, ते स्वसंवेदन छे. आ स्वसंवेदननी अपेक्षाए आत्मा प्रत्यक्ष
छे.
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स्वरूप पहिले (नं
मननी स्वैराचाररूप (स्वच्छंद) प्रवृत्तिनो नाश करी दीधो छे एवा आत्माए. कोने
(ध्याववो)? आत्माने एटले जेनो स्वभाव पहेलां (श्लोक २१मां) बताव्यो छे तेवा पुरुषने
(आत्माने); शा वडे? आत्मा वडे ज अर्थात् स्वसंवेदनरूप पोताथी ज (प्रत्यक्ष ज्ञानथी ज)
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ज ज्ञप्तिनुं साधन छे.)
छोडी स्वसंवित्ति (एटले स्वसंवेदन) द्वारा ज तेने जाणवो जोईए.’
पोतपोताना स्वरूपमां ज स्थित होय छे). शुं करीने? रूपादि (विषयो)थी रोकीने (संयमित
करीने) अर्थात् पाछी वाळीने. कोने? इन्द्रियोना समूहने
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कहिए प्रधानतासे आलम्बनभूत विषय जिसका ऐसे मनको कहेंगे ‘एकाग्र’
जिसका ऐसे मनको एकाग्र कहेंगे
चिन्ताको छोड़ कर स्वसंवेदनके ही द्वारा आत्माका अनुभव करे
तेमां एकाग्रता प्राप्त करी, चिंता छोडी, स्वसंवेदन द्वारा ज आत्मानो अनुभव करवो.
जाय छे (गभराई जाय छे).
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एकाग्रताथी अन्य चिंतानो निरोध थई ध्यानावस्थामां स्वसंवेदन द्वारा आत्मानो अनुभव
थशे.
ते एक काळमां एक ज्ञेयने ज जाणी शके. हवे ते ज ज्ञान स्वरूप जाणवाने प्रवर्त्युं त्यारे
अन्यने जाणवानुं सहेज ज बंध थयुं. त्यां एवी दशा थई के बाह्य अनेक शब्दादिक विकार
होवा छतां पण स्वरूपध्यानीने तेनी कांई खबर नथी. ए प्रमाणे मतिज्ञान पण स्वरूपसन्मुख
थयुं. वळी नयादिकना विचारो मटवाथी श्रुतज्ञान पण स्वरूपसन्मुख थयुं......तेथी जे ज्ञान
इन्द्रियो अने मन द्वारा प्रवर्ततुं हतुं ते ज ज्ञान हवे निज अनुभवमां प्रवर्ते छे, तथापि
आ ज्ञानने अतीन्द्रिय कहीए छीए
रहेती नथी.
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होय छे.
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स्वार्थावबोधरूप ज्ञानको देती है
आत्मामें ही सेवनीय है, अनन्यशरण होकर भावना करनेके योग्य है
आ उपासनामां पण) बीजुं शोधे छे.’
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स्व-पर विवेकरूपी ज्योति जेनी एवा आत्माने आत्मा द्वारा आत्मामां ज निरंतर सेव.
स्व
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है
सिद्धयोगीनी अपेक्षाए (अर्थात् जे सिद्धयोगी छे तेनां तो) अशुभ तथा शुभ कर्मोनी
निर्जरा अने साध्ययोगीनी अपेक्षाए असातावेदनीय आदिनी निर्जरा थाय छे. केवी
रीते? शीघ्र
बतावे छे.’’ कोनो (प्रतिषेध)? आस्रवनो
(बाधा तरफ उपयोग नहि होवाथी) अथवा तेनुं संवेदन नहि होवाथी (कर्मोना
आगमनने आस्रवने रोकवारूप) जूनां कर्मनी निर्जरा साथे संवर पण थाय छे.
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आगमन (आस्रव) को रोक देनेवाली निर्जरा भी होती है
संवर होता है
नथी.’
तथा
वळी, श्री पूज्यपादस्वामीए
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संयोगपूर्वविभागसंभवात्
हैं
है
नथी.’
वत्स! सांभळ. खरेखर ते (निर्जरा) एकदेश (कर्मना) विश्लेषलक्षणवाळी
द्रव्यकर्म संबंधी होय छे, कारण के बे द्रव्योना संयोगपूर्वक (तेमनो) विभाग (छूटा पडवुं)
संभवे छे.
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कर्मपारतन्त्रव्यवहरणात्
समय द्रव्यकर्मका आत्माके साथ संयोगादि सम्बन्धोंमेंसे कौनसा सम्बन्ध हो सकता है ?
मतलब यह है कि किसी तरहका सम्बन्ध नहीं बन सकता
ही स्थित हो जाता है
(अ, इ, उ, ऋ, लृ) के बोलनेमें जितना काल लगता है, उतने काल तक वैसा (निर्बन्ध-
बन्ध रहित) रहना सम्भव है
सूक्ष्मद्रष्टिथी विचार कर; अर्थात् कोई रीते (संबंध) संभवतो नथी, एवो अर्थ छे.
केवी रीते होय? कारण के संबंध तो बे (द्रव्यो) वच्चे होय (एकमां न होय) आवी
(अवस्था) संसारी जीवने संभवती नथी, एम नहि (अर्थात् संभवे छे) एवुं वाच्य छे,
कारण के संसारना कांठाने प्राप्त थयेला अयोगीने, मुक्तात्मानी माफक पांच ह्नस्व
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अक्षर बोलनेमें जितना समय लगता है, उतने समय) तक कर्मपरतन्त्रताका व्यवहार होता
है, जैसा कि परमागम(गोम्मटसार-जीवकांड) में कहा गया है
है’’
बोलवामां जेटलो समय लागे त्यां सुधी) कर्म परतन्त्रतानो व्यवहार होय छे; तथा
परमागममां
ते गतयोग (अयोग) केवली छे.’
आठमा गुणस्थानेथी
७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृतिकरण, १०. सूक्ष्मसंपराय, ११. उपशान्तमोह,
१२. क्षीणमोह, १३. सयोगी केवली अने १४. अयोगी केवली.
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छे अने अबुद्धिपूर्वकना शुभ भावने लीधे तेमने घातिकर्मनो तथा अघातिनी शुभकर्मप्रकृतिनो
गुणस्थान अनुसार बंध थाय छे.
गुणस्थानने अंते थाय छे. आ प्रमाणे सिद्धयोगीनी दशा होय छे.
अंशे घातिकर्मनो बंध थतो नथी, परंतु त्यां अबुद्धिपूर्वक शुभभाव होवाथी तेटला अंशे
घातिकर्मनो तेमज सातावेदनीयादि शुभकर्मनो बंध थाय छे, परंतु असातावेदनीयादि
अशुभकर्मनो बंध थतो नथी.
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केवी रीते? जेम के ‘हुं छुं.’ केवो (हुं)? कर्ता एटले निर्माता (करनार). कोनो (कर्त्ता)
चटाईनो
भिन्न पदार्थो वच्चे होई शके, तेथी प्रकृति (कर्म) आत्माथी भिन्न पदार्थ छे एम कह्युं ).
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सहात्मनः स्यात् येन जायतेध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरेति परमार्थतः कथ्यते
होगा ? जिससे कि ‘‘अध्यात्मयोगसे कर्मोंकी शीघ्र निर्जरा हो जाती है’’ यह बात परमार्थसे
कही जावे
किसका ? इसलिए सिद्धयोगी कहो या गतयोगी अथवा अयोगी केवली कहो, उनमें कर्मोंकी
निर्जरा होती है, यह कहना व्यवहारनयसे ही है, परमार्थसे नहीं
द्रव्यकर्म साथे आत्मानो संयोगादि
होवाथी तेनो आत्मा साथे तादात्म्य संबंध छे, संयोग संबंध नथी.
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परस्परप्रदेशानुप्रवेशलक्षणः संश्लेषः स्यात्
प्रार्थनीयत्वात्
(आत्मा और कर्मरूप पुद्गल द्रव्योंमें) परस्पर एकके प्रदेशोंमें दूसरेके प्रदेशोंका मिल जाना
रूप बंध होगा ? क्योंकि बन्धाभाव तो बंधपूर्वक ही होगा
सुखका कारण होनेसे योगियोंके द्वारा प्रार्थनीय हुआ करता है ?
परंतु ते अवस्थामां कर्मादिनो जे जूनो संयोग संबंध छे, तेनो पण निर्जरा द्वारा अभाव
थाय छे.
आत्मा ज चिन्मात्र थई जाय छे, तो पछी आत्मानो द्रव्यकर्मो साथे संबंध ज केवी रीते
बने? उत्कृष्ट अद्वैत ध्यानावस्थामां नवा कर्मनो कोई पण प्रकारनो संबंध नथी, तो छूटवुं
कोनुं (निर्जरा कोनी)? तेथी सिद्धयोगी या गतयोगी अथवा अयोगकेवली ने कर्मोनी निर्जरा
कही छे ते पूर्वबद्ध कर्मोनी थाय छे, एम समजवुं. तेमने कर्मोनी निर्जरा थाय छे
आवे, तो केवी रीते एटले कया प्रकारना उपाय वडे, ते बंनेनो बंध
विश्लेष (वियोग) होय; अने तेनो प्रतिपक्षी एटले बन्धविरोधी मोक्ष जे संपूर्ण कर्मोना
विश्लेष (अभाव) लक्षणवाळो छे ते जीवने केवी रीते होई शके? कारण के अनंतसुखनुं
कारण होवाथी योगीओ द्वारा ते प्रार्थनीय छे.
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न चापि करणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्
ही बन्धका कारण है
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भिन्नास्
तेवुं)
‘माराथी शरीरादि भिन्न छे अने परमार्थे तेमनाथी हुं पण भिन्न छुं. हुं तेमनो कांई
पण नथी अने तेओ पण मारा कांईपण नथी,’