Page 127 of 146
PDF/HTML Page 141 of 160
single page version
नथी.’’ ४२.
Page 128 of 146
PDF/HTML Page 142 of 160
single page version
हठावी लीधेलुं होवाथी, आनंद प्राप्त करे छे (अनुभवे छे) अने ज्यां जे आनंद अनुभवे
छे ते त्यांथी बीजे ठेकाणे जतो नथी ए (वात) प्रसिद्ध छे (प्रतीतजन्य) छे; माटे विश्वास
कर के, ‘आत्मामां निवास करता योगीने अननुभूत (पूर्वे नहि अनुभवेलां) अपूर्व आनंदनो
अनुभव थतो होवाथी, तेने बीजे ठेकाणे वृत्तिनो अभाव होय छे अर्थात् अध्यात्म सिवाय
बीजे ठेकाणे प्रवृत्ति होती नथी.’
योगीने
निजात्मरसना अनुभव आगळ बाह्य पदार्थो तथा विषय भोगो बधा तेने नीरस तथा
दुःखदायी लागे छे. ४३.
वृत्त्यभावः स्यादिति
हटाकर आनन्दका अनुभव करने लग जाता है
अपूर्व आनन्दका अनुभव होते रहनेसे उसकी अध्यात्मके सिवाय दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं
होती
Page 129 of 146
PDF/HTML Page 143 of 160
single page version
अनुष्ठान (आचरण) करनाराओ करतां ते अतिरेकथी (अतिशयपणे) तेमनाथी (कर्मोथी)
मुक्त थाय छे.
Page 130 of 146
PDF/HTML Page 144 of 160
single page version
छे. तेथी योगीओने निर्विकल्प दशामां तेनाथी पण अतिशय निर्जरा थाय छे.
अपेक्षा भी कर्मोंसे ज्यादा छूटता है
Page 131 of 146
PDF/HTML Page 145 of 160
single page version
मानवाथी) दुःख ज थाय छे, कारण के दुःखना कारणोनी प्रवृत्ति तेना द्वारा (आरोपण
द्वारा) थाय छे तथा आत्मा आत्मा ज छे, कारण के ते कदी पण देहादिरूप थतो नथी.
(देहादिरूप ग्रहण करतो नथी). एम छे तेथी तेनाथी सुख थाय छे, कारण के दुःखना
कारणोनो ते अविषय छे. एम छे तेथी तीर्थंकरादि महापुरुषोए, तेना कारणे अर्थात्
आत्मार्थे उद्यम कर्यो
दुःखनुं कारण छे.
द्वारा उद्यम कर्यो छे. ४५.
है, तथा आत्मा अपना ही है, वह कभी देहादिकरूप नहीं बन सकता
Page 132 of 146
PDF/HTML Page 146 of 160
single page version
(
वह पुद्गल अपना सम्बन्ध नहीं छोड़ता है, अर्थात् भव-भवमें वह पुद्गलद्रव्य जीवके साथ
बँधा ही रहता है
Page 133 of 146
PDF/HTML Page 147 of 160
single page version
छे. तेमनी अनुकूल
पुद्गल मारुं नथी, माटे पुद्गलनुं कांई पण हुं करी शकुं नहि एवो निर्णय करी
आचार्य कहते हैं
Page 134 of 146
PDF/HTML Page 148 of 160
single page version
वाणी अगोचर तथा अन्यने न संभवी शके, तेवो परम आनंद उत्पन्न थाय छे.
परमोऽनन्यसम्भवी आनन्दः उत्पद्यते
Page 135 of 146
PDF/HTML Page 149 of 160
single page version
तरफ लक्ष रहेतुं नथी) तेथी तेने खेद थतो नथी अर्थात् ते संक्लेश पामतो नथी.
खिद्यते न संक्लेशं याति
आनन्द सहित योगी, बाहिरी दुःखोंके
Page 136 of 146
PDF/HTML Page 150 of 160
single page version
होवाथी खेदखिन्न थतो नथी.
संयोगोनुं कांईपण वेदन थतुं नथी. ४८.
ही अनुभवमें लाना चाहिये।
Page 137 of 146
PDF/HTML Page 151 of 160
single page version
ज वांच्छा करवी जोईए, तेनी ज अभिलाषा करवी जोईए, तेने ज जोवी जोईए अने
तेनो ज अनुभव करवो जोईए.
तेनो ज अनुभव करवो.
करे
चाहें एवं उसीका अनुभव करें
सुमते
Page 138 of 146
PDF/HTML Page 152 of 160
single page version
विस्तार है।
रखनेवाले शिष्योंके लिए आचार्योंने कहा है, वह सब इसीका विस्तार है
Page 139 of 146
PDF/HTML Page 153 of 160
single page version
छीए)
आवे तो बंने द्रव्योनी भिन्नता रहेती नथी अने अभिप्रायमां द्रव्योनो अभाव थाय छे.
एवी मान्यता ज्यां सुधी होय त्यां सुधी जीवने भेदज्ञानरूप परिणति थाय नहि.
मानापमानसमतां स्वमताद् वितन्य
Page 140 of 146
PDF/HTML Page 154 of 160
single page version
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः
विस्तार कर छोड़ दिया है आग्रह जिसने ऐसा होकर नगर अथवा वनमें विधिपूर्वक रहता
हुआ उपमा रहित मुक्तिरूपी लक्ष्मीको प्राप्त करता है
ग्रन्थको कहते हैं ‘इष्टोपदेश’
Page 141 of 146
PDF/HTML Page 155 of 160
single page version
बाह्य पदार्थोमां अभिनिवेश (विपरीत मान्यता) छोडी दईने, ग्रामादिमां वा वनमां निवास
करतो थको अर्थात् विधिपूर्वक रहेतो थको, (ते मोक्षलक्ष्मीने प्राप्त करे छे).
ज्ञानाद्याविर्भावयोग्यो जीवः मुक्तिश्रियमनंतज्ञानादिसम्पदं निरुपमामनौपम्यां प्राप्नोति
विधिपूर्वकं तिष्ठन्
प्रगट हो सकते हैं
निर्जन-वनमें विधि-पूर्वक ठहरते हुए छोड़ दिया है बाहरी पदार्थोंमें मैं और मेरेपनका आग्रह
अथवा हठाग्रह जिसने ऐसा वीतराग होता हुआ प्राणी अनुपम तथा अनन्त ज्ञानादि गुणोंको
और सम्पत्तिरूप मुक्ति-लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है
Page 142 of 146
PDF/HTML Page 156 of 160
single page version
भावे, जिससे क्षणभरमें वे राग-द्वेष शान्त हो जावेंगे
Page 143 of 146
PDF/HTML Page 157 of 160
single page version
चारित्रवाले जिन मुनिके अमृतमयी तथा जिनमें अनेक शास्त्रोंकी रचनाएँ समाई हुई हैं,
ऐसे उनके वचन जगतको तृप्ति व प्रसन्नता करनेवाले हैं
समान हता; ते पवित्र चारित्रवान जिन मुनिनां अमृतथी (अनेक) शास्त्रोना सारगर्भित
वचनो जगतने तृप्त (प्रसन्न) करे छे.’........२.
Page 144 of 146
PDF/HTML Page 158 of 160
single page version
Page 145 of 146
PDF/HTML Page 159 of 160
single page version