Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 43-51 ; Tika prashasti; PadyAnukramsoochi; AdhyAtmaatishaykshetra Songadh (Dist : Bhavnagar).

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १२७
समाधितंत्र श्लोक ३४मां* कह्युं छे केः
‘‘आत्मा अने देहना भेदविज्ञानथी उत्पन्न थयेला आह्लादथी (आनंदथी) जे
आनंदित छे, ते (योगी) तप द्वारा भयानक दुष्कर्मने भोगवतो होवा छतां खेद पामतो
नथी.’’ ४२.
अहीं, शिष्य कहे छेए केवी रीते? भगवन्! मने आश्चर्य थाय छे के एवी
अवस्थान्तर (विभिन्नविलक्षण अवस्था) केवी रीते संभवे?
गुरु कहे छेधीमन्! समज.
जे ज्यां वास करी रहे, त्यां तेनी रुचि थाय,
जे ज्यां रमण करी रहे, त्यांथी बीजे न जाय. ४३.
अन्वयार्थ :[यः ] जे [यत्र ] ज्यां [निवसन् आस्ते ] निवास करे छे, [सः ] ते
[तत्र ] त्यां [रतिं कुरुते ] रति करे छे अने [यः ] जे [यत्र ] ज्यां [रमते ] रमे छे, [सः ]
ते [तस्मात् ] त्यांथी बीजे [न गच्छति ] जतो नथी.
अत्राह शिष्यः कथमेतदिति भगवन् ! विस्मयो मे कथमेतदवस्थान्तरं संभवति
गुरुराहधीमन्निबोध
यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिं
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ।।४३।।
आचार्य कहते हैं, धीमन् ! सुनो समझो
जो जामें बसता रहे, सो तामें रुचि पाय
जो जामें रम जात है, सो ता तज नहिं जाय ।।४३।।
अर्थजो जहाँ निवास करने लग जाता है, वह वहाँ रमने लग जाता है और
जो जहाँ लग जाता है, वह वहाँसे फि र हटता नहीं है
* आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृत्तः
तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ।।
[समाधितन्त्रश्री पूज्यपादाचार्यः ]

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१२८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका :जे मनुष्य ज्यां एटले नगरादिमां स्वार्थ माटे अर्थात् कोई (प्रयोजननी)
सिद्धि अंगे (बंधु जनोना) आग्रहथी निवासी थईने रहे छे, ते त्यां अन्य तरफथी चित्त
हठावी लीधेलुं होवाथी, आनंद प्राप्त करे छे (अनुभवे छे) अने ज्यां जे आनंद अनुभवे
छे ते त्यांथी बीजे ठेकाणे जतो नथी ए (वात) प्रसिद्ध छे (प्रतीतजन्य) छे; माटे विश्वास
कर के, ‘आत्मामां निवास करता योगीने अननुभूत (पूर्वे नहि अनुभवेलां) अपूर्व आनंदनो
अनुभव थतो होवाथी, तेने बीजे ठेकाणे वृत्तिनो अभाव होय छे अर्थात् अध्यात्म सिवाय
बीजे ठेकाणे प्रवृत्ति होती नथी.’
भावार्थ :जे माणस जे शहेर, नगर के ग्राममां रहे छे, तेने ते स्थान प्रति
एटलो ममत्वभावरतिभाव थई जाय छे के तेने त्यां ज रहेवानुं गमे छे, त्यां ज आनंद
आवे छे; ते स्थान छोडी बीजे जवुं तेने रुचतुं नथी; तेवी रीते आत्मस्वरूपमां स्थित
योगीने
रमता योगीने आत्मामां एवो अपूर्व आनंद आवे छे के तेने आत्मामां ज
विहार करवानुं रुचे छे, बीजा पदार्थोमां विहरवानी वृत्ति थती नथी, कारण के
निजात्मरसना अनुभव आगळ बाह्य पदार्थो तथा विषय भोगो बधा तेने नीरस तथा
दुःखदायी लागे छे. ४३.
अन्यत्र न प्रवर्ततो होय त्यारे ते आवो होयः
टीकायो जनो यत्र नगरादौ स्वार्थे सिद्ध्यङ्गत्वेन बद्धनिर्बन्धवास्तव्ये भवन् तिष्ठति
स तस्मिन्नन्यस्मान्निवृत्तचित्ततत्त्वान्निवृतित्वं लभते यत्र यश्च तथा निर्वाति स ततोऽन्यत्र न
यातीति प्रसिद्धं सुप्रतीतमत प्रतीहि योगिनोऽध्यात्मं निवसतोऽननुभूतापूर्वानन्दानुभवादन्यत्र
वृत्त्यभावः स्यादिति
अन्यत्राप्रवर्त्तमानश्चेदृक् स्यात्
विशदार्थजो मनुष्य, जिस नगरादिकमें स्वार्थकी सिद्धिका कारण होनेसे
बन्धुजनोंके आग्रहसे निवासी बनकर रहने लग जाता है, वह उसमें अन्य तरफ से चित्त
हटाकर आनन्दका अनुभव करने लग जाता है
और जो जहाँ आनन्दका अनुभव करता
रहता है, वह वहाँसे दूसरी जगह नहीं जाता, यह सभी जानते हैं इसलिये समझो कि
आत्मामें अध्यात्ममें रहनेवाले योगी अननुभूत (जिसका पहिले कभी अनुभव नहीं हुआ) और
अपूर्व आनन्दका अनुभव होते रहनेसे उसकी अध्यात्मके सिवाय दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं
होती
।।४३।।
जब दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं करता तब क्या होता है ? उसे आगेके श्लोकमें
आचार्य कहते हैं

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १२९
विशेषोथी अज्ञात रही, निज रूपमां लीन थाय,
सर्व विकल्पातीत ते छूटे, नहि बंधाय. ४४
अन्वयार्थ :[अगच्छन् ] (बीजे ठेकाणे) नहि जतो (अन्यत्र प्रवृत्ति नहि करतो
योगी) [तद्विशेषाणाम ] तेना विशेषोनो (अर्थात् देहादिना विशेषोनो सौन्दर्य, असौन्दर्यादि
धर्मोनो) [अनभिज्ञः च जायते ] अनभिज्ञ रहे छे (तेनाथी अजाण रहे छे) अने
[अज्ञाततद्विशेषः ] (सौन्दर्यअसौन्दर्यादि) विशेषोनो अजाण होवाथी [न बध्यते ] ते बंधातो
नथी, [तु विमुच्यते ] परंतु विमुक्त थाय छे.
टीका :स्वात्मतत्त्वमां स्थिर थयेलो योगी, ज्यारे बीजे ठेकाणे जतो नथी
प्रवृत्ति करतो नथी, त्यारे ते स्वात्माथी भिन्न शरीरादिना विशेषोथी अर्थात् सौन्दर्य
असौन्दर्यादि धर्मोनो अनभिज्ञ (अजाण) रहे छे. अर्थात् ते जाणवाने अभिमुख (उत्सुक)
थतो नथी अने ते विशेषोथी ते अज्ञात होवाथी तेमां तेने रागद्वेष उत्पन्न थता नथी;
तेथी ते कर्मोथी बंधातो नथी. त्यारे शुं थाय छे? विशेष करीने (खास करीने) व्रतादिनुं
अनुष्ठान (आचरण) करनाराओ करतां ते अतिरेकथी (अतिशयपणे) तेमनाथी (कर्मोथी)
मुक्त थाय छे.
भावार्थ :आत्मस्वरूपमां स्थिर योगीने आत्मा सिवाय शरीरादि बाह्य पदार्थोमां
वस्तु विशेष विकल्प को, नहिं करता मतिमान
स्वात्मनिष्ठता से छुटत, नहिं बँधता गुणवान ।।४४।।
अर्थअध्यात्मसे दूसरी जगह प्रवृत्ति न करता हुआ योगी, शरीरादिककी सुन्दरता
असुन्दरता आदि धर्मोंकी ओर विचार नहीं करता और जब उनके विशेषोंको नहीं
जानता, तब वह बन्धको प्राप्त नहीं होता, किन्तु विशेष रूपसे छूट जाता है
विशदार्थस्वात्मतत्त्वमें स्थिर हुआ योगी जब अध्यात्मसे भिन्न दूसरी जगह प्रवृत्ति
नहीं करता, तब उस स्वात्मासे भिन्न शरीरादिके सौन्दर्यअसौन्दर्य आदि विशेषोंसे अनभिज्ञ
हो जाता है और जब उनकी विशेषताओं पर ख्याल नहीं करता, तब उनमें राग-द्वेष
अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते
अज्ञाततद्विशेषस्तु बध्यते न विमुच्यते ।।४४।।
टीकास्वात्मतत्त्वनिष्ठोऽन्यत्र अगच्छन्नप्रवर्तमानस्तस्य स्वात्मनोऽन्यस्य देहादेः
विशेषाणां सौन्दर्यासौन्दर्यादिधर्माणामनभिज्ञ आभिमुख्येनाप्रतिपत्तश्च भवति अज्ञाततद्विशेषः

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१३० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
प्रवृत्ति होती नथी. तेथी तेने ते पदार्थोमां इष्टअनिष्टनी कल्पनानो अभाव होवाथी तेने
रागद्वेष उत्पन्न थता नथी अने बंधना कारणरूप रागद्वेषना अभावमां ते कर्मोथी बंधातो
नथी, परंतु तेने अनेकगणी निर्जरा थाय छे.
ज्ञानीने व्रतादिना आचरणनो विकल्प ए शुभ राग छे, तेनाथी तो तेने आस्रवबंध
ज थाय; परंतु ते काळे जे तेनी साथे तेने शुद्ध परिणति छे, ते ज निर्जरानुं वास्तविक कारण
छे. तेथी योगीओने निर्विकल्प दशामां तेनाथी पण अतिशय निर्जरा थाय छे.
वळी,
पर तो पर छे दुःखरूप, आत्माथी सुख थाय,
महा पुरुषो उद्यम करे, आत्मार्थे मन लाय. ४५.
अन्वयार्थ :[परः परः ] पर ते पर छे, [ततः दुःखं ] तेनाथी दुःख थाय छे.
अने [आत्मा आत्मा एव ] आत्मा ते आत्मा ज छे, [ततः सुखम् ] तेनाथी सुख थाय छे;
[अतः एव ] तेथी ज [महात्मानः ] महात्माओए [तन्निमितं ] तेना निमित्ते (सुखार्थे)
[कृतोद्यमाः ] उद्यम कर्यो छे.
पैदा न होनेके कारण कर्मोंसे बँधता नहीं है, किन्तु व्रतादिकका आचरण करनेवालोंकी
अपेक्षा भी कर्मोंसे ज्यादा छूटता है
।।४४।।
और भी कहते हैं
पर पर तातें दुःख हो, निज निज ही सुखदाय
महापुरुष उद्यम किया, निज हितार्थ मन लाय ।।४५।।
अर्थदूसरा दूसरा ही है, इसलिए उससे दुःख होता है, और आत्मा आत्मा ही है,
इसलिये उससे सुख होता है इसीलिए महात्माओंने आत्माके लिए उद्यम किया है
पुनस्तत्राजायमानरागद्वेषत्वात्कर्मभिर्न बध्यते किं तर्हि ? विशेषेण व्रताद्यनुष्ठातृभ्योऽतिरेकेण
तैर्मुच्यते
किं च
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्
अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ।।४५।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३१
टीका :पर एटले देहादिक पदार्थ पर ज छे, कारण के तेने कोई रीते पण
पोतानो करवो अशक्य छे. एम छे तेथी तेनो आत्मामां आरोप करवाथी (तेने आत्मा
मानवाथी) दुःख ज थाय छे, कारण के दुःखना कारणोनी प्रवृत्ति तेना द्वारा (आरोपण
द्वारा) थाय छे तथा आत्मा आत्मा ज छे, कारण के ते कदी पण देहादिरूप थतो नथी.
(देहादिरूप ग्रहण करतो नथी). एम छे तेथी तेनाथी सुख थाय छे, कारण के दुःखना
कारणोनो ते अविषय छे. एम छे तेथी तीर्थंकरादि महापुरुषोए, तेना कारणे अर्थात्
आत्मार्थे उद्यम कर्यो
अर्थात् शास्त्र विहित तपोना अनुष्ठानमां (आचरणमां) अभियोगी
(कृत प्रयत्न) बन्या.
भावार्थ :शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्रादि आत्माथी भिन्न पर पदार्थो छे. तेओ कदी
आत्मारूप थतां नथी छतां अज्ञानी तेमां आत्मबुद्धि करी तेमना संयोगवियोगमां सुख
दुःखनी कल्पना करी दुःखी थाय छे. ‘‘संयोगानां वियोगो हि भविता हि नियोगतः’’ । संयोगी
पदार्थोनो नियमथी वियोग थाय छे; तेथी संयोगी शरीरादि पर पदार्थो तरफनो अनुराग
दुःखनुं कारण छे.
आत्मा आत्मा ज छे. ते कदी देहादिरूप थतो नथी, तेथी ते दुःखनुं कारण नथी
पण सुखरूप छे. माटे तीर्थंकरादि महापुरुषोए, आत्मस्वरूपमां स्थिर थवा माटे निश्चय तप
द्वारा उद्यम कर्यो छे. ४५.
टीकापरो देहादिरर्थः पर एव कथंचिदपि तस्यात्मीकर्त्तुमशक्यत्वात् यतश्चैवं
ततस्तस्मादात्मन्यारोप्यमाणाद्दुःखमेव स्यात्तद्द्वारत्वाद् दुःखनिमित्तानां प्रवृत्तेः तथा आत्मा
आत्मैव स्यात् तस्य कदाचिदपि देहादिरूपत्वानुपादानात् यतश्चैवं ततस्तस्मात्सुखं
स्याद्दुःखनिमित्तानां तस्याविषयत्वात् यतश्चैवं, अतएव महात्मानस्तीर्थंकरादयस्तस्मिन्निमित्त-
मात्मार्थं कृतोद्यमा विहिततपोनुष्ठानाभियोगाः संजाताः
विशदार्थपर देहादिक अर्थ, पर ही है किसी तरहसे भी उन्हें आत्मा या
आत्माके सदृश नहीं बनाया जा सकता जब कि ऐसा है तब उनसे (आत्मा या आत्माके
मान लेनेसे) दुःख ही होगा। कारण कि दुःखोंके कारणोंकी प्रवृत्ति उन्हींके द्वारा हुआ करती
है, तथा आत्मा अपना ही है, वह कभी देहादिकरूप नहीं बन सकता
जब कि ऐसा है,
तब उससे सुख ही होगा कारण कि दुःखके कारणोंको वह अपनाता ही नहीं है इसी
लिए तीर्थंकर आदिक बड़ेबड़े पुरुषोंने आत्माके स्वरूपमें स्थिर होनेके लिए अनेक प्रकारके
तपोंके अनुष्ठान करनेमें निद्राआलस्यादि रहित अप्रमत्त हो उद्यम किया है ।।४५।।

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१३२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
हवे, परद्रव्योना अनुरागमां दोष बतावे छेः
अभिनंदे अज्ञानी जे, पुद्गलने निज जाण,
चौगतिमां निज संगने, तजे न पुद्गल, मान. ४६.
अन्वयार्थ :[यः अविद्वान् ] जे (हेयउपादेय तत्त्वोने नहि जाणनार)
[पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गल द्रव्यने (शरीरादिकने) [अभिनन्दति ] अभिनंदे छेश्रद्धे छे (अर्थात् तेने
पोतानुं स्वरूप माने छे). [तस्य जन्तोः ] ते बिचारा जीवनी साथेना [सामीप्यं ] संयोग-
संबंधने [तत् ] ते (पुद्गल) [चतुर्गतिषु ] नरकादि चार गतिओमां [जातु न मुञ्चति ] कदाचित्
पण छोडतो नथी.
टीका :वळी जे अविद्वान् छे अर्थात् हेयउपादेय तत्त्वोनो अनभिज्ञ छे ते
पुद्गलद्रव्यने एटले देहादिकने अभिनंदे छेश्रद्धे छे अर्थात् तेने आत्मभावे अने
आत्मीयभावे (अर्थात् आत्मरूप अने आत्मानुं) माने छे; ते बिचारा जीवनुं समीपपणुं
(
प्रत्यासन्नपणुंनिकटता संयोगसंबंध) ते पुद्गलद्रव्य नरकादि चार गतिओमां कदाचित्
पण छोडतुं नथी.
अथ परद्रव्यानुरागे दोपं च दर्शयति
अविद्वान्पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत्
न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुञ्चति ।।४६।।
टीकायः पुनरविद्वान् हेयोपादेयतत्त्वानभिज्ञः पुद्गलद्रव्यं देहादिकमभिनन्दति श्रद्धत्ते
आत्मात्मीयभावेन प्रतिपद्यते तस्य जन्तोर्जीवस्य तत्पुद्गलद्रव्यं चतसृषु नारकादिगतिषु सामीप्यं
परद्रव्योंमें अनुराग करनेसे होनेवाले दोषको दिखाते हैं
पुद्गलको निज जानकर, अज्ञानी रमजाय
चहुँगतिमें ता संगको, पुद्गल नहीं तजाय ।।४६।।
अर्थजो हेयोपादेयके स्वरूपको न समझनेवाला, शरीरादिक पुद्गल द्रव्यको आप
(आत्म)रूप तथा अपनेको (आत्माके) मानता है, उस जीवके साथ नरकादिक चार गतियोंमें
वह पुद्गल अपना सम्बन्ध नहीं छोड़ता है, अर्थात् भव-भवमें वह पुद्गलद्रव्य जीवके साथ
बँधा ही रहता है
उससे पिंड नहीं छूट पाता ।।४६।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३३
भावार्थ :अज्ञानी जीव शरीरादिक पुद्गलने आत्मस्वरूप अने आत्मानुं माने छे,
तेथी पुद्गलद्रव्य चारे गतिओमां आत्मा साथेनो संबंध छोडतुं नथी. ते साथे ने साथे
ज रहे छे.
शरीरादिक पुद्गल द्रव्य अचेतन छे. ते आत्माथी सर्वथा भिन्न छे. तेनी साथेनी
एकता सर्वथा हेय छे, परंतु अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीवने हेयउपादेयनो विवेक नहि
होवाथी ते आत्माथी भिन्न पदार्थोमां आत्मबुद्धि करे छे, अर्थात् तेमने आत्मस्वरूप माने
छे. तेमनी अनुकूल
प्रतिकूलरूप परिणति जोई ते रागद्वेष करे छे अने रागद्वेषजनित
आस्रवबंधथी तेने नरकादि चतुर्गतिरूप संसारमां परिभ्रमण थाय छे. ए रीते जीव
साथेनो पुद्गलसंबंध चालु रहे छे. ते कदी छूटतो नथी. समाधितंत्र श्लोक १५मां कह्युं
छे के
‘मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मघीस्ततः’
देहमां ज आत्मबुद्धि करवी ते संसारना दुःखनुं कारण छे. ४६
पुद्गल मारुं नथी, माटे पुद्गलनुं कांई पण हुं करी शकुं नहि एवो निर्णय करी
आत्मसन्मुख थवुं, जेथी पुद्गल साथेनो संबंध छूटी जाय.
जीवनी साथे रहेवुं के न रहेवुंएवुं पुद्गलने तो कांई ज्ञान नथी, परंतु जीवना
विकारने अने तेने (पौद्गलिक कर्मने) निमित्तनैमित्तिक संबंध छे, तेथी ज्यां सुधी जीव
विकार करे त्यां सुधी आ संबंध छूटे नहि.
हवे शिष्य कहे छेस्वरूपमां तत्पर रहेनारने शुं (फळ) प्राप्त थाय छे?
गुरु कहे छेः
प्रत्यासत्तिं संयोगसम्बन्धं जातु कदाचिदपि न त्यजति
अथाह शिष्यःस्वरूपपरस्य किं भवतीति सुगमम्
गुरुराह
आत्मस्वरूपमें तत्पर रहनेवालेको क्या होता है ?
आचार्य कहते हैं

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१३४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
विरमी पर व्यवहारथी, जे आतमरस लीन,
पामे योगीश्री अहो! परमानंद नवीन. ४७.
अन्वयार्थ :[आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य ] आत्मस्वरूपमां स्थित थयेला (लीन थयेला)
[व्यवहारबहिःस्थितेः ] तथा व्यवहारथी दूर (बहार) रहेला [योगिनः ] योगीने [योगेन ] योगथी
(आत्मध्यानथी) [कश्चित् परमानन्दः ] कोई अनिर्वचनीय परम आनंद [जायते ] उत्पन्न थाय
छे.
टीका :आत्मानुं अनुष्ठान एटले देहादिथी हठीने पोताना आत्मामां ज
अवस्थापन (नक्की स्थित रहेवुं ते)तेमां तत्पर रहेला तथा प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारथी
बहार (दूर) रहेला ध्यान करनार योगीने, योगथी एटले पोताना आत्माना ध्यानथी कोईक
वाणी अगोचर तथा अन्यने न संभवी शके, तेवो परम आनंद उत्पन्न थाय छे.
भावार्थ :शारीरिक बाह्य पदार्थो तरफनुं वलण (झुकाव) हठावी तथा प्रवृत्ति
निवृत्तिरूप व्यवहारथी दूर रही, ज्यारे योगी स्वस्वरूपमां लीन थाय छे. त्यारे
आत्मध्यानथी तेने कोई अनिर्वचनीय परम आनंद आवे छे.
श्री देवसेनाचार्य ‘तत्त्वसारश्लोक* पृ. ५८मां कह्युं छे केः
* उभयविंणट्ठें णिय उवलद्धे सुसुद्ध ससरूवे
बिलसइ परमाणंदो जोईणं जोयसत्तीए ।।५८।।
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः
जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ।।४७।।
टीकाआत्मनोऽनुष्ठानं देहादेर्व्यावर्त्य स्वात्मन्येवावस्थापनं तत्परस्य व्यवहारात्प्रवृत्ति-
निवृत्तिलक्षणाद्बहिःस्थितेः बाह्यस्य योगिनो ध्यातुर्योगेन स्वात्मध्यानेन हेतुना कश्चिद् वाचागोचरः
परमोऽनन्यसम्भवी आनन्दः उत्पद्यते
ग्रहण त्यागसे शून्य जो, निज आतम लवलीन
योगीको हो ध्यानसे, कोइ परमानन्द नवीन ।।४७।।
अर्थदेहादिकसे हटकर अपने आत्मामें स्थित रहनेवाले तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति-
लक्षणवालेव्यवहारसे बाहिर दूर रहनेवाले, ध्यानीयोगी पुरुषको आत्म-ध्यान करनेसे कोई
एक वचनोंके अगोचर परम जो दूसरोंको नहीं हो सकता, ऐसा आनन्द उत्पन्न होता है ।।४७।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३५
‘राग-द्वेषरूप उभय भाव (परिणाम) विनष्ट थतां योगशक्ति द्वारा पोताना विशुद्ध
स्वरूपनी प्राप्ति थतां, योगीने योगशक्ति द्वारा परम आनंदनी प्राप्ति थाय छे.’
वास्तवमां रागद्वेषनो अभाव ते ज परम आनंदनी प्राप्तिनुं मूळ कारण छे. ४७.
तेनुं (आनंदनुं) कार्य कहे छेः
करतो अति आनंदथी, कर्मकाष्ठ प्रक्षीण,
बाह्य दुःखोमां जड समो, योगी खेद विहीन. ४८.
अन्वयार्थ :[सः आनन्दः ] ते आनंद (आत्मामां उत्पन्न थयेलो आनंद) [उद्धं
कर्मेन्धनं ] प्रचुर कर्मरूपी इन्धनने [अनारतं ] निरंतर [निर्दहति ] जलावी दे छे अने [असौ
योगी च ] ते (आनंदमग्न) योगी [बहिर्दुःखेषु ] बहारनां दुःखोमां [अचेतनः ] अचेतन
रहेवाथी (बहारनां दुःखोथी अज्ञात होवाथी) [न खिद्यते ] खेद पामतो नथी.
टीका :वळी, ते आनंद प्रचुर कर्मसंततिने बाळी नाखे छे; जेम अग्नि इन्धनने
बाळे छे तेम, अने ते आनंदमग्न योगी, बहारनां दुःखोमां अर्थात् परीषहउपसर्ग
संबंधी क्लेशोमां अचेतन एटले संवेदन विनानो थई जाय छे, (दुःखना निमित्तरूप पदार्थो
तरफ लक्ष रहेतुं नथी) तेथी तेने खेद थतो नथी अर्थात् ते संक्लेश पामतो नथी.
तत्कार्यमुच्यते
आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम्
न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दुःखेष्वचेतनः ।।४८।।
टीकास पुनरानन्द उद्धं प्रभूतं कर्मसन्ततिं निर्दहति वह्निरिंधनं यथा किं च
असावानन्दाविष्टो योगी बहिर्दुःखेषु परीषहोपसर्गक्लेशेषु अचेतनोऽसंवेदनः स्यात्तत एव न
खिद्यते न संक्लेशं याति
उस आनन्दके कार्यको बताते हैं
निजानंद नित दहत है, कर्मकाष्ठ अधिकाय
बाह्य दुःख नहिं वेदता, योगी खेद न पाय ।।४८।।
अर्थजैसे अग्नि, ईन्धनको जला डालता है, उसी तरह आत्मामें पैदा हुआ
परमानन्द, हमेशासे चले आए प्रचुर कर्मोंको अर्थात् कर्म-सन्ततिको जला डालता है, और
आनन्द सहित योगी, बाहिरी दुःखोंके
परीषह उपसर्ग सम्बन्धी क्लेशोंके अनुभवसे रहित
हो जाता है जिससे खेदके (संक्लेशको) प्राप्त नहीं होता ।।४८।।

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१३६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भावार्थ :जेम अग्नि इन्धनने बाळी नाखे छे तेम आत्मामां उत्पन्न थयेलो
परमानंद, कर्मसंततिने (कर्मना समूहने) भस्म करी दे छे, आनंदमग्न योगी परीषह
उपसर्गादिनां बाह्य दुःखोमां अचेतन रहेवाथी अर्थात् तेने ते दुःखोनुं अनुभवन नहि
होवाथी खेदखिन्न थतो नथी.
योगीने आत्मानी एकाग्रताथीध्यानथीप्रचुर (घणां) कर्मोनी निर्जरा थाय छे अने
ध्यानावस्थामां परमानंदनो एवो वचन अगोचर स्वाद आवे छे के तेने ते स्वादमां बाह्य
संयोगोनुं कांईपण वेदन थतुं नथी. ४८.
एम छे तेथी.
ज्ञानमयी ज्योतिर्महा, विभ्रम नाशक जेह,
पूछे, चाहे, अनुभवे, आत्मार्थी जन तेह. ४९.
अन्वयार्थ :[अविद्याभिदुरं ] अविद्याने दूर करवावाळी [महत् परं ] महान् उत्कृष्ट
[ज्ञानमयं ज्योतिः ] ज्ञानमय ज्योति छे; [मुमुक्षुभिः ] मुमुक्षुओए [तत् प्रष्टव्यं ] तेना विषयमां
पूछवुं जोईए, [तत् एष्टव्यं ] तेनी वांच्छा करवी जोईए अने [तद् द्रष्टव्यम् ] तेनो अनुभव
करवो जोईए.
टीका :ते आनंदस्वभावी, ज्ञानमयी, स्वार्थने प्रकाशवावाळी, महान् उत्कृष्ट
यस्मादेवं तस्मात्
अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत्
तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ।।४९।।
टीकातदानन्दस्वभावं ज्ञानमयं स्वार्थावभासात्मकं परमुत्कृष्टमविद्याभिदुरं विभ्रमच्छेदकं
पूज्य अविद्या-दूर यह, ज्योति ज्ञानमय सार
मोक्षार्थी पूछो चहो, अनुभव करो विचार ।।४९।।
अर्थअविद्याको दूर करनेवाली महान् उत्कृष्ट ज्ञानमयी ज्योति है। सो मुमुक्षुओं
(मोक्षाभिलाषियों)को उसीके विषयमें पूछना चाहिये, उसीकी वांछा करनी चाहिये और उसे
ही अनुभवमें लाना चाहिये।
विशब्दार्थवह आनन्द स्वभावशाली, महान उत्कृष्ट, विभ्रमको नष्ट करनेवाली,

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३७
अविद्याने दूर करवावाळी, विभ्रमनो नाश करवावाळी, महाविपुल, इन्द्रादिने पूजनीयएवी
ज्योति छे. मुमुक्षुओए ते विषयमां गुरु आदि पासेथी पूछताछ करी लेवी जोईए, तेनी
ज वांच्छा करवी जोईए, तेनी ज अभिलाषा करवी जोईए, तेने ज जोवी जोईए अने
तेनो ज अनुभव करवो जोईए.
भावार्थ :ज्ञानमय ज्योति अज्ञानविनाशक छे, स्वपर प्रकाशक छे, उत्कृष्ट छे
अने इन्द्रोनेपण पूज्य छे. माटे मोक्षना अभिलाषी जीवोए प्रतिसमय तेनो ज विचार
करवो, ते संबंधी ज गुरु वगेरेने पूछताछ करवी, निरंतर तेनी ज अभिलाषा करवी अने
तेनो ज अनुभव करवो.
समाधितंत्र श्लोक ५३मां कह्युं छे केः
‘योगीए आत्मज्योतिनी ज वात करवी बीजाओने ते संबंधी ज पूछवुं, तेनी ज
इच्छा करवी अने तेमां ज लीन थवुं, जेथी ते अविद्यानो त्याग करी ज्ञानमय स्वभाव प्राप्त
करे
*’. ४९
आ रीते समजावीनेविस्तारथी समजावीने, आचार्य हवे कहेला अर्थतत्त्वने परम
करुणाथी संक्षेपमां कही शिष्यना मनमां ठसाववानी इच्छाथी कहे छे
बहु कहेवाथी शुं? हे सुमतेसारी बुद्धिवाळा! बहु बोलवाथी शुं? कारण के हेय
महत् विपुलं इन्द्रादीनां पूज्यं वा ज्योतिः प्रष्टव्यं मुमुक्षुभिर्गुर्वादिभ्योऽनुयोक्तव्यम् तथा तदेव
एष्टव्यं अभिलषणीयं तदेव च द्रष्टव्यमनुभवनीयम्
एवं व्युत्पाद्य विस्तरतो व्युत्पाद्य उक्तार्थतत्त्वं परमकरुणया संगृह्य तन्मनसि
संस्थापयितुकामः सूरिरिदमाह
किं बहुनेति ? हे सुमते ! किं कार्यं बहुनोक्तेन हेयोपादेयतत्त्वयोः संक्षेपेणापि प्राज्ञचेतसि
स्वार्थको प्रकाशन करनेवाली, अथवा इन्द्रादिकोंके द्वारा पूज्य ऐसी ज्योति है मोक्षकी इच्छा
रखनेवालोंको चाहिये कि वे गुरु आदिकोंसे उसीके विषयमें पूछ-ताछ करें तथा उसीको
चाहें एवं उसीका अनुभव करें
।।४९।।
इस प्रकार शिष्यको विस्तारके साथ समझाकर आचार्य अब परम करुणासे उस
कहे हुए अर्थस्वरूपको संक्षेपके साथ शिष्यके मनमें बैठानेकी इच्छासे कहते हैं कि ‘‘हे
सुमते
अच्छी बुद्धिवाले ! बहुत कहनेसे क्या ? हेय-उपादेय तत्त्वोंको संक्षेपमें भी बुद्धिमानोंके
हृदयोंमें उतारा जा सकता है उन्हें साररूपमें बतलाया जा सकता है ’’
* तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ।।५३।।

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१३८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
उपादेय तत्त्वोने संक्षेपमां पण बुद्धिमानना हृदयमां उतारवा शक्य छेएवो भाव छे.
जीवपुद्गल बे भिन्न छे, ए ज तत्त्वनो सार,
अन्य कांई व्याख्यान जे, ते तेनो विस्तार. ५०
अन्वयार्थ :[जीवः अन्यः ] जीव भिन्न छे अने [पुद्गलः च अन्यः ] पुद्गल
भिन्न छे; [इति असौ तत्त्वसंग्रहः ] आटलो ज तत्त्व कथननो सार छे. [यत् अन्यत् किंचित्
उच्यते ] (एना सिवाय) बीजुं जे कंई कहेवाय छे, [स तस्य एव विस्तरः अस्तु ] ते एनो
ज विस्तार छे.
टीका :जीव, शरीरादिथी भिन्न छे अने शरीरादि जीवथी भिन्न छे, आटलुं
ज विधान करवुं (कथन करवुं) ते आत्मतत्त्वनो भूतार्थसत्यार्थनो संग्रह छे अर्थात्
संपूर्णपणे (तेनुं) ग्रहणनिर्णय छे. आ तत्त्वसंग्रहथी अतिरिक्त (एना सिवाय) जे कंई
भेदप्रभेदादि छे ते आचार्ये जे कह्युं छे तेनो ज विस्तार रुचिवाळा शिष्यनी अपेक्षाए
निवेशयितुं शक्यत्वादितिभावः
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः
यदन्यदुच्यते किंचित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ।।५०।।
टीकाजीवो देहादेर्भिन्नो देहादिश्च जीवाद्भिन्न इतीयानेव असौ विधीयते आत्मनस्तत्त्वस्य
भूतार्थस्य संग्रहः सामस्त्येन ग्रहणं निर्णयः स्यात् यत्पुनरितस्तत्त्वसंग्रहादन्यदतिरिक्त
किंचिद्भेदप्रभेदादिकं विस्तररुचिशिष्यापेक्षयाचार्यैरुच्यते स तस्यैव विस्तरो ब्यासोऽस्तु तमपि
जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्वका सार
अन्य कछू व्याख्यान जो, याहीका विसतार ।।५०।।
अर्थजीव जुदा है, पुद्गल जुदा है,’ बस इतना ही तत्त्वके कथनका सार है,
इसीमें सब कुछ आ गया। इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह सब इसीका
विस्तार है।
विशब्दार्थजीव’ शरीरादिकसे भिन्न है, ‘शरीरादिक’ जीवसे भिन्न है’ बस
इतना ही कहना है कि सत्यार्थ आत्मरूप तत्त्वका सम्पूर्णरूपसे ग्रहण (निर्णय) हो जाय
और जो कुछ इस तत्त्व-संग्रहके सिवाय भेद-प्रभेद आदिक विस्तारमें सुननेकी रुचि-इच्छा
रखनेवाले शिष्योंके लिए आचार्योंने कहा है, वह सब इसीका विस्तार है
इसी एक बातको

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३९
विस्तार छे. अमे तेने पण अभिनंदीए छीए (तेने पण अमे श्रद्धानी द्रष्टिए आवकारीए
छीए)
एवो भाव छे.
भावार्थ :जीव अने पुद्गल एकबीजाथी भिन्न छे; तेथी जीव, पुद्गलनुं अने
पुद्गल जीवनुं कांई कार्य करी शके नहि, छतां तेओ एकबीजानुं कार्य करे छे एम मानवामां
आवे तो बंने द्रव्योनी भिन्नता रहेती नथी अने अभिप्रायमां द्रव्योनो अभाव थाय छे.
एवी मान्यता ज्यां सुधी होय त्यां सुधी जीवने भेदज्ञानरूप परिणति थाय नहि.
आत्मसन्मुख थई भेदज्ञान द्वारा आत्मतत्त्वनो निर्णय करवो ए तत्त्वकथननो सार
छे. विस्तार रुचिवाळा शिष्योने लक्षमां राखी आचार्ये जे भेदप्रभेदथी कथन कर्युं छे ए
बधो तेनो (ते तत्त्वसंग्रहनो) ज विस्तार छे. टीकाकार तेने अभिनंदे छेसहर्ष स्वीकारे
छे. (५०).
आचार्य, शास्त्रना अध्ययननुं साक्षात् तथा परंपराए प्राप्त थता फळनुं प्रतिपादन
करे छेः
(वसंततिलका)
इष्टोपदेश मतिमान भणी सुरीते,
मानापमान तु सहे निज साम्यभावे,
वयमभिनन्दाम इति भावः ।।
आचार्यः शास्त्राध्ययनस्य साक्षात्पारम्पर्येण च फलं प्रतिपादयति :
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्,
मानापमानसमतां स्वमताद् वितन्य
जीव जुदा है और पुद्गल जुदा है’ समझानेके लिए ही कहा गया है जो विस्तार किया
है उसको भी हम श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते हैं ।।५०।।
आचार्य शास्त्रके अध्ययन करनेका साक्षात् अथवा परम्परासे होनेवाले फलको
बतलाते हैं
इष्टरूप उपदेशको, पढ़े सुबुद्धि भव्य
मान अमानमें साम्यता, निज मनसे कर्तव्य ।।

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१४० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
छोडी मताग्रह वसे स्वजने वने वा,
मुक्तिवधू निरुपमा ज सुभव्य पामे. ५१.
अन्वयार्थ :[इति ] एवी रीते [इष्टोपदेशं सम्यक् अधीत्य ] ‘इष्टोपदेश’नो सारी
रीते अभ्यास करीने [धीमान् भव्यः ] बुद्धिशाळी भव्य [स्वमतात् ] पोताना आत्मज्ञानथी
[मानापमानसमतां ] मानअपमानमां समता [वितन्य ] विस्तारी [मुक्ताग्रहः ] आग्रह छोडी,
[सजने वने वा ] नगरमां के वनमां [निवसन् ] निवास करतो थको [निरुपमां मुक्तिश्रियम् ]
उपमारहित मुक्तिरूपी लक्ष्मीने [उपयाति ] प्राप्त करे छे.
टीका :इति ए प्रकारे ‘इष्टोपदेश’अर्थात् इष्ट एटले सुख तेनुं कारण मोक्ष
अने तेना उपायरूप स्वात्मानुं ध्यानतेनो जेमां वा जे वडे यथावत् उपदेश करवामां आव्यो
छेतेनुं प्रतिपादन करवामां आव्युं ते ‘इष्टोपदेश’ नामनो ग्रन्थ छे.
तेनो सम्यक् प्रकारे एटले व्यवहारनिश्चयद्वारा अभ्यास करीनेपठन करीनेचिंतन
करीने, धीमान् एटले हितअहितनी परीक्षा करवामां निपुणएवो भव्य अर्थात् अनंत
ज्ञानादि प्रगट करी शके तेवी योग्यतावाळो जीव, उपमारहित, अर्थात् अनुपम अनंत
मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने वने वा,
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः
।।५१।।
टीकाइत्यनेन प्रकारेण इष्टोपदेशं, इष्टं सुखं तत्कारणत्वान्मोक्षस्तदुपायत्वाच्च
स्वात्मध्यानं उपदिश्यते यथावत्प्रतिपाद्यते अनेनास्मिन्निति वा इष्टोपदेशो नाम ग्रन्थस्तं सम्यग्
आग्रह छोड़ स्वग्राममें, वा वनमें सु वसेय
उपमा रहित स्वमोक्षश्री, निजकर सहजहि लेय ।।५१।।
अर्थइस प्रकार ‘इष्टोपदेश’को भली प्रकार पढ़कर-मनन कर हित-अहितकी
परीक्षा करनेमें दक्ष-निपुण होता हुआ भव्य अपने आत्म-ज्ञानसे मान और अपमानमें समताका
विस्तार कर छोड़ दिया है आग्रह जिसने ऐसा होकर नगर अथवा वनमें विधिपूर्वक रहता
हुआ उपमा रहित मुक्तिरूपी लक्ष्मीको प्राप्त करता है
विशब्दार्थइष्ट कहते हैं सुखको-मोक्षको और उसके कारणभूत स्वात्मध्यानको
इस इष्टका उपदेश यथावत् प्रतिपादन किया है जिसके द्वारा या जिसमें, इसलिए इस
ग्रन्थको कहते हैं ‘इष्टोपदेश’
इसका भली प्रकार व्यवहार और निश्चयसे पठन एवं चिन्तन

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १४१
ज्ञानादि संपदारूप मुक्ति लक्ष्मीने प्राप्त करे छे. शुं करीने? आग्रह छोडी दईने अर्थात्
बाह्य पदार्थोमां अभिनिवेश (विपरीत मान्यता) छोडी दईने, ग्रामादिमां वा वनमां निवास
करतो थको अर्थात् विधिपूर्वक रहेतो थको, (ते मोक्षलक्ष्मीने प्राप्त करे छे).
शुं करीने? विशेषपणे विस्तारीनेफेलावीने शुं (विस्तारी)? मानमां एटले महत्ता
प्राप्तिमां अने अपमानमां एटले महत्त्वना खंडनमां (मानभंगमां) रागद्वेषना अभावरूप
समताने (विस्तारीने)(मान अपमानना प्रसंगे समताभाव राखीने);
कया कारणथी? स्वमतथी एटले इष्टोपदेशना अध्ययन अने चिंतनथी उत्पन्न
थयेला आत्मज्ञानथी(मानअपमान प्रसंगे समताभाव राखी.......मुक्तिलक्ष्मी प्राप्त
करे छे.)
‘समाधितंत्र’ श्लोक ३९मां कह्युं छे केः
‘‘ज्यारे तपस्वीने मोहना कारणे रागद्वेष उत्पन्न थाय त्यारे ज तेणे
व्यवहारनिश्चयाभ्यामधीत्य पठित्वा चिंतयित्वा च धीमान् हिताहितपरीक्षादक्षो भव्योऽनन्त-
ज्ञानाद्याविर्भावयोग्यो जीवः मुक्तिश्रियमनंतज्ञानादिसम्पदं निरुपमामनौपम्यां प्राप्नोति
किं
कुर्वन् ? मुक्ताग्रहो वर्जितबहिरर्थाभिनिवेशः सन् सजने ग्रामादौ वने वाऽरण्ये विनिवसन्
विधिपूर्वकं तिष्ठन्
किं कृत्वा ? वितन्य विशेषेण विस्तार्य कां ? माने महत्त्वाधाने अपमाने
च महत्त्वखण्डने समतां रागद्वेषयोरभावम् कस्माद्धेतोः स्वमतात् इष्टोपदेशाध्ययनचिन्तन-
जनितादात्मज्ञानात्
उक्तं च [समाधितन्त्रे ]
‘‘यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विनः
तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं साम्यतः क्षणात्’’ ।।१३९।।
करके हित और अहितकी परीक्षा करनेमें चतुर ऐसे भव्य प्राणी, जिससे अनन्त-ज्ञानादिक
प्रगट हो सकते हैं
इस इष्टोपदेशके अध्ययन-चिन्तन करनेसे उत्पन्न हुए आत्मज्ञानसे
मान-अपमानमें राग-द्वेषको न करनेरूप समताका प्रसार कर नगर-ग्रामादिकोंमें अथवा
निर्जन-वनमें विधि-पूर्वक ठहरते हुए छोड़ दिया है बाहरी पदार्थोंमें मैं और मेरेपनका आग्रह
अथवा हठाग्रह जिसने ऐसा वीतराग होता हुआ प्राणी अनुपम तथा अनन्त ज्ञानादि गुणोंको
और सम्पत्तिरूप मुक्ति-लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है
जैसा कि कहा गया है ‘‘यदा
मोहात्प्रजायेते०’’ ।।

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१४२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पोतानामां स्थित (परम शुद्ध) आत्मानी भावना करवी, जेथी क्षणवारमां रागद्वेष शांत
थई जशे.’’
भावार्थ :आ ‘इष्टोपदेश’मांइष्ट एटले मोक्ष अने उपदेश एटले तेना
उपायरूप आत्मध्यानतेनुं निरूपण (प्रतिपादन) करवामां आव्युं छे.
गाम के वनमां वसतो थको जे भव्य जीव, आ इष्टोपदेश व्यवहारनिश्चयद्वारा
सम्यक् प्रकारे अध्ययनचिंतवन करी हिताहितनो विवेक करे छे तथा बाह्य पदार्थोमां
ममत्वनो त्याग करी मानअपमानप्रसंगे समताभाव राखे छे, ते ‘इष्टोपदेश’ना
अध्ययनचिंतवनथी प्राप्त करेला आत्मज्ञान द्वारा अनुपम मोक्ष सुखने प्राप्त करे छे. ५१.
टीकाप्रशस्ति
विनयचन्द्र नामना मुनिनां वाक्योनो सहारो लई, भव्य प्राणीओना उपकारना
हेतुए धीमान् (पंडित) आशाधरे इष्टोपदेशनी आ टीका करी छे.’.......१.
‘सागरचन्द्र नामना मुनीन्द्रथी (तेमना शिष्य) विनयचन्द्र थया. तेओ जाणे के
टीकाप्रशस्तिः
विनयेन्दुमुनेर्वाक्याद्भव्यानुग्रहहेतुना
इष्टोपदेशटीकेयं कृताशाधरधीमता ।।।।
उपशम इव मूर्तः सागरेन्दोर्मुनीन्द्रादजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरैकचन्द्रः
जगदमृतसगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाः शुचिचरितवरिष्णोर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ।।।।
जिस समय तपस्वीको मोहके उदयसे मोहके कारण राग-द्वेष पैदा होने लगें, उस
समय शीघ्र ही अपनेमें स्थित आत्माकी समतासे भावना करे, अथवा स्वस्थ आत्माकी भावना
भावे, जिससे क्षणभरमें वे राग-द्वेष शान्त हो जावेंगे
।।५१।।
आगे इस ग्रन्थके संस्कृत टीकाकार पंडित आशधरजी कहते है कि
प्रशस्तिः
अर्थविनयचंद्र नामक मुनिके वाक्योंका सहारा लेकर भव्य प्राणियोंके उपकारके
लिए मुझ आशाधर पंडितने यह ‘इष्टोपदेश’ नामक ग्रन्थकी टीका की है
अर्थसागरचन्द्र नामक मुनीन्द्रसे विनयचंद्र हुए जो कि उपशमकी (शांतिकी)

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १४३
मानो मूर्ति ही थे तथा सज्जन पुरुषरूपी चकोरोंके लिए चन्द्रमा समान थे और पवित्र
चारित्रवाले जिन मुनिके अमृतमयी तथा जिनमें अनेक शास्त्रोंकी रचनाएँ समाई हुई हैं,
ऐसे उनके वचन जगतको तृप्ति व प्रसन्नता करनेवाले हैं
जगद्वंद्य श्रीमान नेमिनाथ जिनभगवानके चरणकमल जयवन्त रहें, जिनके आश्रयमें
रहेनेवाली धूली भी राजाओंके मस्तकपर जा बैठती है
इस प्रकार श्री पूज्यपादस्वामीके द्वारा बनाया हुआ ‘इष्टोपदेश’ नामक ग्रन्थ समाप्त
हुआ
उपशम (शान्ति)नी मूर्ति हता; सज्जन पुरुषोरूपी चकोर पक्षीओने माटे एक चन्द्रमा
समान हता; ते पवित्र चारित्रवान जिन मुनिनां अमृतथी (अनेक) शास्त्रोना सारगर्भित
वचनो जगतने तृप्त (प्रसन्न) करे छे.’........२.
‘जगद्वंद्य श्रीमान नेमिनाथ जिन भगवाननां चरणकमळ जयवंत वर्ते छे. जेमना
(चरणकमळना) आश्रित धूळ पण राजाओना मस्तक पर जई बेसे छे. (अर्थात्
राजाओ पण जेमनां चरणकमळोमां मस्तक झुकावे छे).’.......३.
इति श्री पूज्यपादस्वामिविरचित इष्टोपदेश समाप्त.
जयन्ति जगतीवन्द्या श्रीमन्नेमिजिनाङ्घ्रयः
रेणवोऽपि शिरोराज्ञामारोहनि् त यदाश्रिताः ।।।।
इति श्रीपूज्यपादस्वामिविरचितः इष्टोपदेशः समाप्तः ।।

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१४४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
श्लोकपृष्ठ
अगच्छंस्तेद्विशेषाणा४४१२९
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं२३७२
अभवच्चित्तविक्षेप३६११२
अविद्याभिदुरं ज्योतिः४९१३६
अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं४६१३२
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य४७१३४
आनन्दो निर्दहत्युद्धं४८१३५
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष१५४५
आरम्भे तापकान्१७५१
इच्छत्येकान्तसंवासं४०१२१
इतश्चिन्तामणिर्दिव्य२०६१
इष्टोपदेशमिति५११४०
एकोऽहं निर्ममः शुद्धो२७८८
कटस्थ कर्ताहमिति२५८०
कर्म कर्महिताबन्धि३१९७
किमिदं कीदृशं४२१२५
श्लोकपृष्ठ
गुरूपदेशादभ्यासात्३३१०३
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः५०१३८
त्यागाय श्रेयसे वित्तम्१६४७
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य२८
दुःखसन्दोहभागित्वं२८९०
दुरर्ज्येनासुरक्षेण१३४०
न मे मृत्युः कुतः भीतिर्न२९९३
नाज्ञो विज्ञत्वमायति३५१०८
निशामयति निःशेष३९११९
परीषहाद्यविज्ञानाद्२४७४
परोपकृतिमुत्सृज्य३२१०१
परः परस्ततो दुःख४५१३०
बध्यते मुच्यते जीवः२६८४
ब्रुवन्नपि हि न ब्रुते४११२३
पद्यानुक्रमसूची
G

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १४५
श्लोकपृष्ठ
भवन्ति प्राप्य यत्संग१८५६
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहात्३०९५
मोहेन संवृतं ज्ञानं२२
यज्जीवस्योपकाराय१९५८
यत्र भावः शिवं दत्ते११
यथा यथा न रोचन्ते३८११७
यथा यथा समायाति३७११५
यस्य स्वयं स्वभावाप्ति
योग्योपादानयोगेन
यो यत्र निवसन्नास्ते४३१२७
श्लोकपृष्ठ
रागद्वेषद्वयी दीर्घ११३३
वपुर्ग्रहं धनं दाराः२५
वरं व्रतैः पदं देवं
वासनामात्रमेवैतत्१७
विपत्तिमात्मनो मूढः१४४३
विपद्भवपदावर्ते१२३८
विराधकः कथं हंत्रे१०३१
संयम्य करणग्राम२२६८
स्वसंवेदन सुव्यक्त२१६३
स्वस्मिन् सदभिलाषित्वाद्३४१०५
हृषीकजमनातंकं१४