Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 35-42.

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १०७
उपाय मारे (आत्माए) सेववा योग्य छे एवो बोध करतो होवाथी तथा स्वयं मोक्षसुखना
उपायमां स्वने (आत्माने) प्रयुक्त करतो (योजतो) होवाथी, ‘आ सुदुर्लभ मोक्षसुखना
उपायमां, हे दुरात्मन् आत्मा! तुं स्वयं आज सुधी प्रवृत्त थयो नहि’ ए रीते त्यां
(उपायमां) अप्रवृत्त आत्माने प्रवर्तावनार होवाथी (आत्मा ज आत्मानो गुरु छे).
भावार्थःमोक्षसुखनो अभिलाषी आत्मा स्वयं आत्मानो गुरु छे, कारण के ते
स्वयं ज पोतानुं कल्याण इच्छे छे, ते स्वयं पोताने मोक्षना उपायनो बोध करे छे अने स्वयं
पोताने मोक्षसुखना उपायमां योजे छे (लगावे छे).
श्री समाधितंत्र श्लोक* ७५मां कह्युं छे केः
‘आत्मा ज आत्माने जन्ममरणरूप संसारमां भ्रमण करावे छे अने आत्मा ज
आत्माने निर्वाण प्रति लई जाय छे, माटे निश्चयथी आत्मा ज आत्मानो गुरु छे, बीजो
कोई गुरु नथी.’
अहीं शिष्य आक्षेप करी कहे छे‘‘ए रीते अन्यनी उपासना प्राप्त थती नथी,
अर्थात् हे भगवन्! उक्त नीति अनुसार परना गुरुपणानो+ अभाव थतां, मुमुक्षुने
बोधकत्वात् तथाहि ते मोक्षसुखोपाये स्वयं स्वस्य प्रयोक्तृत्वात् अस्मिन् सुदुर्लभे मोक्षसुखोपाये
दुरात्मन्नात्मन्स्वयमद्यापि न प्रवृत्तः इति तत्रावर्त्तमानस्यात्मनः प्रवर्त्तकत्वात्
अथ शिष्यः साक्षेपमाह एवं नान्योपास्तिः प्राप्नोतीति भगवन्नुक्तनीत्या परस्यगुरुत्वे
चाहिए इसी तरह अपने आपको मोक्ष-उपायमें लगानेवाला भी वह स्वयं हो जाता है, कि
इस सुदुर्लक्ष मोक्ष सुखोपायमें हे दुरात्मन् आत्मा ! तुम आज तक अर्थात् अभी तक भी
प्रवृत्त नहीं हुए
इस प्रकार अभी तक न प्रवर्तनेवाले आत्माका प्रवर्तक भी हुआ करता
है इसलिये स्वयं ही आत्मा अपने कल्याणका चाहनेवाला, अपनेको सुखोपाय बतलानेवाला
और सुखोपायमें प्रवृत्ति करनेवाला होनेसे अपना गुरु है ।।३४।।
यहाँ पर शिष्य आक्षेप सहित कहता है कि इस तरह तो अब अन्य दूसरोंकी क्यों
*नयत्यान्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव वा
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५।।[समाधितन्त्रेश्री पूज्यपादाचार्यः ]
+इडर सरस्वती भंडारनी हस्तलिखित प्रतमां ‘परस्परगुरुत्वे निश्चिते’ने बदले ‘परस्यगुरुत्वे निरस्ते’ शब्दो
छे अने ते योग्य लागे छे. तेथी ते प्रमाणे अहीं अर्थ कर्यो छे.

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१०८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
धर्माचार्यादिनी सेवा प्राप्त थती नथी. मुमुक्षुने धर्माचार्यादि सेववा योग्य रहेता नथी एवो
भाव छे, परंतु एम नथी, कारण के एम कहेवामां अपसिद्धान्तनो प्रसंग आवे छे.
आवुं बोलनार शिष्य प्रति आचार्य जवाब आपे छेः
मूर्ख न ज्ञानी थई शके, ज्ञानी मूर्ख न थाय,
निमित्तमात्र सौ अन्य तो, धर्मद्रव्यवत् थाय. ३५.
अन्वयार्थ :[अज्ञः ] जे पुरुष अज्ञानी छे (अर्थात् तत्त्वज्ञाननी उत्पत्ति माटे
अयोग्य छेते) [विज्ञत्वं न आयाति ] विज्ञ थई शकतो नथी अने [विज्ञः ] जे विशेष ज्ञानी
छे ते [अज्ञत्वं न ऋच्छति ] अज्ञानी थई शकतो नथी; जेम (जीव पुद्गलनी) [गतेः ] गतिमां
[धर्मास्तिकायवत् निमित्तमात्रम् ] धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र छे, तेम [अन्यः तु ] अन्य (पदार्थ)
पण निमित्तमात्र (धर्मास्तिकायवत्) छे.
टीका :भद्र! अज्ञ एटले तत्त्वज्ञाननी उत्पत्तिने माटे अयोग्य अभव्यादिक
निरस्ते सति धर्माचार्यादिसेवनं न प्राप्नोति मुमुक्षुः मुमुक्षुणा धर्माचार्यादिः सेव्यो न भवतीति
भावः न चैवमेतदिति वाच्यमपसिद्धान्तप्रसङ्गात्
इति वदन्तं प्रत्याह
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।।३५।।
टीकाभद्र ! अज्ञस्तत्त्वज्ञानोत्पत्ययोग्योऽभव्यादिर्विज्ञत्वं तत्त्वज्ञत्वं धर्माचार्याद्युपदेश-
सहस्रेणापि न गच्छति
सेवा करनी होगी ? बस जब आपसमें खुदका खुद ही गुरु बन गया, तब धर्माचार्यादिकोंकी
सेवा मुमुक्षुओंको नहीं करनी होगी
ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, कि हाँ ऐसा तो है ही,
कारण कि वैसा माननेसे अपसिद्धान्त हो जाएगा ऐसे बोलनेवाले शिष्यके प्रति आचार्य
जवाब देते हैं
मूर्ख न ज्ञानी हो सके, ज्ञानी मूर्ख न होय
निमित्त मात्र पर जान, जिमि गति धर्मतें होय ।।३५।।
अर्थतत्त्वज्ञानकी उत्पत्तिके अयोग्य अभव्य आदिक जीव, तत्त्वज्ञानको

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १०९
जीव, धर्माचार्यादिना हजारो उपदेशोथी पण विज्ञत्वनेतत्त्वज्ञानने प्राप्त करी शकतो नथी.
तथा कह्युं छे केः
‘(कोई कार्यनी) उत्पत्तिमां स्वाभाविक गुणनी अपेक्षा रहे छे. सेंकडो व्यापारोथी
(प्रयत्नोथी) पण बगलो पोपटनी माफक भणावी शकातो नथी.’
तेम विज्ञ एटले तत्त्वज्ञाने परिणत जीव हजारो उपायोथी पण अज्ञानपणाने प्राप्त
थतो नथी अर्थात् तत्त्वज्ञानथी परिभ्रष्ट थतो नथी.
वळी, ‘पद्मनन्दिपंचविंशतिका’श्लोक ६३, पृ. ३३मां कह्युं छे केः
‘जेना भयथी गभराई जई दुनियाना लोक मार्ग छोडी, अहीं तहीं भागी जाय
तेवुं वज्र पडे छतां प्रशमभावसंपन्न योगीओ योगथी (ध्यानथी) चलायमान थता नथी,
तो ज्ञानरूपी प्रदीपथी जेमणे मोहरूपी महान्धकारनो नाश करी दीधो छे एवा सम्यग्द्रष्टि
तथा चोक्तम्
‘स्वाभाविकं हि निष्पत्तौ क्रियागुणमपेक्ष्यते
न व्यापारशतेनापि शुकवत्पापाठयते बकः’ ।।
तथा विज्ञस्तत्त्वज्ञानपरिणतो अज्ञत्वं तत्त्वज्ञानात्परिभ्रंशमुपायसहस्रेणापि न गच्छति
तथा चोक्तम्
‘वज्रे पतत्यपि भयद्रुतविश्वलोके मुक्ताध्वनि प्रशमिनो न चलन्ति योगात्
बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु’ ।।६३।।
धर्माचार्यादिकोंके हजारों उपदेशोंसे भी नहीं प्राप्त कर सकता है, जैसा कि कहा गया है
‘‘
स्वाभाविकं हि निष्पत्तौ’’
‘‘कोई भी प्रयत्न कार्यकी उत्पत्ति करनेके लिये स्वाभाविक गुणकी अपेक्षा किया
करता है सैकड़ों व्यापारोंसे भी बगुला तोतेकी तरह नहीं पढ़ाया जा सकता है ’’
इसी तरह तत्त्वज्ञानी जीव, तत्त्वज्ञानसे छूटकर हजारों उपायोंके द्वारा भी अज्ञत्वको
प्राप्त नहीं कर सकता जैसा कि कहा गया है‘‘वज्रे पतत्यपि’’
‘‘जिसके कारण भयसे घबराई हुई सारी दुनियाँ मार्गको छोड़कर इधर उधर
भटकने लग जाय, ऐसे वज्रके गिरने पर भी अतुल शांतिसम्पन्न योगिगण योगसे (ध्यानसे)
चलायमान नहीं होते
तब ज्ञानरूपी प्रदीपसे जिन्होंने मोहरूपी महान् अन्धकारको नष्ट कर

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११० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जीवो, शेष परीषहो आवी पडतां, शुं चलायमान थशे? (नहि, तेओ कदी पण चलायमान
थशे नहि).
ए रीते तो बाह्य निमित्तो ऊडी जशे! एम अत्रे कहे छे.
‘अन्य अर्थात् गुरु तथा शत्रुआदि, प्रकृत कार्यनी उत्पत्तिमां तथा नाशमां
निमित्तमात्र छे, कारण के त्यां योग्यता ज साक्षात् साधक छे.
कोनो कोण? जेम ‘गतेरित्यादि’०थी अहीं कहे छे तेम.
आनो अर्थ ए छे केजेम के युगपद् (एकी साथे) भावी गतिरूप परिणाम माटे
उन्मुख (ते तरफ वलणवाळा) पदार्थोनी पोतानी गमनशक्ति ज गतिने साक्षात् उत्पन्न करे
छे; तेना विकलपणामां (एटले पदार्थोमां गमन प्रति उन्मुखता न होय त्यारे) तेमां कोईथी
(कांई) करवुं अशक्य छे (अर्थात् तेमां कोई गति उत्पन्न करी शके नहि). धर्मास्तिकाय
तो गति
उपग्राहकरूप (गतिमां निमित्तरूप) द्रव्यविशेष छे; ते तेने (गतिने) सहकारी
कारणमात्र छे. ए रीते प्रकृतमां पण (आ विषयमां पण) समजवुं. तेथी व्यवहारथी ज
नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह अन्यः पुनर्गुरूविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पाद-
भ्रंशयोर्निमित्तमात्रं स्यात्तत्र योग्यताया एव साक्षात्साधकत्वात्
कस्याः को यथेत्यत्राह, गतेरित्यादि अयमर्थो यथा युगपद्भाविगतिपरिणामोन्मुखानां
भावानां स्वकीया गतिशक्तिरेव गतेः साक्षाज्जनिका, तद्वैकल्पे तस्याः केनापि कर्त्तुमशक्यत्वात्
धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्राहकद्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणमात्रं स्यादेवं प्रकृतेऽपि अतो
दिया है, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव क्या शेष परीषहोंके आने पर चलायमान हो जायँगें ? नहीं,
वे कभी भी चलायमान नहीं हो सकते हैं
’’
यहाँ शंका यह होती है कि यों तो बाह्य निमित्तोंका निराकरण ही हो जाएगा ?
इसके विषयमें जवाब यह है कि अन्य जो गुरु आदिक तथा शत्रु आदिक हैं, वे प्रकृत
कार्यके उत्पादनमें तथा विध्वंसनमें सिफ र् निमित्तमात्र हैं
वास्तवमें किसी कार्यके होने व
बिगड़नेमें उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है जैसे एक साथ गतिरूप परिणामके
लिये उन्मुख हुए पदार्थोंमें गतिकी साक्षात् पैदा करनेवाली उन पदार्थोंकी गमन करनेकी
शक्ति है
क्योंकि यदि पदार्थोंमें गमन करनेकी शक्ति न होवे तो उनमें किसीके द्वारा
भी गति नहीं की जा सकती धर्मास्तिकाय तो गति करानेमें सहायकरूप द्रव्यविशेष है
इसलिये वह गतिके लिये सहकारी कारणमात्र हुआ करता है यही बात प्रकृतमें भी जाननी

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १११
गुरु आदिनी शुश्रूषा (सेवा) करवी योग्य छे.
भावार्थ :ज्ञानी के अज्ञानी बनवानी योग्यता पोताना आत्मामां ज छे. गुरु
आदि तो बाह्य निमित्तमात्र छे, तेओ कोईने ज्ञानी के अज्ञानी बनावी शकता नथी.
पदार्थोमां परिणमन माटे जे उन्मुख योग्यता होय छे ते रूप ज कार्य उत्पन्न
(निष्पन्न) थाय छे, कारण के कारणानुविधायीनि कार्याणिकारण जेवां ज कार्यो होय छे.
अन्य पदार्थो तो तेना परिणमनमां निमित्तमात्र छे. प्रत्येक पदार्थनी परिणमनउन्मुखता
क्षणिक उपादान ज कार्यरूपे परिणमे छे.
जीव अने पुद्गल द्रव्यमां गमन करवानी स्वयं शक्ति छे, तेथी जे समये तेओ
पोतानी क्रियावती शक्तिनी जे प्रकारनी परिणमनउन्मुखताथी गमन करे छे; ते प्रकारे ते
समये धर्मद्रव्य, तेमना गमनमां निमित्तमात्र होय छे. परिणाम प्रति पदार्थोनी उन्मुखता
ज (ते समयनी योग्यता ज) कार्यनुं साक्षात् उपादान कारण छे.
गुरु शिष्यने शीखवे छेए व्यवहारनयनुंनिमित्तनुं कथन छे, एटले के शिष्य
पोतानी उपादानशक्तिथी शीखे तो गुरु निमित्तमात्र कहेवाय. आ कथन, कार्योत्पत्तिसमये
अनुकूळ कयुं निमित्त हतुं, तेनुं ज्ञान करावी तेना तरफनुं वलण छोडाववा माटे छे, एम
समजवुं.
वस्तुतः कोई कोईने शीखवी शके नहि, कारण के ए सिद्धान्त छे के ‘सर्व द्रव्यो
पोतपोताना स्वभावथी ऊपजे छे, अन्य द्रव्यथी अन्य द्रव्यना गुणनी (पर्यायनी) उत्पत्ति
करी शकाती नथी.’+
छए द्रव्योनी विकारी के अविकारी पर्यायोमां बधां निमित्तो धर्मास्तिकायवत्
निमित्तमात्र छे. प्रेरक अने उदासीन निमित्तो तेना पेटा प्रकारो छे, परंतु उपादान प्रत्ये
तो ते सदा धर्मास्तिकायवत् उदासीन निमित्तमात्र छे.
व्यवहारादेव गुर्वादेः सुश्रूषा प्रतिपत्तव्या
चाहिये इसलिये व्यवहारसे ही गुरु आदिकोंकी सेवा, शुश्रूषा आदि की जानी चाहिए ।।३५।।
+ को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
तेथी बधाये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे.
(श्री समयसार गु. आवृत्ति गाथा३७२)

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११२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
हवे शिष्य कहे छे(आत्मस्वरूपनो) अभ्यास केवी रीते (कराय)? आ
अभ्यासना प्रयोगना उपाय संबंधी प्रश्न छे.
(कोई ठेकाणे ‘अभ्यासः कथ्यते’अभ्यास कहेवामां आवे छेएवो पाठ छे). त्यां
(ते बाबतमां) वारंवार प्रवृत्ति लक्षणात्मक अभ्यास सारी रीते प्रसिद्ध छे; तेना स्थान
नियमादिरूपे अभ्याससंबंधी उपदेश करवामां आवे छे
एवो अर्थ छे.
ए रीते संवित्ति (स्वसंवेदन) संबंधी कहेवामां आवे छेएम पाठनी अपेक्षाए
उत्तर पातनिकानुं पण व्याख्यान समजवुं (अर्थात् साथे साथे संवित्तिनुं पण वर्णन
समजवुं). ३५.
गुरुए ज ते बंने वाक्योनी व्याख्या करवी योग्य छे.
शिष्यना बोध माटे गुरु कहे छेः
क्षोभरहित एकान्तमां स्वरूप स्थिर थई खास,
योगी तजी परमादने कर तुं तत्त्वाभ्यास. ३६.
अथाह शिष्यः अभ्यासः कथमिति अभ्यासप्रयोगोपायप्रश्नोऽयम् अभ्यासः कथ्यत
इति क्वचित् पाठः तत्राभ्यासः स्यात् भूयोभूय प्रवृत्तिलक्षणत्वेन सुप्रसिद्धत्वात्तस्य
स्थाननियमादिरूपेणोपदेशः क्रियत इत्यर्थः एवं संवित्तिरुच्यत इत्युत्तरपातनिकाया अपि
व्याख्यानमेतत्पाठापेक्षया द्रष्टव्यम्
तथा च गुरूरेवैते वाक्ये व्याख्येये शिष्यबोधार्थं गुरुराह
अभवच्चित्तविक्षेप एकान्ते तत्त्वसंस्थितः
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्त्वं निजात्मनः ।।३६।।
अब शिष्य कहता है कि ‘अभ्यास कैसे किया जाता है ?’ इसमें अभ्यास करनेके
उपायोंको पूछा गया है सो अभ्यास और उसके उपायोंको कहते हैं बार बार प्रवृत्ति
करनेको अभ्यास कहते हैं यह बात तो भलीभाँति प्रसिद्ध ही है उसके लिये स्थान कैसा
होना चाहिए ? कैसे नियमादि रखने चाहिए ? इत्यादि रूपसे उसका उपदेश किया जाता
है
इसी प्रकार साथमें संवित्तिका भी वर्णन करते हैं
क्षोभ रहित एकान्त में, तत्त्वज्ञान चित धाय
सावधान हो संयमी, निज स्वरूपको भाय ।।३६।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११३
अन्वयार्थ :[अभवत् चित्तविक्षेपः ] जेना चित्तमां क्षोभ नथी (अर्थात् जेना
चित्तमां रागद्वेषादि विकार परिणतिरूप क्षोभविक्षेप नथी) तथा जे [तत्त्वसंस्थितः ] तत्त्वमां
(आत्मस्वरूपमां) सारी रीते स्थित छे, तेवा [योगो ] योगीए [अभियोगेन ] सावधानीपूर्वक
(अर्थात् आळस, निद्रादिना परित्यागपूर्वक) [एकान्ते ] एकान्त स्थानमां [निजात्मनःतत्वं ]
पोताना आत्मतत्त्वनो [अभ्यस्येत् ] अभ्यास करवो.
टीका :अभ्यास करवो भाववो. कोणे ते? योगीएसंयमीए. शुं (अभ्यास
करवो)? आत्मा संबंधी तत्त्वनो. कोनो? निज आत्मानो (पोताना स्वरूपनो) शा वडे?
अभियोग वडे अर्थात् आळस, निद्रादिना त्याग वडे. कयां (अभ्यास करवो)? एकान्तमां
एटले योग्य खाली गृहादिमां. केवा प्रकारनो थईने? जेना चित्तमां
मनमां विक्षेप अर्थात्
रागादिरूप क्षोभ नथी तेवो थईने? कहे छे, ‘आवो’ केवा थईनेतत्त्वमां सारी रीते स्थित
अर्थात् तत्त्व एटले हेयउपादेय तत्त्वोमां गुरुना उपदेशथी जेनी बुद्धि निश्चल थई गई
छे, तेवो थईने अथवा परमार्थरूपे साध्य वस्तुमां सम्यक्प्रकारे स्थित एटले जेवा कह्या छे;
तेवा कायोत्सर्गादि द्वारा व्यवस्थित
थईने.
भावार्थ :ज्यां सुधी रागद्वेषादि विकल्पोथी चित्त विक्षिप्त रहे छेआकुलित
रहे छे, त्यां सुधी आत्मस्वरूपनुं ध्यान थई शकतुं नथी. *समाधितंत्र श्लोक ३५मां कह्युं
छे केः
टीकाअभ्यस्येद्भावयेत्कोसौ ? योगी संयमी किं ? तत्त्वं यथात्म्यं कस्य ?
निजात्मनः केन ? अभियोगेन आलस्यनिद्रादिनिरासेन क्वं ? एकान्ते योग्यशून्यगृहादौ किं
विशिष्टः सन् ? अभवन्नजायमानश्चित्तस्य मनसो विक्षेपो रागादिसंक्षोभो यस्य सोऽयमित्थंभूतः
सन्
किंभूतो भूत्वा ? तथाभूत इत्याह तत्वसंस्थितस्तत्त्वे हेये उपादेये च गुरूपदेशान्निश्चलधी
अर्थजिसके चित्तमें क्षोभ नहीं है, जो आत्मा स्वरूप रूपमें स्थित है, ऐसा योगी
सावधानीपूर्वक एकान्त स्थानमें अपने आत्माके स्वरूपका अभ्यास करे
विशदार्थनहीं हो रहे हैं चित्तमें विक्षेप-रागादि विकल्प जिसको ऐसा तथा हेय-
उपादेय तत्त्वोंमें गुरुके उपदेशसे जिसकी बुद्धि निश्चल हो गई है, अथवा परमार्थरूपसे
साध्यभूत वस्तुमें भले प्रकारसे
यानी जैसे कहे गये हैं, वैसे कायोत्सर्गादिकोंसे व्यवस्थित
हो गया है, ऐसा योगी अपनी आत्माके ठीक ठीक स्वरूपका एकान्त स्थानोंमेंयोगीके लिये
*रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत् तत्त्वं नेतरो जनः ।।३५।।
[समाधितन्त्रेश्री पूज्यपादाचार्यः ]

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११४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘‘जेनुं मनरूपी जल रागद्वेषादि तरंगोथी चंचल (विक्षिप्त) थतुं नथी, ते ज पुरुष
आत्माना यथार्थ स्वरूपनो अनुभव करे छे; रागद्वेषादि कल्लोलोथी आकुलित चित्तवाळो
पुरुष आत्मतत्त्वनो अनुभव करी शकतो नथी.’’
माटे योगीए प्रथम गुरुना उपदेशथी हेयउपादेय तत्त्वोमां बुद्धि निश्चल करी
पोताना चित्तने मोहक्षोभरहित करवुं, पछी कायोत्सर्गादि द्वारा व्यवस्थित थई
एकान्तमांशून्य गृहमां के पर्वतनी गुफामांआळस तथा निद्रादिनो त्याग करी पोताना
आत्माना यथार्थ स्वरूपनो अभ्यास करवो.
आ श्लोकमां आत्मस्वरूपना अभ्यास माटे आचार्ये नीचेना मुख्य त्रण उपायो
सूचव्या छेः
१. गुरुना उपदेश द्वारा हेयउपादेय तत्त्वोमां अर्थात् स्वपरना भेदविज्ञानमां बुद्धिने
स्थिर करवी;
२. चित्तने मोहक्षोभरहित करवुं अर्थात् रागद्वेषादि विकल्पोथी विक्षिप्त न करवुं;
३. प्रमादनो त्याग करी एकान्तमां आत्मस्वरूपना अनुभवनो अभ्यास करवो. ३६.
हवे शिष्य कहे छे‘संवित्ति’ एटले अभ्यास केवी रीते अनुवर्ताय (कराय)? आ
अर्थ (भाव) संयमित करातो नथी (अर्थात् आटलाथी पूरो थतो नथी).
भगवान! उक्त लक्षणवाळी संवित्ति (आत्मानुभव) थई रही छे ते योगीने कया
उपायथी जाणी शकाय? अने प्रतिक्षण तेनो प्रकर्ष थई रह्यो छे ते पण केवी रीते जाणी
शकाय?
यदि वा तत्त्वेन साध्ये वस्तुनि सम्यक् स्थितो यथोक्तकायोत्सर्गादिना व्यवस्थितः
अत्राह शिष्यः संवित्तिरिति अभ्यासः कथमित्यनुवर्त्यन्ते नायमर्थः संयम्यते भगवन् !
उक्तलक्षण संवित्तिः प्रवर्तमाना केनोपायेन योगिनो विज्ञायते कथं च प्रतिक्षणं प्रकर्षमापद्यते
योग्य ऐसे शून्य गृहोंमें ? पर्वतोंकी गुहा कंदरादिकोंमें, आलस्य निद्रा आदिको दूर करते
हुए अभ्यास करे
।।३६।।
यहाँ पर शिष्य पूछता है कि भगवन् ! जिसका लक्षण कहा गया है ऐसी ‘संवित्ति
हो रही है यह बात योगीको किस तरहसे मालूम हो सकती है ? और उसकी हरएक
क्षणमें उन्नति हो रही है, यह भी कैसे जाना जा सकता है ?

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११५
अहीं, आचार्य कहे छे‘हे धीमन्! सांभळ, हुं तेना चिह्ननुं वर्णन करुं छुं’
एवो अर्थ छे.
ज्यम ज्यम संवेदन विषे आवे उत्तम तत्त्व,
सुलभ मळे विषयो छतां, जरीये करे न ममत्व. ३७.
अन्वयार्थ :[यथा यथा ] जेम जेम [उत्तमं तत्त्वं ] उत्तम तत्त्व [संवित्तौ ]
अनुभवमां [समायाति ] आवे छे, [तथा तथा ] तेम तेम [सुलभाः अपि विषयाः ] सुलभ
विषयो पण [न रोचन्ते ] रुचता नथी (गमता नथी).
टीका :जे जे प्रकारे योगीनी संवित्तिमां (स्वानुभवरूप संवेदनमां) शुद्धात्मानुं
स्वरूप आवे छे (झलके छे) सन्मुख थाय छे, तेम अनायासे (सहजमां) प्राप्त थता रम्य
(रमणीक) इन्द्रियविषयो पण भोग्यबुद्धिने उत्पन्न करी शकता नथी. (भोगववायोग्य छे,
एवी बुद्धि
इच्छा उत्पन्न करी शकता नथी), कारण के महासुखनी प्राप्ति थतां अल्पसुखना
अत्राचार्यो वक्ति उच्यत इति धीमन्नाकर्णय वर्ण्यते तल्लिङ्गं तावन्मयेत्यर्थः
यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।।३७।।
टीकायेन येन प्रकारेण संवित्तौ विशुद्धात्मस्वरूपं सांमुख्येनागच्छति योगिनः तथा
तथानायासलभ्या अपि रम्येन्द्रियार्था भोग्यबुद्धिं नोत्पादयन्ति महासुखलब्धावऽल्पसुखकारणानां
लोकेऽप्यनादरणीयत्वदर्शनात्
तथा चोक्तम्
आचार्य कहते हैं, कि हे धीमन् ? सुनो मैं उसके चिन्हका वर्णन करता हूँ
जस जस आतम तत्त्वमें, अनुभव आता जाय
तस तस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय ।।३७।।
अर्थज्यों ज्यों संवित्ति (स्वानुभव)में उत्तम तत्त्वरूपका अनुभवन होता है, त्यों
त्यों उस योगीको आसानीसे प्राप्त होनेवाले भी विषय अच्छे नहीं लगते
विशदार्थजिस जिस प्रकारसे योगीकी संवित्तिमें (स्वानुभवरूप संवेदनमें) शुद्ध
आत्माका स्वरूप झलकता जाता है, सन्मुख आता है, तैसे-तैसे बिना प्रयाससे, सहजमें
ही प्राप्त होनेवाले रमणीक इन्द्रिय विषय भी योग्य बुद्धिको पैदा नहीं कर पाते हैं
ठीक

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११६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कारणो प्रति लोकमां (दुनियामां) पण अनादर देखाय छे. कह्युं छे के
जेमनुं मन शान्ति सुखथी संपन्न छे तेवा (महापुरुषोने) भोजन पण द्वेष उत्पन्न
करे छे (अर्थात् तेमने भोजन पण गमतुं नथीते प्रति उदासीन होय छे), तो विषय
भोगोनी वात ज शुं करवी (अर्थात् तेमने विषय भोगो रुचिकर लागता नथी).
माछलीओना अंगने जमीन ज बाळे छे, तो अग्निना अंगारानी तो वात ज शुं! (ते
तो तेने बाळी ज नाखे).
तेथी विषयोनी अरुचि ज योगीनी स्वात्मसंवित्ति (स्वात्मानुभव)नुं ज्ञान करावे
छे.
तेना अभावमां (अर्थात् स्वात्मसंवित्तिना अभावमां तेनो (एटले विषयो प्रति
अरुचिनो) अभाव होय छे, अने विषयो प्रति अरुचि वधतां स्वात्मसंवित्ति पण प्रकर्षता
पामे छे (वृद्धि पामे छे).
भावार्थ :आत्मस्वरूपनुं भान थतां, विषयो प्रति भोग्यबुद्धि उत्पन्न थती नथी.
जेम जेम योगीने स्वानुभवरूप स्वसंवेदनमां आत्मानो आनंद आवे छे, तेम तेम सुलभ्य
रम्य विषयो तरफथी पण तेनुं मन हठतुं जाय छे, अर्थात् सुंदर लागता विषयो पण तेने
आकर्षी शकता नथी. जेने भोजन पण सारुं लागे नहि, तेने विषय भोग केम रुचे? कारण
के आध्यात्मिक आनंद आगळ विषय
भोगनो आनंद तेने तुच्छनीरस लागे छे. लोकमां
‘‘शमसुखशीलितमनसामशनपि द्वेषमेति किमु कामाः
स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्गं पुनरङ्गमङ्गाराः’’ ।।।।
ही है, दुनियाँमें भी देखा गया है कि महान् सुखकी प्राप्ति हो जाने पर अल्प सुखके पैदा
करनेवाले कारणोंके प्रति कोई आदर या ग्राह्य-भाव नहीं रहता है
ऐसा ही अन्यत्र भी
कहा है ‘‘शमसुखशीलितमनसा०’’
‘‘जिनका मन शांति-सुखसे सम्पन्न है, ऐसे महापुरुषोंको भोजनसे भी द्वेष हो जाता
है, अर्थात् उन्हें भोजन भी अच्छा नहीं लगता फि र और विषय भोगोंकी तो क्या चलाई ?
अर्थात् जिन्हें भोजन भी अच्छा नहीं लगता, उन्हें अन्य विषय-भोग क्यों अच्छे लग सकते
हैं ? अर्थात् उन्हें अन्य विषय-भोग रुचिकर प्रतीत नहीं हो सकते
हे वत्स ! देखो, जब
मछलीके अंगोंको जमीन ही जला देनेमें समर्थ है, तब अग्निके अंगारोंका तो कहना ही
क्या ? वे तो जला ही देंगे
इसलिये विषयोंकी अरुचि ही योगीकी स्वात्म-संवित्तिको प्रकट
कर देनेवाली है ’’

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११७
पण ए रीत छे के अधिक सुखनुं कारण प्राप्त थतां अल्प सुखना कारणो प्रति लोकोने
अनादर (अरुचि) थाय छे.
माटे विषयोनी अरुचि ज योगीनी स्वात्मसंवित्तिने प्रगट करे छे. ३७.
ते आ प्रमाणे छेः
जेम जेम विषयो सुलभ, पण नहि रुचिमां आय,
तेम तेम आतमतत्त्वमां अनुभव वधतो जाय. ३८
अन्वयार्थ :[यथा यथा ] जेम जेम [सुलभाः अपि विषयाः ] सुलभ (सहज प्राप्त)
(इन्द्रियविषयो पण [न रोचन्ते ] रुचता नथी (गमता नथी) [तथा तथा ] तेम तेम [संवित्तौ ]
स्वात्मसंवेदनमां [उत्तमम् तत्त्वम् ] उत्तम निजात्मतत्त्व [समायाति ] आवतुं जाय छे.
टीका :अहीं पण पूर्ववत् व्याख्यान समजवुं; तथा
श्री समयसार कलश श्लोक ३४मां कह्युं छे के
अतो विषयारुचिरेव योगिनः स्वात्मसंवित्तेर्गमिका तदभावे तदभावात् प्रकृष्यमाणायां च
विषयारुचौ स्वात्मसंवित्तिः प्रकृष्यते
यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि
तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।।३८।।
तद्यथा
टीकाअत्रापि पूर्वबद्वयाख्यानं यथाचोक्तम्
[समयसारकलशायां ]
स्वात्म-संवित्तिके अभाव होने पर विषयोंसे अरुचि नहीं होती और विषयोंके प्रति
अरुचि बढ़ने पर स्वात्म-संवित्ति भी बढ़ जाती है ।।३७।।
जस जस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय
तस तस आतम तत्त्वमें, अनुभव बढ़ता जाय ।।३८।।
उपरिलिखित भावको और भी स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं
अर्थज्यों ज्यों सहजमें भी प्राप्त होनेवाले इन्द्रिय विषय भोग रुचिकर प्रतीत नहीं
होते हैं, त्यों त्यों स्वात्म-संवेदनमें निजात्मानुभवनकी परिणति वृद्धिको प्राप्त होती रहती है

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११८ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘‘हे भव्य! तने बीजो नकामो कोलाहल करवाथी शुं लाभ छे? ए कोलाहलथी
तुं विरक्त था अने एक चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चळ लीन थई देख; एवो छ महिना
अभ्यास कर अने जो (तपास) के एम करवाथी पोताना हृदय
सरोवरमां जेनुं तेज, प्रताप,
प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे; एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे.’’
भावार्थ :विषयोनी रुचि न होवाथी ए आत्माना विशुद्ध स्वरूपनी प्राप्तिनुं
कारण छे. जेम जेम इन्द्रियविषयो प्रत्ये विरक्ति (उदासीनता) वधती जाय छे, तेम तेम
स्वात्मसंवेदनमांशुद्धात्माना अनुभवमां पण वृद्धि थती जाय छे.
माटे पर पदार्थो संबंधी सर्व संकल्पविकल्पोनो त्याग करी, विषयोथी मन व्यावृत्त
करी, एकान्तमां स्वात्माना अवलोकननो अभ्यास करवो, तेनाथी थोडा समयमां
शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे. ३८.
स्वात्मसंवित्ति वधतां जे चिह्नो थाय छे ते सांभळ; जेम के
‘‘विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन,
स्वयमपि निभृतः सन्पश्य षण्मासमेकं
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः’’
।।
प्रकृष्यमाणायां च स्वात्मसंवित्तौ यानि चिह्नानि स्युस्तान्याकर्णय यथा
विशदार्थविषय भोगोंके प्रति अरुचि भाव ज्यों ज्यों वृद्धिको प्राप्त होते हैं, त्यों
त्यों योगीके स्वात्म-संवेदनमें निजात्मानुभवनकी परिणति वृद्धिको प्राप्त होती रहती है कहा
भी है ‘‘विरम किमपरेणा’’
आचार्य शिष्यको उपदेश देते हैं, हे वत्स ! ठहर, व्यर्थके ही अन्य कोलाहलोंसे
क्या लाभ ? निश्चिन्त हो छह मास तक एकान्तमें, अपने आपका अवलोकन तो कर देख,
हृदयरूपी सरोवरमें पुद्गलसे भिन्न तेजवाली आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होती है, या
अनुपलब्धि (अप्राप्ति)
।।३८।।
हे वत्स !स्वात्मसंवित्तिके बढ़ने पर क्या क्या बातें होती हैं, किस रूप परिणति
होने लगती है, आदि बातोंको सुन

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११९
इन्द्रजाल सम देख जग, आतमहित चित्त लाय,
अन्यत्र चित्त जाय जो, मनमां ते पस्ताय. ३९.
अन्वयार्थ :योगी [निःशेष जगत् ] समस्त जगतने [इन्द्रजालोपम् ] इन्द्रजाल
समान [निशामयति ] समजे छे (देखे छे), [आत्मलाभाय ] आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे
[स्पृहयति ] स्पृहा (अभिलाषा) करे छे अने [अन्यत्र गत्वा अनुतप्यते ] अन्यत्र (अन्य
विषयमां) लागी जाय, तो ते पश्चात्ताप करे छे.
टीका :‘योगी’ शब्द अन्त दीपक होवाथी बधे योजवो. (अर्थात् निशामयति,
स्पृहयति आदि क्रियापदो साथे तेने कर्ता तरीके योजवो.)
स्वात्म संवेदनमां जेने रस छे तेवो ध्याता (योगी) चर (जंगम), अचर (स्थावर)
रूप बाह्य वस्तु समूहने, इन्द्रिजालिक द्वारा बतावेला सर्प, हारादि पदार्थसमूह समान
देखे छे, कारण के अवश्य उपेक्षणीयपणाने लीधे (ते वस्तुओ) त्यागग्रहण (विषयक)
बुद्धिनो विषय छे; तथा ते आत्मलाभ माटे स्पृहा (इच्छा) करे छे. अर्थात् चिदानंदस्वरूप
आत्मानो अनुभव करवा इच्छे छे; तथा अन्यत्र अर्थात् स्वात्माने छोडी अन्य कोई पण
निशामयति निःशेषमिन्द्रजालोपं जगत्
स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।।३९।।
टीकायोगीत्यन्तदीपकत्वात्सर्वत्र योज्यः स्वात्मसंवित्तिरसिको ध्याता चरांचरं
बहिर्वस्तुजातमवश्योपेक्षणीयतया हानोपादानबुद्धिविषयत्वादिन्द्रजालिकोपदर्शितसर्पहारादिपदार्थसदृशं
पश्यति
तथात्मलाभाय स्पृहयति चिदानन्दस्वरूपमात्मानं संवेदयितुमिच्छति तथा अन्यत्र स्वात्म-
इन्द्रजाल सम देख जग, निज अनुभव रुचि लात
अन्य विषय में जात यदि, तो मनमें पछतात ।।३९।।
अर्थयोगी समस्त संसारको इन्द्रजालके समान समझता है आत्मस्वरूपकी
प्राप्तिके लिये अभिलाषा करता है तथा यदि किसी अन्य विषयमें उलझ जाता, या लग
जाता है तो पश्चात्ताप करता है
विशदार्थश्लोक नं. ४२में कहे गये ‘‘योगी योगपरायणः’’ शब्दको अन्त्यदीपक
होनेसे सभी ‘‘निशामयति स्पृहयति’’ आदि क्रियापदोंके साथ लगाना चाहिए स्वात्म-संवेदन
करनेमें जिसे आनन्द आया करता है, ऐसा योगी इस चर, अचर, स्थावर, जंगमरूप समस्त

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१२० ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
वस्तुमां, पूर्वना संस्कारादिवश मनवचनकायथी प्रवृत्ति करे तो त्यांथी हठी (पाछा वळी)
स्वयं ज पश्चात्ताप करे छे, के ‘अरे! माराथी अनात्मीन (आत्माने अहितरूप) अनुष्ठान
केम थयुं?’’ एवो पश्चात्ताप करे छे.
भावार्थ :जेने स्वात्मसंवेदनमां रस छेआनंद आवे छे तेने जगतना स्थावर
अने जंगमरूप समस्त बाह्य पदार्थो तथा इन्द्रियविषयो इन्द्रजाल समान निःसार तथा
विनश्वर प्रतीत थाय छे. तेने हवे सांसारिक विषयभोगनी इच्छा थती नथी, परंतु
आत्मस्वरूपनी ज प्राप्ति माटे प्रबल भावना रह्या करे छे.
आत्मस्वरूपने छोडी अन्य पदार्थो तरफ तेनी वृत्ति जती नथी, अने कदाच पूर्वना
संस्कारवश तथा पोतानी अस्थिरताने लीधे ते प्रति मनवचन काय द्वारा प्रवृत्त थई जाय,
तो त्यांथी तुरत पाछो हठी अफसोस करे छे के, ‘‘अरे! मारा स्वरूपथी च्युत थई, हुं
आत्मानुं अहित करी बेठो!’’ एम ते पश्चात्ताप करे छे अने आत्म
निन्दागर्हादि करी
पोतानी शुद्धि करे छे.
ज्ञानी जगतना पदार्थोने ज्ञेय समजी आत्मस्वरूपमां लीन रहे छेते वात दर्शावतां
आचार्य श्री अमितगतिए ‘सुभाषित रत्नसंदोह’ श्लोक ३३५मां कह्युं छे के
‘‘आ लक्ष्मी थोडा ज दिवस सुखदायक प्रतीत थाय छे. तरुण स्त्रीओ जुवानीमां ज
मनने अतुल आनंद आपे छे, विषयभोगो विजळी समान चंचळ छे अने शरीर
व्याधिओथी ग्रसित रहे छे. एम विचारी गुणवान ज्ञानी पुरुषो आत्मस्वरूपमां ज रत
(लीन) रहे छे.’’
*
व्यतिरिक्ते यत्र क्वापि वस्तुनि पूर्वसंस्कारादिवशात्मनोवाक्कायैर्गत्वा व्यावृत्य अनुतप्यते स्वयमेव,
आ कथं मयेदमनात्मीनमनुष्ठितमिति पश्चात्तापं करोति
बाहिरी वस्तु-समूहको त्याग और गृहण विषयक बुद्धिका अविषय होनेसे अवश्य उपेक्षणीय
रूप इन्द्रियजालियाके द्वारा दिखलाये हुए सर्प-हार आदि पदार्थोंके समूहके समान देखता
है
तथा चिदानन्दस्वरूप आत्माके अनुभवकी इच्छा करता है और अपनी आत्माको
छोड़कर अन्य किसी भी वस्तुमें पहिले संस्कार आदि कारणोंसे यदि मनसे, वचनसे, वा
कायासे, प्रवृत्ति कर बैठता है, तो वहाँसे हटकर खुद ही पश्चात्ताप करता है, कि ओह !
यह मैंने कैसा आत्माका अहित कर डाला
।।३९।।
* भवत्येषा लक्ष्मीः कतिपयदिनान्येव सुखदा तरुणयस्तारुण्ये विदघति मनःप्रीतिमतुलां
तडिल्लोलाभोगा वपुरविचलं व्याधिकलितं, बुधाः संचिन्त्येति प्रगुणमनसो ब्रह्मणि रताः ।।३३५।।
(सुभाषितरत्नसंदोहःश्री अमितगतिराचार्यः)

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १२१
तथा
चाहे गुप्त निवासने, निर्जन वनमां जाय,
कार्यवश जो कंई कहे, तुर्त ज भूली जाय. ४०.
अन्वयार्थ :[निर्जनं जनितादरः ] निर्जनता माटे जेने आदर उत्पन्न थयो छे, तेवो
योगी [एकान्तसंवासं इच्छति ] एकान्तवासने इच्छे छे अने [निजकार्यवशात् ] निज कार्यवश
[किंचित् उक्त्वा ] कंईक बोली गयो होय, तो ते [द्रुतं ] जलदी [विस्मरति ] भूली जाय छे.
टीका :एकान्तमां स्वभावथी निर्जन एवा पर्वत, वनादिमां संवासअर्थात् गुरु
आदि साथे रहेवानी अभिलाषा करे छे. केवो थईने? जेने (निर्जन स्थान माटे आदर
उत्पन्न थयो छे) तथा लोकोनुं मनोरंजन करनार चमत्कारी मंत्र
आदिना प्रयोगनी वातोनी
निवृत्ति अर्थे (प्रयोगनी वातो बंध करवा माटे) जेणे प्रयत्न कर्यो छे, तेवो तेकोने माटे
(आदर) छे? निर्जन स्थान माटे अर्थात् लोकना अभाव माटेस्वार्थवश लाभ
तथा
इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः
निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतं ।।४०।।
टीकाएकान्ते स्वभावतो निर्जने गिरिगहनादौ संवासं गुर्वादिभिः
सहावस्थानमभिलषति किं विशिष्टः सन् ? जनितादरो जनमनोरञ्जनचमत्कारिमन्त्रादिप्रयोग-
वार्त्तानिर्वृत्तौ कृतप्रयत्नः कस्मै ? निर्जनं जनाभावाय स्वार्थवशाल्लाभालाभादिप्रश्नार्थं
आत्मानुभवीके और भी चिन्होंको दिखाते हैं
निर्जनता आदर करत, एकांत सुवास विचार
निज कारजवश कुछ कहे, भूल जात उस बार ।।४०।।
अर्थनिर्जनताको चाहनेवाला योगी एकान्तवासकी इच्छा करता है, और निज
कार्यके वशसे कुछ कहे भी तो उसे जल्दी भुला देता है
विशदार्थलोगोंके मनोरंजन करनेवाले चमत्कारी मन्त्रतन्त्र आदिके प्रयोग
करनेकी वार्ताएँ न कि या करें, इसके लिये अर्थात् अपने मतलबसे लाभ-अलाभ आदिकके
प्रश्न पूछनेके लिए आनेवाले लोगोंको मना करनेके लिए किया है प्रयत्न जिसने ऐसा योगी

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१२२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अलाभादिना प्रश्नो पूछवा माटे पासे आवता लोकोने निषेध करवा माटे (मनाई करवा
माटे तेने निर्जन स्थान माटे आदर छे)
एवो अर्थ छे.
ध्यानथी ज लोक चमत्कारी अतिशयो थाय छे; तथा
‘तत्त्वानुशासन’श्लोक ८७मां कह्युं छेः
‘गुरुनो उपदेश प्राप्त करी निरंतर अभ्यास करनार धारणाना सौष्ठवथी (पोतानी
सम्यक् अने सुद्रढ अवधारण शक्तिना बळथी), ध्यानना प्रत्ययो (लोक चमत्कारी अतिशयो)
देखे छे.’
तथा पोताने अवश्य करवा योग्य भोजनादिनी परतंत्रताना कारणे कंईकथोडुंक
श्रावकादिने कहे छे, ‘‘अहो! अहो आ. अहो ए करो,’’ इत्यादि कहीने ते क्षणे ज ते
भूली जाय छे. ‘भगवन्! शो हुकम छे?’ एम श्रावकादि पूछे छे, छतां ते कंई उत्तर
आपता नथी.
लोकमुपसर्यन्तं निषेधुमित्यर्थः ध्यानाद्धि लोकचमत्कारिणः प्रत्ययाः स्युः
तथाचोक्तम्, [तत्त्वानुशासने ]
‘‘गुरूपदेशामासाद्य समभ्यस्यन्ननारतम्
घारणासौष्ठवाध्यानप्रत्ययानपि पश्यति’’ ।।८७।।
तथा स्वस्वावश्यकरणीयभोजनादिपारतन्त्र्यात्किंचिदल्पमसमग्रं श्रावकादिकं प्रति अहो इति
अहो इदं कुर्वनित्यादि भाषित्वा तत्क्षण एव विस्मरति भगवन् ! किमादिश्यत इति श्रावकादौ
पृच्छति सति न किमप्युत्तरं ददाति
स्वभावसे ही जनशून्य ऐसे पहाड़ोंकी गुफाकन्दरा आदिकोंमें गुरुओंके साथ रहना चाहता
है ध्यान करनेसे लोक-चमत्कार बहुतसे विश्वास व अतिशय हो जाया करते हैं, जैसा
कि कहा गया है‘‘गुरूपदेशमासाद्य’’
‘‘गुरुसे उपदेश पाकर हमेशा अच्छी तरह अभ्यास करते रहनेवाला, धारणाओंमें
श्रेष्ठता प्राप्त हो जानेसे ध्यानके अतिशयोंको भी देखने लग जाता है ’’ अपने शरीरके लिये
अवश्य करने योग्य जो भोजनादिक, उसके वशसे कुछ थोड़ासा श्रावकादिकोंसे ‘‘अहो,
देखो, इस प्रकार ऐसा करना, अहो, और ऐसा, यह इत्यादि’’ कहकर उसी क्षण भूल
जाता है
भगवन् ! क्या कह रहे हो ? ऐसा श्रावकादिकोंके द्वारा पूछे जाने पर योगी कुछ
भी जवाब नहीं देता तथा।।४०।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १२३
भावार्थ :स्वपरना भेदविज्ञानना अभ्यासना बळे ज आत्माने स्वात्मानुभवनुं
वेदन थाय छे, त्यारे ते लोकोने रंजन करे तेवा मंत्रतंत्रना प्रयोगनी वातोथी दूर रहेवा
माटे तथा लोको पोताना स्वार्थनी खातर लाभालाभना प्रश्नो पूछी तेने आत्मध्यानमां खलेल
न करे, ते माटे ते आदरपूर्वक निर्जन स्थानमां रहेवा इच्छे छे.
भोजनादिनी परतंत्रताने लीधे तेने निर्जन स्थान छोडी आहारार्थे श्रावकोनी वस्तीमां
जवुं पडे, तो कार्यवशात् अल्प वचनालाप पण करे छे, परंतु आहार लई पोताना स्थाने
आवी ज्यारे ते स्वरूप
चिन्तनमां लीन थई जाय छे, त्यारे ते वचनालाप संबंधी सर्व भूली
जाय छे. कोई पूछे तोपण ते कांई उत्तर आपता नथी.
तथा
देखे पण नहीं देखता, बोले छतां अबोल,
चाले छतां न चालता, तत्त्वस्थित अडोल. ४१
अन्वयार्थ :[स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु ] जेणे आत्मतत्त्वना विषयमां स्थिरता प्राप्त
करी छे ते [ तु ब्रवन् अपि न ब्रुते ] बोलतो होवा छतां बोलतो नथी, [गच्छन् अपि न गच्छति ]
चालतो होवा छतां चालतो नथी अने [पश्यन् अपि न पश्यति ] देखतो होवा छतां देखतो
नथी.
टीका :जेणे आत्मतत्त्वना विषयमां स्थिरता प्राप्त करीअर्थात् जेणे
आत्मस्वरूपने द्रढ प्रतीतिनो विषय बनाव्यो छे, तेवो योगी संस्कारवश या बीजाना
तथा
ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति
स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ।।४१।।
टीकास्थिरीकृतात्मतत्त्वो दृढप्रतीतिगोचरीकृतस्वस्वरूपो योगी संस्कारवशात्परोपरोधेन
देखत भी नहिं देखते, बोलत बोलत नाहिं
दृढ़ प्रतीत आतममयी, चालत चालत नाहिं ।।४१।।
अर्थजिसने आत्म-स्वरूपके विषयमें स्थिरता प्राप्त कर ली है, ऐसा योगी बोलते
हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता, और देखते हुए भी नहीं देखता है
विशदार्थजिसने अपनेको दृढ़ प्रतीतिका विषय बना लिया है, ऐसा योगी

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१२४ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
उपरोधथी (अनुरोधथी) बोलतो होवा छतां अर्थात् धर्मादिकनुं व्याख्यान करतो होवा छतां
न ते योग सहित छे (योगमां स्थित छे
एवो अपि शब्दनो अर्थ छे). पण ते बोलतो
ज नथीभाषण करतो ज नथी. कारण के तेने (योगीने) बोलवा तरफ अभिमुखपणानो
अभाव छे.
‘समाधितन्त्र’श्लोक ५०मां कह्युं छे केः
(अन्तरात्मा) आत्मज्ञानथी भिन्न अन्य कार्यने पोतानी बुद्धिमां चिरकाल तक
(लांबा समय सुधी) धारण करे नहि. जो प्रयोजनवशात् ते वचनकायथी कंई पण करवानो
विकल्प करे तो ते अतत्पर थई करे.’’
तथा (योगी) भोजन माटे जतो होवा छतां जतो नथी अने सिद्ध प्रतिमादिकने
देखतो होवा छतां देखतो ज नथी, ए ज एनो अर्थ छे.
भावार्थ :जे योगीए आत्मस्वरूपने पोतानी द्रढ प्रतीतिनो विषय बनाव्यो छे
अर्थात् आत्मस्वरूपना विषयमां स्थिरता प्राप्त करी छे, तेने संस्कारवश या बीजाना
ब्रुवन्नपि धर्मादिकं भाषमाणोऽपि (न केवलं योगेन तिष्ठति ह्यपि शब्दार्थः) न ब्रूते हि न
भाषत एव तत्राभिमुख्याभावात्
उक्तं च [समाधितंत्रे ]
‘‘आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्
कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः’’ ।।५०।।
तथा भोजनार्थं व्रजन्नपि न व्रजत्यपि तथा सिद्धप्रतिमादिकमवलोकयन्नपि
नावलोकयत्येवतुरेवार्थः
संस्कारोंके वशसे या दूसरोंके संकोचसे धर्मादिकका व्याख्यान करते हुए भी नहीं बोल रहा
है, ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि उनको बोलनेकी ओर झुकाव या ख्याल नहीं होता
जैसा
कि कहा है‘‘आत्मज्ञानात्परं कार्यं’’
‘‘आत्म-ज्ञानके सिवा दूसरे कार्यको अपने प्रयोगमें चिरकाल-तक ज्यादा-देर तक
न ठहरने देवे किसी प्रयोजनके वश यदि कुछ करना पड़े, तो उसे अतत्पर होकर-
अनासक्त होकर वाणी व शरीरके द्वारा करे इसी प्रकार भोजनके लिए जाते हुए भी
नहीं जा रहा है, तथा सिद्ध प्रतिमादिकोंको देखते हुए भी नहीं देख रहा है, यही समझना
चाहिए
फि र।।४१।।

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कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १२५
अनुरोधथी कांई बोलवुं पडे या धार्मिक उपदेश देवो पडे, छतां ते कार्यमां तेनी बुद्धिपूर्वक
प्रवृत्ति नहि होवाथी ते उपदेश देतो होवा छतां ते उपदेश देतो नथी.
ज्ञानीने कार्यवशात् कोई कार्यमां प्रवृत्ति करवी पडे तो कार्यसमये पण ते पोताना
ज्ञानस्वरूपी आत्माने चूकतो नहि होवाथी, तेने ते कार्य प्रति बुद्धिपूर्वक झुकाव
(अभिमुखपणुं)
होतुं नथी, तेथी ते बाह्य कार्य करतो जणातो होवा छतां, वास्तवमां ते
कार्य करतो नथी. ज्ञानीनी बधी क्रियाओ रागना स्वामित्व रहित होय छे, तेथी तेनी बधी
बाह्य क्रियाओ नहि कर्या समान छे. ४१. तथा
कोनुं, केवुं, क्यां, कहीं, आदि विकल्प विहीन,
जाणे नहि निज देहने, योगी आतमलीन. ४२.
अन्वयार्थ :[योगपरायणः ] योगपरायण (ध्यानमां लीन) [योगी ] योगी, [किम्
इदं ] आ शुं छे? [कीदृशं ] केवुं छे? [कस्य ] कोनुं छे? [कस्मात् ] शाथी छे? [क्व ] क्यां
छे? [इति अविशेषयन् ] इत्यादि भेदरूप विकल्पो नहि करतो थको [स्वदेहम् अपि ] पोताना
शरीरने पण [न अवैति ] जाणतो नथी (तेने पोताना शरीरनो पण ख्याल रहेतो नथी).
टीका :आ अनुभवमां आवतुं आध्यात्मिक तत्त्व (अन्तसत्त्व) शुं छे? केवा
स्वरूपवाळुं छे? केवुं छे? कोना जेवुं छे? तेनो स्वामी कोण छे? कोनाथी छे? क्यां छे?
तथा
किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वेत्यविशेषयन्
स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ।।४२।।
टीकाइदमध्यात्ममनुभूयमानं तत्त्वं किं किंरूपं कीदृशं केन सदृशं कस्य स्वामिकं
कस्मात्कस्य सकाशात्क्व कस्मिन्नस्तीत्यविशेषयन् अविकल्पयन्सन् योगपरायणः समरसीभावमापन्नो
क्या कैसा किसका किसमें, कहाँ यह आतम राम
तज विकल्प निज देह न जाने, योगी निज विश्राम ।।४२।।
अर्थध्यानमें लगा हुआ योगी यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? क्यों है ?
कहाँ है ? इत्यादिक विकल्पोंको न करते हुए अपने शरीरको भी नहीं जानता
विशदार्थयह अनुभवमें आ रहा अन्तस्तत्त्व, किस स्वरूपवाला है ? किसके
सदृश है ? इसका स्वामी कौन है ? किससे होता है ? कहाँ पर रहता है ? इत्यादिक

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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इत्यादि भेद नहि पाडतो अर्थात् विकल्पो नहि करतो योगपरायणअर्थात् समरसीभावने
प्राप्त थयेलोयोगी पोताना शरीरनो पण ख्याल करतो नथी, तो शरीरथी भिन्न हितकारी
या अहितकारी वस्तुओनी चिंता करवानी तो वात ज शुं?
तथा ‘तत्त्वानुशासन’श्लोक १७२मां कह्युं छे केः
‘ते वखते (समाधिकालमां) आत्मामां आत्माने ज देखनार योगीने बाह्यमां पदार्थो
होवा छतां परम एकाग्रताना कारणे (आत्मा सिवाय) अन्य कांईपण भासतुं नथी (मालूम
पडतुं नथी).
भावार्थ :ज्यारे योगी ध्यानमां लीन होय छे, त्यारे ते समरसी भावनो अनुभव
करे छेअर्थात् निजानंदरसनुं पान करे छे. आत्मस्वरूपना अनुभव काळे ते आत्मतत्त्व
संबंधी. ते शुं छे? क्यां छे? इत्यादि संकल्पविकल्पोथी रहित होय छे. आ निर्विकल्प
दशामां तेने पोताना शरीर तरफ उपयोग जतो नथी, तो शरीरथी भिन्न अन्य पदार्थोनी
तो वात ज शुं करवी? अर्थात् बाह्य पदार्थो होवा छतां परम एकाग्रताने लीधे तेनो तेने
कांई पण अनुभव थतो नथी.
भेदविज्ञान द्वारा शरीरादिथी ममत्व हठावी ज्यारे योगी आत्मस्वरूपमां स्थिर थई
आनंदमग्न होय छे; त्यारे क्षुधातृषादिथी के उपसर्गपरीषहादिथी खेदखिन्न थतो नथी.
योगी स्वदेहमपि न चेतयति का कथा हिताहितदेहातिरिक्तवस्तुचेतनायाः
तथा चोक्तम् [तत्त्वानुशासने ]
‘‘तदा च परमैकाग्रूयाद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि
अन्यन्न किञ्चनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यत.’’ ।।१७२।।
विकल्पोंको न करता हुआ, किन्तु समरसीभावको प्राप्त हुआ योगी जो अपने शरीरतकका
भी ख्याल नहीं रखता, उसकी चिन्ता व परवाह नहीं करता, तब हितकारी या अहितकारी
शरीरसे भिन्न वस्तुओंकी चिन्ता करनेकी बात ही क्या ? जैसा कि कहा गया है
‘‘तदा
च परमैका’’
यहाँ पर शिष्य कहता है, कि भगवन् ! मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसी विलक्षण
विभिन्न दशाका हो जाना कैसे सम्भव है ?
उस समय आत्मामें आत्माको देखनेवाले योगीको बाहिरी पदार्थोंके रहते हुए भी
परम एकाग्रता होनेके कारण अन्य कुछ नहीं मालूम पड़ता है ।।४२।।