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उपायमां स्वने (आत्माने) प्रयुक्त करतो (योजतो) होवाथी, ‘आ सुदुर्लभ मोक्षसुखना
उपायमां, हे दुरात्मन् आत्मा! तुं स्वयं आज सुधी प्रवृत्त थयो नहि’ ए रीते त्यां
(उपायमां) अप्रवृत्त आत्माने प्रवर्तावनार होवाथी (आत्मा ज आत्मानो गुरु छे).
पोताने मोक्षसुखना उपायमां योजे छे (लगावे छे).
कोई गुरु नथी.’
प्रवृत्त नहीं हुए
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भाव छे, परंतु एम नथी, कारण के एम कहेवामां अपसिद्धान्तनो प्रसंग आवे छे.
सेवा मुमुक्षुओंको नहीं करनी होगी
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तो ज्ञानरूपी प्रदीपथी जेमणे मोहरूपी महान्धकारनो नाश करी दीधो छे एवा सम्यग्द्रष्टि
‘‘
चलायमान नहीं होते
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थशे नहि).
छे; तेना विकलपणामां (एटले पदार्थोमां गमन प्रति उन्मुखता न होय त्यारे) तेमां कोईथी
(कांई) करवुं अशक्य छे (अर्थात् तेमां कोई गति उत्पन्न करी शके नहि). धर्मास्तिकाय
तो गति
वे कभी भी चलायमान नहीं हो सकते हैं
कार्यके उत्पादनमें तथा विध्वंसनमें सिफ र् निमित्तमात्र हैं
शक्ति है
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ज (ते समयनी योग्यता ज) कार्यनुं साक्षात् उपादान कारण छे.
अनुकूळ कयुं निमित्त हतुं, तेनुं ज्ञान करावी तेना तरफनुं वलण छोडाववा माटे छे, एम
समजवुं.
करी शकाती नथी.’+
तो ते सदा धर्मास्तिकायवत् उदासीन निमित्तमात्र छे.
तेथी बधाये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे.
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नियमादिरूपे अभ्याससंबंधी उपदेश करवामां आवे छे
समजवुं). ३५.
शिष्यना बोध माटे गुरु कहे छेः
है
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एटले योग्य खाली गृहादिमां. केवा प्रकारनो थईने? जेना चित्तमां
तेवा कायोत्सर्गादि द्वारा व्यवस्थित
सन्
साध्यभूत वस्तुमें भले प्रकारसे
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शकाय?
हुए अभ्यास करे
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(रमणीक) इन्द्रियविषयो पण भोग्यबुद्धिने उत्पन्न करी शकता नथी. (भोगववायोग्य छे,
एवी बुद्धि
लोकेऽप्यनादरणीयत्वदर्शनात्
ही प्राप्त होनेवाले रमणीक इन्द्रिय विषय भी योग्य बुद्धिको पैदा नहीं कर पाते हैं
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माछलीओना अंगने जमीन ज बाळे छे, तो अग्निना अंगारानी तो वात ज शुं! (ते
तो तेने बाळी ज नाखे).
पामे छे (वृद्धि पामे छे).
रम्य विषयो तरफथी पण तेनुं मन हठतुं जाय छे, अर्थात् सुंदर लागता विषयो पण तेने
आकर्षी शकता नथी. जेने भोजन पण सारुं लागे नहि, तेने विषय भोग केम रुचे? कारण
के आध्यात्मिक आनंद आगळ विषय
करनेवाले कारणोंके प्रति कोई आदर या ग्राह्य-भाव नहीं रहता है
हैं ? अर्थात् उन्हें अन्य विषय-भोग रुचिकर प्रतीत नहीं हो सकते
क्या ? वे तो जला ही देंगे
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अनादर (अरुचि) थाय छे.
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अभ्यास कर अने जो (तपास) के एम करवाथी पोताना हृदय
शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे. ३८.
स्वयमपि निभृतः सन्पश्य षण्मासमेकं
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः’’
अनुपलब्धि (अप्राप्ति)
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आत्मानो अनुभव करवा इच्छे छे; तथा अन्यत्र अर्थात् स्वात्माने छोडी अन्य कोई पण
पश्यति
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केम थयुं?’’ एवो पश्चात्ताप करे छे.
आत्मानुं अहित करी बेठो!’’ एम ते पश्चात्ताप करे छे अने आत्म
(लीन) रहे छे.’’
आ कथं मयेदमनात्मीनमनुष्ठितमिति पश्चात्तापं करोति
रूप इन्द्रियजालियाके द्वारा दिखलाये हुए सर्प-हार आदि पदार्थोंके समूहके समान देखता
है
कायासे, प्रवृत्ति कर बैठता है, तो वहाँसे हटकर खुद ही पश्चात्ताप करता है, कि ओह !
यह मैंने कैसा आत्माका अहित कर डाला
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उत्पन्न थयो छे) तथा लोकोनुं मनोरंजन करनार चमत्कारी मंत्र
प्रश्न पूछनेके लिए आनेवाले लोगोंको मना करनेके लिए किया है प्रयत्न जिसने ऐसा योगी
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माटे तेने निर्जन स्थान माटे आदर छे)
देखे छे.’
भूली जाय छे. ‘भगवन्! शो हुकम छे?’ एम श्रावकादि पूछे छे, छतां ते कंई उत्तर
आपता नथी.
देखो, इस प्रकार ऐसा करना, अहो, और ऐसा, यह इत्यादि’’ कहकर उसी क्षण भूल
जाता है
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न करे, ते माटे ते आदरपूर्वक निर्जन स्थानमां रहेवा इच्छे छे.
आवी ज्यारे ते स्वरूप
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न ते योग सहित छे (योगमां स्थित छे
है, ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि उनको बोलनेकी ओर झुकाव या ख्याल नहीं होता
चाहिए
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प्रवृत्ति नहि होवाथी ते उपदेश देतो होवा छतां ते उपदेश देतो नथी.
(अभिमुखपणुं)
बाह्य क्रियाओ नहि कर्या समान छे. ४१. तथा
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पडतुं नथी).
तो वात ज शुं करवी? अर्थात् बाह्य पदार्थो होवा छतां परम एकाग्रताने लीधे तेनो तेने
कांई पण अनुभव थतो नथी.
भी ख्याल नहीं रखता, उसकी चिन्ता व परवाह नहीं करता, तब हितकारी या अहितकारी
शरीरसे भिन्न वस्तुओंकी चिन्ता करनेकी बात ही क्या ? जैसा कि कहा गया है