कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १९
‘‘मुञ्चांङ्गं ग्लपयस्यलं क्षिप कुतोऽप्यक्षाश्च विद्भात्यदो,
दूरे धेहि न हृष्य एव किमभूरन्या न वेत्सि क्षणम् ।
स्थेयं चेद्धि निरुद्धि गामिति तबोद्योगे द्विषः स्त्री क्षिपं –
त्याश्लेषक्रमुकांगरागललितालापैर्विधित्सू रतिम् (?) ।।’’
विशदार्थ — ये प्रतीत (मालूम) होनेवाले जितने इन्द्रियजन्य सुख व दुःख हैं, वे
सब वासनामात्र ही हैं । देहादिक पदार्थ न जीवके उपकारक ही हैं और न अपकारक ही ।
अतः परमार्थसे वे (पदार्थ) उपेक्षणीय ही हैं । किंतु तत्त्वज्ञान न होनेके कारण — ‘यह मेरे
लिए इष्ट है — उपकारक होनेसे’ तथा ‘यह मेरे लिए अनिष्ट है — अपकारक होनेसे ।’ ऐसे
विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कार जिन्हें वासना भी कहते हैं — इस जीवके हुआ करते हैं । अतः
ये सुख-दुःख विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कारमात्र ही हैं, स्वाभाविक नहीं । ये सुख-दुःख
उन्हींको होते हैं, जो देहको ही आत्मा माने रहते हैं । ऐसा कथन अन्यत्र भी पाया जाता
है — ‘‘मुंचांगं’’
अर्थ — इस श्लोकमें दम्पतियुगलके वार्तालापका उल्लेख कर यह बतलाया गया
है, कि ‘वे विषय जो पहिले अच्छे मालूम होते थे, वे ही मनके दुःखी होने पर बुरे मालूम
होते हैं ।’ घटना इस प्रकार है — पति-पत्नी दोनों परस्परमें सुख मान, लेटे हुए थे कि
पति किसी कारणसे चिंतित हो गया । पत्नी पतिसे आलिंगन करनेकी इच्छासे अंगोंको
चलाने और रागयुक्त वचनालाप करने लगी । किन्तु पति जो कि चिंतित था, कहने लगा
‘‘मेरे अंगोंको छोड़, तू मुझे संताप पैदा करनेवाली है । हट जा । तेरी इन क्रियाओंसे मेरी
छातीमें पीड़ा होती है । दूर हो जा । मुझे तेरी चेष्टाओंसे बिलकुल ही आनन्द या हर्ष नहीं
हो रहा है ।’’
[आ श्लोकमां एक युगलना वार्तालाप द्वारा ए बताव्युं छे, के जे विषयो पहेलां
सुखकर लागता हता, ते हवे मन दुःखी थतां दुःखकर लागे छे. चिंतामग्न पति पोतानी
स्त्रीने कहेवा लाग्यो — ]
‘‘मारा अंगने छोड, तुं मने संताप पेदा करे छे, हठी जा, मने आनंद थतो नथी;
तारी आ क्रियाओथी मारी छातीमां पीडा थाय छे, दूर जा; त्यारे पत्नी टोणो मारती कहे
छे, ‘‘शुं बीजी स्त्री साथे प्रीति करी छे?’’ पति कहे छे, ‘‘तुं समय जोती नथी. जो धैर्य
होय तो प्रयत्नथी इन्द्रियोने वशमां राख’’ — एम कही ते पत्नीने दूर करी दे छे.