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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इष्टानिष्टार्थानुभवानन्तरमुद्भूतः स्वसंवेद्य आभिमानिकः परिणामः । वासनैव, न
स्वाभाविकमात्मस्वरूपमित्यन्ययोगव्यवच्छेदार्थो मात्र इति, स्वयोगव्यवस्थापकश्चैव शब्दः ।
केषामेतदेवंभूतमस्तीत्याह — देहिनां — देह एवात्मत्वेन गृह्यमाणो अस्ति येषां ते देहिनो
बहिरात्मानस्तेषाम् । एतदेव समर्थयितुमाह — तथा हीत्यादि । उक्तार्थस्य दृष्टान्तेन समर्थनार्थस्तथा
हीति शब्द । उद्वेजयन्ति उद्वेगं कुर्वन्ति, न सुखयन्ति, के ते ? एते सुखजनकत्वेन लोके प्रतीता
भोगा रमणीयरमणीप्रमुखाः इन्द्रियार्थाः । क इव ? रोगा इव ज्वरादिव्याधयो यथा । कस्यां
सत्यामापाद – दुर्निवारवैरिप्रभृतिसंपादितदौर्मनस्य लक्षणायां विपदि । तथा चोक्तम् —
ऐसे कमनीय कामिनी आदिक भोग भी आपत्ति (दुर्निवार, शत्रु आदिके द्वारा की गई
बेचेनी)के समयमें रोगों (ज्वरादिक व्याधियों)की तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले
होते हैं । यही बात सांसारिक प्राणियोंके सुख-दुःखके सम्बन्धमें है ।
मने उपकारक होवाथी इष्ट छे अने अपकारक होवाथी अनिष्ट छे’ एवा विभ्रमथी उत्पन्न
थयेलो संस्कार ते वासना छे. ते (वासना) इष्ट – अनिष्ट पदार्थोना अनुभवना अनन्तरे
उत्पन्न थयेलो स्वसंवेद्य अभिमानयुक्त परिणाम छे. ते वासना ज छे, स्वाभाविक
आत्मस्वरूप नथी.
एम अन्यना योगनो व्यवच्छेद (अभाव) दर्शाववाना अर्थमां ‘मात्र’ शब्द छे अने
स्वनो योग (संबंध) जणाववाना अर्थमां ‘एव’ शब्द छे.
(शिष्ये) पूछ्युं — आवुं (सुख – दुःख) कोने होय छे? देहधारीओने अर्थात् देहने
ज जेओ आत्मा तरीके ग्रहण करे छे, ते देही बहिरात्माओ – तेमने (तेवी सुख – दुःखनी
कल्पना होय छे).
आना ज समर्थनमां कहे छे — तथाहित्यादि ।
उक्त अर्थना द्रष्टान्त द्वारा समर्थन माटे ‘तथाहि’ शब्द छे.
उद्वेलित करे छे, एटले उद्वेग करे छे – सुखी करता नथी. कोण ते? ‘ते सुख उत्पन्न
करे छे’ एम लोकमां प्रतीत थयेला (मानवामां आवेला) भोगो – अर्थात् रमणीय स्त्री आदि
इन्द्रिय – पदार्थो. कोनी माफक (उद्वेग करे छे)? रोगोनी माफक – ज्वरादि व्याधिओनी जेम.
शुं होतां? आपत्ति आवी पडतां – अर्थात् दुर्निवार शत्रु आदि द्वारा करवामां आवेली
चित्तक्षोभ लक्षणवाळी विपत्ति आवी पडतां; तथा कह्युं छे के —