कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १७
एवं च संसारसुखे एव निर्बन्धं कुर्वन्तं प्रबोध्यं तत्सुखदुःखस्य भ्रांतत्वप्रकाशनाय आचार्यः
प्रबोधयति —
वासनामात्रमेवैतत्सुखं दुःखं च देहिनाम् ।
तथाह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ।।६।।
टीका — एतत् प्रतीयमानमैंद्रियकं सुखं दुःखं चास्ति । कीदृशं ? वासनामात्रमेव,
जीवस्योपकारकत्वापकारकत्वाभावेन परमार्थतो देहादावुपेक्षणीये । तत्त्वानवबोधादिदं
ममेष्टमुपकारकत्वादिदं चानिष्टमपकारकत्त्वादिति विभ्रमाज्जातः संस्कारो वासना,
संसार सम्बन्धी सुखमें ही सुखका आग्रह करनेवाले शिष्यको ‘संसार सम्बन्धी सुख
और दुःख भ्रान्त हैं ।’ यह बात बतलानेके लिए आचार्य आगे लिखा हुआ श्लोक कहते
हैं —
विषयी सुख दुःख मानते, है अज्ञान प्रसाद ।
भोग रोगवत् कष्टमें, तन मन करत विषाद ।।६।।
अर्थ — देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पना (वासना
या संस्कार) जन्य ही है । देखो ! जिन्हें लोकमें सुख पैदा करनेवाला समझा जाता है,
एवी रीते संसार संबंधी सुखनो ज आग्रह राखता शिष्यने संसार संबंधी
सुखदुःखनुं भ्रान्तिपणुं प्रकाशवा माटे आचार्य प्रबोधे छे (समजावे छे)ः —
सुखदुःख संसारीनां, वासना जन्य तुं मान,
आपदमां दुःखकार ते, भोगो रोग समान. ६
अन्वयार्थ : — [देहिनां ] देहधारीओनां [एतत् सुखं दुःख च ] ते सुख तथा दुःख
[वासनामात्रम् एव ] केवल वासना – मात्र ज होय छे. [तथा हि ] वळी [एते भोगाः ] ते (सुख-
दुःखरूप) (भोगो) [आपदि ] आपत्तिना समये [रोगाः इव ] रोगोनी जेम (प्राणीओने)
[उद्वेजयन्ति ] उद्वेलित (आकुलित) करे छे.
टीका : — प्रतीति करवामां आवतां ते इन्द्रियजनित सुख – दुःख छे. (ते) केवां छे?
(ते) केवल वासनामात्र ज छे. जीवने (देहादि पदार्थो) उपकारक तथा अपकारक नहि
होवाथी, परमार्थे देहादि (पदार्थ) विषे ते उपेक्षणीय छे. तेमां तत्त्वज्ञानना अभावे, ‘आ