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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दुत्कर्षं प्रापितम् । तर्हि क्व केषामिव तदित्याह, नाके नाकौकसामिव स्वर्गे देवानां यथा
अनन्योपममित्यर्थः ।
अत्र शिष्यः प्रत्यवतिष्ठते — यदि स्वर्गेऽपि सुखमुत्कृष्टं किमपवर्गप्रार्थनयेति । भगवन् !
यदि चेत् — स्वर्गेऽपि न केवलमपवर्गे — सुखमस्ति, कीदृशं ? उत्कृष्टं मर्त्यादिसुखातिशायि, तर्हि
किं कार्यं ? कया ? अपवर्गस्य मोक्षस्य प्रार्थनया — अपवर्गो मे भूयादित्यभिलाषेण ।
जाता है, जैसे ‘‘भैया ! राम-रावणका युद्ध तो राम-रावणके युद्ध समान ही था ।
रामरावणोर्युद्धं रामरावणयोरिव ।’’
अर्थात् इस पंक्तिमें युद्ध सम्बन्धी भयंकरताकी पराकाष्ठाको जैसा द्योतित किया गया
है । ऐसा ही सुखके विषयमें समझना चाहिए ।।५।।
शंका – इस समाधानको सुन, शिष्यको पुनः शंका हुई और वह कहने लगा —
‘‘भगवन् ! न केवल मोक्षमें, किन्तु यदि स्वर्गमें भी, मनुष्यादिकोंसे बढ़कर उत्कृष्ट सुख
पाया जाता है, तो फि र ‘‘मुझे मोक्षकी प्राप्ति हो जावे’’ इस प्रकारकी प्रार्थना करनेसे क्या
लाभ ?’’
‘त्यारे क्यां कोना जेवुं ते (सुख) छे?’ — एम (शिष्ये) पूछ्युं.
स्वर्गमां निवास करनारा देवोनुं सुख, स्वर्गवासी देवोना (सुख) जेवुं होय छे,
अर्थात् ते सुख अनन्योपम (जेनी उपमा बीजा कोई साथे थई शके नहि तेवुं) होय छे,
तेवो अर्थ छे.
भावार्थ : — आ स्वर्गीय सुख अतीन्द्रिय नथी पण इन्द्रियजनित छे, छतां ते
इन्द्रियजनित सुखोमां अनुपम छे, कारण के राज्यादिना सुख जेवुं चित्तक्षोभ करे तेवुं नथी
अने देवो ते सुख पोतानी देवीओ साथे सागरोपम काल सुधी भोगवे छे; भोगभूमिना
सुख जेवुं ते अल्पकालीन नथी. ५.
अहीं शिष्य पूर्वपक्ष लई पूछे छे, ‘‘जो स्वर्गमां पण सुख उत्कृष्ट होय तो मोक्ष
माटे प्रार्थनानी शी जरूर? भगवन्! न केवल मोक्षमां, किन्तु स्वर्गमां पण सुख होय –
केवुं? उत्कृष्ट – मनुष्यादिना सुखने टपी जाय तेवुं होय — तो (तेनुं) शुं प्रयोजन? कोनुं?
‘मने मोक्ष हो (मोक्षनी प्राप्ति हो)’ एवी अपवर्ग एटले मोक्षनी अभिलाषारूप प्रार्थनानुं
(शुं प्रयोजन)?