कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १५
किमतीन्द्रियं ? तन्नेत्याह — हृषीकजं हृषीकेभ्यः समीहितानन्तरमुपस्थितं निजं निजं विषय-
मनुभवद्भयः स्पर्शनादींद्रियेभ्यः सर्वांगीणाह्लादनाकारतया प्रादुर्भूतं तथापि राज्यादिसुखवत्सातंकं
भविष्यतीत्याशंकापनोदार्थमाह — अनातंकं, न विद्यते आतंकः प्रतिपक्षादिकृतश्चित्तक्षोभो यत्र
तथापि भोगभूमिजसुखवदल्पकालभोग्यं भविष्यतीत्याशंकायामाह — दीर्घकालोपलालितं — दीर्घ-
कालं सागरोपमपरिछिन्नकालं यावदुपलालितमाज्ञाविधेयदेवदेवीर्विलासिनीभिः क्रियमाणोपचारत्वा-
विशदार्थ — हे बालक ! स्वर्गमें निवास करनेवालोंको न कि स्वर्गमें पैदा होनेवाले
एकेन्द्रियादि जीवोंको । स्वर्गमें, न कि क्रीड़ादिकके वशसे रमणीक पर्वतादिमें ऐसा सुख
होता है, जो चाहनेके अनन्तर ही अपने विषयको अनुभव करनेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियोंसे
सर्वांगीण हर्षके रूपमें उत्पन्न हो जाता है। तथा जो आतंक (शत्रु आदिकोंके द्वारा किये
गये चित्तक्षोभ)से भी रहित होता है, अर्थात् वह सुख राज्यादिकके सुखके समान
आंतकसहित नहीं होता है । वह सुख भोगभूमिमें उत्पन्न हुए सुखकी तरह थोड़े कालपर्यन्त
भोगनेमें आनेवाला भी नहीं है । वह तो उल्टा, सागरोपम काल तक, आज्ञामें रहनेवाले
देव-देवियोंके द्वारा की गई सेवाओंसे समय-समय बढ़ा चढ़ा ही पाया जाता है ।
‘स्वर्गमें निवास करनेवाले प्राणियोंका (देवोंका) सुख स्वर्गवासी देवोंके समान ही
हुआ करता है ।’ इस प्रकारसे कहने या वर्णन करनेका प्रयोजन यही है, कि यह सुख
अनन्योपम है । अर्थात् उसकी उपमा किसी दूसरेको नहीं दी जा सकती है । लोकमें जब
किसी चीज़की अति हो जाती है, तो उसके द्योतन करनेके लिए ऐसा ही कथन किया
अर्थात् पोत – पोताना विषयने अनुभवती स्पर्शनादि इन्द्रियो द्वारा सर्वांगीण (सर्व अंगोमां
व्यापक) हर्षरूपे प्रगट थयेलुं – (ते सुख छे).
वळी ते सुख राज्यादिना सुख जेवुं आतंक (चित्तक्षोभ) वाळुं हशे? ते आशंकाना
समाधानार्थे (आचार्य) कहे छे —
(ते सुख) अनातंक एटले जेमां आतंक एटले शत्रुआदिकृत चित्तक्षोभ न होय तेवुं
छे.
तथापि ते सुख शुं भोगभूमिमां उत्पन्न थयेला सुखनी माफक अल्प काल भोगववा
योग्य हशे? तेवी आशंका थतां (आचार्य) कहे छे —
(ते सुख) दीर्घ काल सुधी भोगववामां आवे छे; दीर्घ काल एटले सागरोपमथी
जणाता काल सुधी; उपलालित एटले आज्ञाकारी देव – देवीओ अर्थात् स्वर्गनी विलासिनीओ
द्वारा करवामां आवती सेवाओथी उत्कर्ष (वृद्धि) पामतुं (सुख).