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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पृच्छति — स्वर्गे गतानां किं फलमिति स्पष्टं गुरूत्तरयति —
हृषीकजमनातङ्कं दीर्घकालोपलालितम् ।
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ।।५।।
टीका — वत्स ! अस्ति, किं तत् ? सौख्यं शर्म । केषां ? नाकौकसां देवानां, न पुनः
स्वर्गेऽपि जातानामेकेन्द्रियाणां । क्व वसतां ? नाके स्वर्गे, न पुनः क्रीडादिवशाद्रमणीयपर्वतादौ ।
शिष्य पुनः कुतुहूलकी निवृत्तिके लिए पूछता है, कि ‘‘स्वर्गमें जानेवालोंको क्या फल मिलता
है ?’’ ।।४।।
इन्द्रियजन्य निरोगमय, दीर्घकाल तक भोग्य ।
स्वर्गवासि देवानिको, सुख उनही के योग्य ।।५।।
अर्थ — स्वर्गमें निवास करनेवाले जीवोंको स्वर्गमें वैसा ही सुख होता है, जैसा कि
स्वर्गमें रहनेवालों (देवों)को हुआ करता है, अर्थात् स्वर्गमें रहनेवाले देवोंका ऐसा अनुपमेय
(उपमा रहित) सुख हुआ करता है, कि उस सरीखा अन्य सुख बतलाना कठिन ही है । वह
सुख इन्द्रियोंसे पैदा होनेवाला, आंतकसे रहित और दीर्घ काल तक बना रहनेवाला होता है ।
आवतां शिष्य तेना फळनी जिज्ञासाथी गुरुने पूछे छे — ‘‘स्वर्गे जनाराओने शुं फळ मळे
छे?’’
आचार्य तेनो स्पष्ट रीते उत्तर आपतां कहे छेः —
इन्द्रियजन्य निरामयी, दीर्घकाल तक भोग्य,
भोगे सुरगण स्वर्गमां, सौख्य सुरोने योग्य. ५
अन्वयार्थ : — [नाके नाकौकसाम् ] स्वर्गमां वसनार देवोने जे [सौख्यं ] सुख होय
छे ते [नाके नाकौकसाम् इव ] स्वर्गमां रहेला देवोना जेवुं [हृषीकजं ] इन्द्रियजनित,
[अनातङ्कं ] आतंक (शत्रुआदि द्वारा उत्पन्न थनार दुःख) रहित, [दीर्घकालोपलालितं ] दीर्घ
काल सुधी (तेत्रीस सागर पर्यंत) भोगववामां आवे तेवुं होय छे.
टीका : — हे वत्स! छे. शुं ते? सुख – शर्म, कोने (छे)? स्वर्गमां वसता देवोने,
नहि के स्वर्गमां पण उत्पन्न थयेला एकेन्द्रिय जीवोने; क्यां वसता? स्वर्गमां, नहि के
क्रीडादिकना कारणे रमणीय पर्वतादिमां (वसता). शुं ते अतीन्द्रिय (सुख) छे? (उत्तरमां)
कहे छे – ‘ना’ इन्द्रियोथी उत्पन्न थयेलुं, इच्छानी अनन्तर इन्द्रियो द्वारा उपस्थित थयेलुं