कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ १३
अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन स्पष्टयन्नाह — य इत्यादि । यो वाहीको नयति, प्रापयति । किं ?
स्ववाह्यं भारं । कां, गव्यूतिं क्रोशयुगं । कथं, आशु शीघ्रं । स किं क्रोशार्द्धे स्वभारं नयन् सीदति
खिद्यते ? न खिद्यत इत्यर्थः । महाशक्तावल्पशक्तः सुघटत्वात् ।
अथैवमात्मभक्तेः स्वर्गगतिसाधनत्वेऽपि समर्थिते प्रतिपाद्यस्तत्फलजिज्ञासया गुरुं
श्लोककी नीचेकी पंक्तिमें उपरिलिखित भावको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं —
देखो जो भारको ढोनेवाला अपने भारको दो कोस तक आसानी और शीघ्रताके
साथ ले जा सकता है, तो क्या वह अपने भारको आधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा ?
नहीं । भारको ले जाते हुए खिन्न न होगा । बड़ी शक्तिके रहने या पाये जाने पर अल्प
शक्तिका पाया जाना तो सहज (स्वाभाविक) ही है ।
इस प्रकारसे आत्म-शक्तिको जब कि स्वर्ग-सुखोंका कारण बतला दिया गया, तब
आ ज अर्थने द्रष्टान्त द्वारा स्पष्ट करीने कहे छे – (य इत्यादि.....)
जे एटले भारवाहक लई जाय छे; शुं? पोताने ऊंचकवानो भार. क्यां सुधी?
बे कोश सुधी. केवी रीते? शीघ्र – जलदी; ते शुं पोताना भारने अर्धो कोश लई जतां खेद
पामशे? नहि खेद पामे – एवो अर्थ छे, कारण के महा शक्तिमां अल्प शक्तिनो (समावेश)
सारी रीते घटे छे – (अर्थात् महाशक्तिवाळाने अल्पशक्ति सहज होय छे).
भावार्थ : — जे शुद्धोपयोगरूप आत्मपरिणाममां मोक्षसुख प्राप्त करवानुं सामर्थ्य छे,
ते भूमिकामां रहेला शुभरागथी स्वर्गादिनी प्राप्ति सहज होय छे. जे माणस एक मणनो
बोजो बे कोश लई जई शके तेटली ताकातवाळो छे, ते शुं ते बोजो अर्धो कोश लई जतां
थाकी जशे? नहि ज थाके; तेवी रीते जे जीवे पूर्णताना लक्षे – मोक्षसुख माटे पुरुषार्थ आदर्यो
छे, तेने शुं स्वर्गादिनी प्राप्ति मुश्केल छे? ना; ते सुलभ ज छे.
जे जीव चरमशरीरी छे, एटले के ते भवे ज मोक्ष प्राप्त करवानी लायकातवाळो
छे, तो आत्मध्यानादिना उग्र पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष सुख पामे छे, परंतु जे जीवो
अचरमशरीरी छे — एटले के ते भवे मोक्ष प्राप्त करी शके तेम नथी, तेओ अरिहंत
सिद्धरूपे पोताना आत्मानुं ध्यान करी ते भूमिकामां जे पुण्य उपार्जन करे छे, तेना
फळस्वरूप तेमने स्वर्ग – चक्रवर्त्यादिनी विभूति प्राप्त थाय छे. ए रीते आत्मध्यानादिथी
भुक्ति अने मुक्तिनी प्राप्ति थाय छे. ४
ए रीते आत्मभक्तिमां स्वर्गगतिनुं पण साधनपणुं छे एवुं समर्थन करवामां