Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 12 of 146
PDF/HTML Page 26 of 160

 

background image
१२ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भावकाय भव्यायेति शेषः तस्यात्मविषयस्य शिवदानसमर्थस्य द्यौः स्वर्गः कियद्ररवर्तिनी ?
कियदूरे किंपरिमाणे व्यवहितदेशे वर्तते ? निकट एव तिष्ठतीत्यर्थः स्वात्मध्यानोपात्तपुण्यस्य
तदेकफलत्वात् तथा चोक्तं [तत्त्वानुशासने ]
गुरुपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितैः
अनंतशक्तिरात्मायं भुक्तिं मुक्तिं च यच्छति ।।१९६।।
ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमांगस्य मुक्तये
तद्व्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ।।१९७।।
मोक्ष देनेमें समर्थ आत्मपरिणामके लिए स्वर्ग कितनी दूर है ? न कुछ वह तो उसके
निकट ही समझो अर्थात् स्वर्ग तो स्वात्मध्यानसे पैदा किये हुए पुण्यका एक फलमात्र
है ऐसा कथन अन्य ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है तत्त्वानुशासनमें कहा है :
‘‘गुरुपदेशमासाद्य’’
‘‘गुरुके उपदेशको प्राप्त कर सावधान हुए प्राणियोंके द्वारा चिन्तवन किया गया यह
अनन्त शक्तिवाला आत्मा चिंतवन करनेवालेको भुक्ति और मुक्ति प्रदान करता है इस
आत्माको अरहंत और सिद्धके रूपमें चिंतवन किया जाय, तो यह चरमशरीरीको मुक्ति
प्रदान करता है और यदि चरमशरीरी न हो तो उसे वह आत्म-ध्यानसे उपार्जित पुण्यकी
सहायतासे भुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्त्यादिके भोगों)को प्रदान करनेवाला होता है
’’
आत्मभावने स्वर्ग केटलुं दूर? केटले दूर एटले केटले छेटे आवेला प्रदेशे वर्ते? निकट ज
रहे
एवो अर्थ छे, कारण के स्वात्मध्यान साथे उपार्जित पुण्यनुं ते एक फळ छे.
वळी, तत्त्वानुशासनमां कह्युं छे केः
‘गुरुनो उपदेश प्राप्त करी सावधान थयेला प्राणीओ द्वारा ध्याववामां आवेलो आ
अनंतशक्तिवाळो आत्मा (आत्मध्यान करनारने) भुक्ति (भोगो) अने मुक्ति प्रदान करे
छे.’......(श्लो. १९६).
‘आ आत्मा, अरिहंत अने सिद्धना रूपे चिंतववामां (ध्याववामां) आवतां, चरम
शरीरीने मुक्ति प्रदान करे छे अने तेना ध्यान साथे पुण्य उपार्जित करनार अन्यने ते
भुक्ति (अर्थात् स्वर्ग, चक्रवर्त्यादिना भोगो) प्रदान करे छे.’.......(श्लो. १९७).