Ishtopdesh-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 4.

< Previous Page   Next Page >


Page 11 of 146
PDF/HTML Page 25 of 160

 

background image
समाधानशंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले, ‘‘व्रतादिकोंका आचरण
करना निरर्थक नहीं है ’’ (अर्थात् सार्थक है) इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म-भक्तिको
अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है इसी कथनकी पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते
हैंः।।।।
आत्मभाव यदि मोक्षपद, स्वर्ग है कितनी दूर
दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर ।।।।
अर्थआत्मामें लगा हुआ जो परिणाम भव्य प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करता है, उस
अत्राप्याचार्यः समाधत्तेतदपि नेति न केवलं व्रतादिनामानर्थक्यं न भवेत् किं तर्हि
तदप्यात्मभक्त्यनुपपत्तिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यर्थः यतः
यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी
यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ।।।।
टीकायत्रात्मनि विषये प्रणिधानं, भावः कर्त्ता, दत्ते प्रयच्छति किं ? तच्छिवं मोक्षं,
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११
अहीं पण आचार्य समाधान करे छे
ते पण नथी, कारण के व्रतादिनी निष्फळता नहि बने, एटलुं ज नहि परंतु तेम
छतां तुं जे आत्मभक्तिने अयुक्त बतावे छे ते पण ठीक नथी, एवो अर्थ छे, कारण
के
आत्मभावथी मोक्ष ज्यां, त्यां स्वर्ग शुं दूर,
भार वहे जे कोश बे, अर्ध कोश शुं दूर. ४.
अन्वयार्थ :[यत्र ] ज्यां [भावः ] आत्मभाव (भव्य जीवोने) [शिवं ] मोक्ष
[दत्ते ] आपे छे, [तत्र ] त्यां [द्यौः ] स्वर्ग [कियद्दूरवर्तिनो ] केटलुं दूर छे? (कंई दूर नथी
अर्थात् नजीक छे). [यः ] जे (मनुष्य) भारने [गव्यूतिं ] बे कोश सुधी [आशु ] जलदी
[नयति ] लई जाय छे, [सः ] ते (मनुष्य) ते भारने [क्रोशार्धे ] अर्धो कोश लई जतां [किं
सीदति ] शुं थाकी जशेखिन्न थशे? (ना, खिन्न थशे नहि).
टीका :ज्यां एटले आत्मविषयमां भाव(आत्मध्यान) आपे छेप्रदान करे छे;
भव्य जीवने शिव एटले मोक्ष (आपे छे). मोक्ष प्रदान करवामां समर्थ ते