समाधान — शंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले, ‘‘व्रतादिकोंका आचरण
करना निरर्थक नहीं है ।’’ (अर्थात् सार्थक है) इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म-भक्तिको
अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है । इसी कथनकी पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते
हैंः — ।।३।।
आत्मभाव यदि मोक्षपद, स्वर्ग है कितनी दूर ।
दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर ।।४।।
अर्थ — आत्मामें लगा हुआ जो परिणाम भव्य प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करता है, उस
अत्राप्याचार्यः समाधत्ते — तदपि नेति न केवलं व्रतादिनामानर्थक्यं न भवेत् किं तर्हि
तदप्यात्मभक्त्यनुपपत्तिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यर्थः । यतः —
यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी ।
यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ।।४।।
टीका — यत्रात्मनि विषये प्रणिधानं, भावः कर्त्ता, दत्ते प्रयच्छति । किं ? तच्छिवं मोक्षं,
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ११
अहीं पण आचार्य समाधान करे छे —
ते पण नथी, कारण के व्रतादिनी निष्फळता नहि बने, एटलुं ज नहि परंतु तेम
छतां तुं जे आत्मभक्तिने अयुक्त बतावे छे ते पण ठीक नथी, एवो अर्थ छे, कारण
के —
आत्मभावथी मोक्ष ज्यां, त्यां स्वर्ग शुं दूर,
भार वहे जे कोश बे, अर्ध कोश शुं दूर. ४.
अन्वयार्थ : — [यत्र ] ज्यां [भावः ] आत्म – भाव (भव्य जीवोने) [शिवं ] मोक्ष
[दत्ते ] आपे छे, [तत्र ] त्यां [द्यौः ] स्वर्ग [कियद्दूरवर्तिनो ] केटलुं दूर छे? (कंई दूर नथी
अर्थात् नजीक छे). [यः ] जे (मनुष्य) भारने [गव्यूतिं ] बे कोश सुधी [आशु ] जलदी
[नयति ] लई जाय छे, [सः ] ते (मनुष्य) ते भारने [क्रोशार्धे ] अर्धो कोश लई जतां [किं
सीदति ] शुं थाकी जशे – खिन्न थशे? (ना, खिन्न थशे नहि).
टीका : — ज्यां एटले आत्मविषयमां भाव – (आत्मध्यान) आपे छे – प्रदान करे छे;
भव्य जीवने शिव एटले मोक्ष (आपे छे). मोक्ष प्रदान करवामां समर्थ ते